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गांधी का भारत कहां है ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
महात्मा गांधी के जन्म का डेढ़ सौवां साल अब शुरु होनेवाला है। उन्हें गए हुए भी सत्तर साल हो गए लेकिन मन में सवाल उठता है कि भला गांधी का भारत कहां है ? ऐसा नहीं है कि पिछले 70-71 वर्षाों में भारत ने कोई प्रगति नहीं की है। प्रगति तो की है और कई क्षेत्रों में की है लेकिन किसी नकलची या पिछलग्गू की तरह की है। इस प्रगति में भारत की अपनी मौलिकता कहां है ? भारत ने शिक्षा, स्वास्थ्य, खान-पान, रहन-सहन, रख-रखाव, निजी और सामाजिक बर्ताव में या तो साम्यवाद की नकल की है या पूंजीवाद की ! नेहरु-काल में हमारे नेताओं पर रुस का नशा सवार था और उसके बाद अमेरिकी पद्धति के पूंजीवाद ने भारतीय मन-मस्तिष्क पर कब्जा जमा लिया है। गांधी के संपनों का भारत अब तो किताबों में बंद है और किताबें अल्मारियों में बंद हैं। देश में अब कोई गांधी तो क्या, विनोबा, लोहिया और जयप्रकाश-जैसा भी दिखाई नहीं पड़ता। हां, फर्जी गांधियों की बल्ले-बल्ले है। हमारी अदालतें समलैंगिकता और व्यभिचार पर प्रश्न-चिन्ह लगाने की बजाए उन्हें खुली छूट दे रही हैं। हमारी संसद थोक वोटों के लालच में पीड़ितों को ऐसे अधिकार बांट रही है कि वे परपीड़क बन जाए। दलितों को अनंत-काल तक दलित बनाए रखने में ही उनका स्वार्थ सिद्ध होता है। देश में आज नेता कौन है ? नेता का अर्थ होता है, जो नयन करे याने जिसका आचरण अनुकरण के योग्य हो। क्या कोई नेता है, ऐसा, आज हमारे पास ? नोट और वोट के लिए लड़ मरनेवाले लोग हमारे नेता हैं। गांधी की तरह सत्य के लिए मर मिटना तो दूर, सत्य के लिए लड़नेवाले तो क्या, सत्य बोलनेवाले नेता भी हमारे पास नहीं हैं। सारे दक्षिण एशिया के देशों याने प्राचीन आर्यावर्त्त को जोड़ने की कोशिश तो उनकी बुद्धि के परे हैं लेकिन वर्तमान खंडित भारत के मन को भी उन्होंने खंड-खंड कर दिया है। वे जातिवाद, सांप्रदायिकता, आर्थिक विषमता, नशाखोरी और अंग्रेजी की गुलामी को दूर करने के प्रति भी सचेष्ट दिखाई नहीं पड़ते। अगर, ईश्वर न करे, गांधी आज भारत में पैदा हो जाएं तो क्या वे अपना माथा नहीं कूट लेंगे?

विशेषणों से बहुत परे थे लाल बहादुर शास्त्री
मनोहर पुरी
भारतीय स्वाभिमान के सजग प्रहरी, अद्वितीय देशभक्त,मानवता के लिए समर्पित शान्तिदूत, कुशल प्रशासक, मानवीय मूल्यों की आदर्श प्रतिमूर्ति, उत्कृष्ट राजनेता, निष्काम कर्मयोगी, भारतीय अस्मिता के रक्षक, निपुण वार्ताकार, ईमानदारी, सादगी, सत्यनिष्ठा और सहिष्णुता के प्रतीक लाल बहादुर शास्त्री वास्तव में भारतीय संस्कृति की अच्छाइयों की जीती जागती प्रतिमा थे। शायद वह विश्व के एकमात्र ऐसे बड़े राजनेता थे जिनके लिए उपरोक्त विशेषण पूरे नहीं बैठते न जाने कितने ही और विशेषण उनके नाम के साथ जोड़े जा सकते हैं। उनके बाद भी उनके चरित्र की पूरी तस्वीर उभर कर सामने आयेगी इसमें सन्देह ही है। विनम्रता उनके भीतर कूट कूट कर भरी थी। उन्होंने राष्ट्र के लिए निरन्तर काम किया और देशहित के लिए जीवन के अन्तिम क्षण तक जुटे रहे। शान्त स्वभाव और राष्ट्र के प्रति उनके शालीन और निश्छल प्रेम ने उन्हें सर्वप्रिय अजातशत्रु बना दिया था। मन,वचन और कर्म से वह पूरी तरह शुद्ध थे और उनका जीवन एक सतत यज्ञ के समान था।
सर्वथा विपरीत परिस्थितियों में साधना और संकल्प के सहारे नीचे से निरन्तर उठते उठते भारत के प्रधनमंत्री के पद तकपहुंचने वाले लाल बहादुर शास्त्री का जन्म 2 अक्टूबर,1904 को उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले के मुगलसराय में श्री शारदा प्रसाद व श्रीमती राम दुलारी देवी के घर में हुआ। उनके पिता इलाहाबाद में राजस्व कार्यालय में एक मामूलीक्लर्क थे। उनके पिता का देहान्त उस समय हो गया जब उनकी आयु मात्र डेढ़ वर्ष की ही थी। शास्त्री जी का बाल्यकाल निर्धनता के वातावरण में गुजरा। श्रीमती रामदुलारी लाल बहादुर और उनकी दोनों बहिनों के साथ अपने मायके राम नगर चलीं आईं। यहां पर अनेक आर्थिक कठिनाईयों का सामना करते हुए उन्होंने अपने तीनों बच्चों का लालन पालन किया। परिस्थितियों की भयावता के कारण निर्धनता की भयंकरता का बोध इन्हें बचपन में ही हो गया था। उन्होंने दूर के एक रिश्तेदार के यहां रह कर शिक्षा प्राप्त की। एक प्रकार से यह वहां एक नौकर की भान्ति रहते थे। अपने विद्यार्थी जीवन में भी उन्हें अपने लिए स्वयं अर्जन करना होता था। सन् 1921 ई. में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन कोमजबूत करने के लिए शास्त्री जी स्कूल छोड़ कर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े और जेल गए। ढाई वर्ष पश्चात जेल से छूटने के बाद इन्होंने काशी विद्यापीठ से पुन अध्यापन कर शास्त्री की उपाधि प्राप्त की और लाल बहादुर शास्त्री बन गए।
शास्त्री जी का विवाह मई 1928 ई. में मिर्जापुर की रहने वाली ललिता देवी के साथ हुआ। शास्त्री जी के आदर्शों को व्यवहारिक रुप देने का श्रेय इन्हें ही जाता है। विवाह के समय अपने आदर्शों पर चलते हुए शास्त्री जी ने दहेज के रूप में कुछ भी लेने से इंकार कर दिया। ससुराल पक्ष द्वारा बहुत अधिक अनुरोध करने पर उन्होंने एक चरखा और कुछ गज खादी लेना स्वीकार किया। स्वाधीनता आन्दोलन में भाग लेने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति बहुत ही नाजुक हो गई और कई महीनें तक उन्हें एक वक्त भोजन करके गुजारा करना पड़ा। उनके एक बच्चे का देहान्त इसलिए हो गया क्योंकि उनके पास डाक्टर को देने के लिए पैसे नहीं थे।
सन् 1017 में चम्पारन सत्याग्रह, 1918 के कर न देने के अभियान और 1919 में जलियांवाला बाग कांड ने शास्त्रीजी की मानसिक सोच पर गहरा प्रभाव डाला। जब सन् 1921 में महात्मा गांधी ने सविनय अवज्ञा तथा असहयोग आन्दोलन के लिए देशवासियों का आह्वान किया तो शास्त्री जी अल्पायु में ही आन्दोलन में कूद पड़े। यहीं से शास्त्री जीकी राजनीतिक यात्रा का प्रारम्भ हुआ। सन् 1926 में पढ़ाई पूरी करने के पश्चात जब वह लोकसेवक संघ के आजीवनसदस्य बने तो उन्होंने मुजफ्फरनगर में हरिजन उद्धार के लिए कार्य करना शुरू किया। 1928 में उन्होंने इलाहाबाद को अपनी कर्मभूमि बनाया। वह इलाहाबाद म्युनिसिपल बोर्ड के सात वर्षों तक सदस्य रहे। 1930 से 1936 ई. तक जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष पद पर रहे। उन्होंने सात बार की जेल यात्राओं में नौ वर्ष की अवधि व्यतीत कीं। प्रान्तों को स्वायतता देने के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा जब 1937 ई. में विधान सभाओं के गठन का अधिनियम पारित किया गया तो वह उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य निर्वाचित हुए । देश के स्वतंत्र होने पर जब राज्य सरकारों का गठन हुआ तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के गृह और यातायात मंत्री का कार्य भार संभाला। शास्त्री जी अपने वेतन का एक भाग नियमित रूप से सोसायटी को देते रहे।
लाल बहादुर शास्त्री एक विलक्षण विवेक के स्वामी थे तथा राजनीति की सीमाओं को पूरी तरह से जानते थे। संविधान के विषय में उनके विचार बहुत स्पष्ट थे। शास्त्री जी की ईमानदारी ,कार्यकुशलता और राजनीतिक सूझबूझ से प्रभावित हो कर पंड़ित जवाहर लाल नेहरु ने 1952 में होने वाले आम चुनाव का पूरा दायित्व उन्हें सौंप दिया। उन्होंने पूरी लगन के साथ सम्पूर्ण देश के व्यापक चुनाव अभियान का संचालन किया। उन्हें अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का महासचिव नियुक्त किया गया। उन्हें राज्य सभा की सदस्यता प्रदान करके केन्दीय मंत्रीमंड़ल में रेल एवं परिवहन मंत्री का पदभार सौंपा गया। एक संसदविद् के रूप में वह स्पष्ट वक्ता,अलोचक और मजबूत विपक्ष के पक्षधर थे।
नवम्बर 1956ई. में अश्यालूर में हुई भीषण रेल दुर्घटना का सारा दायित्व स्वयं पर लेते हुए उन्होंने मंत्री पद से त्यागपत्र दे दिया। दूसरी लोकसभा के चुनाव में वह इलाहाबाद से निर्वाचित हुए। लाल बहादुर शास्त्री ने परिवहन,यातायात और उद्योग जैसे विभागों के प्रभारी मंत्री के रूप में सफलतापूर्वक कार्य किया। श्री गोविन्द वल्लभ पन्त के निधन के उपरान्त अप्रैल 1961 ई. में वह स्वराष्ट् मंत्री बने। मई 1964 ई. में नेहरु जी के निधन के पश्चात श्री लाल बहादुर शास्त्री ने भारत के दूसरे प्रधान मंत्री के रूप में कार्य भार संभाला। वह इस पद पर अपनी मृत्यु पर्यन्त 11 जनवरी 1966 तक बने रहे। देश के लिए समर्पित व्यक्तित्व के धनी शास्त्री जी ने अपने प्रधान मंत्री काल की 18 मास की छोटी सी अवधि में समाज और देश की सेवा में दिन रात कार्य किया।
भारत के दूसरे प्रधान मंत्री के रूप में उनका कार्य अद्वितीय रहा। पंडित नेहरू की ही भान्ति शास्त्री जी का भी गुट निरपेक्षता की नीति में पूरा विश्वास था। भारत की विदेश नीति को मजबूत करने के लिए उन्होंने विश्व के अनेक देशों की यात्रा की। वह मानते थे कि विश्व को शान्तिपूर्वक ढंग से रहने के लिए सह-अस्तित्व की भावना का विकास करना बहुत ही आवश्यक है।
देश पर आये संकट का सामना करने के लिए उन्होंने जय जवान जय किसान का नारा दिया और उसका चमत्कारी प्रभाव देखने को मिला। उनके अनुसार जवान और किसान देश के विकास के दो महत्वपूर्ण स्तम्भ होते हैं। जवान सीमा पर जूझता हुआ देश की सीमाओं की रक्षा करता है तो किसान खेतों में दिन रात परिश्रम करके देशवासियों का भरण पोषण करता है। उनका विश्वास था कि कृषि में सुधार करके ही ग्रामवासियों की समृद्धि के स्वप्न को पूरा किया जा सकता है। इसीलिए उन्होंने चौथी पंचवर्षीय योजना में कृषि को प्राथमिकता प्रदान की। लाल बहादुर शास्त्रीजी आत्म विश्वास का दूसरा नाम था। सन् 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर हमला किया। शास्त्री जी द्वारा सेना के अधिकारियों को पूरे अधिकार दिए गए। इस युद्ध में पाकिस्तान बुरी तरह से पराजित हुआ।
युद्ध विराम के बाद सोवियत संघ ने मध्यस्थता करते हुए दोनों देशों के प्रमुखों को ताशकन्द में आने का निमंत्रण दिया। दोनों के मध्य समझौता हुआ। ताशकन्द में 11 जनवरी 1966 ई. को दिल का दौरा पड़ने से उनका स्वर्गवास हो गया। 18 मास के अपने शासन काल में शास्त्री जी एक चरित्रवान व सहज बोध वाले व्यक्ति के रूप में उभरे। इस समय देश की राजनीति ने सम्मान, अखण्डता और गति प्राप्त की। वह विश्व के सबसे बड़े लोकतत्र के नेता थे परन्तु उनकी दुष्टि में प्रधानमंत्री ”केवल समान लोगों में प्रथम,दल का कप्तान,नीतियों को लागू करने वाला तथा इसके अतिरिक्त कुछ नहीं था।“यदि कबीर के शब्दों में कहा जाए तो शास्त्री जी ने चदरिया पर एक भी दाग नहीं लगने दिया और ज्यों की त्यों धर दीन्ही चदरिया का अद्भुत उदाहरण विश्व के सम्मुख प्रस्तुत किया।

‘‘आधार’’ कहीं आधार तो कहीं निराधार!
ऋतुपर्ण दवे

अब ‘आधार’ कानूनों में उलझनों की लड़ाई जीतकर संवैधानिक हो गया है। यकीनन निगरानी और निजता को लेकर खूब सुर्खियों में था, आगे भी रहेगा। सच यही है कि ‘आधार’ प्रक्रिया में अपनाई जाने वाली वैज्ञानिक तकनीक से देश की ज्यादातर आबादी इतने बड़े फैसले के बाद भी बिल्कुल बेखबर है। इसी 26 सितंबर बुधवार को सुप्रीम कोर्ट के आए ऐतिहासिक फैसले ने इसकी संवैधानिकता पर मुहर तो जरूर लगा दी लेकिन हकीकत यह है कि अब ‘आधार’ कार्ड कई मायनों में एक पहचान पत्र बनकर रह गया है। 5 जजों चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस एके सीकरी, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड और जस्टिस अशोक भूषण की संविधान पीठ ने सुनवाई की। इस पूरे मामले कुल 38 सुनवाई हुई जो इसी साल 17 जनवरी से शुरु हुई थी।
इसमें जस्टिस डीवाई चन्द्रचूड़ की टिप्पणी “ ‘आधार’ ने इंसान की बहुतलावदी पहचान को नकार दिया और उसे केवल 12 अंकों में सीमित कर दिया” बेहद तल्ख थी। देश की सुप्रीम अदालत ने यह भी आदेश दिया कि ‘आधार’ कहां जरूरी है और कहां नहीं। जहां स्कूलों में दाखिले के लिए ‘आधार’ की अनिवार्य जरूरी नहीं है वहीं कोई भी मोबाइल कंपनी ‘आधार’ कार्ड की मांग नहीं कर सकती है। जस्टिस एके सीकरी ने कहा कि ‘आधार’ कार्ड की ड्यूप्लिकेसी संभव नहीं है और इससे गरीबों को ताकत मिली है। वहीं फैसले में कहा गया, ‘शिक्षा हमें अंगूठे से दस्तखत पर लाती है और तकनीक हमें वापस अंगूठे के निशान पर ले जा रही है।’ इस फैसले के निश्चित रूप से राजनीति पार्टियां अपने-अपने मायने और नफा-नुकसान निकालेंगी लेकिन ‘आधार’ को लेकर उलझनें और भ्रम जरूर छटेगा। अब इस पर सियासी दंगल थमेगा या नया मोड़ लेगा यह आगे दिखेगा।
‘आधार’ की वैधता को 2012 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देने वाले कर्नाटक हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज जस्टिस केएस पुट्टास्वामी थे। 2010 में मनमोहन सिंह की यूपीए-1 सरकार में इसे जब लान्च किया तो उन्होंने ही इसे निजता का हनन बताकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया था। वो अब 92 साल के हैं जिन्होंने निश्चित रूप से एक ऐतिहासिक कानूनी लड़ाई लड़ी। बाद में कई और जनहित याचिकाएं भी दाखिल हुई और सभी को एक साथ जोड़कर सुनवाई चली। ‘आधार’ को लेकर कई रोचक आरोप-प्रत्यारोप भी चले। बात निजता के हनन से इसके डेटा लीक और चुनावों में उपयोग तक पहुंची। अमेरिका के चुनावों में फेसबुक और कैंब्रिज एनालिटिका विवाद जैसी घटनाओं की संभावनाएं ‘आधार’ में तलाशे जाने लगीं।
संभवतः फैसले के बाद ‘आधार’ संवैधानिकता पर सवाल भी नहीं उठेंगे और जहां मोबाइल सिम लेने, स्कूल में बच्चों के एडमीशन, मोबाइल वॉलेट में केवायसी, बैंक में खाता खोलने, सीबीएसई, यूजीसी और नीट जैसी परीक्षाओं में, म्युचल फण्ड और शेयर मार्केट में केवायसी के लिए जरूरी नहीं होगा वहीं 14 साल से कम उम्र के बच्चों का ‘आधार’ नहीं होने पर उन्हें सरकारी योजनाओं से वंचित नहीं किया जा सकेगा। लेकिन पैन कार्ड बनवाने में ‘आधार’ कार्ड जरूरी होगा क्योंकि इसमें लिंक कराने से वित्तीय स्थितियों के लाभ के लिए यह उपयोगी होगा आयकर रिटर्न्स दाखिल करने के लिए भी ‘आधार’ का पैन से लिंक होना जरूरी है। सरकारी लाभकारी योजनाओं में ‘आधार’ का लिंक होना जरूरी है और सब्सीडी आधारित योजनाओं में भी इसे जरूरी बनाया गया है। ‘आधार’ एक्ट के सेक्शन 57 को रद्द कर दिया गया है क्योंकि यह प्राइवेट कंपनियों के साथ डेटा साझा करने की इजाजत देता था। जहां 5 जजों की बेंच ने माना कि ‘आधार’ संवैधानिक रूप से वैध है. कोर्ट के फैसले का मतलब है कि टेलीकॉम कंपनियां, ई-कॉमर्स कंपनियां, प्राइवेट बैंक और दूसरी ऐसी कंपनियां सर्विसेज के लिए ग्राहकों से बायोमैट्रिक और दूसरे डेटा नहीं मांग सकेंगी।
हालाकि केंद्र ने ‘आधार’ योजना का बचाव किया था कि जिनके पास ‘आधार’ नहीं है उन्हें किसी भी लाभ से बाहर नहीं रखा जाएगा। ‘आधार’ सुरक्षा के उल्लंघन के आरोपों पर केंद्र ने कहा था कि डेटा सुरक्षित है और इसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता। केंद्र ने यह भी तर्क रखा कि ‘आधार’ समाज के कमजोर और हाशिए वाले वर्गों के अधिकारों की रक्षा करता है और उन्हें बिचौलियों के बिना लाभ मिलते हैं और ‘आधार’ ने सरकार के राजकोष में 55000 करोड़ रुपये बचाए हैं। लेकिन इसमें कितने ऐसे लोग होंगे जो ‘आधार’ के बिना योजना का लाभ लेने से वंचित रह गए होंगे या फिर ‘आधार’ सत्यापन मशीनें उनके हाथ के निशानों को नहीं पढ़ पा रही होंगी? वहीं अब भी कई सामाजिक कार्यकर्ताओं और ‘आधार’ को चुनौती देने वालों का यह भी आरोप है कि ‘आधार’ के बिना राजस्थान, झारखण्ड और अन्य जगहों पर कई लोगों की योजनाओं का लाभ न ले पाने से मृत्यु हुई है, इसके डेटा कहां हैं? ‘आधार’ को लेकर जाने-माने बुध्दिजीवी और बंगाल के पूर्व राज्यपाल गोपाल कृष्ण गांधी का हालिया विश्लेषण चर्चाओं में रहा जिसमें उन्होंने कहा था कि सूचना का अधिकार कानून ने जनता को सरकार के हर कदम पर निगरानी रखने का अधिकार और जरिया दे दिया है। लेकिन कहीं ऐसा न हो कि ‘आधार’ कानून के जरिए सरकार हर नागरिक पर निगरानी की व्यवस्था बना दे। अब सब कुछ साफ है लेकिन ‘आधार’ कहीं ‘आधार’ तो कहीं निराधार जरूर हो गया।

कानून बड़ा है या नैतिकता ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने इतने महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक साथ फैसले दे दिए हैं कि उन सब पर एक साथ टिप्पणी कैसे की जाए ? आधार, अनुसूचितों की पदोन्नति, मस्जिद और नमाज़ तथा विवाहेतर शारीरिक संबंधों की छूट आदि ऐसे गंभीर और उलझे हुए मामले हैं कि इन पर सर्वसम्मति होनी काफी मुश्किल है। अदालत के फैसलों को लोग मान ही लें, यह जरुरी नहीं है। सैकड़ों कानून ऐसे हैं, जो बस हैं, इससे ज्यादा कुछ नहीं। उनका पालन उनके उल्लंघन द्वारा होता है। कुछ मामले ऐसे हैं, जिनके बारे में कोई कानून नहीं है लेकिन उनका पालन किसी भी कानून से ज्यादा होता है। इसीलिए सदियों से दार्शनिक लोग इस प्रश्न पर सिर खपाते रहे हैं कि कानून बड़ा है या नैतिकता ? लोग कानून को ज्यादा मानते हैं या नैतिकता को ? कानून के उल्लंघन पर सजा तभी मिलती है, जबकि आप पकड़े जाएं और आपके विरुद्ध अपराध सिद्ध हो जाए लेकिन अनैतिक कर्म की सजा से वे ही डरते हैं, जो भगवान के न्याय में या कर्मफल में विश्वास करते हैं। अब हमारे सर्वोच्च न्यायालय ने द्विपक्षीय सहमति से होनेवाले काम-संबंध की छूट दे दी है। इसे कानून और नीतिशास्त्रों में अभी तक व्यभिचार कहा जाता रहा है। अदालत का जोर सहमति शब्द पर है। सहमति याने रजामंदी। क्या विवाह अपने आप में सतत और शाश्वत सहमति नहीं है ? यदि पति-पत्नी इस रजामंदी को जब चाहें, तब भंग करके किसी के साथ भी सहवास करें तो परिवार नाम की संस्था तो जड़ से उखड़ जाएगी। व्यभिचार करने पर जो छूट पुराने ब्रिटिश कानून में सिर्फ औरतों को थी, उसे रोकने की बजाय अब हमारी अदालत ने वह छूट पुरुषों को भी दे दी है। इसके अलावा अनुसूचितों में संपन्नों और सुशिक्षितों (मलाइदार तबकों) को आरक्षण से बाहर रखने का फैसला उचित है। मोबाइल सिम, स्कूल, बैंक, परीक्षा आदि के लिए आधार की अनिवार्यता खत्म करके अदालत ने उसकी स्वीकार्यता बढ़ा दी है। नागरिकों की निजता भी ‘आधार’ से भंग न हो, इस पर अदालत ने पूरा जोर दिया है। नमाज पढ़ने के लिए मस्जिद का होना जरुरी है या नहीं, इस प्रश्न को भी अदालत ने अयोध्या-विवाद से अलग कर दिया है। आश्चर्य है कि जिन मसलों पर संसद में खुली बहस के बाद कानून बनाया जाना चाहिए और जिन पर आम जनता की राय को सर्वाधिक महत्व दिया जाना चाहिए, उन मसलों पर भी पांच-सात जज लोग अपना फतवा जारी कर देते हैं। इन फतवों को जागरुक नागरिक चुनौती दें, यह भी जरुरी है।

मध्य प्रदेश में कांग्रेस भा.ज.पा. एक जैसी…!
नईम कुरेशी
कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी में मध्य प्रदेश में कोई खास फर्क दिखाई ही नहीं देता। यहां के सम्पन्न ऊँची जाति के परिवारों में 4 लड़कों में से एक को कांग्रेस में दूसरे को भा.ज.पा. में भेजने की परम्परा देखी जा रही है। तीसरे को ठेकेदार या अफसर बनाया जाता है जिससे सम्पन्न परिवार वाले हमेशा सत्ता के लाभ से मजे करते रहते हैं।
मध्य प्रदेश में 60 के दशक में तो कश्मीर से भी मुख्यमंत्री लाये जाते थे व कांग्रेस में आज भी फर्जी नेता पैराशूट से उतर कर टिकट पा जाते हैं। विधायक सांसद बनकर अपनी कोठियों में महलों में घुस जाते हैं। कार्यकर्त्ताओं से उन्हें कुछ लेना देना नहीं रहता। बहुजन समाज पार्टी से टिकट खरीदकर 14-15 हजार वोट लाकर ऐसे नेता कांग्रेस के वोट बैंक में सेंध लगाते हैं फिर हारकर कांग्रेस में शामिल होते देखे जाते हैं। बस अपने कांग्रेसी आका के लिये अखबारों में एक दो लाख के विज्ञापन व होर्डिंग जरूर लगवा देते हैं। आला कमान ने कभी भी इस तरफ नहीं देखा जिससे आज कांग्रेस में महज कुछ भीड़ ही है। विचार व कार्यक्रम तो 30 सालों से गायब ही हैं।
ये जरूर है कि इस बार सत्ता विरोधी आक्रोश का उसे जरूर कुछ लाभ मिल सकता है। बेरोजगारी जैसे दैत्य को भी सत्ता विरोधी आंधी में बदला जा सकता था। पेट्रोल, डीजल की बढ़ती कीमतें भी केन्द्र सरकार व राज्य सरकार पर भारी पड़ने वाली हैं। कानून व्यवस्था के लिये लाचार कर दी गई पुलिस के इंतजाम दलित व गरीबों पर हो रहे अत्याचारों महलाओं की सरेआम लूटी जा रहीं आबरू भी सत्ता का विरोध बढ़ा सकती हैं पर फिर भी कांग्रेस के पास कार्यकर्त्ता व विचार न होने से उसे सत्ता के सिंहासन पर चढ़ने में मुश्किलें जरूर होंगी पर फिर भी उसे आम लोगों की परेशानी के चलते सत्ता मिल सकती है।
सत्ता मिलते ही कांग्रेस व उनके लगभग सभी नेतागण सामंत बन बैठते हैं। रेलवे स्टेशनों व हवाई अड्डों पर वो भीड़ बुलवाकर अपना स्वागत कराना बन्द नहीं करते। वो अभी भी सामंती शैली छोड़ने को तैयार नहीं हैं। दो बार मुख्य रहे श्यामाचरण शुक्ल तीसरी बार छत्तीसगढ़ में चुनावों में एक संत पवन दीवान से चुनाव हार चुके थे जबकि उनके पिताश्री भी मुख्यमंत्री थे पर श्यामा भइया भी सामंती विचारों के थे। जनता ने उन्हें धूल चटा दी थी। कांग्रेस के नेता ज्ञानेन्द्र शर्मा के अनुसार छत्तीसगढ़ में मतदाताओं के दम पर ही कांग्रेस म.प्र. में सत्ता में आती रही है। दलितों, आदिवासियों के इस सूबे में भले ही 12-15 लोग वजीरों की कुर्सियों के मालिक रहे थे फिर भी एक गुप्तकर्त्ता के हवलदार, थानेदार की गलत रिपोर्ट पर मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने आदिवासी मंत्री को बर्खास्त कर दिया था। अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश में सबसे ज्यादा अच्छे प्रशासक व दलित अल्पसंख्यकों के समर्थक रहे थे पर अन्य कांग्रेसी नेताओं की जमीन ही नहीं थी। वो तो पैराशूटों से ही उतारे जाते रहे हैं।
मध्य प्रदेश में भा.ज.पा. व कांग्रेस वाले दोनों भ्रष्टाचार करने में बराबर देखे जाते हैं। खनिज लूटने भा.ज.पा. वालों ने कांग्रेसियों को पीछे छोड़ दिया व जातिवाद फैलाने में दलित महिला अत्याचारों में भी भा.ज.पा. वाले आगे माने जाते हैं। अल्पसंख्यक मुस्लिम मदरसों में शिक्षकों को प्रदेश सरकार 2 सालों से केन्द्र से मिलने वाली महज 6 हजार रुपये का वेतन भी नहीं दिला पा रही है। 14 सालों से उर्दू के शिक्षकों की भर्ती बंद करा दी गई हैं और तो और उर्दू भाषा जो प्यार व मोहब्बत की भाषा मानी जाती है उसके साथ संघ परिवार जंग लड़ रहा है। ग्वालियर के के.आर.जी. महिला कॉलेज में उर्दू का शोध संस्थान बन्द करा दिया गया है। ऐसा आरोप कोई कांग्रेस नेता नहीं लगा रहा है। ये आरोप डॉ. उपेन्द्र विश्वास का है जो संगीत, साहित्य व उर्दू के छात्रों के मार्गदर्शक हैं। संस्कृति व शिक्षा मेहकमे पर संघ ने प्रदेश में कब्जा कर रखा है। ऐसा प्रदेश के शायर व विद्वान लेखक मान रहे हैं। इस सबका लाभ शायद कांग्रेस उठा सकती है। कर्मचारी वर्ग व नौकरशाह भी बेचैनी महसूस कर रहे हैं। मध्य प्रदेश में दोनों दलों को एक फायदा है कि यहां तीसरा दल नहीं है। बसपा व समाजवादी दल या कम्यूनिष्ट पार्टियां न के बराबर हैं। प्रदेश में मार्क्सवादी कम्यूनिष्ट के कामरेड जरूर कहीं कहीं सक्रिय हैं। आंगनवाड़ी व आशा कार्यकर्त्ताओं का संगठन वो अच्छे से संगठित करते आ रहे हैं। एक बड़े कम्यूनिष्ट नेता का. सतीष गोविला पिछले दिनों नहीं रहे थे जो आज से 30 साल पहले मिल क्षेत्र के मजदूरों के बढ़े रहनुमा थे। सरवटे के साथ इसी तरह राजेश शर्मा का कम्यूनिष्ट पार्टी से चले जाना भी काफी गहरा दुख दे गया मजदूरों को। बादल सरोज, रामविलास गोस्वामी, जसविंदर सिंह, भगवान दास, अखिलेश यादव आदि अभी भी काफी सक्रिय हैं। गरीबों व कमजोरों की रहनुमाई करने में लगे हैं।

