धर्म -अध्यात्म

धर्म -अध्यात्म 1

रात में बजरंगबली की पूजा इसलिए होती है ज्यादा लाभकारी
हनुमान जी हमेशा ही भगवान श्रीराम की भक्ति में लीन रहते हैं सारा दिन प्रभु की सेवा में लगे रहते हैं। इसलिए ऐसी मान्यता है कि रात के समय जब भगवान श्रीराम विश्राम करते हैं, उस समय हनुमान जी की पूजा की जाए तो वो अपने भक्तों की पुकार अवश्य सुनते हैं।
इसलिए यदि आप हनुमान जी को प्रसन्न करना चाहते हैं तो रात में अवश्य हनुमान जी का पूजन करें। बजरंगबली अवश्य आपकी पुकार सुनेंगे।
कष्ट दूर करें
यदि आपके जीवन में किसी भी तरह की परेशानी या कष्ट हैं तो रात के समय हनुमान चालीसा का पाठ करें। यदि आप पाठ 9 बजे रात शुरू करते हैं तो हर दिन उसी वक्त करें। यानी पाठ करने का समय ना बदलें। अपना आसन भी एक ही रखें उसे भी ना बदलें। आप देखेंगे की 21 दिन लगातार पाठ करने के बाद आपकी समस्या हल होना शुरू हो जाएगी।
यदि बच्चा आपका कहना नहीं मानता है
प्रत्येक मंगलवार तथा शनिवार रात 8 बजे श्री हनुमान चालीसा का पाठ करें, कुछ ही दिन में बच्चे का स्वभाव बदलेगा और आपकी बात मानने लगेगा।
यदि विदेश में सफलता नहीं मिल रही है
यदि आप विदेश में हैं और आपको सफलता नहीं मिल रही है तो हनुमान चालीसा का प्रतिदिन रात 8.30 बजे पाठ करें और कोशिश करें कि 9 दिन में 108 पाठ पूरे हो जाएं। आप देखेंगे आपको सफलता मिलने लगेगी।
इन बातों का रखें ख्याल
हनुमान जी की वो तस्वीर लगायें जिसमें भगवान राम, लक्ष्मण और सीता जी भी हों।
हनुमान जी की पूजा उपासना करते समय साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, आपके पूजा का स्थान साफ होना चाहिए।
हनुमान जी की पूजा के बाद आरती अवश्य करें।
हनुमान जी को बेसन से बनी मिठाई का भोग लगाएं।
पूजा के स्थान पर शांति रखें।

धर्म कभी खतरे में नहीं रहा
हजारों साल से चला आ रहा कुंभ नागाओं से कभी खाली नहीं रहा। उनके पास कभी कोई शिकायत नहीं रही। उनमें कभी कोई डर नहीं रहा, क्योंकि धर्म उनके अंदर उतर चुका है। धर्म जिसके अंदर होगा वह न तो डरेगा और न ही वह कमजोर होगा। धर्म सदविचारों और कार्यों से जीवन जीने का तरीका है।
यही बात हमें भी माननी चाहिए कि जब धर्म हमारे दिलों में होगा तो भला संसार की कौन सी ऐसी शक्ति है जो उसे हमारे दिलों से निकाल ले जाए? वह कौन है जो हथियार के जोर पर हमारा दिल जीत ले जाए? यह जान लीजिए कि धर्म कभी खतरे में रहा ही नहीं।
जो खतरे में है, वह धर्म नहीं बल्कि अधर्म है। धर्म और अधर्म के बीच एक महीन रेखा होती है जिसे नहीं जाना तो पता नहीं कब आप अधर्म के मैदान में खड़े हो जाएं। धर्म पूजा पद्धति, कर्मकांड या दूसरी चीजों से नहीं चलता और न ही बढ़ता है। धर्म तो चरित्र से चलता है। उसके बढ़ने से बढ़ता है और घटने से घटता है। जब कोई कहे कि इकट्ठे हो जाओ, धर्म खतरे में है तो फौरन रुक जाओ।
कहने वाले का चरित्र देखो और अपने अंदर मौजूद धर्म देखो। जब तक तुम्हारे अंदर धर्म जिंदा है उसे कोई खतरा नहीं है। जब तक तुम धर्म के मर्म को समझ रहे हो तब तक यह हरगिज खतरे में नहीं है। जैसे ही तुम किसी दूसरे के कहने पर अपने दिल के अंदर बिना झांके हाथ उठाकर कदम बढ़ाते हो वैसे ही धर्म खतरे में आ जाता है। यह भी सच मान लो, तब भी केवल तुम्हारे हृदय का धर्म खतरे में आता है, सबका नहीं। अपने दिल में धर्म लाओ दूसरे के दिल में यह लाने निकलोगे तो गलती कर जाओगे।

पारद शिवलिंग की करें स्थापना
भगवान शिव का महीना सावन शुरू होने वाला है। शास्त्रों और पुराणों में कहा गया है कि सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित है। यही कारण है कि शिवभक्तों में सावन को लेकर काफी उत्साह देखने को मिलता है। इस सावन आप भगवान शिव प्रसन्न करना चाहते हैं तो आप अन्य धातु के लिंगों की अपेक्षा पारद शिवलिंग की पूजा एवं स्थापना करें यह अधिक सिद्धिदायक होती है। सावन में इस शिवलिंग की पूजा करने से भगवान सभी इच्छाएं पूरी करते हैं।
स्वयं सिद्ध धातु है पारद
प्राचीन ऋषि-महषिर्यों के अनुसार पारद स्वयं सिद्ध धातु है। इसका वर्णन चरक संहिता आदि महत्वपूर्ण ग्रन्थों में मिलता है। शिवपुराण में पारद को शिव का वीर्य कहा गया है। वीर्य बीज है, जो संपूर्ण जीवों की उत्पत्ति का कारक है। इसी के माध्यम से भौतिक सृष्टि का विस्तार होता है।
सभी इच्छाएं होती हैं पूरी
पारद शिवलिंग के लिए किसी प्राण प्रतिष्ठा की आवश्यकता नहीं है। इसके दर्शन मात्र से आपकी सभी इच्छा पूरी हो जाती हैं। इनकी पूजा करने से आपको विशेषकर, स्वास्थ्य और धन-यश की इच्छा की पूर्ति होती है। आपको कोई भी रोग क्यों ना हो, एकबार सावन में इस शिवलिंग की पूजा करने से आपको हमेशा स्वस्थ्य रहेंगे।
सभी तंत्रों को काटता है शिवलिंग
पारद का शिव से साक्षात संबंध होने से इसका अलग ही माहात्म्य है। सावन में इस शिवलिंग की पूजा करने से यह सभी प्रकार के तंत्र को काट देता है। बताया जाता है जो भी भक्त पारद शिवलिंग की पूजा करते हैं, उसकी रक्षा महाकाल और महाकाली करते हैं।
परिवार में रहती है सुख-शांति
पारद शिवलिंग के सावन में श्रद्धापूर्वक दर्शन मात्र से ही पुण्यफल की प्राप्ति होती है। साथ ही परिवार में सुख-शांति बनी रहती है। जीवन में कभी किसी चीज की कमी नहीं रहती है और ना ही किसी चीज की चिंता होती है। इस शिवलिंग के स्पर्श मात्र से दैवीय शक्तियां व्यक्ति के शरीर में प्रवेश कर जाती हैं।
इस तरह करें सावन में पूजा
सावन में पारद शिवलिंग के सीधे हाथ की तरह दीपक जला कर रखें और हाथ में थोड़ा जल और फूल लेकर लेकर महामृत्युंजय मंत्र का तीन बार जप करें और भगवान को अर्पित कर दें। नित्य इसकी पूजा-अर्चना करने से अच्छी आयु व आरोग्य की प्राप्ति होती है। पारद शिवलिंग की पूजा करने से अन्य शिवलिंगों की अपेक्षा हजार गुना अधिक फल मिलता है।
शिवलिंग में है संपूर्ण ज्ञान
पारद शिवलिंग की पूजा करने से धन से संबंधित, परिवार से संबंधित, स्वास्थ्य से संबंधित और आपके जीवन से जुड़ी हुई हर छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी समस्या का अंत होता है। पुराणों में इस शिवलिंग के बारे में बताया गया है कि इसमें ब्रह्माण्ड का संपूर्ण ज्ञान है।

शिव विनाशक होने के साथ जीवनदाता भी
शिवपुराण में वर्णित एक कहानी में बताया गया है कि शिव ने चंद्रमा के प्राणों की रक्षा करके उन्हें अपनी जटाओं में विराजित किया था। निराकार भगवान शिव को शक्ति पुंज के रूप में युगों-युगों से संसार में विद्यमान माने जाते हैं। कहते हैं कि जन्म और मृत्यु के बंधनों से शिव मुक्त हैं लेकिन शिव महापुराण में ऐसी कई कहानियां मिलती हैं, जिनसे पता चलता है कि शिव विनाशक होने के साथ जीवनदाता भी है। ऐसी ही एक कहानी मिलती है शिवपुराण में जब शिव ने चंद्रमा के प्राणों की रक्षा करके उन्हें अपनी जटाओं में विराजित किया था।
चंद्रमा को मस्‍तक पर धारण करने का कारण
शिवपुराण में वर्णित एक पौराणिक कथा के अनुसार जब समुद्र मंथन किया गया था, तो उसमें से विष निकला था और पूरी सृष्टि की रक्षा के लिए स्वयं भगवान शिव ने समुद्र मंथन से निकले उस विष का पान किया था। विष पीने के बाद उनका शरीर विष के प्रभाव के कारण अत्यधिक गर्म होन लगा। ये देखकर चंद्रमा ने विन्रम स्वर में प्रार्थना की, कि उन्हें माथे पर धारण करके अपने शरीर को शीतलता दें, ताकि विष का प्रभाव कुछ कम हो सके। पहले तो शिव ने चंद्रमा के इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया, क्योंकि चंद्रमा श्वेत और शीतल होने के कारण इस विष की असहनीय तीव्रता को सहन नहीं कर पाते, लेकिन अन्य देवतागणों के निवेदन के बाद शिव ने निवेदन स्वीकार कर लिया, और उन्‍होंने चंद्रमा को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। बस तभी से चंद्रमा भगवान शिव के मस्तक पर विराजमान होकर पूरी सृष्टि को अपनी शीतलता प्रदान कर रहे हैं। माना जाता है कि विष की तीव्रता के कारण श्वेत रंग में नीला रंग घुल गया, जिस कारण से पूर्णिमा की रात चंद्रमा का रंग थोड़ा-थोड़ा नीला भी दिखता है।

मध्यप्रदेश में शक्ति साधना
हर्षवर्धन पाठक
पुरातात्विक महत्व के स्थलों पर खनन कार्य पिछली एक शताब्दी से चल रहा महत्वपूर्ण शोध है। इस खनन-प्रक्रिया के अनेक रोचक परिणाम सामने आये हैं। इन परिणामों में से एक यह अनोखी साम्यता है जो मातृदेवी या नारीशक्ति की पूजा की परम्परा से संबंधित है। जितनी प्राचीन मानव सभ्यतायें हैं, वे सामान्यत: बड़ी नदियों के तट पर विकसित हुई। इन सभी सभ्यताओं में आदिशक्ति या मातृदेवी की उपासना की समानता पाई गई है। प्रागैतिहासिक युग की जो प्राचीन मूर्तियां या शिल्प मिले है, उनमें मातृदेवी की प्रतिमायें भी है। पुरातात्विक शोध यह बताते है कि भारत की सिन्धु घाटी सभ्यता हो या ग्रीस, मिस्र, सीरिया, मेसोपोटेमिया आदि की प्राचीन सभ्यतायें, इन सभी में किसी न किसी रूप में नारी शक्ति की पूजा प्रचलित थी। सिन्धु घाटी सभ्यता के पश्चिमोत्तर क्षेत्र जो पाकिस्तान में आता है, उसमे मिली वह देवी प्रतिमा उल्लेखनीय है जिसमें पीपल जैसे किसी वृक्ष की दो शाखाओं के मध्य मातृदेवी खड़ी हैं, तथा उनके सामने एक उपासक बैठा है तथा भेड़ जैसा कोई जानवर पास में बंधा है जिसकी शायद बलि दी जाना है। प्रागैतिहासिक साक्ष्य यह बताते है कि प्राचीन नदी घाटी सभ्यताओं की यह अद्भुत समानता है कि वहाँ देवी की उपासना होती थी।
भारत में शक्ति पूजा की परम्परा का एक अन्य आधार है शक्ति पीठों की स्थापना। प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों में 51 श्षक्तिपीठों का उल्लेख मिलता है । वैसे श्रीमद देवी भागवत जैसे कुछ ग्रन्थ उनकी संख्या 108 बताते है। परंपरागत रूप से 51 शक्तिपीठ मान्य हैं इनमें से आठ शक्तिपीठ भारत के बाहर स्थित बताये जाते हैं जो श्रीलंका, नेपाल, बलूचिस्तान (पाकिस्तान) तथा बंगलादेश में है। शेष 43 शक्तिपीठ भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्थित है। इनमें से चार शक्तिपीठ मध्यप्रदेश में भी अवस्थित कहे जाते है।
इन शक्तिपीठों की स्थापना की अद्भुत कहानी है। कहा जाता है कि भगवान शिव की पत्नी सती प्रजापिता दक्ष की पुत्री थीं। दक्ष ने एक बार यज्ञ का आयोजन कियां इसमें यद्यपि शिव को आमंत्रित नहीं किया गया था परंतु शिवपत्नी सती स्वेच्छा से इस यज्ञ में पहुंच गई। शायद इसलिये गईं क्योंकि उनके पिता द्वारा आयोजित यज्ञ था। वहां पहुंचकर उन्होंने देखा कि यज्ञ में उनके पति की अवहेलना की गई हैं । रोष तथा संताप में वे यज्ञकुण्ड में कूद गई। भगवान शिव को जब इसका पता चला तो वे आवेश में आ गये और उनके गणों ने यज्ञ स्थल नष्ट कर दिया। वे स्वयं सती का श्षव लेकर आवेश में तांडव, नृत्य करते हुए सृष्टि में घूमने लगे। क्रोधावेश में सती के शव का शास्त्रोक्त अंतिम संस्कार करने जब वे तत्पर नहीं हुए तब भगवान विष्णु ने देवताओं की प्रार्थना पर अपना चक्र चलाकर सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर दिये ताकि शिव को सती के शव से मुक्ति मिले और वे अपने भावावेश से बाहर निकलें। चक्र से टूट कर सती के शरीर के अंग जहां जहाँ गिरे, वहां शक्तिपीठ स्थापित हो गये।
यह एक अद्भुत संयोग भी है कि संस्कृत वर्णमाला में अ से लेकर क्ष तक 51 वर्ण होते है। इसे अक्षमाला कहा जाता हैं। देवी की 51 शक्तिपीठों का भी इस अक्षमाला से संबंध है। इन 51 शक्तिपीठों का अक्षमाला के अनुसार वर्णन किया जाता है तथा तदनुसार देह के 51 भागों में वर्ण के अनुसार न्यास – आराधना भी की जाती है। मानव शरीर में भी इन 51 पीठों की स्थिति बताई जाती है। लोक मान्यताओं, धर्मग्रंथों के वर्णन तथा जनश्रुतियों के अनुसार सती के देह का उर्ध्व ओष्ठ, दक्षिण स्तन, कुहनी, तथा दक्षिणी नितम्ब मध्यप्रदेश के उज्जैन, मैहर, अमरकंटक में गिरे तथा इस कारण इन स्थानों पर शक्तिपीठ बने है। इसके अलावा उनके देह में धारण किये गये वस्त्रालंकार जहां जहां गिरे वहां-वहां उपपीठों की स्थापना हुई है। वैसे एक अन्य कथा यह भी है कि शिव के तांडव के कारण उत्पन्न ताप के फलस्वरूप सती का शरीर गलकर गिरने लगा था। और जहां जहां उनके शरीर के अंग गिरे वहां वहां शक्तिपीठ स्थापित हुई। चूंकि शिव नृत्यमुद्रा में अत्यधिक गति में थे अत: सती के शरीर के अंग अलग-अलग स्थानों पर गिरे।
शक्ति उपासना की एक अन्य विशिष्ट शैली है, दस महाविद्यालयों के रूप में दुर्गा-उपासना । ये दस महाविद्याायें हैं- काली, तारा, शोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला। मध्यप्रदेश के दतिया में देवी बगलामुखी की विख्यात सिद्धपीठ है। देवी दुर्गा का एक अन्य रूप त्रिपुर सुंदरी का हैं। शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती के प्रोत्साहन से मध्यप्रदेश में त्रिपुरसुंदरी के अनेक भव्य पूजा स्थलों की स्थापना भी हुई है। वैसे यह भी लोकमान्यता है कि जबलपुर के निकट त्रिपुरी, में त्रिपुरसुंदरी की प्राचीन काल से पूजा होती रही है। त्रिपुरसुंदरी को दस महाविद्याओं में से एक शोडषी का रूप माना जाता है।
दुर्गा पूजा की शाक्त परम्परा में तांत्रिक आराधना का भी महत्व रहा हैं यह कहा जाता है कि नर्मदा तट पर स्थित संग्राम सागर तथा बाजना मठ तांत्रिक विद्या के केन्द्र रहे हैं। भेड़ाघाट स्थित चौसठयोगिनी का मंदिर भी तांत्रिक पूजा का एक प्राचीन उपासना स्थल कहा गया हैं । यह उल्लेखनीय है कि देवी दुर्गा की पूजा के समय षोड़ष मातृकाओं का पूजन भी होता है। चौसठ योगिनी का सम्बंध भी मातृदेवियों से जोड़ा जाता है । खजुराहों के कुछ मंदिरों में भी शक्तिपूजा होती थी।
मध्यप्रदेश में शक्तिपूजा की परम्परा प्राचीन काल से रही है। इसका प्रमाण है प्रदेश में स्थापित शक्तिपीठ तथा महाविद्यापीठ । मैहर, उज्जैन तथा अमरकंटक में बने ये शक्तिपीठ इस लोकविश्वास की पुष्टि करते हैं कि सती के शरीर के अंग वहां टूट कर गिरे थे । उज्जैन में देवी हरसिद्धि का मंदिर है। इस शक्तिपीठ में सम्राट विक्रमादित्य ने भी आराधना की थी। मैहर में स्थित शारदा मंदिर भी शक्ति आराधना का प्रख्यात स्थल है। इस मंदिर की लोक मान्यता यह है कि लोक नायक आल्हा-ऊदल भी यहां पूजा करते थे। संगीतसाधक स्व. अलाउद्दीन खान भी यहां आराधना किया करते थे। अमरकंटक की ख्याति नर्मदा के उद्गम स्थल के रूप में तो है ही, यह कहा जाता है कि सती का शरीर का एक अंग तथा कंचुकी का पतन यहां हुआ था। इस स्थल को नर्मदापीठ भी कहा जाता है।
इन शक्तिपीठों के अतिरिक्त मध्यप्रदेश में देवीदुर्गा की महाविद्याओं के पूजा स्थलों में दतिया की पीताम्बरापीठ, श्रीधाम तथा त्रिपुरी में स्थित त्रिपुरसुंदरी मंदिर, आदि उल्लेखनीय है। दतिया की पीताम्बरा पीठ का तांत्रिक पूजा में भी विशेष महत्व है। इसे सिद्धपीठ की मान्यता प्राप्त है। इस प्रकार मध्यप्रदेश में महाविद्याओं की उपासना भी प्राचीन काल से होने की पुष्टि होती है।
इन शक्तिपीठों तथा सिद्धपीठों के अतिरिक्त भी प्रदेश में स्थान-स्थान पर शक्ति मंदिर स्थापित है। कुछ मंदिर तो अन्यंत प्राचीनकाल से बने हैं तो कुछ का नवनिर्माण तो वर्तमान में हुआ है लेकिन वहां पर शक्तिपूजा की पाचीन परम्परा यह संकेत करती है कि पहले भी वहां पर देवी मंदिर रहे है। वैसे भी शिव-शक्ति की पूजा की प्रथा रही है अर्थात जहां पर शिवमंदिर है, वहां दुर्गा पूजा होती रही है और जहां दुर्गा मंदिर है, वहां शिव की आराधना भी होती है। अमरकंटक तथा उज्जैन इसके स्पष्ट प्रमाण है।
मध्यप्रदेश में पार्वती नदी भी है जिसके तट पर सीहोर एवं अन्य स्थलों पर दुर्गा मंदिर बने है, तो उनके पुत्र गणेश के भी ऐतिहासिक मंदिर है। नर्मदा को भगवान शिव के पसीने से उत्पन्न होने के कारण शिवपुत्री भी कहा जाता है । संयोग से नर्मदा तथा देवी दुर्गा को नारी शक्ति का प्रतीक मानकर पूजा जाता है। अत: यह स्वाभाविक भी है कि अमरकंटक को शक्ति की नर्मदा पीठ के रूप में धार्मिक तथा लोक मान्यता है। उज्जैन में महाकालेश्वर के ज्योर्तिलिंग के पास हरसिद्धि देवी की शक्तिपीठ को कवच मंत्रों का सिद्धि स्थल कहा जाता हैं । मैहर की मान्यता सिद्ध पीठ के रूप में सम्पूर्ण भारतवर्ष में फैली हुई है तो दतिया की पीताम्बरा पीठ को बगलामुखी महाविद्या का प्राचीन साधना स्थल कहा जाता है।
प्रदेश में नवरात्रि मेलों की समृद्ध परम्परा है। देवी दुर्गा की पूजा जनसामान्य दो नवरात्रियों में श्रद्धा के साथ करता है। नववर्ष के प्रारंभ में चैत्र माह में वासंतिक नवरात्रि तथा वर्षा की समाप्ति पर क्वांर माह ( अश्विन माह) में शरद नवरात्रि पर नौ-नौ दिन तक दुर्गा-पूजा प्राचीन काल से होती आ रही है। इस दौरान नवरात्रि मेलों का आयोजन होता है। शारदीय नवरात्रि के समापन पर दशहरा मेला भी भरता है तथा प्रचलित लोक मान्यता के अनुसार देवी दुर्गा की मिट्टी से बनी प्रतिमाओं का जलाशयों या नदियों में विसर्जन होता है। यों तो प्रदेश में स्थान -स्थान पर नवरात्रि तथा दशहरा मेले भरते है लेकिन कुछ स्थान विशालता तथा अपार जन आकर्शण के कारण अधिक दर्षनीय हो जाते हैं।
जगदम्बा दुर्गा के अन्य प्राचीन मंदिरों में तुलजा भवानी का मंदिर देवास, गढ़कालिका माता उज्जैन, गजानन माता टीकमगढ़, महामाई माता सिरोंज, हरसिद्धि मंदिर बैरसिया, बीस भुजादेवी मंदिर तरावली (बिलखिरिया) भोपाल, बृजेश्वरी माता मंदिर (जालपा देवी) राजगढ़ आदि का नाम उल्लेखनीय है । यह मंदिर लोक भक्ति के केन्द्र हैं वहां उनका पुरातात्विक महत्व भी है। इन मंदिरों के साथ अनेक ऐतिहासिक गाथाएँ तथा लोक कथाएँ जुड़ी हैं।
देवास के प्रसिद्ध चामुण्डा माता के मंदिर के संबंध में यह जनश्रुति है कि उज्जैन के राजा भृतहरि ने यहाँ कठिन तपस्या की थी। उनकी तपस्या के दौरान जब नरकासुर राक्षस ने विध्न डाला तब स्वयं चामुण्डा देवी ने प्रकट होकर उसका वध किया था। यह नाथ सम्प्रदाय का भी साधना स्थल रहा है। राजगढ़ जिले में बृजेश्वरी माता (जालपा देवी) का प्राचीन मंदिर है जिसका बाद में जीर्णोद्धार हुआ था। टीकमगढ़ जिले में गढ़कुण्डार के किले पर गजानन माता का मंदिर भी लगभग 900 साल पुराना कहा जाता है। चित्रकूट को भी शक्ति उपासकों का एक वर्ग शक्तिपीठ मानता है।
इंदौर में दशहरा मैदान तथा विजासनी टेकरी, देवास में चामुण्डा माता टेकरी, उज्जैन में हरसिद्धि, बड़नगर, शाजापुर, शयामनगर (मंदसौर) के नवरात्रि मेले, भादवा माता मेला, नीमच, खैरमाई मंदिर, जबलपुर, बिरसिंहपुर, पाली (उमरिया), सलकनपुर में विजयासन देवी, भाण्डेर में रामगढ़ का देवी मंदिर, करोली वाली माता मंदिर, बजरंग गढ़ (गुना) का बीस भुजा देवी मंदिर, भिण्ड, बड़ोखर मुरैना, कैलारस, रानगिर रहली (सागर), दमोह में बड़ी देवी मंदिर, बल्देवगढ़, छतरपुर, रानीतालाब रीवा, शारदा देवी जबलपुर, झिरिया (नरसिंहपुर), चिचौली, जागेश्वरी देवी चंदेरी (गुना) चण्डीदेवी (घोघरा) सीधी, बिलखिरिया (भोपाल) आदि में नवरात्रि और दशहरा के अवसर भरने वाले मेले शक्ति उपासना में लोक आस्था के ज्वलंत प्रमाण है। अनेक देवी मंदिरों के संबंध में यह कहा जाता है कि वहाँ देवी की मुख मुद्रा सुबह बालिका की, मध्यान्ह में युवा शक्ति की और अपरान्ह में प्रौढ़ा की हो जाती है। शहडोल के पास एक देवी मंदिर इस संबंध में उल्लेखनीय है।
देवास में तुलजा भवानी का मंदिर भी है। वे सम्राट शिवाजी की आराध्या देवी है। तुलजा भवानी को तुरजा भवानी का अपभ्रंश कहा जाता है। तुरजा भवानी का अर्थ तुरंत प्रसन्न होने वाली भवानी से है। अनेक स्थानों पर शीतला माता के मंदिर बने हैं, जहाँ रोगोपचार के लिए लोग पहुंचते हैं। कई वनांचलों में वनखण्डी देवी की पूजा का विधान है। वास्तव में अनेक रूपों और अनेक विधियों में शक्ति की पूजा की जाती है। इन सभी स्थानों का नामोउल्लेख किया जाना संभव नहीं है । लेकिन प्रदेश में शताधिक स्थानों पर नवरात्रि मेलों का आयोजन शक्तिपूजा की अखण्ड परम्परा का द्योतक है।
भक्तिभाव से इन सभी आराधना स्थलों पर लोक यही प्रार्थना करते हैं –
-सर्व स्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्यास्त्राहि नो देवी, दुर्गें देवी नमस्तुते।

