साहित्य

आलेख रूपी मोतियों से सजी पुस्तक ‘दो टूक’
योगेश कुमार गोयल
पिछले तीन दशकों से पत्रकारिता और साहित्य जगत में निरन्तर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक योगेश कुमार गोयल की चौथी पुस्तक है ‘दो टूक’, जिसमें उन्होंने कुछ सामयिक और सामाजिक मुद्दों की गहन पड़ताल की है तथा आम जनजीवन से जुड़े कुछ विषयों पर प्रकाश डाला है। हरियाणा साहित्य अकादमी के सौजन्य से प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने पर्यावरण, धूम्रपान, प्रदूषण, बाल मजदूरी, श्रमिक समस्याओं तथा कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों को चित्रित किया है, वो भी चित्रों के साथ। निसंदेह पुस्तक के सभी लेख उपयोगी बन पड़े हैं, कहीं समाजोपयोगी, कहीं बाल-उपयोगी और कहीं साहित्य धरातल के करीब। लेखक को अपने विषय का गहन ज्ञान है और उन्होंने इस पुस्तक में इतनी सरल व सहज भाषा का उपयोग किया है ताकि आम पाठक भी आसानी से समझ सकें। तीन दशकों में योगेश गोयल ने ज्वलंत, ताजा मुद्दों तथा सामाजिक सरोकारों से जुड़े विषयों पर देशभर के विभिन्न समाचारपत्रों व पत्रिकाओं के लिए कई हजार लेख लिखे हैं और उनकी नशे के दुष्प्रभावों पर पहली पुस्तक वर्ष 1993 में प्रकाशित हुई थी, जो उन्होंने मात्र 19 वर्ष की आयु में लिखी थी, जिसके लिए उन्हें कई सम्मान भी प्राप्त हुए थे। उनकी समसामयिक मुद्दों पर बहुत अच्छी पकड़ हैं, यह बात उनके समीक्ष्य निबंध संग्रह में स्पष्ट परिलक्षित भी है। बहुमुखी प्रतिभा के धनी योगेश गोयल का यह निबंध संग्रह उनकी कड़ी तपस्या का फल है, जिसमें उन्होंने राजनीति, समाज और अन्य उपयोगी विषयों को लेकर इन रचनाओं की रचना की है।
इन दिनों पर्यावरणीय खतरों को लेकर हर कोई चिंतित है और पर्यावरणीय समस्या को लेकर इस पुस्तक के पहले ही निबंध ‘विकराल होती ग्लोबल वार्मिंग की समस्या’ में न केवल इस गंभीर समस्या पर प्रकाश डाला गया है बल्कि इसके कारण बताते हुए इस पर लगाम लगाने के उपाय भी बताए गए हैं। समाज की विभिन्न समस्याओं के साथ-साथ बच्चों की समस्याओं को लेकर भी लेखक जागरूक है, जो उनके इस निबंध संग्रह में सम्मिलित लेखों से स्पष्ट परिलक्षित है। धूम्रपान की भयावहता का उल्लेख करता निबंध ‘धुआं-धुआं होती जिंदगी’, बच्चों के लिए उपयोगी निबंध ‘बच्चे और बाल साहित्य’, ‘परीक्षा को न बनाएं हौव्वा’, आधुनिक जीवनशैली के कारण बच्चों में बढ़ते मोटापे पर ‘खतरे का सायरन बजाता आया मोटापा’, श्रमिकों तथा बाल मजदूरी की समस्या को उजागर करते लेख ‘कैसा मजदूर, कैसा दिवस’ और ‘श्रम की भट्टी में झुलसता बचपन’ के अलावा ‘वाहनों के ईंधन के उभरते सस्ते विकल्प’, ‘भूकम्प व विस्फोटों से नहीं ढ़हेंगी गगनचुंबी इमारतें’ इत्यादि। ‘ऐसे कैसे रुकेंगी रेल दुर्घटनाएं’ में लेखक ने रेलवे की त्रुटियों को उजागर करते हुए ऐसी दुर्घटनाओं से होने वाली जान-माल की हानि की ओर समाज का ध्यान आकृष्ट किया है और रेल दुर्घटनाएं रोकने के उपाय भी सुझाए हैं। ‘गौण होता रामलीलाओं का उद्देश्य’ में रामलीला के घटते आकर्षण व उसके कारणों की चर्चा की गई है। उपभोक्ता जागरूकता, मानवाधिकार संगठनों की संदिग्ध भूमिका, दीवाली पर बढ़ते प्रदूषण, एड्स की बीमारी जैसे विषयों पर भी विस्तृत लेख हैं। ‘आज के दमघौंटू माहौल में मूर्ख दिवस की प्रासंगिकता’, ‘कैसे हुई आधुनिक ओलम्पिक खेलों की शुरूआत?’, ‘दुनिया की नजरों में महान बना देता है नोबेल पुरस्कार’, ‘विश्व प्रसिद्ध हैं झज्जर की सुराहियां’ बारे दर्ज किए गए आलेख पाठकों की जानकारी बढ़ाते हैं। धरती के अलावा दूसरे ग्रहों पर भी जीवन की संभावनाओं को लेकर लोगों के मन में हमेशा ही जिज्ञासा बरकरार रही है और इसी जिज्ञासा को शांत करने के लिए इस विषय पर कुछ फिल्में भी बन चुकी हैं तथा कहानियां भी खूब लिखी गई हैं। ‘धरती से दूर जीवन की संभावना’ लेख पाठकों की इसी जिज्ञासा को शांत करने में काफी उपयोगी है।
कुल मिलाकर 20 भिन्न-भिन्न उपयोगी आलेख रूपी मोतियों से सजी यह पुस्तक बेहद उपयोगी व पठनीय है, जो अपने पाठकों के ज्ञान में उल्लेखनीय वृद्धि करती है। पुस्तक में लेखक ने न सिर्फ अपने विचार बल्कि तथ्य और आंकड़े भी शामिल किए हैं, जिससे पुस्तक की उपयोगिता काफी बढ़ गई है। ‘दो टूक’ पुस्तक में लेखक ने अपने विचारों को सही मायने में दो टूक रूप में ही प्रस्तुत किया है। आजकल सामयिक विषयों पर निबंध की पुस्तकें बहुत ही कम प्रकाशित हो रही हैं, ऐसे में मीडिया केयर नेटवर्क द्वारा प्रकाशित योगेश कुमार गोयल की यह पुस्तक एक सुखद प्रयास है, जो हर किसी के लिए बेहद उपयोगी व संग्रहणीय बन पड़ी है तथा किशोरों, युवाओं व अपना कैरियर संवारने में सचेष्ट छात्रों के लिए तो यह पुस्तक बहुत उपयोगी साबित हो सकती है। पेपरबैक संस्करण में प्रकाशित 112 पृष्ठों की इस पुस्तक का आवरण तथा मुद्रण बेहद आकर्षक हैं।

डाटर आफ द ईस्ट .. बेनजीर भुट्टो ..मेरी आप बीती
विवेक रंजन श्रीवास्तव
(पुस्तक चर्चा) बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा पाकिस्तान से हमारी कितनी भी दुश्मनी क्यो न हो, हमेशा से वहां की राजनीति, लोगों और संस्कृति भारतीयो की रुचि के विषय रहे हैं .यही वजह है कि बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा का हिन्दी रूपांतर राजपाल पब्लिकेशन्स ने प्रकाशित किया . काश्मीर के नये हालात ने मुझे अपने बुकसेल्फ से यह पुस्तक निकाल कर एक बार पुनः नये सिरे से पढ़ने के लिये प्रेरित किया . मूलतः अंग्रेजी में लिखी गई इस किताब का हिन्दी अनुवाद अशोक गुप्ता और प्रणय रंजन तिवारी ने किया है . पब्लिक फिगर्स द्वारा आत्मकथा लिखना पुराना शगल है, डाटर आफ द ईस्ट, शीर्षक से बेनजीर भुट्टो ने अपनी आत्मकथा १९८८ में लिखी थी, जिसमें मार्क सीगल ने उनके साथ मिलकर १९८८ से २००७ तक के घटनाक्रम को जब वे पाकिस्तान वापस लौटी को जोड़ा . अंततोगत्वा उनकी हत्या हुई। किताब बताती है कि पाकिस्तान के हालात हमेशा से अस्थिर व चिंताजनक रहे हैं। मेरे पिता की हत्या, अपने ही घर में बंदी, लोकतंत्र का मेरा पहला अनुभव, बुलंदी के शिखर छूते आक्सफोर्ड के सपने, जिया उल हक का विश्वासघात, न्यायपालिका के हाथो मेरे पिता की हत्या, मार्शल ला को लोकतंत्र की चुनौती, सक्खर जेल में एकाकी कैद, कराची जेल में अपनी माँ की पुरानी कोठरी में बंद, सब जेल में अकेले दो और वर्ष,निर्वासन के वर्ष, मेरे भाई की मौत, लाहौर वापसी और १९८६ का कत्लेआम, मेरी शादी, लोकतंत्र की नई उम्मीद, जनता की जीत, प्रधानमंत्री पद और उसके बाद, उपसंहार, इन उपशीर्षको में बेनजीर भुट्टो ने अपनी पूरी बात रखी है। पुस्तक में वे लिखती हैं कि आतंकवादी इस्लाम का नाम लेकर पाकिस्तान को खतरे में डाल रहे हैँ।.. फौजी हुकूमत छल कपट और षडयंत्र के खतरनाक खेल खेलती है।. किंबहुना बेनजीर के वक्त से अब पाकिस्तान में आतंक और पनपा है, वहां के हालात बदतर हो रहे हे हैं, जरूरत है कि कोई पैगम्बर आये जो जिहाद को सही तरीके से वहां के मुसलमानो को समझाये, अमन और उसूलो की किताब कुरान की मुफीद व्याख्या दुनियां की जरूरत बन चुकी है।

श्रेष्ठ व्यंग्य, हास्य परिहास व्यंग्य
रमेश चंद्र खरे
अभिव्यक्ति के लिये विधा का चयन रचनाकार की विधा दक्षता पर निर्भर होता है, किन्तु यह भी सच है कि वर्तमान की विसंगतियो को उधाड़ने का काम हर विधा में संभव नही होता। रचनाकार भी समाज का ही तो हिस्सा होता है, उसे समाज के भीतर रहते हुये जब स्वयं को बचाते हुये विसंगतियो पर प्रहार की जरूरत होती है तो व्यंग्य का संबल ही श्रेष्ठ दिखता है। नई दुनियां अखबार का अधबीच कालम बहुत लोकप्रिय है, इसे यह उपलब्धि हासिल है कि इसने अनेक व्यंग्यकारो को स्थान दिया है, कई पाठक तो सुबह सबेरे सबसे पहले अधबीच ही पढ़ते हैं। मैं भी ऐसा ही पाठक हूं। अमेरिका प्रवास में भी मैं ई पेपर में जब वहां रात हो रही होती थी चाव से अधबीच पढ़ा करता था। यह व्यंग्य संग्रह श्री रमेश चंद्र खरे जो इस समय के विचारक, बहुविधा लेखक व शिक्षाविद हैं के अधबीच में प्रकाशित ५६ व्यंग्य लेखो का बढ़िया संकलन है। नई दुनिया के संपादन की परीक्षा में पास इन लेखो को पढ़ने में आनंद आता है। स्तंभ में प्रकाशन के लिये समय सीमा निर्धारित होती है अतः सभी लेख कसे हुये हैं तथा लगभग समान पृष्ठ सीमा में हैं। ज्यादातर विषय हमारे देश काल परिस्थितियो के आस पास से लिये गये हैं अतः प्रासंगिक हैं।
राजनीतिक मुद्दे जैसे प्रजातंत्र की तांत्रिक तासीर, लोकतांत्रिक लोचों का तंत्र लोक, पंच परमेश्वर और महेश्वर, दाग दरबारी, अच्थे दिन आने वाले हैं, शपथ पत्र पर शक का शिकंजा, यह राजनीति नही है प्रजातंर का प्रपंच आदि किंचित कालांतर पर लिखे गये हैं। सामाजिक विसंगतियां जैसे अधबीच में लटके, परीक्षा तंत्र, मैया मैं नहिं माखन खायो, प्रभु जी मेरे अवगुन चित न धरो, दीवारो के आंख कान छोटे भाई साहब आवाज अंतरात्मा की आदि व्यंग्य लेख बहुत रोचक, लगे। किताब पठनीय, संग्रहणीय है।
चर्चाकार .. विवेक रंजन श्रीवास्तव

