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कैसे बचें-कैसे पढ़ें बेटियां?
-निर्मल रानी
यह एक अजीब संयोग है कि हरियाणा की धरती से ही 22 जनवरी 2015 को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसी कन्या हितकारी योजना की शुरुआत की गई थी। हरियाणा के पानीपत जैसे ऐतिहासिक शहर में आयोजित एक जनसभा में केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी व स्मृति ईरानी,राज्य के राज्यपाल,मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर तथा मशहूर फिल्म अभिनेत्री माधुरी दीक्षित सहित कई मंत्रियों की उपस्थिति में प्रधानमंत्री ने देश को ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ का नारा दिया था। प्रधानमंत्री ने इस अवसर पर कुछ ‘मंत्र’ भी उच्चारित किए थे जिनमें ‘बेटा-बेटी एक समान’ भी एक मंत्र था। इस अवसर पर मेनका गांधी ने जहां यह सलाह दी थी कि कन्या के जन्म को भी उत्सव की तरह ही मनाना चाहिए वहीं इस मुहिम की ब्रांड एंबेसडर माधुरी दीक्षित ने पुरुष प्रधान समाज की इस सोच पर आश्चर्य व्यक्त किया था कि बावजूद इसके कि हम चांद तथा मंगल जैसे ग्रहों तक पहुंच चुके हैं फिर भी लोग अपनी बेटियों को एक बोझ समझते आ रहे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो हरियाणा की इस धरती पर बड़े ही भावुक अंदाज़ में यहां तक कह डाला था कि-‘मैं यहां एक भिक्षु की तरह कन्याओं के जीवन की भीख मांगने के लिए आया हूं। निश्चित रूप से यह आयोजन तथा मुहिम महिलाओं को शक्ति प्रदान करने तथा उन्हें समाज में बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए बड़ी कारगर मुहिम साबित हो सकती थी।
परंतु दुर्भाग्यवश हरियाणा की इसी धरती से लड़कियों के साथ सौतेला व्यवहार करने,उन्हें अपमानित करने तथा उनकी इज़्ज़त व आबरू के साथ खिलावाड़ करने के अनेक समाचार मिलते रहे हैं। पिछले दिनों चंडीगढ़ में इसी सत्तारुढ़ भारतीय जनता पार्टी के एक वरिष्ठ नेता के ‘संस्कारी’ सुपत्र ने राज्य के एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की बेटी को देर रात परेशान करने और युवती के अनुसार उसका अपहरण करने की कोशिश की। वर्णिका कुंडु नामक युवती के अनुसार यदि उस रात पुलिस उसके बुलाने पर उसकी सहायता को न पहुंचती तो मुमकिन है उसका अपहरण कर बलात्कार हो गया होता और उसकी लाश किसी नाले में पड़ी होती। इस शर्मनाक घटना का दूसरा आश्चर्यजनक पहलू यह भी रहा कि ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ मुहिम के इन्हीं झंडाबरदारों ने इस घटना के बाद अपने-अपने घुटनों को पेट की ओर मोड़ना शुरु कर दिया। बेटी बचाओ की दुहाई देने वाले यह सवाल करते सुने गए कि देर रात युवती घर से बाहर क्यों थी? पार्टी के एक ‘भक्त’ ने तो लड़की को बदनाम करने के लिए एक फर्ज़ी फोटो सोशल मीडिया के द्वारा प्रसारित कर यह जताने की कोशिश की कि वर्णिका कुंडु के संबंध उस नेता पुत्र विकास बराला के साथ पहले से ही थे। परंतु उसकी इस फर्ज़ी पोस्ट की जल्दी ही हवा निकल गई। गोया ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ जैसी लोकलुभावन योजना का कोई भी पैरोकार वर्णिका के पक्ष में खड़ा होता दिखाई नहीं दिया। यहां तक कि मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर भी इस मामले पर यह कहते सुनाई दिए कि यह एक व्यक्तिगत मामला है और न्याय अपना काम करेगा।