दुर्गा के नौ रुपों में प्रथम शैलपुत्री
गोविंद चन्दोरिया
देवी दुर्गा के नौ रुपों में प्रथम शैलपुत्री है। नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा का नाम शैलपुत्री इसलिए पड़ा क्योंकि पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न हुईं। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना होती है। नवरात्र के प्रथम दिन की उपासना में योगी अपने मन को ‘मूलाधार’ चक्र में स्थित करते हैं। यहीं से उनकी योग साधना का प्रारंभ होता है। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है, यथा- एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया, जिसमें उन्होंने सभी देवताओं को अपना-अपना यज्ञ-भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया। इस यज्ञ में शंकरजी को उन्होंने निमंत्रित नहीं किया। सती ने जब सुना कि उनके पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं, तब वहाँ जाने के लिए उनका मन व्याकुल होने लगा। अपनी इच्छा उन्होंने शंकरजी को बताई। समस्त बातों पर विचार करने के बाद उन्होंने कहा कि प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं। अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया, किन्तु हमें नहीं बुलाया। कोई सूचना भी नहीं दी। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहाँ जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।’ शंकरजी के उपदेश का सती पर कोई असर नहीं हुआ और अन्तत: भगवान शंकर ने उन्हें वहाँ जाने की अनुमति दे दी। सती ने पिता के घर पहुँचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर सत्कार तो दूर प्रेम से भी बातचीत नहीं कर रहा है। सभी लोग उनसे मुँह फेरे हुए हैं। केवल उनकी माता ने स्नेह से उन्हें गले लगाया। बहनों ने भी व्यंग्यवाण और उपहास वाली ही बातें कीं। परिजनों के इस व्यवहार से उनके मन को बहुत क्लेश पहुँचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहाँ चतुर्दिक भगवान शंकरजी के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है। दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का हृदय क्षोभ, ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो गया। उन्होंने सोचा भगवान शंकरजी की बात न मान, यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है। वे अपने स्वामी भगवान शंकर के इस अपमान को सह न सकीं। उन्होंने अपने उस रूप को तत्क्षण वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया। वज्रपात के समान इस दारुण-दुःखद घटना को सुनकर शंकरजी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इसीलिए वे ‘शैलपुत्री’ नाम से पहचानी गईं। पार्वती, हैमवती भी उन्हीं के नाम हैं।

नववर्ष पर पूजा-अर्चना का महत्व
(नवसंवत्सर एवं चैत्र शुक्ल प्रतिपदा पर विशेष)
डॉ ज्योति पटेल
यह तो सभी जानते ही हैं कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नवसंवत्सर का आरंभ होता है। इस तिथि से पितामह ब्रह्मा द्वारा सृष्टि के निर्माण का कार्य प्रारंभ किया गया। इसलिए धार्मिक शास्त्रों में इस तिथि को अत्यंत पवित्र माना गया है। ऐसे में यह जरुरी हो जाता है कि हम गुड़ीपड़वा और नववर्ष पर पूजा-अर्चना की विधि जानें और उसका पालन करते हुए काज करें। शास्त्रानुसार इस दिन प्रातः नित्य कर्म पूर्ण करने के बाद तेल का उबटन लगाकर स्नान आदि से शुद्ध एवं पवित्र होकर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल लेकर देश काल के उच्चारण करना चाहिए। ऐसा करने से सुख समृद्धि प्राप्त होती है। इसके साथ ही संकल्प के साथ नई बनी हुई चौरस चौकी या बालू की वेदी पर स्वच्छ श्वेतवस्त्र बिछाएं और उस पर हल्दी या केसर से रंगे अक्षत से अष्टदल कमल बनाएं। अब उसमें ब्रह्माजी की सुवर्णमूर्ति स्थापित करें। वहीं गणेशाम्बिका पूजन के पश्चात्‌ ‘ॐ ब्रह्मणे नमः’ मंत्र से ब्रह्माजी का आवाहनादि षोडशोपचार पूजन करना उचित होता है। पूजन के अनन्तर विघ्नों के नाश और वर्ष के कल्याण कारक तथा शुभ होने के लिए ब्रह्माजी से विनम्र प्रार्थना की जाती है, यथा- ‘भगवंस्त्वत्प्रसादेन वर्ष क्षेममिहास्तु में। संवत्सरोपसर्गा मे विलयं यान्त्वशेषतः।’ पूज हो जाने के उपरांत विविध प्रकार के उत्तम और सात्विक पदार्थों से ब्राह्माणों को भोजन कराने के बाद ही स्वयं भोजन करना चाहिए। इसी दिवस पंचांग श्रवण किया जाता है। नव पचांग से उस वर्ष के राजा, मंत्री, सेनाध्यक्ष आदि का तथा वर्ष का फल श्रवण करना चाहिए। सामर्थ्यान सार पचांग दान करना चाहिए तथा प्याऊ की स्थापना करनी चाहिए। इसके साथ ही इस दिन नया वस्त्र धारण करना चाहिए तथा घर को ध्वज, पताका, बंधनवार आदि से सजाना चाहिए। इससे मन वांक्षित फल प्राप्त होता है।
गुड़ी पड़वा
गुड़ी पड़वा के दिन निम्ब के कोमल पत्तों, पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिस्री और अजवाइन डालकर उसका सेवन करना चाहिए। इससे रुधिर विकार नहीं होता और रोगों का नाश भी होता है। इस दिन नवरात्रि के लिए घटस्थापना और तिलक व्रत करने की भी परंपरा है। इस व्रत में यथासंभव नदी, सरोवर अथवा घर पर स्नान करके संवत्सर की मूर्ति बनाकर उसका ‘चैत्राय नमः’, ‘वसन्ताय नमः’ आदि नाम मंत्रों का जाप करते हुए पूजा-अर्चना की जानी चाहिए। विद्वानों तथा कलश स्थापना कर शक्ति आराधना का क्रम प्रारंभ कर नवमी को व्रत का पारायण कर शुभ कामनाओं का फल प्राप्ति हेतु मां जगदम्बा से प्रार्थना करनी चाहिए। एक मान्यतानुसार प्रथम सत्ययुग का प्रारंभ भी इसी तिथि से हुआ इसलिए इसका विशेष महत्व भी है। ऐतिहासिक तौर पर इसी दिन सम्राट चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने शकां पर विजय प्राप्त की और उसे चिरस्थायी बनाने के लिए विक्रम संवत का प्रारंभ किया। इस प्रकार यह ऐतिहासिक महत्व का दिन भी बन गया।

चैत्र नवरात्र अर्थात् दुर्गा के नौ स्वरुपों का पूजन
दशरथ मौरे
हिन्दू पंचांग के मुताबिक प्रतिवर्ष दो बार नवरात्रि का त्योहार मनाया जाता है। चैत्र मास में आने वाली नवरात्रि को चैत्र नवरात्र और शरद ऋतु में आने वाली नवरात्रि को शारदीय नवरात्र के नाम से पहचाना जाता है। खास बात यह है कि दोनों ही नवरात्रि में दुर्गा के नौ स्वरूपों का पूजन किया जाता है। इस बार चैत्र नवरात्रि की तिथियां इस प्रकार हैं। यथा- नवरात्रि का पहला दिन 18 मार्च को है। पहले दिन प्रतिपदा, घटस्थापना रविवार को होगा, जिसमें मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है। इसी प्रकार
नवरात्रि के दूसरे दिन, द्वितीया 19 मार्च सोमवार को मां ब्रह्मचारिणी की पूजा होती है। नवरात्रि के तीसरे दिन यानी तृतीया 20 मार्च मंगलवार को मां चन्द्रघंटा की पूजा। नवरात्रि के चौथे दिन, चतुर्थी 21 मार्च बुधवार को मां कूष्मांडा की पूजा। नवरात्रि के पांचवें दिन, पंचमी 22 मार्च गुरुवार को मां स्कंदमाता की पूजा। नवरात्रि छठवें दिन, षष्ठी 23 मार्च शुक्रवार को मां कात्यायनी की पूजा। नवरात्रि के सातवें दिन, सप्तमी 24 मार्च शनिवार को मां कालरात्रि की पूजा। नवरात्रि आठवें दिन, अष्टमी 25 मार्च रविवार को मां महागौरी की पूजा होती है, चूंकि इस बार नवरात्र आठ दिन का ही है अत: नवरात्रि के आठवें दिन ही नवमी यानी रामनवमी 25 मार्च रविवार को ही मां सिद्धिदात्री की पूजा की जाएगी और नवरात्रि के नौंवे दिन दशमी, नवरात्रि पारणा, 26 मार्च सोमवार को मनाई जाएगी। इस प्रकार सामान्यतौर पर नवरात्रि के नौ दिनों तक देवी दुर्गा की पूजा-आराधना का विधान है। नवदुर्गा के इन बीज मंत्रों की प्रतिदिन की देवी के दिनों के अनुसार मंत्रों का जाप करने से मनोरथ सिद्धि होती है। देवियों के दिनों के आधार पर नौ दैवियों की पूजा के बीज मंत्र इस प्रकार है, यथा- शैलपुत्री : ह्रीं शिवायै नम:। ब्रह्मचारिणी : ह्रीं श्री अम्बिकायै नम:। चन्द्रघण्टा : ऐं श्रीं शक्तयै नम:। कुष्मांडा: ऐं ह्री देव्यै नम:। स्कंदमाता : ह्रीं क्लीं स्वमिन्यै नम:। कात्यायनी : क्लीं श्री त्रिनेत्रायै नम:। कालरात्रि : क्लीं ऐं श्री कालिकायै नम:। महागौरी : श्री क्लीं ह्रीं वरदायै नम:। सिद्धिदात्री : ह्रीं क्लीं ऐं सिद्धये नम:। इनके मंत्रों से मनवांछित फल प्राप्त किए जा सकते हैं।

दीपक को न रखें जमीन पर
जगत में सभी लोग धन और वैभव चाहते हैं और इसके लिए जी जान से प्रयास करते हैं। उनके हर प्रयास के पीछे असली लक्ष्य सुख शान्ति और अपने परिवार की खुशहाली और तरक्की होती है पर लेकिन कई बार आपने देखा होगा की सब प्रयास करने के बाद हम धन सम्पदा तो कमा लेते है पर घर की शान्ति और अमन बिगड़ जाता है। ऐसी क्या गलतियां हैं जो भूलवश हम करते रहते है और जिनके कारण हमारे सुखी जीवन पर ग्रहण लगा रहता है।
दीपक हमारे घर में प्रतिदिन जलाया जाता है। दीपक का प्रयोग हम भगवान् की पूजा के लिए करते है। कभी गलती से भी दीपक को ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए।
शिवलिंग की पूजा हम प्रतिदिन करते है ,पर क्या आप जानते है कभी शिवलिंग ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए। कई लोग मंदिर साफ़ करते समय कई बार शिवलिंग ज़मीन पर रखते है। ऐसा कभी न करे। शालिग्राम की पूजा तो सभी करते है। पर ज्योतिष एक बात हमेशा ध्यान में रखे कि कभी भी शालिग्राम को ज़मीन पर न रखे। इससे आप के घर कि आर्थिक स्थिति ख़राब हो सकती है।जनेऊ को बहुत पवित्र माना गया है। इसलिए इसे कभी ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए। न ही फेकना चाहिए। अगर आप का जनेऊ ख़राब है तो उसे पेड़ की टहनी से बाँध दे या पेड़ की जड़ में डाल दे। शंख का प्रयोग हर रोज पूजा पाठ में किया जाता है। इसलिए कभी भी शंख को ज़मीन पर नहीं रखना चाहिए। शंख बजाने के बाद हमेशा उसे धोकर रखना चाहिए। शास्त्रों के अनुसार भोजन की थाली को भी कभी जमीन पर नहीं रखना चाहिए ऐसा करना भी दुर्भाग्य की वजह बन जाता है।

फाल्गुन का धार्मिक महत्व
फाल्गुन का महीना हिन्दू पंचांग का अंतिम महीना है। इस महीने की पूर्णिमा को फाल्गुनी नक्षत्र होने के कारण इस महीने का नाम फाल्गुन है। इस महीने को आनंद और उल्लास का महीना कहा जाता है। इस महीने से धीरे धीरे गरमी की शुरुआत होती है, और सर्दी कम होने लगती है। बसंत का प्रभाव होने से इस महीने में प्रेम और रिश्तों में बेहतरी आती जाती है। इस महीने से खान पान और जीवनचर्या में जरूर बदलाव करना चाहिए। मन की चंचलता को नियंत्रित करने के प्रयास करने चाहिए।
फाल्गुन माह के व्रत और त्यौहार इस प्रकार हैं।
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी को माँ लक्ष्मी और माँ सीता की पूजा का विधान है।
फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को भगवान् शिव की उपासना का महापर्व शिवरात्री भी मनाई जाती है।
फाल्गुन में ही चन्द्रमा का जन्म भी हुआ था, अतः इस महीने में चन्द्रमा की भी उपासना होती है।
फाल्गुन में प्रेम और आध्यात्म का पर्व होली भी मनाई जाती है।
इसी महीने में दक्षिण भारत में उत्तिर नामक मंदिरोत्सव भी मनाया जाता है।
फाल्गुन महीने में श्री कृष्ण की पूजा उपासना विशेष फलदायी होती है।
इस महीने में बाल कृष्ण, युवा कृष्ण और गुरु कृष्ण तीनों ही स्वरूपों की उपासना की जा सकती है।
संतान के लिए बाल कृष्ण की पूजा करें।
प्रेम और आनंद के लिए युवा कृष्ण की उपासना करें।
ज्ञान और वैराग्य के लिए गुरु कृष्ण की उपासना करें।
फाल्गुन के महीने में रखे इन बातों का ध्यान
इस महीने में शीतल या सामान्य जल से स्नान करें।
भोजन में अनाज का प्रयोग कम से कम करें, अधिक से अधिक फल खाएं।
कपडे ज्यादा रंगीन और सुन्दर धारण करें, सुगंध का प्रयोग करें।
नियमित रूप से भगवान् कृष्ण की उपासना करें, पूजा में फूलों का खूब प्रयोग करें।
अगर क्रोध ज्यादा आता है तो पूरे माह भगवान श्रीकृष्ण को नियमित रूप से अबीर गुलाल अर्पित करें।
अगर मानसिक अवसाद की समस्या है तो सुगन्धित जल से स्नान करें और चन्दन की सुगंध का प्रयोग करें।
अगर स्वास्थ्य की समस्या है तो शिव जी को पूरे महीने सफ़ेद चंदन अर्पित करें।
अगर आर्थिक समस्या है तो पूरे महीने माँ लक्ष्मी को गुलाब का इत्र या गुलाब अर्पित करें।

एकादशी व्रत से ठीक होते हैं ग्रहों के विपरीत प्रभाव
सनातन धर्म में सबसे बड़ा व्रत एकादशी का माना जाता है। चन्द्रमा की स्थिति के कारण व्यक्ति की मानसिक और शारीरिक स्थिति ख़राब और अच्छी होती है। ऐसी दशा में एकादशी व्रत से चन्द्रमा के हर ख़राब प्रभाव को रोका जा सकता है। यहाँ तक कि ग्रहों के असर को भी काफी हद तक कम किया जा सकता है क्योंकि एकादशी व्रत का सीधा प्रभाव मन और शरीर, दोनों पर पड़ता है परन्तु एकादशी का लाभ तभी हो सकता है जब इसके नियमों का पालन किया जाय।
वैसे तो एकादशी मन और शरीर को एकाग्र कर देती है परन्तु अलग अलग एकादशियाँ विशेष प्रभाव भी उत्पन्न करती हैं। माघ शुक्ल एकादशी को जया एकादशी कहा जाता है।इसका पालन करने से व्यक्ति के पापों का नाश होता है, मुक्ति मिलती है।इस व्रत के प्रभाव से व्यक्ति भूत, पिशाच आदि योनियों से मुक्त हो जाता है। यह व्रत व्यक्ति के संस्कारों को शुद्ध कर देता है। एकादशी के व्रत को रखने के नियम।
यह व्रत दो प्रकार से रखा जाता है। निर्जल व्रत और फलाहारी या जलीय व्रत। सामान्यतः निर्जल व्रत पूर्ण रूप से स्वस्थ्य व्यक्ति को ही रखना चाहिए। अन्य या सामान्य लोगों को फलाहारी या जलीय उपवास रखना चाहिए। इस व्रत में प्रातः काल श्री कृष्ण की पूजा की जाती है। इस व्रत में फलों और पंचामृत का भोग लगाया जाता है। बेहतर होगा कि इस दिन केवल जल और फल का ही सेवन किया जाय।तामसिक आहार व्यहार तथा विचार से दूर रहें।बिना भगवान कृष्ण की उपासना के दिन की शुरुआत न करें।मन को ज्यादा से ज्यादा भगवान कृष्ण में लगाये रखें।अगर स्वास्थ्य ठीक नहीं है तो उपवास न रखें ,केवल प्रक्रियाओं का पालन करें।

सीता अष्टमी पर इस प्रकार पूजा करें
सनातन धर्म में व्रत और पूजन का विशेष महत्व है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को माता सीता धरती पर अवतरित हुए थी। इस‍ीलिए इस दिन सीता अष्टमी का पर्व मनाया जाता है। इसे जानकी जयंती के नाम से भी जाना जाता है। माता सीता का विवाह मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के साथ हुआ था। सीता अष्टमी पर्व इस प्रकार मनाया जाता है। सुबह नित्य कर्मों से निवृत्त होकर स्नान के प‍श्चात माता सीता तथा भगवान श्रीराम की पूजा करें।
उनकी प्रतिमा पर श्रृंगार का सामग्री चढ़ाएं।
दूध-गुड़ से बने व्यंजन बनाएं और दान करें।
शाम को पूजा करने के बाद इसी व्यंजन से व्रत खोलें।
वहीं सिंधु पुराण के अनुसार फाल्गुन कृष्ण अष्टमी के दिन प्रभु श्रीराम की पत्नी जनकनंदिनी प्रकट हुई थीं। इसीलिए इस तिथि को सीता अष्टमी के नाम से जाना जाना जाता है। महाराज जनक की पुत्री विवाह पूर्व महाशक्ति स्वरूपा थी। विवाह पश्चात वे राजा दशरथ की संस्कारी बहू और वनवास के दौरान प्रभु श्रीराम के कर्तव्यों का पूरी तरह पालन किया। अपने दोनों पुत्रों लव-कुश को वाल्मीकि के आश्रम में अच्छे संस्कार देकर उन्हें तेजस्वी बनाया। इसीलिए माता सीता भगवान श्रीराम की श्री शक्ति है।
सीता अष्टमी का व्रत सुहागिन महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण व्रत है। शादी योग्य युवतियां भी यह व्रत कर सकती है, जिससे वह एक आदर्श पत्नी बन सकें। यह व्रत एक आदर्श पत्नी और सीता जैसे गुण हमें भी प्राप्त हो इसी भाव के साथ रखा जाता है। अष्टमी का व्रत रखकर सुखद दांपत्य जीवन की कामना की जाती है।

हनुमान जी की साधना से दूर होंगे संकट
हनुमान जी सभी संकट दूर करते हैं इसलिए उन्हें संकटमोचन कहा जाता है।
वैदिक ग्रंथों में मंगल का दिन सबसे शुभ और कल्याणकारी माना गया है। यही वो दिन है जब मंदिरों में महाबली हनुमान के भक्तों की भारी भीड़ उमड़ती है क्योंकि इसी दिन भक्तराज हनुमान अपने भक्तों की सुध लेते हैं। हनुमान साधना के सबसे और प्रभावी मंत्र इस प्रकार हैं।
संपत्ति से जुड़ी समस्या हो तो?
मंगलवार को मंदिर जाकर हनुमान जी के सामने खड़े होकर चालीसा का पाठ करें
फिर उन्हें बूंदी या लड्डू का भोग लगाएं और अपनी समस्या उनसे कहें
निश्चित संख्या में मंत्र जाप का संकल्प लें और वहीं बैठकर हनुमान जी के विशेष मंत्र का जाप करें।
मंत्र है- ॐ मारकाय नमः, मंत्र जाप लगातार 9 मंगलवार को करें।
नौकरी या रोजगार की समस्या हो तो
मंगलवार को हनुमान मंदिर जाकर महाबली हनुमान को बूंदी के 9 लड्डू अर्पित करें।
फिर पीपल के पत्ते पर सिंदूर से अपनी समस्या लिखकर उनके चरणों में रख दें।
निश्चित संख्या में मंत्र जाप का संकल्प लें
इसके बाद वहीं बैठकर हनुमान जी के विशेष मंत्र का जाप करें
मंत्र है- ॐ पिंगाक्षाय नमः, संकल्प की संख्या में लगातार 9 मंगलवार इस मंत्र का जाप करें
अगर आपको मान-सम्मान और यश प्राप्त करने की कामना हो तो मंगलवार को करें इस मंत्र का जाप….
मान-सम्मान और यश पाने के लिए
मंगलवार को हनुमान मंदिर जाकर सबसे पहले राम-दरबार के सामने सिर झुकाकर प्रणाम करें
फिर हनुमान जी से मान-सम्मान और यश प्राप्ति की प्रार्थना करें और निश्चित संख्या में मंत्र जाप का संकल्प लें
इसके बाद वहीं बैठकर हनुमान जी के विशेष मंत्र का जाप करें
मंत्र है- ॐ व्यापकाय नमः, संकल्प की संख्या में लगातार 9 मंगलवार इस मंत्र का जाप करें।
जीवन की तमाम समस्याओं के लिए रामबाण उपाय हैं। ये मंत्र. जैसे –जैसे आप इन मंत्रों का जाप करते जाएंगे। वैसे वैसे आपकी स्थिति सुधरती जाएगी।

इन जगहों पर हैं रावण के मंदिर
भारत में रावण को बुराई के प्रतीक के तौर पर देखा जाता है और दशहरे पर उसका पुतला फूंका जाता है पर इसके बाद भी कुछ जगहों पर रावण के मंदिर है और यहां उसकी पूजा की जाती है। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, कर्नाटक, राजस्थान और हिमाचल प्रदेश में ऐसे कुछ स्थानों पर रावण की पूजा करने का कारण भी बताया गया है।
मध्यप्रदेश
मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में एक गांव है, जहां राक्षसराज रावण का मंदिर बना हुआ है। यहां रावण की पूजा होती है। यह रावण का मध्यप्रदेश में पहला मंदिर था। मध्यप्रदेश के ही मंदसौर जिले में भी रावण की पूजा की जाती है। मंदसौर नगर के खानपुरा क्षेत्र में रावण रूण्डी नाम के स्थान पर रावण की विशाल मूर्ति है। कथाओं के अनुसार, रावण दशपुर (मंदसौर) का दामाद था। रावण की धर्मपत्नी मंदोदरी मंदसौर की निवासी थीं। मंदोदरी के कारण ही दशपुर का नाम मंदसौर माना जाता है.
कर्नाटक
कोलार जिले में लोग फसल महोत्सव के दौरान रावण की पूजा करते हैं और इस मौके पर जुलूस भी निकाला जाता है। ये लोग रावण की पूजा इसलिए करते हैं क्योंकि वह भगवान शिव का परम भक्त था। लंकेश्वर महोत्सव में भगवान शिव के साथ रावण की प्रतिमा भी जुलूस में निकाली जाती है। इसी राज्य के मंडया जिले के मालवल्ली तहसील में रावण का एक मंदिर भी है।
उत्तर प्रदेश
उत्तरप्रदेश के प्रसिद्ध शहर कानपुर में रावण एक बहुत ही प्रसिद्ध दशानन मंदिर है। कानपुर के शिवाला इलाके के दशानन मंदिर में शक्ति के प्रतीक के रूप में रावण की पूजा होती है तथा श्रद्धालु तेल के दिए जलाकर रावण से अपनी मन्नतें पूरी करने की प्रार्थना करते हैं। कहा जाता है कि इस मंदिर का निर्माण 1890 किया गया था। रावण के इस मंदिर के साल के केवल एक बार दशहरे के दिन ही खोले जाते हैं। परंपरा के अनुसार, दशहरे पर सुबह मंदिर के दरवाजे खोले जाते हैं। फिर रावण की प्रतिमा का साज श्रृंगार कर, आरती की जाती है। दशहरे पर रावण के दर्शन के लिए इस मंदिर में भक्तों की भीड़ लगी रहती है और शाम को मंदिर के दरवाजे एक साल के लिए बंद कर दिए जाते हैं।
राजस्थान
जोधपुर जिले के मन्दोदरी नाम के क्षेत्र को रावण और मन्दोदरी का विवाह स्थल माना जाता है। जोधपुर में रावण और मन्दोदरी के विवाह स्थल पर आज भी रावण की चवरी नामक एक छतरी मौजूद है। शहर के चांदपोल क्षेत्र में रावण का मंदिर बनाया गया है।
हिमाचल प्रदेश
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में शिवनगरी के नाम से मशहूर बैजनाथ कस्बा है। यहां के लोग रावण का पुतला जलाना महापाप मानते है। यहां पर रावण की पूरी श्रद्धा के साथ पूजा-अर्चना की जाती है। मान्यता है कि यहां रावण ने कुछ साल बैजनाथ में भगवान शिव की तपस्या कर मोक्ष का वरदान प्राप्त किया था।