इबू की जीत: नया मालदीव
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मालदीव में अब्दुल्ला यामीन की हार और विरोधी दलों के संयुक्त उम्मीदवार इब्राहिम मोहम्मद सोलिह की जीत के अर्थ क्या हैं ? पहला, यह कि यह दक्षिण एशिया में लोकतंत्र की विजय है। मालदीव के लोगों ने बता दिया है कि वे ही संप्रभु हैं, सर्वोच्च हैं। पूरे दक्षिण एशिया में यामीन-जैसा कोई तानाशाह दूसरा नहीं हुआ। उसने मालदीव पर 30 साल तक राज करनेवाले अपने सौतेले बड़े भाई गय्यूम को ही जेल में नहीं डाला, पूर्व राष्ट्रपति नशीद, सर्वोच्च न्यायालय के जजों, सांसदों, ऊंचे पुलिस अधिकारियों और अन्य विरोधियों को भी हथकड़ियां पहना दी थीं। किसे भी उम्मीद नहीं थी कि राष्ट्रपति यामीन हार जाएंगे, क्योंकि उन्होंने जीतने के लिए साम, दाम, दंड, भेद- सबका इस्तेमाल कर लिया था। लेकिन फिर भी मालदीव के 90 प्रतिशत मतदाताओं ने 8-8 घंटे लाइन में लगकर वोट डाले और यामीन को प्रचंड बहुमत से हरा दिया। उम्मीद है कि नवंबर में वे अपना कार्यकाल पूरा होने पर सोलिह को सत्ता सौंप देंगे। यदि वे कोई तिकड़म करें तो भारत के लिए ठीक मौका होगा कि वह सोलिह और नशीद के निमंत्रण पर मालदीव में सैन्य-हस्तक्षेप करे और वहां के लोकतंत्र की रक्षा करे। यामीन ने अपने शासन-काल में चीन के हाथों मालदीव को गिरवी रख दिया था। मालदीव के सात बड़े द्वीपों पर चीन का निर्माण-कार्य चल रहा है। मालदीव को विदेशों से मिले कर्ज का 70 प्रतिशत अकेले चीन ने दिया है। चीन जैसी ठगी मलेशिया, श्रीलंका, पाकिस्तान और बर्मा में कर रहा है, उससे भी ज्यादा वह मालदीव में कर रहा है। जो चीन-मालदीव मैत्री-सेतु करीब 8 करोड़ डाॅलर में बन रहा था, उसके अब यामीन चीन को 30 करोड़ डाॅलर देने को तैयार थे। यामीन ने मालदीव में काम कर रहे 30 हजार भारतीय नागरिकों का जीना हराम कर दिया था। भारत के देा हेलिकाॅप्टरों को वापस करने की धमकी भी वे दे रहे थे। भारतीय कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे माले के हवाई अड्डेे तथा अन्य निर्माण कार्यों को भी रोक दिया गया था। मालदीव में ऐसा भारत-विरोधी वातावरण बना दिया गया था कि हमारे प्रधानमंत्री का दौरा सभी पड़ौसी देशों में हो गया लेकिन मालदीव में नहीं हुआ। इब्राहिम सोलिह, जिन्हें प्यार से ‘इबू’ कहा जाता है, के शपथ लेते ही नरेंद्र मोदी को माले जाना चाहिए। आशा है, ‘इबू’ अपने वरिष्ठ नेता मोहम्मद नशीद को कोलंबो से माले बुला लेंगे और पूरी कोशिश करेंगे कि विरोधी पार्टियों के गठबंधन की इस सरकार को वे अच्छी तरह चलाएं। इबू और नशीद के नेतृत्व में अब हम नए मालदीव के दर्शन करेंगे।

करुणा के सागर थे ईश्वर चंद विद्यासागर
मनोहर पुरी
प्रख्यात शिक्षाविद्, समाज सुधारक युग पुरुष ईश्वर चंद विद्यासागर का जन्म पश्चिम बंगाल के एक कुलीन निर्धन ब्राह्मण परिवार में हुआ। आर्थिक संकटों का सामना करते हुए भी उन्होंने अपनी उच्च पारिवारिक परम्पराओं को अक्षुण्ण बनाए रखा। संकट के समय में भी वह कभी अपने सत्य के मार्ग से नहीं डिगे। जीवन में उन्हें अपने पिता ठाकुरदास बंद्योपाध्याय से बहुत अधिक सहयोग मिला। भीषण आर्थिक संकटों का सामना करते हुए भी पिता ने अपने सुपुत्र के मार्ग में कोई बाधा नहीं आने दी। ईश्वर चंद विद्यासागर का जन्म बंगाल के मिदनापुर जिले के एक गांव में 26 सितम्बर 1820 को हुआ। उनका बचपन उसी गांव में व्यतीत हुआ जिसके कारण उनके जीवन में सादगी ने सहज रूप से ही अपना स्थान बना लिया। उनके पिता कलकत्ता में नौकरी करते थे। अभी उनकी आयु आठ वर्ष की ही थी जब वह कलकत्ता अपने पिता के पास आगे पढ़ाई करने के लिए चले आए। ठाकुरदास चाहते थे कि ईश्वर चंद संस्कृत भाषा में प्रवीणता प्राप्त करें और संस्कृत के एक विद्वान के रूप में समाज उन्हें मान्यता दे। अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए उन्होंने ईश्वर चंद को कलकत्ता के गवर्नमेंट संस्कृत कालेज में प्रविष्ठ करवा दिया। संस्कृत का गहन अध्ययन करने के कारण उनको विद्यासागर की उपाधि से सम्मानित किया गया और बाद में उनका यही नाम देश भर में प्रख्यात हुआ। फोर्ट विलियम कॉलेज में प्रमुख पंडित के रूप में कार्य करने के पश्चात सन् 1851 में ईश्वर चंद विद्यासागर गवर्नमेंट संस्कृत कालेज कलकत्ता में प्राध्यापक के पद पर नियुक्त हुए । यहीं से उन्होंने 1858 में प्राचार्य के रूप में अवकाश प्राप्त किया। गांव गांव में शिक्षा के प्रचार प्रसार के लिए वह अपना सर्वस्य अर्पित करने के लिए तैयार रहते थे। उस समय विद्यार्थियों को शिक्षा देने के लिए प्रशिक्षित अघ्यापकों का बहुत अभाव था। उन्होंने गांव गांव में शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए ’नार्मल स्कूल‘ और ’बांग्ला विद्यालयों‘ की स्थापना की। उन्होंने ही मेट्रोपोलिटन कालेज की नींव डाली जो आज विद्यासागर कॉलेज कलकत्ता के नाम से मशहूर है। उन्होंने नारी शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए भी बहुत कार्य किया और बालिका विद्याालयों को अपनी ओर से भी आर्थिक सहायता प्रदान की।
यह वह समय था जब बाल विवाह को समाज में मान्यता प्राप्त थी। समाज में यह विश्वास घर कर चुका था कि आठ वर्षीय कन्या का दान करने से माता-पिता को गौरी दान का पुण्यफल प्राप्त होता है। नौ वर्ष की कन्या का दानकरने से पृथ्वीदान और दस वर्ष की कन्या का सुपात्र से विवाह कर देने से परलोक में पवित्र स्थान सुरक्षित हो जाता है। अभी ईश्वर चंद विद्यासागर 14 वर्ष के ही हुए थे कि उनका विवाह एक मध्यवर्गीय परिवार की कन्या दिनमयी देवी के साथ कर दिया गया। उनका ससुराल खिपाई गांव में था। वह परम्परागतनिष्ठ हिन्दू थे और हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों के प्रबल विरोधी भी। ऐसी कुरीतियों को दूर करने के लिए उन्होंने समाज सुधार का प्रण किया और जीवन पर्यन्त इस कार्य में सलंग्न रहे। सामाजिक जीवन संबंधी उनके विचार बहुत ही उदारवादी और प्रगतिशील थे। उस समय समाज में विधवाओं की दशा वहुत ही शोचनीय थी और बाल विवाह की प्रथा होने के कारण समाज में विधवाओं की संख्या भी बहुत होती थी। हिन्दू विधवा विवाह कानून पारित करवाने में उन्होंने अथक परिश्रम किया औा हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह का अधिकार दिलाया। उन्होंने स्वयं भी अनेक विधवाओं का विवाह करवाया। उन्होंने 19वीं शताब्दी में बंगाल के पुनर्जागरण में बहुत योगदान दिया।
ईश्वर चंद विद्यासागर ने जब सामाजिक जीवन से नाता जोड़ा तो पाया कि संस्कृत जैसी समृद्ध भाषा पर ब्राह्मणों ने अपना वर्चस्व स्थापित किया हुआ है। इतना ही नहीं अपने संस्कृत के ज्ञान के कारण वे न केवल लोगों को मूर्ख बनाने का प्रयास करते हैं बल्कि उनका शोषण भी करते हैं। शुदों को तो उन्होंने इस भाषा का अध्ययन करने से भी दूर रखा हुआ है। उन्हें इस बात पर और अधिक क्षोभ हुआ कि यह भेद भाव का कार्य धर्म को ढाल बना कर किया जा रहा है। ईश्वर चंद विद्यासागर ने संस्कृत भाषा के अध्ययन के दरवाजे शुदों के लिए खोल दिए। धर्म और ज्ञान के तथाकथित ठेकेदारों ने उनका जोरदार विरोध किया परन्तु कोई भी ईश्वर चंद विद्यासागर को उनके निश्चय से डिगा नहीं पाया। उनका विश्वास था कि प्रत्येक व्यक्ति मनचाहा ज्ञान प्राप्त करने का अधिकारी है और उसे इस अधिकार से कोई भी वंचित नहीं कर सकता। वह पाश्चात्य शिक्षा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने पाश्चात्य दर्शन और व्यावहारिक विज्ञान के अध्ययन को विद्यालयों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित करने की वकालत की। वह नहीं चाहते थे कि संस्कृत कॉलेज को केवल संस्कृत की शिक्षा के लिए ही सीमित कर दिया जाये। कम से कम बंगाल में तो उन्होंने ऐसा कोई कार्य नहीं होने दिया जिससे किसी को संस्कृत का ज्ञान प्राप्त करने से रोका जा सके। अलंकार,वेदांत और स्मृति की परीक्षाओं में उर्त्तीण होने के पश्चात वह हिन्दु लॉ कमेटी की परीक्षा में सफल हुए। अब उन्हें त्रिपुरा जिले में जज पंड़ित के पद पर नियुक्त कर दिया गया। उनके पिता चाहते थे कि विद्याासागर नौकरी करने की अपेक्षा आगे की पढ़ाई जारी रखें। आर्थिक संकट की परवाह न करते हुए उन्होंने इस पद को अस्वीकार कर दिया और न्याय दर्शन के उच्च अध्ययन में जुट गए।
उस समय समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए कुछ प्रबुद्ध लोगों ने सामाजिक संस्थाओं का गठन किया हुआ था। वे लोग अपने अपने सीमित साधनों के बल पर हर प्रकार की कुरीति को जड़ से उखाड़ फेंकने का प्रयास कर रहे थे। ’द सोसाइटी फॉर एक्जीविशन ऑफ जनरल नालेज‘ और ’तत्वबोधिनी सभा‘ बहुत सक्रियता से समाज में कार्य कर रहीं थीं। तत्वबोधिनी सभा को गुरुदेव रविन्द नाथ टैगोर के पिता देवेन्द नाथ ठाकुर का वरद हस्त प्राप्त था। ये संस्थायें इस बात का पूरा पूरा प्रयास कर रहीं थी कि पूर्व और पश्चिम के दर्शन में जो कुछ भी विरोधभास है उसे दूर करके उनमें समन्वय स्थापित किया जाए। शिक्षित नवयुवक इन संस्थाओं की ओर स्वाभाविक रूप से आकर्षित हो रहे थे। अपने छात्र जीवन में ही ईश्वर चंद विद्यासागर का भी इस ओर रूझान होना स्वभाविक ही था। अपने ज्ञान भंडार में वृद्धि करने के लिए उन्होंने संस्कृत के साथ साथ अंग्रेजी भाषा में भी प्रवीणता प्राप्त की।
अपना सारा जीवन समाज को रूढ़ियों से मुक्त करवाने, अंधविश्वास को दूर करने, स्त्री को पुरुष के समान अधिकार दिलवाने और घर घर में ज्ञान की ज्योति आलोकित करने वाला महापुरुष 29 जुलाई 1891 को इस नश्वर संसार से विदा हो गया। महात्मा गांधी ने उनके संबंध में लिखा था कि ,‘‘ईश्वर चन्द केवल विद्या के सागर ही नहीं थे,वे करुणा के और उदारता के भी सागर थे।’’ वास्तव में वह त्याग, परोपकार, न्यायप्रियता, क्षमाशीलता की जीवन्त प्रतिमा थे।

यह मुफ्त इलाज अद्भुत लेकिन …..?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आयुष्मान भारत के नाम से प्रधानमंत्री ने जिस आरोग्य योजना को शुरु किया है, वह निश्चय ही दुनिया की सबसे बड़ी योजना है। दुनिया का कोई देश ऐसा नहीं है, जहां करोड़ों लोगों को पांच लाख रु. तक का इलाज हर साल मुफ्त में कराने की सुविधा मिले। दस करोड़ गरीब परिवार याने 50 करोड़ लोग अब भारत में अपना इलाज मुफ्त में करवा सकेंगे। इतने लोग तो कई देशों की जनसंख्या को मिला देने पर भी नहीं बनते। इसके लिए भाजपा सरकार और उसके स्वास्थ्य मंत्री बधाई के पात्र हैं। लेकिन असली सवाल यह है कि यह लोक-कल्याणकारी योजना कई अन्य अभियानों की तरह सिर्फ नारेबाजी बनकर न रह जाए ! क्या भारत में 50 करोड़ लोगों के इलाज के लिए पर्याप्त डॉक्टर और अस्पताल हैं ? हमारे अस्पताल गांवों से इतने दूर हैं कि ग्रामीण मरीजों के पास उन अस्पतालों और डॉक्टरों तक पहुंचने के लिए ही पैसे नहीं होते। सरकार को सबसे पहले देश के हर जिले में बड़े-बड़े अस्पताल खोलने चाहिए और हर डॉक्टरी पास करनेवाले छात्र को अनिवार्य रुप से गांवों के अस्पतालों में सेवा के लिए भेजना चाहिए। सिर्फ एलोपेथिक नहीं, आयुर्वेदिक, यूनानी, प्राकृतिक चिकित्सा और होमियोपेथिक इलाज की सुविधा भी मरीजों को मिलनी चाहिए। डॉक्टरी की पढ़ाई अंग्रेजी में नहीं, भारतीय भाषाओं में होनी चाहिए ताकि हमारे डॉक्टर मौलिक शोध आसानी से कर सकें और ग्रामीण और शहरी गरीबों का इलाज सहज ढंग से कर सकें। सरकार को यह भी स्पष्ट करना होगा कि उसकी नजर में गरीब कौन है ? क्या सिर्फ 50 करोड़ लोग गरीब हैं ? सच्चाई तो यह है कि 100 करोड़ लोग भारत में ऐसे हैं, जो अपनी बीमारी पर पांच लाख रु. साल खर्च नहीं कर सकते ? कहीं ऐसा न हो कि दुनिया की यह सबसे बड़ी लोक-कल्याणकारी योजना भारत में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार का जरिया बन जाए। डॉक्टरी के धंधे में जितनी ठगी होती है, किसी और धंधे में नहीं होती। अतः सरकार को गैर-सरकारी डॉक्टरों और अस्पतालों को कड़े नियंत्रण में रखना होगा। समझ में नहीं आता कि भारत के गैर-भाजपाई राज्यों ने इसे स्वीकार क्यों नहीं किया। यदि यह अभियान सफल हो जाए याने देश में शिक्षा और स्वास्थ्य ठीक हो जाए तो भारत को महाशक्ति बनने से कौन रोक सकता है ?

एकात्म मानववाद – एक दिव्य सिद्धांत
प्रवीण गुगनानी
महान दार्शनिक प्लेटो के शिष्य व सिकंदर के गुरु अरस्तु ने कहा था – “विषमता का सबसे बुरा रूप है विषम चीजों को एक सामान बनाना।”
The worst form of inequality is to try to make unequal things equal. एकात्म मानववाद, विषमता को इससे बहुत आगे के स्तर पर जाकर हमें समझाता है।
भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं अपितु परिवार सदस्य के रूप में माननें के विस्तृत दृष्टिकोण का अर्थ है एकात्म मानववाद। मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है तो वह है पंडित दीनदयाल जी उपाध्याय का एकात्म मानववाद का सिद्धांत! अपनें एकात्म मानववाद को दीनदयालजी सैद्धांतिक स्वरूप में नहीं बल्कि आस्था के स्वरूप में लेते थे। इसे उन्होंने राजनैतिक सिद्धांत के रूप में नहीं बल्कि हार्दिक भाव के रूप में जन्म दिया था। अपनें एकात्म मानववाद के अर्थों को विस्तारित करते हुए ही उन्होंने कहा था कि – “हमारी आत्मा ने अंग्रेजी राज्य के प्रति विद्रोह केवल इसलिए नहीं किया कि दिल्ली में बैठकर राज करने वाले विदेशी थे, अपितु इसलिए भी कि हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हमारे जीवन की गति में विदेशी पद्धतियां और रीति-रिवाज, विदेशी दृष्टिकोण और आदर्श अड़ंगा लगा रहे थे, हमारे संपूर्ण वातावरण को दूषित कर रहे थे, हमारे लिए सांस लेना भी दूभर हो गया था। आज यदि दिल्ली का शासनकर्ता अंग्रेज के स्थान पर हममें से ही एक, हमारे ही रक्त और मांस का एक अंश हो गया है तो हमको इसका हर्ष है, संतोष है, किन्तु हम चाहते हैं कि उसकी भावनाएं और कामनाएं भी हमारी भावनाएं और कामनाएं हों। जिस देश की मिट्टी से उसका शरीर बना है, उसके प्रत्येक रजकण का इतिहास उसके शरीर के कण-कण से प्रतिध्वनित होना चाहिए।

ॐ के पश्चात ब्रह्माण्ड के सर्वाधिक सूक्ष्म बोधवाक्य “जियो और जीनें दो” को “जीनें दो और जियो” के क्रम में रखनें के देवत्व धारी आचरण का आग्रह लिए वे भारतीय राजनीति विज्ञान के उत्कर्ष का एक नया क्रम स्थापित कर गए। व्यक्ति की आत्मा को सर्वोपरि स्थान पर रखनें वाले उनकें सिद्धांत में आत्म बोध करनें वाले व्यक्ति को समाज का शीर्ष माना गया। आत्म बोध के भाव से उत्कर्ष करता हुआ व्यक्ति सर्वे भवन्तु सुखिनः के भाव से जब अपनी रचना धर्मिता और उत्पादन क्षमता का पूर्ण उपयोग करे तब एकात्म मानववाद का उदय होता है, ऐसा वे मानतें थे। देश और नागरिकता जैसे आधिकारिक शब्दों के सन्दर्भ में यहाँ यह तथ्य पुनः मुखरित होता है कि उपरोक्त वर्णित व्यक्ति देश का नागरिक नहीं बल्कि राष्ट्र का सेवक होता है। पाश्चात्य का भौतिकता वादी विचार जब अपनें चरम की ओर बढ़नें की पूर्वदशा में था तब पंडित जी नें इस प्रकार के विचार को सामनें रखकर वस्तुतः पश्चिम से वैचारिक युद्ध का शंखनाद किया था। उस दौर में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वैश्विक स्तर पर विचारों और अभिव्यंजनाओं की स्थापना, मंडन-खंडन और भंजन की परस्पर होड़ चल रही थी। विश्व मार्क्सवाद, फासीवाद, अति उत्पादकता का दौर देख चुका था और महामंदी के ग्रहण को भी भोग चूका था। वैश्विक सिद्धांतों और विचारों में अभिजात्य और नव अभिजात्य की सीमा रेखा आकार ले चुकी थी तब सम्पूर्ण विश्व में भारत की ओर से किसी राजनैतिक सिद्धांत के जन्म की बात को भी किंचित असंभव और इससे भी बढ़कर हास्यास्पद ही माना जाता था। अंग्रेज शासन काल और अंग्रेजोत्तर काल में भी हम वैश्विक मंचों पर हेय दृष्टि से और विचारहीन दृष्टि से देखे और मानें जाते थे। निश्चित तौर पर हमारा स्वातंत्र्योत्तर शासक वर्ग या राजनैतिक नेतृत्व जिस प्रकार पाश्चात्य शैलियों, पद्धतियों, नीतियों में जिस प्रकार डूबा-फंसा-मोहित रहा उससे यह हास्य और हेय भाव बड़ा आकार लेता चला गया था। तब उस दौर में दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानव वाद के सिद्धांत की गौरवपूर्ण रचना और उद्घोषणा की थी। 1940 और 1950 के दशकों में विश्व में मार्क्सवाद से प्रभावित और लेनिन के साम्राज्यवाद से जनित “निर्भरता का सिद्धांत” राजनैतिक शैली हो चला था। निर्भरता का सिद्धांत Dependency Theory यह है कि संसाधन निर्धन या अविकसित देशों से विकसित देशों की ओर प्रवाहित होतें हैं और यह प्रवाह निर्धन देशों को और अधिक निर्धन करते हुए धनवान देशों को और अधिक धनवान बनाता है। इस सिद्धांत से यह तथ्य जन्म ले चुका था कि राजनीति में अर्थनीति का व्यापक समावेश होना ही चाहिए। संभवतः पंडित दीनदयाल जी नें इस सिद्धांत के उस मर्म को समझा जिसे पश्चिमी जगत कभी समझ नहीं पाया। पंडित जी ने निर्भरता के इस कोरे शब्दों वाले सिद्धांत में मानववाद नामक आत्मा की स्थापना की और इसमें से भौतिकतावाद के जिन्न को बाहर ला फेंका !! राजनीति को अर्थनीति से साथ महीन रेशों से गूंथ देना और इसके समन्वय से एक नवसमाज के नवांकुर को रोपना और सींचना यही उनका मानववाद था, भौतिकता से दूर किन्तु मानव के श्रेष्ठतम का उपयोग और उससे सर्वाधिक उत्पादन। फिर उत्पादन का राष्ट्रहित में उपयोग और राष्ट्रहित से अन्त्योदय का ईश्वरीय कार्य यही एकात्म मानववाद का चरम हितकारी रूप है। इस परिप्रेक्ष्य का अग्रिम रूप देखें तो स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है कि उनकें “अर्थ का अभाव और अर्थ का प्रभाव” के माध्यम से वे विश्व की राजनीति में किस तत्व का प्रवेश करा देना चाहते थे। यद्दपि उनकें असमय निधन से विश्व की राजनीति उस समय उनकें इस प्रयोग के कार्यरूप देखनें से वंचित रह गई तथापि सिद्धांत रूप में तो वे उसे स्थापित कर ही गए थे। उस दौर में विश्व की सभी सभ्यताएं और राजनैतिक प्रतिष्ठान धन की अधिकता और धन की कमी से उत्पन्न होनें वाली समस्याओं से संघर्ष करती जूझ रही थी। तब उन्होंने भारतीय दर्शन आधारित व्यवस्थाओं के आधार पर धन के अर्जन और उसके वितरण की व्यवस्थाओं का परिचय शेष विश्व के सम्मुख रखा। उस दौर में पूर्वाग्रही और दुराग्रही राजनीति के कारण उनकी यह आर्थिक स्वातंत्र्य की सीमा की अवधारणा को देखा पढ़ा नहीं गया किन्तु (मजबूरी वश ही सही) आर्थिक विवेक के उनकें सिद्धांत को भारतीय अर्थतंत्र में यदा कदा पढ़नें सुननें और व्यवहार में लानें के प्रयास भी होते रहे यद्दपि इन प्रयासों में पंडितजी के नाम से परहेज करनें का पूर्वाग्रह यथावत चलता रहा।
नागरिकता से परे होकर “राष्ट्र एक परिवार” के भाव को आत्मा में विराजित करना और तब परमात्मा की ओर आशा से देखना यह उनकी एकात्मता का शब्दार्थ है। इस रूप में हम राष्ट्र का निर्माण ही नहीं करें अपितु उसे परम वैभव की ओर ले जाएँ यह भाव उनके सिद्धांत के एक शब्द “एकात्मता” में प्राण स्थापित करता है। मानववाद वह है जो ऐसी प्राणवान आत्मा से निर्सगित होकर निर्झर होकर एक शक्ति पुंज के रूप में सर्वत्र राष्ट्र भर में मुक्त भाव से बहे, अर्थात अपनी क्षमता से और प्राणपण से उत्पादन करे और राष्ट्र को समर्पित भाव से अर्पित कर दे एवं स्वयं भी सामंजस्य और परिवार बोध से उपभोग करता हुआ विकास पथ पर अग्रसर रहे। एकात्मता में सराबोर होकर मानववाद की ओर बढ़ता यह एकात्म मानववाद अपनें इस ईश्वरीय भाव के कारण ही अन्त्योदय जैसे परोपकारी राज्य के भाव को जन्म दे पाया। हम इस चराचर ब्रह्माण्ड या पृथ्वी पर आधारित रहें, इसका दोहन नहीं बल्कि पुत्रभाव से उपयोग करें किन्तु इससे प्राप्त संसाधनों को मानवीय आधार पर वितरण की न्यायसंगत व्यवस्थाओं को समर्पित करते चलें यह अन्त्योदय का प्रारम्भ है। अन्त्योदय का चरम वह है जिसमें व्यक्ति व्यक्ति से परस्पर जुड़ा हो और निर्भर भी अवश्य हो किन्तु उसमें निर्भरता का भाव न कभी हेय दृष्टि से आये और न कभी देव दृष्टि से!! इस प्रकार का अन्त्योदय का भाव प. दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद के सह उत्पाद के रूप में जन्मा जिसे सह उत्पाद के स्थान पर पुण्य प्रसाद कहना अधिक उपयुक्त होगा।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय संस्कृति के समग्र रूप को मानव और राज्य में स्थापित देखना चाहते थे। उन्होंने भारतीय संस्कृति की समग्रता और सार्वभौमिकता के तत्वों को पहचान कर आधुनिक सन्दर्भों में इसके नूतन रूपकों, प्रतीकों, शिल्पों की कल्पना की थी। उनकें विषय में पढ़ते अध्ययन करते समय मेरी अंतर्दृष्टि में वंचित भाव जागृत होता है और ऐसा लगता है कि कुछ था जो हमें पंडित दीनदयाल जी से और मिलना था किंतु मिल न पाया। मानस में यह तथ्य उच्चारित होता रहता है कि उनकें तत्व ज्ञान में कुछ ऐसा अभिनव प्रयोग आ चुका था जिसे वे शब्द रूप में या कृति रूप में प्रस्तुत नहीं कर पाए और काल के शिकार हो गए। उनकें मष्तिष्क में या वैचारिक गर्भ में कोई अभिनव और नूतन सिद्धांत रुपी शिशु था जो उनकें असमय निधन से अजन्मा और अव्यक्त ही रह गया है पुण्य स्मरण !!!