उपरोक्त पूरे प्रकरण में एक बात और भी सबसे दिलचस्प रही कि बावजूद इसके कि पीड़ित युवती ने पुलिस थाने पर आपबीती बताकर अपने साथ होने वाली पूरी घटना का विस्तृत ब्यौरा दिया। जिसके अनुसार आरोपी तथा उसका एक मित्र दोनों ही वर्णिका का अपहरण करना चाह रहे थे। परंतु पुलिस ने आरोपी के पिता के ऊंचे रसूख तथा प्रभाव की वजह से आरोपी पर अपहरण की धारा नहीं लगाई। और घटना की गंभीरता को कमज़ोर करते हुए उसे रातोंरात थाने से ज़मानत पर रिहा भी कर दिया गया। हालांकि मीडिया तथा विपक्ष के दबाव के चलते गत् 9 अगस्त को विकास व उसके मित्र को अपहरण के प्रयास की कोशिश में गिरफ्तार कर जेल भी भेजा जा चुका है। खबरों के मुताबिक इसी विकास बराला के परिवार के अन्य सदस्यों पर भी इसी प्रकार के महिला उत्पीड़न के मुकद्दमे पहले भी दर्ज हैं। गोया समझा जा सकता है कि ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ जैसी मुहिम को यह परिवार किस हद तक ‘सफलता के शिखर’ पर ले जा सकता है। इसी संदर्भ में यह याद करना भी ज़रूरी है कि कुछ समय पूर्व भारतीय जनता पार्टी की एक महिला नेत्री समेत कई लोग बाल तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किए गए। इसी पार्टी के अनेक लोग महिलाओं के साथ अश्लील अवस्था में पकड़े जा चुके हैं यहां तक कि विधानसभा में अश्लील फिल्में देखने जैसे घृणित कारनामे करते हुए पकड़े गए हैं। इन सब के बावजूद इनका दावा यही है कि वे ही ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ योजना के सबसे बड़े महानायक हैं।
चंडीगढ़ की घटना से एक सबक और मिलता है कि चूंकि पीड़ित युवती एक वरिष्ठ आईएएस अधिकारी की बेटी थी इसलिए उसने हिम्मत से काम लिया और अपनी कार को लफंगों की गिरफ्त से बचाते हुए उन्हें पुलिस थाने तक पहुंचाने का काम किया। बावजूद इसके कि इन लफंगों ने लड़की की कार को ओवरटेक कर उसे रोका तथा कार का दरवाज़ा पीटकर उसे खोलने की नाकाम कोशिश की। परंतु हिम्मत से काम लेते हुए वर्णिका ने अपनी कार फिर आगे बढ़ा ली चलती कार में पुलिस से मदद मांगी। ज़रा सोचिए यदि यही वर्णिका या इसकी जगह कोई दूसरी युवती कार के बजाए स्कूटर पर होती या फुटपाथ पर पैदल जा रही होती और वासना का भूत सवार यही युवक उस लड़की से टकरा जाते तो उस लड़की का क्या अंजाम होता? ज़ाहिर है हर लड़की वर्णिका नहीं होती न ही हर लड़की के पास इतनी सूझबूझ और साहस होता है कि वह मुसीबत की ऐसी घड़ी में अपने होश-ाð-हवास को पूरी तरह काबू में रखते हुए स्वयं को गुंडों से भी बचाए,साथ ही साथ पुलिस को भी बुलाए और अपराधियों को थाने तक पहुंचाने का साहस जुटाए। निश्चित रूप से एक साधारण भारतीय नारी इतनी चुस्त एवं सक्रिए नहीं होती। परंतु हमारे देश में पुरुषों का व्यवहार महिलाओं के प्रति प्राय: कैसा रहता है,वे कैसी सोच व नज़रिया रखते हैं यह बातें पूरे देश के समाचार पत्र किसी न किसी घटना के हवाले से प्रतिदिन हमें बताते ही रहते हैं।
ज़रा सोचिए कि जिस फिल्म अभिनेत्री माधुरी दीक्षित को बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान का ब्रांड अबेसडर बनाया गया,स्मृति ईरानी व मेनका गांधी जैसी महिला केंद्रीय मंत्रियों के समक्ष प्रधानमंत्री ने इस योजना की शुरुआत की क्या कभी इन महिलाओं से भी किसी ने यह पूछने का साहस किया है कि वे देर रात तक अपने घरों से बाहर क्यों रहती हैं? क्या यह सवाल अपने बिगड़ैल व आवारा मिज़ाज बेटों से मां-बाप नहीं पूछ सकते कि वे आ‎खिर देर रात घरों से बाहर क्यों रहते हैं और कहां रहते हैं? बेटी बचाओ का अर्थ यदि कन्या भ्रुण हत्या को रोकना है तो बेटी पढ़ाओ का अर्थ महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाना,उन्हें आत्म सम्मान से जीने के लिए प्रेरित करना तथा किसी की मोहताजगी से दूर रखना भी है। और यदि पढ़-लिख कर वही बेटी किसी रोज़गार