खेल नंबरों का
समीक्षक – प्रो. शरद नारायण खरे
लघुकथा व्यस्त समय की आवष्यकता है। भागदौड़ भरी जिंदगी में, सरसरी नजर में भी जिस कथा को न केवल पूरा पढ लिया जाए, बल्कि उसे आत्मसात भी कर लिया जाए, वही लघुकथा है। वैसे भी विसंगतियों, विद्रूपताओ,ं नकारात्माओं व विडंबनाओं से परिपूर्ण इस समाज में प्रतिकूलताओं व रूग्णाताओं पर प्रहार करने के लिए यदि लघुकथा को एक सषक्त शस्त्र की संज्ञा दी जाए, तो कदापि यह अनुचित न होगा। यही कारण है जोकि वर्तमान में व्यापकता के साथ लघुकथाएं न केवल लिखी- रची जा रही हैं, बल्कि पढी-समझी-सराही भी जा रही हैं। बढती विकृतियों के अस्वस्थ हालातों पर आघात करके लघुकथाएं न केवल पिन पाइंट कर रही है, बल्कि वे एक उज्ज्वल आगत का मार्ग प्रषस्त करने का सतत् प्रयास करने में भी संलग्न हैं।
वर्तमान में देश के प्रतिष्ठित लघुकथाकारों में इस कृति के सृजक गोविंद शर्मा जी का नाम गिना जाता है। इसके पूर्व भी वे अनेक लघुकथा-संग्रहों के साथ ही अनेक फुटकर लघुकथाओं का सृजन करके अपनी तीक्ष्ण कलम का परिचय दे चुके है। निसंदेह शर्मा जी एक सार्थक, परिपक्व, अनुभवी व समसामयिक लघुकथाकार हैं। समीक्ष्य कृति ‘‘खेल नंबरों का’’ में श्रेष्ठ 151 लघुकथाओं का समावेष हैै। हर लघुकथा अपनी अभिव्यक्ति में प्रखर है। हर लघुकथा मंे एक अंतनिर्हित मौलिकता को धारण किए हुए है। पाठकों से प्रत्यक्ष संवाद करती ये लघुकथाएं सम्प्रेषणीयता के धरातल पर सटीक व सम्पूर्ण हैं। यह तय है कि लघुकथाकार जब तक सधा/मंझा। संतुलित/अनुषासित/दूरदृष्टा नहीं होगा, तब तक वह पैनी लघुकथाओं का सृजन नहीं कर सकता। सीमित शब्दों में व्यापकता का समावेष करने की कला में दक्ष गोविंद शर्मा जी ने जिस तरह से समाज का सर्वेक्षण किया और विषमताओं को खोजकर उनके इर्द-गिर्द षब्दों को संयोजित कर गहराई व तीखेपन से युक्त लघुकथाओं का सृजन किया है- वह निःसंदेह प्रणम्य है।
अस्वस्थताएं तो हम सब भी रोजाना के जीवन में देखते हैं, पर उन अस्वस्थताओं को अभिव्यक्ति में ढालकर सामाजिक सरोकारों का निर्वाह करना विरलो के सामथ्र्य की ही बात है। व्यक्ति, परिवार, समाज, धर्म, आध्यात्म, राजनीति लघुकथाओं में निषाना बनाया गया है, जो सुखद अहसास कराता है। शामिल लघुकथाओं की विषिष्टता यह है कि चार पंक्ति की लघुकथा भी उतनी ही अधिक प्रभावषाली है, जितनी एक पृष्ठ की लघुकथा। अगर लघुकथा को सीमित शब्दों में बड़ी बात कहने की कला निरूपित किया जाए, तो कदापि अनुचित न होगा।
यह यथार्थ है कि लघुकथा का प्रणयन उतना सहज नहीं होता है, जितना प्रायः उसे समझ लिया जाता है, क्योंकि लघुकथा की रचना करते समय एक अनुषासन/एक संस्कार/एक आंतरिक चेतना व एक विषिष्ट दक्षता की आवष्यकता होती है और ये समस्त विषिष्टताएं स्वनामधन्य लघुकथाकार गोविंद शर्मा जी में समाहित हैं। यही करण है कि उनका लघुकथा-सृजन उत्कृष्टता व दक्षता से परिपूर्ण है।
समीक्ष्य कृति की हर लघुकथा अपने आप में मौलिक है, और एक गतिषीलता धारण किए हुए है। लघुकथाओं को पढने के उपरांत यह स्पष्ट हो जाता है कि हर लघुकथा के मूल में गहन चिंतन विद्यमान है। यदि यह कहा जाए कि ‘खेल नंबरों का’ की लघुकथाएं हमारे जीवन की कहानी हैं, हमारे समाज की सच्चाई की बयानी हैं, तो कदापि असत्य न होगा। लघुकथाओं का हमारे आसपास परिभ्रमण करना ही उनका सषक्त पक्ष है। इन लघुकथाओं में व्यापकता हैं, विचार मंथन हैं, सांस्कृतिक चेतना है, आत्म कथ्य है, अनुभव है, सामाजिक सर्वेक्षण है, सामाजिक व्यथा है, मानवीय वेदना है, जनवादिता है, आम आदमी का दर्द है, व्याप्त समस्याएं है, गिरते मूल्य हैं, बिखरते रिष्ते हैं, दरकते नाते हैं, विकृतियों का अम्बार है और झकझोर देने वाली सच्चाई है। सभी लघुकथाएं प्रभावी व सार्थक हैं, इसलिए मात्र कुछ का उल्लेख करना कदापि उचित नहीं माना जा सकता। शीर्षक लघुकथा ‘‘खेल नंबरों का’’ राजनीतिक मूल्य पतन की वास्तविकता पर भलीभांति प्रकाष डालती है। लघुकथाओं में संवेदना है, एक भावुकता है -जोकि हमारे मस्तिष्क तक पहुंचकर हमारी चेतना को झकझोरने में सक्षम है। हर लघुकथा प्रवाहमयता का प्रतिनिधित्व करती है। जिस तरह से हर रचना में सुर, लय व ताल की आवष्कता होती है,ं उसी प्रकार से लघुकथा में भी इनका होना अपेक्षित होता है। और यह सब खेल नंबरों की लघुकथाओं में समग्रता व व्यापकता के साथ विद्यमान है। मुझे आषा ही नहीं वरन् पूर्ण विष्वास है कि यह कृति लघुकथा साहित्य के विकास में न केवल सहायक सिद्ध होगी, बल्कि गोविंद शर्मा जी के सारस्वत यष को भी बहुगुणित करने का कार्य सम्पन्न करेगी।
कृतिकार के इस सार्थक व प्रभावी सृजन को मैं प्रणाम निवेदित करता हूं।

अनोखा काव्यसंग्रह है अनुभूतियों की अनुगूंज
(लेखक डॉ. एस एन खरे)
(पुस्तक चर्चा) समीक्ष्य काव्यकृति श्रेष्ठ 73 विविध वर्णी कविताओं का एक ऐसा सुवासित गुलदस्ता है जिसका आकर्षण अंतर्मन तक अनुभूत किया जा सकता है। वैसे भी कथ्य है कि कविता जहां हमें जीने की कला सिखाती है वहीं वह हमें आंतरिक चेतना भी प्रदान करती है तथा व्याप्त विसंगतियों, प्रतिकूलताओं पर प्रहार कर एक उज्जवल समाज की रचना का अपना दायित्व भी निर्वाह करती है, और फिर संध्या शुक्ल जैसी भावप्रवण कवयित्री व साहित्य साधिका का सृजन हो तो स्वाभाविक रूप से पाठक व समाज को एक विशिष्ठ सारस्वत उपहार प्राप्त होना सुनिश्चित हो जाता है।
समीक्ष्य कृति में समस्त कविताओं को चार संवर्गों में विभाजित किया गया है। आध्यात्मिक भावधारा, सामयिक रसधारा, श्रृंगारिक रसधारा एवं राष्ट्रीय भावधारा संवर्गों में विभाजित कविताएं पाठक को अलग-अलग भावों, रसों, विषयवस्तु व चेतना से आप्लावित कर एक अवर्णनीय आनंद प्रदान करती हैं। इन कविताओं में एक मौलिकता, विशिष्ठता, उत्कृष्ठता, नवीनता, सार्थकता व गतिशीलता दृष्टिगोचर होती है। ये कविताएं निःसंदेह सुखद अहसास देती है। वैसे भी इनके सृजन का आधार ही है-कवयित्री की अनुभूतियां। यही कारण है कि कविताएं पाठक के हृदय की गहराई में उतर जाती हैं। जहां आध्यात्मिक भावधारा की कविताएं भक्ति व दार्शनिकता की चेतना जागृत कर हमें परम शक्तिमान से जोड़ती हैं, तो सामयिक रचनाएं हमें वर्तमान के सम-विषम, अनुकूल-प्रतिकूल हालातों का बोध कराने में सफल होती हैं। श्रंृंगारिक कविताएं स्नेहिल मन व संवेदनाओं से निकलकर पाठक को मिलन/परिणय/ प्रीति/अनुबंधों व रति की दुनियां में ले जाती हैं। वैसे भी ‘‘ढाई आखर’’ में जीने का सार समाहित है। राष्ट्रीयता की कविताएं जहां एक ओर देशभक्ति का संदेश देती हैं तो वहीं शौर्य, त्याग, शहादत व वतनपरस्ती की उद्घोषणा कर ये कविताएं हमें ‘‘मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर तुम देना फेक, मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जाएं वीर अनेक’’ वाली दुनियां में ले जाती हैं।
निःसंदेह इस संग्रह की कविताओं में पाठक को मंत्रमुग्ध कर देने की क्षमता विद्यमान है। एतदर्थ कवयित्री अभिनंदन व साधुवाद की अधिकारणी हैं। कविताओं को जिस सरलता व सहजता के साथ प्रस्तुत किया गया है और जटिल शब्दों से कविताओं को बचाया गया है, वह भी श्लाघनीय है। रेवा मैया के लिए कवयित्री लिखती हैं-
निश्छल, निर्मल रूप है तेरा,
तट तेरा लगता है प्यारा।
जन-जन का कल्याण है करती,
तेरी पावन शीतल धारा।।
समसामयिक हालातों पर आघात करने वाला यह अंदाज भी बहुत प्रभावित करता है। जरा देखिए-
आदमी से आदमी अब डरने लगे,
बेगुनाहों के दिल भी दहलने लगे।
इंसानियत न जाने कहां खो गई,
हैवानियत के साये संग रहने लगे।।
कविताएं संदेशपूर्ण हैं, जिनमें अवस्थित आदर्शवाद प्रभावित करता है। कविताओं में जिस प्रकार से सरसता, सरलता व तरलता विद्यमान है वह उनका सकारात्मक पहलू है। नारी सशक्तिकरण पर केन्द्रित कविताएं भी प्रभावशाली बन पड़ी हैं। ‘‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’’ का संदेश मुखरित करतीं ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैं-
घर आंगन में गौरैया सी चहकती हैं बेटियां।
जूही, चमेली, गुलाब सी महकती हैं बेटियां।।
निःसंदेह अनुभूतियां व्यक्तिगत होती हैं पर जब वे सार्वजनिक बनकर दूसरों तक पहुंचती हैं तो बहुत कुछ कह जाती हैं, कुछ नया, कुछ मौलिक और कुछ अनोखा। यही स्थििति हमें ‘‘अनुभूतियों की अनुगूंज’’ में दृष्टिगोचर होती है। कविताओं में बोधगम्यता, संप्रेषणीयता, ऊर्जस्विता, गतिशीलता का विद्यमान होना उन्हें विशेष बना देता है। मैं कृति व कृतिकार के सारस्वत यश की कामना करता हूं।