हर व्यक्ति के होते हैं एक इष्ट देव या देवी
सभी देवी देवताओं की पूजा –उपासना करने के बाद भी अक्सर इंसान का मन भटकता ही रहता है। हर इंसान का मन किसी एक देवी या देवता की ओर सबसे ज्यादा आकर्षित होता है और वही देवी या देवता आपके इष्ट देव हो सकते हैं। अगर आपकी कोई कुल देवी या देवता हैं तो वो भी आपके इष्ट हो सकते हैं।
धार्मिक मान्यताओं में हर व्यक्ति के एक इष्ट देव या देवी होते हैं
इनकी उपासना करके ही व्यक्ति जीवन में उन्नति कर सकता है
इष्ट देव या देवी का निर्धारण लोग कुंडली के आधार पर करते हैं
वास्तव में ग्रहों और ज्योतिष का ईष्टदेव से सम्बन्ध नहीं होता
ईष्टदेव या देवी का निर्धारण आपके जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से होता है
बिना किसी कारण के ईश्वर के जिस स्वरुप की तरफ आपका आकर्षण हो, वही आपके ईष्ट देव हैं
ग्रह कभी भी ईश्वर का निर्धारण नहीं कर सकते
ग्रहों की समस्या को दूर करने के लिए विशेष देवी देवताओं की उपासना की जा सकती है
धार्मिक परंपराओं में ईश्वरीय शक्ति की उपासना अलग-अलग रूपों में की जाती है। ज्योतिष के जानकारों की मानें तो हिन्दू धर्म में तैंतीस करोड़ देवताओं को उपासना के योग्य माना गया है। अलग-अलग शक्तियों के रूप में उनकी पूजा की जाती है। अगर आपकी कुंडली में ग्रहों से जुड़ी कोई समस्या है तो आइए जानते हैं कि कौन से ग्रह के लिए कौन से देव की उपासना सबसे उत्तम होगी।
ग्रहों की समस्या के लिए क्या करें?
सूर्य के लिए सूर्य की ही उपासना करें या गायत्री मंत्र की साधना करें
चन्द्रमा के लिए भगवान शिव की उपासना करना उत्तम होगा
मंगल के लिए कुमार कार्तिकेय या हनुमान जी की उपासना करें
बुध के लिए मां दुर्गा की उपासना करें
बृहस्पति के लिए श्रीहरि की उपासना करें
शुक्र के लिए मां लक्ष्मी या मां गौरी की उपासना करें
शनि के लिए श्रीकृष्ण या भगवान शिव की उपासना करें
राहु के लिए भैरव बाबा की उपासना करें
केतु के लिए भगवान गणेश की उपासना करें
विशेष समस्याओं के लिए किसकी उपासना करें ?
मानसिक समस्याओं के लिए शिवजी की उपासना करें
शारीरिक दर्द और चोट -चपेट की समस्या के लिए हनुमान जी की उपासना करें
शीघ्र विवाह के लिए पुरुष मां दुर्गा उपासना करें
शीघ्र विवाह के लिए स्त्रियां भगवान शिव की उपासना करें
बाधाओं के नाश के लिए भगवान गणेश की पूजा करें
धन के लिए मां लक्ष्मी की उपासना करें
मुक्ति मोक्ष या आध्यात्मिक उपलब्धि के लिए श्रीकृष्ण या महादेव की उपासना करें
ज्योतिष के जानकारों की मानें तो हर व्यक्ति के इष्ट देवी या देवता निश्चित होते हैं। अगर समय रहते उन्हें पहचान लिया जाए तो ग्रहों के हर दुष्प्रभाव से बचा जा सकता है। तो आप भी अपने इष्ट देव को पहचानें और उनकी उपासना करें। फिर सुखी जीवन के लिए किसी दूसरे उपाय की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।

भगवान श‍िव की पूजा से पूरी होती हैं मनोकामनाएं
सोमवार का द‍िन भगवान श‍िव की पूजा के लि‍ए खास माना जाता है। कहते हैं क‍ि इस द‍िन श‍िव जी बहुत जल्‍द खुश होते हैं। इस द‍िन ऐसे करें पूजा व इन बातों का रखें ध्‍यान।
सोमवार का द‍िन है खास
हिंदू शास्‍त्रों में सोमवार का द‍िन मुख्‍य रूप से भगवान श‍िव जी का द‍िन माना जाता है। मान्‍यता है क‍ि शंकर जी शांत, सौम्‍य और भोले स्‍वभाव के देवता कहे जाते हैं, वहीं सोमवार को सौम्‍य भी कहते हैं। इसल‍िए श‍िव जी के ल‍िए सोमवार का द‍िन खास माना जाता है। भगवान श‍िव जी के माथे पर व‍िराजे चंद्र देव भी सोमवार के द‍िन उनका व्रत व पूजन करते थे।
श‍िव देते हैं भक्‍तों को आशीर्वाद
ऐसे में इस द‍िन व्रत व पूजा करने से श‍िव जी अपने भक्‍तों पर बहुत जल्‍द खुश होते हैं। वे भक्‍तों की हर मनोकामना पूर्ण करते हैं। व्रत व पूजा करने वालों के जीवन से दुख, रोग, क्‍लेश व आर्थि‍क तंगी दूर होती है। कुवांरी कन्‍याओं द्वारा इस द‍िन व्रत व शि‍व पूजन कि‍ए जाने से उनका व‍िवाह हो जाता है। इतना ही नहीं उन्‍हें भोलेनाथ जैसा मनचाहा वर म‍िलता है।
व‍िध‍िव‍िधान से करें श‍िव पूजन
सोमवार के द‍िन सुबह स्‍नान आद‍ि करने के बाद मंद‍िर जाएं या घर पर ही व‍िध‍िव‍िधान से श‍िव जी की पूजा करें। सबसे पहले भगवान शिव के साथ माता पार्वती और नंदी को गंगाजल व दूध से स्‍नान कराएं। इसके बाद उन पर चंदन, चावल, भांग, सुपाड़ी, बिल्वपत्र और धतूरा चढ़ाएं। भोग लगाने के बाद आख‍िरी में श‍िव जी की व‍िध‍िव‍िधान से आरती करें।
इस द‍िन एक ‘नम: शिवाय’ का जाप करें। वहीं श‍िव पूजन के दौरान बासी दूध प्रयोग में न लाएं। इसके अलावा डिब्बा बंद अथवा पैकेट का दूध अर्पित करने से बचें। श‍िव जी पर हल्‍दी न चढा़एं। हल्‍दी स‍िर्फ जलाधारी पर चढ़ाई जाती है। वहीं सोमवार को व्रत करने वाले झूठ न बोलें। कहते हैं इन बातों का ध्‍यान न रखने वालों से भगवान श‍िव जी नाराज हो जाते हैं।

वैष्णो देवी जा रहे हैं तो ध्यान रखें यह बातें
अगर आप माता वैष्णो देवी की यात्रा पर जा रहे हैं तो इन बातों पर ध्यान रखें। एनजीटी ने माता वैष्णो देवी श्राइन बोर्ड को निर्देश जारी करते हुए कहा है कि यात्रा के दौरान एक दिन में केवल 50 हजार श्रद्धालु ही दर्शन के लिए जाएं। इसके साथ ही एनजीटी ने यात्रा मार्ग पर किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी है। आपको बता दें कि देश और दुनिया से माता वैष्णो देवी मंदिर में प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु आते है। माता के दर्शन के लिए प्रत्येक श्रद्धालु को कटरा स्थित श्राइन बोर्ड कार्यालय से पर्ची कटवा कर ही यात्रा शुरू करनी होती है। इसके बाद यात्रियों को बाण-गंगा के रास्ते 14 किलोमीटर की यात्रा शुरू करनी होती है। एनजीटी ने अपने आदेश में कटरा में गंदगी फैलाने वालों पर भी जुर्माना लगाने की बात कही है। यदि आप माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए जा रहे हैं तो आपके लिए यह पांच बातें ध्यान में रखना जरूरी है।
एनजीटी ने माता वैष्णो देवी धाम की यात्रा पर एक दिन में 50 हजार श्रद्धालुओं की संख्या सीमित कर दी है। इससे बिना पर्ची के कटरा पहुंचने वाले यात्रियों को खासी दिक्कत हो सकती है क्योंकि यात्रियों की संख्या ज्यादा होने पर अब नई पर्ची जारी नहीं की जाएगी।
यदि आप कटरा के पंजीकरण कार्यालय में यात्रा की पर्ची लेने पहुंचे और यात्रियों की संख्या अधिक हुई तो हो सकता है कि आपको वहीं रुकना पड़े। ऐसी स्थिति में आपको यात्रा के लिए अगले दिन की पर्ची मिलेगी। इसलिए माता के धाम की यात्रा करने वाले श्रद्धालुओं के लिए ऑन लाइन पर्ची लेना ज्यादा लाभकारी रहेगा।
एनजीटी के आदेश के मुताबिक माता वैष्णो देवी के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु और वहां का प्रशासन इस पवित्र स्थान पर स्वच्छता को लेकर खास सतर्क रहे। एनजीटी ने प्रशासन को आदेश दिया है कि यदि कोई भी कटरा में गंदगी करता पाया जाता है तो उस पर 2000 रुपये का जुर्माना लगाया जाए।
माता वैष्णो देवी यात्रा के लिए एनजीटी ने श्राइन बोर्ड को आदेश दिया है कि यात्रा का नया रास्ता 24 नवंबर तक शुरू कर दिया जाना चाहिए। एनजीटी ने कहा है कि इस रास्ते पर केवल पैदल यात्री और बैटरी कारें चलेंगी। यानि इस रास्ते पर घोड़े, टट्टू और पालकी की सुविधा नहीं मिलेगी। इस रास्ते पर आप बैटरी कार के जरिए अपनी यात्रा कर सकते हैं।
एनजीटी ने अपने फैसले में कहा कि माता वैष्णो देवी के आसपास के इलाको में कोई नया निर्माण नहीं होगा। इससे वहां आने वाले श्रद्धालुओं को दिक्कत हो सकती है। आपको बता दें कि जैसे-जैसे माता के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या में बढ़ोतरी हुई है, वैसे-वैसे कटरा में ठहरने के लिए बनने वाले होटलों की संख्या में भी बंपर बढ़ोतरी हुई है। इसलिए अभी तक किसी को भी यहां ठहरने को लेकर ज्यादा दिक्कतों का सामना नहीं करना पड़ा था लेकिन अब इस पर रोक लगा दी गई है। इसलिए आप जब भी माता के दर्शन के लिए जाएं अपने ठहरने की व्यवस्था का प्रबंध पहले से ही करके चलें।

काफी बड़ा है सूर्य देव का परिवार
रविवार को सूर्यदेव का दिन माना जाता है। यश और सम्मान हासिल करने के लिए सभी लोग उनकी पूजा करते हैं पर क्‍या आप सूर्यदेव के परिवार को जानते हैं। सूर्य देव का परिवार काफी बड़ा है। उनकी संज्ञा और छाया नाम की दो पत्‍नियां और दस संताने हैं। जिसमे से यमराज और शनिदेव जैसे पुत्र और यमुना जैसी बेटियां शामिल हैं। मनु स्‍मृति के रचयिता वैवस्वत मनु भी सूर्यपुत्र ही हैं।
सूर्य देव की दो पत्‍नियां संज्ञा और छाया हैं। संज्ञा सूर्य का तेज ना सह पाने के कारण अपनी छाया को उनकी पत्‍नी के रूप में स्‍थापित करके तप करने चली गई थीं। लंबे समय तक छाया को ही अपनी प्रथम पत्‍नी समझ कर सूर्य उनके साथ रहते रहे। ये राज बहुत बात में खुला की वे संज्ञा नहीं छाया है। संज्ञा से सूर्य को जुड़वां अश्विनी कुमारों के रूप में दो बेटों सहित छह संताने हुईं जबकि छाया से उनकी चार संताने थीं।
देव शिल्‍पी विश्‍वकर्मा सूर्य पत्‍नी संज्ञा के पिता थे और इस नाते उनके ससुर हुए। उन्‍होंने ही संज्ञा के तप करने जाने की जानकारी सूर्य देव को दी थी।
धर्मराज या यमराज सूर्य के सबसे बड़े पुत्र और संज्ञा की प्रथम संतान हैं।
यमी यानि यमुना नदी सूर्य की दूसरी संतान और ज्‍येष्‍ठ पुत्री हैं जो अपनी माता संज्ञा को सूर्यदेव से मिले आर्शिवाद के चलते पृथ्‍वी पर नदी के रूप में प्रसिद्ध हुईं।
सूर्य और संज्ञा की तीसरी संतान हैं वैवस्वत मनु वर्तमान (सातवें) मन्वन्तर के अधिपति हैं। यानि जो प्रलय के बाद संसार के पुर्निमाण करने वाले प्रथम पुरुष बने और जिन्‍होंने मनु स्‍मृति की रचना की।
सूर्य और छाया की प्रथम संतान है शनिदेव जिन्‍हें कर्मफल दाता और न्‍यायधिकारी भी कहा जाता है। अपने जन्‍म से शनि अपने पिता से शत्रु भाव रखते थे। भगवान शंकर के वरदान से वे नवग्रहों में सर्वश्रेष्ठ स्थान पर नियुक्‍त हुए और मानव तो क्या देवता भी उनके नाम से भयभीत रहते हैं।
छाया और सूर्य की कन्या तप्‍ति का विवाह अत्यन्त धर्मात्मा सोमवंशी राजा संवरण के साथ हुआ। कुरुवंश के स्थापक राजर्षि कुरु का इन दोनों की ही संतान थे, जिनसे कौरवों की उत्पत्ति हुई।
सूर्य और छाया पुत्री विष्टि भद्रा नाम से नक्षत्र लोक में प्रविष्ट हुई। भद्रा काले वर्ण, लंबे केश, बड़े-बड़े दांत तथा भयंकर रूप वाली कन्या है। शनि की तरह ही इसका स्वभाव भी कड़क बताया गया है। उनके स्वभाव को नियंत्रित करने के लिए ही भगवान ब्रह्मा ने उन्हें कालगणना या पंचांग के एक प्रमुख अंग विष्टि करण में स्थान दिया है।
सूर्य और छाया की चौथी संतान हैं सावर्णि मनु। वैवस्वत मनु की ही तरह वे इस मन्वन्तर के पश्‍चात अगले यानि आठवें मन्वन्तर के अधिपति होंगे।
संज्ञा के बारे में जानकारी मिलने के बाद अपना तेज कम करके सूर्य घोड़ा बनकर उनके पास गए। संज्ञा उस समय अश्विनी यानि घोड़ी के रूप में थी। दोनों के संयोग से जुड़वां अश्विनीकुमारों की उत्पत्ति हुई जो देवताओं के वैद्य हैं। कहते हैं कि दधीचि से मधु-विद्या सीखने के लिये उनके धड़ पर घोड़े का सिर रख दिया गया था, और तब उनसे मधुविद्या सीखी थी। अत्‍यंत रूपवान माने जाने वाले अश्विनीकुमार नासत्य और दस्त्र के नाम से भी प्रसिद्ध हुए।
सूर्य की सबसे छोटी और संज्ञा की छठी संतान हैं रेवंत जो उनके पुनर्मिलन के बाद जन्‍मी थी। रेवंत निरन्तर भगवान सूर्य की सेवा में रहते हैं।
शनिदेव के हैं नौ वाहन
सूर्यपुत्र शनिदेव न्याय के देवता हैं हालांकि लोग उनके कोप से भयभीत रहते हैं पर वह हमेशा ही कार्यों के अनुरुप परिणाम देते हैं। उनके कई वाहन हैं। शनि के वाहनों की बात करते हुए सामान्‍य रूप से कौवे के बारे में ध्‍यान आता है, लेकिन उनके कौवे सहित कुल 9 वाहन है। जिनमें से कई को ज्योतिषीय और धार्मिक महत्व के अनुसार बेहद शुभ माना गया हैं। इसके बावजूद जरूरी नहीं है कि वे सभी आपके लिए भी शुभ ही हों। इसलिए ये जानना अत्‍यंत आवश्‍यक है कि कौन शुभ है और कौन अशुभ। शास्‍त्रों की माने तो शनि जिस वाहन में सवार होकर किसी व्‍यक्‍ति की कुंडली में प्रवेश करते हैं उसकी राशि की गणना करके तय होता है कि उनका आगमन व्‍यक्‍ति के लिए अच्‍छा है या बुरा।
इस गणना की विधि सुनने में कठिन लगती है पर है गणित के सूत्रों की तरह एक दम तय है। इसके लिए जन्म नक्षत्र की संख्या और शनि के राशि बदलने की तिथि के नक्षत्र की संख्या जोड कर उसके योगफल को नौ से भाग करना होता है। इस गणना से मिली संख्या के आधार पर ही शनि का वाहन निर्धारित होता है। एक दूसरी विधि भी है, इसमें शनि के राशि प्रवेश करने की तिथि की संख्या, ऩक्षत्र संख्या, वार संख्या और नाम के प्रथम अक्षर संख्या सभी को जोडकर योगफल को 9 से भाग देदें, जो शेष संख्या आयेगी वो शनि के वाहन की जानकारी देगी। दोनो विधियों मे यदि शेष 0 बचे तो मानना चाहिए कि आपकी अपेक्षित संख्‍या 9 है।

इसलिए ईश्वर को प्रकाश के रूप में बताया जाता है
हमें हमेशा ईश्वर को प्रकाश के रूप में बताना होता है, क्योंकि प्रकाश से आप देखते हैं, प्रकाश से हर चीज स्पष्ट होती है। लेकिन जब आपका अनुभव बुद्धि की सीमाओं को पार करना शुरू करता है, तब हम ईश्वर को अंधकार के रूप में बताने लगते हैं। आप मुझे यह बताएं कि इस अस्तित्व में कौन ज्यादा स्थायी है? कौन अधिक मौलिक है, प्रकाश या अंधकार? निश्चित ही अंधकार। शिव अंधकार की तरह सांवले हैं। क्या आप जानते हैं कि शिव शाश्वत क्यों हैं? क्योंकि वे अंधकार हैं। वे प्रकाश नहीं हैं। प्रकाश बस एक क्षणिक घटना है। अगर आप अपनी तर्क-बुद्धि की सीमाओं के अंदर जी रहे हैं तब हम आपको ईश्वर को प्रकाश जैसा बताते हैं। अगर आपको बुद्धि की सीमाओं से परे थोड़ा भी अनुभव हुआ है, तो हम ईश्वर को अंधकार जैसा बताते हैं, क्योंकि अंधकार सर्वव्यापी है।
अंधकार की गोद में ही प्रकाश अस्तित्व में आया है। वह क्या है जो अस्तित्व में सभी चीजों को धारण किए हुए है? यह अंधकार ही है। प्रकाश बस एक क्षणिक घटना है। इसका स्रोत जल रहा है, कुछ समय के बाद यह जलकर खत्म हो जाएगा।
सूर्य से पहले और सूर्य के बाद क्या है? क्या चीज हमेशा थी और क्या हमेशा रहेगी? अंधकार। वह क्या है जिसे आप ईश्वर कहते हैं? वह जिससे हर चीज पैदा होती है, उसे ही तो आप ईश्वर के रूप में जानते हैं। अस्तित्व में हर चीज का मूल रूप क्या है? उसे ही तो आप ईश्वर कहते हैं। अब आप मुझे यह बताएं कि ईश्वर क्या है, अंधकार या प्रकाश? शून्यता का अर्थ है अंधकार। हर चीज शून्य से पैदा होती है। विज्ञान ने आपके लिए यह साबित कर दिया है।
और आपके धर्म हमेशा से यही कहते आ रहे हैं ईश्वर सर्वव्यापी है। और केवल अंधकार ही है जो सर्वव्यापी हो सकता है।
प्रकाश का अस्तित्व बस क्षणिक है, प्रकाश बहुत सीमित है, और खुद जलकर खत्म हो जाता है, लेकिन चाहे कुछ और हो या न हो, अंधकार हमेशा रहता है। लेकिन आप अंधकार को नकारात्मक समझते हैं। हमेशा से आप बुरी चीजों का संबंध अंधकार से जोड़ते रहे हैं। यह सिर्फ आपके भीतर बैठे हुए भय के कारण है। आपकी समस्या की यही वजह है। यह सिर्फ आपकी समस्या है, अस्तित्व की नहीं। अस्तित्व में हर चीज अंधकार से पैदा होती है। प्रकाश सिर्फ कभी-कभी और कहीं-कहीं घटित होता है। आप आसमान में देखें, तो आप पाएंगे कि तारे बस इधर-उधर छितरे हुए हैं और बाकी सारा अंतरिक्ष अंधकार है, शून्य है, असीम और अनन्त है।
यही स्वरूप ईश्वर का भी है। यही वजह है कि हम कहते हैं कि मोक्ष का अर्थ पूर्ण अंधकार है। यही वजह है कि योग में हम हमेशा यह कहते हैं कि चैतन्य अंधकार है। केवल तभी जब आप मन के परे चले जाते हैं, आप अंधकार का आनन्द उठाना जान जाते हैं, उस अनन्त, असीम सृष्टा को अनुभव करने लगते हैं। जब आपकी आंखें बंद होती हैं, तो उस अंधकार में आपके सभी अनुभव और ज्यादा गहरे हो जाते हैं!

दीपावली की सुबह करें खास विधि से पूजन
दिवाली पर मान्यता है कि मां लक्ष्मी धरती पर आती हैं। इस मौके पर आप कुछ खास विधि से पूजन करेंगे तो मां लक्ष्मी प्रसन्न होकर धन संपदा देगी। सुबह उठते ही मां लक्ष्मी को नमन कर सफेद वस्त्र धारण करें और मां लक्ष्मी के श्री स्वरूप व प्रतिमा के सामने खड़े होकर श्री सूक्त का पाठ करें एवं कमल फूल चढ़ाएं। लक्ष्मी पूजन कर 11 कौड़ियां चढ़ाएं। अगले दिन कौड़ियों को लाल कपड़े में बांधकर तिजोरी में रखें इससे धन वृद्धि होती है। लक्ष्मी का पूजन कर उन्हें मालपूए या गुलाबजामुन का भोग लगाकर उसे गरीबों में बांटने से चढ़ा हुआ कर्जा उतर जाता है।
साफ-स्वच्छ कपड़े पहनना और उन्हें करीने से संभाल कर रखने से घर में सकारात्मकता का संचार होता है और देवी लक्ष्मी की कृपा दृष्टि बनी रहती है। घर में साफ-सफाई और रोशनी का विशेष ध्यान रखना चाहिए। इससे लक्ष्मी आकर्षित होती हैं। इसके विपरित जाले, गंदगी और धूल-मिट्टी फैली हो तो धन की कमी होती है।
हल्दी और चावल पीसकर उसके घोल से घर के मुख्य द्वार पर ‘श्रीं’ लिखने से लक्ष्मी प्रसन्न होकर धन देती हैं।
गाय के दूध से श्रीयंत्र का अभिषेक करने के बाद, अभिषेक का जल पूरे घर में छिड़क दें और घर में जहां आपका धन पड़ा हो वहां श्रीयंत्र को कमलगट्टे के साथ धन स्थान पर रख दें। इससे धन लाभ होने लगेगा। शंख में वास्तुदोष दूर करने की अद्भुत क्षमता होती है। जहां नियमित शंख का घोष होता है और सुबह और शाम दोनों समय होता है, वहां के आसपास की हवा भी शुद्ध और सकारात्मक हो जाती है और घर की कलह खत्म होती है। मानसिक शांति प्राप्त होती है। जो लोग अपने जीवन व वास्तु में बदलाव चाहते हैं तो रोजाना सुबह-शाम शंख का घोष अवश्य ही करें।
भगवान गणेश का करें पूजन
मां लक्ष्मी ने गौरीपुत्र गणेश को प्रथम पूज्य होने का वर देते हुए यह आशीर्वाद दिया था कि उनकी उपासना से मनुष्य पर लक्ष्मी कृपा भी हमेशा बनी रहेगी। ऐसे में दिवाली पूजन में मां लक्ष्मी और भगवान गणेश की पूजा पूरे विधि-विधान से की जाती है। मां का आशीर्वाद सदैव बनाएं रखने के लिए आप भगवान गणेश का पूजन उनको प्रिय मंत्रों से करें।
भगवान गणेश की विधिवत पूजा के मंत्र हैं।
श्री गणेश बीज मंत्र:
ॐ गं गणपतये नमः॥
भगवान गणपति की पूजा के दौरान इस मंत्र को पढ़ते हुए उन्हें सिंदूर अर्पण करना चाहिए।
सिन्दूरं शोभनं रक्तं सौभाग्यं सुखवर्धनम्।
शुभदं कामदं चैव सिन्दूरं प्रतिगृह्यताम्॥
इस मंत्र का जाप करते हुए गौरीपुत्र गणेश को अक्षत(चावल) चढ़ाएं।

गायत्री मंत्र का करें पाठ
गायत्री मंत्र का उच्‍चारण करने से व्‍यक्ति के जीवन में खुशियों का संचार होता है। इस मंत्र का जाप करने से शरीर निरोग बनता है और इंसान को यश, प्रसिद्धि और धन की प्राप्ति भी होती है। हिन्दू धर्म में गायत्री मंत्र को विशेष मान्यता प्राप्त है। कई शोधों द्वारा यह भी प्रमाणित किया गया है कि गायत्री मंत्र के जाप से कई फायदे भी होते हैं जैसे : मानसिक शांति, चेहरे पर चमक, खुशी की प्राप्ति, चेहरे में चमक, इन्द्रियां बेहतर होती हैं, गुस्सा कम आता है और बुद्धि तेज होती है।
गायत्री मंत्र
ॐ भूर्भुवः स्वः
तत्सवितुर्वरेण्यं
भर्गो देवस्यः धीमहि
धियो यो नः प्रचोदयात्
गायत्री मंत्र का अर्थ
भगवान सूर्य की स्तुति में गाए जाने वाले इस मंत्र का अर्थ निम्न है… उस प्राणस्वरूप, दुःखनाशक, सुखस्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप परमात्मा को हम अन्तःकरण में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे1
मंत्र के प्रत्येक शब्द की व्याख्या
गायत्री मंत्र के पहले नौ शब्द प्रभु के गुणों की व्याख्या करते हैं…
ॐ = प्रणव
भूर = मनुष्य को प्राण प्रदाण करने वाला
भुवः = दुख़ों का नाश करने वाला
स्वः = सुख़ प्रदाण करने वाला
तत = वह, सवितुर = सूर्य की भांति उज्जवल
वरेण्यं = सबसे उत्तम
भर्गो = कर्मों का उद्धार करने वाला
देवस्य = प्रभु
धीमहि = आत्म चिंतन के योग्य (ध्यान)
धियो = बुद्धि, यो = जो, नः = हमारी,
प्रचोदयात् = हमें शक्ति दें (प्रार्थना)
कब करें गायत्री मंत्र का जाप
यूं तो इस बेहद सरल मंत्र को कभी भी पढ़ा जा सकता है लेकिन शास्त्रों के अनुसार इसका दिन में तीन बार जप करना चाहिए।
प्रात:काल सूर्योदय से पहले और सूर्योदय के पश्चात तक।
फिर दोबारा दोपहर को।
फिर शाम को सूर्यास्त के कुछ देर पहले जप शुरू करना चाहिए।