से जुड़ जाती है तो उसके लिए दिन और रात क्या मायने रखते हैं? आज आ‎खिर कौन सा क्षेत्र और कौन सा विभाग ऐसा है जहां महिलाएं पुरुषों के साथ कंधे से कंध मिलाकर काम न कर रही हों। तो क्या यह ‘संस्कारी’लोग उन महिलाओं से भी यही सवाल करेंगे कि वे देर रात घर से बाहर क्यों निकली हुई थीं? दरअसल भारत में पुरुष की महिलाओं के प्रति राक्षसी मानसिकता का प्रश्न हमारी संस्कारित दोहरी सोच का दर्पण है जो हमें समय-समय पर आईना दिखाता रहता है। भारतीय पुरुष प्रधान समाज महिला को कमज़ोर,दूसरे दर्जे का तथा भोग्या समझता आ रहा है। इसे किसी बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ जैसे खोखले उद्घोषों से नहीं बल्कि बाल संस्कारों से ही रोका जा सकता है।

टायलेट के चर्चे ही चर्चे
-दीपक दुबे
इन दिनों देश मे दो ही चर्चायें जोरो पर है एक तो गुजरात के राज्य सभा चुनाव या फिर टायलेट। वैसे टायलेट के तो चर्चे अक्षय कुमार की फिल्म टायलेट एक प्रेमकथा से शुरू हुए और लगातार होते ही जा रहे है। खुद अक्षय कुमार इसे बढावा देने सॉरी प्रमोशन के लिए जगह जगह जा रहे है।
वैसे बता दें टायलेट जाना तो अब शुरू हुआ है वरना तो बचपन से हम टटृटी ही जाते थे। स्कूल मे भी रिसेस की छुटटी् को टटटी् पेशाब की छुटटी् कहा जाता था। डॉक्टर के पास जाते जब वह सवाल वह दागता उसमे एक सवाल यह जरूर होता कि टटटी् कैसी हुई थी हरी या पीली या पतली तब यदि देख ली होती तो उसका रंग बता देते वर्ना बाद मे देखकर बताना की ताकीद कर डाक्टर लौटा देता। तब घर मे टटटी होना गर्व की बात होती थी और साथ आये पिताजी डाक्टर को गर्व से यह यह बात जरूर बताते कि घर मे टटटी है। बहरहाल तब टटटी को टटटी कहने मे कोई शर्म नही आती थी। मजे मे लोग बिन्दास होकर उच्चारण करते ।
मै एक दिन अपने एक मित्र के यहां बैठा था सामने हिन्दी अंग्रेजी के अखबार लाईन से बिछाये हुए थे मैने मित्र से पूछा कि ये क्या है तब पहली बार मेने उनके मुख से पोटटी शब्द सुना था बोले बच्चे की पोटटी करने के लिए है। घर मे हर कोई अखबार डाल जाता है तो उसका उपयोग भी हो जाता है और पोटटी साफ करने का झंझट भी नही होता है, पुडिया बनाई ओर उछाल दी। मैरा इससे ज्ञानवर्धन हुआ।
सुलभ शौचालय वाले बिन्देश्वरी पाठक जी सुलभ इंटरनेशनल के तले सुलभ शोचालय का कन्सेप्ट लेकर आये जगह जगह सुलभ शोचालय बन गये हमारे भोपाल मे तो साडी के शो रूम से अच्छे सुलभ शोचालय बन गये है। ऐसी सुदर सुंदर बने हैं कि जहां टटटी करने की इच्छा ना हो। तो इसके साथ ही शोचालय शब्द का भी जनमानस मे प्रादुर्भाव हुआ। अब तो दिन भर स्वच्छता और शोचालय के गाने बजाती गाडिये नगरो मे घूमती नजर आती है। टी व्ही पर देखे नहीं अमिताभ बच्चन जी कैसे डांट कर दरवाजा बंद करवाते है।
अब जबसे स्वच्छता अभियान चला है तबसे टटटी से श्शुरू हुई यात्रा श्शोचालय तक पहुच गई है। हां एक बात और कि टटटी से टायलेट की यात्रा के बीच एक शब्द और भी आया है लेट्रिन । इसे कई प्रबुद्वजन अब भी यूज करते है। शौचालय शब्द तो अब यह भी बदबू देने लगा है तो इसे शालीन भापा मे टायलेट कहा जाने लगा है। एक फिल्म निर्माता ने तो टायलेट एक प्रेम कथा ही लिख मारी । इसके प्रमोशन के लिए जगह जगह घूमते हुए इसके हीरो अक्षय कुमार ने तो यह सुझाव भी दे डाला कि जिसके यहां टायलेट ना हो उसे मैरिज सर्टिफिकेट ना दिया जाये। जिस तरह से आधार कार्ड की लोकप्रियता बढ रही है और इसे हर ऐरे गेरे कामो से जोडा जा रहा है कही पीएम से मिलकर अक्षय यदि यह सुझाव देते है तो मत कहो कल से ही सुलभ श्शोचालय जाने वालों के लिए आधार कार्ड दिखाना जरूरी कर दिया जाये।