मोदी और इमरानः दोनों संभलें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की जो बैठक इस सप्ताह न्यूयार्क में होनी थी, वह भारत ने रद्द कर दी है। उसके तीन कारण बताए गए हैं। पहला, एक भारतीय जवान की पाकिस्तानी फौज द्वारा नृशंस हत्या। दूसरा, कश्मीर के तीन पुलिसवालों का उनके घर से अपहरण और हत्या। तीसरा, पाकिस्तान द्वारा अपनी आतंकवादियों की स्मृति में डाक-टिकिट जारी करना। इन कारणों से जैसे ही वार्ता रद्द करने की घोषणा नई दिल्ली से हुई, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने जरुरत से ज्यादा सख्त प्रतिक्रिया कर दी। उन्हें यह कहने की क्या जरुरत थी कि छोटे दिमाग के लोग बड़ी-बड़ी कुर्सियों में बैठ जाते हैं। क्या यह बात ज्यादातर नेताओं और खुद उन पर भी लागू नहीं की जा सकती ? भारतीय नेताओं याने नरेंद्र मोदी पर उन्होंने अहंकारी और निषेधात्मक होने का आरोप भी लगाया। हो सकता है कि उनकी इस खिसियाहट का कारण यह रहा हो कि उन्हें मोदी से बहुत अधिक आशाएं रही हों लेकिन उन्हें मोदी की मजबूरी भी समझनी चाहिए। मोदी इस समय चुनावी दौर में है। यदि वे पाकिस्तान के प्रति नरम दिखाई पड़े तो अगले साल चुनाव में उनका 56 इंच का सीना सिकुड़कर 6 इंच का रह जाएगा। भारत के अखबारों और टीवी चैनलों में सीमांत के हत्याकांडों का इतना प्रचार हुआ है कि हिंदुस्तान की आम जनता का पारा गर्म हो गया है। सरकार उसकी उपेक्षा कैसे कर सकती है ? उससे भी बड़ी बात यह कि इमरान सरकार ने उक्त तीनों घटनाओं के घावों पर मरहम रखने की कोशिश भी नहीं की। लेकिन जैसी सख्त प्रतिक्रिया इमरान ने की है, वैसी मोदी ने भी की है। चार साल हो गए लेकिन मोदी को अभी तक विदेश नीति-संचालन का क ख ग भी पता नहीं। जैसे बिना तैयारी किए वे नवाज शरीफ के यहां शादी में चले गए, वैसे ही उन्होंने सुषमा स्वराज और शाह महमूद कुरैशी की भेंट भी रद्द कर दी। भेंट की घोषणा हमारे फौजी जवान की नृशंस हत्या के बाद की गई। क्यों की गई ? नहीं की जानी चाहिए थी। आतंकवादियों के डाक-टिकिट तो पाकिस्तानी सरकार ने इमरान की शपथ के दो हफ्ते पहले जारी किए थे। उसमें इमरान का क्या दोष ? जहां तक कश्मीरी पुलिसवालों का सवाल है, उन आतंकवादियों के पीछे पाकिस्तानी फौज का हाथ हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। ऐसी संदेहात्मक स्थिति में उस भेंट को रद्द करना अस्थिर चित्त का परिचायक मालूम पड़ता है। इन घटनाओं के बावजूद यदि न्यूयार्क में वह भेंट होती तो सुषमाजी इन सब मामलों को जमकर उठातीं और इमरान सरकार को प्रेरित करतीं कि वह फौज के प्रभाव से मुक्त होकर मजबूती से काम करती। अब दोनों तरफ के खंजर तन गए हैं। वे कश्मीर का राग अलापेंगे और हम आतंकवाद का ! मोदी और इमरान दोनों जरा संभलकर चलें।

जी.एस.टी. …अब एक अक्टूबर से यह भी कीजिये (अजित वर्मा)
सरकार ने जीएसटी के तहत स्रोत पर कर कटौती (टीडीएस) तथा स्रोत पर कर संग्रह (टीसीएस) प्रावधानों को क्रियान्वित करने के लिए एक अक्टूबर की तिथि को अधिसूचित किया है। केंद्रीय जीएसटी (सीजीएसटी) के तहत अधिसूचित इकाइयों को वस्तु या सेवा आपूर्तिकर्ताओं के 2.5 लाख रुपए से अधिक के भुगतान पर एक प्रतिशत टीडीएस संग्रह करने की जरूरत है। साथ ही राज्य कानून के तहत राज्य एक प्रतिशत टीडीएस लगाएंगे। ई-वाणिज्य कंपनियों को अब माल एवं सेवा कर (जीएसटी) के तहत आपूर्तिकताओं को किए गए किसी भी भुगतान पर एक प्रतिशत टीसीएस संग्रह करने की जरूरत होगी। राज्य भी राज्य जीएसटी (एसजीएसटी) कानून के तहत एक प्रतिशत टीसीएस लगा सकते हैं।
वाणिज्य क्षेत्रों में कहा जा रहा है कि ई-वाणिज्य कंपनियों को टीसीएस के लिए तथा विभिन्न सार्वजनिक उपक्रमों, सरकारी कंपनियों को टीडीएस के लिए अपनी प्रणाली शीघता से तैयार करना होगी ताकि वे एक अक्टूबर से इस प्रावधान का अनुपालन कर सकें।
दरअसल, जीएसटी को लेकर आलोचना का एक कारण यही है कि सरकार ने उसमें जटिलताओं का समावेश कर रखा है। और करती जा रही है कि जीएसटी तमाम लोगों के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया है। व्यापारियों और कम्पनियों को अतिरिक्त एकाउण्टेट और सी.ए. की सेवाएं लेना पड़ रही है, जिससे एक ओर जहाँ आर्थिक बोझ बढ़ रहा है, वहीं बाबूगिरी का काम बढ़ रहा है। व्यापार को सुगम बनाने की बात करने वाली सरकार ने जिस तरह जीएसटी के जरिये व्यापार को जटिल से जटिलतम बना दिया है उसके कारण एक अजीब सी बेचैनी व्यापार जगत में निर्मित कर दी है।

शीर्षासन की मुद्रा में संघ ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राष्ट्रीय स्वयंसवेक के सरसंघचालक मोहन भागवत के भाषण में मैं तीसरे दिन नहीं जा सका, क्योंकि उसी समय मुझे एक पुस्तक विमोचन करना था लेकिन आज बड़ी सुबह कई बुजुर्ग स्वयंसेवकों के गुस्सेभरे फोन मुझे आ गए और उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मोहन भागवत ने संघ को शीर्षासन नहीं करा दिया ? क्या उन्होंने वीर सावरकर और गुरु गोलवलकर की हिंदुत्व की धारणा को सिर के बल खड़ा नहीं कर दिया ? सावरकरजी ने अपनी पुस्तक हिंदुत्व में लिखा था कि हिंदू वही है, जिसकी पितृभूमि और पुण्यभूमि भारत है। इस हिसाब से मुसलमान, ईसाई और यहूदी हिंदू कहलाने के हकदार नहीं हैं, क्योंकि उनके पवित्र धार्मिक स्थल (पुण्यभूमि) मक्का-मदीना, येरुशलम और रोम आदि भारत के बाहर हैं। इसी प्रकार गोलवलकरजी की पुस्तक ‘बंच आॅफ थाॅट्स’ में मुसलमानों और ईसाइयों को राष्ट्रविरोधी तत्व बताया गया है। संघ की शाखाओं में मुसलमानों का प्रवेश वर्जित रहा है। 2014 के चुनावों में भाजपा ने कितने मुस्लिम उम्मीदवार खड़े किए थे ? वास्तव में संघ, जनसंघ और भाजपा की प्राणवायु रहा है- मुस्लिम विरोध ! जनसंघ के अध्यक्ष प्रो. बलराज मधोक ने 1965-67 में मुसलमानों के ‘भारतीयकरण’ का नारा दिया था। सर संघचालक कुप्प सी. सुदर्शनजी ने संघ-कार्य को नया आयाम दिया। वे मेरे अभिन्न मित्र थे। उन्होंने ही मेरे आग्रह पर ‘राष्ट्रीय मुस्लिम मंच’ की स्थापना की थी, जिसे आजकल इंद्रेशकुमार बखूबी संभाल रहे हैं। सुदर्शनजी ने इसके स्थापना अधिवेशन का उदघाटन का अनुरोध भी मुझसे किया था। अब मोहन भागवत इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं। इसीलिए उन्होंने गोलवलकरजी के विचारों के बारे में ठीक ही कहा है कि देश और काल के हिसाब से विचार बदलते रहते हैं। ज़रा हम ध्यान दें कि सावरकरजी और गोलवलकरजी के विचारों में इतनी उग्रता क्यों थी ? वह समय मुस्लिम लीग के हिंदू-विरोधी रवैए और भारत-विभाजन के समय देश में फैले मुस्लिम-विरोधी रवैए का था। अब 70 साल में हवा काफी बदल गई है। इन बदले हुए हालात में यदि मोहन भागवत ने हिम्मत करके नई लकीर खींची है तो देश में फैले हुए लाखों स्वयंसेवकों को उस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए और उसके अनुसार आचरण भी करना चाहिए। संघ के स्वयंसेवक इस समय देश में सत्तारुढ़ हैं। यदि उन्हें सफल शासक बनाना है तो उन्हें भारतीयता को ही हिंदुत्व कहना होगा और हिंदुत्व को भारतीयता ! यह संघ को शीर्षासन करवाना नहीं, उसे संकरी पगडंडियों से उठाकर विशाल राजपथ पर चलाना है। उसे सचमुच राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ बनाना है.

समय पूर्व रिहाई के बाद भीम आर्मी के रावण की हुंकार
अजित वर्मा
उत्तरप्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल में बंद भीम आर्मी के संस्थापक चंद्रशेखर उर्फ रावण को समय से पहले से जेल से रिहा किये जाने के साथ भीम आर्मी की सक्रियता एक बार फिर बढ़ गई है। राज्य सरकार इससे चौकन्नी हो गई है। चंद्रशेखर को पिछले साल सहारनपुर में हुई जातीय हिंसा के आरोप में गिरफ्तार किया गया था।
यों, रावण की रिहाई को योगी सरकार का चुनावी दांव ही माना जा रहा है, लेकिन रावण ने जेल से बाहर आते ही सरकार को उखाड़ फेंकने की घोषणा कर दी। रावण के समर्थकों की उसके प्रति निष्ठा और प्रतिबद्धता तब उजागर हुई जब रावण की रिहाई में विलम्ब करते-करते जेल प्रशासन ने उसकी रिहाई में रात को साढ़े तीन बजा दिये इसके बावजूद उसके समर्थकों भी भीड़ उसका स्वागत करने के लिए जेल के बाहर ही डटी रही।
इस मामले में सोनू, सुधीर, विलास को पहले ही रिहा किया जा चुका है। राज्य सरकार का कहना है कि उसने रावण की मां के प्रत्यावेदन पर विचार करते हुए उसकी समय पूर्व रिहाई का फैसला किया। रावण को एक नवंबर तक जेल में रहना था लेकिन उसे जल्द ही रिहा कर दिया गया। रावण के अलावा दो अन्य आरोपियों सोनू और शिवकुमार को भी सरकार ने रिहा करने का फैसला किया था। और तीनों ही लोगों की रिहाई के लिए सहारनपुर के जिलाधिकारी को निर्देश दिए गए थे।
पिछले साल सहारनपुर में जातीय हिंसा हो गई थी जिसमें एक महीने तक जिले में तनाव रहा था। भीम आर्मी संगठन के संस्थापक चंद्रशेखर को प्रशासन ने हिंसा का मुख्य आरोपी मानकर उसके खिलाफ कई मामले दर्ज किए गए थे। हिंसा के बाद से ही चंद्रशेखर जेल में बंद था। डीएम सहारनपुर की रिपोर्ट पर चंद्रशेखर के खिलाफ रासुका लगा दिया गया था जिसके खिलाफ भीम आर्मी विरोध करती रही है।
देश की राजनीति धर्म, जातिवाद और आरक्षण के नाम पर सवर्ण, दलित और अल्पसंख्यकों के नाम पर वोटों की जो जहरीली खेती देखने के लिए विवश है, उसमें रावण जैसे नेताओं का उभार लाजिमी है। यह देश अतीत में जातीय दंगों और धर्म के नाम पर हुए फसादों के साथ आरक्षण के नाम पर जाटों, गुर्जरों, पाटीदारों के आन्दोलनों में हुए तमाशे देख चुका है। उत्तरप्रदेश भी इसका एक रणक्षेत्र रहा है। अब उत्तरप्रदेश में फिलहाल विधानसभा के लिए चुनाव अभी नहीं होना है, लेकिन चंद महिनों बाद लोकसभा के चुनाव जरूर होना है, जिसमें उत्तरप्रदेश में होने वाला चुनावी महाभारत सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तरप्रदेश से ही होकर जाता है, इसलिए वहाँ जातीय और धार्मिक समूहों का शक्ति प्रदर्शन बहुत जटिल और गम्भीर होगा। फिलहाल भीम आर्मी जैसे संगठनों की भूमिका इसीलिए महत्वपूर्ण बन गयी है। आने वाले दिन क्या-क्या दिखायेंगे, यह देखना दिलचस्प होगा।

क्या 2021 में ओबीसी की गणना होगी ?
आजाद सिंह डबास
गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने 31 अगस्त 2018 को भारतीय महापंजीयक व जनगणना आयुक्त कार्यालय द्वारा जनगणना के संबंध में की गई तैयारियों की समीक्षा की।बैठक उपरांत गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने बताया कि 2021 की जनगणना में अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) की गणना करने का फैसला लिया गया है।2021 में होने वाली जनगणना की प्रक्रिया 3 वर्ष में पूर्ण होगी जबकि इसके पूर्व इस कार्य में 7 से 8 वर्ष लगते थे। अगले दिन प्रकाशितखबरों के अनुसार सरकार के इस निर्णय को 2019 के आम चुनाव के मद्देनजर बड़ा सियासी कदम माना जा रहा है।
भारत वर्ष में1872 में प्रथम जनगणना हुई। अगली जनगणना 1881 मेंहुई। इसके बाद हर 10 साल में जनगणना की गई। इन समस्त जनगणनाओं में जातिगत जनगणना की गई। अंतिम जातिगत जनगणना 1931 में हुई। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण 1941में जनगणना नही हो सकी।आजादी के बाद कांग्रेस सरकार द्वारा 1951 की जनगणना जातिगत आधार पर नही कराई गई लेकिन इसमें एससी-एसटी की गिनती कराई गई। इसके बाद हुई जनगणनाओं में जातिगत जनगणना नही कराई गई। चूंकि जातिगत आकड़ें उपलब्ध नही थे अत: मण्डल आयोग ने 1931 की जनगणना के आधार पर ही अन्य पिछड़ा वर्ग की अनुमानित आबादी बताई। इसी के आधार पर वी.पी सिंह सरकार ने 1990 में मण्डल आयोग की सिफारिश लागू कर ओबीसी को 27 फीसदी आरक्षण दिया जबकि आबादी 50 फीसदी के ऊपर है।
1997 में देवगौड़ा सरकार ने 2001 में जाति जनगणना कराने हेतु केबिनेट मेंप्रस्ताव पारित किया लेकिन कुछ समय बाद सरकार गिर गई। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में गृहमंत्री लालकृष्ण अडवानी की अध्यक्षता में जातिगत जनगणना नहीकराने का फैसला लिया गया। वर्ष 2010 में लोकसभा में जातिगत जनगणना पर हुई बहस में सभी राजनैतिक दलों में जातिगत जनगणना कराने पर सहमति बनी। आम सहमति के बावजूद कांग्रेस की बदनीयति के चलते तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी की अध्यक्षता में एक जीओएम गठित किया गया।इस कमेटी में तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदमबरम ने यह तर्क दिया कि 2011 में जो जनगणना हो रही है,उसे वैसे ही होने दिया जावे। उन्होंने सुझाव दिया कि ओबीसी की गणना अलग से करा ली जावे, जिसे मान लिया गया।
गौरतलब है कि भारत में जनगणना एक्ट 1948 के तहत जनगणना होती है जिसमें बहुत सारी सुविधाएं दी जाती हैं। एक्ट के तहत कराई जा रही जनगणना के समय अगर कोई व्यक्ति गलत जानकारी देता है तो उसे सजा भी हो सकती है। वर्ष 2011-12 में ओबीसी के लिए जो गिनती कराई गई वह जनगणना एक्ट के तहत नही कराई गई। इसे गृहमंत्रालय के बजाय ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा कराया गया। इसे आगंनबाडी कार्यकर्ताओं एवं एनजीओ इत्यादि से कराया गया।यह जनगणना न होकर एक प्रकार का सामाजिक एवं आर्थिक सर्वेक्षण है। वर्ष 2014 में बीजेपी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार ने 2015 में कहा कि इस गणना के जाति विवरण में 8.19 करोड़ गलतियां पाई गई। इनमें से 6.73 करोड़ गलतियां सुधार ली गई हैं जबकि शेष गलतियां सुधारना बाकी हैं। इस गणना में सुधार के लिए नीति आयोग के उपाध्यक्ष अरविन्द पनगड़िया की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई गई। इस कमेटी की कभी बैठक ही नही हुई और पनगड़िया नीति आयोग छोड़कर वापस अमेरिका चले गये।चूंकि यह गणना त्रुटिपूर्ण थी अत: लगभग 5 हजार करोड़ रुपये खर्च करने के बावजूदइसके अंतिम आंकड़े आज तक सार्वजनिक नही किये जा सके हैं।
कुछ लोग यह तर्क देते रहते हैं कि जाति जनगणना से जातिवाद बढेगा। इस कुतर्क में कोई सच्चाई नही है। जाति जनगणना नही होने से भारत में जातिवाद घटा नही है अपितु बढ़ रहा है। जाति जनगणना नही होने से देश की नीतियां 1931 की गणना के आधार पर बन रही हैं जो न्याय नही कर सकती। 1931 की जनगणना के आधार पर केन्द्र द्वारा ओबीसी के विकास के लिए राज्यों को फंड दिये जा रहे हैं। बगैर गिनती के फंडस का सही आबंटन संभव नही है। यहां यह प्रश्न भी पैदा होता है कि जब धर्म और भाषा के आधार पर जनगणनाओं में आकड़े इक्कठे किये जा रहे हैं तब जाति के आधार पर गणना क्यों नही की जाती ? जब देश में जानवरों की गिनती हो सकती है तब जाति के आधार पर ओबीसी की गिनती क्यों नही हो सकती ? हकीकत में एक वर्ग विशेष को यह भय सता रहा है कि वास्तविकता सामने आने से उनके वर्चस्व पर सवाल उठेंगे ?
मेरा ऐसा मानना है कि केन्द्र सरकारों ने कभी ओबीसी की गिनती कराना चाहा ही नही। अभी भी इतनी ही खबर है कि गृह मंत्रालय के प्रवक्ता ने ओबीसी के आंकड़े जुटाने की बात कही है।अगर इस बार भी सिर्फ ओबीसी की गणना की जाती है तो उसमें भी सही आंकड़ें नही आ पावेगें। कई जातियां एक राज्य में ओबीसी में हैं तो दूसरे में एससी में। कोई जाति एक राज्य में ओबीसी है तो दूसरे में सामान्य। मेरी स्वयं की जाट जाति मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तरप्रदेश एवं दिल्ली जैसे आठ राज्यों में ओबीसी है जबकि हरियाणा में सामान्य। राजस्थान में केन्द्र एवं राज्य, दोनों में ओबीसी है तो शेष में सिर्फ राज्यों में।
अगर मोदी सरकार वास्तव में ओबीसी की गिनती कराने हेतु इमानदार है तो उसे 2021 की जनगणना में जाति का कॉलम जोड़ देना चाहिए। ओबीसी की गणना कराने का वर्तमान निर्णयन तो सरकार का है और ना ही इस संबंध में कोई केबिनेट प्रस्ताव पारित हुआ है। अगर मोदी सरकार चाहती है कि देश सच्चाई के आधार पर चले तो सरकार को सिर्फ ओबीसी की गणना नही अपितु समस्त जातियों की गणना करानी चाहिए। संसद में बाकायदा इसकी घोषणा होनी चाहिए। जनगणना कमिश्नर को निर्देश दिये जाने चाहिए कि जिस तरह आजादी के पूर्व 1931 तक जाति जनगणना होती थी उसी तरह जातियों को गिना जावे अन्यथा वर्तमान खबर भ्रम फैलाने के अलावा कुछ नही है।भारत तभी सशक्त राष्ट्र बनेगा जब सभी जातियों का एक समान विकास हो।

मोदी सरकार तीन तलाक मामले में अटक कर रह गई
डॉ हिदायत अहमद खान
लंबे इंतजार के बाद आखिरकार कैबिनेट ने तीन तलाक वाले अध्यादेश पर मुहर लगा ही दी। इसके बाद अब सत्ता पक्ष खासतौर पर भाजपा कह सकती है कि मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक जैसे दंश से मोदी सरकार ने छुटकारा दिला दिया है। अब यदि कोई पति महज तीन बार तलाक कहकर पत्नी को अपनी जिंदगी से बेदखल करने की हिमाकत करता है तो उसे जेल भी जाना पड़ सकता है। कहने में यह स्थिति बहुत ही बेहतर और महिलाओं को शक्ति प्रदान करने वाली प्रतीत होती है, लेकिन जितनी आसान नजर आती है उतनी है नहीं, क्योंकि एक ओर जहां सामाजिक ताने-बाने का सवाल है तो वहीं पारिवारिक परिस्थितियां भी हैं। इससे आगे बढ़ते हैं तो पुलिसिया रुख और कचहरी का कठिन सफर भी है। न्याय की खातिर एक महिला को इन रास्तों से तब भी गुजरना ही होगा। वहीं दूसरी तरफ इस अध्यादेश को कानून की शक्ल देने के लिए मोदी सरकार को 6 माह के अंदर में राज्यसभा से पास करवाने की कवायद भी पूरी करनी होगी, जहां यह अटका हुआ है। इसके बगैर इसे पूर्ण नहीं माना जा सकता है। बहरहाल इसके बाद विपक्ष तो देश की आमजनता को यह याद दिलाने का काम पूरी जिम्मेदारी से करेगा ही करेगा कि जो काम अहम थे उन पर तो इस सरकार ने कोई फैसले नहीं लिए और न ही उन्हें आगे ही बढ़ाया। ऐसे तमाम वादे जो पिछले आम चुनाव में किए गए उन्हें भी पूरा नहीं किया गया। इसलिए अब तीन तलाक की ताल पर पूरे देश को नचाने का जो काम मोदी सरकार ने किया है क्या उससे उसके वो सारे गुनाह धुल जाएंगे जो कि जाने-अनजाने में उससे हो गए हैं। इसमें सबसे पहले काले धन का ही मामला है, जिसे लेकर भाजपा का दावा था कि उनकी सरकार बनते ही विदेश में जमा कालाधन वापस देश में लाया जाएगा और इस अकूत धन की प्राप्ति के बाद मोदी सरकार सभी लोगों के बैंक खातों में 15-15 लाख रुपए जमा करवा देगी। यहां विपक्ष के देखने में यह आया कि पैसे जमा करवाने की बजाय मोदी सरकार ने नोटबंदी के जरिए लोगों के जमा धन को ही लूटने जैसा काम कर दिखाया है। जो पैसा गाढ़ी कमाई से बचाकर लोगों ने अपने पास जमा कर रखा था उसे भी निकलवाकर बैंकों में जमा करवा दिया गया और उसके बाद तरह-तरह के नीयम थोप दिए गए, जिससे लोगों को अच्छी खासी परेशानी हुई। यही नहीं बल्कि जिस जीएसटी का भाजपा विपक्ष में रहते हुए विरोध करती रही उसे ही युद्ध स्तर पर लागू कर दिया गया, जिससे कारोबारियों, व्यापारियों को भी खासा नुक्सान उठाना पड़ा। अनेक लोगों के कारोबार ठप हो गए, अनेक दुकाने और संस्थान बंद कर दिए गए और जो मालिक थे वो भी तंगहाली के आलम में कर्मचारी बनकर कहीं और काम करने पर मजबूर हो गए। इस सरकार की सबसे बड़ी वादा खिलाफी अयोध्या मामले के तौर पर विपक्ष दिखाता रहा है। दरअसल कहा भी यही गया था कि पूर्ण बहुमत वाली सरकार आने के बाद यदि सरलता से राम मंदिर नहीं बनाया जा सका तो सरकार संसद में बिल लाकर और कानून बनाकर मंदिर बनवाने का काम करेगी। अब यह स्पष्ट नहीं है कि मंदिर निर्माण की बात किसने किससे कही, क्योंकि चुनाव जीतने के बाद से यह कहा जाने लगा था कि मंदिर निर्माण का मुद्दा न तो भाजपा के एजेंडे में था और न ही मोदी सरकार का है। सवाल यही है कि जब मुद्दा किसी का नहीं रहा तो फिर वोट इसके नाम पर क्यों मांगे गए? खैर इससे यह तो तय हो गया कि जो भाजपा या मोदी सरकार ने कहा उसे किया नहीं और जो किया उस पर तो कभी विचार भी नहीं किया गया, उन्हीं में से एक मामला तीन तलाक बाला रहा है, जिसे लोकसभा से पहले ही पास करवाया जा चुका है, लेकिन राज्यसभा में यह लंबित है। फिलहाल मोदी सरकार के सामने मुश्किल यह है कि इस अध्यादेश को 6 माह में संसद से पास करवाना है और अगले साल ही आम चुनाव भी हैं, जिसे देखते हुए इससे समय रहते बाहर भी निकलना होगा, वर्ना अन्य महत्वपूर्ण मामले हाथ से खिसकते चले जाएंगे। फिलहाल अध्यादेश से ही काम चल जाएगा! इस पूरे मामले में कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला का कहना है कि ‘मोदी सरकार इसे मुस्लिमों के लिए न्याय का मुद्दा बनाने की बजाए राजनीतिक मुद्दा बना रही है।’ वहीं दूसरी तरफ कैबिनेट की जानकारी देते हुए कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद ने कांग्रेस पर निशाना साधना नहीं भूला और यहां तक कह गए कि वो पूरी जिम्मेदारी के साथ आरोप लगा रहे हैं कि कांग्रेस की सबसे बड़ी नेता, एक प्रतिष्ठित महिला नेता, इसके बाद भी अभी तक शुद्ध वोटबैंक की राजनीति के लिए तीन तालक जैसे बर्बर, अमानवीय कानून को खत्म करने की इजाजत नहीं दे रही हैं।’ इसका सीधा आशय राज्यसभा में बिल के अटके होने से है। बहरहाल जिस बर्बरता की बात कानून मंत्री कह रहे हैं वो तो भीड़ द्वारा की जा रही निहत्थों की हत्याओं से ज्यादा बर्बर तो नहीं कही जा सकती है। सरेराह महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनकी इज्जत उछाली गई है, मासूम बच्चियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म के मामले भी हुए हैं। बावजूद इसके यह सत्य है कि मुस्लिम समाज में तलाक को सबसे निकृष्ट दर्जे पर रखा गया है और इसका उपयोग करने वाले कभी भी अच्छी नजरों से नहीं देखे जाते हैं। बावजूद इसके तलाक के मामले बढ़े हैं, जैसा कि कानून मंत्री बताते हैं कि जनवरी 2017 से 13 सितम्बर 2018 तक तीन तलाक़ की 430 घटनाएं सामने आई हैं। राज्यवार बात की जाए तो तलाक के सबसे ज्यादा मामले उत्तर प्रदेश से हैं जहां कुल 246 मामले सामने आएं हैं, जबकि सबसे कम दिल्ली में महज एक मामला सामने आया है। जबकि असम में 11, बिहार में 19, झारखंड में 35, मध्यप्रदेश 37, महाराष्ट्र 27 और तेलंगाना में 10 मामले सामने आए हैं। अंतत: यह तय है कि मोदी सरकार जहां एससी/एसटी एक्ट को लेकर उलझ चुकी है तो वहीं अब तलाक मामले में वह अटक कर रह जाएगी। ये ऐसे मामले हैं जिससे न तो बेरोजगारी का हल होने वाला है, न देश के विकास को गति मिलने वाली है और न ही कानून-व्यवस्था ही दुरुस्त हो रही है। निरा राजनीति है जिसे आम चुनाव में भुनाने के लिए तैयार किया गया है, इसके बाद कोई नहीं पूछेगा कि इस बिल या अध्यादेश का क्या हुआ।