शनिदेव का करें पूजन और व्रत
सभी लोग जीवन में सुख् शांति चाहते हैं और उसके लिए प्रयास करते हैं पर कई बार मेहनत के बाद भी लाभ नहीं होता। इसका कारण यह है कि जीवन में ग्रहों का प्रभाव बहुत प्रबल माना जाता है और उस पर भी शनि ग्रह अशांत हो जाएं तो जीवन में कष्टों का आगमन शुरू हो जाता है। इसलिए शनि दोष से पीड़ित जातकों को शनिवार के दिन शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए उनका पूजन और व्रत रखना चाहिये। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर नहा धोकर और साफ कपड़े पहनकर पीपल के वृक्ष पर जल अर्पण करें।
लोहे से बनी शनि देवता की मूर्ति को पंचामृत से स्नान कराएं।
फिर मूर्ति को चावलों से बनाए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करें।
इसके बाद काले तिल, फूल, धूप, काला वस्त्र व तेल आदि से पूजा करें।
पूजन के दौरान शनि के दस नामों का उच्चारण करें- कोणस्थ, कृष्ण, पिप्पला, सौरि, यम, पिंगलो, रोद्रोतको, बभ्रु, मंद, शनैश्चर।
पूजन के बाद पीपल के वृक्ष के तने पर सूत के धागे से सात परिक्रमा करें।
इसके बाद शनिदेव का मंत्र पढ़ते हुए प्रार्थना करें।
शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्ते त्वथ राहवे। केतवेअथ नमस्तुभ्यं सर्वशांतिप्रदो भव॥
इसी तरह सात शनिवार तक व्रत करते हुए शनि के प्रकोप से सुरक्षा के लिए शनि मंत्र की समिधाओं में, राहु की कुदृष्टि से सुरक्षा के लिए दूर्वा की समिधा में, केतु से सुरक्षा के लिए केतु मंत्र में कुशा की समिधा में, कृष्ण जौ, काले तिल से 108 आहुति प्रत्येक के लिए देनी चाहिए।
फिर अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार ब्राह्मणों को भोजन कराकर लौह वस्तु धन आदि का दान अवश्य करें।

अमृत मंथन से उत्पन्न हुए भगवान धनवन्तरि
(धनतेरस 17 अक्टूबर पर विशेष)
– अमित व्यास
हम सभी मनुष्य सुख सम्पत्ति, धन और एश्वर्य की कामना करते हैं। इनकी प्राप्ति के लिए देवी लक्ष्मी की उपासना और पूजा करते हैं, दीपावली पर्व हमारी इन्हीं चाहतो और आंकांक्षाओं से जुड़ा हुआ पर्व है। और दीपावली के साथ जुडे हुए हें कई अन्य पर्व और त्यौहार जिनमें धनतेरस या धन्वन्तरि त्रयोदशी भी है। धनतेरस दीपावली से दो दिन पहले मनाई जाती है । जिस प्रकार देवी लक्ष्मी सागर मंथन से उत्पन्न हुई थी उसी प्रकार भगवान धनवन्तरि भी अमृत कलश के साथ सागर मंथन से उत्पन्न हुए हैं। देवी लक्ष्मी हालांकि की धन देवी हैं परन्तु उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए आपको स्वस्थ्य और लम्बी आयु भी चाहिए यही कारण है दीपावली दो दिन पहले से ही यानी धनतेरस से ही दीपामालाएं सजने लगती हें। धनतेरस क्यों मनाई जाती है और इसमें बर्तन क्यों खरीदे जाते हैं उसकी कहानी यह है कि कार्तिक कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन ही धन्वन्तरि का जन्म हुआ था इसलिए इस तिथि को धनतेरस के नाम से जाना जाता है धन्वन्तरी जब प्रकट हुए थे तो उनके हाथो में अमृत से भरा कलश था। भगवान धन्वन्तरी चुकि कलश लेकर प्रकट हुए थे इसलिए ही इस अवसर पर बर्तन खरीदने की परम्परा है। कहीं कहीं लोकमान्यता के अनुसार यह भी कहा जाता है कि इस दिन धन (वस्तु) खरीदने से उसमें 13 गुणा वृद्धि होती है। इस अवसर पर धनिया के बीज खरीद कर भी लोग घर में रखते हैं। दीपावली के बाद इन बीजों को लोग अपने बाग-बगीचों में या खेतों में बोते हैं। धनतेरस के दिन चांदी खरीदने की भी प्रथा है। इसके पीछे यह कारण माना जाता है कि यह चन्द्रमा का प्रतीक है जो शीतलता प्रदान करता है और मन में संतोष रूपी धन का वास होता है। संतोष को सबसे बड़ा धन कहा गया है। जिसके पास संतोष है वह स्वस्थ है सुखी है और वही सबसे धनवान है। भगवान धन्वन्तरी जो चिकित्सा के देवता भी हैं उनसे स्वास्थ्य और सेहत की कामना के लिए संतोष रूपी धन से बड़ा कोई धन नहीं है। लोग इस दिन ही दीपावली की रात लक्ष्मी गणेश की पूजा हेतु मूर्ति भी खरीदते हें।
धनतेरस की शाम घर के बाहर मुख्य द्वार पर और आंगन में दीप जलाने की प्रथा भी है। इस प्रथा के पीछे एक लोक कथा है, कथा के अनुसार किसी समय में एक राजा थे जिनका नाम हेम था। दैव कृपा से उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। योंतिषियों ने जब बालक की कुण्डली बनाई तो पता चला कि बालक का विवाह जिस दिन होगा उसके ठीक चार दिन के बाद वह मृत्यु को प्राप्त होगा। राज इस बात को जानकर बहुत दुखी हुआ और राजकुमार को ऐसी जगह पर भेज दिया जहां किसी स्त्री की परछाई भी न पड़े। दैवयोग से एक दिन एक राजकुमारी उधर से गुजरी और दोनों एक दूसरे को देखकर मोहित हो गये और उन्होंने गन्धर्व विवाह कर लिया। विवाह के पश्चात विधि का विधान सामने आया और विवाह के चार दिन बाद यमदूत उस राजकुमार के प्राण लेने आ पहुंचे। जब यमदूत राजकुमार प्राण ले जा रहे थे उस वक्त नवविवाहिता उसकी पत्नी का विलाप सुनकर उनका हृदय भी द्रवित हो उठा परंतु विधि के अनुसार उन्हें अपना कार्य करना पड़ा। यमराज को जब यमदूत यह कह रहे थे उसी वक्त उनमें से एक ने यमदेवता से विनती की हे यमराज क्या कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मनुष्य अकाल मृत्यु के लेख से मुक्त हो जाए। दूत के इस प्रकार अनुरोध करने से यमदेवता बोले हे दूत अकाल मृत्यु तो कर्म की गति है इससे मुक्ति का एक आसान तरीका मैं तुम्हें बताता हूं सो सुनो। कार्तिक कृष्ण पक्ष की रात जो प्राणी मेरे नाम से पूजन करके दीप माला दक्षिण दिशा की ओर भेट करता है उसे अकाल मृत्यु का भय नहीं रहता है यही कारण है कि लोग इस दिन घर से बाहर दक्षिण दिशा की ओर दीप जलाकर रखते हैं। धन्वन्तरि देवताओं के वैद्य हैं और चिकित्सा के देवता माने जाते हैं इसलिए चिकित्सकों के लिए धनतेरस का दिन बहुत ही महत्व पूर्ण होता है। धनतेरस के संदर्भ में एक लोक कथा प्रचलित है कि एक बार यमराज ने यमदूतों से पूछा कि प्राणियों को मृत्यु की गोद में सुलाते समय तुम्हारे मन में कभी दया का भाव नहीं आता क्या। दूतों ने यमदेवता के भय से पहले तो कहा कि वह अपना कर्तव्य निभाते है और उनकी आज्ञा का पालन करते हें परंतु जब यमदेवता ने दूतों के मन का भय दूर कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार राजा हेमा के ब्रह्मचारी पुत्र का प्राण लेते समय उसकी नवविवाहिता पत्नी का विलाप सुनकर हमारा हृदय भी पसीज गया लेकिन विधि के विधान के अनुसार हम चाह कर भी कुछ न कर सके। एक दूत ने बातों ही बातों में तब यमराज से प्रश्न किया कि अकाल मृत्यु से बचने का कोई उपाय है क्या। इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यम देवता ने कहा कि जो प्राणी धनतेरस की शाम यम के नाम पर दक्षिण दिशा में दीया जलाकर रखता है उसकी अकाल मृत्यु नहीं होती है। इस मान्यता के अनुसार धनतेरस की शाम लोग आँगन मे यम देवता के नाम पर दीप जलाकर रखते हैं। इस दिन लोग यम देवता के नाम पर व्रत भी रखते हैं।
धनतेरस के दिन दीप जलाककर भगवान धन्वन्तरि की पूजा करें। भगवान धन्वन्तरी से स्वास्थ और सेहतमंद बनाये रखने हेतु प्रार्थना करें। चांदी का कोई बर्तन या लक्ष्मी गणेश अंकित चांदी का सिक्का खरीदें। नया बर्तन खरीदे जिसमें दीपावली की रात भगवान श्री गणेश व देवी लक्ष्मी के लिए भोग चढ़ाएं।

बालाजी मंदिर से जुड़ी ये मान्यताएं
भारत के ऐतिहासिक और सबसे अमीर मंदिरों में से एक है तिरुपति बालाजी मंदिर है। तिरुपति महाराज जी के दरबार में देश-विदेश के भक्तों की भीड़ रहती है। यहां अमीर और गरीब दोनों जाते हैं। हर साल लाखों लोग तिरुमाला की पहाडिय़ों पर उनके दर्शन करने आते हैं। तिरुपति के इतने प्रचल‍ित होने के पीछे कई कथाएं और मान्यताएं हैं। इस मंदिर से बहुत सारी मान्यताएं जुड़ी हैं।
माना जाता है कि तिरुपति बालाजी अपनी पत्नी पद्मावती के साथ तिरुमला में रहते हैं।
तिरुपति बालाजी मंदिर के मुख्य दरवाजे के दाईं ओर एक छड़ी है। कहा जाता है कि इसी छड़ी से बालाजी की बाल रूप में पिटाई हुई थी, जिसके चलते उनकी ठोड़ी पर चोट आई थी।
मान्यता है कि बालरूप में एक बार बालाजी को ठोड़ी से रक्त आया था। इसके बाद से ही बालाजी की प्रतिमा की ठोड़ी पर चंदन लगाने का चलन शुरू हुआ।
कहते हैं कि बालाजी के सिर रेशमी बाल हैं और उनके रेशमी बाल कभी उलझते नहीं।
कहते हैं कि तिरुपति बालाजी मंदिर से करीब करीब 23 किलोमीटर दूर एक से लाए गए फूल भगवान को चढ़ाए जाते हैं। इतना ही नहीं वहीं से भगवान को चढ़ाई जाने वाली दूसरी वस्तुएं भी आती हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि वास्तव में बालाजी महाराज मंदिर में दाएं कोने में विराजमान हैं, लेकिन उन्हें देख कर ऐसा लगता है मानों वे गर्भगृह के मध्य भाग में हों।
तिरुपति बालाजी मंदिर में बालाजी महाराज को रोजाना धोती और साड़ी से सजाया जाता है।
कहते हैं कि बालाजी महाराज की मूर्ती की पीठ पर कान लगाकर सुनने से समुद्र घोष सुनाई देता है और उनकी पीठ को चाहे जितनी बार भी क्यों न साफ कर लिया जाए वहां बार बार गीलापन आ जाता है।

कार्तिक मास में ऐसे मिलेगी मां लक्ष्मी की कृपा
कार्तिक मास भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है। इसलिए मां लक्ष्मी को भी अत्यंत प्रिय है। इसी महीने भगवान विष्णु योग निद्रा से जागते हैं और सृष्टि में आनंद और कृपा की वर्षा होती है। इस महीने में मां लक्ष्मी धरती पर भ्रमण करती हैं और भक्तों को अपार धन देती हैं। मां लक्ष्मी की कृपा पाने के लिए ही इस महीने धन त्रयोदशी, दीपावली और गोपाष्टमी मनाई जाती है। इस महीने विशेष पूजा और प्रयोग करके आप आने वाले समय के लिए अपार धन पा सकते हैं और कर्ज तथा घाटे से मुक्त हो सकते हैं।
वैसे तो कार्तिक मास में मां लक्ष्मी की कृपा के लिए दीपावली जैसा बड़ा पर्व मनाया जाता है। फिर भी कार्तिक मास में हर दिन मां लक्ष्मी की कृपा पाने के उपाय किए जाने चाहिए। कार्तिक मास में रोज रात्रि को भगवान विष्णु और लक्ष्मी जी की संयुक्त पूजा करें। गुलाबी या चमकदार वस्त्र धारण करके उपासना करें। पारिवारिक और वैवाहिक जीवन के लिए तुलसी की पूजा सबसे उत्तम मानी जाती है और तुलसी के पौधे के रोपण तथा पूजन के लिए सबसे अच्छा महीना कार्तिक का ही होता है।
कार्तिक मास में किसी भी दिन, बेहतर होगा शुरुआत में ही तुलसी का पौधा ले आएं और घर में रोपण करें। अब नित्य सायंकाल इस पौधे के नीचे घी का या तिल के तेल का दीपक जलाएं। सुखद पारिवारिक जीवन और वैवाहिक जीवन के लिए प्रतिदिन प्रार्थना करें।

प्रकाश फैलाएं घर में आयेगी लक्ष्मी
हिंदु धर्म के सबसे बड़े त्योहार दीपावली की तैयार शुरु हो गयी है। दिवाली के लिए यदि घर को तैयार कर रहे हैं तो हर कमरे में पर्याप्त रोशनी की व्यवस्था करें। कुछ आसान तरीकों से आप उस कमरे को भी जगमग कर सकते हैं जहां कम रौशनी होती है। प्राचीन मान्यता है कि इससे घर में लक्ष्मी भी आती है। इसलिए दिवाली पर हर ओर रौशनी की जाती है।
जिस कमरे में ज्यादा अंधेरा रहता है, वहां उजाले के लिए कमरे की दीवारों पर हल्के रंग का पेंट करवाएं। लाइट शेड वाले परदे, बेडशीट का इस्तेमाल करें चमक को और बढ़ाने के लिए कमरे में परदे, बेडशीट और कुशन आदि के कलर्स भी लाइट शेड के रखें।
ऐसे कमरे के लिए मिरर फर्नीचर का इस्तेमाल करना चाहिए। इसका फायदा यह होगा कि इस पर जहां से भी लाइट आएगी, यह और भी अधिक चमकने लगता है और कमरे में रोशनी बढ़ती है।
अंधेरे वाले कमरे में रिफ्लेक्टिंग फ्लोरिंग भी अच्छा विकल्प है, जिससे कमरे में चमक बढ़ सकती है। इसमें आजकल एलईडी का भी इस्तेमाल होता है।
इसके बावजूद भी अगर कमरे में प्रकाश नहीं आता तो आप क्रत्रिम रोशनी का इस्तेमाल कर सकते हैं। कमरे में हैंगिंग लाइट्स का प्रयोग भी अंधेरे को दूर कर सकता है। इसके अलावा दीवारों पर लैम्प भी लगवाए जा सकते हैं। यदि संभव हो तो कमरे की सीलिंग में लाइटिंग की व्यवस्था कर सकते हैं। आजकल लाइटिंग वाला सीलिंग फैन भी काफी चलन में है। यह जान लें कि आपका घर जितना चमकेगा उतनी ही धन संपदा की देवी लक्ष्मी आपके घर आयेगी।

नंदी के बिना शिवलिंग को माना जाता है अधूरा
भगवान शिव के किसी भी मंदिर में शिवलिंग के आसपास एक नंदी बैल जरूर होता है क्‍यों नंदी के बिना शिवलिंग को अधूरा माना जाता है। इस बारे में पुराणों की एक कथा में कहा गया है शिलाद नाम के ऋषि थे जिन्‍होंने लम्‍बे समय तक शिव की तपस्या की थी। जिसके बाद भगवान शिव ने उनकी तपस्‍या से खुश होकर शिलाद को नंदी के रूप में पुत्र दिया था।
शिलाद ऋषि एक आश्रम में रहते थे। उनका पुत्र भी उन्‍हीं के आश्रम में ज्ञान प्राप्‍त करता था। एक समय की बात है शिलाद ऋषि के आश्रम में मित्र और वरुण नामक दो संत आए थे। जिनकी सेवा का जिम्‍मा शिलाद ऋषि ने अपने पुत्र नंदी को सौंपा। नंदी ने पूरी श्रद्धा से दोनों संतों की सेवा की। संत जब आश्रम से जाने लगे तो उन्‍होंने शिलाद ऋषि को दीर्घायु होने का आर्शिवाद दिया पर नंदी को नहीं।
इस बात से शिलाद ऋषि परेशान हो गए। अपनी परेशानी को उन्‍होंने संतों के आगे रखने की सोची और संतों से बात का कारण पूछा। तब संत पहले तो सोच में पड़ गए। पर थोड़ी देर बाद उन्‍होंने कहा, नंदी अल्पायु है। यह सुनकर मानों शिलाद ऋषि के पैरों तले जमीन खिसक गई। शिलाद ऋषि काफी परेशान रहने लगे।
एक दिन पिता की चिंता को देखते हुए नंदी ने उनसे पूछा, ‘क्या बात है, आप इतना परेशान क्‍यों हैं पिताजी।’ शिलाद ऋषि ने कहा संतों ने कहा है कि तुम अल्पायु हो। इसीलिए मेरा मन बहुत चिंतित है। नंदी ने जब पिता की परेशानी का कारण सुना तो वह बहुत जोर से हंसने लगा और बोला, ‘भगवान शिव ने मुझे आपको दिया है। ऐसे में मेरी रक्षा करना भी उनकी ही जिम्‍मेदारी है, इसलिए आप परेशान न हों।’
नंदी पिता को शांत करके भगवान शिव की तपस्या करने लगे। दिनरात तप करने के बाद नंदी को भगवान शिव ने दर्शन दिए। शिवजी ने कहा, ‘क्‍या इच्‍छा है तुम्‍हारी वत्स’. नंदी ने कहा, मैं ताउम्र सिर्फ आपके सानिध्य में ही रहना चाहता हूं। नंदी से खुश होकर शिवजी ने नंदी को गले लगा लिया। शिवजी ने नंदी को बैल का चेहरा दिया और उन्हें अपने वाहन, अपना मित्र, अपने गणों में सबसे उत्‍तम रूप में स्वीकार कर लिया।इसके बाद ही शिवजी के मंदिर के बाद से नंदी के बैल रूप को स्‍थापित किया जाने लगा।

दीवाली पर सुख-समृद्धि के लिए इस प्रकार करें पूजा
दीपावली आने वाली हैं और सभी को दीपों के इस त्यौहार का इंतजार है। इसके लिए घरों में तैयारियां शुरु हो गयी हैं। दीवाली पर मां लक्ष्मी, सरस्वती एवं गणेशजी की विशेष पूजा विधी से अर्चना कर उनसे सुख-समृद्धि, बुद्धि तथा घर में शांति, तरक्की का वरदान मांगा जाता है
दीवाली पर देवी-देवताओं की पूजा में कुछ विशेष बातों का ध्यान रखा जाता है।
दीवाली पूजा हेतु पूजन सामग्री
दीवाली पूजा के सामान की लगभग सभी चीजें घर में ही मिल जाती हैं। कुछ अतिरिक्त चीजों को बाहर से लाया जा सकता है। ये वस्तुएं हैं- लक्ष्मी, सरस्वती व गणेश जी का चित्र या प्रतिमा, रोली, कुमकुम, चावल, पान, सुपारी, लौंग, इलायची, धूप, कपूर, अगरबत्तियां, मिट्टी तथा तांबे के दीपक, रुई, कलावा (मौलि), नारियल, शहद, दही, गंगाजल, गुड़, धनिया, फल, फूल, जौ, गेहूँ, दूर्वा, चंदन, सिंदूर, घृत, पंचामृत, दूध, मेवे, खील, बताशे, गंगाजल, यज्ञोपवीत (जनेऊ), श्वेत वस्त्र, इत्र, चौकी, कलश, कमल गट्टे की माला, शंख, आसन, थाली, चांदी का सिक्का, देवताओं के प्रसाद हेतु मिष्ठान्न
ये है दीवाली की पूजा विधि।
दीवाली की पूजा में सबसे पहले एक चौकी पर सफेद वस्त्र बिछा कर उस पर मां लक्ष्मी, सरस्वती व गणेश जी का चित्र या प्रतिमा को विराजमान करें। इसके बाद हाथ में पूजा के जलपात्र से थोड़ा-सा जल लेकर उसे प्रतिमा के ऊपर निम्न मंत्र पढ़ते हुए छिड़कें। बाद में इसी तरह से स्वयं को तथा अपने पूजा के आसन को भी इसी तरह जल छिड़ककर पवित्र कर लें।
ऊँ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोपि वा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स: वाह्याभंतर: शुचि:।।
इसके बाद मां पृथ्वी को प्रणाम करके निम्न मंत्र बोलें तथा उनसे क्षमा प्रार्थना करते हुए अपने आसन पर विराजें।
पृथ्विति मंत्रस्य मेरुपृष्ठः ग ऋषिः सुतलं छन्दः कूर्मोदेवता आसने विनियोगः॥
ॐ पृथ्वी त्वया धृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्‌॥ पृथिव्यै नमः आधारशक्तये नमः
इसके बाद “ॐ केशवाय नमः, ॐ नारायणाय नमः, ॐ माधवाय नमः” कहते हुए गंगाजल का आचमन करें
ध्यान व संकल्प विधि
इस पूरी प्रक्रिया के बाद मन को शांत कर आंखें बंद करें तथा मां को मन ही मन प्रणाम करें। इसके बाद हाथ में जल लेकर पूजा का संकल्प करें। संकल्प के लिए हाथ में अक्षत (चावल), पुष्प और जल ले लीजिए। साथ में एक रूपए (या यथासंभव धन) का सिक्का भी ले लें। इन सब को हाथ में लेकर संकल्प करें कि मैं अमुक व्यक्ति अमुक स्थान व समय पर मां लक्ष्मी, सरस्वती तथा गणेशजी की पूजा करने जा रहा हूं, जिससे मुझे शास्त्रोक्त फल प्राप्त हों।
इसके बाद सबसे पहले भगवान गणेशजी व गौरी का पूजन कीजिए। तत्पश्चात कलश पूजन करें फिर नवग्रहों का पूजन कीजिए। हाथ में अक्षत और पुष्प ले लीजिए और नवग्रह स्तोत्र बोलिए। अब सभी देवी-देवताओं के तिलक लगाकर स्वयं को भी तिलक लगवाएं। इसके बाद मां महालक्ष्मी की पूजा आरंभ करें।
सबसे पहले भगवान गणेशजी, लक्ष्मीजी का पूजन करें। उनकी प्रतिमा के आगे 7, 11 अथवा 21 दीपक जलाएं तथा मां को श्रृंगार सामग्री अर्पण करें। मां को भोग लगा कर उनकी आरती करें। श्रीसूक्त, लक्ष्मीसूक्त व कनकधारा स्रोत का पाठ करें। इस तरह से आपकी पूजा पूर्ण होती है।
क्षमा-प्रार्थना करें
पूजा पूर्ण होने के बाद मां से जाने-अनजाने हुए सभी भूलों के लिए क्षमा-प्रार्थना करें। उन्हें कहें-
मां न मैं आह्वान करना जानता हूँ, न विसर्जन करना। पूजा-कर्म भी मैं नहीं जानता। हे परमेश्वरि! मुझे क्षमा करो। मन्त्र, क्रिया और भक्ति से रहित जो कुछ पूजा मैंने की है, हे देवि! वह मेरी पूजा सम्पूर्ण हो। यथा-सम्भव प्राप्त उपचार-वस्तुओं से मैंने जो यह पूजन किया है, उससे आप भगवती श्रीलक्ष्मी प्रसन्न हों।
गणेश जी की आरती
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा, माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
एक दंत दयावंत चार भुजाधारी।
माथे पर तिलक सोहे, मुसे की सवारी।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा, माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
पान चढ़े फूल चढ़े और चढ़े मेवा।
लड्डुवन का भोग लगे, संत करे सेवा।।
जय गणेश जय गणेश जय गणेश देवा, माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
अंधन को आंख देत, कोढ़ियन को काया।
बांझन को पुत्र देत, निर्धन को माया।।
सुर श्याम शरण आये सफल कीजे सेवा।। जय गणेश देवा
जय गणेश जय गणेश देवा। माता जाकी पार्वती, पिता महादेवा।।
लक्ष्मीजी की आरती
ॐ जय लक्ष्मी माता मैया जय लक्ष्मी माता
तुमको निसदिन सेवत, हर विष्णु विधाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
उमा, रमा, ब्रम्हाणी, तुम जग की माता
सूर्य चद्रंमा ध्यावत, नारद ऋषि गाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
दुर्गारूप निरंजन, सुख संपत्ति दाता
जो कोई तुमको ध्याता, ऋद्धि सिद्धी धन पाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
तुम ही पाताल निवासनी, तुम ही शुभदाता
कर्मप्रभाव प्रकाशनी, भवनिधि की त्राता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
जिस घर तुम रहती हो, ताँहि में हैं सद्गुण आता
सब सभंव हो जाता, मन नहीं घबराता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
तुम बिन यज्ञ ना होता, वस्त्र न कोई पाता
खान पान का वैभव, सब तुमसे आता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
शुभ गुण मंदिर, सुंदर क्षीरनिधि जाता
रत्न चतुर्दश तुम बिन, कोई नहीं पाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
महालक्ष्मी जी की आरती, जो कोई नर गाता
उर आंनद समाता, पाप उतर जाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
स्थिर चर जगत बचावै, कर्म प्रेर ल्याता
तेरा भगत मैया जी की शुभ दृष्टि पाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….
ॐ जय लक्ष्मी माता, मैया जय लक्ष्मी माता,
तुमको निसदिन सेवत, हर विष्णु विधाता॥ ॐ जय लक्ष्मी माता….