महा कवि कालिदास कृत महा काव्य रघुवंश का हिन्दी पद्यानुवाद
(आचार्य कृष्णकांत चर्तुवेदी)
पद्यानुवादक।. प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध
प्रकाशक।..अर्पित पब्लीकेशन कैथल
(पुस्तक समीक्षा) प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध कृत महाकवि कालिदास के रघुवंश महाकाव्य का हिंदी पद्यानुवाद एक उल्लेखनीय रचनाधर्मी कृति है। महाकाव्य की दृष्टि से और लयात्मक प्रस्तुति की दृष्टि से रघुवंश मे १९०० से अधिक श्लोक हैं जिनका श्लोकशः छंद बद्ध हिन्दी काव्य अनुवाद कर प्रो श्रीवास्तव ने संस्कृत न जानने वाले , राम कथा में अभिरुचि रखने वाले करोड़ो हिनदी पाठको के लिये बहुमूल्य सामग्री सुलभ की है। अनूदित साहित्य सदैव भाषा की श्रीवृद्धि करता है। फिर यह अनुवाद इस दृष्टि से भी महत्वपूर्ण हो गया है कि विदग्ध जी के इस हिन्दी अनुवाद को आधार बनाकर अंगिका भअषा में रघुवंश का पद्यानुवाद भि किया गया है।
प्रो श्रीवास्तव की कृतियो में विषय प्रतिपादक के रूप मे उनके व्यक्तितत्व की अनेक धाराओ का दर्शन होता है। वे भारत की सांस्कृतिक वाणी संस्कृत के ज्ञानी , अच्छे पाठक और सहृदय भाव प्रवण अनुवादक है। मेघदूत का काव्यानुवाद वे पहले ही कर चुके है। उनके द्वारा किया गया भगवत गीता के हिन्दी काव्य अनुवाद के कई संस्करण छप चुके हैं।
मूलतः रघुवंश बहुनायक महाकाव्य है। इसे अपूर्ण महाकाव्य कहा गया है। ऐसी जगह काव्य रूक गया है जहां के अनुभव बडे तिक्त और कटु है। महाकवि ने पुराण और महाभारत की वस्तु प्रतिपादन शैली का अवलंब लेकर रघु के वंश के प्रमुख चरित्रो पर यह काव्य रचना की है। रघु दिलीप अज दशरथ और राम के चरित्रो तक उज्जवलतम दीप मालिका राम के चरित्र के दीपस्तभं के रूप मे शिखर तक पहुचंती है। वही अग्निवर्ण जैसे घृणित राजसत्ता के उपजीव्य तक पहुचंते पहुंचते अधंकारमय हो जाती है। महाकवि कालिदास ने वहा पर ही महाकाव्य क्यों समाप्त किया इस पर भी एतिहासिक सामाजिक अकाल मृत्यु आदि आधारो पर विद्वानो ने अपने तर्क दिये है जो भी हो रघुवंश अपने वर्तमान रूप मे हमारे सामने है जो संपूर्ण संस्कृत महाकाव्य परंपरा से पृथक और विलक्षण है।
जहां तक काव्य सौष्ठव और भाव संपदा का प्रश्न है रघुवंशम संस्कृत वांगमय मे सर्वोत्तम और अद्वितीय है। अनुष्टुप जैसे छोटे छंदो में भी गहरी काव्य अनुभूति करना केवल महाकवि कालिदास के ही वश की बात थी। यही कारण है कि विश्व साहित्य में मेघदूत , अभिज्ञान शांकुलतम और रघुवंश का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध ने अपने स्वाध्याय प्रेमी व्यक्तित्व के कारण महाकवि कालिदास का पूरा साहित्य पढा और मुक्तको में श्रेष्ट मेघदूत तथा महाकाव्य में श्रेष्ठ रघुवंश को अनुवाद के लिये चुना। प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव जी की सहृदयता और वर्तमान विद्रूपता विशेषतः राजसत्ता की निरकुंश व्यवहार शैली ने उन्हें रघुवंश को हिंदी में अनुवाद करने के लिये चुनने हेतु प्रेरित किया होगा।
अनुवाद करना मूल रचनाकर्म से अधिक गूढ कार्य है। मूल रचना मे आपके काव्य संसार कविदेक प्रजापतिः यथास्मै रोचते विश्वं तथेंव परिवर्ततः अर्थात अपार काव्य संसार की सृष्टि करने के लिये कवि ही एकमात्र ब्रम्हा है। नये काव्य में स्वयं कवि ब्रह्मा जी की सृष्टि से भिन्न भी अपने संसार को जैसा रूप देना चाहता है वह देने मे समर्थ है। किंतु अनुवादक की सीमायें मूलकाव्य में बंधी होती हैं। बहुत भावाकुल होने पर भी उसे अपनी सृजनात्मक अभिव्यक्ति को रोकना पडता है। दूसरी ओर कवि की आत्मा मे पर देह प्रवेश भी करना पडता है। यह परव्यक्ति अनुभव के तादाम्य मे समाधि की तरह है। वहां तक पहुंचना फिर योग्य शैली, पद्यति , पदावली और भावाभिव्यक्ति को प्रस्तुत करने मे कुशलता काव्य भाव अनुवाद से की जाने वाली महति अपेक्षाये है।
वैसे तो मेघदूत और रघुवंश के और भी अनुवाद हुये हैं, किंतु प्रो. चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध की तन्मयता और अनुवाद कुशलता प्रशंसनीय है। कालिदास की कृतियो में एक गहरी दार्शनिकता भी है। जिसे उसी तरह भाव अनुदित करना दुष्कर कार्य है।अपने विशद अध्ययन से ही इसका समुचित निर्वाह करने में विदग्ध जी सफल हुये हैं। रघुवंश का प्रथम पद्य इसका उत्तम उदाहरण है। छोटे छंद अनुष्टुप में किया गया मंगलाचरण का अनुवाद करते हुये प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ने लिखा है
जग के माता पिता जो पार्वती शिव नाम
शब्द अर्थ समएक जो उनको विनत प्रणाम
इसी भांति महाकवि कालिदास द्वारा दिलीप की गौसेवा का जो सुरम्य वर्णन किया गया है उसका अनुवाद भी दृष्टव्य है।
व्रत हेतु उस अनुयायी ने आत्म, अनुयायियो को न वनसाथ लाया
अपनी सुरक्षा स्वतः कर सके हर मुनज इस तरह से गया है बनाया
जब बैठती गाय तब बैठ जाते रूकने पे रूकते और चलने पे चलते
जलपान करती तो जलपान करते यूं छाया सृदश भूप व्यवहार करते।

रघु के द्वारा अश्वमेध यज्ञ के अश्व की रक्षा के प्रसंग मे इंद्र से युद्ध करते हुये उसके महत्व को स्वंय इंद्र रेखांकित करते हुये कहते हैं..
वज्राहत रघु के पराक्रम और साहस से
होकर प्रभावित लगे इंद्र कहने
सच है सदा सद्गुणो में ही होती है ताकत
सदा सभी को करने सदा वश मे

रघु की दिग्विजय के संदर्भ में कलिंग के संबंध मे अनुवाद की सहजता देखे
बंदी कर छोडे गये झुके कलिंग के नाथ
धर्मी रघु ने धन लिया रखी न धरती साथ
कौरव की गुरूदक्षिणा का संदर्भ देखें।..
पर मेरे फिर फिर दुराग्रह से क्रोधित हो
मेरी गरीबी को बिन ध्यान लाये
दी चौदह विद्या को ध्यान रख
मुझसे चौदह करोड स्वर्ण मुद्रा मंगाये
अज अब इंदुमती के स्वंयवर के लिये आये है रात्रि विश्राम के बाद प्राप्त बंदिगण स्तुति कर रहे है।..
मुरझा।चले हे पुष्प के हार कोमल औं फीकी हुई जिसकी दीप्त आभा
पिंजरे मे बैठा हुआ छीर भी यह जगाता तुम्हें कह हमारी ही भाषा
रघुवंश का छटवा संर्ग अत्यंत लोकप्रिय एवं आकर्षक है। इसकी उपमायें उत्प्रेक्षाये एवं उपमानो का अनुवाद अदभुत एवं पूर्णतः सार्थक है। इसी सर्ग के दीपशिखा के उपमान के कारण महाकवि कालिदास को दीपशिखा कालिदास कहा जाता है। इंदुमती के स्वंयवर में आये राजाओ का मनोरम वर्णन विज्ञ चारणो के द्वारा किया जा रहा है। उसके बाद इंदुमती की सखी एक एक राजाओ की वरण योग्य विशेषताये बता रही है।
तभी सुनंदा ने इंदुमती को मगध के नृप के समीप लाकर
सभी नृपो की कुलशील ज्ञाता प्रतिहारिणी ने कहा सुनाकर
महिष्मति के राजा प्रदीप का उसके पूर्वजो अनूप और सहस्त्रबाहु सहस्त्रार्जुन का परिचय देते हुये अंत मे सुनंदा ने कहा
इस दीर्घ बाहु की बन तू लक्ष्मी यदि राजमहलो की जालियो से
माहिष्मति की जलोर्मि रचना सी रेवा जो लखने की कामना है
इन छह पद्यो का अनुवाद श्री चित्र भूषण श्रीवास्तव ने बडे मनोयोग एवं भाव प्रबलता के साथ किया है। महाकवि कालिदास का उज्जयनी प्रेम प्रसिद्ध है। अनुवादक कवि विदग्ध भी इससे अछूते नही है।
अनुवाद दृष्टव्य है।
ये विशाल बाहु प्रशस्त छाती सुगढ बदन है अवंतिराजा
जिसे चढा शान पर सूर्य सी दीप्ति के गढता रहा है जिसको विधाता
इन पद्यो के द्वारा अनुवादक का संस्कृत भाषा का गहरा ज्ञान , काव्य का उत्तम अभ्यास और भाषातंर करने की प्रशंसनीय क्षमता का परिचय मिलता है। इसके अतिरिक्त ज्ञान के विभिन्न क्षेत्रो में दिये गये उनके योगदान से भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा का अनुभव होता है। इस परिपक्व वय मे ऐसी जिज्ञासा बौद्धिक प्रभाव और गतिशीलता दुलर्भ है। वे आज भी तरूण की भांति नगर की सांस्कृतिक एवं साहित्यीक गतिविधियों का गौरव बढा रहे है।
मै प्रो चित्रभूषण श्रीवास्तव विदग्ध को उनकी इस अनूदित कृति के लिये हृदय से बधाई देता हॅू। मुझे पूरा विश्वास है कि रघुवंश हिंदी पद्यानुवाद सुधिजनो को आल्हादित एवं उनकी ज्ञान पिपासा को संतुष्ट करेगी।