अच्छे और बुरे कर्मो का फल
तेजबहादुर सिंह भुवाल
स्वर्ग और नर्क के बारे में आपने हमेशा वेद पुराण, ग्रंथ और कहानी के रूप में पढ़ी और सुनी होगी, पर हकीकत में स्वर्ग और नर्क की जिन्दगी के बारे में कोई नहीं जान पाया है। प्रायः कहा जाता है कि अच्छे कर्म करने वाला व्यक्ति मृत्यु के उपरांत स्वर्ग में स्थान प्राप्त करता है और बुरा कर्म करने वाला व्यक्ति नर्क में जाता है पर आज तक किसी ने इसकी हकीकत को जान नहीं पाए।
भगवत गीता में अर्जुन को श्री कृष्ण के द्वारा दिये गये उपदेश के द्वारा एवं गरूड़ पुराण में इसका विवरण विस्तृत रूप से बताया गया है कि व्यक्ति के मृत्यु उपरांत उसके द्वारा किये गये किस-किस बुरे कर्म करने से कौन-कौन से यातनाये भोगनी पड़ती हैं, जाने-अनजाने में या फिर जानबूझ कर किसी व्यक्ति के द्वारा कोई बुरा कर्म, बुरा व्यवहार, जीव हत्या या फिर घनघोर पाप किया है तो उसके हिसाब से उसे दण्ड भोगना पड़ता है। जो व्यक्ति सदा अच्छे कर्म करता है, दूसरो के लिए सोचता है, सदाचार करता है और परोपकार करता है, उसे स्वर्ग में स्थान मिलता है। लेकिन इस रहस्य को कोई नहीं बता पाया कि वास्तव में स्वर्ग और नर्क में जाकर कैसा लगता है और वहां कैसा आव-भगत किया जाता है। यह एक रहस्य मात्र है। क्योंकि व्यक्ति की मृत्यु होने के बाद आप बीती बताने के लिए वह वापस लौट के नहीं आता। जब वह आता है तो वह दूसरे शरीर में जन्म लेकर आता है। उस वक्त उसको पिछली सभी बातें याद नहीं रहती। सतयुग, द्वापर एवं त्रेतायुग की बात अलग है, वहां के लोग तपस्वी, योगी, सदाचारी हुआ करते थे, पर यह कलयुग हैं। यहां पर सभी कर्म करने वाले प्राणी मिलेंगे, जिनका कर्म अलग-अलग होगा। उन्हीं कर्मों के हिसाब से उनको फल मिलता है।
मनुष्य का आत्मा अमर है, वह परमपिता परमेश्वर की कृपा से अनन्य शरीर में प्रवेश करता है और शरीर के मृत्यु उपरांत दूसरे के शरीर में प्रवेश कर जन्म लेता है। कोई भी जीव के शरीर को चलाने वाले एक ही हैं वह है ईश्वर। हम कहते है कि हम सांस लेते हैं, हम देखते हैं। लेकिन यह सब काम ईश्वर की कृपा से ही संभव है। हम चाह कर भी सांस नहीं रोक सकते और कितना भी प्रयास कर ले कि बंद सांस को जागृत कर ले संभव नहीं होगा। इस दुनिया में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वर की कृपा से हो रहा है। हम चाहे कुछ भी कर ले दुनिया से छुपा सकते है पर ईश्वर से नहीं छुपा सकते। हम भले ही मनुष्य अलग-अलग जाति, धर्म, संप्रदाय से बंधे हुए है पर सभी का ईश्वर एक ही है। ईश्वर के इजाजत के बगैर पेड़ का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, तो मनुष्य का जीवन कैसे चल सकता है।
ईश्वर ने सबसे खूबसूरत अगर बनाया है तो वह है मनुष्य। ईश्वर ने मनुष्य को सभी जीवों से सबसे बुद्धिमान बनाया है। पर मनुष्य ईश्वर को ना मानकर केवल अपने अहंकार, तृष्णा, द्वेष, लालच, बुराई, स्वार्थ, अपना-पराया इसमें ही डूबा रहता है। कलयुग में मनुष्य को केवल भौतिक सुख-सुविधा, धन, भोग-विलास के अलावा कुछ नहीं दिखायी देता। मनुष्य स्वार्थ में रहकर केवल अहम् मैं शब्द के कारण दुनिया में जीवन जीता है, जो उसके पतन का कारण बनता है। मनुष्य जीतना भी प्रयास कर ले कि वह अपने सपने पूरा करेगा और ज्यादा से ज्यादा जीवन जी सकता है, पर ऐसा नहीं हो सकता। जीना और मरना तो केवल ईश्वर के हाथ हैं। कोई भी मनुष्य कब मरेगा और कैसे मरेगा, यह सब ईश्वर के पास गोपनीय होता है, जिसका कोई लिंक नहीं होता।
महाभारत युद्ध के समय जब भीष्म पितामह बाड़ों की सैय्या पर सोये हुए थे, तब सभी कौरव और पाण्डवों ने उनसे आकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया। बाद में श्री कृष्ण जी भी उनसे मिलने आए। तब भीष्म पितामह ने उनको प्रणाम किया और पूछा हे केशव मैने आज तक ऐसा कोई कर्म नहीं किया है, जिसके कारण मुझे बाड़ों की सैय्या में सोना पड़ रहा है। आप ही बताएं मेरी क्या गलती है। तब श्री कृष्ण जी ने कहा कि पितामह आप तो स्वयं जान सकते हैं कि क्य आपके पिछले जन्मों में आपने क्या-क्या कर्म किया है। तब पितामह बोले मैने तो अपने पिछले 100 जन्मों को देख चुका हूं पर मुझे कोई अनुचित कर्म नहीं दिखायी दिया। तब श्री कृष्ण ने कहा कि आप अपना एक और जन्म पीछे जाकर देखिए। आप पिछले अपने 101 जन्म में किसी नगर के राजा थे, आप अपने रथ पर बैठकर किसी दूसरे नगर जा रहे थे, तभी रास्ते में एक सांप रास्ते में आ गया था, उस सांप को आपके द्वारा किनारे करने के निर्देश दिए गए थे, उस सांप को आपके सेवकों ने किनारे फेक दिया, पर उसे फेकने पर वह एक कटीले झाड़ियों में जा फसा, जिसके कारण सांप के शरीर में अनेको कांटे चुभ गये। उसे निकालने की बहुत कोशिश की गयी पर वह कटिले झाड़ियों में और फसता चला गया और कुछ दिन बाद उसकी मृत्यु हो गयी। यही कर्म था जिसका फल आपको इस जन्म को चुकाना पड़ रहा है। तब पितामह ने कहा कि प्रभु मैने तो जानबूझ कर ऐसा नहीं किया था। श्री कृष्ण जी बोले हे पितामह आपने जान किया हो या अनजाने में पर आपके हाथों उसकी जान चली गयी। इसी कारण आपको उसका फल मिलेगा ही। पर पिछले 100 जन्मों में आपके अच्छु कर्मों के कारण उसका फल नहीं मिल पाया। इस जन्म में उसका हिसाब पूरा करने का समय आया है, इस कारण आपको बाडो की सैय्या पर सोना पड़ रहा है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्तियों को उसके कर्मो का फल मिलता जरूर है।
आज के समय में हर कोई चाहता है कि वह लम्बे समय तक जीवित रहें और अपने घर-परिवार में ज्यादा से ज्यादा समय व्यतीत कर सके, पर वह ऐसा नहीं हो पाता। कारण एक ही है मनुष्य अपनी दिनचर्या को विपरीत कर चल रहा है। स्वर्ग और नर्क मृत्यु के बाद नहीं बल्कि इसी जीवन में ही भोगना पड़ता है। आप ही सोचिए जो व्यक्ति कई गुनाह कर भी राजयोग कर रहा है, उसकी जिन्दगी सरल होगी, पर नहीं। वह असंतोष, दुखी, अनेकों बीमारी से ग्रसित, अप्रसन्न एवं विभिन्न चिन्ताओं में डूबा रहता है, वहीं नर्क योनी होती है, जिसे हर हाल में मनुष्य को जीते जी भोगना पड़ता है। ईश्वर के खाते में गुनाहों का हिसाब होता है और वह ऐसा फैसला करता है कि वह व्यक्ति जीते जी नर्क से भयानक दण्ड को भोगता ही हैं। इसी प्रकार अच्छे कर्म करने वाले मनुष्य को ईश्वर उनके प्रति सहानुभूतिपूर्वक उज्जवल भविष्य का निर्माण करते हैं।
इसलिए मनुष्य को मृत्यु के बाद जो भी फल मिले उसे भूलाकर वर्तमान जीवन में हमेशा सत्य के मार्ग पर चलना चाहिए। मनुष्य का समय बहुत कीमती होता है, उसे हर पल ईश्वर के बताये हुए रास्ते में चलकर दूसरों के प्रति प्रेम, आदर, सम्मान, परोपकार और उदारता का भाव रखकर जीवन जीना चाहिए।

भारत क्यों दबे अमेरिका से ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के रक्षा मंत्री जेम्स मेटिस और विदेश मंत्री माइक पोंपियो अभी पिछले हफ्ते ही भारत होकर गए हैं। फिर क्या वजह है कि भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल को वाशिंगटन जाना पड़ा है ? दोभाल तो वास्तविक उप-प्रधानमंत्री ही माने जाते हैं। हमारी रक्षा मंत्री और विदेश मंत्री से भी ज्यादा महत्व उनका है ? उन्हें वाशिंगटन दौड़ना पड़ गया, यह चिंता का विषय है। अखबार कहते हैं कि वे दोनों देशों के मंत्रियों की वार्ता को आगे बढ़ाने गए हैं। दोनों देशों के मंत्रियों ने अपनी बातचीत के बाद दिल्ली में यह प्रभाव छोड़ा था कि ईरान और रुस के मामले में अमेरिका भारत को छूट दे देगा। भारत पर अमेरिका यह दबाव नहीं डालेगा कि वह ईरान से तेल और रुस से शस्त्रास्त्र न खरीदे लेकिन लगता यह है कि वाशिंगटन पहुंचते ही डोनाल्ड ट्रंप ने अपने दोनों मंत्रियों की परेड ले ली है। इसीलिए अमेरिकी सरकार की एक उप-मंत्री ने दो-तीन दिन पहले एक बयान में दो-टूक शब्दों में कहा कि अमेरिका ऐसे किसी भी देश को बख्शनेवाला नहीं है, जो ईरान से तेल खरीदना बंद नहीं करेगा। उसने यह बात चीन, भारत, जापान, दक्षिण कोरिया और यूरोप का नाम लेकर कही है। दूसरे शब्दों में मेटिस और पोंपियो की भारत-यात्रा खाली झुनझुना सिद्ध हो गई है। वे भारत के साथ सामरिक संचार का समझौता कर गए और अपना माल बेचने की हवा बना गए। भारत को क्या मिला ? भारत का कौनसा फायदा हुआ ? यह स्पष्ट है कि यदि भारत ईरान से तेल खरीदना बंद कर देगा तो उसे काफी मंहगे भाव पर अन्य सुदूर देशों से मंगाना होगा। तेल की कीमतें बढ़ेंगी और उसके साथ-साथ सरकार का सिरदर्द भी। अमेरिका ने ईरान के साथ हुए परमाणु-सौदे को रद्द कर दिया है और वह उसे दंडवत करवाना चाहता है। उसे इसकी परवाह नहीं है कि इस कारण भारत का दम फूल सकता है। इस संबंध में भारत को जरा सख्ती से पेश आना चाहिए। अमेरिकी दबाव के आगे बिल्कुल नहीं झुकना चाहिए और यदि अमेरिका निवेदन करे तो ईरान और उसके बीच वह मध्यस्थता भी कर सकता है।

भविष्य का भारत और संघ : डॉ. मयंक चतुर्वेदी
देश की राजधानी दिल्‍ली में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तीन दिवसीय वैचारिक मंथन हो रहा है, विषय रखा गया भविष्य का भारत । इस वैचारिक मंथन में देश-विदेश के उन तमाम श्रेष्ठ जनों को बुलाया गया है जो कि भारत को शक्ति संपन्न बनाने के लिए अपने-अपने स्तर पर कार्य और प्रयास कर रहे हैं। यहाँ एक बड़ा प्रश्न अवश्‍य उभरता है कि आखिर क्यों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को इस तरह के आयोजन की आवश्यकता पड़ी ? संघ के घोर आलोचक तथा उसके हर कार्य में केवल और केवल कमियां ढूंढनेवाले कह रहे हैं कि आगामी वर्ष में लोकसभा चुनाव हैं यह उसी की पूर्व तैयारी है एवं भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए स्‍वयं इस आयोजन के माध्‍यम से संघ आगे आया है। कुछ का कहना है, देश में इस वक्‍त मोदी सरकार को लेकर विरोध की लहर चल रही है, इसीलिए ही संघ ने देश के सभी प्रमुख लोगों को इस कार्यक्रम के माध्‍यम से साधने की कोशिश की है। किंतु क्‍या उनका यह आकलन सही है ?
वस्‍तुत: यह सोचना बिल्‍कुल निराधार है, जब तक कोई संघ के नजदीक नहीं आता, वह उसे ठीक से नहीं जान पाता है। फिर वर्तमान भारत में संघ की चिंताएं व्‍यापक हैं, यही कारण है कि सशक्‍त भारत के लिए संघ उन सभी के साथ अपने विचार साझा करने के लिए आगे आया है जोकि सीधे तौर पर संघ से नहीं जुड़े, जोकि संघ के आलोचक हैं, जोकि संघ के बारे में कुछ जानते हैं और आगे जनना चाहते हैं। किंतु इस सब के बीच काम वे भी कहीं न कहीं भारत के विकास में अपना योगदान देने के लिए ही कर रहे हैं। संभवत: यही कारण हो सकता है जो इस विषय को लेकर भारत के प्रबुद्ध वर्ग के सामने अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का मन संघ ने बनाया।
वास्‍तव में विविध समसामयिक मुद्दों पर स्पष्ट अपने विचार रखने के लिए जो उद्देश्य संघ ने निर्धारित किया है, उससे इतना तो समझ आ ही रहा है कि भारत को लेकर संघ की चिंताएं बेवजह नहीं हैं। एक तरह से देखें तो वर्तमान भारत के दो स्‍वरूप हमारे सामने दिखाई देते हैं, पहला वह भारत है जो तेजी से विश्व अर्थव्यवस्था में अपना प्रमुख योगदान दे रहा है। दुनिया के तमाम देशों के बीच आर्थिक महाशक्ति बनने के लिए उद्यत है तथा जो सामर्थ्यशाली भारत किसी भी समस्या आ जाए तो उससे निपटने के लिए पूर्णता तैयार है। वह अंतरिक्ष में अपने रिकॉर्ड बना रहा है। वह खेल के मैदान में उच्च प्रदर्शन करता है। वह दुनिया की कई सेनाओं के बीच युद्धाभ्यास में अपना परचम लहराता है और अपने श्रम के बूते दुनियाभर में अपना लोहा मनवा रहा है। नासा को भी अपने वैज्ञानिक अनुसंधान के लिए 37 प्रतिशत भारतीय दिमाग की आवश्‍यकता पड़ती है। किंतु क्या इतना पर्याप्त है ?
वस्‍तुत: इसका दूसरा पक्ष उतना ही कमजोर और द्रवित कर देनेवाला है, जिसमें भारत की जनसंख्या 133 करोड़ होने पर उसके 16.3 करोड़ नागरिकों के पास आज भी स्वच्छ और सुरक्षित पेयजल का अभाव है। भारत की कोई भी नदी या प्राकृतिक जल स्‍त्रोत ऐसा नहीं बचा है जिसको हम स्वच्छ कह सकते हों । वनों की कटाई, शहरों का विस्तार, जनसंख्या घनत्व का तेजी के साथ बढ़ना जैसे कई मुद्दे ऐसे हैं जिनमें कि भारत की तस्वीर हमें धुंधली नजर आती है। फिर प्रश्न यही है कि कि क्या भारत जैसा कि वर्तमान में दिखाई देता है भविष्य में भी ऐसा ही दिखाई दिया जाना चाहिए ?
देखा जाए तो इस आयोजन के पीछे जो बड़ा उद्देश्‍य समझ आ रहा है वह पूरी तरह राजनीति से मुक्‍त, राष्‍ट्र प्रेरित और समाज आधारित है। वर्तमान परिवेश में जो लोग भारत को शक्ति संपन्न स्वरुप में देखना चाहते हैं, उसके लिए वे ओर क्या करें तथा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जोकि भारत को उसकी मूल पहचान के साथ अपनी संकल्पनानुसार परम वैभव के शिखर पर देखना चाहता है तथा इसके लिए निरंतर उसके स्वयंसेवक विभिन्न क्षेत्रों में कार्य भी कर रहे हैं । वस्‍तुत: उनका आपसी मिलन और परस्‍पर के सार्थक संवाद के जरिए भविष्‍य का उज्‍जवल भारत गढ़ने का कार्य तेजी के साथ हो, इसके लिए यह संवाद है।
राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का नजरिया भविष्य के भारत को लेकर क्या है, यह जानना सभी के लिए आज अत्यधिक आवश्यक हो गया है, कोई कह सकता है कि हम क्‍यों जाने संघ को ? तब उनके लिए यही कहना होगा कि वर्तमान परिदृष्‍य में वे संघ को नजरअंदाज भी नहीं कर सकते। कारण बहुत स्‍पष्‍ट है, वह यह कि देशभर में संघ की 60 हजार से ज्यादा नित्‍यप्रति चलने वाली शाखाएं हैं, जिसमें कई लाख स्‍वयंसेवक प्रतिदिन भारत को विश्‍व के उच्‍चतम शिखर पर पहुँचाने के‍लिए प्रार्थना के माध्‍यम से अपना संकल्‍प दोहराते हैं। संघ के आज लगभग बड़े-छोटे 50 से ज्यादा संगठन सीधे संघ की प्रेरणा से चल रहे हैं और अन्‍य स्वयंसेवकों के द्वारा अखिल भारतीय स्वरूप में कहें तो यह संख्‍या हजार से भी अधिक है। अकेले एकल फाउंडेशन के माध्यम से ही 65 हजार से अधिक शिक्षक वनवासी एवं भारत के उस सुदूर क्षेत्र में शिक्षा की अलख जगा रहे हैं, जहां पिछले 70 सालों के बाद भी शासकीय एवं निजि स्‍तर पर अन्य कोई संस्था नहीं पहुंची है।
संघ को लेकर इतना ही बताना काफी नहीं होगा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देशभर में सामाजिक कल्याण से जुड़ी 1 लाख 70 हजार से अधिक परियोजनाएं अपने विभिन्न संगठनों के माध्यम से चला रहा है जिनका उद्देश्य और लक्ष्‍य एक ही है भारत का परम वैभव । इस सब के बीच देशभर में आज 4 करोड़ से अधिक लोग संघ से प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष जुड़े हैं। वस्‍तुत: भारत से भूख की समस्या का समाधान हो । भारत में सामाजिक सद्भाव हो। देश में कहीं भी प्राकृतिक या अन्‍य प्रकार कि विपदा आए तो उसका अतिशीघ्र शमन हो । भारत में आर्थिक संपन्नता हो। भारत के प्रत्येक व्यक्ति का सामाजिक स्तर श्रेष्‍ठ हो। सच पूछिए तो संघ आज यही चाहता है और इसी उद्देश्‍य के लिए कार्यरत है।
वस्‍तुत: यह वैचारिक संवाद कई मायनों में बहुत ही अहम दिखाई दे रहा है। आशा की जानी चाहिए कि इस संवाद के जरिए वे सभी लोग संघ को और अधिक सही ढंग से जान सकेंगे जिनके लिए अभी तक रा.स्‍व.संघ. दूर का विचार था। अंतत: संघ का अंतिम लक्ष्‍य जो प्रत्‍यक्ष-अप्रत्‍यक्ष दिखाई देता है, वह यही है कि देश हमें देता है सब कुछ, हम भी तो कुछ देना सीखें, त्यागी तरुओं के जीवन से, हम परहित कुछ करना सीखे, जो अनपढ़ हैं उन्हें पढ़ायें, जो चुप हैं उनको वाणी दें, पिछड़ गये जो उन्हें बढ़ायें, हम मेहनत के दीप जलाकर, नया उजाला करना सीखें। भारत को वैभव शिखर पर मिलकर हम पहुँचाएं आज ।

हिंदी महारानी है या नौकरानी ? डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज हिंदी दिवस है। यह कौनसा दिवस है, हिंदी के महारानी बनने का या नौकरानी बनने का ? मैं तो समझता हूं कि आजादी के बाद हिंदी की हालत नौकरानी से भी बदतर हो गई है। आप हिंदी के सहारे सरकार में एक बाबू की नौकरी भी नहीं पा सकते और हिंदी जाने बिना आप देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री भी बन सकते हैं। इस पर ही मैं पूछता हूं कि हिंदी राजभाषा कैसे हो गई ? आपका राज-काज किस भाषा में चलता है ? अंग्रेजी में ! तो इसका अर्थ क्या हुआ ? हमारी सरकारें हिंदुस्तान की जनता के साथ धोखा कर रही हैं। उसकी आंख में धूल झोंक रही हैं। भारत का प्रामाणिक संविधान अंग्रेजी में हैं। भारत की सभी ऊंची अदालतों की भाषा अंग्रेजी है। सरकार की सारी नीतियां अंग्रेजी में बनती हैं। उन्हें अफसर बनाते हैं और नेता लोग मिट्टी के माधव की तरह उन पर अपने दस्तखत चिपका देते हैं। सारे सांसदों की संसद तक पहुंचने की सीढ़ियां उनकी अपनी भाषाएं होती हैं लेकिन सारे कानून अंग्रेजी में बनते हैं, जिन्हें वे खुद अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। बेचारी जनता की परवाह किसको है ? सरकार का सारा महत्वपूर्ण काम-काज अंग्रेजी में होता है। सरकारी नौकरियों की भर्ती में अंग्रेजी अनिवार्य है। उच्च सरकारी नौकरियां पानेवालों में अंग्रेजी माध्यमवालों की भरमार है। उच्च शिक्षा का तो बेड़ा ही गर्क है। चिकित्सा, विज्ञान और गणित की बात जाने दीजिए, समाजशास्त्रीय विषयों में भी उच्च शिक्षा और शोध का माध्यम आज तक अंग्रेजी ही है। आज से 53 साल पहले मैंने अपना अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पीएच.डी. का शोधग्रंथ हिंदी में लिखने का आग्रह करके इस गुलामी की जंजीर को तोड़ दिया था लेकिन देश के सारे विश्वविद्यालय अभी भी उस जंजीर में जकड़े हुए हैं। अंग्रेजी भाषा को नहीं उसके वर्चस्व को चुनौती देना आज देश का सबसे पहला काम होना चाहिए लेकिन हिंदी दिवस के नाम पर हमारी सरकारें एक पाखंड, एक रस्म-अदायगी, एक खानापूरी हर साल कर डालती हैं। हमारे महान राष्ट्रवादी प्रधानमंत्री को चार साल बाद फुर्सत मिली कि अब उन्होंने केंद्रीय हिंदी समिति की बैठक बुलाई। उसकी वेबसाइट अभी तक सिर्फ अंग्रेजी में ही है। यदि देश में कोई सच्चा नेता हो और उसकी सच्ची राष्ट्रवादी सरकार हो तो वह संविधान की धारा 343 को निकाल बाहर करे और हिंदी को राष्ट्रभाषा और अन्य भारतीय भाषाओं को राज-काज भाषाएं बनाए। ऐसा किए बिना यह देश न तो संपन्न बन सकता है, न समतामूलक, न महाशक्ति!