अखण्ड सौभाग्य प्राप्ती का व्रत है करवा चौथ
08 अक्टूबर 2017 को करवा चौथ पर विशेष
रमेश सर्राफ
भारत देश एक धर्म प्रधान व आस्थावान देश हैं। यहां साल के सभी दिनो का महत्व होता है तथा साल का हर दिन पवित्र माना जाता है। भारत में करवा चौथ हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। यह भारत के राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और पंजाब का पर्व है। यह कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी को मनाया जाता है। इस वर्ष करवा चौथ का व्रत 8 अक्टूबर 2017 को रखा जाएगा। यह पर्व सुहागिन स्त्रियां मनाती हैं। यह व्रत सुबह सूर्योदय से पहले करीब 4 बजे के बाद शुरू होकर रात में चन्द्रमा दर्शन के बाद सम्पूर्ण होता है। ग्रामीण स्त्रियों से लेकर आधुनिक महिलाओं तक सभी नारियां करवाचौथ का व्रत बडी़ श्रद्धा एवं उत्साह के साथ रखती हैं।
शास्त्रों के अनुसार पति की दीर्घायु एवं अखण्ड सौभाग्य की प्राप्ति के लिए इस दिन भालचन्द्र गणेश जी की पूजा-अर्चना की जाती है। करवाचौथ में दिन भर उपवास रखकर रात में चन्द्रमा को अघ्र्य देने के उपरान्त ही भोजन करने का विधान है। वर्तमान समय में करवाचौथ व्रतोत्सव ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार में प्रचलित प्रथा के अनुसार ही मनाती हैं लेकिन अधिकतर स्त्रियां निराहार रहकर चन्द्रोदय की प्रतीक्षा करती हैं।
इस व्रत की विशेषता यह है कि केवल सौभाग्यवती स्त्रियों को ही यह व्रत करने का अधिकार है। स्त्री किसी भी आयु, जाति, वर्ण, संप्रदाय की हो, सबको इस व्रत को करने का अधिकार है। जो सुहागिन स्त्रियां अपने पति की आयु, स्वास्थ्य व सौभाग्य की कामना करती हैं वे यह व्रत रखती हैं। बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी पर शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा की स्थापना करें। मूर्ति के अभाव में सुपारी पर नाल बांधकर ईश्वर का स्मरण कर स्थापित करें। पश्चात यथाशक्ति देवों का पूजन करें। करवों में लड्डू का नैवेद्य रखकर नैवेद्य अर्पित करें। एक लोटा, एक वस्त्र व एक विशेष करवा दक्षिणा के रूप में अर्पित कर पूजन समापन करें। दिन में करवा चौथ व्रत की कथा पढ़ें अथवा सुनें।
सायंकाल चंद्रमा के उदित हो जाने पर चंद्रमा का पूजन कर अघ्र्य प्रदान करें। इसके पश्चात ब्राह्मण, सुहागिन स्त्रियों व पति के माता-पिता को भोजन कराएं। भोजन के पश्चात ब्राह्मणों को यथाशक्ति दक्षिणा दें। अपनी सासूजी को वस्त्र व विशेष करवा भेंट कर आशीर्वाद लें। यदि वे जीवित न हों तो उनके तुल्य किसी अन्य स्त्री को भेंट करें। इसके पश्चात स्वयं व परिवार के अन्य सदस्य भोजन करें।
यह व्रत 12 वर्ष तक अथवा 16 वर्ष तक लगातार हर वर्ष किया जाता है। अवधि पूरी होने के पश्चात इस व्रत का उद्यापन किया जाता है। जो सुहागिन स्त्रियां आजीवन रखना चाहें वे जीवनभर इस व्रत को कर सकती हैं। इस व्रत के समान सौभाग्यदायक व्रत अन्य कोई दूसरा नहीं है। अत: सुहागिन स्त्रियां अपने सुहाग की रक्षार्थ इस व्रत का सतत पालन करती है।
कार्तिक कृष्ण पक्ष की चंद्रोदय व्यापिनी चतुर्थी अर्थात उस चतुर्थी की रात्रि को जिसमें चंद्रमा दिखाई देने वाला है, उस दिन प्रात: स्नान करके अपने पति की आयु, आरोग्य, सौभाग्य का संकल्प लेकर दिनभर निराहार रहें। उस दिन भगवान शिव-पार्वती, स्वामी कार्तिकेय, गणेश एवं चंद्रमा का पूजन करें। पूजन करने के लिए बालू अथवा सफेद मिट्टी की वेदी बनाकर उपरोक्त वर्णित सभी देवों को स्थापित करें। शुद्ध घी में आटे को सेंककर उसमें शक्कर अथवा खांड मिलाकर नैवेद्य हेतु लड्डू बनाएं। काली मिट्टी में शक्कर की चासनी मिलाकर उस मिट्टी से तैयार किए गए मिट्टी के अथवा तांबे के बने हुए अपनी सामथ्र्य अनुसार 10 अथवा 13 करवे रखें।
करवाचौथ के बारे में व्रत करने वाली महिलाएं इस कहानी को सुनती है। एक बार पांडु पुत्र अर्जुन तपस्या करने नीलगिरी नामक पर्वत पर गए। इधर द्रोपदी बहुत परेशान थीं। उनकी कोई खबर न मिलने पर उन्होंने कृष्ण भगवान का ध्यान किया और अपनी चिंता व्यक्त की। कृष्ण भगवान ने कहा- बहना, इसी तरह का प्रश्न एक बार माता पार्वती ने शंकरजी से किया था। पूजन कर चंद्रमा को अघ्र्यव देकर फिर भोजन ग्रहण किया जाता है। सोने, चाँदी या मिट्टी के करवे का आपस में आदान-प्रदान किया जाता है, जो आपसी प्रेम-भाव को बढ़ाता है। पूजन करने के बाद महिलाएँ अपने सास-ससुर एवं बड़ों को प्रणाम कर उनका आशीर्वाद लेती हैं। तब शंकरजी ने माता पार्वती को करवा चौथ का व्रत बतलाया। इस व्रत को करने से स्त्रियाँ अपने सुहाग की रक्षा हर आने वाले संकट से वैसे ही कर सकती हैं जैसे एक ब्राह्मण ने की थी। प्राचीनकाल में एक ब्राह्मण था। उसके चार लडक़े एवं एक गुणवती लडक़ी थी।
एक बार लडक़ी मायके में थी, तब करवा चौथ का व्रत पड़ा। उसने व्रत को विधिपूर्वक किया। पूरे दिन निर्जला रही। कुछ खाया-पीया नहीं, पर उसके चारों भाई परेशान थे कि बहन को प्यास लगी होगी, भूख लगी होगी, पर बहन चंद्रोदय के बाद ही जल ग्रहण करेगी।
भाइयों से न रहा गया, उन्होंने शाम होते ही बहन को बनावटी चंद्रोदय दिखा दिया। एक भाई पीपल की पेड़ पर छलनी लेकर चढ़ गया और दीपक जलाकर छलनी से रोशनी उत्पन्न कर दी। तभी दूसरे भाई ने नीचे से बहन को आवाज दी- देखो बहन, चंद्रमा निकल आया है, पूजन कर भोजन ग्रहण करो। बहन ने भोजन ग्रहण किया।
भोजन ग्रहण करते ही उसके पति की मृत्यु हो गई। अब वह दु:खी हो विलाप करने लगी, तभी वहाँ से रानी इंद्राणी निकल रही थीं। उनसे उसका दु:ख न देखा गया। ब्राह्मण कन्या ने उनके पैर पकड़ लिए और अपने दु:ख का कारण पूछा, तब इंद्राणी ने बताया- तूने बिना चंद्र दर्शन किए करवा चौथ का व्रत तोड़ दिया इसलिए यह कष्ट मिला। अब तू वर्ष भर की चौथ का व्रत नियमपूर्वक करना तो तेरा पति जीवित हो जाएगा। उसने इंद्राणी के कहे अनुसार चौथ व्रत किया तो पुन: सौभाग्यवती हो गई। इसलिए प्रत्येक स्त्री को अपने पति की दीर्घायु के लिए यह व्रत करना चाहिए। द्रोपदी ने यह व्रत किया और अर्जुन सकुशल मनोवांछित फल प्राप्त कर वापस लौट आए। तभी से हिन्दू महिलाएं अपने अखंड सुहाग के लिए करवा चौथ व्रत करती हैं।
कहते हैं इस प्रकार यदि कोई मनुष्य छल-कपट, अहंकार, लोभ, लालच को त्याग कर श्रद्धा और भक्तिभाव पूर्वक चतुर्थी का व्रत को पूर्ण करता है, तो वह जीवन में सभी प्रकार के दुखों और क्लेशों से मुक्त होता है और सुखमय जीवन व्यतीत करता है।
भारत देश में वैसे तो चौथ माता जी के कही मंदिर स्थित है, लेकिन सबसे प्राचीन एवं सबसे अधिक ख्याति प्राप्त मंदिर राजस्थान राज्य के सवाई माधोपुर जिले के चौथ का बरवाड़ा गांव में स्थित है । चौथ माता के नाम पर इस गांव का नाम बरवाड़ा से चौथ का बरवाड़ा पड़ गया । चौथ माता मंदिर की स्थापना महाराजा भीमसिंह चौहान ने सम्वत् 1451 में करवायी थी ।

विजयदशमी के अवसर पर शस्त्र पूजा
(दशहरा पर विशेष)
– डा गणेश कुमार पाठक
हमारे देश में विजयादशमी के शुभ अवसर पर देवी पूजा के साथ-साथ शस्त्र पूजा की परंपरा भी कायम हैं। यह शस्त्र पूजा दशहरा के दिन ही क्यों की जाती है, इस संबंध में अनेक कथाएँ प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने हेतु नवरात्र व्रत किया था, ताकि उनमें शक्ति की देवी दुर्गा जैसी शक्ति आ जाए अथवा दुर्गा उनकी विजय में सहायक बनें। चूँकि दुर्गा शक्ति की देवी हैं और शक्ति प्राप्त करने हेतु शस्त्र भी आवश्यक है, अतऱ राम ने दुर्गा सहित शस्त्र पूजा कर शक्ति संपन्न होकर दशहरे के दिन ही रावण पर विजय प्राप्त की थी। तभी से नवरात्र में शक्ति एवं शस्त्र पूजा की परंपरा कायम हो गई। शस्त्र पूजा के कारण ही दशहरे को मुख्य रूप से क्षत्रियों का पर्व माना गया है, क्योंकि राम भी क्षत्रिय थे और ख़ास तौर पर प्राचीन भारतीय व्यवस्था में सुरक्षा एवं युद्ध का कार्य क्षत्रिय करते थे। इस प्रसंग से अन्य घटनाएँ भी जुड़ी हैं, जो शक्ति एवं शस्त्र पूजा की परंपरा को पुष्टि प्रदान करती हैं। ऐसी मान्यता है कि इंद्र भगवान ने दशहरे के दिन ही असुरों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत का युद्ध भी इसी दिन प्रारंभ हुआ था तथा पांडव अपने अज्ञातवास के पश्चात इसी दिन पांचाल आए थे, वहाँ पर अर्जुन ने धनुर्विद्या की निपुणता के आधार पर, द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। ये सभी घटनाएँ शस्त्र पूजा की परंपरा से जुड़ी हैं।
दशहरे के दिन शमी वृक्ष की पूजा भी की जाती है। इस सबंध में भी अनेक कथाएँ प्रचलित हैं।एक कथा के अनुसार जब राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने के लिए अज्ञातवासी अर्जुन ने अपने अज्ञातवास के दौरान शमी की कोटर में छिपाकर रखे अपने गांडीव धनुष को फिर से धारण किया, तो पांडवों ने शमी वृक्ष की पूजा कर गांडीव धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष का आभार प्रदर्शन किया, तभी से शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की पूजा भी होने लगी।
एक अन्य कथा के अनुसार एक बार राजा रघु के पास एक साधु दान प्राप्त करने हेतु आया। जब रघु अपने ख़जाने से धन निकालने गए, तो ख़जाना खाली पाया। फलतऱ रघु ाsधवश इंद्र पर चढ़ाई करने को तैयार हो गए। इंद्र ने रघु के डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परंपरा कायम हुई कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को अपनी पगड़ी में ले लेते हैं। शस्त्र पूजा की यह परंपरा भारत की रियासतों में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती रही हैं। रियासतों में शस्त्रों के साथ जुलूस निकाला जाता था। राजा विक्रमादित्य ने दशहरा के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना, पूजा की थी। छत्रपति शिवाजी ने भी इसी दिन देवी दुर्गा को प्रसन्न करके तलवार प्राप्त की थी, ऐसी मान्यता है। तभी से मराठा अपने शत्रु पर आमण की शुरुआत दशहरे से ही करते थे।
महाराष्ट में शस्त्र पूजा आज भी अत्यंत धूमधाम से होती हैं और इसे /सीलांगण एवं अहेरिया/ के नाम से पुकारा जाता है। अर्थात मराठे इस दिन अपने शस्त्रों की पूजा कर दसवें दिन /सीलांगण/ के लिए प्रस्थान करते थे। /सीलांगण/ का अर्थ होता है /सीमोल्लंघन/ अर्थात वे दूसरे राय की सीमा का उल्लंघन करते थे। इसमें सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा की जाती थी, उसके पश्चात पेशवा पूर्व निश्चित खेत में जाकर मक्का तोड़ते थे और तब वहाँ उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूट लेते थे। दशहरे के दिन एक विशेष दरबार भी लगाया जाता था, जिसमें बहादुर मराठों की पदोन्नति की जाती थीं। राजपूतों (राजपूताना) में भी सीलांगण प्रथा प्रचलित थी। किंतु /सीलांगण/ से पूर्व वे /अहेरिया/ करते थे अर्थात इस दिन वे शस्त्र एवं शमी वृक्ष की पूजा कर विजय के रूप में दूसरे राय का /अहेर/ करते थे। अर्थात शिकार मानकर आमण करते थे। साथ ही दुर्गा अथवा राम की मूर्ति को पालकी में रखकर जुलूस के रूप में सीमा पार करते थे। महिलाएँ भी इस अवसर पर पूजा करती हैं एवं व्रत रखती हैं।
जब सीमोल्लंघन वास्तविक युद्ध में बदल गया
सीमोल्लंघन की परंपरा कभी-कभी वास्तविक युद्ध का रूप ले लेती थी। सन 1434 में जब बूँदी एवं चित्तौड़गढ़ के राज परिवार इसी तरह /अहेरिया/ खेल रहे थे उसी दिन हांडा सेनाओं ने सिसौदिया सेनाओं पर धावा बोल दिया जिसमे राणा कुंभा को अपनी जान गँवानी पड़ी। इसी तरह की एक अन्य घटना अमरसिंह के समय हुई। अमरसिंह अपने पिता राणा प्रताप की मृत्यु के पश्चात 1550 में चित्तौड़ की गद्दी पर आसीन हुए थे। उन्होंने अपने पहले दशहरे पर /अहेरिया/ खेलने के बजाय उत्ताला दुर्ग में रुके मुगल सैनिकों के शिकार का प्रण किया, जिसमें उनके कई सरदार मारे गए। राजपूतों में आज भी /अहेरिया/ की परंपरा है। शस्त्र पूजा की परंपरा के अंतर्गत ही हैदराबाद, मैसूर, मध्य प्रदेश की रियासतें भी दशहरे के अवसर पर विशाल जुलूस निकालती थीं। विजयनगर साम्राय के कृष्णदेव राय के दशहरे एवं जुलूस का वर्णन तत्कालीन पुर्तगाली यात्री /पेई/ ने भी किया है। हैदर अली एवं टीपू सुलतान भी इस परंपरा को मनाते थे तथा इस दिन कुश्ती, मुक्केबाजी एवं हाथी दंगल आदि कार्यमों का आयोजन भी होता था। इस दिन भैसों की बलि भी दी जाती थी, जो महिषासुर वध का प्रतीक माना जाता था।
भारतीय सेना में भी शस्त्र पूजा
चूँकि वर्तमान समय में रियासती व्यवस्था समाप्त हो गई है। अतऱ शस्त्र पूजा की यह परंपरा अब उस रूप में नहीं मनाई जाती है, किंदु इसका स्थान हमारी सेनाओं ने ले लिया है। भारतीय सेना ने सभी रेजीमेंटों में शस्त्र पूजा अत्यंत ही धूमधाम से की जाती है। विशेष तौर पर जाट, राजपूत, मराठा, कुमाऊँ एवं गोरखा रेजीमेंट तो शस्त्र पूजा अत्यंत उल्लास एवं धूमधाम से करते हैं। नवरात्र से प्रारंभ कर दशहरे के दिन अर्थात 10 दिन तक सभी शस्त्रों की पूजा-अर्चना की जाती है। अंतिम दिन रात में 11 बजकर 56 सेकैंड पर देवी दुर्गा के लिए काले बकरे की बलि दी जाती है। इस दिन सेना में बड़ा खाना होता है। शस्त्र पूजा के साथ हमारे सैनिक पंडित के निर्देश से शमी वृक्ष की पूजा भी करते हैं। इस प्रकार आज भले ही रियासतों के रूप में शस्त्र पूजा की परंपरा कायम न हो, किंतु हमारी सेना के जवानों द्वारा की जानेवाली शस्त्र पूजा रियासतों के समय मनाई जानेवाली शस्त्र पूजा से कम नहीं हैं। इस दिन हमारे सैनिकों में एक नई शक्ति जागृत होती है, जो किसी भी शत्रु को कुचल देने में सक्षम हैं।

महादेवियों की विदाई का दिन
(नवरात्रि- दसवां दिन)
अमित व्यास
दुर्गायै दुर्गपारायै सारायै सर्वकारिण्यै। ख्यात्यै तथैव कृष्णायै धूम्रायै सततं नम।।
भगवती दुर्गा के जिन नौ रूपों की हम पूजा करते चले आ रहे थे आज का दिन महादेवियों की विदाई का है। इस तिथि को देवी पृथ्वी लोक से अपने धाम को चली जाती हैं यही कारण है कि इस तिथि को यात्रा के नाम से भी जाता है। चुंकि मां दुर्गा अपने समस्त योगिनियों एवं गणों के साथ आश्विन शुक्ल दशमी तिथि को यात्रा करती हैं अतऱ यह दिन शास्त्रो में यात्रा हेतु अत्यंत शुभ माना गया है। अगर आपको कहीं विशेष उद्देश्य से यात्रा पर निकलना हो तो इस दिन किसी भी पंडित अथवा योतिषी से मुहूर्त निकलवाने की आवश्यक्ता नहीं होती है। प्राचीन मान्यता के अनुसार दशमी तिथि को प्रातऱकाल निलकण्ठ नामक पंक्षी का दर्शन अति शुभ फलदायक होता है।
दशमी तिथि की ये कुछ खास बातें हुई आइये जानें कि इस दिन देवी पूजा का क्या विधान है। हम पहले ही यह बात कर चुके हैं कि यह दिन विदाई का है अतऱ भक्तगण का मन मां के लिए उदास रहता है फिर भी नियमानुसार विदाई तो करनी ही होती है। भक्तजनों को मां की विदाई करने से पूर्व अन्य दिनों की भांति पंचोपचार सहित कलश और उसमें स्थित देवी देवता की पूजा करनी चाहिए। फिर देवी के दोनों ओर स्थित देवी, देवताओं एवं योगिनियों की पूजा करनी चाहिए फिर मां अम्बे की पूजा करनी चाहिए।
दशमी तिथि को दुर्गा मां को जयन्ती चढ़ता है अत पूजा शुरू करने से पूर्व पवित्र हंसिये अथवा चाकू से जयन्ती काट लें। पूजा करते समय सभी देवी, देवताओं को जयन्ती चढ़ायें जयन्ती अर्पण करने का मंत्र इस प्रकार है ऊँ जयन्ती मंगला काली भद्रकाली कपालिनी। दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा, स्वधा नमोस्तुते।। पूजा के पश्चात जिस प्रकार प्रथम पूजा के दिन आपने देवी देवताओं का आह्वान किया था उसी म में उन्हें विदा करें। विदा करने के लिए हाथ में जल लेकर जो भी देवी देवता है उनका नाम लेकर यह मंत्र बोलें ऊँ भगवान का नाम पूजितोषि क्षमस्व स्वस्थानं गच्छ। ध्यान रखें देवी लक्ष्मी का विसर्जन नहीं करें उनके लिए यह मंत्र बोले सर्व सौभाग्य देहि में, देवी लक्ष्मी रमन्ते गृहे में।
जो जयन्ती पूजा के पश्चात बच जाए उसे परिवार एवं कुटुम्ब जनों के सिर पर आशीर्वाद सहित रखें। शांति कलश का जल लेकर अब आप उसमें रखें पंच पल्लवों से परिवार के सभी सदस्यों एवं घर आंगन में जल छिड़कें। इस समय आपको शांति मंत्र का पाठ करना चाहिए यह मंत्र है
स्वस्ति न इन्द्राs वृद्ध-श्रवाहा स्वस्ति नह पूषा विश्व-वेदाहा। स्वस्ति नह-ताक्ष-र्यो अरिष्ट-नेमि स्वस्ति नो बृहस्पतिहि-दधातु।। द्यौहो शन्ति-हि-अन्तरिक्ष शान्ति-&हि शान्तिहि-आपह शान्ति हि ओषधयह शान्तिहि। वनस-पतयह-शान्तिहि विश्वे देवाहा शान्तिहि ब्रह्म शान्तिहि
शान्ति हि एव शान्तिहि सा मा शान्ति हि- ऐधि।। यतो यतह समिहसे ततो न अभयम कुरु। शम नह कुरु प्रजाभ्योअभयम नह पशुभ्यहा।।
संध्या काल में देवी की प्रतिमा का पवित्र और गहरे जल में विसर्जन करें। इस समय मां से प्रार्थना करें कि हमारा आने वाला वर्ष शुभ और मंगलमय रहे हम आपकी पुनऱ इसी प्रकार पूजा अर्चना कर सकें। इस दिन भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने रावण का वध किया था अत इसे विजया दशमी के नाम से भी जाता हैं। आज भी असत्य पर सत्य की विजय के प्रतीक के रूप में देश के कई भागों में रावण वध होता है।
आप सभी के जीवन में मां भगवती दुर्गा और उनकी नौ प्रकृतियों की कृपा बनी रहे इस प्रर्थना और आशा के साथ दुर्गा पूजा के दस दिनों की महिमा यहीं समाप्त होती है।

अपने भक्तों को रिद्धि सिद्धि प्रदान करती हैं देवी सिद्धिदात्री
(नवरात्र-नवमां दिन)
अमित व्यास
दुर्गा पूजा का नवम दिन देवी सिद्धिदात्री की करें पूजा आठ रूप हैं मंगलकारी नवी सिद्धि देने वाली। नौ प्रकृति हैं मां दुर्गा की कहलाती हैं शेरावाली। शेरोंवाली मईया जगत के कल्याण हेतु नौ रूपों में प्रकट हुई और इन नौ रूपों में अंतिम रूप है देवी सिद्धिदात्री का । यह देवी प्रसन्न होने पर सम्पूर्ण जगत की रिद्धि सिद्धि अपने भक्तों को प्रदान करती हैं।
देवी सिद्धिदात्री का रूप अत्यंत सौम्य है। देवी की चार भुजाएं हैं दायी भुजा में माता ने च और गदा धारण किया है और मां की बांयी भुजा में शंख और कमल का फूल है। मां सिद्धिदात्री कमल आसन पर विराजमान रहती हैं, मां का एक अन्य वाहन है सिंह। देवी ने सिद्धिदात्री का यह रूप भक्तों पर अनुकम्पा बरसाने के लिए धारण किया है। देवतागण, ऋषि-मुनि, असुर, नाग, मनुष्य सभी मां के भक्त हैं। देवी जी की भक्ति जो भी हृदय से करता है मां उसी पर अपना नेह लुटाती हैं। मां का ध्यान करने के लिए आप सिद्धगन्धर्वयक्षाघरसुरैरमरैरपि।
सेव्यमाना सदा भूयात् सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।इस मंत्र से स्तवन कर सकते हैं।
अणिमा, महिमा,गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व और वशित्व ये आठ सिद्धियां हैं जिनका मार्कण्डेय पुराण में उल्लेख किया गया है । इसके अलावा ब्रह्ववैवर्त पुराण में अनेक सिद्धियों का वर्णन है जैसे 1. सर्वकामावसायिता 2. सर्वज्ञत्व 3. दूरश्रवण 4. परकायप्रवेशन 5. वाक्य सिद्धि 6. कल्पवृक्षत्व 7. सृष्टि 8. संहारकरणसामर्थय़ 9. अमरत्व 10 सर्वन्यायकत्व। कुल मिलाकर 18 प्रकार की सिद्धियों का हमारे शास्त्रों में वर्णन मिलता है। यह देवी इन सभी सिद्धियों की स्वामिनी हैं। इनकी पूजा से भक्तो को ये सिद्धियां हासिल होती हैं।
सिद्धियां हासिल करने के उद्देश्य से जो साधक भगवती सिद्धिदात्री की पूजा कर रहे हैं उन्हें नवमी के दिन निर्वाण च का भेदन करना चाहिए । दुर्गा पूजा में इस तिथि को विशेष हवन किया जाता है। हवन से पूर्व सभी देवी दवाताओं एवं माता की पूजा कर लेनी चाहिए। हवन करते वक्त सभी देवी दवताओं के नाम से हवि यानी अहुति देनी चाहिए। बाद में माता के नाम से अहुति देनी चाहिए। दुर्गा सप्तशती के सभी श्लोक मंत्र रूप हैं अतऱ आप सप्तशती के सभी श्लोक के साथ आहुति दे सकते हैं। समयाभाव में आप देवी के बीज मंत्र ऊ ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे नमो नमऱ से कम से कम 108 बार हवि दें। जिस प्रकार पूजा के म में भगवान शंकर और ब्रह्मा जी की पूजा सबसे अंत में होती है उसी प्रकार अंत में इनके नाम से हवि देकर कुटुम्ब परिवार के साथ आरती और क्षमा प्रार्थना करें।
हवन में जो भी प्रसाद आपने चढ़ाया है उसे बाटें और जब हवन की अग्नि ठंढ़ी हो जाए तो इसे पवित्र जल में विसर्जित कर दें अथवा भक्तों के में बॉट दें। यह भष्म रोग, संताप एवं ग्रह बाधा से आपकी रक्षा करता है एवं मन से भय को दूर रखता है।