हास्य व्यंग्य का वैश्विक संकलन
कामिनी खरे
(पुस्तक चर्चा) तार सप्तक संपादित संयुक्त संकलन साहित्य जगत में बहु चर्चित रहा है। सहयोगी अनेक संकलन अनेक विधाओ में आये हैं , किन्तु मिली भगत इस दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण है कि इसमें संपादक श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव के वैस्विक संबंधो के चलते सारी दुनिया के अनेक देशो से व्यंग्यकारो ने हिस्सेदारी की है। संपादकीय में वे लिखते हैं कि “व्यंग्य विसंगतियो पर भाषाई प्रहार से समाज को सही राह पर चलाये रखने के लिये शब्दो के जरिये वर्षो से किये जा रहे प्रयास की एक सुस्थापित विधा है “। यद्यपि व्यंग्य अभिव्यक्ति की शाश्वत विधा है , संस्कृत में भी व्यंग्य मिलता है , प्राचीन कवियो में कबीर की प्रायः रचनाओ में व्यंग्य है ,यह कटाक्ष किसी का मजाक उड़ाने या उपहास करने के लिए नहीं, बल्कि उसे सही मार्ग दिखाने के लिए ही होता है। कबीर का व्यंग्य करुणा से उपजा है, अक्खड़ता उसकी ढाल है. हास्य और व्यंग्य में एक सूक्ष्म अंतर है , जहां हास्य लोगो को गुदगुदाकर छोड़ देता है वहीं व्यंग्य हमें सोचने पर विवश करता है। व्यंग्य के कटाक्ष पाठक को तिलमिलाकर रख देते हैं। व्यंग्य लेखक के , संवेदनशील और करुण हृदय के असंतोष की प्रतिक्रिया के रूप में उत्पन्न होता है। शायद व्यंग्य , उन्ही तानो और कटाक्ष का साहित्यिक रचना स्वरूप है , जिसके प्रयोग से सदियो से सासें नई बहू को अपने घर परिवार के संस्कार और नियम कायदे सिखाती आई हैं और नई नवेली बहू को अपने परिवार में स्थाई रूप से घुलमिल जाने के हित चिंतन के लिये तात्कालिक रूप से बहू की नजरो में स्वयं बुरी कहलाने के लिये भी तैयार रहती हैं। कालेज में होने वाले सकारात्मक मिलन समारोह जिनमें नये छात्रो का पुराने छात्रो द्वारा परिचय लिया जाता है , भी कुछ कुछ व्यंग्य , छींटाकशी , हास्य के पुट से जन्मी मिली जुली भावना से नये छात्रो की झिझक मिटाने की परिपाटी रही है और जिसका विकृत रूप अब रेगिंग बन गया है।
प्रायः अनेक समसामयिक विषयो पर लिखे गये व्यंग्य लेख अल्प जीवी होते हैं , क्योकि किसी घटना पर त्वरित प्रतिक्रिया के रूप में लिखा गया व्यंग्य ,अखबार में फटाफट छपता है , पाठक को प्रभावित करता है , गुदगुदाता है , थोड़ा हंसाता है , कुछ सोचने पर विवश करता है , जिस पर व्यंग्य किया जाता है वह थोड़ा कसमसाता है पर अपने बचाव के लिये वह कोई अच्छा सा बहाना या किसी भारी भरकम शब्द का घूंघट गढ़ ही लेता है , जैसे प्रायः नेता जी आत्मा की आवाज से किया गया कार्य या व्यापक जन कल्याण में लिया गया निर्णय बताकर अपने काले को सफेद बताने के यत्न करते दिखते हैं। । अखबार के साथ ही व्यंग्य भी रद्दी में बदल जाता है। उस पर पुरानेपन की छाप लग जाती है। किन्तु पुस्तक के रूप में व्यंग्य संग्रह के लिये अनिवार्यता यह होती है कि विषय ऐसे हों जिनका महत्व शाश्वत न भी हो तो अपेक्षाकृत दीर्घकालिक हो। मिली भगत ऐसे ही विषयो पर दुनिया भर से अनेक व्यंग्यकारो की करिश्माई कलम का कमाल है।
संग्रह में अकारादि क्रम में लेखको को पिरोया गया है। कुल ४३ लेकको के व्यंग्य शामिल हैं।
अभिमन्यु जैन की रचना बारात के बहाने मजेदार तंज है उनकी दूसरी रचना अभिनंदन में उन्होने साहित्य जगत में इन दिनो चल रहे स्व सम्ंमान पर गहरा कटाक्ष किया है। अनिल अयान श्रीवास्तव नये लेखक हैं , देश भक्ति का सीजन और खुदे शहरों में “खुदा“ को याद करें लेख उनकी हास्य का पुट लिये हुई शैली को प्रदर्शित करती है। अलंकार रस्तोगी बड़ा स्थापित नाम है। उन्हें हम जगह जगह पढ़ते रहते हैं साहित्य उत्त्थान का शर्तिया इलाज तथा एक मुठभेड़ विसंगति से में रस्तोगी जी ने हर वाक्य में गहरे पंच किये हैं। अरुण अर्णव खरे वरिष्ठ व्यंग्यकार हैं , वे स्वयं भी संपादन का कार्य कर चुके हैं , उनकी कई किताबें प्रकाशित हैं बच्चों की गलती थानेदार और जीवन राम तथा बुजुर्ग वेलेंटाईन , उनकी दोनो हीरचनायें गंभीर व्यंग्य हैं। इंजी अवधेश कुमार ’अवध’ पेशे से इंजीनियर हैं पप्पू – गप्पू वर्सेस संता – बंता एवं सफाई अभिनय समसामयिक प्रभावी कटाक्ष हैं। डॉ अमृता शुक्ला के व्यंग्य कार की वापसी व बिन पानी सब सून पठनीय हैं। बसंत कुमार शर्मा रेल्वे के अधिकारी हैं वजन नही है और नालियाँ व्यंग्य उनके अपने परिवेश को अवलोकन कर लिखने की कला के साक्षी हैं। ब्रजेश कानूनगो वरिष्ठ सुस्थापित व्यंग्यकार हैं। उनके दोनो ही लेख उपन्यास लिख रहे हैं वे तथा वैकल्पिक व्यवस्था मंजे हुये लेखन के प्रमाण हैं , जिन्हें पढ़ना गुनना मजेदार तो है ही साथ ही व्यंग्य की क्षमता का परिचायक है। छाया सक्सेना ’ प्रभु ’के लेख फ्री में एवलेबल रहते हैं पर फ्री नहीं रहते और ध्यानचंद्र बनाम ज्ञानचंद्र बढ़िया हैं। प्रवासी भारतीय धर्मपाल महेंद्र जैन एक तरफा ही सही और गड्ढ़े गड्ढ़े का नाम लेखो के माध्यम से कुछ हास्य कुछ व्यंग्य के नजारे दिखाते हैं। वरिष्ठ लेखक जय प्रकाश पाण्डे ने नाम गुम जाएगा व उल्लू की उलाहना लेखो के माध्यम से कम में अधिक कह डाला है। किशोर श्रीवास्तव के सावधान, यह दुर्घटना प्रभावित क्षेत्र है और घटे वही जो राशिफल बताये लेखो के जरिये स्मित हास्य पैदा किया है। कृष्णकुमार ‘आशु ने पुलिसिया मातृभाषा में पुलिस वालो की बोलचाल के तौर तरीको पर कलम चलाकर कटाक्ष किया है उनका दूसरा लेख फलित होना एक ‘श्राप’ का भी जबरदस्त है। मंजरी शुक्ला के दो लेख क्रमशः जब पडोसी को सिलेंडर दिया एवं बिना मेक अप वाली सेल्फी , मजेदार हैं व पाठक को बांधते हैं। मनोज श्रीवास्तव
के लेख अथ श्री गधा पुराण व यमलोक शीर्षक से ही कंटेंट की सूचना देते हैं। महेश बारमाटे “माही“ बिल्कुल नवोदित लेखक हैं किन्तु उनके व्यंग्य धारदार हैं बेलन, बीवी और दर्द व सब्जी क्या बने एक राष्ट्रीय समस्या पर उन्होने लिखा है , वे पेशे से इंजीनियर हैं , ओम वर्मा के लेख अनिवार्य मतदान के अचूक नुस्ख़े व ‘दो टूक’ शानदार हैं। ओमवीर कर्ण के लेख प्रेम कहानी के बहानेतथा पालिटीशियन और पब्लिक की सरल ताने भरी भाषा पेनी है। डा. प्रदीप उपाध्याय सुस्थापित नाम है , उनकी कई पुस्तकें लोगो ने पसंद की हैं। यह संपादक का ही कमाल है कि वे इस किताब में ढ़ाढ़ी और अलमाइजर का रिश्ता और उनको रोकने से क्या हासिल लेको के माध्यम से शामिल हैं। रमाकान्त ताम्रकार परसाई की नगरी के व्यंग्यकार हैं
उनके लेख दो रुपैया दो भैया जी व जरा खिसकना अनुभव जन्य हैं। रमेश सैनी व्यंग्य जगत में अच्छा काम कर रहे हैं , वे व्यंग्म संस्था के संयोजक भी हैं , उनकी पुस्तकें छप चुकी हें। ए.टी.एम. में प्रेम व बैगन का भर्ता के जरिये उनकी किताब में उपस्थिति महत्वपूर्ण है। राजशेखर भट्ट ने निराधार आधार और वेलेंटाईन-डे की हार्दिक शुभकामनायें लिखी हैं। राजशेखर चैबे रायपुर में बड़े शासकीय पद पर कार्यरत हैं किन्तु स्थापित संपादक व व्यंग्यकार की उनकी पहचान को उनके लेख ज्योतिष की कुंजी और डागी फिटनेस ट्रेकर मुखरित करते हैं। राजेश सेन को हर व्यंग्य में रुचि रखने वाले पाठक बखूबी जानते हैं , अपने प्रसिद्ध नाम के अनुरूप ही उनके लेख डार्विन, विकास-क्रम और हम एवं बतकही के शोले और ग्लोबल-वार्मिंग किताब में चार चांद लगा रहे हैं। अबूधाबी की प्रसिद्ध लेखिका समीक्षा तैलंग की हाल ही चर्चित किताब जीभ अनशन पर है आई है , वे विषय की पिच पर जाकर बेहतरीन लिखती हैं। किताब में उनके दो लेख विदेश वही जो अफसर मन भावे तथा धुंआधार धुंआ पटाखा या पैसा लिये गये हैं। मेरठ के सुप्रसिद्ध साहित्यिक शांध्यकालीन अखबार विजय दर्पण टाईम्स के संपादक। संतराम पाण्डेय की लेखनी बहु प्रसंसित है। उनके लेख लेने को थैली भली और बिना जुगाड़ ना उद्धार पढ़ेंगे तो निश्चित ही आनंद आवेगा। दिव्य नर्मदा ब्लाग के संजीव सलिल ने हाय! हम न रूबी राय हुए व दही हांडी की मटकी और सर्वोच्च न्यायालय जैसे समाज की समकालीन घटनाओ को इंगित करते लेख लिखे हें। इंजी संजय अग्निहोत्री प्रवासी भारतीय और इंजीनियर हैं , यह विवेक जी का ही संपर्क जाल है कि उनके लेख यथार्थ परक साहित्य व अदभुत लेखक कोकिताब में संजोया गया है। मुम्बई के सुप्रसिद्ध लेखक संजीव निगम के व्यंग्य लौट के उद्धव मथुरा आयेऔर शिक्षा बिक्री केन्द्र जबर्दस्त प्रहार करने में सफल हुये हैं। ब्लाग जगत के चर्चित व्यक्तित्व केनेडा के समीर लाल उड़नतश्तरी के लेखों किताब का मेला या मेले की किताब और रिंग टोनः खोलती है राज आपके व्यक्तित्व का ने किताब को पूरे अर्थो में वैश्विक स्वरूप दे दिया है। शशांक मिश्र भारतीका पूंछ की सिधाई व अथ नेता चरित्रम् व्यंग्य को एक मुकाम देते लेख हैं। बहु प्रकाशित लेखक प्रो.शरद नारायण खरे ने ख़ुदा करे आपका पड़ोसी दुखी रहे एवं छोड़ें नेतागिरी बढ़िया व्यंग्य प्रस्तुत किये हैं।
सशक्त व्यंग्य हस्ताक्षर शशिकांत सिंह ’शशि’ जिनकी स्वयं कई किताबें छप चुकी हें , तथा विभिन्न पत्रिकाओ में हम उन्हें पढ़ते रहते हैं के गैंडाराज और सुअर पुराण जैसे लेख सामिल कर विवेक जी ने किताब को मनोरंजक बनाने में सफलता प्राप्त की है। शिखर चंद जैन व्यंग्य में नया नाम है , किन्तु उनके व्यंग्य लेख पढ़ने से लगता है किवे सिद्ध हस्त व्यंग्यकार हैं उनके लेख आलराउंडर मंत्री और मुलाकात पार्षद से पुस्तक का हिस्सा हैं। सुधीर ओखदे आकाशवाणी के कार्यक्रम प्रोड्यूसर हैं , उनके व्यंग्य संग्रह बहु चर्चित हैं। विमला की शादी एवं गणतंत्र सिसक रहा है व्यंग्यो के जरिये उनकी उपस्थिति दर्ज की जा सकती है। विक्रम आदित्य सिंह ने देश के बाबा व ताजा खबर लिखे हैं। विनोद साव का एक ही लेख है दूध का हिसाब पर , इसमें ही उन्होने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिखाया है। युवा संपादक , समीक्षक, व्यंग्यकार विनोद कुमार विक्की की व्यंग्य की भेलपुरी साल की चर्चित कलिताब है। पत्नी, पाकिस्तान और पेट्रोल तथा व्यथित लेखक उत्साहित संपादक के द्वारा उनके लेख किताब में महत्वपूर्ण हिस्सेदारी करते हैं। विजयानंद विजय ने आइए, देश देश खेलते हैं एवं हम तो बंदर ही भले है व्यंग्यो के जरिये अपनी कलम का कमाल बता दिया है। स्वयं विवेक रंजन श्रीवास्तव के भी दो लेख
सीबीआई का सीबीआई के द्वारा सीबीआई के लिये और आम से खास बनने की पहचान थी लाल बत्ती पुस्तक को महत्वपूर्ण व पठनीय बनाते हैं। अमन चक्र के लेख कुत्ता व मस्तराम पठनीय हैं। रमेश मनोहरा उल्लुओ का चिंतन करते हैं। दिलीप मेहरा के लेख कलयुग के भगवान, तथा विदाई समारोह और शंकर की उलझन गुदगुदाते हैं।
मिली भगत के सभी लेख एक से बढ़कर एक हैं। इन उत्तम , प्रायः दीर्घ कालिक महत्व के विषयो पर लिखे गये मनोरंजक लेखो के चयन हेतु संपादक विवेक रंजन श्रीवास्तव बधाई के पात्र हैं। सभी लेख ऐसे हैं कि एक बार पाठक पढ़ना शुरू करे तोलेख पूरा किये बिना रुक नही पाता। निश्श्चित ही मिली भगत को व्यंग्य जगत लंबे समय तक याद रखेगा व संदर्भ में इसका उपयोग होगा। कुलमिलाकर किताब पैसा वसूल मनोरंजन , विचार और परिहास देती है। खरीद कर पढ़िये , जिससे ऐसी सार्थक किताबो को प्रकाशित करने में प्रकाशको को गुरेज न हो। किताब हार्ड बाउंड है , अच्छे कागज पर डिमाई साईज में लाईब्रेरी एडिशन की तरह पूरे गैटअप में संग्रहणिय लगी।