जब इंडियन अयूब ने दी पाक अयूब को मात
रमेश सर्राफ धमोरा
(15 सितम्बर पुण्य तिथि पर विशेष)
वर्ष 1965 के भारत-पाक युद्ध को दोनों सेनाओं के टैंकों की लड़ाइयों के लिए भी याद किया जाता है। उस समय पाकिस्तान को अपने पैटन टैंकों पर बहुत घमंड था जो उसे अमेरिका से मिले थे। उनके लिए पाकिस्तानी जनरल कहा करते थे कि इन टैंकों का मुकाबला कोई नहीं कर सकता है ये तो अजेय हैं। उस युद्ध में भारतीय सेना के रिसालदार अयूब खान ने पाकिस्तान के इन्हीं 4 पैटन टैंकों को ध्वस्त कर उनका घमण्ड तोड़ दिया था। इस कारनामे के बाद वे अखबारों के माध्यम से देश में इंडियन अयूब के नाम से प्रसिद्ध हो गए। इस नाम के प्रसिद्ध होने की एक दिलचस्प वजह और थी। उस समय पाकिस्तानी के राष्ट्रपति व सेनाध्यक्ष का नाम भी जनरल अयूब खान था जिसके नेतृत्व में युद्ध लड़ा गया था। इसलिए अखबारों में बहुत लिखा गया कि पाकिस्तानी अयूब खान के मुबाकले भारत के पास भी एक अयूब खान है जो पाकिस्तान के पैटन टैंकों को मिट्टी में मिला सकता है।
पाकिस्तानी फौज का नाको चने चबा देने पर कैप्टन अयूब खान की बहादुरी के चर्चे पाकिस्तान में भी होते थे। पाकिस्तान की फौज अपने जनरल अयूब के नेतृत्व पर नाज करती थी। तब भारतीय फौज कहा करती थी कि पाकिस्तानी जनरल को युद्ध में घुटने टिकवा देने के लिए हमारे इंडियन अयूब ही काफी हैं। इससे पूर्व कैप्टन अयूब खान 1962 के युद्ध में भी भाग ले चूके थे।
भारत- पाक युद्व में 9 सितम्बर 1965 को अयूब खान ने सुचेतगढ़ क्षेत्र में पाकिस्तानी टैंकों से टकराते हुए अपने टैंक को दुश्मन के कई टैंको के बीच ले गए और ताबड़तोड़ तरीके से खिलौने की तरह पाकिस्तान के 4 टैंकों को अपने निशाने से तोड़ा तो पाकिस्तानी फौज में भगदड़ मच गई और उनके हौसले पस्त हो गए। युद्ध के दौरान कैप्टन अयूब खान द्वारा कब्जाये गए पाकिस्तानी टैंकों में से एक पैटन टैंक भी भारतीय अयूब अपने साथ लाए थे जिसे जम्मू में रखा गया था।
उत्तर पंजाब का असल वह सरहदी इलाका है जो पाकिस्तानी पैटन टैंकों की कब्रगाह बना। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद यहीं सबसे भीषण मुठभेड़ हुई। यहीं से जनरल हरबक्श सिंह ने पाकिस्तानी सीमा में घुसने का प्लान बनाया था। इसके लिए सबसे पहले पाकिस्तानी सीमा में पड़ने वाली इच्चोगिल नहर को तहस नहस किया जाना था। खबर थी कि लाहौर के पास वाले शहर कसूर और खेमकरन सेक्टर से होकर ही पाकिस्तान के पैटन टैंक भी हिंदुस्तान में घुसेंगे। यह वही कसूर शहर है जिसके बारे में कहते हैं कि उसे राम के बेटे कुश ने बसाया था जहां मशहूर गायिका नूरजहां पैदा हुई थी।
भारत-पाक युद्ध के दौरान पाकिस्तान के पैटन टैंक तोड़ने वाले रिसालदार मोहम्मद अयूब खान को युद्ध में किये गये उनके बहादुरी के प्रदर्शन के लिये भारत सरकार द्वारा 14 नवम्बर 1965 को उन्हे राष्ट्रपति भवन में आयोजित समारोह में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्ण ने वीर चक्र से सम्मानित किया था। उस समारोह में भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने कहा था कि हम पाकिस्तान के जनरल अयूब खान से तो नहीं मिले लेकिन हमें अपने रिसालदार अयूब खान पर गर्व है। कैप्टन अयूब खान की बहादुरी को रेलवे ने भी सम्मान देते हुए उनके पैतृक गांव नूआं के रेलवे स्टेशन पर एक वार मेमोरियल स्टोन स्थापित किया। यह शिलालेख आज भी रेलवे स्टेशन के मुख्य भवन में लगा हुआ कैप्टन अयूब खान की बहादुरी की याद दिला रहा है।
कैप्टन अयूब खान का जन्म 1932 में राजस्थान के झुंझुनू जिले के नूआं गांव में हुआ था। उनके पिता इमाम अली खान किसान थे। माता का नाम मिमन था। वे चार भाइयों में सबसे बड़े थे। कैप्टन अयूब खान के परिवार में उनकी पत्नी ताज बानो, बेटी नसीम बानो, नसरीन बानो, पुत्रवधू शबनम खान,पोता आदिल खान है। उनके दत्तक पुत्र सलाउद्दीन का कुछ समय पहले इंतकाल हो चुका है।
जून 1950 में अयूब खान 18 कैवेलरी में भर्ती हुए थे। अयूब खान 1982 में सेना की 86 आमर्ड से ओनरेरी कैप्टन पद से रिटायर हुये थे। अयूब खान के दादाजी, पिताजी भी भारतीय सेना में काम कर चुके हैं। अब उनके परिवार के चचेरे भाइयों व उनके बच्चे सेना में काम कर रहे हैं। कैप्टन अयूब खान के परिवार की पांचवीं पीढ़ी अभी सेना में कार्यरत है। नूआ गांव देश का एकमात्र ऐसा गांव होगा जिसके हर घर का एक-दो सदस्य सेना में जरूर कार्यरत मिलेगा। कैप्टन अयूब खान राजस्थान से एकमात्र मुस्लिम नेता थे जिन्होने दो बार लोकसभा सदस्य का चुनाव जीता।
1984 में कैप्टन अयूब खान कांग्रेस टिकट पर झुंझुनू से लाकसभा चुनाव लड़ा व विजयी हुये। 1991 में वे दूसरी बार लोकसभा चुनाव में विजयी हुये थे। कैप्टन अयूब खान वर्ष 1995 में नरसिम्हा राव सरकार में केन्द्रीय कृषि राज्य मंत्री बनाए गए। उन्होने कांग्रेस पार्टी में प्रदेश स्तर पर कई वरिष्ठ पदो पर काम किया। 15 सितम्बर 2016 को कैप्टन अयूब खान का 84 वर्ष की उम्र में हार्ट अटैक से निधन हो गया। लोगो ने नम आंखों से उन्हें अंतिम विदाई दी।
साधारण परिवार में जन्मे अयूब खान में देश भक्ति का जज्बा कूट कूटकर भरा हुआ था। सेना से संसद तक पहुंचे कैप्टन अयूब खान अपने गांव में ही रहते थे। वे गांव के छोटे बच्चें को बुलाकर उसको देश सेवा का पाठ पढ़ाया करते थे। वे रोजाना खेतो में जाते थे। निधन से एक घंटे पूर्व भी वे खेत में जाकर उनको संभाल कर आए थे।
कैप्टन अयूब खान उस कायमखानी कौम से तालुक्क रखते हैं जिसकी देशभक्ति की मिसाल पूरे देश में दी जाती है। कायमखानियों द्वारा देश सेवा में किये गये योगदान को देखें तो देश को मुसलमानों पर गर्व महसूस होता है। सेना में भर्ती होना तो मानो कायमखानियों का शगल है। इसीलिये भारतीय सेना की ग्रिनेडीयर में 13 फीसदी व कैवेलेरी में 4 फीसदी स्थान कायमखानियों के लिये आरक्षित हैं। झुंझुनू जिले मे कायमखानी समाज में आज ऐसे अनेक परिवार मिल जायेंगें जिनकी लगातार पांच पीढिय़ां सेना में कार्यरत हैं। द्वितीय विश्वयुद्व से लेकर अब तक अनको कायमखानी वीरो ने सेना में जंग लड़ते हुये शहादत देकर देश का नाम रोशन किया है। देश की आजादी के बाद भी सेना में रह कर देश की रक्षा करते हुये 13 कायमखानी जवानों ने अपना जीवन का बलिदान कर दिया जिसमें से सात जवान तो अकेले झुंझुनू जिले के धनूरी गांव के ही थे।

 

आखिर क्या है केरल की त्रासदी का गाडगिल कनेक्शन ?
आजाद सिंह डबास
मशहूर वैज्ञानिक और पर्यावरणविद् माधव गाडगिल ने 2011 में पश्चिमी घाट के एक बड़े क्षेत्र को पर्यावरण के लिहाज से बेहद संवेदनशील बताया था। भारत सरकार के वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की ओर से गाडगिल की अध्यक्षता में बने वेस्टर्न घाट इकोलॉजिकल एक्सपर्ट पेनल ने केरल के पहाड़ी क्षेत्रों में जारी औघोगिक एवं कारोबारी गतिविधियों पर रोक लगाने का सुझाव दिया था। इस पेनल की रिपोर्ट का तत्समय वामपंथी पार्टियों, अनेक इसाई संगठनों, उद्योगपतियों एवं कारोबारियों ने भारी विरोध किया था। आंदोलनकारियों द्वारा कहा गया कि अगर पेनल की रिपोर्ट पर कार्रवाई की जाती है तो केरल का विकास ही रुक जावेगा।
गाडगिल कमेटी की रिपोर्ट का इस कदर विरोध हुआ कि केरल की तत्कालीन ओमन चांडी सरकार ने 2013 में इसरो के वैज्ञानिक के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में दूसरी कमेटी बना दी। कस्तूरीरंगन कमेटी ने गाडगिल पेनल की रिपोर्ट में कुछ बदलाव किये लेकिन रिपोर्ट इतनी सही थी कि इस कमेटी ने भी उसकी ज्यादातर सिफारिशों को ज्यों का त्यों रहने दिया। राज्य सरकार ने आंदोलनकारियों के दबाव में इस रिपोर्ट को भी नही माना। गाडगिल कमेटी ने 6 राज्यों से जुड़े पश्चिमी घाट को पारिस्थितिकी के हिसाब से बेहद संवेदनशील माना जिस पर भारत सरकार के वन, पर्यावरण एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने 6 राज्यों के 57 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र को अति संवेदनशील मानकर अधिसूचित कर दिया। इसमें केरल का 13 हजार वर्ग कि.मी. क्षेत्र था लेकिन केरल सरकार ने 4 हजार कि.मी. का क्षेत्र बाहर कर दिया।
ज्ञात रहे कि 8 से 18 अगस्त के बीच केरल के 14 जिलों में से 1 को छोड़कर 13 जिलों में भारी बारिश हुई है। बाढ़ में मरने वालों की संख्या 375 तक हो गई है। 2 लाख से ज्यादा लोग राहत शिविरों में रहने के लिए मजबूर हैं। एक मोटे अनुमान के अनुसार 20 हजार करोड़ से ज्यादा की संपत्ति का नुकसार हो चुका है। हालांकि इस वर्ष अभी तक केरल में सामान्य से 42 फीसदी अधिक बारिश हुई है लेकिन अगर सरकार गाडगिल कमेटी के सुझावों को ठीक से मानती तो यह तबाही अत्यंत कम हो सकती थी।केरल सरकार ने रिपोर्ट को दरकिनार करते हुए पूरे राज्य में पत्थरों की अवैध खुदाई जारी रखी जिससे अनेक पहाड़ियां और वन क्षेत्र कमजोर होने से पानी के बहाव को नही रोक सके। राज्य सरकार द्वारा विकास की जरुरत के कारण पारिस्थितिकी के हिसाब से बेहद संवेदनशील क्षेत्रों में निर्माण कार्य और औद्योगिक कारोबारी गतिविधियों को स्वीकृति दी गई और नतीजा सबके सामने है।
केरल के विपक्षी दलों ने विगत 100 सालों की सबसे भयावह बाढ़ को ”मानव जनित आपदा” करार देते हुए न्यायिक जांच की मांग की है। कांग्रेस की अगुवाई वाली यूडीएफ और बीजेपी ने राज्य में सत्तारुढ़ वामपंथी सरकार को इसके लिए जिम्मेदार ठहराया है। विपक्ष के नेता ने बिना किसी चेतावनी के 44 बाधों के शटर्स को खोलने के आदेश की भी न्यायिक जांच की मांग की है। उन्होंने कहा कि सरकार को यह अंदाजा नही था कि पाम्बा नदी पर बने 9 बांध, इडुक्की और एर्नाकुलम जिलों में बने 11 बांध और त्रिशूर में चालाकुडी नदी पर बने 6 बांध खोले जाने पर कौन से इलाके डूब जायेगें। भाजपा के राज्य इकाई अध्यक्ष ने सरकार की अदूरदर्शिता को बाढ़ के लिए जिम्मेदार ठहराया है। उधर अंधविश्वास को बढ़ावा देते हुए हिंदु मक्कल काछी ने दावा किया है कि सबरीमाला मंदिर में महिलाओं को प्रवेश की इजाजत दिये जाने के कारण ईश्वर का यह प्रकोप हुआ है, जो हास्यस्पद है।
विशेषज्ञों के अनुसार बाढ़ के पीछे केरल की भौगोलिक स्थिति भी जिम्मेदार है। केरल का 10 फीसदी भौगोलिक क्षेत्र समुद्र स्तर से भी नीचे है। इस क्षेत्र में लोगों ने घर और कारोबार स्थापित कर लिये है जबकि यह क्षेत्र रहने के लिए सही नही है। इसके अलावा वहां के बाधों का खराब प्रबंधन भी जिम्मेदार रहा है।तमाम बाधों के गेट खोले जाने से बाढ़ की विभिषिका में बढ़ोतरी हुई है। नीति आयोग की रिपोर्ट अनुसार दक्षिण के राज्यों में जल संसाधन को लेकर केरल का प्रदर्शन सबसे खराब रहा है। पर्यावरणविदों के मुताबिक अत्याधिक खनन, गैरवनीय कार्यों के लिए भूमि का इस्तेमाल और नदियों के केचमेंट एरिया में इमारतों के बनाये जाने से केरल में बाढ़ ने त्रासदी का रुप ले लिया है।
गौरतलब है कि पश्चिमी घाट जैव पारिस्थितिकी में विश्व धरोहर वाला भारत का एकमात्र क्षेत्र है। कावेरी सहित कर्नाटक, तमिलनाडु और केरल में जितनी भी नदियां हैं, उन सबका उद्गम यहीं है। विगत दशकों में पश्चिमी घाट के रास्ते केरल को कर्नाटक तथा तमिलनाडु से जोड़ने हेतु अनेक सड़क एवं रेल मार्ग बनाये गये। अनेक बांध एवं विघुत परियोजनाएं लगाई गई। पयर्टन विकास के नाम पर असंख्य होटल और रिसोर्ट बने। भारत विज्ञान संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार केरल में विगत 45 वर्षों में 9 लाख हैक्टयर वनों का सफाया हुआ है। विकास परियोजनाओं के नाम पर पश्चिमी घाट को काफी रोंदा गया है।
एशियाई विकास बैंक एवं पोस्टडैम इंस्टीट्यूट फॉर क्लाइमेट इपैक्ट रिसर्च की रिपोर्ट में कहा गया है कि आगामी 30 वर्षों में दक्षिण एशिया में 20 फीसदी बारिश बढ़ जायेगी जिसकी मुख्य वजह जलवायु परिवर्तन है। जलवायु परिवर्तन के चलते विगत वर्ष चीन, भारत एवं बांग्लादेश में बारिश ने भारी बर्बादी की है। ऐसा होने से इन देशों के लगभग 14 करोड़ लोग आज रोजी-रोटी के संकट से जूझ रहे हैं। मेरा मानना है कि भारत को बाढ़ एवं सूखे से मुक्ति दिलाने के लिए नदियों के साथ-साथ प्रकृति को मानव अधिकार की तरह ही अधिकार देने होंगे। हमें नदी प्रवाह क्षेत्र के साथ-साथ नदी के सक्रिय बाढ़ क्षेत्र और उच्चतम बाढ़ क्षेत्र जो निष्क्रिय बाढ़ क्षेत्र कहलाता है, को संरक्षित और सुरक्षित रखना होगा। जब तक हम प्रकृति एवं नदियों को मानव की आजादी की तरह उन्हें आजाद नही करेगें, तब तक बाढ़ के प्रकोप से बचना मुश्किल ही नही अपितु नामुमकिन है।

 

महिला सुरक्षा हो विकास का पहला मापदंड
विवेक कृष्ण तन्खा
आजकल मैं सुबह का अखबार भी बड़े अनमना सा उठाता हूं। आज प्रदेश की जनता की आवाज में यह कैसा दर्द है, यह कैसी कराह है, ना जाने इस देवभूमि को किसकी नजर लग गई। आये दिन कहीं न कहीं हत्या एवं हैवानियत की घटनाऐं जैसे आम बात हो गई है। कल जबलपुर में हुई पांच वर्ष की मासूम से दुष्कृत्य के बाद निर्मम हत्या एवं उसे हत्या के पश्चात गटर में फेंक देने जैसे घिनोने कृत्य ने मुझो अन्दर तक हिला कर रख दिया है। इसके पूर्व भी मध्यप्रदेश मे सतना में चार वर्ष की मासूम से हैवानियत एवं इसके पूर्व मंदसौर में अबोध बच्ची के साथ और इंदौर में नन्हीं सी बालिका के साथ दुष्कर्म के बाद हत्या की दिल दहलाने वाली घटना लगता है जैसे कानून कहीं सो गया और नैतक मूल्य तो अंतिम शैयया पर चले गए। ऐसे भय एवं आतंक के बादलों से हमारा समाज आतंकित है और शर्मसार होने की सीमा समाप्ति की ओर है। लगता है कि कही मध्यप्रदेश की पहचान देश में “रेप केपिटल” के रुप में प्रचारित न होने लगे। यहां यह संवाद करते हुए एक अजीब सी ग्लानी होती है कि प्रदेश में हर दिन औसतन 15 महिलाओं, अबोधों बालिकाओं, कन्याओं के साथ अत्याचार होता है। हमारे नौनिहालों की रक्षा, सुरक्षा एक चिंतनीय विषय बन चुका है। नैतिक मूल्यों के विषय में चर्चा करना वर्तमान परिदृश्य में लाजिमि है?
मुझे याद है कि आज से लगभग डेढ़ दशक पूर्व प्रदेश के वरिष्ठ एवं लोकप्रिय नेता जो आज हमारे बीच नहीं है, उन्होंने भारतीय सेना में अपनी सेवायें दी थी। वो मुझसे बार-बार कहा करते थे कि “मैं मध्यप्रदेश को उस दिन सुरक्षित मानूंगा जिस दिन हमारी बेटियां सुशिक्षित होकर अच्छे गहनों एवं वस्त्रों के साथ निर्भिक होकर समाज में रह सकेंगी। किंतु क्या यह आज संभव है? एनसीआरबी के आकड़ों के अनुसार 2017 में प्रदेश में अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा दुराचार के मामले दर्ज किए गए है, उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक कुल 5310 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए है, विगत वर्ष भी अन्य राज्यों की तुलना प्रदेश इस प्रकार के अपराधों की सूची में अव्वल रहा है। अभी हाल ही में जबलपुर जिले के गोरखपुर इलाके में भी चौदह वर्षीय नाबालिग के साथ पांच लोगों ने जो दुराचार किया, इन घटनाओं से मैं स्तब्ध हूं। मेरे सोचने समझने की शक्ति विलोप होने लगी है।

आज हमारे देश की कुल आबाद का लगभग 48 फीसद एवं मध्यप्रदेश की भी कुल आबादी का लगभग 48.5 फीसद महिलायें है, फिर भी समाज के इस बड़े हिस्से की सशक्तिकरण की दरकार क्या है? क्यों आज भी हमारे देश की एवं प्रदेश की मातृशक्तियां सुरक्षित नहीं है? मुझे याद है कि भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. नेहरु कहा करते थे कि यदि समाज की जगाना है तो महिलाओं का जागृत होना जरुरी है, एक बार अब वो अपना कदम उठा लेती है तो परिवार, परिवार के साथ समाज आगे बढ़ता है, गांव आगे बढ़ते है, प्रदेश आगे बढ़ता है एवं राष्ट्र विकास के पथ की ओर अग्रसर हो जाता है। भारतीय संविधान के प्रावधानों के अनुरुप महिलाओं की पुरुषों के सामान ही हर क्षेत्र बराबरी का हक है, अधिकार है, क्या आज भी समाज में महिलाओं की बराबरी का दर्जा प्राप्त है…? हमें अपने विचारों एवं सोच पर चिंतन करने की आवश्यकता है महिलायें तभी सुरक्षित होंगी जब वह सुशिक्षित, जागृत एवं अपने अधिकारों के लिए सामने आकर उनको पाने के लिए तत्पर रहेंगी। मां यदि सशक्त है सामाजिक ढांचे में मां अबला नारी के रुप में नहीं, वरन एक शक्ति के रुप में अपनी पहचान की सिद्ध करने में सफल हो जाएगी तो परिवार, समाज सुरक्षित रह सकेगा।
अगर बीते समय की बात करु तो हमारे घर में हमारी मां इस बात से खुश थी की वो अपने पति की परछाई थी, यह सुपरिचित है की काश्मीरी पीड़ितों के परिवार में लड़कियों की शिक्षा पर विशेष ध्यान ओर प्राथमिकता दी जाती है, अच्छी शिक्षा के बावजूद भी हमारी मां पर के दमन में खुश थी, मगर आज मेरी बेटी इस बात के लिए तैयार नहीं है कि वो अपनी जिंदगी मात्र घर गृहस्ती चैनल में व्यतीत कर दे, उसे कहां पढ़ना है, देश में या विदेश में यह सारे निर्णय उसने स्वयं लिए, कहां उसको नौकरी करनी है यह उसकी अपनी सोच थी, मैंने और मेरी पत्नी आरती ने उसे हर कदम पे मात्र समर्थन और मार्गदर्शक दिया है, मगर पूर्णत: मेहनत और सोच मेरी बेटी की थी, और इसका नतीजा यह रहा कि आज वह एक वैश्विक वित्तीय सेवा फर्म मॉर्गन स्टेनली जिसका मुख्यालय न्यूयॉर्क शहर, अमेरिका में है के साथ काम कर चुकी है और अब कैलिफोर्निया में पेपाल के साथ सिलिकॉन बैली में काम कर रही है वो सिलिकॉन बैली में विश्व की सर्वश्रेष्ट कम्पनियों के सीईओ और स्फो की फाइनेंसियल मार्किट की सलाह मशवरा करती है।
सच तो यह है कि आज के दौर की नारियां हमारी बेटियां एक नये परिवर्तन के दौर में है, आज हमको यह परिवर्तन समझना भी होगा और स्वीकार भी करना पड़ेगा, समाज लड़कियों की अब दबा नहीं सकता, आज हमारी हर बेटी की अपनी एक अलग पहचान है वे किसी मायने में लड़कों से कम नहीं हैं, और जब तक हर परिवार में यह सोच जागरुक नहीं होगी तब तक हमारा प्रदेश तरक्की कर ही नहीं सकता। हमें तो सिर्फ उनके लिए साधन बनाने हैं शेष वो खुद अपनी मेहनत और दृढ़ संकल्प से प्राप्त कर लेगी, यह वहीं प्रदेश है जहां रानी लक्ष्मीबाई, रानी अहिल्या बाई, सुभद्रा कुमारी चौहान, राजमाता विजयाराजे सिंधिया, लगा मंगेशकर और कई अन्य महिलाओं ने जन्म लेकरहमारे प्रदेश का नाम गौरान्वित किया और विश्व में अपनी एक अलग पहचान बनाई।
विषय यहां सामाजिक जागरुकता, चैतन्यता का भी है, अपनी सुरक्षा के साथ-साथ समाज में फैली उन मनोविकृति को नियंत्रण में रखना जरुरी हो गया है, जिसके कारण इस प्रकार की घटनाएं जन्म लेती है। आज महिलाएं किसी भी मायने में अपने पति या भाई से कम नहीं है, वे उनसे बेहतर काम कर सकती है और एक बेहतर परिणाम दे सकती है।
(लेखक मध्यप्रदेश से राज्य सभा सांसद एवं सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता है एवं पूर्व में भारत के अतिरिक्त सोलिसिटर जनरल एवं प्रदेश के महाधिवक्ता रह चुके हैं)

सारे नेता इमरान से सबक लें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की तौर पर इमरान खान कितने सफल होंगे, यह तो समय बताएगा लेकिन शपथ लेते ही उन्होंने जो काम किया है, वह भारत के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों के लिए भी एक मिसाल है। उनके अनुकरण करने लायक है। भारत ही नहीं, लगभग सभी हमारे पड़ौसी देशों के नेताओं को इमरान से सबक सीखना चाहिए। भारत के सभी पड़ौसी देशों के बादशाहों, राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से पिछले 50 साल में मैं कई बार मिला हूं। अत्यंत पिछड़े और गरीब देश के नेताओं को भी मैंने शाही ठाठ-बाट में रहते हुए पाया है। लेकिन इमरान खान ऐसे पहले नेता हैं, जो प्रधानमंत्री निवास के लंबे-चौड़े बंगले को छोड़कर सिर्फ तीन बेडरुम के एक सादे से मकान में रहेंगे। उस मकान में अब तक प्रधानमंत्री के सैनिक-सचिव रहा करते थे। वे अपने बनीगला के मकान में रहना ही पसंद करतें लेकिन उनकी सुरक्षा एजेंसी ने उस स्थान को निरापद नहीं पाया। जिस प्रधानमंत्री निवास को इमरान ने दूर से नमस्कार किया है, उसमें 524 कर्मचारी हैं लेकिन वे सिर्फ दो सहायकों को अपने पास रखेंगे। वहां 80 कारे हैं। वे इस प्रधानमंत्री निवास को एक शोध-विश्वविद्यालय बना देना चाहते हैं। मैं अपने देश के कई राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों से इस तरह की सादगी के लिए कह चुका हूं लेकिन उन्होंने अंग्रेजों की नकल पर जनता के सेवकों के निवासों को शाही महलों में बदल लिया है। 7, रेसकोर्स बंगला 50 साल पहले जैसा था, अब वह तीन मूर्ति हाउस से भी ज्यादा फैल गया है। लालबहादुर शास्त्रीजी ने 10, जनपथ की परंपरा डाली थी लेकिन उसे सब भूल गए। सारे विरोधी नेता सत्तारुढ़ नेताओं पर हमला करते रहते हैं, छोटी-छोटी बातों को लेकर लेकिन उनके शाही ठाठ-बाट और अनाप-शनाप खर्चों पर कोई उंगली नहीं उठाता, क्योंकि वे खुद भी इस माले-मुफ्त का मजा लेने के लिए ललचाए रहते हैं। मैं आशा करता हूं कि इमरान अपने इस साहसिक और त्यागमय कदम को सिर्फ एक नौटंकी बनाकर नहीं छोड़ देंगे, जैसे कि आजकल नेता लोग कर रहे हैं बल्कि वे ऐसा आचरण करेंगे कि उनकी यह सादगी पाकिस्तान के संपन्न और सबल वर्गों में एक संक्रामक बीमारी की तरह फैल जाए। यदि पाकिस्तान के ऊंचे फौजी अफसर और मालदार लोग इमरान को अपना आदर्श बना लें तो फिर भ्रष्टाचार पर काबू पाना कठिन नहीं होगा।