आठवां स्वरूप हैं देवी गौरी का
(नवरात्रि आठवां दिन)
अमित व्यास
कालरात्रि सातवीं मूरत आठवी गौरा रूप। नवरूप धरा देवी ने करने जगत को अभिभूत।।
महादेवी महालक्ष्मी ने भक्तों के कल्याण हेतु जिन नौ रूपों में प्रकट हुई उनमें से आठवां स्वरूप हैं देवी गौरी का । दुर्गा सप्तशती में शुभ निशुम्भ से पराजित होकर गंगा के तट पर जिस देवी की प्रार्थना देवता गण कर रहे थे वह महागौरी हैं। देवी गौरी के अंश से ही कौशिकी का जन्म हुआ जिसने शुम्भ निशुम्भ के प्रकोप से देवताओं को मुक्त कराया। यह देवी गौरी शिव की पत्नी हैं यही शिवा और शाम्भवी के नाम से भी पूजित होती हैं। कथाओं में उल्लेख है कि जब देवी उमा शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए घोर तपस्या कर रही थी उस समय उनका वर्ण सांवला हो गया था।
एक बार भगवान भोलेनाथ ने शिवा के इस रूप को देखकर कुछ कह दिया जिससे देवी के मन को दुऱख पहुंचा और वे पुनऱ तपस्या में लीन हो गयी। शिव जी ने देवी उमा की तपस्या से प्रसन्न होकर उमा को गौर वर्ण का वरदान दिया। देवी उमा अर्थात् पार्वती गंगा के पवित्र जल में स्नान करके गौरी रूप में परिवर्तित हो गयीं। देवी की छटा निखरी हुई चांदनी के सामन स्वेत और कुन्द के फूल के समान धवल है। इनके वस्त्र और अभूषण भी स्वेत हैं। इस रूप में देवी कुरूणामयी, स्नेहमयी, शांत और मृदुल दिखती हैं।
देवी के इस रूप की प्रार्थना करते हुए देव और ऋषिगण कहते हैं सर्वमंगल मंग्ल्ये, शिवे सर्वार्थ साधिके। शरण्ये र्त्यम्बके गौरि नारायणि नमोस्तुते।
इस कथा से जुड़ी एक अन्य कथा है जिसमें कहा गया है कि एक सिंह काफी भूखा था, वह खाने की तलाश में वहां पहुंचा जहां देवी उमा तपस्या कर रही थीं। देवी को देखकर सिंह की भूख बढ़ गयी परंतु वह देवी के तपस्या से उठने का इंतजार करते हुए वहीं बैठ गया। इस इंतजार में वह काफी कम़जोर हो गया। देवी जब तप से उठी तो सिंह को देखकर उसपर उन्हें दया आ गयी और उसे अपना वाहन बना लिया क्योंकि एक प्रकार से उसने भी तपस्या की थी। इसलिए देवी गौरी का वाहन बैल और सिंह दोनों ही है।
महागौरी की चार भुजाएं हैं जिनमें ऊपर की दायीं भुजा अभय मुद्रा में हैं और नीचे वाली भुजा में त्रिशूल शोभता है। बायीं भुजा में ऊपर वाली में डमरू डम डम बज रही है और नीचे वाली भुजा से देवी गौरी भक्तों की प्रार्थना सुनकर वरदान दे रही है। जो स्त्री इस देवी की पूजा भक्ति भाव सहित करती हैं उनके सुहाग की रक्षा देवी स्वयं करती हैं। कुंवारी लड़की मां की पूजा करती हैं तो उसे योग्य पति प्राप्त होता है। पुरूष जो देवी गौरी की पूजा करते हैं उनका जीवन सुखमय रहता है देवी उनके पापों को जला देती हैं और शुद्ध अंतऱकरण देती हैं। मां अपने भक्तों को अक्षय आनन्द और तेज प्रदान करती हैं।
यूं तो नवरात्रे के दसों दिन कुवारी कन्या खिलाने का विधान है परंतु नवमी के दिन का विशेष महत्व है। इस दिन महिलाएं अपने सुहाग के लिए देवी मां को चुनरी चढ़ते हैं। देवी के साधक इस दिन सोमच का भेदन करते हैं।
देवी गौरी की पूजा का विधान भी पूर्ववत है अर्थात जिस प्रकार अभी तक आपने मां की पूजा की है उसी प्रकार नवमी के दिन भी देवी की पूजा करें। सिद्धगन्धर्वयक्षाद्यैरसुरैरमरैरपि। सेव्यामाना सदा भूयात सिद्धिदा सिद्धिदायिनी।। देवी का ध्यान करने के लिए दोनों हाथ जोड़कर इस मंत्र का उच्चारण करें।

सातवां रुप कालरात्रि का
(नवरात्रि-सातवां दिन)
अमित व्यास
कालरात्रिमर्हारात्रिर्मोहरात्रिर्श्च दारूणा। त्वं श्रीस्त्वमीर्श्वरी त्वं ह्रीस्त्वं बुद्धिर्बोधलक्षणा।।
मधु कैटभ नामक महापरामी असुर से जीवन की रक्षा हेतु भगवान विष्णु को निद्रा से जगाने के लिए ब्रह्मा जी ने इसी मंत्र से मां की स्तुति की थी। यह देवी कालरात्रि ही महामाया हैं और भग्वान विष्णु की योगनिद्रा हैं। इन्होंने ही सृष्टि को एक एक दूसरे से जोड़ रखा है।
दुर्गा सप्तशती के प्रधानिक रहस्य में बताया गया है कि जब देवी ने इस सृष्टि का निर्माण शुरू किया और ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश का प्रकटीकरण हुआ उसस पहले देवी ने अपने स्वरूप से तीन महादेवीयों को उत्पन्न किया। सर्वेश्वरी महालक्ष्मी ने ब्रह्माण्ड को अंधकारमय और तामसी गुणों से भरा हुआ देखकर सबसे पहले तमसी रूप में जिस देवी को उत्पन्न किया वह देवी ही कालरात्रि हैं। देवी कालरात्रि ही अपने गुण और कर्मों द्वारा महामाया, महामारी, महाकाली, क्षुधा, तृषा, निद्रा, तृष्णा, एकवीरा, एवं दुरत्यया कहलाती हैं।
देवी कालरात्रि का वर्ण काजल के समान काले रंग का है जो काले अमावस की रात्रि को भी मात देता है। मां कालरात्रि के तीन बड़े बड़े उभरे हुए नेत्र हैं जिनसे मां अपने भक्तों पर अनुकम्पा की दृष्टि रखती हैं। देवी की चार भुजाएं हैं दायीं ओर की ऊपरी भुजा से महामाया भक्तों को वरदान दे रही हैं और नीचे की भुजा से अभय का आशीर्वाद प्रदान कर रही हैं। बायीं भुजा में मशऱ तलवार और खड्ग मां ने धारण किया है। देवी कालरात्रि के बाल खुले हुए हैं और हवाओं में लहरा रहे हैं। देवी कालरात्रि गर्दभ पर सवार हैं । मां का वर्ण काला होने पर भी कांतिमय और अद्भुत दिखाई देता है। देवी कालरात्रि का यह विचित्र रूप भक्तों के लिए अत्यंत शुभ है अतऱ देवी को शुभंकरी भी कहा गया है।
देवी का यह रूप ऋद्धि सिद्धि प्रदान करने वाला है। दुर्गा पूजा का सातवां दिन तांत्रिक या की साधना करने वाले भक्तों के लिए अति महत्वपूर्ण होता है। सप्तमी पूजा के दिन तंत्र साधना करने वाले साधक मध्य रात्रि में देवी की तांत्रिक विधि से पूजा करते हैं। इस दिन मां की आंखें खुलती हैं। षष्ठी पूजा के दिन जिस विल्व को आमंत्रित किया जाता है उसे आज तोड़कर लाया जाता है और उससे मां की आंखें बनती हैं। दुर्गा पूजा में सप्तमी तिथि का काफी महत्व बताया गया है। इस दिन से भक्त जनों के लिए देवी मां का दरवाजा खुल जाता है और भक्तगण पूजा स्थलों पर देवी के दर्शन हेतु पूजा स्थल पर जुटने लगते हैं।
सप्तमी की पूजा सुबह में अन्य दिनों की तरह ही होती परंतु रात्रि में विशेष विधान के साथ देवी की पूजा की जाती है। इस दिन भांति भांति के मिष्टान एवं कहीं कहीं तांत्रिक विधि से पूजा होने पर मदिरा भी देवी को अर्पित किया जाता है। सप्तमी की रात को सिद्धियों की रात है के रूप में मान्यता प्राप्त है कुण्डलिनी जागरण हेतु जो साधक साधना में लगे होते हैं आज सहस्त्रसार च का भेदन करते हैं।
पूजा विधान में शास्त्रों में जैसा वर्णित हैं उसके अनुसार पहले कलश की पूजा करनी चाहिए फिर नवग्रह, दशदिक्पाल, देवी के परिवार में उपस्थित देवी देवता की पूजा करनी चाहिए फिर मां कालरात्रि की पूजा करनी चाहिए। देवी की पूजा से पहले उनका ध्यान करना चाहिए देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्तया, निश्शेषदेवगणशक्तिसमूहमूर्तय़ा। तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूयां, भक्त नताऱ स्म विदाधातु शुभानि सा न।। देवी की पूजा के बाद शिव और ब्रह्मा जी की पूजा भी अवश्य करनी चाहिए।

कामना पूरी करती है देवी कात्यायिनी
(नवरात्रि-छठवां दिन)
अमित व्यास
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते। स्वर्गापवर्गदे देवी कात्यायनी नमोस्तुते।
दुर्गा पजा के छठे दिन जिस देवी की पूजा का महात्मय है वह हैं देवी कात्यानी। देवी कात्यायिनी की जो व्यक्ति श्रद्धा भक्ति सहित पूजा करते देवी उनकी सभी प्रकार की कामना पूरी करती हें और व्यक्ति यश और सम्मान के साथ जीवन यापन करके अंत समय में देवी के लोक में स्थान प्राप्त करते हें।
देवी मां की महिमा के विषय में जानने से पहले आप मां के स्वरूप को अपनी आंखों में बसा लीजिए। कहा भी गया है कि निर्गुण रूप से सगुण ब्रह्म की उपासना आसान होती है इसिलए हमें भी मां के स्वरूप को अपने मन में बसा लेना चाहिए। देवी कात्यायनी का शरीर स्वर्ण के समान कांतिमय हैं। इनकी तीन आंखें हैं और चार भुजाएं हैं। देवी का ऊपर वाला हाथ अभय मुद्रा में हैं जो भक्तों के मन का भय दूर करने वाला और साहस प्रदान करने वाला है। नीचे वाला दायां हाथ भक्तों की मनोकामना पूर्ण करने हेतु वरदान की मुद्रा मे हैं। देवी के ऊपर वाले बायें हाथ में चमकता हुआ तलवार है जो शत्रुओं को नष्ट करने के लिए तत्पर है और नीचे वाले हाथ में कमल पुष्प देवी के हाथ में शोभा पा रहा है।
यह देवी ऋषि कात्यायन की तपस्या से प्रसन्न होकर उनके घर पुत्री रूप में प्रकट हुई इसलिए मां कात्यायनी के नाम से त्रिलोक में पूजित होती हैं देवी महातम्य में दुर्गा सप्तशती में जिस महान असुर महिषासुर के वध का वर्णन किया गया है उस महिषासुर का मर्दन करने वाली महिषासुरमर्दिनी भगवती देवी कात्यायनी है । देवताओं को महिषासुर के प्रकोप से मुक्त कराने के लिए देवों के तेज से जिस महादेवी का प्रकटीकरण हुआ था वह देवी यही हैं। यह देवी ही सर्वेश्वरी हैं, महामाया है यही जगत के उद्धार के लिए नाना रूप धारण करती हैं। इनका वाहन सिंह है।
दुर्गा पूजा का छठा दिन अति महत्वपूर्ण माना जाता है। इसदिन माता की आंखों के लिए बेल के फल को निमंत्रण दिया जाता है अर्थात उनकी पूजा की जाती है और उनसे कहा जाता है की मां ने आंखों की ज्योति के लिए आपको चुना है जिसे सप्तमी पूजा के दिन पेड़ से तोड़कर लाया जाता है और उससे मां की आंखें बनती है। इस दिन योग साधक आज्ञा चक्र की साधना करते हैं और इस च का भेदन कर कुण्डलिनी जागरण की दिशा में आगे बढ़ते हैं।
देवी कात्यायनी की पूजा शुरू करने से पहले कलश स्थित देवी दवताओं की पूजा करनी चाहिए फिर माता की प्रतिमा के दोनों ओर स्थित लक्ष्मी, गणेश, जया फिर कार्तिकेय, सरस्वती एवं विजया नामक योगिनी की पूजा करनी चाहिए। इनकी पूजा के पश्चात महिषासुरमर्दिनी भगवती कात्यायनी की पूजा करनी चाहिए। मॉ की पूजा शुरू करते हुए सबसे पहले हाथों में फूल लेकर इस मंत्र से मां का ध्यान करना चाहिए चन्द्रहासोवलकरा शार्दूलवरवाहना। कात्यायनी शुभं दघाद्देवी दानवघातिनी ध्यान के बाद पंचोपचार सहित देवी की पूजा और आरती कीजिए। देवी की पूजा के बाद विधान के अनुसार महादेव और ब्रह्मा की पूजा करें। कहा गया है जो देवी कात्यायनी की पूजा श्रद्ध भक्ति सहित करता है उसकी हर कामना पूरी होती है। देवी के भक्त को रोग, दोष छू नहीं पाता और जीवन आनन्दमय रहता है।

भगवती की शक्ति माता स्कन्ध
(नवरात्रि – पांचवां दिन)
अमित व्यास
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये स्कन्दमाता नमोस्तु ते।। छान्दोग्य श्रुति के अनुसार भगवती की शक्ति से उत्पन्न सनतकुमार का एक अन्य नाम स्कन्द भी है।
भगवान स्कन्द की माता होने के कारण देवी स्कन्द माता के नाम से जानी जाती हैं दुर्गा पूजा के पांचवे दिन देवताओं के सेनापति कुमार कार्तिकेय की माता की पूजा होती है। कुमार कार्तिकेय को ग्रंथों में सनतकुमार, स्कन्द कुमार के नाम से पुकारा गया है। माता इस रूप में पूर्णतऱ ममता लुटाती हुई ऩजर आती हैं। माता का पांचवा रूप शुभ्र अर्थात स्वेत है। माता की चार भुजाएं हैं और ये कमल आसन पर विराजमान हैं। जब अत्याचारी दानवों का अत्याचार बढ़ता है तब माता संत जनों की रक्षा के लिए सिंह पर सवार होकर दुष्टों का अंत करती हैं। देवी रकन्दमाता की चार भुजाएं हैं, माता अपने दो हाथों में कमल का फूल धारण करती हैं और एक साथ से सहारा देकर अपनी गोद में कुमार कार्तिकेय को लिये बैठी हैं। मां का चौथा हाथ भक्तो को आशीर्वाद देने की मुद्रा मे है।
देवी स्कन्द माता ही हिमालय की पुत्री पार्वती है इन्हें ही माहेश्वरी और गौरी के नाम से जाना जाता है। यह देवी पर्वत की पुत्री होने से पार्वती कहलाती हैं, महादेव की वामिनी यानी पत्नी होने से माहेश्वरी कहलाती हैं और अपने गौर वर्ण के कारण देवी गौरी के नाम से पूजित होती हैं। माता को अपने पुत्र से अधिक प्रेम होता है अतऱ मां को अपने पुत्र के नाम के साथ सम्बोधित किया जाना अच्छा लगता है। जो भक्त माता के इस स्वरूप की पूजा करते है मां उस पर अपने पुत्र के समान नेह लुटाती है। कुण्डलिनी जागरण के उद्देश्य से जो साधक दुर्गा मां की उपासना कर रहे हैं उनके लिए दुर्गा पूजा का यह दिन विशुद्ध च की साधना का होता है। इस च का भेदन करने के लिए साधक को पहले मां की विधि सहित पूजा करनी चाहिए। पूजा के लिए कुश अथवा कम्बल के पवित्र आसन पर बैठकर पूजा प्रया उसी प्रकार से शुरू करना चाहिए जैसे आपने अबतक के चार दिनों में किया है फिर इस मंत्र से देवी की प्रार्थना करनी चाहिए सिंहासनगता नित्यं पद्माश्रितकरद्वया। शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी।। अब आप पंचोपचार विधि से देवी स्कन्दमाता की पूजा कीजिए। देवी की पूजा के पश्चात शिव शंकर और ब्रह्मा जी की पूजा करनी चाहिए यही शास्त्रोक्त नियम है।
नवरात्रे की पंचमी तिथि को कहीं कहीं भक्त जन उद्यंग ललिता का व्रत भी रखते हैं इस व्रत को फलदायक कहा गया है। जो भक्त देवी स्कन्द माता की भक्ति-भाव सहित पूजन करते हैं उसे देवी की कृपा प्राप्त होती है। देवी की कृपा से भक्त की मुराद पूरी होती है और घर में सुख, शांति एवं समृद्धि रहती है।

देवी कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री
(नवरात्रि – चौथा दिन)
अमित व्यास
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवी कूष्मांडा नमोस्तु ते।। देवी महात्मय के प्रधानिक रहस्य में जिस महालक्ष्मी देवी से आदि देव और महादेवियों का जन्म हुआ उस महाशक्ति भगवती का एकीकृत रूप है नवदुर्गा।
मां दुर्गा के नव रूपों में चौथा रूप है कुष्मांडा देवी का दुर्गा पूजा के चौथे दिन हमें इसी देवी की उपासना करनी चाहिए। दुर्गा सप्तशती के कवच में लिखा है कुत्सितऱ ऊष्मा कूष्मा-त्रिविधतापयुत-संसार स अण्डे मांसपेश्यामुदररूपायां यस्याऱ सा कूष्मांडा। इसका अर्थ है वह देवी जिनके उदर में त्रिविध तापयुक्त संसार स्थित है वह कूष्माण्डा हैं। देवी कूष्माण्डा इस चराचार जगत की अधिष्ठात्री हैं । जब सृष्टि की रचना नहीं हुई थी उस समय अंधकार का साम्राय था। देवी कुष्मांडा जिनका मुखमंड सैकड़ो सूर्य की प्रभा से प्रदिप्त है उस समय प्रकट हुई उनके मुख पर बिखरी मुस्कुराहट से सृष्टि की पलकें झपकनी शुरू हो गयी और जिस प्रकार फूल में अण्ड का जन्म होता है उसी प्रकार कुसुम अर्थात फूल के समान मां की हंसी से सृष्टि में ब्रह्मण्ड का जन्म हुआ अतऱ यह देवी कूष्माण्डा के रूप में विख्यात हुई इस देवी का निवास सूर्यमण्डल के मध्य में है और यह सौर मंडल को अपने संकेत से नियंत्रित रखती हैं।
देवी कूष्मांडा अष्टभुजा से युक्त हैं अतऱ इन्हें देवी अष्टभुजा के नाम से भी जाना जाता है। देवी अपने इन हाथों में मशऱ कमण्डलु, धनुष, बाण, कमल का फूल, अमृत से भरा कलश, च तथा गदा है। देवी के आठवें हाथ में बिजरौंके (कमल फूल का बीज) का माला है है, यह माला भक्तों को सभी प्रकार की ऋद्धि सिद्धि देने वाला है। देवी अपने प्रिय वाहन सिंह पर सवार हैं। जो भक्त श्रद्धा पूर्वक इस देवी की उपासना दुर्गा पूजा के चौथे दिन करता है उसके सभी प्रकार के कष्ट रोग, शोक का अंत होता है और आयु एवं यश की प्राप्ति होती है। जो साधक कुण्डलिनी जागृत करने की इच्छा से देवी अराधना में समर्पित हैं उन्हें दुर्गा पूजा के चौथे दिन माता कूष्माण्डा की सभी प्रकार से विधिवत पूजा अर्चना करनी चाहिए फिर मन को अनहत में स्थापित करने हेतु मां का अशीर्वाद लेना चाहिए और साधना में बैठना चाहिए। इस प्रकार जो साधक प्रयास करते हैं उन्हें भगवती कूष्माण्डा सफलता प्रदान करती हैं जिससे व्यक्ति सभी प्रकार के भय से मुक्त हो जाता है और मां का अनुग्रह प्राप्त करता है।
दुर्गा पूजा के चौथे दिन देवी कूष्माण्डा की पूजा का विधान उसी प्रकार है जिस प्रकार देवी ब्रह्मचारिणी और चन्द्रघंटा की पूजा की जाती है। इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी देवता की पूजा करें फिर माता के परिवार में शामिल देवी देवता की पूजा करें जो देवी की प्रतिमा के दोनों तरफ विरजामन हैं। इनकी पूजा के पश्चात देवी कूष्माण्डा की पूजा करेऱ पूजा की विधि शुरू करने से पहले हाथों में फूल लेकर देवी को प्रणाम कर इस मंत्र का ध्यान करें सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च। दधाना हस्तपद्माभ्यां कूष्माण्डा शुभदास्तु मे।। देवी की पूजा के पश्चात महादेव और परम पिता की पूजा करनी चाहिए। श्रीहरि की पूजा देवी देवी लक्ष्मी के साथ ही करनी चाहिए इस अवसर पर देवी को कुम्हर चढ़ाने का विधान है। कुम्हर को देश के अन्य भागों में लोग अलग अलग नाम से जानते हैं कहीं लोग इसे पेठा कहते हैं तो कहीं घीया कहते हैं।

चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय (नवरात्रि-तीसरा दिन) 
अमित व्यास
पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकै र्युता। प्रसादं तनुते मह्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता।।
यह देवी चन्द्रघंटा का ध्यान मंत्र है। दुर्गा पूजा के तीसरे दिन आदिशक्ति दुर्गा के तीसरे रूप की पूजा होती है। मां का तीसरा रूप चन्द्रघंटा का है। देवी चन्द्रघण्टा भक्त को सभी प्रकार की बाधाओं एवं संकटों से उबारने वाली हैं। इस दिन का दुर्गा पूजा में विशेष महत्व बताया गया है। चन्द्रघंटा देवी का स्वरूप तपे हुए स्वर्ण के समान कांतिमय है। चेहरा शांत और सौम्य एवं मुखरे पर सूर्यमंडल की आभा छिटक रही है। अपने इस रूप से माता देवगण, संतों एवं भक्त जन के मन को संतोष एवं प्रसन्न प्रदान कर रही हैं। मां चन्द्रघंटा अपने प्रिय वाहन सिंह पर आरूढ़ होकर अपने दस हाथों में खड्ग, तलवार, ढाल, गदा, पाश, त्रिशूल, च, धनुष, भरे हुए तरकश लिए मंद मंद मुस्कुरा रही हैं। माता का ऐसा अद्भूत रूप देखकर ऋषिगण मुग्ध हैं और वेद मंत्रों द्वारा देवी चन्द्रघंटा की स्तुती कर रहे हैं।
इस समय माता के सिर पर अर्ध चन्द्रमा मंदिर के घंटे के आकार में सुशोभित हो रहा जिसके कारण देवी का नाम चन्द्रघंटा हो गया है । भक्त जन को इस देवी की वंदना करते हुए कहना चाहिए या देवी सर्वभूतेषु चन्द्रघंटा रूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमऱ।। जिस देवी ने चन्द्रमा को अपने सिर पर घण्टे के सामान सजा रखा है उस महादेवी, महाशक्ति चन्द्रघंटा को मेरा प्रणाम है, बारम्बार प्रणाम है। इस प्रकार की स्तुति एवं प्रार्थना करने से देवी चन्द्रघंटा की प्रसन्नता प्रप्त होती है।
देवी चन्द्रघंटा की भक्ति से आध्यात्मिक और आत्मिक शक्ति प्राप्त होती है । जो व्यक्ति इस देवी की श्रद्धा एवं भक्ति भाव सहित पूजा करता है उसे मां की कृपा प्राप्त होती है जिससे वह संसार में यश, कीर्ति एवं सम्मान प्राप्त करता है। मां के भक्त के शरीर से अदृश्य उर्जा का विकिरण होता रहता है जिससे वह जहां भी होते हैं वहां का वातावरण पवित्र और शुद्ध हो जाता है, उस सथान से भूत, प्रेत एवं अन्य प्रकार की सभी बाधाएं दूर हो जाती है।
जो साधक योग साधना कर रहे हैं उनके लिए यह दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि इस दिन कुण्डलनी जागृत करने हेतु स्वाधिष्ठान च से एक च आगे बढ़कर मणिपूरक च का अभ्यास करते हैं। इस च पर मंगल ग्रह का प्रभाव रहता है। इस देवी की पंचोपचार सहित पूजा करने के बाद उनका आशीर्वाद प्राप्त कर योग का अभ्यास करने से साधक को अपने प्रयास में आसानी से सफलता मिलती है।
तीसरे दिन की पूजा का विधान भी लगभग उसी प्रकार है जो दूसरे दिन की पूजा का है। इस दिन भी आप सबसे पहले कलश और उसमें उपस्थित देवी-देवता, तीर्थों, योगिनियों, नवग्रहों, दशदिक्पालों, ग्रम एवं नगर देवता की पूजा अराधना करें फिर माता के परिवार के देवता, गणेश , लक्ष्मी , विजया , कार्तिकेय , देवी सरस्वती, एवं जया नामक योगिनी की पूजा करें फिर देवी चन्द्रघंटा की भांति भांति से पूजा अर्चना करें। देवी की पूजा के पश्चात भगवान शंकर और ब्रह्मा की पूजा करें। पूजा विधान पर विशेष जानकारी दुर्गा पूजा का दूसरा दिन में दिया गया है जिसे देखने के लिए क्लिक करें।
ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो व्यक्ति सुख समृद्धि की कामना से दुर्गा पूजा करते हैं वे देवी लक्ष्मी देवी की पूजा के साथ भगवान श्री हरि विष्णु की पूजा भी अवश्य करें।