पूनम की साहित्यिक यात्रा का तीसरा पडाव……
रहीम खान
(पुस्तक समीक्षा) इस बात में कोई दो मत नहीं की आज का दौर सोशल मीडिया का है। जहाँ पर हर वो व्यक्ति जो कुछ लिखना चाहता है, कहना चाहता है अगर उसको कहीं प्लेटफार्म नहीं मिलता तो सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी बात लोगों तक पहुँचा सकता है। देश का दिल कहे जाने वाले दिल्ली की साहित्यिक जगत में कम समय में अपने परिश्रम और विचारों के बल पर अच्छी खासी पहचान स्थापित करने वाली रचनाकर कवित्री एवं शायर पूनम माटिया ऐसा ही नाम है जिसने अपने ओजस्वी विचार, विषय के अनुकूल कम शब्दों में बातों को कहना तथा समाज के सभी विषय पर चंद अल्फाजों में दिल को छूने वाले विचारों को प्रदर्शित करके एक अलग पहचान स्थापित किया। किसी भी रचनाकार के लिए उसके काव्य संग्रह का प्रकाशन अपने आप में एक बड़ा गौरव का विषय होता है। यह संयोग की बात है कि पूनम माटिया जो एक गृहणी के साथ-साथ सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय रहते हुए साहित्यिक यात्रा के तीसरे पडाव में तीसरी किताब अभी तो सागर शेष है को लोगों तक पहुँचाने में सफल हो गई है। इसके पूर्व उनकी दो काव्य संग्रह स्वप्न श्रृंगार और फिर अरमान शीर्षक से प्रकाशित हो चुके है। दोनों ही संग्रह में उन्होंने जीवन की सार्थकता का अनुभव को लेकर जो भी लिखा उसको सभी ने सराहा। काव्यमंच के साथ विभिन्न टी.व्ही. चैनलों पर भी वह अपनी रचनाओं के माध्यम से काव्य जगह को महकाने में लगी हुई है।
तीसरे काव्य संग्रह पूरा सौ पेज पर आधारित है, जिसमें प्रथम पेज से अंतिम पेज तक जो कुछ लिखा और कहा गया वह बेहद रोचक और रूचिकर है। वरिष्ठ रचनाकार डाॅ. कुंवर बैचेन ने लिखा कि पूनम की चाँदनी और मिट्टी की सौंधी गंध वाली कविताओं से सुसज्जित तीसरा काव्य संग्रह में व्यक्त विचार दिल की गहराईयों को छूती है। पूनम ने नम आँखों और भीगी पलकों से कविता की माटी को भिगोया है और संवेदना की नूतन मूर्ति को गढ़ा है। ऐसी मूर्ति जिसमें भावना के नये नये रंग भरे गये है जिसको काव्य के मानकों पर ठीक से तराशकर सुंदर नाक नक्शे वाली बनाया गया है जिनमें नये-नये प्रतीकों की छबि और सुंदर बिंबों की संयोजना की गई है, जिसमंे शब्द बोलते से नजर आ रहे और हर बोल अनमोल है।
जिंदगी कि किताब के पन्ने
पलटते हुए गर आँख झपक जाए
यूँ लगता है जैसे-
पलों में सदियाँ गुजर जाएँ
हर पन्ने पे हर्फ
एक नया अंदाज लिये होते है।
तीसरे काव्य संग्रह की शुरूआत रचना ही उनकी प्रतिभाशाली व्यक्तित्व होने का परिचय देती है जिसमें व्यक्त विचार सीधे दिल पर चोट करते है।
उदास रातों की कहानियाँ अकसर
सिसकियाँ कह जाती हैं
बंद खिडकियों, बद दरवाजों के बीच
गूंँजती है जोर से
पर बाहर न जाने क्यूँ
खमोशियाँ रह जाती है।
मुझे इस बात को कहने में कोई संकोच नहीं कि जितनी खूबसूरत वह है उतनी की खूबसूरत उनकी रचनायें भी। यहाँ से शुरू हुआ यह संग्रह विषय, दौर, तस्वीर या हकीकत, शबाब, सुरूर, इश्क एक दुआ, आईना, मीठी मुस्कान, चाँद से चाँद की बातें करेगें, मालूम न था, तेरा रूप, क्रांति बिगुल बजाना होगा, जिदंगी एक सफर नामा, अभी तो सागर शेष है, संरक्षण प्रकृति का, अनुभव क रंग, हमसफर, मुलाकात, विश्वास की नींव बेटियाँ, होली, दीवाली, रेशम की डोर में बंधा प्यार जैसों अनेकों अनेक नये नये विषय पर पूनम ने अपनी कलम का जादू बिखेरते हुए मूर्त रूप प्रदान किया है उसको पढ़ने के बाद मन मस्तिष्क के स्मरण पर एक खुशनूमा सुकुन महसूस होता है, साथ ही यह भी अनुभव कराता है कि रचनाकार के भीतर शब्दों का अपार भंडार समाया हुआ है जो सभी खुशी, गम को चंद अल्फाजों में बयान करके श्रोताओं के दिल पर छा जाने की क्षमता रखता है। संग्रह में देश भक्ति को भी उन्होंने बेहतरीन अंदाज में पिरोया है, वहीं दोहे, गजल, मुक्तक, संस्कृति के पतन, मासूम बचपन, नादान बचपन, हमारा देश महान, मौज को तरसती आत्मा पर जो लिखा है उसका सराहना के लिये मेरे पास शब्दों का अभाव है। पूनम के काव्य संग्रह इस बात का प्रतीक है कि प्रतिभावान एवं क्षमतावान व्यक्ति यदि अपने कार्य के प्रति गंभीर है तो उसके लिये सफलता का टेडामेढा रास्ता पार करने में कभी कोई कठिनाई नहीं आती। काव्य यात्रा में जिन लोगों ने पूनम को प्रोत्साहित करने में अपना योगदान दिया उसका उल्लेख भी उन्होंने अपनी किताब में बड़े सहज ढंग से किया। तीसरा काल संग्रह का प्रकाशन अमृत प्रकाशन दिल्ली द्वारा किया गया है। कम शब्दों में एक स्थापित रचनाकार के बहुमुखी प्रतिभा को वर्णन करना बेहद कठिन कार्य है। अंत में मैं अपनी बात को उनकी इस रचना के साथ विराम देना चाहता हॅू
हुस्न उसका खिला गुलाब
जैसे कोई अनपढ़ी किताब
दिल चाहे पन्ने दर पन्ने
पढँू उसे मैं हर्फ ब हर्फ
तसल्ली बक्श दे ऐ खुदा
बैचेन दिल को दे करार
मचलते है अरमां मेरे
समेटने को उसका नूर

पुस्तक चर्चा: कालजयी छंद दोहा का मणिदीप “दोहा दीप्त दिनेश”
(प्रो. नीना उपाध्याय)
आदर्शोन्मुखता, उदात्त दार्शनिकता और भारतीय संस्कृति की त्रिवेणी के पावन प्रवाह, सामाजिक जागरण और साहित्यिक सर्जनात्मकता से प्रकाशित मणिदीप की सनातन ज्योति है विश्ववाणी हिंदी संस्थान के तत्वावधान में ‘शांति-राज पुस्तक माला’ के अंतर्गत आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ और प्रो. साधना वर्मा के कुशल संपादन में समन्वय प्रकाशन अभियान जबलपुर द्वारा प्रकाशित दोहा शतक मञ्जूषा भाग ३ “दोहा दीप्त दिनेश।” सलिल जी से अथक प्रयासों के प्रतिफल इस संकलन के रचनाएँ प्रवाही, और संतुलित भाषा के साथ, अनुकूल भाव-भंगिमा को इंगित तथा शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करनेवाली हैं।
‘दोहा दीप्त दिनेश’ के प्रथम दोहाकार श्री अनिल कुमार मिश्र ने ‘मन वातायन खोलिए’ में भक्ति तथा अनुराग मिश्रित आध्यात्म तथा वैष्णव व शाक्त परंपरा का सम्यक समावेशन करते हुए आज के मानव की प्रवृत्ति पर प्रकाश डाला है-
देवी के मन शिव बसे, सीता के मन राम।
राधा के मन श्याम हैं, मानव के मन दाम।।
सगुण-निर्गुण भक्त और संत कवियों की भावधारा को प्रवाहित करते हुए दोहाकार कहता है-
राम-नाम तरु पर लगे, मर्यादा के फूल।
बल-पौरुष दृढ़ तना हो, चरित सघन जड़ मूल।।
दोहा लेखन के पूर्व व्यंग्य तथा ग़ज़ल-लेखन के लिए सम्मानित हो चुके इंजी. अरुण अर्णव खरे ‘अब करिए कुछ काम’ शीर्षक के अंतर्गत जान सामान्य की व्यथा, आस्था व् भक्ति का ढोंग रचनेवाले महात्माओं व् नेताओं के दोहरे आचरण पर शब्दाघात करते हुए कहते हैं-
राम नाम रखकर करें, रावण जैसे काम।
चाहे राम-रहीम हों, चाहे आसाराम।।
प्रिय-वियोग से त्रस्त प्रिया को बसंत की बहार भी पतझर की तरह प्रतीत हो रही है-
ऋतु बसंत प्रिय दूर तो, मन है बड़ा उदास।
हरसिंगार खिल योन लगे, उदा रहा उपहास।।
दोहा दीप्त दिनेश के तृतीय दोहाकार अविनाश ब्योहार व्यंग्य कविता, नवगीत व् लघुकथा में भी दखल रखते हैं। आपने “खोटे सिक्के चल रहे” शीर्षक के अंतर्गत पाश्चात्य सभ्यता और नगरीकरण के दुष्प्रभाव, पर्व-त्योहारों के आगमन, वर्तमान राजनीति, न्याय-पुलिस व सुरक्षा व्यवस्था पर सफल अभिव्यक्ति की है-
अंधियारे की दौड़ में, गया उजाला छूट।
अंधाधुंध कटाई से, वृक्ष-वृक्ष है ठूँठ।।
न्यायालयों में धर्मग्रंथ गीता की सौगंध का दुरूपयोग देखकर व्यथित अविनाश जी कहते हैं-
गीता की सौगंध का, होता है परिहास।
श्री रामचरित मानस में गो. तुलसीदास प्रभु श्री राम के माध्यम से कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
इस चौपाई के कथ्य की सार्थकता प्रमाणित करते हुए विदग्ध जी कहते हैं-
जिसका मन निर्मल उसे, सुखप्रद यह संसार।
उसे किसी का भय नहीं, सबका मिलता प्यार।।
संकलन के आठवें दोहाकार डॉ. जगन्नाथ प्रसाद बघेल ने जन सामान्य के जन-जीवन की दोहों के माध्यम से सरल सहज अभिव्यक्ति की है। आपके दोहों में कहीं-कहीं व्यंग्य का पुट भी समाहित है। प्रायः देखा जाता है कि बड़े-बड़े अपराधी बच निकलते हैं जबकि नौसिखिये पकड़े जाते हैं। लोकोक्ति है कि हाथी निकल गया, पूँछ अटक गई’। बघेल जी इस विसंगति को दोहे में ढाल कर कहते हैं-
संकलन के तेरहवें दोहाकार प्रो. विश्वम्भर शुक्ल ने “आनंदित होकर जिए” शीर्षक से भारतीय संस्कृति, वर्तमान राजनीति भक्ति-प्रधान एवं श्रृंगारपरक दोहों की सारगर्भित-सरल-सहज अभिव्यक्ति लयात्मकता और माधुर्य के साथ की है। आपके दोहों में प्रसाद युग की तरह सौंदर्य और कल्पना दोनों का सुंदर समन्वय देखा जा सकता है-
उगा भाल पर बिंदु सम, शिशु सूरज अरुणाभ।
अब निंदिया की गोद में, रहा कौन सा लाभ।।
हिंदी भाषा की वैज्ञानिकता को संपूर्ण विश्व की भाषाओँ में अद्वितीय बताते हुए आपने लिखा है-
शब्द ग्रहण साहित्य हो, धनी बढ़े लालित्य।
सकल विश्व में दीप्त हो, हिंदी का आदित्य।।
आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’ तथा प्रो. साधना वर्मा के संपादकत्व में विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर के सारस्वत अनुष्ठान ‘दोहा शतक मंजूषा’ के भाग ३ ‘दोहा दीप्त दीनेष में १५ दोहाकारों ने विविध विषयों और प्रसंगों पर अपने चिंतन की दोहा में अभिव्यक्ति की है। भक्ति, अध्यात्म, प्रकृति चित्रण, राष्ट्र-अर्चन, बलिदानियों का वंदन, श्रृंगार, राजनीति, सामयिक समस्याएँ, पर्यावरण संरक्षण व संवर्धन आदि विषयों को समाहित करते हुए ‘दोहा दीप्त दिनेश’ के दोहे सहज प्रवाही भाषा और संतुलित भाषाभिव्यक्ति के साथ शिल्प विधान का वैशिष्ट्य प्रगट करते हैं।