राजनीति ‘नाम परिवर्तन’ की….
तनवीर जाफरी
अपनी नैनीताल यात्रा के दौरान एक बार हल्द्वानी से पहले एक स्थान पर रुकने का मौका मिला। उस जगह का नाम था ‘गोरा पड़ाव’। ‘गोरा पड़ाव’ नाम के विषय में कुछ स्थानीय लोगों से मिली जानकारी के अनुसार जब अंग्रज़ों ने काठगोदाम-नैनीताल मार्ग पर सड़क निर्माण का काम शुरु किया था उस समय उन्होंने अपना कैंप कार्यालय इसी जगह पर बनाया था। इसीलिए इस स्थान को ‘गोरा पड़ाव’ यानी अंग्रेज़ों के ठहरने की जगह कहा गया। निश्चित रूप से प्रत्येक नामकरण के पीछे का कोई न कोई इतिहास ज़रूर होता है या फिर अतिविशिष्ट व्यक्ति के सम्मानार्थ उस स्थान का नाम रख दिया जाता है। परंतु एक नाम को मिटा कर उसके स्थान पर दूसरा नाम रख देना ज़ाहिर है कुछ ऐसा ही प्रतीत होता है जैसेकि एक इतिहास को मिटाकर उसपर नया इतिहास चढ़ाने या मढऩे की कोशिश की जा रही हो। कालांतर से नाम परिवर्तन का यह सिलसिला जारी है और शासकगण अपनी सुविधा के अनुसार, झूठी लोकप्रियता अर्जित करने के लिए अथवा क्षेत्र, समुदाय, धर्म अथवा जाति विशेष के लोगों को लुभाने के लिए अनेक स्थानों का नाम बदलते आ रहे हैं। सरकारों द्वारा तो कभी किसी योजना का नाम बदल दिया जाता है, कभी किसी गली-मोहल्ले का नाम बदलने की खबर सुनाई देती है और कभी शहरों व जि़लों के नाम बदल दिए जाते हैं। कलकत्ता को कोलकाता बुलाया जाने लगा। मद्रास चेन्नई बन गया। पांडेचरी पुड्डूचेरी हो गई। बंबई मुंबई बन गई और बैंगलोर का नाम बैंगुलूरू रख दिया गया, गुडग़ांव का नाम गुरूग्राम रख दिया गया। इसी प्रकार देश में और भी कई स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं।
प्रश्र यह है कि नाम परिवर्तन की इस कवायद के पीछे राजनीतिज्ञों की मंशा आ‎खिर क्या होती है? क्या किसी जगह का नाम बदल देने से उस क्षेत्र के विकास या प्रगति की संभावनाएं बढ़ जाती हैं? क्या नाम परिवर्तन के पश्चात उस क्षेत्र विशेष के लोगों को रोज़गार मिलने लग जाता है? क्या उनकी शिक्षा, स्वास्थय, सड़क-बिजली-पानी जैसी समस्याओं में कुछ सुधार होने लगता है? यदि इस प्रकार के कुछ फायदे जनता को होते हों तो निश्चित रूप से जगहों का नाम एक ही बार नहीं बल्कि बार-बार बदला जाना चाहिए। परंतु यदि यह कवायद केवल किसी वर्ग विशेष को खुश करने के लिए और किसी दूसरे वर्ग या समुदाय के लोगों को आहत करने या चिढ़ाने के उद्देश्य से की जा रही हो और साथ-ही साथ इस तरह की प्रक्रिया बेहद खर्चीली भी हो फिर आखिर ऐसे नाम परिवर्तन का मकसद ही क्या है? जहां तक कलकत्ता को कोलकाता मद्रास को चेन्नई तथा पांडेचरी को पुड्डूचेरी का नाम देने का प्रश्र है तो यह नाम क्षेत्रीय भाषा व उच्चारण के अनुरूप परिवर्तित किए गए हैं जैसा कि बंबई के नाम को मराठी भाषा में मुंबई के नाम से पुकारा जाना। परंतु मुंबई के सुप्रसिद्ध एवं सबसे व्यस्त रेलवे स्टेश बंबई वी टी अर्थात् विक्टोरिया टर्मिनल का नाम बदलकर छत्रपति शिवाजी टर्मिनल किए जाने का मकसद यह है कि मुंबईवासियों को अपने मराठा आदर्श पुरुष शिवाजी के नाम का स्टेशन चाहिए न कि अंग्रेज़ महारानी विक्टोरिया के नाम का। इसी गरज़ से बंबई वी टी का नाम बदलकर छत्रपति शिवाजी टर्मिनल या सीएसटी कर दिया गया।
परंतु औरंगज़ेब रोड का नाम बदलकर एपीजे कलाम रोड किया जाना, अकबर रोड, दिल्ली का नाम परिवर्तित कर महाराणा प्रताप रोड रखा जाना, उर्दू बाज़ार का नाम मिटाकर उसे हिंदी बाज़ार किया जाना, हुमायूंपुर का नाम हनुमान नगर कर देना, मीना बाज़ार को माया बाज़ार, अलीनगर को आर्य नगर के नाम से पुकारा जाना, निश्चित रूप से किसी खास व पूर्वाग्रही इरादों का संकेत देता है। उत्तर प्रदेश में तो बार-बार नाम बदलने का तमाशा भी प्रदेश की जनता देख चुकी है। जिस समय मायावती प्रदेश की मुख्यमंत्री बनी थीं उन्होंने अमेठी का नाम छत्रपति साहू जी नगर रख दिया था और उनके बाद जब मुख्यमंत्री की कुर्सी पर मुलायम सिंह यादव आए तो उन्होंने मायावती के आदेश को रद्द करते हुए पुन: अमेठी बना दिया। इसके बाद जब मायावती पुन: सत्ता में आई फिर इसी स्थान को छत्रपति साहू जी महाराज नगर किया गया और इसके बाद जब पुन: अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने तो इसे फिर से अमेठी का नाम दे दिया गया। और भी ऐसे कई जि़ले, शहर व कस्बे थे जिनका नाम कभी मायावती ने बदले तो कभी मुलायम सिंह यादव ने उन्हें पुन: पुराना नाम दे दिया और यह सिलसिला मायावती-अखिलेश यादव की सरकारों तक चलता रहा। गोया यूपी में नाम बदलने का यह सिलसिला तमाशा ही बनकर रह गया।
नाम मिटाने और स्वेच्छा का नाम रखने की कवायद में इस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ सबसे आगे चल रहे हैं। हालांकि नरेंद्र मोदी को भी हिंदू हृदय सम्राट कहा जाता है परंतु योगी आदित्यनाथ देश के इतिहास में पहली बार भगवाधारी एवं किसी बड़ी धार्मिक गद्दी के महंत होने के साथ-साथ मुख्यमंत्री के पद पर विराजमान हैं। यह अपनी पहचान नरेंद्र मोदी से भी अधिक खांटी हिंदुत्ववादी नेता की बनाना चाह रहे हैं। गोरखपुर में कई मोहल्लों, बाज़ारों आदि के नाम बदलकर उन्होंने पहले भी यह साबित करने की कोशिश की है कि वे उर्दू के शब्दों से या मुस्लिम, इस्लाम अथवा उर्दू-फारसी के आसपास के नज़र आने वाले किसी भी शब्द या नाम को अच्छा नहीं समझते भले ही उससे इतिहास की कितनी ही स्मृतियां क्यों न जुड़ी हों। यही वजह है कि सत्ता में आते ही उन्होंने मुगल सराय स्टेशन का नाम बदलकर पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर दीनदयाल नगर कर दिया। ऐसा कर उन्होंने यह संदेश देने की कोशिश की कि हमने मुगल शब्द का नाम मिटाकर एक महान हिंदू शासक होने का कर्तव्य अदा किया है। और दीनदयाल नगर नाम रखकर भारत को हिंदू राष्ट्र का दर्शन देने वाले तथा हिंदुत्ववाद की राजनीति करने वाले जनसंघ के संस्थापक पंडित दीनदयाल उपाध्याय के नाम पर इस शहर का नाम रखा है।
अब आईए ज़रा यह भी जानने की कोशिश करते हैं कि किसी स्टेशन का नाम बदलने की कीमत आज के दौर में हमें क्या चुकानी पड़ती है। इस कवायद के कारण सर्वप्रथम हमें पूरे विश्व की यात्रा संबंधी वेबसाईट्स अपडेटस करनी पड़ती हैं। प्रत्येक वेबसाईट में दी गई समयसारिणी में नाम परिवर्तित करना पड़ता है। रेलगाडिय़ों के डिब्बों के नाम नए सिरे से बदले जाते हैं। स्टेशन कोड, रेलवे टिकट तथा टिकट का साफ्टवेयर आदि बदलना पड़ता है। पूरे विश्व को इस नाम परिवर्तन की सूचना देनी पड़ती है ताकि पूरा विश्व अपने सूचना तंत्र में नए नाम की प्रविष्टि कर सके। पूरे स्टेशन पर लगे बोर्ड, साईन बोर्ड आदि सब कुछ बदले जाते हैं। और एक अनुमान के मुताबिक इस पूरी कवायद पर लगभग 880 करोड़ रुपये का खर्च आता है। सूत्र तो यह भी बताते हैं कि नाम परिवर्तन के बाद सत्ता से जुड़े भक्तों को ही इस प्रक्रिया में खर्च होने वाले पैसों को ‘लूटने’ के लिए उन्हें रोज़गार दिया जाता है। नाम परिवर्तन करने वाले ‘महान नेता’ का अहंकार ऐसे समय में सिर चढ़कर बोलता है और शासक यह समझता है कि वह किसी खास धर्म-समुदाय या व्यक्ति को नीचा दिखाने तथा लोकतंत्र की शक्ति के बल पर अपनी मनमजऱ्ी थोपने में सफल रहा है। परंतु यह सवाल तो हर दौर में कायम रहेगा कि इस कवायद से और जनता के पैसों की इस बरबादी से आखिर आम जनता को क्या फायदा हासिल होता है? नाम परिवर्तन से मंहगाई, बेराज़गारी, स्वाथ्य व शिक्षा आदि के क्षेत्र में जनता को क्या फायदा पहुंचता है?

वाजपेयी जी ने पूरा जीवन देश के लिए जिया
शिवराज सिंह चौहान
मैं बचपन से ही अपने गाँव से भोपाल पढ़ने चला गया था। भोपाल में मैंने सुना कि भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष श्री अटल बिहारी बाजपेयी जी की एक सभा चार बत्ती चौराहे बुधवारे में है। मैंने सोचा चलो भाषण सुन के आएं। अटल जी को जब बोलते सुना तो सुनते ही रह गया।ऐसा लग रहा था कि जैसे कविता उनकी जिव्हा से झर रही है। वो बोल रहे थे,“ये देश केवल जमीन का टुकड़ा नहीं, एक जीता जागता राष्ट्र-पुरुष है, हिमालय इसका मस्तिष्क है, गौरी-शंकर इसकी शिखा हैं, पावस के काले- काले मेघ इसकी केश राशि हैं, दिल्ली दिल है, विंध्यांचल कटि है, नर्मदा करधनी है, पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट इसकी दो विशाल जंघाएँ हैं, कन्याकुमारी इसके पंजे हैं, समुद्र इसके चरण पखारता है, सूरज और चन्द्रमा इसकी आरती उतारते हैं, ये वीरों की भूमि है, शूरों की भूमि है, ये अर्पण की भूमि है, तर्पण की भूमि है, इसका कंकर-कंकर हमारे लिए शंकर है, इसका बिंदु-बिंदु हमारे लिए गंगाजल है, हम जियेंगे तो इसके लिए और कभी मरना पड़ा तो मरेंगे भी इसके लिए और मरने के बाद हमारी अस्थियाँ भी अगर समुद्र में विसर्जित की जाएंगी तो वहां से भी एक ही आवाज़ आएगी –“भारत माता की जय, भारत माता की जय”…
इन शब्दों ने मेरा जीवन बदल दिया। राष्ट्र प्रेम की भावना हृदय में कूट-कूट कर भर गई और मैंने फैसला किया कि अब ये जीवन देश के लिए जीना है। ये राजनीति का मेरा पहला पाठ था। इसके बाद से राजनीति में मैं माननीय अटल जी को गुरू मानने लगा. जब भी कभी अटल जी को सुनने का अवसर मिलता, मैं कोई अवसर नहीं चूकता। बचपन में ही भारतीय जनसंघ का सदस्य बन गया, और मैं राजनीति में सक्रिय हो गया। आपातकाल में जेल चला गया, और जेल से निकल कर जनता पार्टी में काम करने लगा, फिर अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बन गया। अटल जी से मेरी पहली व्यक्तिगत बातचीत भोपाल में एक राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के दौरान तब हुई जब मेरी ड्यूटी एक कार्यकर्ता के नाते उनकी चाय नाश्ते की व्यवस्था के लिए की गई।मैं अटल जी के लिए फल, ड्राई फ्रूट इत्यादि दोपहर के विश्राम के बाद खाने के लिए ले गया। तो वे बोले,“क्या घास- फूस खाने के लिए ले आए, अरे भाई, कचौड़ी लाओ, समोसे लाओ, पकोड़े लाओ या फाफड़े लाओ” और तब मैंने उनके लिए नमकीन की व्यवस्था की। एक छोटे से कार्यकर्ता के लिए उनके इतने सहज संवाद ने मेरे मन में उनके प्रति आत्मीयता और आदर का भाव भर दिया। उनके बड़े नेता होने के नाते मेरे मन में जो हिचक थी, वो समाप्त हो गई।
84 के चुनाव में वे ग्वालियर से हार गए थे, लेकिन हारने के बाद उनकी मस्ती और फक्कड़पन देखने के लायक था। जब वो भोपाल आए तो उन्होंने हँसते हुए मुझे कहा, “अरे शिवराज, अब मैं भी बेरोजगार हो गया हूँ”। 1991 में उन्‍होंने विदिशा और लखनऊ, दो जगह से लोकसभा का चुनाव लड़ा, और ये तय किया कि जहां से ज्यादा मतों से चुनाव जीतेंगे, वो सीट अपने पास रखेंगे। मैं उस समय उसी संसदीय क्षेत्र की बुधनी सीट से विधायक था। बुधनी विधानसभा में चुनाव प्रचार की ज़िम्मेदारी तो मेरी थी ही, लेकिन युवा मोर्चा का प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते, मुझे पूरे संसदीय क्षेत्र में काम करने का मौक़ा मिला था। उस समय अटल जी से और निकट के रिश्ते बन गए। जब मैं उनके प्रतिद्धन्‍दी से उनकी तुलना करते हुए भाषण देता था, तो मेरे एक वाक्य पर वो बहुत हंसते थे। मैं कहता था,“कहाँ मूंछ का बाल और कहाँ पूंछ का बाल”, तो वो हंसते हुए कहते थे “क्या कहते हो भाई, इसको छोड़ो”।
विदिशा लोकसभा वो एक लाख चार हजार वोट से जीते और लखनऊ एक लाख सोलह हजार से। ज्यादा वोटों से जीतने के कारण उन्होंने लखनऊ सीट अपने पास रखी और विदिशा रिक्त होने पर मुझे विदिशा से उपचुनाव लडवाया। उपचुनाव में जीत कर जब मैं उनसे मिलने गया तो उन्होंने मुझे लाड़ से कहा, “आओ विदिशा-पति”. और तब से वो जब भी मुझसे मिलते तो मुझे विदिशा-पति ही कहते और जब भी मैं विदिशा की कोई छोटी समस्या भी लेकर जाता तो उसे भी वो बड़ी गम्भीरता से लेते। एक बार गंजबासौदा में एक ट्रेन का स्टॉप समाप्त कर दिया था। जब मेरे तत्कालीन रेल मंत्री श्री जाफर शरीफ जी से आग्रह करने बाद भी ट्रेन को दोबारा स्टॉपेज नहीं दिया गया तो मैं अटल जी के पास पहुंचा, और मैंने कहा कि आप इस ट्रेन का स्टॉप फिर से गंजबासौदा में करवाइए। उन्होंने संसद भवन में ही पता लगवाया कि श्री जाफर शरीफ जी कहाँ हैं संयोग से वे संसद भवन में ही थे, अटल जी चाहते तो फोन कर सकते थे। लेकिन फोन करने की बजाय उन्होंने कहा कि चलो सीधे मिल के बात करते हैं। इतने बड़े नेता का एक ट्रेन के स्टॉप के लिए उठकर रेल मंत्री के कक्ष में जाना मुझे आश्चर्यचकित कर गया और तब मैंने जाना कि छोटे-छोटे कामों को करवाने के लिए भी अटल जी कितने गम्भीर थे कि जनता की सुविधा के लिए उन्हें वहां जाने में कोई हिचक नहीं है। मैं भी उनके साथ श्री जाफर शरीफ जी के पास गया और तत्काल जाफर शरीफ जी ने रेल का स्टाफ गंजबासौदा में कर दिया।
2003 में मध्यप्रदेश में विधान सभा के चुनाव थे। उस समय तत्कालीन कांग्रेस की सरकार द्वारा सूखा राहत के लिए राशि केंद्र सरकार से मांगी जा रही थी। हम भाजपा के सांसदों का एक समूह यह सोचता था कि विधान सभा के चुनाव आने के पहले यदि यह राशि राज्य शासन को मिलेगी तो सरकार इस राशि का दुरूपयोग चुनाव जीतने के लिए करेगी, इसलिए कई सांसद मिलकर माननीय अटल जी, जो उस समय प्रधानमंत्री थे, के पास पहुंचे, और उनसे कहा कि इस समय राज्य सरकार को कोई भी अतिरिक्त राशि देना उचित नहीं होगा, तब अटल जी ने हमें समझाते हुए कहा कि लोकतन्त्र में चुनी हुई सरकार किसी भी दल की हो, उस सरकार को मदद करने का कर्त्‍तव्‍य केंद्र सरकार का है, इसलिए ऐसे भाव को मन से त्याग दीजिये।
1998 के अंत में मेरा एक भयानक एक्सीडेंट हुआ। मेरे शरीर में 8 फ्रैक्चर थे। उसी दौरान एक वोट से माननीय अटल जी की सरकार गिर गई। मैं भी स्ट्रेचर पर वोट डालने गया था। तब फिर से चुनाव की घोषणा हुई। मुझे लगा ऐसी हालत में मेरा चुनाव लड़ना उपयुक्त नहीं होगा। मैंने अटल जी से कहा कि इस समय विदिशा से कोई दूसरा उम्मीदवार हमें ढूँढना चाहिए, मेरी हालत चुनाव लड़ने जैसी नहीं है, तब उन्होंने स्नेह से मुझे दुलारते हुए कहा, “खीर में इकट्ठे और महेरी में न्यारे, ये नहीं चलेगा. …जब तुम अच्छे थे तब तुम्हें चुनाव लड़वाते थे। आज तुम अस्वस्थ हो तब तुम्हें न लड़वाएं, ये नहीं होगा। चुनाव तुम ही लड़ोगे, जितना बने जाना, बाक़ी चिंता पार्टी करेगी”. और मैं अस्वस्थता की अवस्था में भी चुनाव लड़ा और जीता। ऐसे मानवीय थे अटल जी। ऎसी कई स्मृतियाँ आज मस्तिष्क में कौंध रही हैं।
हमारे प्रिय अटल जी नहीं रहे।
सबको अपना मानने वाले, सबको प्यार करने वाले, सबकी चिंता करने वाले, सर्वप्रिय अजातशत्रु राजनेता, उनके लिए कोई पराया नहीं था, सब अपने थे।पूरा जीवन वे देश के लिए जिए। भारतीय संस्कृति, जीवन मूल्यों और परम्पराओं के वे जीवंत प्रतीक थे। भारत माता के पुजारी. उनकी कविता, “हार नहीं मानूँगा, रार नहीं ठानूँगा, काल के कपाल पर लिखता-मिटाता हूँ, गीत नया गाता हूँ”, साहस के साथ हमें काम करने की प्रेरणा देती है।
उनके चरणों में शत-शत नमन – प्रणाम.
शिवराज सिंह चौहान,
मुख्यमंत्री, मप्र

अटलजी, शत्-शत् नमन तुम्हें है बारम्‍बार
प्रभात झा
वर्तमान भारतीय राजनीति में सत्ता या विपक्ष में रहते हुये जन श्रद्धा का केन्द्र बने रहना उतना ही दुष्कर है जितना कि आज भी चांद पर पहुंचना। अटल बिहारी वाजपेयी 12 साल से बिस्तर पर रहे, पर कोई दिन ऐसा नहीं गया होगा जब उनकी चर्चाएं करोड़ो घरों में नित नहीं होती रही होंगी। आजादी के पहले के नेताओं द्वारा समाज की जो कल्पना हुआ करती थी उसे बनाये रखने का काम जो अटल जी ने किया वो आज से पहले देश के किसी भी नेता ने नहीं किया।
संसद में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के समक्ष संसद में अपनी वाणी से सदन के सदस्यों के दिल को स्पंदित करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी जी के बारे में नेहरू जी ने कहा था कि ‘‘मैं इस युवक में भारत का भविष्य देख रहा हूं’’ सच में नेहरू जी ने उन्हे जो कुछ देखा उसे अटल जी ने अपने कर्म से उस ऊंचाई तक पहुंच कर जनता के सपनों को साकार किया। अटल जी भारत के वो व्यक्तित्व रहे जो विपक्ष में रहते हुये भी देश उनके बारे में यह सोचता रहा कि आज नहीं कल यह व्यक्ति भारत का प्रधानमंत्री बनेगा। राजनीति में जनता यदि नेता के बारे में सोचने लगे कि सच में इस व्यक्ति को प्रधानमंत्री होना चाहिये तो उस व्यक्ति का जीवन स्वयं सार्थक हो जाता है। अटल जी ऐसे ही सख्स थे। अटल जी नैसार्गिक रूप से नेता बने। नेता बनने के लिये उन्होने कभी कोई जोड़ तोड़ नहीं की।
हम ग्वालियर के लोग अटल जी को बहुत करीब से जानते रहे हैं। हम उनके पासन भी नहीं हैं, पर ग्वालियर के होने के नाते स्वतः हमें गर्व महसूस होता है कि हम उस ग्वालियर के हैं, जहां अटल बिहारी वाजपेयी जैसे सख्स पैदा हुये।
अटल बिहारी वाजपेयी जी ने कभी अपने बारे में नहीं सोचा, वे सदैव देश के बारे में सोचते रहे। आजादी के बाद के सात दशकों के वे ऐसे आखिरी नेता रहे जिनके बारे में हर नागरिक कहीं न कहीं श्रद्धा भाव रखता रहा। वे भारत के आखिरी ऐसे नेता रहे जिनको सुनने के लिये लोग अपने आप आते थे लोगो को लाने का कोई प्रयत्न नहीं करना पड़ता था। भारत की वर्षों की राजनीति में अपनी वाणी से भारत के ही नहीं विश्व के लोगों के मन में अपना घर बना लेना सामान्य बात नहीं है। उनकी वाणी का महत्व इसलिये बना क्योंकि उनकी वाणी और चरित्र में दूरी नहीं हुआ करती थी। वो जैसा बोलते थे वैसी ही जिन्दगी जीते थे। ‘‘अटल जी क्या बोलेंगे’’ इस पर देश इंतजार करता था। यदि किसी व्यक्ति की वाणी का देश की जनता सुनने का इंतजार करे, सच में वो व्यक्तित्व अजेय होता है। अगर हम उन्हे वरद(सरस्वती) पुत्र कहें तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। अपने लिये तो सब जीते है, देश के लिये हर पल जीने वाले व्यक्ति बहुत कम होते है।
‘‘नेता’’ शब्द का जब सृष्टि में निर्माण हुआ होगा, उस समय जो कल्पना की गई होगी उसका यदि भारत की जमीन पर शत-प्रतिशत उतारने का और अपने जीवन शैली से जिसने जीने की कोशिश की उस व्यक्ति का नाम अटल बिहारी वाजपेयी है। वो देश के जन गण मन को जीतते रहे। उन्होने भारत की राजनीति में एक एैसी लकीर खींची कि यदि आप भारत माता की सेवा करना चाहते है तो सिर्फ सत्ता में रहकर ही नहीं बल्कि विपक्ष में रहकर भी एक राष्ट्र के प्रहरी के रूप में कर सकते हैं। विपक्ष में रहकर भारतीय मन मानस में श्रद्धा की फसल उगाना सामान्य घटना नहीं है।
अटल जी नैतिकता का नाम है। अटल जी प्रामाणिकता का नाम है। अटल जी राजनैतिक सच का नाम है। अटल जी विरोधियों के मन को जीतने का नाम है। अटल जी विचार का नाम है। अटल जी प्रतिबद्धता का नाम है। अटल जी निराशा में आशा की किरण जगाने वाले व्यक्तित्व का नाम है। अटल जी देश की राजनीति में दूसरे दलों को प्रतिद्वंदी मानते थे विरोधी नहीं। अटल जी जब संसद सदस्य नहीं रहे तब भी निराश नहीं हुये और वे जब प्रधानमंत्री बने तब भी कभी भी वे बौराये नहीं। उनके जीवन में संतुलित सामाजिक व्यवहार ने देश में उनकी स्वीकार्यता बढ़ायी। अपने राष्ट्रीयता के व्यवहार से उन्होने संसद में वर्षों रहने के बाद सभी लोगों के मन मंदिर में बसे रहे।
दुनिया का सबसे कठिन काम होता है कि प्रतिद्वंदियों के मन में श्रद्धा उपजा लेना। वे भारत के अकेले ऐसे राजनीतिज्ञ रहे, जिन्होने विरोध में रहकर भी सत्ताधारियों के मन में श्रद्धा का भाव पैदा किया। ऐसे लोग धरा पर विरले होते हैं। तेरह दिन, तेरह महीने और उनके पांच साल के कार्य काल को कौन भूल सकता है। भारत में गांव गांव में बनी सड़कें आज भी अटल जी को याद कर रहीं है। कारगिल का युद्ध अटल जी की चट्टानी और फौलादी प्रवृति को भी उजागर करता है। परमाणु विस्पोट कर विश्व को स्तब्ध कर देने का अनूठा कार्य भारत में अगर किसी ने किया तो उस व्यक्ति का नाम है अटल बिहारी वाजपेयी। दल में आने वाली पीढ़ी का निर्माण और भारत में प्रतिभा शक्तियों को प्रतिष्ठित करने का अद्वितीय कार्य अटल जी ने किया। वे राजनीति के त्रिवेणी थे। वे पत्रकार रहे और राजनीतिज्ञ भी रहे। वे विचारों के टकराहट में कभी टूटे नहीं और कभी भूले नहीं कि मातृवंदना ही उनकी पूजा थी। राष्ट्रभाषा उनका जीवन था और समाज सेवा उनका कर्म रहा।
हम लोग सौभाग्यशाली रहे कि अटल जी के साथ हमें काम करने का सुनहरा अवसर मिला। वे जन्में जरूर ग्वालियर में थे, पर भारत का कोई कोना नहीं था जो उन पर गर्व नहीं करता था। कश्मीर से कन्याकुमारी तक उन्हांेने अपने अथक वैचारिक परिश्रम से अद्भुत पहचान बनाई थी। वे प्रतिभा को मरने नहीं देते थे, वे प्रतिभा को पलायन नहीं करने देते थे। वे आने वाले कल में वर्तमान को सजाकर और संवार कर रखने में विश्वास रखते थे। उन्होने कभी अपने को स्थापित करने के लिये वो कार्य नहीं किया जो राजनीति में टीका-टिप्पणी की ओर ले जाता हो। वे सच के हिमायती थे। उन्होने अपने जीवन को और सामाजिक जीवन को भी सच से जोड़कर रखा था। वो आजादी के बाद के पहले ऐसे नेता थे जिन पर जीवन के अंतिम सांस तक किसी ने कोई आरोप लगाने की हिम्मत नहीं की। सदन में एक बार उन्हे विरोधियों ने कह दिया कि अटल जी सत्ता के लोभी हैं, उस पर अटल जी ने संसद में कहा कि ‘‘लोभ से उपजी सत्ता को मैं चिमटी से भी छूना पसंद नहीं करूंगा’’।
सन 1975 में जब भारत में इंदिरा जी ने देश में आपातकाल लगाई तब भी उन्होंने जेल की सलाखों को स्वीकार किया। पर इंदिरा जी के सामने झुके नहीं। जेल में भी उन्‍होंने साहित्य को जन्म दिया। साहित्य लिखी। जनता पार्टी जब बनी तो उन पर और तत्कालीन जनसंघ पर दोहरी सदस्यता का आरोप लगा। तो उन्होने कहा कि, ‘‘राष्ट्रीय स्वयं संघ में कोई सदस्य नहीं होता, वह हमारी मातृ संस्था है, हमने वहां देशभक्ति का पाठ पढ़ा है। इसीलिये दोहरी सदस्यता का सवाल ही नहीं उठता। हम जनता पार्टी छोड़ सकते हैं, पर राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ नहीं छोड़ सकते।’’ विचारधारा के प्रति समर्पण का ऐसा अनुपम उदाहरण बहुत ही कम देखने को मिलता है। वे शिक्षक पुत्र थे। संस्कार उन्हे उनके पिता कृष्ण बिहारी वाजपेयी और माता कृष्णा देवी से मिले थे।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू जी ने चीन युद्ध के बाद संसद मंे अटल जी के दिये भाषण को सराहा था। उनके इस भाषण को पूरे देश ने भी सराहा था। भारत पाकिस्तान से जब-जब युद्ध हुआ उन्होने तत्कालीन सत्ता को नीचे दिखाने के बजाये सत्ता के साथ भारत पुत्र होने का प्रमाण दिया। इनकी कार्य शैली के कायल थे स्वर्गीय प्रधानमंत्री नरसिंह राव। जिनेवा शिष्टमंडल में भारत के प्रतिपक्ष नेता के नाते जब भारतीय शिष्टमंडल को लेेकर पंहुचे थे तो विश्व आश्चर्यचकित था। इसका मूल कारण था कि अटल जी कि मातृभक्ति और राष्ट्रभक्ति पर किसी को अविश्वास नहीं था। विश्व के यदि दस राजनीतिक स्टेट्समेन का नाम लिया जाता है, तो उनमें से एक नाम है अटल बिहारी वाजपेयी जी का।
रामजन्म भूमि के आंदोलन में जब ढांचा गिरा तो वे व्यथित हुये, पर संसद में उन्होने कहा कि, ‘‘मैं ढांचे गिराने का पक्षधर नहीं हूं। लेकिन प्रधानमंत्री नंरसिंह राव जी आप देश को यह तो बताइये कि यह परिस्थिति पैदा क्यों हुई। कारसेवकों का धैर्य क्यों टूटा? क्या इस परिस्थिति के निर्माण में सरकार की कोई भूमिका नहीं रही? मैं ढांचा गिराने के पक्ष में नहीं रहा। पर इस बात से सरकार कैसे बच सकती है कि आखिर ऐसी परिस्थिति निर्मित क्यों हुई?
अटल जी बालकों से, कांपते हाथों वाले वृद्ध के मन में भी अपना स्थान सदा बनाते रहे। अटल जी से हम सभी की अनेक स्मृतियां जुड़ी हुई हैं और उनमें हर स्मृतियां प्रेरणादायी रहेगी।
‘‘ ऐ मातृभूमि के मातृभक्त,
पाकर तुमको हम धन्य हुये।
ले पुनः जन्म तू एक बार,
सत नमन तुझे है बार बार।।’’
अटल जी,
तूने था जो दीप जलाया,
उसे न बुझने देंगे हम।
उस बाती की पुंज प्रकाश से,
जगमग जग कर देंगे हम।।
अटल जी एक युगदृष्टा थे। वे दीवार पर लिखे भविष्य की भी अनुभूति कर लेते थे। इसका एक सटीक उदाहरण है कि वे 6 अपै्रेल 1980 को मुंबई स्थित माहिम के मैदान में भारतीय जनता पार्टी के संस्थापक और अध्यक्ष होने के नाते जो अध्यक्षीय भाषण दिया था उसमें उन्होने कहा था,‘‘अन्धेरा छटेगा सूरज निकलेगा, और कमल खिलेगा’’।
आज अटल जी नहीं हैं, पर उनके बाद की पीढ़ीयों-वर्तमान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष के नाते अमित शाह अटल जी के उपरोक्त वाक्य को सार्थक करते हुये भारत के हर राज्य में कमल खिलाने का काम कर रहे हैं। अटल जी काया से हमें छोड़ गये, पर उनकी छाया से हमारा वैचारिक अनुष्ठान तब तक चलता रहेगा जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कान नहीं होगी।
लेखक, सांसद राज्य सभा एवं राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भाजपा