(नवरात्रि-दूसरा दिन) देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण ज्योतिर्मय
अमित व्यास
या देवी सर्वभूतेषु ब्रह्मचारिणी रूपेण संस्थिता, नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम आदि शक्ति माता महामाया भगवती दुर्गा का दूसरा स्वरूप है ब्रह्मचारिणी का।
देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप उनके नामनुसार ही तपस्विनी जैसा है। माता के इस रूप एवं उनकी भक्ति के मार्ग पर जब हम आगे बढ़ रहे हैं तो आइये मईया की महिमा का गुणगान करें।
देवी ब्रह्मचारिणी का स्वरूप पूर्ण योर्तिमय है। यह देवी शांत और निमग्न होकर तप में लीन हैं। मुख पर कठोर तपस्या के कारण अद्भुत तेज और कांति का ऐसा अनूठा संगम है जो तीनों लोको को प्रदिप्त कर रहा है। देवी ब्रह्मचारिणी के दाहिने हाथ में अक्ष माला है और बायें हाथ में कमण्डलु है। यह देवी साक्षात् ब्रह्म का स्वरूप है अर्थात तपस्या का मूर्तिमान रूप हैं। इस देवी के कई अन्य नाम हैं जैसे तपश्चारिणी, अपर्णा और उमा माता ब्रह्मचारिणी हिमालय और मैना की पुत्री हैं। इन्होंने देवर्षि नारद जी के कहने पर भगवान शंकर की ऐसी कठोर तपस्या की जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने इन्हें मनोवांछित वरदान दिया जिसके फलस्वरूप यह देवी भगवान भोले नाथ की वामिनी अर्थात पत्नी बनी। जो व्यक्ति अध्यात्म और आत्मिक आनन्द की कामना रखते हैं उन्हें इस देवी की पूजा से सहज से यह सब प्राप्त होता है। देवी का दूसरा स्वरूप योग साधक को साधना के केन्द्र के उस सूक्ष्मतम अंश से साक्षात्कार करा देता है जिसके पश्चात व्यक्ति की ऐन्द्रियां अपने नियंत्रण में रहती और साधक मोक्ष का भागी बनता है।
इस देवी की प्रतिमा की पंचोपचार सहित पूजा करके जो साधक स्वाधिष्ठान च में मन को स्थापित करता है उसकी साधना विफल नहीं जाती है और व्यक्ति की कुण्डलनी शक्ति जागृत हो जाती है। दुर्गा पूजा में नवरात्रे के नौ दिनों तक देवी धरती पर रहती हैं अतऱ यह साधना का अत्यंत सुन्दर और उत्तम समय होता है। इस समय जो व्यक्ति भक्ति भाव एवं श्रद्धा से दुर्गा पूजा के दूसरे दिन मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करते हैं उन्हें सुख, आरोग्य की प्राप्ति होती है। देवी ब्रह्मचारिणी का भक्त जीवन में सदा शांतचित्त और प्रसन्न रहता है, उसे किसी प्रकार का भय नहीं सताता है।
इस देवी की पूजा का विधान इस प्रकार है, सबसे पहले आपने जिन देवी-देवताओ एवं गणों व योगिनियों को कलश में आमत्रित किया है उनकी फूल, अक्षत, रोली, चंदन, से पूजा करें उन्हें दूध, दही, शर्करा, घृत, व मधु से स्नान करायें व देवी को जो कुछ भी प्रसाद अर्पित कर रहे हैं उसमें से एक अंश इन्हें भी दें। प्रसाद के पश्चात आचमन और फिर पान, सुपारी भेट कर इनकी प्रदक्षिणा करें। कलश देवता की पूजा के पश्चात इसी प्रकार नवग्रह, दशदिक्पाल, नगर देवता, ग्राम देवता, की पूजा करें। इनकी पूजा के पश्चात मॉ ब्रह्मचारिणी की पूजा करें।
देवी की पूजा करते समय सबसे पहले एक फूल लेकर प्रार्थना करें दधाना करपद्माभ्यामक्षमालाकमण्डलू। देवी प्रसीदतु मयि ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा।। इसके पश्चात् देवी को पंचामृत स्नान करायें और फिर भांति भांति से फूल, अक्षत, कुमकुम, सिन्दुर, अर्पित करें देवी को अरूहूल का फूल (लाल रंग का एक विशेष फूल) व कमल काफी पसंद है उनकी माला पहनायें। प्रसाद और आचमन के पश्चात् पान सुपारी भेंट कर प्रदक्षिणा करें और घी व कपूर मिलाकर देवी की आरती करें। अंत में क्षमा प्रार्थना करें आवाहनं न जानामि न जानामि वसर्जनं, पूजां चैव न जानामि क्षमस्व परमेश्वरी।।
जिस भोले शंकर को पति रूप में प्राप्त करने के लिए माता ने महान व्रत किया उस महादेव की पूजा भी आदर पूर्वक करें क्योंकि इनकी पूजा न होने से देवी की कृपा नहीं मिलती है। दक्ष प्रजापति द्वारा शिव की उपेक्षा के कारण माता ने पूर्व जन्म में स्वयं को अग्नि में समर्पित कर दिया और किसी भी देवता ने प्रजापति का प्रसाद ग्रहण नहीं किया जिससे उन्हें महान दोष लगा अतऱ देवी की प्रसन्नता हेतु शिव जी पूजा आवश्यक कहा गया है।
सबसे अंत में ब्रह्मा जी के नाम से जल, फूल, अक्षत, सहित सभी सामग्री हाथ में लेकर ऊँ ब्रह्मणे नमऱ कहते हुए सामग्री भूमि पर रखें और दोंनों हाथ जोड़कर सभी देवी देवता को प्रणाम करें।

नवग्रहों की पीड़ा से मुक्ति दिलाती है देवी अराधना
देवी दुर्गा की आराधना न केवल मनुष्यों को जीवन की कठिनाइयों से बचाती है, बल्कि सुख-संपत्ति भी प्रदान करती हैं। इसीलिए देवी दुर्गा में नवग्रहों का वास माना गया है। शास्त्रों का मत है कि नवरात्रि के समय दुर्गा पूजा और आराधना करने से नवग्रहों की पीड़ा से मुक्ति मिलती है, ग्रह अनुकूल होते हैं और दैहिक, दैविक और भौतिक तापों से रक्षा होती है। देवी के मुख्य तीन स्वरूप बताए गए हैं दुर्गा, सरस्वती और लक्ष्मी। मध्य में गुर्राते हुए सिंह पर विराजित होती हैं देवी दुर्गा, उनके बाएं ओर देवी सरस्वती और दाएं ओर लक्ष्मी का स्थायी है। दुर्गा के बाएं ओर नीचे के भाग में कुमार और दाएं ओर गणपति का स्थान है। उन्हें अपने त्रिशूल से महिसासुर नामक राक्षस का वध करते हुए दिखाया जाता है। साथ ही राक्षस को डंसते हुए एक सर्प भी है। देवी में साक्षात नवग्रहों का वास देवी दुर्गा की मुख्य प्रतिमा सुनहरे पीले रंग की होती है जो सूर्य का प्रतीक है और मनुष्य को आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करती है। देवी दुर्गा का वाहन श्वेत सिंह चंद्रमा का प्रतीक है। सिंह का खुला मुंह राहु और सिंह की पूंछ केतु की प्रतीक है। भगवान गणेश सिद्धि और बुद्धि के दाता हैं जो ग्रह बुध का प्रतिनिधित्व करते हैं। देव सेना के सेनापति भगवान कुमार मंगल के प्रतीक हैं। देवी लक्ष्मी में बृहस्पति का वास है जो सुख, समृद्धि और प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं। सरस्वती शुक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं जिसका संबंध संगीत, कला से है। राक्षस को काटते हुए सर्प शनि का प्रतीक है, जो जहर के समान है। देवी दुर्गा की साधना में मंत्रों का बड़ा महत्व है। दुर्गा साधना में मन के साथ तन की शुद्धता भी अत्यंत आवश्यक होती है। दुर्गा मंत्र के माध्यम से नवग्रह को प्रसन्न करने के लिए ऊं ह्रीं दुं दुर्गायै नमः मंत्र का नवरात्रि में आठ हजार बार जाप करें। इससे ग्रह बाधा दूर होती है और मानसिक सुख शांति प्राप्त होती है।

डोल ग्यारस पर्व की मान्यता और महत्व
(डोल ग्यारस के अवसर पर विशेष)
डॉ ज्योति पटेल
हमारा देश धर्म और आस्था को केंद्र है, इसलिए यहां हर पर्व और त्यौहार पूरे विधिविधान के साथ मनाया जाता है। हिन्दू धार्मिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार डोल ग्यारस पर्व भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को मनाया जाता है। कहा जाता है कि इसी दिन भगवान विष्णु करवट बदलते हैं अत: इसे ‘परिवर्तनी एकादशी’ भी कहा जाता है। यही नहीं बल्कि यह एकादशी ‘पद्मा एकादशी’ और ‘जलझूलनी एकादशी’ के नाम से भी मनाई जाती है। इस दिन व्रत करने का भी विशेष महत्व है। कहा जाता है कि जो इस दिन व्रत करते हैं उन्हें वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है। ऐसे विशेष महत्व वाले डोल ग्यारस का पर्व भादौ मास के शुक्ल पक्ष के 11वें दिन मनाया जाता है। कथानुसार कृष्ण जन्म के 11वें दिन माता यशोदा ने उनका जलवा पूजन किया था। इसलिए इसी दिन ‘डोल ग्यारस’ मनाया जाता है। गौरतलब है कि जलवा पूजन के बाद ही संस्कारों का प्रारंभ होता है। भगवान श्रीकृष्ण को जुलूस के साथ इसी दिन डोल में बिठाकर घुमाया जाता है। हर्षोल्लास के साथ भगवान राधा-कृष्ण की नयनाभिराम झांकियां भी सजाई जाती हैं और सुसज्जित डोल निकाले जाते हैं। भगवान कृष्ण के बालरूप का जलवा पूजन माता यशोदा करती हैं और इसी दिन उन्होंने बालगोपाल कृष्ण को नए वस्त्र पहनाकर सूरज देवता के दर्शन करवाए थे और उनका नामकरण किया था। इसी दिन भगवान कृष्ण का आगमन गोकुल में हुआ था जिसका जश्न मनाया जाता है। उसी की याद में देश के अनेक हिस्सों में मेले एवं झांकियों का आयोजन किया जाता है। अनेक कृष्ण मंदिरों में नाट्य-नाटिका का आयोजन भी धूम-धाम से किया जाता है। राजस्थान में डोल ग्यारस को ‘जलझूलनी एकादशी’ के नाम से मनाया जाता है। इस दिन गणपति पूजा, गौरी स्थापना की जाती है। इस अवसर पर यहां मेलों का आयोजन भी किया जाता है। संगीतमय मेलों में ढोलक और मंजीरों की आबाज से श्रद्धालु भक्ति में डूबते चले जाते हैं। यहां देवी-देवताओं की मूर्तियों और प्रतिमाओं को नदी एवं तालाब के किनारे ले जाया जाता है जहां उनकी पूजा-अर्चना की जाती है इसके बाद सायंकाल इन मूर्तियों को वापस लाया जाता है। भक्तजन भजन, कीर्तन, गीत गाते हुए शोभायात्राएं निकालते हैं और खुशियां मनाते हैं। इस प्रकार डोल ग्यारस भक्तों और आस्थावानों के लिए खुशियां मनाने का और भक्तिभाव में डूबे रहने का दिन होता है।

जैन दस लक्षण – उत्तम मार्दव – करें मान का मर्दन।
विजय कुमार जैन
जीवन के विकास के लिये अहं का विसर्जन अनिवार्य है। मार्दव धर्म हमें यही सन्देश देता है। मार्दव धर्म का अर्थ है – अहंकार का अभाव, विनम्रता का सद्भाव। आखिर ये अहंकार है क्या ? ”अहं करोमीति अहंकार:” मैं कुछ करता हूँ यह भाव ही अहंकार है। आज हर व्यक्ति अपने आपको जगत का कर्ता मानकर चलता है। वह कर्तव्य, भोक्तृत्व और स्वामित्व की बुद्धि में जीता है। इस बुद्धि में ग्रसित होने के कारण वह जगत के सारे कार्यों को अपने ऊपर आरोपित कर लेता है। मेरे बिना कुछ हो ही नहीं सकता। बस यही अहंकार है।
एक बार एक बैलगाड़ी चल रही थी उसके नीचे कुत्ता चल रहा था, बैलगाड़ी को बैल खींच रहे थे, मगर कुत्ता कह रहा था कि बैलगाड़ी को मैं ही खींच रहा हूँ। कुत्ता अपने अभिमान में फूल रहा था। अहंकारी व्यक्ति की कुछ ऐसी ही प्रकृति होती हैं। मैं ही सबको चलाता हूँ। मेरे बिना कुछ हो ही नहीं सकता। व्यक्ति सामान्य बनकर जीवन यापन पसंद नहीं करता, वह कुछ विशेष चाहता है। यही भाव अंहकार को जन्म देता है। आज आदमी अपने आपको मैं तक सीमित नहीं रखता। वह स्वयं को विशेषणों के साथ प्रस्तुत करता हैं। मैं धनी हूँ, मैं ज्ञानी हूँ, मैं नेता हूँ, मैं मंत्री हूँ, मैं अधिकारी हूँ, मेरी कार हैं, मेरा बंगला है, मेरी फेक्ट्री है, ऐश्वर्य है, पद है, प्रतिष्ठा है। सन्त कहते हैं, यह मैं और मेरापन ही जिसे अध्यात्म की भाषा में अहंकार और ममकार कहते हैं, जीवन में दुखों का सबसे बड़ा कारण है। आज हर आदमी अपने अहं की पुष्टि में पागल है। वह चाहता है कि दुनिया का सबसे बड़ा आदमी बन जाऊँ। सन्त कहते हैं बड़ा आदमी बनकर क्या करोगें ? भले आदमी बन जाओ तुम्हारा उद्धार हो जायेगा। आज जो बड़ा आदमी बनने की कोशिश में है, वह किसी पद और प्रतिष्ठा को पाने में लगा है। धन, वैभव, पद और प्रतिष्ठा ही आदमी के बड़ा होने के प्रतिमान बनकर रह गये हैं। जिसके पास जितना अधिक धन, वैभव, पद और प्रतिष्ठा हो दुनिया में वह उतना ही बड़ा आदमी माना जाता है। दुनिया की नजरों में वह भले ही बड़ा आदमी हो पर परमार्थत: नहीं। व्यक्ति को अहंकार या मद अनेक प्रकार का होता है। कुल/जाति मद, रूप मद, ऐश्वर्य मद, बल मद, ज्ञान मद, तप मद, धन मद में मदमस्तक होकर व्यक्ति सब कुछ स्वयं को ही मान रहा है। विश्व विजेता सिकन्दर जब इस दुनिया से विदा हुआ तो उसने पहले ही कह दिया था कि जब मेरा जनाजा निकले तो मेरे दोनों हाथ बाहर रखना ताकि यह दुनिया देख ले कि मैं खाली हाथ जा रहा हूँ। मैं-मैं की रटना लगाने वाले अनेक लोग इस दुनिया से चले गये, उसके बाद भी किसी का काम नहीं रूका। संसार के जितने भी क्रियाकलाप है, सब अपने-अपने नियमों के अनुरूप होते रहते हैं। किसी के रोके कुछ रूकता नहीं और किसी के किये कुछ होता नहीं। हम एक-दूसरे के लिये निमित्त हो सकते हैं, पर कर्ता नहीं। अहंकार को त्यागने के लिये विश्व व्यवस्था में अपनी भूमिका को समझने की आवश्यकता है। जगत में जो कुछ भी घटित होता है, उसमें पूरी प्रकृति की भागीदारी है। हम तो उसके एक घटक मात्र है। घटक तो घटक होता है, कार्य का जनक नहीं। प्रत्येक घटक समान है इस समानता की प्रतीति ही ”मार्दव धर्म” है।
वस्तुत: धन, वैभव, पद-प्रतिष्ठा आदि जितने भी बाहा संयोग है वे सभी नश्वर। क्षण-क्षयी आदि उन पर अहंकार करना हमारी अज्ञानता हैं बाहा संयोगों पर अहंकार करने की अपेक्षा उन्हें क्षणिक जानकार आत्मा के शाश्वत स्वरूप का ध्यान करना चाहिये। आत्मसत्ता का भान होते ही अहंकार विगलित होने लगता है। मार्दव धर्म का मात्र यही संदेश है कि हम बाहा संयोगों के प्रति बढ़ते हुए अभिमान को नष्ट करें, आत्मा के स्वरूप को समझें और जीवन में विनम्रता को विकसित करें।

ऋषि पंचमी की पूजा और व्रत
(ऋषि पंचमी 26 अगस्त पर विशेष)
– ज्योति पटेल
धार्मिक त्यौहार और पूजा-पाठ का मानवजीवन में विशेष प्रभाव होता है। इसलिए भारतीय समाज धार्मिक व्रत एवं पूजा-पाठ को विशेष महत्व देता है। ऐसा ही महत्वपूर्ण दिवसों में ऋषि पंचमी का दिन भी है। पौराणिक ग्रन्थ बताते हैं कि भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की पंचमी ऋषि पंचमी के नाम से पहचानी जाती है। ऋषि पंचमी का यह पर्व स्त्री और पुरूष दोनों के लिए ही समानरुप से फलदायक होती है। इसलिए दोनों को ही इस दिन व्रत और पूजा-पाठ करनी चाहिए। इस समय का व्रत समस्त पापों को नष्ट करने वाला और अभी फल देने वाला होता है। इस व्रत में माँ अरून्धती और सप्त ऋषियों का पूजन किया जाता है, ऋषि पचंमी की यह पूजा प्रदोष काल में की जाती है। इस व्रत में एक पान पर सात ऋषियों की आकृति बनायी जाती है। दूसरे पान पर माँ अरून्धती की आकृति बनायी जाती है। इस प्रकार षोडस उपचार से सप्त ऋषियों का पूजन किया जाता है। कथा श्रवण की जाती है, भोग लगाया जाता है, इस व्रत में पसाईधान के चावल और कच्चे दूध की खीर बनाई जाती है, जिसका भोग लगाया जाता है। इस प्रकार से यह व्रत समस्त मनोकामनाएँ पूरी करने वाला और दीर्घायु प्रदान करने वाला होता है।
ऋषि पंचमी का व्रत जाने अनजाने में हुए पापों के प्रक्षालन के लिए स्त्री पुरूष दोनो को करना चाहिए। व्रत करने वाले को गंगा नदी या किसी अन्य नदी अथवा तालाब में स्नान करना चाहिए। यदि सम्भव न हो तो घर के पानी में गंगाजल मिलाकर स्नान करना चाहिए। तत्पश्चात गोबर से लीपकर मिट्टी या तांबे का जल भरा कलश रखकर अष्टदल कमल बनावे और माँ अरून्धती सहित सप्त ऋषियों का पूजन कर कथा सुने तथा ब्राह्मण को भोजन करवाकर स्वयं भोजन करें। ऐसा इस व्रत का माहात्म्य है, जो कि सब पापों को हरने वाला और मोक्ष प्रदान करने वाला व्रत है।
ऋषि पंचमी कथा: सिताश्व नाम के राजा ने एक बार ब्रह्माजी से पूछा हे पितामह सब से श्रेष्ठ और तुरन्त फ़ल देने वाला व्रत कौन सा है? राजा के सवाल पर पितामह ने उन्हें बताया कि ऋषि पंचमी का व्रत सब व्रतों में श्रेष्ठ है, और जल्दी से सभी पापों का नाश करने वाला है, तब ब्रह्माजी ने कहा कि विदर्भ देश में एक उत्तंक नामक सदाचारी ब्राह्मण रहता था, उसकी पत्नी सुशीला बडी पतिव्रता थी, उसके एक पुत्र एवं एक पुत्री थी उसकी पुत्री विवाहोपरान्त विधवा हो गई दुखी ब्राह्मण दम्पत्ति कन्या सहित गंगातट पर कुटिया बनाकर रहने लगा उत्तंक को समाधि में पता चला कि उसकी पुत्री पूर्व जन्म में रजस्वला होने पर भी बर्तनों को छू लेती थी। इससे इसके शरीर में कीडे पड़ गए, उनके द्वारा ही इसके पति की मौत हुई है। धर्म शास्त्रों में मान्यता है कि पहले दिन स्त्री रजस्वला होने पर चाण्डालिनी दूसरे दिन ब्रह्मघातिनी तथा तीसरे दिन धोबिन के समान अपवित्र होती है, चौथे दिन वह स्नान करने के बाद शुद्ध होती है। यदि वह शुद्ध मन से ऋषि पंचमी का व्रत करे तो वह इन पापो से मुक्त हो सकती है, पिता की आज्ञा से उसकी पुत्री ने विधि पूर्वक व्रत किया व्रत के प्रभाव से वह दुखों से मुक्त हुई और उसका अगला जन्म अटल सौभाग्यपूर्ण हुआ। इस प्रकार यह व्रत पापों से मुक्त कर उत्तम फल प्रदान करने वाला होता है। इसे दोनों ही को बराबर से रखना चाहिए।