समसामायिक कृति है समय के सवाल
(पुस्तक चर्चा) मैं शहर के एक नामी अस्पताल के पास से निकल रहा था। परिसर में बनी दूकानो में एक भव्य शो रूम दिखा , ” फर्स्ट क्राई ” मैने देखा कि वहां नवजात शिशु के उपयोग की हर ब्रांडेड वस्तु सुलभ थी। मैं उन दिनो पंकज चतुर्वेदी की पुस्तक ” समय के सवाल ” पढ़ रहा था , तो मेरे मन में सहज ही प्रश्न आया कि क्या सचमुच इस मंहगे ब्रांडेड शो रूम में हमारी भावी पीढ़ीयों के उपयोग के सारे सरंजाम उपलब्ध हैं ? क्या वातावरण की प्रदूषित हवा , प्रदूषित जल के जबाब हम अपनी भावी नस्लों को आक्सीजन कैन या बिसलरी की बोटलो में बंद करके ही देना चाहते हैं ? नव दम्पति और बच्चे के नाना नानी , दादा दादी जिस प्रसन्नता से नवजात के लिये मंहगे ब्रांडेड सामान खरीदते और प्रसन्न होते हैं , क्या समय रहते जन चेतना से उनमें प्रकृति संरक्षण के भाव पैदा करना जरूरी नही है। जिससे आने वाला बच्चा नैसर्गिकता का कम से कम उसी रूप में आनंद उठा सके , जिस रूप में हमें हमारे बुजुर्गो ने प्रकृति को हमें सौंपा था। इन अनुत्तरित यक्ष प्रश्नो के जबाब ढ़ूंढ़ने और प्रकृति से की जा रही हमारी छेड़ छाड़ के विरुद्ध हमें चेताने की एक कोशिश ही है पंकज चतुर्वेदी की किताब “समय के सवाल”
पंकज चतुर्वेदी , जल , जंगल , जमीन से जुड़े मुद्दो पर खोजी पत्रकारिता का सुस्थापित नाम है। वे स्वयं विज्ञान के छात्र रहे हैं , शिक्षा अभियान से जुड़े हुये हैं , बुंदेलखण्ड की मिट्टी से जुड़े हुये हैं अतः प्रकृति से जुड़े समसामयिक ज्वलंत विषयों पर उनकी गहरी समझ है। हमने जब तब उन्हें यहां वहां पढ़ा ही है. वे सतही लेखन नही करते बल्कि उनके लेख ऐसे शोध कार्य होते हैं जो आम आदमी के समझ में आ सकें , तथा जन सामान्य के लिये उपयोगी हों। वे प्रकृति से जुड़े हर उस विषय पर जहां उनकी नजर में कुछ गलत होता दिखता है समाज को , सरकार को , नीति निर्माताओ को , क्रियांन्वयन करने वालो को और हर पाठक को समय रहते चेताते दिखते हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में संग्रहित कुल ५३ आलेख अलग अलग समय पर सम सामयिक मुद्दो पर लिखे गये हैं। जिन्हें पर्यावरण , धरती , शहरीकरण , खेती , जंगल , जल है तो कल है इन ६ उप शीर्षको के अंतर्गत संकलित किया गया है। सभी लेख प्रामाणिकता के साथ लिखे गये हैं । लेख पढ़कर समझा जा सकता है कि लेखन के लिये उन्होने स्वयं न केवल अध्ययन किया है वरन मौके पर जाकर देखा समझा और लोगो से बातें की हैं. पहला ही आलेख है ” कई फुकुशिमा पनप रहे हैं भारत में ” यह लेख जापान में आई सुनामी के उपरान्त फुकुशिमा परमाणु विद्युत संयंत्र से हुये नाभिकीय विकरण रिसाव के बाद भारतीय संदर्भो में लिखा गया है। लेख में आंकड़े देकर उर्जा के लिये परमाणु बिजलीघरो पर हमारी निर्भरता की समीक्षा के साथ वे चेतावनी देते हैं ” परमाणु शक्ति को बिजली में बदलना शेर पर सवारी की तरह है। “यूरेनियम कारपोरेशन आफ इंडिया ” के झारखण्ड से यूरेनियम के अयस्क खनन तथा उसके परिशोधन के बाद बचे आणविक कचरे का निस्तारण जादूगोड़ा में आदिवासी गांवो के बीच किया जाता है , लेखक की खोजी पत्रकारिता है कि वे आंकड़ो सहित उल्लेख करते हैं कि इस प्रक्रिया में लगे कितने लोग कैंसर आदि बीमारियो से मरे। उन्होने १९७४ के पोखरण विस्फोट के बाद उस क्षेत्र के गांवो में कैंसर के रोगियो की बढ़ी संख्या का उल्लेख भी किया है। लेख के अंत में वे चेतावनी देते हैं कि यदि हमारे देश के बाशिंदे बीमार , कुपोषित और कमजोर होंगे तो लाख एटमी बिजलीघर भी हमें सर्वशक्तिमान नही बना सकते।
आखिर कहां जाता है परमाणु बिजली घरो का कचरा ?, लेख में बुंदेल खण्ड में किये जा रहे आणविक कचरे के निस्तारण पर चिंता जताई गई है। पेड़ पौधे भी हैं तस्करो के निशाने पर , जरूरत है पर्यावरण के प्रति संवेदन शीलता की , गर्म होती धरती ,कहीं घर में ही तो नही घुटता है दम , पत्तियो को नही तकदीर को जलाता है समाज , खोदते खोदते खो रहे हैं पहाड़ , पालिथिन पर पाबंदी के लिये चाहिये वैकल्पिक व्यवस्था जैसे भाग एक के लेख उनके शीर्षक से ही अपने भीतर के विषय की जानकारी देते हैं और पाठक को आकर्षित करते हैं। पत्तियो को नही तकदीर को जलाता है समाज लेख में पंकज जी ने दिल्ली प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का संदर्भ देकर प्रभावी तरीके से खेत के अवशेष के प्रबंधन पर कलम चलाई है।
दूसरे भाग “धरती” के अंतर्गत कुल चार लेख हैं। दुनियां में बढ़ते मरुस्थल , ग्लेशियर प्राधिकरण की आवश्यकता , बंजर जमीन की समस्या को रेखांकित करती उनकी कलम आव्हान करते हुये कहती है कि जमीन के संरक्षण की जबाबदारी केवल सरकारो पर है जबकि समाज का हर तबका जमीन का हर संभव दोहन करने में व्यस्त है , यह चिंता का विषय है।
हमारा देश गांवो का कहा जरुर जाता है पर गांवो से शहरो की ओर अंधाधुंध पलायन हो रहा है , इसके चलते शहरो का अनियंत्रित विस्तार होता जा रहा है। शहरीकरण की अपनी अलग समस्यायें हैं। इन विषयो पर लेखक ने मौलिक चिंताये तथा अपनी समझ के अनुसार बेहतरी के सुझाव देते हुये लेख लिखे हैं। प्रधानमंत्री जी का स्वच्छता कार्यक्रम सहज ही सबका ध्यानाकर्षण कर रहा है , किन्तु विडम्बना है कि हमारी मशीनरी पाश्चात्य माडल का सदैव अंधानुकरण कर लेती है। हास्यास्पद है कि हम डालर में मंहगा डीजल खरीदते हैं, फिर हर गांव कस्बे शहर में कचरा वाहन प्रदूषण फैलाते हुये घर घर से कचरा इकट्ठा करते हैं ,और वह सारा कचरा किसी खुले मैदान पर डम्प कर दिया जाता है। इस तरह सफाई अभियान के नाम पर विदेशी मुद्रा का अपव्यय , वायु प्रदूषण को बढ़ावा , जमीन का दुरुपयोग हो रहा है। बेहतर होता कि हम साईकिल रिक्शा वाले कचरा वाहन उपयोग करते जिससे कुछ रोजगार बढ़ते , डीजल अपव्यय न होता , प्रदूषण भी रुकता। मैने अपने एक लेख में लिखा है कि जब बिजली की भट्टी पल भर में शव को चुटकी भर राख में बदल सकती है तो क्या ऐसी छोटी ओवन नही बनाई जानी चाहिये जिससे हर घर में लोग अपना कचरा स्वयं राख में तब्दील कर दें। पर हमारे मन की बात कौन सुनेगा ? हम बस लिख ही सकते हैं।
पंकज जी ने ऐसे सभी विषयो पर समय पर लेख लिखकर उनके हिस्से की जबाबदारी पूरी गंभीरता से पूरी की है। महानगरीय संस्कृति से पनपते अपराधो पर उनका लेख सामाजिक मनोविज्ञान की उनकी गहरी समझ प्रदर्शित करता है। इस लेख में उन्होने देह व्यापार से जेबकतरी तक की समस्याओ पर कलम चलाई है। जाने कितने करोड़ रुपये नदियो की साफ सफाई के नाम पर व्यय किये जाते हैं , पर एक ही बाढ़ में सारे किये कराये पर पानी फिर जाता है। मुम्बई , चेन्नई , बेंगलोर और इस साल केरल की बाढ़ प्रकृति की चेतावनी है। जिसे समझाने का तार्किक यत्न पंकज जी ने किया है। जल मार्गो पर कूड़ा भरना उन्होने समस्या की जड़ निरूपित किया है। उनकी पैनी नजर सड़को पर जाम की समस्या से लेकर फ्लाईओवर तक गई है।
खेती और किसानी पर इस देश की राजनीती की फसलें हर चुनाव में पक रही हैं। कर्ज माफी के चुनावी वादे वोटो में तब्दील किये जाना आम राजनैतिक शगल बन गया है , पंकज जी ने १२ लेख फसल बीमा , रासायनिक खादो के जहर के प्रभाव , किसानो के लिये कोल्ड स्टोरेज की जरूरत, सूखे से मुकाबले की तैयारी, बी टी बीजो की समस्या आदि पर लिखे हैं। “जब खेत नही होंगे” लेख पढ़कर पाठक चौंकता है। पंकज जी से मैं सहमत हूं कि ” किसान भारत का स्वाभिमान हैं। ” वे लेख के अंत में वाजिब सवाल खड़ा करते हैं ” हमें जमीन क्यो चाहिये अन्न उगाने को या खेत उजाड़कर कारखाने या शहर उगाने को ? ”
आये दिन अखबारो में शहरो में आ जाते जंगली जानवरो की खबरे सुर्खी से छपती हैं। बस्ती में क्यो घुस रहा है गजराज ? , शुतुरमुर्ग भी मर रहे हैं और उनके पालक भी , घुस पैठियो का शिकार हो रहे हैं गैंडे , बगैर चिड़िया का अभयारण्य जैसे लेख उनकी व्यापक दृष्टि , भारत भ्रमण , और अलग अलग विषयो पर उनकी समान पकड़ का परिचायक है। वे प्रकृति के प्रहरी कलमकार के रूप में निखर कर सामने आते हैं।
कहा जाता है अगला विश्वयुद्ध पानी के लिये होगा। जल जीवन है , जल में जीवन है और जल से ही जीवन है। जल ने जीवन सृजित किया है। वहीं जल में विनाश की असाधारण क्षमता भी है। पानी समस्त मानवता को जोडता है। विभिन्न धर्मो में पानी का प्रतीकात्मक वर्णन है। ब्रम्हाण्ड की संरचना और जीवन का आधार भूत तत्व पानी ही है। जल भविष्य की वैश्विक चुनौती है। पिछली शताब्दि में विश्व की जनसंख्या तीन गुनी हो गई है , जबकि पानी की खपत सात गुना बढ़ चुकी है। जलवायु परिवर्तन और जनसंख्या वृद्धि के कारण जल स्त्रोतो पर जल दोहन का असाधारण दबाव है। विश्व की बड़ी आबादी के लिये पेय जल की कमी है। जल आपदा से बचने , जल उपयोग में हमें मितव्ययता बरतने की आवश्यकता है. “जल है तो कल है” खण्ड में लेखक ने १० आलेख प्रस्तुत किये हैं। किंबहुना सभी लेखो में पानी को लेकर वैश्विक चिंता में वे बराबरी से भागीदार ही नही , वरन वे अपनी ओर से तालाबो के महत्व प्रतिपादित करते हुये समस्या का समाधान भी बताते हैं। कूड़ा ढ़ोने का मार्ग बन गई हैं नदियां , लेख में जल संसाधन मंत्रालय के संदर्भ उढ़ृत करते हुये वे विभिन्न नदियो में विभिन्न शहरो में प्रदूषण के कारण बताते हैं। दिल्ली में यमुना का प्रदूषित काला पानी जन चिंता का मुद्दा है , हिंडन जो कभी नदी थी , लेख में पंकज जी ने हिंडन को हिडन होने से बचाने की चेतावनी दी है।
लेखक अपने समय का गवाह तो होता ही है , उसकी वैचारिक क्षमतायें उसे भविष्य का पूर्वानुमान लगाने में सक्षम बना देती हैं, हमें समय के सवाल में उठाये गये मुद्दो पर गहन चिंतन मनन और हमसे जो भी प्रकृति संरक्षण के लिये हो सके करने को प्रेरित करती हैं। लेखकीय में पंकज जी ने लिखा है ” सुख के लोभ में कहीं हम अपनी आने वाली पीढ़ीयो के लिये विकल्प शून्य समाज न बना दें “।
“समय के सवाल” एक निरापद दुनियां बनाने के विमर्श का उनका खुला आमंत्रण हैं। पुस्तक पठनीय ही नही , चिंतन मनन और क्रियांवयन का आव्हान करती सम सामयिक कृति है।
(समीक्षक : विवेक रंजन)