आजादी: आत्मचिंतन

ओमप्रकाश मेहता

हमारी आजादी अब इकहत्तर साल की बुजुर्ग हो गई है, किंतु इस बुजुर्ग आजादी की दुरावस्था ठीक उस बुजुर्ग विधवा माँ जैसी है, जिसने अपने घर, बच्चों और परिवार के लिए अपना सर्वस्व लुटाया और आज यह बूढ़ी असहाय माँ वृद्धाश्रम में शेष जिन्दगी गुजारने को मजबूर है और बड़े जतन से पाला गया उसका बेटा सत्ता के सिंहासन पर बैठा पूरे देश की असहाय माताओं को खुशहाली के सपने दिखा रहा है।आज यही वास्तविकता है, हमारी आजादी की। हमने इकत्तर वर्षों में आजादी का मूल अर्थ ही बदल डाला और उसे ‘मनमर्जी’ के साथ जोड़ दिया। यद्यपि आजादी के संघर्ष के चश्मदीद गवाह आज देश में बहुत कम बचे है, लेकिन जो बचे है उनसे पूछिये, वे आज आजादी के बारे में क्या कहते है? उनकी देश भक्ति की पीड़ा आंसू बनकर झुर्रीवाले गालों पर दिखाई दे रही है, गांधी, पटेल, सुभाष के सपने आज भी उनकी बूढ़ी और बोझिल आंखों में तैर रहे है, आज की सत्ता की लिप्सा उन्हें काफी आहत कर रही है, वे रात-दिन भगवान से एक ही प्रार्थना कर रहे है कि ‘‘और अधिक दुर्दिन दिखाने की सजा उन्हें क्यों दी जा रही है, भगवान उन्हें उठा क्यों नहीं लेता?’’आखिर आज हमारे देश में ऐसी स्थिति क्यों है? हमारे बूढ़े दादा-दादी देश के भविष्य को लेकर चिंतित क्यों है? उनकी बूढ़ी आंखों के सपने पिछले सत्तर सालों में पूरे क्यों नहीं हो पाए? वे अपने भगवान से ‘उठा लेने’ की प्रार्थना क्यों कर रहे है? इन ज्वलंत सवालों का क्या किसी ने भी जवाब खोजने का आज तक प्रयास किया? अरे, सही और सच्ची बात तो यह है कि यह प्रयास करे कौन? क्योंकि हम सभी तो आजादी की इस दुरावस्था के लिए जिम्मेदार है? क्या जिन्होंने अब तक आजादी का बेजा फायदा उठा कर देश को लूटने का प्रयास किया उन्हें सत्ता के गलिीयारों तक हमने चुनकर नहीं भेजा था? और क्या पिछले सत्तर सालों से हम यही प्रक्रिया नहीं अपना रहे है? पहले पचास साल कांग्रेस को दिए, यह सोचकर कि जिसके नेतृत्व में आजादी मिली वे आजादी का सही अर्थ समझेंगे और देश को सही अर्थ समझायेंगे, किंतु डाॅ. शिवमंगल सिंह जी सुमन के शब्दों में- ‘‘नए सफर की खुशी में कुछ ऐसे फूल गए, नाम मंजिल का रहा याद, पता भूल गए’’। कांग्रेस ने अपने हित में राज किया और देश में सत्ता का तरीका ही बदल दिया। दादी कांग्रेस के बाद उसकी पौती भाजपा सत्ता में आई तो वह भी दादी के रास्ते पर चली और आज भी चल रही है। आज की सत्ता सेवा का तो मंत्र ही भूल गई है और देश की जनता अपने हाल पर है, हर पांचवें साल जनता के सामने मधुर व्यंजनों के रूप में वादों को परोस दिया जाता है और जनता उनकी कृत्रिम सुगंध में खोकर, उन्हें आत्मसात कर अवसरवादियों को सत्ता का फिर अवसर दे देती है। इतनी लम्बी अवधि के अब तक के प्रजातंत्र में न तो आम मतदाता ने अपने वोट का सही मूल्य जाना और न ही सत्ता पर काबिज आधुनिक भाग्यविधाताओं ने वोट का सही मूल्य जानने का वोटरों को मौका ही दिया, और इसी घालमेल में हमारा प्रजातंत्र खोकर रह गया। किंतु अब बहुत हो गया, अब भी यदि देश का आम वोटर या नागरिक अपने राष्ट्रीय दायित्वों के प्रति सजग नहीं हुआ तो फिर हमारे देश को हमारे ही आधुनिक ‘‘अंग्रेजों’’ से कोई नहीं बचा पाएगा और हमारी आजादी का अर्थ मौजमस्ती व सत्ता लिप्सा में पूरी तरह बदल जाएगा। फिर अतीत का ‘जगदगुरू’ भारत गुरूकुल के भृत्य की भूमिका में नजर आएगा और उसके लिए आज की राजनीति या उसे चलाने वाले नहीं, हम स्वयं दोषी होगें। इसलिए अभी समय है, सम्हल जाओं और देश की गरिमा को बचाने में अपना सर्वस्व लुटाने को तैयार हो जाओं, यही राष्ट्रभक्ति की ‘अग्निपरीक्षा’ होगी।

भारत का स्वतंत्रता दिवस
डॉक्टर अरविन्द जैन
‘कई साल पहले हमने भाग्य के साथ साक्षात्कार किया और अब समय आ गया है कि अब हम अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करें। आधी रात के समय जब दुनिया सो रही होगी तब भारत अपने जीवन और स्वतंत्रता के लिए जागेगा।’
15 अगस्त 1947 को यह भाषण जवाहरलाल नेहरु ने आज़ाद भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर देश और संविधान सभा को संबोधित करते हुए दिया था।
आज जब हम अपनी स्वतंत्रता के 71 साल मना रहे हैं तब हम उन सब लोगों को अपनी श्रद्धांजलि देते हैं जिन्होंने भारत को ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से आजाद करने के लिए अपने जीवन की आहुति दी।
कई विद्रोहों और सशस्त्र विरोधों के रुप में स्वतंत्रता संग्रामों के कई चरण थे। ब्रिटिश शासन के पहले सौ साल में पूरे देश में कई विद्रोह हुए। इस पारंपरिक विरोध का अंत 1857 के विद्रोह के साथ हुआ जिसमें रियासत के शासकों, सैनिकों और किसानों ने भाग लिया। यह विद्रोह ब्रिटिश साम्राज्य के प्रति इन लोगों के गुस्से और शिकायतों का नतीजा था। विफल होने के बावजूद इसने कई नायक पैदा किए और सभी भारतीयों में एकता पैदा की। मंगल पांडे को 1857 में हुए विद्रोह का महान नायक माना जाता है। इस विद्रोह में लड़ने वाले अन्य लोगों में रानी लक्ष्मीबाई, तात्या टोपे और नाना साहिब शामिल थे। इस विद्रोह ने भारत में ब्रिटिश शासन की नींव हिला दी थी। आखिरकार इसके बाद भारत की सत्ता ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के पास से ब्रिटिश क्राउन के पास चली गई।
1885 से 1905 के समय में भारत में राष्ट्रवाद के बीज बोए गए। एक सेवानिवृत्त ब्रिटिश सिविल सेवक एओ हयूम के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का गठन हुआ। 1905 में भारत में बढ़ती राष्ट्रवाद की भावना को काबू करने के लिए वायसराय कर्जन ने बंगाल के विभाजन की शुरुआत की। इससे स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई और ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार हुआ, साथ ही कर्जन की योजना के विपरीत सारे भारतीय एक हो गए।
एक साल बाद बाल गंगाधर तिलक, विपिन चंद्र पाल और अरोविंदो घोष ने स्वराज की वकालत की। 1919 में रोलेट अधिनियम के खिलाफ लाला लाजपत राय के नेतृत्व में व्यापक राष्ट्रीय अभियान शुरु हुआ जिसमें वो गंभीर रुप से घायल हो गए।
काकोरी षड़यंत्र मामले में राम प्रसाद बिस्मिल और अश्फाकउल्ला खान को फांसी दी गई। चंद्रशेखर आज़ाद और खुदीराम बोस अपने समय के महत्वपूर्ण क्रांतिकारी थे। मार्च 1931 में साजि़शों की श्रृंखला के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी गई। कुछ अन्य क्रांतिकारी समूह भी थे, जैसे सूर्य सेन के नेतृत्व वाला चिटगांव समूह।
यही वो समय था जब गांधी परिदृश्य में उभरे थे। उनका मुख्य योगदान उनकी अहिंसक क्रांति और सत्याग्रह थे। उनका विश्वास सत्य, अहिंसा और साथी मनुष्यों के लिए प्यार में था। अपने साबरमती आश्रम से दांडी तक मार्च करके गांधी ने नमक सत्याग्रह की शुरुआत की थी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान सुभाष चंद्र बोस अपने समय के शक्तिशाली नेता बन कर उभरे। उन्होंने आजाद हिंद फौज का नेतृत्व किया था।
इस समय के दौरान कई महिलाओं ने भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया था। कुछ प्रमुख महिला स्वतंत्रता सेनानियों में अरुणा आसफ अली, सरोजिनी नायडू, भीकाजी कामा और सुचेता कृपलानी थीं।
1942 में भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हुआ जिसमें ब्रिटिश साम्राज्य से जल्द से जल्द भारत छोड़ने की अपील की गई। जून 1947 में लार्ड माउंटबेटन ने भारत के विभाजन की योजना की घोषणा की। अगस्त 1947 में भारत को दो देशों में बांट दिया गया जिसमें मुस्लिम पाकिस्तान और धर्मनिरपेक्ष भारत बने।
भारत को प्रभावित करने वाली राजनीतिक घटनाओं में सबसे दुखद भारत का विभाजन रहा। भारत को दो हिस्सों में बांटकर ब्रिटिश चले गए। देश का विभाजन धार्मिक आधार पर किया गया जिसमें पाकिस्तान इस्लामी राष्ट्र और भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश बना।
यह सवाल आज भी उठता है कि क्या विभाजन सही था और उसे टाला नहीं जा सकता था। बंटवारेे ने दोनों ही देशों को तबाह किया। बंटवारे के बाद पलायन ने लोगों को अंतहीन पीड़ा और दुख दिया। ना सिर्फ देश का विभाजन हुआ बल्कि पंजाब और पश्चिम बंगाल राज्यों का भी विभाजन हुआ जिससे कई दंगे हुए और कई लोगों की जान गई। हिंदू और मुसलमानों ने महिलाओं का इस्तेमाल ताकत के यंत्र के तौर पर किया। कई का बलात्कार किया गया और कई को लूटा गया।
भारत और पाकिस्तान में आज भी विभाजन के घाव भरने बाकी है । सीमा विवाद के कारण दोनों देशों के बीच कई युद्ध हुए हैं। आधिकारिक सीमा तय होने के बाद भी यह विवाद अभी खत्म नहीं हुआ है। कश्मीर पर हक के मुद्दे को लेकर आज भी गतिरोध है। हाल के समय में नियंत्रण रेखा को लेकर दोनों के बीच कारगिल युद्ध भी हुआ था। दोनों देशों में आज भी दुश्मनी की स्थिति है।
स्वतंत्रता के बाद से आज तक भारत ने लंबा सफर तय किया है। यहां कई क्षेत्रों में विकास और व्यापक पैमाने पर प्रगति हुई है। चाहे विज्ञान और प्रौद्योगिकी हो या सूचना प्रौद्योगिकी या अन्य क्षेत्र, जैसे स्वास्थ देखभाल, शिक्षा आदि, भारत ने सभी में उंचाई को छुआ है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत ने बहुत विकास किया है। पूरे देश में जन्मदर और मृत्युदर में काफी कमी आई है। पिछले सालों में देश में साक्षरता दर में इज़ाफा हुआ है।
परमाणु उर्जा के क्षेत्र में भारत ने बहुत प्रगति की है। आज के समय में भारत एक प्रमुख परमाणु शक्ति है। इसके अलावा भारत ने सूचना प्रौद्योगिकी में भी बहुत तरक्की की है। पूरी दुनिया में भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी की मांग है। भारत उन कुछ देशों में शामिल है जिसने विभिन्न उपग्रह लाॅन्च किए हैं।
वर्तमान में भारत विश्व स्तर पर अपना महत्वपूर्ण स्थान बनाये हुए हैं .और इस समय भारत आर्थिक ,राजनैतिक ,स्वतंत्रता में अपना स्थान बनाये हैं इसके बावजूद भारत को स्वछता ,शिक्षा ,स्वस्थ्य ,बिजली पानी सड़क जैसी बुनियादी समस्यायों से जूझ रहा हैं तो हमने औद्योगिक ,तकनीकी,सूचनातंत्र ,उपग्रह आदि के क्षेत्रों में आशातीत सफलता प्राप्त की .इस समय हम धार्मिक उन्माद से भी जूझ रहे हैं।
आजादी के बाद से भारत ने बहुत कुछ हासिल किया है। लेकिन अब भी बहुत कुछ हासिल करना बाकी है। भारत को अब भी विश्व का सबसे उन्नत देश बनना बाकी है। यह भविष्य में कुछ महान उन्नति करने की ओर बढ़ रहा है।
हमारे देश के युवाओं का बहुत कुछ करना हैं और धर्मनिरपेक्षता ,और अनेकता में एकता बहुत बड़ी शक्ति हैं .और हमारे देश में सत्ता का हस्तांतरण विश्व में अपने किस्म का हैं .हमारी प्राथमिकता आबादी का नियंत्रण और रोजगार के अवसर जिस पर वर्तमान सरकार कटिबद्ध हैं।
हम ७१ वे स्वन्त्रता दिवस के अवसर पर मंगल कामना करते हैं की हम विश्व में अहिंसा शांति के साथ भाईचारेदेश के विकास में प्रत्येक नागरिक महती भूमिका निभाकर उन्नत हो।

मानसून की चुनौतियों से कैसे निपटेंगे हम?
योगेश कुमार गोयल
7 अगस्त की शाम दिल्ली में हुई कुछ देर की मूसलाधार बारिश में ही दिल्ली और आसपास के इलाकों में हालात पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गए। कुछ दिनों पूर्व भी लगातार तीन-चार दिन की ही बारिश के चलते देश के कई शहरों में बहुत बदतर हालात देखे गए थे, जगह-जगह सड़कें धंस गई थी, कारों की छतों पर पानी भर गया था, कई जगहों पर मकान ढ़ह गए थे, यमुना खतरे के निशान से ऊपर पहुंच गई थी, बारिश के चलते दर्जनों लोगों की मौत हो गई थी। इन हालातों ने हर साल की भांति एक बार फिर बाढ़, जल निकासी और ऐसे हालातों से निपटने के सारी तैयारियां कर लेने के दावों की कलई खोलकर रख दी। एम समय था, जब मानसून अथवा वर्षा ऋतु के दौरान लोगों का उत्साह देखते ही बनता था किन्तु अब तो यह एक गुजरे जमाने की ही बात लगती है, जब मानसून की बारिश लगातार कई-कई दिनों तक रूकने का नाम नहीं लेती थी और खेत-खलिहान, सड़कें हर कहीं पानी ही पानी नजर आता था लेकिन तब भी हम उस मौसम का भरपूर आनंद उठाते थे। तब गांव हो या शहर, हर कहीं बड़े-बड़े तालाब और गहरे-गहरे कुएं होते थे और पानी अपने आप धीरे-धीरे इनमें समा जाता था, जिससे भूजल स्तर भी बढ़ता था लेकिन अब विकास की अंधी दौड़ में तालाबों की जगह ऊंची-ऊंची इमारतों ने ले ली है, शहर कंक्रीट के जंगल बन गए हैं, अधिकांश जगहों पर कुओं को मिट्टी डालकर भर दिया गया है।
बदइंतजामी और साथ ही प्रकृति के बदले मिजाज के चलते अब हर साल देशभर में प्रचण्ड गर्मी के बाद बारिश रूपी राहत को आफत में बदलते देर नहीं लगती और तब मानसून को लेकर हमारा सारा उत्साह काफूर हो जाता है। पिछले कुछ वर्षों से हम लगातार यही देखते आ रहे हैं कि मानसून दोनों ही रूपों में कहर बरपा रहा है, कहीं बहुत कम बरसकर सूखे के हालात पैदा कर और कहीं जरूरत से ज्यादा बरसकर बाढ़ की विभीषिका उत्पन्न कर। दरअसल हमारी फितरत कुछ ऐसी हो गई है कि हम मानसून का भरपूर आनंद तो लेना चाहते हैं किन्तु इस मौसम में किसी भी छोटी-बड़ी आपदा के उत्पन्न होने की प्रबल आशंकाओं के बावजूद उससे निपटने की पूरी तैयारियां नहीं कर पाते। यह ऐसा खुशनुमा मौसम है, जब प्रकृति हमें भरपूर पानी देती है किन्तु पानी की कमी से बूरी तरह जूझते रहने के बावजूद हम इस पानी को सहेजने के कोई कारगर इंतजाम नहीं करते और यह पानी व्यर्थ ही बहकर समुद्रों में समा जाता है। हालांकि ‘वाटर हार्वेस्टिंग’ (वर्षा जल को विशेष तरीके से संचित करने की प्रणाली) का शोर तो बहुत सुनते रहे हैं लेकिन ऐसी योजनाएं अभी तक सिरे नहीं चढ़ी हैं।
हमारी नाकारा व्यवस्थाओं के चलते चंद घंटों की बारिश में ही दिल्ली, मुम्बई, हैदराबाद, बेंगलुरू जैसे बड़े-बड़े शहरों में भी प्रायः जलप्रलय जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। हल्की सी बारिश क्या हुई, सड़कों पर पानी भर जाता है, गाडि़यां रेंग-रेंगकर चलने लगती हैं, रेल तथा विमान सेवाएं प्रभावित होती हैं, सड़कें धंस जाती हैं, जगह-जगह जलभराव होने से पैदल चलने वालों का बुरा हाल हो जाता है। यह कोई एक साल की बात नहीं है बल्कि हर साल यही नजारा सामने आता है लेकिन स्थानीय प्रशासन द्वारा ऐसे पुख्ता इंतजाम कभी नहीं किए जाते, जिससे लोग बारिश का भरपूर आनंद उठा सकें और बारिश के पानी का संचयन किया जा सके। देश की आजादी के बाद दूरदराज के ग्रामीण क्षेत्र ही बाढ़ की विभीषिका झेलने के लिए जाने जाते थे किन्तु विकास के कई सोपान तय करने के बावजूद देश में हालात इतने बदतर हो चुके हैं कि हर साल हमारे विकसित शहर भी अब बाढ़ जैसी आपदा से त्रस्त हो रहे हैं और हम ऐसी आपदाओं से निपटने के लिए कुछ नहीं कर पा रहे हैं। कहना गलत न होगा कि अमेरिका, जापान, चीन सरीखे देशों की तुलना में आपदा प्रबंधन के मामले में हम कोसों पीछे हैं।
माना कि प्रकृति के समक्ष हम बेबस हैं किन्तु सदैव यही देखा जाता है कि हर प्राकृतिक आपदा के समक्ष उससे बचाव की हमारी समस्त व्यवस्था ताश के पत्तों की भांति ढ़ह जाती है। ऐसी आपदाओं से बचाव तो दूर की कौड़ी है, हम तो मानसून में सामान्य वर्षा होने पर भी बारिश के पानी की निकासी के मामले में साल दर साल फेल होते रहे हैं। हमारी व्यवस्था का काला सच यही है कि देशभर के लगभग तमाम राज्यों में प्रशासन के पास पर्याप्त बजट के बावजूद प्रतिवर्ष छोटे-बड़े नालों की सफाई का काम मानसून से पहले अधूरा रह जाता है, जिसके चलते ऐसे हालात उत्पन्न होते हैं। कई जगहों पर देखा जाता है कि मानसून से पहले नालों की सफाई के दौरान सैंकड़ों मीट्रिक टन सिल्ट निकालकर उसे नाले के करीब ही छोड़ दिया जाता है, जो तेज बारिश के दौरान दोबारा बहकर नाले में चली जाती है और थोड़ी सी बारिश में ही ये नाले उफनते लगते हैं। कागजों में नालों की साफ-सफाई का कार्य पूरा हुआ दर्शा दिया जाता है जबकि वास्तविकता यही है कि हर साल प्रशासन के खोखले दावों और आधी-अधूरी तैयारियों के चलते जनता को ढ़ेरों परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।
देश में कृषि क्षेत्र लंबे समय से गंभीर संकट के दौर से गुजर रहा है और मानसून किसानों के लिए किसी वरदान से कम नहीं होता। बारिश उनके चेहरे पर खुशियां लाती है क्योंकि किसानों की यही आस होती है कि बारिश से उनके खेतों की पर्याप्त सिंचाई होगी और उनके खेत फसलों के रूप में सोना उगलेंगे लेकिन कई बार तमाम भविष्यवाणियों के बावजूद मानसून दगा दे जाता है और किसानों सहित हर कोई आसमान की ओर टकटकी लगाए बारिश का इंतजार करता रह जाता है। यह सब ग्लोबल वार्मिंग का दुष्प्रभाव ही है। खेतों के लिए पानी की आवश्यकता की बात हो या हमारी रोजमर्रा की जरूरतों के लिए, पानी की कमी देश में एक बड़े संकट के रूप में उभरकर सामने आने लगी है। पानी को लेकर देश के विभिन्न हिस्सों से अब आपस में लड़ाई-झगड़े की खबरें भी आने लगी हैं किन्तु फिर भी विड़म्बना ही है कि हम पानी को सहेजने के लिए अपने-अपने स्तर पर प्रयास नहीं करना चाहते। खासकर बारिश के पानी को हम व्यर्थ बह जाने देते हैं, हम उसका इस प्रकार संग्रहण नहीं कर पाते ताकि वर्षभर हमें पानी की कोई कमी महसूस न हो।
आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में 1950 के दशक में प्रति व्यक्ति 5220 घन मीटर पानी उपलब्ध था किन्तु जल संकट की अनदेखी और औद्योगिकीकरण की अंधी दौड़ के चलते आज यह मात्र 1588 घन मीटर रह गया है और 2025 तक यह 1100 घन मीटर प्रति व्यक्ति रहने का अनुमान है। जल प्रबंधन के मामले में हम कितने पिछड़े हैं, इसका सहज अनुमान इसी से लगा सकते हैं कि देश में प्रतिवर्ष 1869 नदियों, बर्फ पिघलने तथा वर्षा के जल से करीब चार हजार घन किलोमीटर जल एकत्रित होता है किन्तु उसमें से हम सिर्फ 1123 घन किलोमीटर का ही उपयोग कर पाते हैं। शेष पानी जल प्रबंधन के अभाव में नालों व नदियों के रास्ते बहकर समुद्र में मिल जाता है। भारत में पानी की कमी की समस्या कितनी विकराल हो चुकी है, इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि भारत में जहां दुनिया की करीब 17 फीसदी आबादी रहती है, वहां दुनिया में उपलब्ध जल का महज चार फीसदी हिस्सा ही मौजूद है। हम अपनी स्कूली किताबों में भी पढ़ते रहे हैं कि पृथ्वी के तीन चौथाई हिस्से पर पानी भरा है किन्तु इसमें से 97 फीसदी पानी समुद्रों में है और सिर्फ तीन फीसदी ही पीने लायक है और उसमें से भी दो फीसदी ग्लेशियरों के रूप में उपलब्ध है। आंकड़ों के अनुसार दुनियाभर में करीब 1.1 अरब लोग जल संकट से जूझ रहे हैं।
अगर हमें पानी की विकराल होती समस्या से बचना है तो इसके लिए सबसे बड़ा उपाय यही है कि धरती रूपी गुल्लक में बारिश का पानी जमा करने के उपाय किए जाएं लेकिन इस कार्य में भी सबसे बड़े बाधक हम स्वयं ही बन रहे हैं। तेज बारिश आने पर हम अपने घरों का कूड़ा-कचरा पॉलीथिन की थैलियों में बांधकर नालियों में बहा देते हैं, जिससे प्रायः नालियां चोक हो जाती हैं और शहर हो या गांव, बारिश का थोड़ा सा पानी इकट्ठा होने पर भी उफनने लगती हैं, जिससे थोड़ी बारिश में भी जलभराव की स्थिति बन जाती है। यही हाल हमने नदियों का भी कर डाला है, औद्योगिकीकरण और जनसंख्या विस्फोट के चलते तालाबों को हमने रिहायशी स्थानों में परिवर्तित कर दिया है और नदियों में इतना कचरा भर दिया है कि वे भी थोड़े से अतिरिक्त पानी से उफनने लगती हैं तथा तेज बारिश होने पर हालात बाढ़ जैसे बन जाते हैं। नदियों में गंदगी व कचरा भरा होने के कारण बारिश का अतिरिक्त पानी इनके रास्ते समुद्रों में समा जाता है और धरती प्यासी ही रह जाती है।
हमें भली-भांति यह समझ लेना होगा कि भूजल का गिरता स्तर ही देश में पेयजल संकट के बढ़ने का प्रमुख कारण है। जिस प्रकार बच्चे अपनी गुल्लक में अभिभावकों से मिले थोड़े-थोड़े पैसों को एकत्रित करते हैं और जरूरत पड़ने पर बचत के उन पैसों का उपयोग किया जाता है, ठीक उसी प्रकार धरती रूपी गुल्लक में पानी एकत्रित करने की आवश्यकता है, जिसका उपयोग जरूरत पड़ने पर आसानी से किया जा सकता है किन्तु इसके लिए पहले की भांति जगह-जगह बड़े-बड़े तालाबों का निर्माण करना होगा, नदियों को साफ-सुथरा बनाने के लिए बड़े स्तर पर जागरूकता अभियान चलाना होगा और जलस्रोतों को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ कड़ी सजा का प्रावधान करना होगा। अगर तालाबों, पोखरों या नदियों में गाद या कचरा जमा नहीं होगा तो बारिश का पानी इनके जरिये धीरे-धीरे रिसकर धरती के नीचे भूजल भंडार में जा मिलेगा है, जिससे भूजल स्तर बढ़ेगा।