भारतीय धर्मों में सर्वोपरि गणेश उत्सव
(गणेश उत्सव पर विशेष)
– महेशकुमार शाह
भारत त्योहार प्रधान, धार्मिक आस्था और भाईचारे की भावना प्रधान, आध्यात्मिक देश है। हर दिन, हर सप्ताह, हर महीने कोई न कोई व्रत, त्योहार यहाँ मनाया जाता है, जिसकी वजह से मनुष्य कुछ हद तक अपने पर नियंत्रण कर लेता, अंकुश लगा पाता, संयम रख लेता है। उसकी स्वयं की उन्नति होती है, विश्वास बढ़ता, मनोबल विकसित होता है और समाज में व्याप्त बुराइयों, कमजोरियों से बचा रहता है और सारे माहौल में भी उमंग, उत्साह रहता है एवं जीवन से नीरसता खत्म हो जाती है। आज गणेशोत्सव सारे विश्व में बड़े ही हर्ष एवं आस्था के साथ मनाया जाने लगा है। घर-घर में गणेशजी की पूजा होने लगी है। लोग मोहल्लों, चौराहों पर गणेशजी की स्थापना, आरती, पूजा करते हैं। बड़े जोरों से गीत बजाते, प्रसाद बाँटते एवं अनंत चतुर्दशी के दिन गणेशजी की मूर्ति को विधिवत किसी समुद्र, नदी या तालाब में विसर्जित कर अपने घरों को लौट आते हैं। गणेशजी का महत्व भारतीय धर्मों में सर्वोपरि है। उन्हें हर नए कार्य, हर बाधा या विघ्न के समय बड़ी उम्मीद से याद किया जाता है और दु:खों, मुसीबतों से छुटकारा पाया जाता है। गणेशजी हमें कई सारी शिक्षाएँ देते हैं। तो आइए, हम भी अपने जीवन में उन शिक्षाओं को अपनाएँ।
सर्वप्रथम उनकी विशालकाय आकृति हमें सबक सिखाती है कि हमें सदैव सतर्क रहना चाहिए व हर परिस्थिति, कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए और नई-नई बातों को जिज्ञासावश सीखना-समझना चाहिए। गणेशजी की छोटी-छोटी आँखें हमें एकाग्रता एवं अपने लक्ष्य की ओर ही ध्यान देने की सीख देती हैं। गणेशजी के बड़े-बड़े कान हमें यह शिक्षा देते हैं कि आप दूसरों की बातों को यादा सुनो जो आजकल मैनेजमेंट विषय का मूल सिद्धांत है। उनका बड़ा पेट सबक देता है कि आप दूसरों की बातों की गोपनीयता, बुराइयों, कमजोरियों को अपने में समा लो, उसे फैलाओ नहीं, इधर-उधर न करो। गणेशजी का छोटा मुख सिखाता है कि कम बोलो, धीरे बोलो, मीठा बोलो। उनका विशाल मस्तक हमें जीवन में श्रेष्ठ और सकारात्मक विचार करने की प्रेरणा देता है। गणेशजी का वाहन मूषक (चूहा), जिसे उन्होंने नियंत्रित करके रखा, हमें सबक देता है कि जीवन में से चंचलता, दूसरों की बुराई, छिद्रान्वेषण की प्रवृत्ति को खत्म करें। उपरोक्त महत्व अर्थ को ध्यान में रखकर हम इस वर्ष गणेश उत्सव मनाएँ।
– विघ्नहर्ता से सुधर सकते हैं वास्तुदोष
वास्तु पुरुष की प्रार्थना पर ब्रह्माजी ने वास्तुशास्त्र के नियमों की रचना की थी। इनकी अनदेखी करने पर उपयोगकर्ता की शारीरिक, मानसिक, आर्थिक हानि होना निश्चित रहता है। वास्तुदेवता की संतुष्टि गणेशजी की आराधना के बिना अकल्पनीय है।
गणपतिजी का वंदन कर वास्तुदोषों को शांत किए जाने में किसी प्रकार का संदेह नहीं है। नियमित गणेशजी की आराधना से वास्तु दोष उत्पन्न होने की संभावना बहुत कम होती है। यदि घर के मुख्य द्वार पर एकदंत की प्रतिमा या चित्र लगाया गया हो तो उसके दूसरी तरफ ठीक उसी जगह पर दोनों गणेशजी की पीठ मिली रहे इस प्रकार से दूसरी प्रतिमा या चित्र लगाने से वास्तु दोषों का शमन होता है। भवन के जिस भाग में वास्तु दोष हो उस स्थान पर घी मिश्रित सिन्दूर से स्वस्तिक दीवार पर बनाने से वास्तु दोष का प्रभाव कम होता है। घर या कार्यस्थल के किसी भी भाग में वतुण्ड की प्रतिमा अथवा चित्र लगाए जा सकते हैं। किन्तु यह ध्यान अवश्य रखना चाहिए कि किसी भी स्थिति में इनका मुँह दक्षिण दिशा या नैऋत्य कोण में नहीं होना चाहिए। सुख, शांति, समृद्धि की चाह रखने वालों के लिए सफेद रंग के विनायक की मूर्ति, चित्र लगाना चाहिए।
सर्व मंगल की कामना करने वालों के लिए सिन्दूरी रंग के गणपति की आराधना अनुकूल रहती है। विघ्नहर्ता की मूर्ति अथवा चित्र में उनके बाएँ हाथ की और सूँड घुमी हुई हो इस बात का ध्यान रखना चाहिए। दाएँ हाथ की ओर घुमी हुई सूँड वाले गणेशजी हठी होते हैं तथाउनकी साधना-आराधना कठिन होती है। वे देर से भक्तों पर प्रसन्न होते हैं। मंगल मूर्ति को मोदक एवं उनका वाहन मूषक अतिप्रिय है। अत चित्र लगाते समय ध्यान रखें कि चित्र में मोदक या लड्डू और चूहा अवश्य होना चाहिए।
घर में बैठे हुए गणेशजी तथा कार्यस्थल पर खड़े गणपतिजी का चित्र लगाना चाहिए, किन्तु यह ध्यान रखें कि खड़े गणेशजी के दोनों पैर जमीन का स्पर्श करते हुए हों। इससे कार्य में स्थिरता आने की संभावना रहती है। भवन के ब्रह्म स्थान अर्थात केंद्र में, ईशान कोण एवं पूर्व दिशा में सुखकर्ता की मूर्ति अथवा चित्र लगाना शुभ रहता है। किन्तु टॉयलेट अथवा ऐसे स्थान पर गणेशजी का चित्र नहीं लगाना चाहिए जहाँ लोगों को थूकने आदि से रोकना हो। यह गणेशजी के चित्र का अपमान होगा।
– सर्वग्रह शांति के लिए गणेश आराधना
गजाननजी को योतिष शास्त्र में बुध ग्रह से संबद्ध किया जाता है। इनकी उपासना नवग्रहों की शांतिकारक व व्यक्ति के सांसारिक-आध्यात्मिक दोनों तरह के लाभ की प्रदायक है। अथर्वशीर्ष में इन्हें सूर्य व चंद्रमा के रूप में संबोधित किया है। सूर्य से अधिक तेजस्वी प्रथम वंदनदेव हैं। इनकी रश्मि चंद्रमा के सदृश्य शीतल होने से एवं इनकी शांतिपूर्ण प्रकृति का गुण शशि द्वारा ग्रहण करके अपनी स्थापना करने से वतुण्ड में चंद्रमा भी समाहित हैं। पृथ्वी पुत्र मंगल में उत्साह का सृजन एकदंत द्वारा ही आया है।
बुद्धि, विवेक के देवता होने के कारणबुध ग्रह के अधिपति तो ये हैं ही, जगत का मंगल करने, साधक को निर्विघ्नता पूर्ण कार्य स्थिति प्रदान करने, विघ्नराज होने से बृहस्पति भी इनसे तुष्ट होते हैं। धन, पुत्र, ऐश्वर्य के स्वामी गणेशजी हैं, जबकि इन क्षेत्रों के ग्रह शु हैं। इस तथ्य से आप भी यह जान सकते हैं कि शु में शक्ति के संचालक आदिदेव हैं। धातुओं व न्याय के देव हमेशा कष्ट व विघ्न से साधक की रक्षा करते हैं, इसलिए शनि ग्रह से इनका सीधा रिश्ता है। गणेशजी के जन्म में भी दो शरीर का मिलाप (पुरुष व हाथी) हुआ है। इसी प्रकार राहु-केतु की स्थिति में भी यही स्थिति विपरीत अवस्था में है अर्थात गणपति में दो शरीर व राहु-केतु के एक शरीर के दो हिस्से हैं।
इसलिए ये भी गणपतिजी से संतुष्ट होते हैं। गणेशजी की स्तुति, पूजा, जप, पाठ से ग्रहों की शांति स्वमेव हो जाती है। किसी भी ग्रह की पीडा में यदि कोई उपाय नहीं सूझे अथवा कोई भी उपाय बेअसर हो तो आप गणेशजी की शरण में जाकर समस्या का हल पा सकते हैं। विघ्न, आलस्य, रोग निवृत्ति एवं संतान, अर्थ, विद्या, बुद्धि, विवेक, यश, प्रसिद्धि, सिद्धि की उपलब्धि के लिए चाहे वह आपके भाग्य में ग्रहों की स्थिति से नहीं भी लिखी हो तो भी विनायकजी की अर्चना से सहज ही प्राप्त हो जाती है।
– कर्मकाण्ड व गणपति
लम्बोदर के प्रमुख चतुर्वर्ण हैं। सर्वत्र पूय सिंदूर वर्ण के हैं। इनका स्वरूप व फल सभी प्रकार के शुभ व मंगल भक्तों को प्रदान करने वाला है। नीलवर्ण उच्छिष्ट गणपति का रूप तांत्रिक या से संबंधित है। शांति और पुष्टि के लिए श्वेत वर्ण गणपति की आराधना करना चाहिए। शत्रु के नाश व विघ्नों को रोकने के लिए हरिद्रागणपति की आराधना की जाती है। गणपतिजी का बीज मंत्र गं है। इनसे युक्त मंत्र- ? गं गणपतये नम का जप करने से सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। षडाक्षर मंत्र का जप आर्थिक प्रगति व समृद्धि प्रदायक है।
– वतुंडाय हुम्
किसी के द्वारा नेष्ट के लिए की गई या को नष्ट करने के लिए, विविध कामनाओं की पूर्ति के लिए उच्छिष्ट गणपति की साधना करना चाहिए। इनका जप करते समय मुँह में गुड़, लौंग, इलायची, पताशा, ताम्बुल, सुपारी होना चाहिए। यह साधना अक्षय भंडार प्रदान करने वाली है। इसमें पवित्रता-अपवित्रता का विशेष बंधन नहीं है।
-उच्छिष्ट गणपति का मंत्र
– हस्ति पिशाचि लिखे स्वाहा
आलस्य, निराशा, कलह, विघ्न दूर करने के लिए विघ्नराज रूप की आराधना का यह मंत्र जपें –
गं क्षिप्रप्रसादनाय नमऱ
विघ्न को दूर करके धन व आत्मबल की प्राप्ति के लिए हेरम्ब गणपति का मंत्र जपें –
-’ गूं नम
रोजगार की प्राप्ति व आर्थिक वृद्धि के लिए लक्ष्मी विनायक मंत्र का जप करें-
– श्रीं गं सौभ्याय गणपतये वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।
विवाह में आने वाले दोषों को दूर करने वालों को त्रैलोक्य मोहन गणेश मंत्र का जप करने से शीघ्र विवाह व अनुकूल जीवनसाथी की प्राप्ति होती है-
– वतुण्डैक दंष्टाय क्लीं ह्रीं श्रीं गं गणपते वर वरद सर्वजनं मे वशमानय स्वाहा।
इन मंत्रों के अतिरिक्त गणपति अथर्वशीर्ष, संकटनाशन गणेश स्तोत्र, गणेशकवच, संतान गणपति स्तोत्र, ऋणहर्ता गणपति स्तोत्र, मयूरेश स्तोत्र, गणेश चालीसा का पाठ करने से गणेशजी की कृपा प्राप्त होती है।

गणेश चतुर्थी का महत्व
– अमित व्यास
हिन्दु धर्म के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी भगवान श्री गणेश के जन्मोत्सव के रूप में संपूर्ण भारत वर्ष में बडे हर्षोल्लास के साथ मनायी जाती है, यह चतुर्थी श्रद्धा और भक्ति की प्रेरक है, पौराणिक वेदो के अनुसार कहा जाता है, कि इस दिन भगवान गणेश जी का जन्म हुआ था उन्ही के जन्म स्वरूप हर नगर में, राज्य में तथा देश के कई प्रान्तों में भगवान गणेश जी की प्रतिमा बैठायी जाती है, और उनकी भक्ति का गुणगान किया जाता है, हर नगर में, हर प्रान्त में सुंदर झाकियाँ बनायी जाती है, भगवान गणेश बुद्धि और ज्ञान के दाता है, इस तिथि पर भगवान गणेश जी की आराधना करना बडा श्रेष्कर रहता है, भगवान गणेश सव देवों में सर्व पूजनीय प्रथम देव है, किसी भी कार्य को करने से पहले भगवान गणेश की पूजा अर्चना की जाती है, भगवान गणेश विघ्नहरण मंगल दायक है, भगवान गणेश जी को मोदक अति प्रिय है, श्री गणेश पुराण के अनुसार गणेश जी को 21 दूर्वा चढाना अति फलदायक होता है, अति पावन यह गणेश चतुर्थी भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनायी जाती है, यह तिथि सर्व श्रेष्ठ मानी गई है, इस प्रकार सर्व देवों में गणेश जी को ही प्रथम देव गणपति नामों से अलंकृत किया गया है।
गणेश चतुर्थी का विधान :-
भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्थी गणेश चतुर्थी के नाम से प्रसिद्ध है, इस दिन प्रातकाल स्नानादि से निवृत होकर सोना, तांबा, चांदी मिट्टी या गोबर से गणेश की मूर्ति बनाकर उसकी पूजा करनी चाहिए पूजने के समय इक्कीस मोदकों का भोग लगाते है, तथा हरित दूर्वा के इक्कीस अंकुर लेकर यह दस नाम लेकर चढाने चाहिये- ऊँ गताप नम ऊँ गोरीसुमन नम, ऊँ अघनाशक नम, ऊँ एक दन्ताय नम, ऊँ ईश पुत्र नम,ऊँ सर्वसिद्धिप्रद नम ऊँ विनायक नम, ऊँ कुमार गुरु नम, ऊँ इम्भववक्त्राय नम, ऊँ मूषकवाहन संत नम, तत्पश्चात इक्कीस लड्डुओं में दस लड्डू ब्राह्मणों को दान देना चाहिए और ग्यारह लड्डू स्वयं खाने चाहिये ऐसा इस क्रत का विधान है, कि जो मनुष्य सच्चे श्रद्धा भक्ति भाव से भगवान गणेश जी की आराधना करता है, तो उसके समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं, और उसे अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है।
गणेश चतुर्थी की कथा :-
एक बार भगवान शंकर स्नान करने के लिए भोगावती नामक स्थान पर गए उनके चले जाने के पश्चात पार्वती ने अपने मैल से एक पुतला बनाया जिसका नाम उन्होने गणेश रखा गणेश को मुदगर देकर द्वार पर बैठा दिया और कहा कि जब तक मै स्नान करूं किसी भी पुरूष को अन्दर मत आने देना। भोगावती पर स्नान करने के बाद जब भगवान शंकर वापस आये तो गणेशजी ने उन्हे द्वार पर ही रोक दिया और क्रुद्ध होकर भगवान शंकर ने उनका सिर धड से अलग कर दिया और अन्दर चले गए तब पार्वती जी ने समझा कि भोजन में बिलम्ब होने से शंकरजी नाराज है, उन्होने फ़ौरन दो थालियों में भोजन परोस कर शंकरजी को भोजन के लिए बुलाया शंकरजी ने दो थालियों को देखकर पूछा कि यह दूसरा थाल किसके लिए है, पार्वती ने जबाब दिया कि यह दूसरा थाल पुत्र गणेश के लिए है, जो बाहर पहरा दे रहा है, यह सुनकर शंकर जी ने कहा कि मैने तो उसका सिर धड से अलग कर दिया है, यह सुनकर पार्वती जी को बहुत दु:ख हुआ और प्रिय पुत्र गणेश को जीवित करने की प्रार्थना करने लगी तब शंकरजी ने तुरन्त पैदा हुए हाथी के बच्चे का सिर काटकर बालक के धड से जोड दिया तब पार्वती जी ने प्रसन्नता पूर्वक पति पुत्र को भोजन कराकर स्वयं भोजन किया यह घटना भाद्रपद शुक्ल पक्ष चतुर्थी को हुई थी, इसलिए इस तिथि का नाम गणेश चतुर्थी रखा गया।

6 से 20 सितंबर के बीच गया में लगेगा पितृपक्ष मेला
हिंदू धर्म में पितरों की आत्मा की शांति और मुक्ति के लिए गया में पिंडदान को एक अहम कर्मकांड माना जाता है। बिहार का गया इसके लिए सर्वोत्तम स्थान माना गया है। इस वर्ष (6 से 20 सितंबर) के बीच गया में पितृपक्ष मेला लगने जा रहा है। इस मेले में आने वाले देश और विदेश के श्रद्घालुओं के लिए बिहार राज्य पर्यटन विकास निगम ने टूर पैकेज की ऑनलाइन बुकिंग शुरू की है। भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष के 15 दिन को ‘पितृपक्ष’ कहा जाता है। इस पखवाड़े में लोग अपने पूर्वजों के मृतात्माओं की मुक्ति के लिए यहां आकर पिंडदान करते हैं, यही कारण है कि गया को ‘मोक्ष की भूमि’ भी कहा जाता है।
पंडितों के अनुसार पितृपक्ष यानी महालया में कर्मकांड की विधियां और विधान अलग-अलग हैं। श्रद्घालु एक दिन, तीन दिन, सात दिन, 15 दिन और 17 दिन का कर्मकांड करते हैं। इस दौरान पूर्वजों की मृत्युतिथि पर श्राद्ध किया जाता है।
शास्त्रों की मान्यता है कि पितृपक्ष में पूर्वजों को याद कर किया जाने वाला पिंडदान सीधे उन तक पहुंचता है और उन्हें सीधे स्वर्ग तक ले जाता है। माता-पिता और पुरखों की मृत्यु के बाद उनकी तृप्ति के लिए श्रद्घापूर्वक किए जाने वाले इसी कर्मकांड को पितृ श्राद्घ कहा जाता है।
गया आने वाले पिंडदानियों के लिए कई तरह के पैकेज की घोषणा की गई है। बिहार पर्यटन विकास निगम के अनुसार गया में इस साल छह से 20 सितंबर के बीच पितृपक्ष मेला होगा। इस मौके पर पिंडदान करने की परंपरा है। पिंडदान करने वालों के लिए विशेष टूर पैकेज जारी किया गया है, जिससे ऑनलाइन बुकिंग कराई जा सकती है। इससे समय और धन व्यर्थ नहीं जाता और सुगमता से सभी कार्य होते हैं।

व्रत रखने से मिलता है फल
सनातन धर्म में सप्ताह के सारे दिन किसी न किसी भगवान को समर्पित हैं। जिस तरह से सोमवार का दिन भगवान शिवजी का और मंगलवार का दिन हनुमान जी का है। उसी तरह से बुधवार को भगवान गणेश की पूजा की जाती है और उनके लिए व्रत रखा जाता है। ज्योतिषियों के मुताबिक व्रत रखने से भगवान खुश होते हैं। आज हम आपके लिए लाए हैं बुधवार के व्रत की कथा। व्रत रखने वाले लोगों को इस दिन यह कथा सुननी होती है।
प्राचीन काल की बात है एक व्यक्ति अपनी पत्नी को लेने के लिए ससुराल गया। कुछ दिन अपने ससुराल में रुकने के बाद व्यक्ति ने अपने सास-ससुर से अपनी पत्नी को विदा करने को कहा लेकिन सास-ससुर ने कहा कि आज बुधवार है और इस दिन हम गमन नहीं करते हैं लेकिन व्यक्ति ने उनकी बात को मानने से साफ इनकार कर दिया। आखिरकार लड़की के माता-पिता को अपने दामाद की बात माननी पड़ी और अपनी बेटी को साथ भेज दिया। रास्ते में जंगल था, जहां उसकी पत्नी को प्यास लग गई। पति ने अपना रथ रोका और जंगल से पानी लाने के लिए चला गया। थोड़ी देर बाद जब वो वापस अपनी पत्नी के पास लौटा तो देखकर हैरान हो गया कि बिल्कुल उसी के जैसा व्यक्ति उसकी पत्नी के पास रथ में बैठा था।
ये देखकर उसे गुस्सा आ गया और कहा कि कौन है तू और मेरी पत्नी के पास क्यों बैठा है। लेकिन दूसरे व्यक्ति को जवाब सुनकर वो हैरान रह गया। व्यक्ति ने कहा कि मैं अपनी पत्नी के पास बैठा हूं। मैं इसे अभी अपने ससुराल से लेकर आया हूं। अब दोनों व्यक्ति झगड़ा करने लगे। इस झगड़े को देखकर राज्य के सिपाहियों ने दोनों को गिरफ्तार कर लिया।
यह सब देखकर व्यक्ति बहुत निराश हुआ और कहा कि हे भगवान, ये कैसा इंसाफ है, जो सच्चा है वो झूठा बन गया है और जो झूठा है वो सच्चा बन गया है। ये कहते है कि फिर इसके बाद आकाशवाणी हुई कि ‘हे मूर्ख आज बुधवार है और इस दिन गमन नहीं करते हैं। तूने किसी की बात नहीं मानी और इस दिन पत्नी को ले आया।’ ये बात सुनकर उसे समझ में आया की उसने गलती कर दी। इसके बाद उसने बुधदेव से प्रार्थना की कि उसे क्षमा कर दे।
इसके बाद दोनों पति-पत्नि नियमानुसार भगवान बुध की पूजा करने लग गए। ज्योतिषियों के मुताबिक जो व्यक्ति इस कथा को याद रखता उसे बुधवार को किसी यात्रा का दोष नहीं लगता है और उसे सभी प्रकार के सुखों की प्राप्ति होती है। बुधवार के दिन अगर कोई व्यक्ति किसी नए काम की शुरुआत करता है तो उसे भी शुभ माना जाता है।

भादों में करें ध्रर्म के अनुसार आचरण
मंगलवार आठ अगस्त से हिंदू पंचांग का छठा माह भाद्रपद अर्थात भादो प्रारंभ हो गया है। सनातन धर्म के अनुसार भाद्रपद माह चातुर्मास के चार पवित्र महीनों में से दूसरा महीना है। इसलिए इसमें कुछ नियमों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। भाद्रपद माह की पूर्णिमा सदैव पूर्वा या उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में पड़ती है तथा आकाशगंगा में पूर्वा भाद्रपद अथवा उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र के योग बनने से इस माह का नाम भाद्रपद व भादो रखा गया है। भाद्रपद महीने में सनातन धर्म के अनेक पर्व आते हैं। जिनमें जन्माष्टमी, गणेशोत्सव व तीज मुख्य हैं। भादो मास में पड़ने वाले इन विशिष्ट उत्सवों ने सदियों से भारतीय धर्म परम्पराओं और लोक संस्कृति सभी और फैली है।
भाद्रपद माह में स्नान, दान तथा व्रत करने से जन्म-जन्मान्तर के पाप नाश हो जाते हैं। भादो में अनेक लोक व्यवहार के कार्य निषेध होने के कारण यह माह शून्य मास भी कहलाता है। भादो में नए घर का निर्माण, विवाह, सगाई आदि मांगलिक कार्य शुभ नहीं माने जाते, इसलिए भादो में भक्ति, स्नान-दान के लिए उत्तम समय माना गया है। इस दौरान जमीन पर ही सोना चाहिय और संयमित जीवन व्यतीत करना चाहिये।
भाद्रपद माह धार्मिक तथा व्यावहारिक नजरिए से जीवनशैली में संयम और अनुशासन को अपनाना दर्शाता है। इसलिए इसमें कुछ नियमों का पालन करना अनिवार्य बताया गया है। शास्त्रनुसार भाद्रपद माह में कुछ कार्य निषेद्ध हैं तथा कुछ खाद्य सामाग्री पर भी वर्जना बताई गयी है। भादो में हरी शाक सब्जियों के अलावा शहद गुड, तिल, दही और नारियल के तेल का सेवन नहीं करना चाहिये। वहीं दूध , घी और मक्खन का अधिक से अधिक सेवन लाभ कारी रहता है।
भादों में पड़ने वाली तीज का महिलाओं को इंतजार रहता है। हिन्दू धर्म में चार प्रकार की तीज मनायी जाती है। जि‍समें अखा तीज, हरि‍याली तीज, कजरी, और हर‍िताल‍िका तीज शाम‍िल है। इस दौरान आकाश में घुमड़ती काली घटाओं के कारण इस पर्व को कजली अथवा कजरी तीज कहा जाता है। कजरी तीज को लेकर मान्‍यता है क‍ि शिव-गौरी की पूजा करने से सौभाग्यवती स्त्री को अखंड सुहाग की प्राप्ति होती है। दांपत्‍य जीवन सुखमय होने के साथ ही इसमें प्रेम का वास होता है। वहीं कुंवारी कन्‍याओं के व्रत रखने को लेकर माना जाता है कि‍ उन्‍हें अच्छे वर की प्राप्ति होती है।

राशि के अनुसार ही बांधें राखी
रक्षाबंधन भाई और बहने का प्रेम का त्‍योहार होता है। इस दिन बहन अपने भाई के सिर पर तिलक लगाकर प्यार की डोरी बांधकर अपनी रक्षा के लिए भाई से वचन मांगती है। इस दौरान अगर राशि के अनुसार राखी बांधी जाए तो वह और भी कल्याणकारी होती है। किस राशि के लिए कैसे राखी बांधे वह इस प्रकार है।
मेष राशि के भाई को बहने मालपुए खिलाएं और उसके हाथ में लाल डोरी से निर्मित राखी बांधें।वृषभ राशि के भाई को दूध से बनी हुई मिठाई खिलाएं एवं सफेद रेशमी डोरी वाली राखी बांधें।
मिथुन राशि के भाई को बेसन से निर्मित मिठाई खिलाएं और हरी डोरी वाली राखी बांधें।
कर्क राशि के भाई को रबड़ी खिलाएं एवं पीली रेशम वाली राखी बांधें।
सिंह राशि के भाई को रस वाली मिठाई खिलाएं एवं एवं पंचरंगी डोरे वाली राखी बांधें।
कन्या राशि के भाई को मोतीचूर के लड्डू खिलाएं एवं गणेशजी के प्रतीक वाली राखी बांधें।
तुला राशि के भाई को हलवा या घर में निर्मित मिठाई खिलाएं एवं रेशमी हल्के पीले डोरे वाली राखी बांधें।
वृश्चिक राशि के भाई को गुड़ से बनी मिठाई खिलाएं एवं गुलाबी डोरे वाली राखी बांधें।
धनु राशि के भाई को रसगुल्ले खिलाएं एवं पीली व सफेद डोरी से बनी राखी बांधें।
मकर राशि के भाई को बालूशाही खिलाएं एवं मिलेजुले धागे वाली राखी बांधें।
कुंभ राशि के भाई को को कलाकंद खिलाएं एवं नीले रंग से सजी राखी बांधें।
मीन राशि के भाई को मिल्ककेक खिलाएं एवं पीले-नीले जरी की राखी बांधें।

सावन है भागवान शिव को प्रिय
सावन का महीना भगवान शिव की अराधना के लिए सबसे उत्तम माना जाता है। सावन भोलेबाबा को सबसे प्रिय रहता है। भगवान शिव सबसे जल्दी प्रसन्न होते हैं इसलिए उन्हें भोलेबाबा भी कहा जाता है पर उनके क्रोध से कोई बच नहीं सकता। भगवान शिवजी के बारे में शिवपुराण में विस्तार से बताया गया है। कहा जाता है कि सावन के महीने में भगवान शिवजी सृष्टि पर राज करते हैं। क्योंकि भगवान विष्णु इस महीने में पाताल लोक में चले जाते हैं। भोलेबाबा के एक हाथ में डमरू दिखता है तो दूसरे में त्रिशूल। वहीं उनके गले में नाग लटक रहा है और उनके सिर पर चंद्रमा सजा है।
शिवपुराण के अनुसार भगवान शिवजी को सभी प्रकार के अस्त्रों को चलाने में महारथ हासिल है लेकिन भगवान शिवजी के लिए धनुष और त्रिशूल को प्रमुख माना गया है। भगवान शिवजी के धनुष का नाम पिनाक था।
माना जाता है कि सृष्टि में जब भगवान शिवजी प्रकट हुए तो उनके साथ रज, तम और सत गुण भी प्रकट हुए। इन्हीं तीन गुणों से मिलकर भगवान शिवजी का त्रिशूल बना। जब सृष्टि में सरस्वती पैदा हुई तो उनकी वाणी से ध्वनि पैदा हुई, लेकिन ये ध्वनि सुर और संगीत विहीन थे। आवाज में संगीत पैदा करने के लिए भगवान शिवजी ने 14 बार डमरू बजाया और नृत्य किया। इससे ध्वनि व्याकरण और संगीत के ताल का जन्म हुआ। इस तरह भगवान शिवजी के डमरू की उत्पत्ति हुई।
वहीं भगवान शिवजी के गले में लटके नाग के बारे में पुराणों में बताया गया है कि यह नागों के राजा नाग वासुकी हैं। नाग वासुकी भगवान शिवजी के परम भक्त थे, जिसके कारण भगवान शिवजी ने उन्हें आभूषण की तरह गले में लिपटे रहने का वरदान दिया।
भगवान शिवजी के सिर पर चंद्रमा भी दिखता है। पौराणिक कथाओं के मुताबिक राजा दक्ष ने चंद्रमा को श्राप दिया था। इस श्राप से बचने के लिए चंद्रमा ने भगवान शिवजी की कई सालों तक घोर तपस्या की। चंद्रमा की तपस्या से खुश होकर भगवान शिवजी ने चंद्रमा के जीवन की रक्षा की और चंद्रमा को सिर पर धारण कर लिया।