दोहे सरस विदग्ध के
(लेखक-आचार्य संजीव वर्मा ‘सलिल’)
दोहा विश्व वाणी हिंदी का सर्वाधिक प्राचीन (लगभग २००० वर्ष प्राचीन) छंद है। आधुनिक हिंदी ने इसे अपभृंश से विरासत में पाया और अपनाया है। संस्कारधानी जबलपुर दोहा लेखन का केंद्र रही है। गोंदरणी दुरवती के राजगुरु स्वामी नरहरिदास के शिष्य गोस्वामी तुलसीदास ने दोहावली में दोहा लिखने के साथ-साथ अपने अधिकांश ग्रंथों में दोहा को विविध छंदों के मध्य श्रृंखला के रूप में प्रयोग किया। यह परंपरा संस्कारधानी के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ साहित्यकार, शिक्षाविद प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ के साहित्य में विद्यमान है। दोहा विदग्ध जी का प्रिय छंद है। उन्होंने श्रीमद्भगवद्गीता जैसे दर्शन-ग्रंथ का दोहानुवाद कर अपनी सृजन सामर्थ्य का परिचय दिया है। वैशिष्ट्य यह कि हर श्लोक का भावार्थ एक दोहे में ही समेटा गया है।
मणि-कांचन संयोग
२३ मार्च १९२७ को स्वतंत्रता सत्याग्रही छोटेलाल वर्मा जी जी की धर्मपत्नि सरस्वती देवी ने जिस बालक को जन्म दिया वह पिता से ‘प्रभुता से लघुता भली, प्रभुता से प्रभु दूर’ की विरासत लेकर पिता के नाम के अनुरूप अपनी असाधारण उपलब्धयों के बावजूद खुद को ‘छोटा’ मानते हुए ‘सादा जीवन उच्च विचार’ के जीवन सूत्र को अपनाता रहा। माँ के नाम को सार्थक करते हुए उसने ‘सरस्वती-साधना’ को ही जीवन का लक्ष्य बना लिया। यही नहीं जीवन संगिनी दयावती जी के नाम को अपनी जीवन शैली का अभिन्न अंग बनाते हुए उसने आजीवन ‘दयापूर्ण’ विनम्रता को अपने आचरण का अंग बना लिया। पद, धन और संपत्ति उसे ‘लघुता, ज्ञान और दया’ से विमुख नहीं कर सके। इस तीनों का प्रतिफल यह हुआ कि खुद ‘बिवेक उसका ‘रंजन’ के लिए पुत्र रूप में उसे प्राप्त हुआ और ‘कल्पना’ उसके साहित्य सृजन की सहायिका ही नहीं हुई, पुत्रवधु के रूप में भी उसकी सृजन सामर्थ्य वृद्धि में सहायक हुई। ऐसा मणि-कांचन संयोग विरल ही होता है।
सृजन यात्रा
गोंडवाना वंश की राजधानी मंडला मेरी भी जन्म स्थली है। मेरा सौभग्य है कि साहित्य-साधना की राह पर विदग्ध जी से मुझे प्रेरणा मिलती रही। उन्होंने हिंदी तथा अर्थ शास्त्र में एम्.ए., साहित्य रत्न तथा एम्.एड. की उपाधि अर्जित कर केन्दीय विद्यालय में प्राचार्य ,शासकीय शिक्षण महाविद्यालय में प्राध्यापक व् प्राचार्य के रूप में सेवा करते हुए श्रेष्ठता के मानक स्थापित किए। शिक्षण में नवाचार के लिए चर्चित रहे विदग्ध जी ने विद्यार्थियों में समाजोपयोगी कार्य करने की प्रबल चेतना जगाई। कायस्थ कहवंश में जन्में विदग्ध जी के कुल देवता श्री चित्रगुप्त जी चराचर के कर्म देवता हैं। विदग्ध जी के आजीवन कर्मोपासना को ही जीवन का ध्येय माना। उन्होंने असि को भले हे इन्हीं अपनाया पर मसि उनके साथ सदा जुडी रही। ईशाराधन, वतन को नमन, अनुगुंजन, नैतिक कथाएँ, आदर्श भाषण कला, कर्मभूमि के लिए बलिदान, जनसेवा, अँधा और लँगड़ा, मुक्तक संग्रह, स्वयं प्रभा व् अंतर्ध्वनि गीत संग्रह, मानस के मोती लेख संग्रह आदि कृतियों की रचना के समान्तर श्रीमदभगवद्गीता, मेघदूतम, रघुवंशम आदि संस्कृत ग्रंथों का हिंदी काव्यानुवाद भी विदग्ध जी ने किया।
दोहा लेखन
दोहा विदग्ध जी का सर्वप्रिय छंद है। विश्व वाणी हिंदी संसथान के तत्वावधान में शान्तिराज ग्रंथ माला के अंतर्गत दोहा शतक मञ्जूषा के सारस्वत अनुष्ठान में आशीष स्वरूप विदग्ध जी के दोहे मिलना अपने आपमें एक उपलब्धि है। कुशल दोहाकार विदग्ध जी को कबीराना जीवन शैली रुचती है। कबीर पर उन्होंने अनेक दोहे कहे हैं। एक बानगी देखें-
जो भी कहा कबीर ने, तप कर सोच-विचार।
वह धरती पर बन गया, युग का मुक्ताहार।।
यहाँ अन्त्यानुप्रास के समान्तर ‘तप’ में श्लेष की छटा दर्शनीय है।
विदग्ध जी अधिकार पर कर्तव्य को वरीयता दिए जाने के पक्षधर हैं। वे जानते और मानते हैं की लोक की, लोक के द्वारा, लोक के लिए स्थापित लोकतंत्र की सफलता जनगण की जागरूकता पर ही निर्भर है-
आम व्यक्ति को चाहिए, रखनी प्रखर निगाह।
राजनीति करती तभी जनता की परवाह।।
लोकतंत्र बमन कर्तव्य केवल जनगण के ही नहीं शासन और प्रशासन के भी होते हैं। विदग्ध जी शासन-प्रशासन को विमर्श देने का कवि-धर्म निभानेसे भी नहीं चूकते-
शासक-मन में हो दया, नीति-न्याय का ध्यान।
तब होता दायित्व का, जान-मन को कुछ भान।।
शांति-व्यवस्था के लिए जनगण के मन में कानून के प्रति आस्था और उसका पालन करने की भावना होना अनिवार्य है-
बड़े, छोटे ही भले, जिनको प्रिय कानून।
कभी कहीं करते नहीं, नैतिकता का खून।।
नियति और प्रारब्ध को कोई नहीं जान सकता। लोकोक्ति है-
‘जो तोको काँटा बुवै, ताहि बोय तू सूल।
बाको सूल तो सूल है, तेरो है तिरसूल।।
इस सनातन सत्य को विदग्ध जी वर्तमान संदर्भों में अधिक स्पष्टता से कहते हैं-
हानि-लाभ किससे-किसे, कह सकता कब-कौन?
कभी ढिंढोरा हराता, कभी जिताता मौन।।
विदग्ध जी की दृष्टि सफलता और वैभव की चकाचौंध से भ्रमित नहीं होती। वे मनुष्य का मूल्यांकन उसके वैभव से नहीं उसके आचरण के आधार पर करते हैं। उनका शिक्षक उन्हें औचित्य-अनौचित्य पर विचार के प्रति सदा सजग रखता है। वे कहते हैं-
गुणी व्यक्ति का ही सदा, गुणग्राहक संसार।
ऐसे ही चलता रहा, आग-जग घर-परिवार।।
देश के राजनेताओं का कदाचरण उन्हें सालता है। स्वतंत्रता सत्याग्रही पिता का स्वतंत्र देश के संबंध में सपना और आज की सचाई उन्हें सोचने और सच कहने के लिए प्रेरित करती है। वे राजनीति का आकलन कर कहते हैं-
सत्ता-सुख या जेल हैं, राजनीति के छोर।
पहुँचाती है व्यक्ति को, हवा बहे जिस ओर।।
एक जन-दोहा है
‘मनुज बलि नहिं होत है, समय होत बलवान।
भिल्लन लूटीं गोपिका, वहि अर्जुन वहि बान।।’
विदग्ध जी इस दोहे के मर्म से सहमत होकर वर्तमान संदर्भ में इस तरह कहते हैं-
भला-बुरा कुछ भी नहीं, घटना समायाधीन।
हैं दरिद्र गुणवान जन, कभी धनी गुणहीन।।
सामाजिक विसंगतियाँ विदग्ध जी को चिंतित करें यह स्वाभाविक है। आधुनिक जीवन में बढ़ती यांत्रिकता और व्यावसायिकता उन्हें निस्सार लगती है-
मानव-जीवन बन गया, लेन-देन व्यवहार।
भूल गए कर्तव्य सब, याद रहा अधिकार।।
जीवन बना मशीन सा, नीरस सब व्यवहार।
प्रेम भाव दिखता नहीं, ढंका है व्यापार।।
जीवन को सफल बनाने का सूत्र बताते हुए विदग्ध जी कबीरी फक्कड़पने और ‘ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया’ की विरासत अगली पीढ़ी को सौंपते हुए कहते हैं-
पवन मन से उपजता, जीवन में आनंद।
निर्मल मन को ही सदा, मिले सच्चिदानंद।।
अगर शांति से चाहता, जाना भव के पार।
बना सत्य श्रम प्रेम को, जीवन एक आधार।।
विदग्ध जी के दोहे शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हैं। उन्हें व्यंजना या लक्षणा से अधिक अभिधा से प्यार है। वे सौंदर्य की अपेक्षा भावना को अधिक महत्वपूर्ण मानते हैं। उनके दोहों में प्रयुक्त भाषा शुद्ध। सरस, सरल और सहज ग्राह्य है। सफल शिक्षक होने के नाते वे भली-भाँति जानते हैं कि स्वाभाविकता से कही गई बात अधिक प्रभावी और उसका असर अधिक स्थायी होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता दोहानुवाद एक उपलब्धि
छंदराज दोहा के प्रति विदग्ध जी का प्रेम इसी बात से झलकता है कि श्री मद्भगवद्गीता के हिंदी पद्यानुवाद के लिए करोड़ों उपलब्ध छंदों में से उनहोंने दोहा कही चयन किया। गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित गीतापाठ और अनुवाद को प्रामाणिक मानते हुए विदग्ध जी ने उसे दोहान्तरित किया है।
प्रथम श्लोक का दोहान्तरण करते हुए वे लिखते हैं-
धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में, युद्ध हेतु तैयार।
मेरों का पांडवों से, संजय! क्या व्यवहार।।
समन्वय और सहकार को सृष्टि का मूल बताते अध्याय ३ के श्लोक क्र. ११ का अनुवाद पूरी तरह सटीक है-
देवों को संतोष दो, देव तुम्हें दें तृप्ति।
पारस्परिक प्रभाव से, मिले सभी संतुष्टि।।
गेता में वर्णित ईश्वर के रूप का वर्णन अध्य ९ के श्लोक क्र. १६ का दोहनूवाद शब्द-चयन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है-
मैं ही कृति हूँ यज्ञ हूँ, स्वधा मंत्र घृत अग्नि।
औषध भी मैं हवन मैं, प्रबल जान जमदाग्नि।।
त्रिगुणात्मिका प्रकृति में त्रिगुणों के प्रभाव का वर्णन अध्याय १४ के श्लोक क्र. १७ में है। उसे विदग्ध जी बहुत सरलता से बताते हैं-
सत से होता ज्ञान है, रज से लोभ निदान।
तम से मोह प्रमाद है, औ’ बढ़ता अज्ञान।।
दोहाप्रेमी विदग्ध जी के व्यक्तित्व-कृतित्व को दोहा ही सम्मानित करे तो यह सोने में सुहागा होगा। समर्पित हैं कुछ दोहे-
चित्रगुप्त परब्रम्ह का, पाया जिसने इष्ट।
सरस्वती-सुत हो दिया, है अवदान विशिष्ट।।
छोटे के थे लाल पर, किये बड़े ही काम।
नेह नर्मदा में नहा, कभी न चाहा नाम।।
दया बसी मन में रही, कभी न छोड़ा साथ।
आजीवन थामे रहे, विहँस हाथ में हाथ।।
रंजन किया विवेक ने, मिला बुद्धि-सहयोग।
सहयोगी हो कल्पना, सफल करे उद्योग।।
ईशाराधन सुहाया, अनुगुंजन कर नित्य।
किया वतन को नमन नित, तज कर मोह अनित्य।।
अंतर्ध्वनि सुन-गुन सके, मेघदूत के संग।
गीत ने जीता मनस, प्रतिभा साधन रंग।।
रघुवंशम से कर्म की, ली-दी सबको सीख।
मानस के मोती लुटा, भिन्न शेष से दीख।।
स्नेह सलिल सिंचन करे, अग-जग को संजीव।
हो विदग्ध मन शांत-थिर, भव में ज्यों राजीव।।
शत वर्षों पाते रहें, हिंदीसुत तव स्नेह।
जगवाणी हिंदी बने, सकल जगत हो गेह।।