नारी’ नाम दिल-दिमाग़ पर फिर भी आबरू की लूट…………
ज़हीर अंसारी
बिहार के मुज़फ़्फ़रपुर और उत्तर प्रदेश के देवरिया के बालिका गृह की घटनाएँ देश को शर्मसार करने वाली सूची में दर्ज हो गई। इन बालिका गृह में बच्चियों के साथ क्या-क्या हुआ अब यह जगज़ाहिर हो चुका है। किस तरह सफ़ेदपोशों ने बच्चियों के कौमार्य को तार-तार किया है, यह सुनकर रोंगटे खड़ा होना स्वभाविक है। हो सकता माताएँ यह घटना सुनकर माता होने पर ग्लानि महसूस कर रहीं हूँ। लेकिन क्या कीजिएगा हमारा समाज ही पुरुष प्रधान है, जहाँ पुरुषों को नैतिक-अनैतिक कार्य करने की तब तक छूट रहती है तब तक क़ानून का शिकंजा ऐसे पुरुषों के गले तक नहीं पहुँचता। ऐसे लोगों पर जब क़ानून अपना पंजा मारता है तो हमारे सियासतदाँ उन्हें बचाने पर्दे के पीछे से सक्रिय हो जाते हैं। दिखावे के लिए सार्वजनिक रूप से एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप मढ़कर जनता को गुमराह करते हैं। कुछ दिन मामला गर्माया रहता है फिर न्याय की मंथर गति में सब कुछ भुला दिया जाता है।
मुज़फ़्फ़रपुर और देवरिया की घटना अचानक सामने नहीं आई। पहले भी बालिका शोषण की बातें यदाकदा शासन-प्रशासन के कानों तक पहुँचती रही मगर रसूखदारों की वजह से अनसुना कर दिया जाता रहा है।
यह वही देश हैं जहाँ क़दम-क़दम पर नारी सम्मान की बात कही जाती है। नारी नाम पुरुष की ज़ुबान पर हर स्थिति-परिस्थिति में रहता है। ‘उषा’ (सुबह) से ‘संध्या’ (शाम) तक ‘लक्ष्मी’, ‘सरस्वती’, ‘विद्या’ और ‘अन्नपूर्णा’ (भोजन) के लिए भागमभाग करता है। ‘शांति’ (सुकून) की तलाश में भटकता है। यही पुरुष जब ‘पूजा-वंदना’ के लिए खड़ा होता है तो गायत्री देवी, पार्वती माँ और दुर्गा जी का स्मरण कर अपनी और अपने परिजन की ‘रक्षा’की ‘अर्चना’ करता है। बाल-बच्चों को चोट लग जाए या बीमार पड़ जाएँ तो ‘करुणा’ और ‘ममता’ से भर जाता है।
लेकिन जब कतिपय पुरुषों पर वहशीपन सवार हो जाता है वह इन तमाम नामों को जो हर वक़्त उसके दिल-दिमाग़ में कौंधते हैं, को भूलकर राक्षसी स्वरुप धारण कर लेता है। तब वह धर्म, नैतिकता और मर्यादा का आवरण उतारकर पिशाच बन जाता है और मजबूर, ग़रीब और बेसहरा बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बनाने में तनिक संकोच नहीं करता।
मुज़फ़्फ़रपुर और देवरिया जैसी घटनाओं पर समाज को लज्जित होना पड़ता है। ऐसे पिशाचों को मातृशक्ति से तब तक कोड़े मरवाना चाहिए जब तक उनके प्राण न निकल जाएँ।

इमरान का स्वागत क्यों नहीं?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इमरान खान की जीत का भारत सरकार ने अभी तक खुलकर स्वागत नहीं किया है। वह शायद इंतजार कर रही है, उस घड़ी का जब इमरान स्पष्ट बहुमत जुटा लेंगे और अपने प्रधानमंत्री होने की खुद घोषणा कर देंगे लेकिन चुनाव-परिणाम आने के दो-तीन दिन बाद सरकार ने जो भी बयान जारी किया है, उसमें दो बातें कही हैं। एक तो पाकिस्तानी जनता की तारीफ की है कि उसने लोकतंत्र की रक्षा की। आतंकवादियों को बुरी तरह से हराया। दूसरे, उसने उम्मीद जाहिर की है कि नई सरकार हिंसा और आतंकवाद पर रोक लगाएगी। लेकिन हमारी सरकार ने इमरान खान के उस बयान पर अभी तक मौन साधा हुआ है, जो उन्होंने चुनाव के बाद दिया था। उन्होंने कहा था कि वे भारत से व्यापार बढ़ाना चाहते हैं और कश्मीर का सवाल बातचीत से हल करना चाहते हैं। यदि भारत एक कदम बढ़ाएगा तो हम दो बढ़ाएंगे। भारत सरकार का ठिठकना मुझे समझ में आता है, क्योंकि सारी दुनिया मानकर चल रही है कि इमरान खान फौज के मोहरे हैं लेकिन क्या पता कि जल्दी ही वे खुद-मुख्तार की तरह पेश आने लगें। भारत सरकार एक पासा फेंककर क्यों नहीं देखती ? इमरान का खुले-आम स्वागत क्यों नहीं करती ? उन्हें भारत-यात्रा का निमंत्रण क्यों नहीं देती ? क्या मालूम इमरान फौज का रवैया बदलने में ही कामयाब हो जाएं ? इमरान के बोल के जवाब में भारत को भी बोल ही तो बोलना है। बोल में भी कोताही किस बात की ? जहां तक पाकिस्तान की चुनावी-धांधली का प्रश्न है, यह मामला गंभीर रुप धारण कर सकता है लेकिन यह पाकिस्तान का अंदरुनी मामला है। भारत इस फटे में अपना पांव क्यों फंसाए ? इमरान जब शपथ लें तो उनके खिलाड़ी मित्रों और निजी परिचित भारतीयों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए कि वे इस्लामाबाद जरुर जाएं। इस बीच यह भी हो सकता है कि भारत पर कोई आतंकवादी हमला करवाकर गाड़ी को पटरी से उतार दिया जाए। इसी अशुभ संभावना के लिए इमरान और मोदी दोनों को तैयार रहना चाहिए।

सामूहिक हिंसा कैसे रुके ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
यह खुशी की बात है कि सरकार ने सामूहिक हिंसा या भीड़ की हिंसा के विरुद्ध सोचना शुरु कर दिया है। यह कितना विचित्र है कि इसका श्रेय हमारे सर्वोच्च न्यायालय को है, उन नेताओं को नहीं, जो जनता की बीच रहने की डींग मारते हैं। यह ठीक है कि गृहमंत्री राजनाथसिंह ने सांसद में सामूहिक हिंसा की निंदा की लेकिन उसके निराकरण की सारी जिम्मेदारी उन्होंने राज्य सरकारों पर छोड़ दी। इस मुद्दे पर मोदी की चुप्पी ने यह छाप छोड़ी कि मानों केंद्र में सरकार नाम की कोई चीज है ही नहीं। चलिए, अब गाड़ी फिर से पटरी पर आ गई है। अब गृह-सचिव के नेतृत्व में बनी अफसरों की एक कमेटी एक माह में रपट दे देगी कि सामूहिक हिंसा कैसे रोकी जाए ? हो सकता है कि वह रपट काफी अच्छी हो और उसके आधार पर बना कानून देश के स्वयंभू-सिरफिरे और हिंसक नागरिकों को काबू कर सके, जरा डरा सके। रपट जैसी भी आए, मेरा विचार है कि भीड़ की हिंसा किसी भी बहाने से हो, उसकी सजा इतनी सख्त होनी चाहिए कि उसका विचार पैदा होते से ही हिंसक लोगों के पसीने छूटने लगें। एक आदमी की हत्या की सजा पूरी भीड़ के सौ आदमियों को मिले। 15-20 दिन में ही मिले। उन्हें लाल किले, विजय चौक या इंडिया गेट पर लटकाया जाए और तीन दिन तक लटकने दिया जाए तो देखिए, उसका क्या असर होता है ! गाय की रक्षा या बच्चे के अपहरण या विधर्मी से शादी या अछूत के मंदिर प्रवेश या विधर्मी से विवाद आदि किसी भी बहाने से हिंसा करनेवालों के होश पहले से उड़ जाएंगे। लेकिन सिर्फ सजा से समाज नहीं बदलेगा। वह हिंसा कई दूसरे रुप धारण कर लेगी, जिसे कानून नहीं पकड़ पाएगा। इसीलिए जरुरी है कि विभिन्न धर्मों के साधु-संत, मुल्ला-मौलवी, पादरी-बिशप, मुनि-भिक्षु लोग अपने अनुयायियों को समझाएं कि भीड़ बनाकर किसी निहत्थे इंसान को मौत के घाट उतारना कितना बड़ा पाप है। जो लोग अपने आप को राष्ट्रवादी और हिंदुत्ववादी कहते हैं, इस मामले में उनकी जिम्मेदारी सबसे ज्यादा है। जब कानून अपना काम करेगा तो वे उसे अपने हाथ में लेकर अपराध क्यों करें ? निहत्थे लोगों पर किसी बहाने से भी भीड़ बनाकर हमला करना शुद्ध कायरता है और हिंदुत्व का भी अपमान है। अपनी सरकार का भी अपमान है। जिसके कानून की रक्षा के लिए आपको कानून तोड़ना पड़े, वह सरकार भी क्या सरकार है ?

जन-आंदोलन रोकने हैं तो बचें चुनावी जुमलों से
डॉ हिदायत अहमद खान
जब कभी किसी समाज के लाखों लोग सड़क पर उतरते हैं तो अचानक ही अनेक सवाल भी जेहन में यूं ही तैरने लगते हैं। ऐसे ही तमाम सवालों में ये भी सवाल जेहन में आता है कि इतनी बड़ी संख्या में आखिर लोग सरकार और प्रशासनिक अमले से कैसे नाराज हो सकते हैं? आखिर इसका मौजूदा राजनीति में क्या महत्व है और इसका असर कहां और किस पर देखा जाने वाला है? मांगों को लेकर आंदोलनकर्ता के तौर पर सड़क में उतरने वाली भीड़ के पीछे क्या किसी राजनीतिक पार्टी, संगठन या किसी नेता विशेष का हाथ तो नहीं? अंतत: एक अहम सवाल जो दिमाग को हिला देता है वह यह कि क्या यह विशेष समाज का असंतोष है, जिसने अपने ही चुने प्रतिनिधियों से किनारा कर शासन-प्रशासन को चुनौती देने का काम शुरु कर दिया है। यहां बात हम मराठा आंदोलन की कर रहे हैं जिसने मौजूदा वक्त में पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींच लिया है। चूंकि मराठा समाज महाराष्ट्र की राजनीति पर सदा से हावी रहा है, अत: उनका यूं आंदोलनरत् होते हुए सड़कों पर आ जाना राज्य ही नहीं बल्कि केंद्र सरकार के लिए भी चिंता का विषय है। बिना किसी नेता के लाखों की तादाद में सड़कों पर भीड़ का उतर आना राज्य की राजनीति में भूचाल लाने के बराबर होता है। ऐसा ही नजारा महाराष्ट्र में सितंबर 2016 में देखने को मिला था और तब अटकलें लगाई गईं थीं कि इन आंदोलनकारियों के पीछे एनसीपी अध्यक्ष शरद पवार का हाथ हो सकता है। तब कहा गया था कि हारी हुई पार्टी में जान फूंकने के लिए मराठाओं को एकत्रित कर रहे पवार ने ही ऐसा कुछ किया होगा, जिससे लाखों लोग सड़कों पर आ गए। बहरहाल दो साल पहले की बात आई और गई हो गई, लेकिन आंदोलनकारियों को कोई भी समझा नहीं पाया और एक बार फिर वो सड़कों पर देखे जा रहे हैं। चूंकि इस समय मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से शिवसेना भी नाराज चल रही है अत: ऐसे में आंदोलन के प्रभावी होने के पीछे और भी कारण लोगों को नजर आने लगे हैं। बहरहाल मुंबई में मराठा आंदोलन की वजह से जनजीवन अस्तव्यस्त हो गया। औरंगाबाद से शुरु हुई मराठा आंदोलन की लहर अब पूरे महाराष्ट्र में अपना असर दिखा रही है। इस आंदोलन में समाज के लोग जिनमें नौजवान, बुजुर्ग, बच्चे और महिलाएं भी शामिल नजर आए तमाम राजनीतिक दलों की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं। यहां बतलाते चलें कि मराठा समाज की प्रमुख मांगों में शिक्षा और नौकरी में पर्याप्त आरक्षण दिया जाना है। गौरतलब है कि ऐसी ही मांग गुजरात में पाटीदार समाज के लोगों ने की थी और युवा नेता के तौर पर तब हार्दिक पटेल देश के सामने आए। आंदोलन इस कदर प्रभावी रहा कि तत्कालीन गुजरात सरकार हिल गई और केंद्र को हस्तक्षेप करना पड़ गया था। तब मुख्यमंत्री भी बदल गए थे, लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा होगा कहा नहीं जा सकता, लेकिन आंदोलन प्रभावी रहा है, क्योंकि खबर यह भी रही कि बड़ते आंदोलन को देखते हुए ही इंटरनेट सेवाएं बाधित कर दी गईं और सरकार ने तरह-तरह के उपक्रम करने शुरु कर दिए। आरक्षण को लेकर किए जा रहे प्रदर्शन के दौरान एक शख्स ने नदी में कूदकर जान दे दी, जिसके बाद महाराष्ट्र बंद के हिंसक होने में भी देर नहीं लगी। औरंगाबाद में तो हिंसक प्रदर्शनकारियों ने बसों को आग के हवाले कर दिया। बंद का सबसे ज्यादा असर मराठवाड़ा में देखने को मिला जहां स्कूल और कॉलेज बंद रहे। हिंसक घटनाओं के मद्देनजर औरंगाबाद-पुणे मार्ग बंद कर दिया गया। यहां बताया गया कि मराठा क्रांति मोर्चा समन्वय समिति के सदस्यों ने विरोध-प्रदर्शन का बीड़ा उठा रखा है। प्रदर्शन के दौरान गोदावरी नदी में छलांग लगाने वाले 28 वर्षीय युवक काका साहेब दत्तात्रेय शिंदे के परिजनों को मुआवजा देने और मृतक के भाई को सरकारी नौकरी देने का वादा प्रशासन ने बगैर देर किए ही कर दिया। सवाल तब भी यही है कि आखिर इन मांगों पर समय रहते क्योंकर विचार नहीं किया गया? आंदोलन को लेकर जो मीडिया रिपोर्ट्स आईं हैं उनमें यह भी दावा किया गया कि औरंगाबाद और उस्मानाबाद को छोड़कर राज्य के अन्य हिस्सों में महाराष्ट्र बंद का कोई खास असर नहीं रहा। इसके साथ ही बताया गया कि महाराष्ट्र क्रांति मोर्चा के ‘महाराष्ट्र बंद’ में मुंबई-पुणे, सातारा, सोलापुर शामिल नहीं रहे, इसलिए अन्य क्षेत्रों में यह अप्रभावी सिद्ध हुआ है। अब आंदोलन कितना सफल और कितना असफल रहा यह जांचने और परखने की बात है, जिसके लिए आगे भी समय मिलेगा, लेकिन यह तो तय है कि मराठा समाज के लोग मांगों को लेकर सड़कों में यदि उतरे हैं तो इसका साफ अर्थ है कि उन्हें उम्मीद है कि अब सरकार उनकी बेहतरी के लिए कुछ नहीं कर सकती है। इसलिए उन्हें इस तरह का सख्त कदम उठाने के लिए मजबूर होना पड़ा है। वहीं यदि गहराई से विचार करें तो चुनाव के दौरान जो पार्टियां और प्रमुख नेता जनता से वादे कर जाते हैं उससे उन्हें उम्मीद बंधने लगती है कि कुछ बेहतर होने वाला है, लेकिन सरकार में आते ही जब वो ही लोग और पार्टियां यह कहते देखे जाते हैं कि वो तो उनका चुनावी जुमला था तो जनता अपने आपको ठगा महसूस करने लगती है। ऐसे में उसके सामने आंदोलन के सिवा कोई दूसरा चारा बचता नहीं है। चुनाव के समय बढ़-चढ़कर वादे करने की परंपरा पुरानी है, इसी आधार पर पार्टियां और उम्मीदवार चुनाव जीतते आए हैं। इसे पार्टी एजेंडा कहना गलत होगा क्योंकि अब तो सरकार में बैठे लोग खुद ही कहने लगे हैं कि वो इस तरह के चुनावी जुमले छोड़ते रहते हैं अब कोई इन्हें सच मान ले तो यह उसकी अपनी भूल है। कुल मिलाकर चुनाव के दौरान किए गए वादों को पूरा करने की जिम्मेदारी सरकार में काबिज होने वाली पार्टी की नहीं होती है, यही एक बड़ी समस्या है। इस पर जरुर विचार किया जाना चाहिए और कोशिश की जानी चाहिए कि चुनाव के समय जो कहा जाए उस पर अमल भी किया जाए। तब संभव है कि एक खास समाज के लोग भीड़ में तब्दील हो इस तरह आंदोलनरत् न हों।

अग्निवेश पर हमला: कुछ तो मुंह खोलें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वामी अग्निवेशजी के साथ झारखंड के एक जिले में भीड़ ने जो व्यवहार किया है, वह इतना शर्मनाक और वहशियाना है कि उसकी भर्त्सना के लिए मेरे पास शब्द नहीं हैं। एक संन्यासी पर आप जानलेवा हमला कर रहे हैं और ‘जय श्रीराम’ का नारा लगा रहे हैं। आप श्री राम को शर्मिंदा कर रहे हैं। आपको राम देख लेते तो अपना माथा ठोक लेते। आप खुद को रावण की औलाद सिद्ध कर रहे हैं। आप अपने आपको हिंदुत्व का सिपाही कहते हैं। अपने आचरण से आप हिंदुत्व को बदनाम कर रहे हैं। क्या हिंदुत्व का अर्थ कायरपन है ? इससे बढ़कर कायरता क्या होगी कि एक 80 साल के निहत्थे संन्यासी पर कोई भीड़ टूट पड़े ? उसे डंडे और पत्थरों से मारे ? उसके कपड़े फाड़ डाले, उसकी पगड़ी खोल दे, उसे जमीन पर पटक दे ? स्वामी अग्निवेश पिछले 50 साल से मेरे अभिन्न मित्र हैं, संन्यासी बनने के पहले से ! वे तेलुगुभाषी परिवार की संतान हैं और हिंदी के कट्टर समर्थक हैं। महर्षि दयानंद के वे अनन्य भक्त हैं और कट्टर आर्यसमाजी हैं। वे संन्यास लेने के पहले कलकत्ते में प्रोेफेसर थे। वे एक अत्यंत सम्पन्न और सुशिक्षित परिवार के बेटे होने के बावजूद संन्यासी बने। उन्हें पाकिस्तान का एजेंट कहना कितनी बड़ी मूर्खता है। उन्हें गोमांस-भक्षण का समर्थक कहना किसी पाप से कम नहीं है। उन्होंने और मैंने हजारों आदिवासियों, ईसाइयों और मुसलमानों मित्रों का मांसाहार छुड़वाया है। उन्हें ईसाई मिश्नरियों का एजेंट कहनेवालों को पता नहीं है कि अकेले आर्यसमाज ने इन धर्मांध विदेशी मिश्नरियों को भारत से खदेड़ा है। अग्निवेशजी पर हमला करने के पहले उन पर ये सब आरोप लगाना पहले दर्जे की धूर्त्तता है। अग्निवेशजी ने जिस शिष्टता से उन हमलावर प्रदर्शनकारियों को अंदर बुलाया, उसका जैसा जवाब उन्होंने दिया है, वह जंगली जानवरपन से कम नहीं है। स्वामी अग्निवेशजी के कुछ विचारों और कामों से मैं भी सहमत नहीं होता हूं। उनकी आलोचना भी करता हूं। लेकिन उनके साथ इस तरह का जानवरपन करने का अधिकार किसी को भी नहीं है। ये हमलावर यदि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा से संबंधित हैं तो मैं मोहन भागवतजी और अमित शाह से कहूंगा कि वे इन्हें तुरंत अपने संगठनों से निकाल बाहर करें और इन्हें कठोरतम सजा दिलवाएं। इस तरह के लोगों के खिलाफ कठोर कानून बनाने की सलाह कल ही सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को दी है लेकिन सरकार का हाल किसे पता नहीं हैं। वह किंकर्तव्यविमूढ़ है। उसे पता ही नहीं है कि उसे क्या करना चाहिए। देश में भीड़ द्वारा हत्या की कितनी घटनाएं हो रही हैं लेकिन दिन-रात भाषण झाड़नेवाले हमारे प्रचारमंत्रीजी इस मुद्दे पर अपना मुंह खोलने की हिम्मत ही नहीं जुटा पाते। यदि सर संघचालक मोहन भागवत भी चुप रहेंगे तो राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के बारे में जो शशि थरुर ने कहा है, वह सच होने में देर नहीं लगेगी।

रमन अग्रवाल अमर रहें…!
नईम कुरेशी
स्वभाव से मस्त दरियादिल इरादे के पक्के समाजसेवी पत्रकार रमन अग्रवाल जी का दुनिया से एकाएक चले जाना ग्वालियर अंचल के आम व खास लोगों के लिये भारी सदमे भरा है। रमन जी न सिर्फ लोगों का इलाज कराते थे बल्कि उन्हें पक्के आश्वासन के जुमलों से पहाड़ सी परेशानियों से लड़ने का सम्बल प्रदान करते थे। हमारी उनसे 1973 से मुलाकात थी जब हम लोग छात्र आंदोलन के चलते मुरैना जेल भेजे गये थे। वो हम लोगों के लिये खास नाश्ता लेकर पहुंचे थे।
भाई रमन अग्रवाल जी अपने चाहने वालों जान पहचान वालों व बिना पहचान वालों तक की हर तरह की मदद करने में हमेशा तत्पर रहते थे। वो 90 के दशक में मुंबई के मशहूर साप्ताहिक अखबार ब्लिट्ज के सम्वाददाता भी रहे थे। उन्होंने विश्वप्रसिद्ध सरोदवादक उस्ताद अमज़द अलि खॉन साहब, माधवराव सिंधिया से लेकर राजेन्द्र सिंह जी, डोंगर सिंह कक्का जैसे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी की सोहबत में रहकर उनका काफी सहयोग किया था। ये सभी लोग उनके प्रशंसक रहे हैं। रमन जी आम आदमी के खास आदमी के तौर पर भी इलाके में मशहूर रहे थे। उन्होंने आखिरी बार भी मुझसे फोन पर कुछ युवा व्यापारियों की संभव मदद करने की पेशकश की थी।
भाई रमन अग्रवाल गन्दे कचरों के ढेर से कूड़ा बीनने वाले बच्चों को भी नई जिंदगी जीने की प्रेरणा देते आये थे। उन्हें आगे बढ़ाने, उनकी मदद करने में हमेशा आगे रहते थे। अपनी बड़ी बहन श्रीमती लक्ष्मी गर्ग जी के एन.जी.ओ. बुजुर्ग लागों के स्टे होम की मदद के लिये मुझसे बार-बार कहा करते थे। 4 साल पहले मैं इस बारे में उन्हें म.प्र. शासन के महिला बाल विकास के प्रमुख सचिव राजगोपाल नायडू के पास भी ले गया था। उन्हें अपने या अपने परिवार की कभी भी कोई चिंता या जरूरी बातें याद नहीं रहती थीं पर सैकड़ों लोगों के दिल के आपरेशनों की बातें दिलो दिमाग में घूमती रहती थीं। मैं उनकी शादी में भी गया था। डीडवाना ओली की महेश्वरी धर्मशाला में जो एक साधारण विवाह था, 30-40 लोग भर यहां थे।
भिण्ड-दतिया से सांसद डॉ. भागीरथ प्रसाद से लेकर चन्द्रमोहन नागौरी, डॉ. स्वतंत्र शर्मा, कुलपति, ज्ञानेन्द्र शर्मा, विलास लाड, महेन्द्र सिंह कालूखेड़ा, राम चन्द्र सबटे, बालकृष्ण शर्मा, नियाज मोहम्मद, डॉ. सुनील अग्रवाल, दिल्ली के हार्ट स्पेशलिस्टों की लम्बी फौज उनकी प्रशंसक रही थी। वो सोशल साइंटिस्ट के तौर पर भी काफी लोकप्रिय थे। उन्होंने गत 10 साल पहले कलावीथिका में ग्वालियर के स्थानीय लेखकों की पुस्तकों पर भी एक आयोजन कराया था। जिसमें कुलसचिव जीवाजी विश्वविद्यालय मिश्र से लेकर डॉ. सुरेश सम्राट, नईम कुरेशी, माता प्रसाद शुक्ल से लेकर तमाम साहित्यकार व पत्रकार साथी मौजूद थे। वो बार-बार ग्वालियर के इतिहास व पर्यटन पर मुझे भी प्रेरित करते रहे थे। वो उम्र में मुझसे कोई एक-दो साल बड़े थे। हमें अक्सर डांटा करते थे व अपने परिवार के तमाम मामले भी साझा करते थे पर ग्वालियर के सांस्कृतिक प्रेम उनमें कूट-कूट कर भरा था। उस्ताद अमज़द अलि खॉन साहब के सरोदघर का काम अक्सर मुझे बताया करते थे जो हम महापौर शेजवलकर जी व कलेक्टर साहेबानों से कराते थे। रमन अग्रवाल का जाना हम सब के लिये ग्वालियर वासियों के लिये एक बड़ा झटका है, गम्भीर शौक है। ईश्वर उनके परिवार को इस घात को सहने की शक्ति प्रदान करे।

विश्व गुरु को बना रहे हैं विश्व-चेला
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आज दो खबरों ने मेरा ध्यान एक साथ खींचा। एक तो दक्षिण कोरिया के सहयोग से दुनिया का सबसे बड़ा मोबाइल फोन का कारखाना भारत में खुलना और दूसरा देश की छ​ह शिक्षा संस्थाओं को सरकार द्वारा ‘प्रतिष्ठित’ घोषित करना ताकि वे विश्व-स्तर की बन सकें। दोनों खबरें दिल को खुश करती हैं लेकिन उनके अंदर जरा झांककर देखें तो मन खिन्न होने लगता है। दोनों खबरों की एक-दूसरे से गहरा संबंध है। दोनों शिक्षा से जुड़ी हैं। पांच करोड़ लोगों का यह छोटा-सा देश सवा सौ करोड़ के भारत को मोबाइल बनाना सिखाएगा ? आप डूब क्यों नहीं मरते ? आपको शर्म क्यों नहीं आती ? 70 साल आप भाड़ झोंकते रहे। नकल करते रहे। कभी कार की नकल कर ली, कभी फोन की, कभी रेल की, कभी जहाज की, कभी रेडियो की, कभी टीवी की, कभी इसकी, कभी उसकी ! अरे प्रधानमंत्रियों और शिक्षामंत्रियों, तुमने किया क्या ? इस महान राष्ट्र को, इस नालंदा और तक्षशिला के राष्ट्र को तुमने नकलचियों की नौटंकी बना दिया। तुम्हारे विश्वविद्यालयों ने कौनसे मौलिक अनुसंधान किए हैं, जिन्होंने दुनिया की शक्ल बदली हो ? अब दुनिया के 100 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का नाम जुड़वाने के लिए आप इतने बेताब हो रहे हैं कि पांच सरकारी और पांच निजी शिक्षा संस्थानों के माथे पर ‘प्रतिष्ठित’ की चिपकी लगाकर उन्हें रस्सा कुदवाएंगे ? इसका अर्थ भी आप समझते हैं या नहीं ? क्या इसका अर्थ यह नहीं कि पश्चिम के शिक्षा मानदंडों की नकल आप हमारे विश्वविद्यालयों से करवाएंगे ? ताकि वे उनकी पंगत में बैठने लायक बन सकें। धिक्कार है, ऐसी ‘प्रतिष्ठा’ पर! हमारे इन अधपढ़ और अनपढ़ नेताओं को शिक्षा के मामलों की बुनियादी समझ होती तो हम अपनी प्राचीन गुरुकुल पद्धति की नींव पर आधुनिक शिक्षा की ऐसी अट्टालिका खड़ी करते कि दुनिया के वे ‘सर्वश्रेष्ठ’ विवि हमारी नकल करते। हम अध्यात्म और विज्ञान, आत्मा और शरीर, इहलोक और परलोक, अभ्युदय और निःश्रेयस, आर्य और अनार्य, गांव और शहर, गरीब और अमीर– सबके उत्थान का मार्ग दुनिया को दिखाते। भारत को ‘विश्वगुरु’ बनाने का दम भरनेवाले राष्ट्रवादी लोग उसे भौतिकतावादी दुनिया का चेला बनाने के लिए किस कदर बेताब हो रहे हैं ? उनकी लीला वे ही जानें।

 

 

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