(पुस्तक चर्चा) वतन को नमन : एक पठनीय पुस्तक
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त जी ने लिखा है-
“जिसको न निज गौरव तथा निज देश एक अभिमान है
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है।”
नर्मदांचल के श्रेष्ठ-ज्येष्ठ कवि प्रो. सी.बी. एल. श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ ने देश की नई पीढ़ी को नर-पशु बनने से बचाने के लिए इस कृति का प्रणयन किया है। आदर्श शिक्षक रहे विदग्ध जी ने नेताओं की तरह वक्तव्य देने या तथाकथित समाज सुधारकों की तरह छद्म चिंता विकट करने के स्थान पर बाल, किशोर, तरुण तथा युवा वर्ग के लिए ही नहीं अपितु हर नागरिक में सुप्त राष्ट्रीय राष्ट्र प्रेम की भावधारा को लुप्त होने से बचाकर न केवल व्यक्त अपितु सक्रिय और निर्णायक बनाने के लिए “वतन को नमन” की रचना तथा प्रकाशन किया है। १३० पृष्ठीय इस काव्य कृति में १०८ राष्ट्रीय भावधारापरक काव्य रचनाएँ हैं। वास्तव में ये रचनाएँ मात्र नहीं, राष्ट्रीयता भावधारा के सारस्वत कंठहार में पिरोए गए काव्य पुष्प हैं।
‘वतन को नमन’ विदग्ध जी की राष्ट्रीय चेतना से परिपूर्ण कविताओं-गीतों का संग्रह है। विदग्ध जी शिल्प पर कथ्य को वरीयता देते हुए नई पीढ़ी को जगाने के लिए राष्ट्रीय भावधारा के प्रमुख तत्वों राष्ट्र महिमा, राष्ट्र गौरव, राष्ट्रीय पर्व, राष्ट्रीय जीवन मूल्य, राष्ट्रीय संघर्ष, राष्ट्रीयता की दृष्टि से महत्वपूर्ण महापुरुष, राष्ट्रीय संकट, कर्तव्य बोध, शहीदों को श्रद्धांजलि, राष्ट्र का नवनिर्माण, नयी पीढ़ी के स्वप्न, राष्ट्र की कमजोरियाँ, राष्ट्र भाषा, राष्ट्र ध्वज, राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय सेना, राष्ट्र के शत्रु, रष्ट्रीय सुरक्षा, राष्ट्र की प्रगति, राष्ट्र हेतु नागरिकों का कर्तव्य एवं दायित्व आदि को गीतों में ढालकर पाठक को प्रेरित करने में पूरी तरह सफल हुए हैं। भारत का गौरव गान करते हुए वे कहते हैं-
हिमगिरि शोभित, सागर सेवित, सुखदा, गुणमय, गरिमावाली।
शस्य-श्यामला शांतिदायिनी, परम विशाला वैभवशाली।।
ममतामयी अतुल महिमामय, सरलहृदय मृदु ग्रामवासिनी।
आध्यात्मिक सन्देशवाहिनी, अखिल विश्व मैत्री प्रसारिणी।।
प्रकृत पवन पुण्य पुरातन, सतत नीति-नय-नेह प्रकाशिनि।
सत्य बंधुता समता करुणा, स्वतन्त्रता शुचिता अभिलाषिणी।।
ज्ञानमयी, युवबोधदायिनी, बहुभाषा भाषिणि सन्मानी।
हम सबकी मी भारत माता, सुसंस्कारदायिनी कल्याणी।।
देश के युवाओं का आव्हान करते हुए वे उन्हें युग निर्माता बताते हैं-
हर नए युग के सृजन का भर युवकों ने सम्हाला
तुम्हारे ही ओज ने रच विश्व का इतिहास डाला
प्रगति-पथ का अनवरत निर्माण युवकों ने किया है-
क्रांति में भी, शांति में भी, सदा नवजीवन दिया है
देश, उसकी स्वतंत्रता और देशवासियों के रक्षक सेना के रणबांकुरों के प्रति देश की भावनाएं कवि के माध्यम से अभिव्यक्त हुई हैं-
तुम पे नाज़ देश को, तुम पे हमें गुमान
मेरे वतन के फौजियों जांबाज नौजवान
संस्कारधानी जबलपुर राष्ट्रीय भावधारा के इस सशक्त हस्ताक्षर की काव्य साधना से गौरवान्वित है। हिंदी साहित्य के लब्ध प्रतिष्ठ हस्ताक्षर आचार्य संजीव ‘सलिल’ देश की माटी के गौरवगान करने वाले विदग्ध जी के प्रति अपने मनोभाव इस तरह व्यक्त करते हैं-
हे विदग्ध! है काव्य दिव्य तव सलिल-नर्मदा सा पावन
शब्द-शब्द में अनुगुंजित है देश-प्रेम बादल-सावन
कविकुल का सम्मान तुम्हीं से, तुम हिंदी की आन हो
समय न तुमको बिसरा सकता, देश भक्ति का गान हो
चिर वन्दित तव सृजन साधना, चित्रगुप्त कुल-शान हो
करते हो संजीव युवा को, कायथ-कुल-अभिमान हो।
(प्रो. (डॉ.) साधना वर्मा )

(पुस्तक चर्चा) गांव मेरा देस
(रचनाकार भगवान सिंह )
कुल दस लेख, पृष्ठ संख्या 256 मतलब बहुत विस्तार से देशज, आत्मीय अभिव्यक्ति से अपने गांव के परिवेश पर संस्मरणात्मक लेखो का संग्रह है ” गाव मेरा देस “। शीर्षक में ही देश की जगह देस शब्द का प्रयोग ही बताता है कि अपने गांव से जुड़े ठेठ मनोभाव अंतरंगता से लेखो में हैं। लेखक श्रीभगवान सिंह गांधीवादी दृष्टि के लिये सम्मानित हो चुके हैं। वर्तमान ग्लोबल विलेज के परिदृश्य में उन्होने अपने गांव के बचपन, शिक्षा, लोकाचार, तीज त्यौहार मेले ठेले, संयुक्त परिवार के संस्कारो, गांवो की स्वचालित परम्परागत व्यवस्थाओ का प्रवाहमान शैली में पठनीय वर्णन किया है। पुस्तक आकर्षण पैदा करती है, व हमें अपने गांव की स्मृति दिलाती है। एक तरह से ये निबंध उनकी अपनी जीवनी हैं, पर शैली ऐसी है कि उससे प्रत्येक पाठक कुछ न कुछ बौद्धिक व मानसिक खुराक ले लेता है।
समीक्षक … विवेक रंजन श्रीवास्तव

(पुस्तक चर्चा) पुस्तक .. जंगलराग
(व्ही.आर.रंजन)
कवि .. अशोक शाह
मूल्य .200 रु
प्रकाशक .. शिल्पायन , शाहदरा दिल्ली
मूलतः इंजीनियरिंग की शिक्षा प्राप्त , म. प्र. में प्रशासनिक सेवा में कार्यरत अशोक शाह हृदय से संवेदनशील कवि , अध्येता , आध्यात्म व पुरातत्व के जानकार हैं। वे लघु पत्रिका यावत का संपादन प्रकाशन भी कर रहे हैं। उनकी ७ पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं. पर्यावरण के वर्तमान महत्व को प्रतिपादित करती उनकी छंद बद्ध काव्य अभिव्यक्ति का प्रासंगिक कला चित्रो के संग प्रस्तुतिकरण जंगलराग में है। वृक्ष , जंगल प्रकृति की मौन मुखरता है , जिसे पढ़ना , समझना , संवाद करना युग की जरूरत बन गया है। ये कवितायें उसी यज्ञ में कवि की आहुतियां हैं। परिशिष्ट में ९३ वृक्षो के स्थानीय नाम जिनका कविता में प्रयोग किया गया है उनके अंग्रेजी वानस्पतिक नाम भी दिये गये हैं। कवितायें आयुर्वेदीय ज्ञान भी समेटे हैं , जैसे ” रेशमी तन नदी तट निवास भूरी गुलाबी अर्जुन की छाल
उगता सदा जल स्त्रोत निकट वन में दिखता अलग प्रगट
विपुल औषधि का जीवित संयंत्र रोग हृदय चाप दमा मंत्र ” इसी तरह बीजा , हर्रा , तिन्सा , धामन , कातुल , ढ़ोक , मध्य भारत में पाई जाने वाली विभिन्न वृक्ष वनस्पतियो पर रचनाकार ने कलम चलाई है। तथा सामान्य पाठक का ध्यान प्रकृति के अनमोल भण्डार की ओर आकृष्ट करने का सफल यत्न किया है। 14 चैप्टर्स में संग्रहित काव्य पठनीय लगा।

सतरंगी मन काव्यसंग्रह नहीं वरन समय के साथ कल्पनाओं की उड़ान
(पुस्तक समीक्षा)
कविता एक चिंतन है,जो स्वयं की भावनाओं के चिंतन के साथ शब्दों की अभिव्यक्ति के रूप में सामने आती है। कवियत्री शिल्पा शर्मा ने अपनी रचना “सतरंगी मन” में जिस तरह से बचपन से लेकर जीवन के संपूर्ण सफर को विभिन्न सोच के साथ,काव्य के माध्यम से प्रकाशित किया है। महिला एवं पुरुषों के बीच संबंध बचपन से लेकर युवा, पोडअवस्था, केरियर, दायित्व, परंपराओं,माता पिता और बच्चों के बीच संबध,सोच, समय-समय पर बदलते विचार, जीवन के सुखद और कटु अनुभव की अभिव्यक्ति, सरल और सहज शब्दों में करके, पाठकों को उनके ही जीवन से जोड़ने का जो अभिनव प्रयास किया है। वह प्रशंसनीय है।
कवियत्री की रचना में कल्पना नहीं, बल्कि यथार्थ और सत्य का बोध होता हैं।
शिल्पा शर्मा एक्सप्रेस मीडिया सर्विस से लगभग 20 वर्ष पूर्व जुडी थी। संवेदनशील एवं अपने दायित्वों को सहज, सरल एवं गंभीरता के साथ पूर्ण करने का गुण उनमें हमेशा से था। शब्दों के रूप में उन्होंने जीवन के हर पल को जिस खूबसूरती के साथ सतरंगी काव्य संग्रह में संजोया है, उससे यह कृति अनुपम हो गई है।
(समीक्षक- सनत जैन)

मोहि ब्रज बिसरत नाही

लेखिका- डॉ सुमन चौरे
ग्रामीण परिवेश के छोटे-छोटे लगभग साठ संस्मरणों का संकलन है मोहि ब्रज बिसरत नाही । लेखिका अपनी प्रस्तावना में लिखती है कि गांव में जब विकास प्रारंभ हुआ और पहली बस चली तो गांव की चौपाल पर जो चर्चा हुई उसका विचार यह था कि गांव में इस विकास से धन की वर्षा तो होगी किंतु प्रेम स्नेह और सम्वेदनाओं के स्रोत सूख जाएंगे। आज किंचित वह भय सत्य होता दिख भी रहा है । निमाड़ के आंचलिक परिदृश्य, सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास को छूते हुए यह छोटे-छोटे संस्मरण प्रभावी हैं । मूल्य की दृष्टि से किताब बहुत महंगी है शायद सरकारी खरीद के लिए ही प्रकाशित की गई है ।
लेखिका की भाषा में प्रवाह है उन्होंने निमाड़ की मालवी भाषा के उद्धरण भी जगह जगह दिए हैं। खूंटी पर टंगा बैग ,मुगी चाचा, मधुमालती के मंडवे तले ,अकरम मामा ,दगड़ू भाई ,बाबू काका ,अरदे पर्दे की बैलगाड़ी, गुम होते बाजे वाले , देहरी तो पर्वत भई,, कनस्तर का समीकरण,, जैसे संस्मरण सरल भाषा में एक रेखाचित्र पाठक के मन पर अंकित करने में सफल हुए हैं। ऐसे विषय हैं जो जन लोक से लिये गए हैं , दरअसल लेखिका स्वयं इन सारे वर्णनित विषयों की साक्षी रही हैं , इसलिए वे सहजता से लिख सकी ।
पुस्तक :- मोहि ब्रज बिसरत नाही
मूल्य 700
प्रकाशक :- अयन प्रकाशन महरौली नई दिल्ली
पृष्ठ संख्या 355
प्रस्तुति : विवेक रंजन श्रीवास्तव, जबलपुर

गुरु-वंदना
प्रो. शरद नारायण
गुरु की कर लो वंदना,जिसमें अतुलित ताप !
गुरु की महिमा है विकट,कौन सकेगा माप !!
गुरु सूरज,गुरु चाँद है,गुरु धरती आकाश !!
मेरा हो कल्याण यदि,मिले दया जो काश !!
गुरुवर में तो देव हैं,गुरुवर हरदम साँच !!
गुरुवर का आशीष जो,आ सकती ना आँच !!
गुरु तो बहता नीर है,गुरु है खिली बहार !
सचमुच वह नर धन्य है,जो पाता गुरु-प्यार !!
गुरु के कारण शिष्य को,मिलता है सम्मान !
गुरु से ही तो शिष्य की,बनती है पहचान !!
गुरु बतलाता सत्य को,दिखलाता है राह !
गुरु से ही तो हर कदम,मिले शिष्य को वाह !!
गुरु बिन ना तो ज्ञान है,ना ही है आलोक !
गुरु बिन तो ये ज़िन्दगी,है बस केवल शोक !!
गुरु विवेक औ’ त्याग का,है सचमुच में सार !
गुरु है तो हर हाल में ,हो रोशन संसार !!
गुरु में तुलसी हैं बसे,रहते सदा कबीर !
गुरु के कारण शिष्य की,बदले झट तक़दीर !!
गुरु का वंदन नित्य हो,हो अभिनंदन ख़ूब !
गुरु ब्रम्हा,गुरु विष्णु हैं,हैं पूजा की दूब !!