यदि टायलेट एक प्रेमकथा सफल हो जाती है तो निर्माता टायलेट टाईटिल पर टूट पडेगे तब कुछ इस तरह की फिल्मो के नाम हो सकते है टायलेट मे नहीं उतरी ,टायलेट एक युद्व कथा। मेरा घर ही मेरा टायलेट हैं। टायलेट है जहां तन्दुरूस्ती है वहां….. आदि आदि। चलो बहुत हो गया टायलेट पुराण मुझे भी टायलेट जाना है।

जैसे मोदी, वैसी सोनिया
– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारी संसद में 9 अगस्त का 75 वां साल कैसे मनाया गया ? हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को इस ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का सही-सही नाम ही पता नहीं। उन्होंने कहा कि ‘भारत छोड़ो’ आंदोलन का नारा था- ‘करेंगे या मरेंगे’। नारा यह नहीं था। नारा था- ‘करो या मरो’। यह गलती मामूली गलती नहीं है। ऐसी गलती 5 वीं- 6ठीं कक्षा का छात्र भी नहीं करेगा। जो व्यक्ति आंदोलन के मुख्य नारे को ही नहीं जानता, उसको उस आंदोलन की कितनी समझ होगी ? उसका इतिहास-बोध कितना होगा ? उसे क्या पता कि उसमें गांधीजी की भूमिका क्या थी, सरदार पटेल की क्या थी और जवाहरलाल नेहरु की क्या थी ? आर्यसमाज और संघ जैसी अराजनीतिक संस्थाओं की भूमिका क्या थी ? ऐसा नहीं कि मोदी बे-पढ़े लिखे आदमी हैं। वे कहते हैं कि उनके पास विश्वविद्यालय की डिग्री है। यदि न भी हो तो क्या हुआ ? वे भारत के प्रधानमंत्री हैं। एक से एक इतिहास के विद्वान और अफसर उनकी सेवा-टहल में रहते हैं। वे उनसे ही पूछ लेते। हो सकता है कि उन्होंने ठीक ही बताया हो लेकिन मोदी तो तुकबंदी के शौकीन हैं। उन्होंने तुक भिड़ाई कि ‘करेंगे और करके रहेंगे’। इस तुकबंदी की खातिर उन्होंने अपनी मजाक उड़वा ली। खैर, यह तो आदत की मजबूरी है लेकिन उनके भाषण में बार-बार गांधीजी का नाम है लेकिन जवाहरलाल नेहरु का क्यों नहीं था ? यदि वे नेहरु का नाम भी लेते तो वे अपना सम्मान ही बढ़ाते। उनसे मैं यह उम्मीद नहीं करता हूं कि वे बाल गंगाधर तिलक, लाजपतराय और विपिनचंद्र पाल का नाम लेते। उन्होंने संकल्प-सिद्धि काल (2017 से 2022) का जो नारा दिया, वह तो प्रशंसनीय है लेकिन उसकी तुलना 1942 से 1947 के काल से करना तो हास्यास्पद ही है। विपक्ष की नेता और कांग्रेस की अध्यक्षा सोनिया गांधी ने तो मोदी को भी मात कर दिया। इस एतिहासिक अवसर पर प्रेरणादायक भाषण देने की बजाय भारत के स्वाधीनता-संग्राम पर बोलते-बोलते सत्तारुढ़ दल पर प्रहार करती रहीं। नाम लिये बिना वे संघ को घसीटती रहीं। मोदी ने इस मौके पर प्रधानमंत्री पद की गरिमा घटाई। अगर वे नहीं घटाते याने स्वाधीनता संग्राम में कांग्रेस की भूमिका की तारीफ करते तो भी सोनिया गांधी वही पढ़तीं, जो वह पहले से लिखवाकर लाई थीं। सोनिया हिंदी में बोलीं, मैं खुश हुआ लेकिन उन्होंने जो कुछ बोला, उसने उन्हें मोदी से भी निचले पायदान पर उतार दिया। जब हमारे देश के ऊंची कुर्सियों पर बैठे हुए नेताओं का हाल यह हो तो क्या किया जाए ?

मेनका गाँधी दूध के प्रति भ्रम भ्रान्ति की शिकार !
-डॉ अरविन्द जैन
कभी कभी शाकाहार की चर्चा करते समय कुछ बुद्धिजीवियों की गलत धारणाएं सामने आती हैं ,उनका कहना रहता हैं की जब आप शाकाहार की बातें करते हैं परन्तु दूध दही आदि भी पशुजन्य पदार्थों के अंतरगत आता हैं।शाक – भाजी ,अन्न भी जीव हैं तब आपकी अहिंसा ,जीव दया ,शाकाहार की बातें मानव हृदय धरातल पर सत्य नहीं उतरती .आखिर हिंसा तो हिंसा हैं वह भी स्थूल हों या सूक्ष्म .बात आपकी सत्य हैं परन्तु आंशिक सत्य हैं ,हिंसा और अहिंसा का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो पाएंगे की हमारा जीवन पूर्ण अहिंसात्मक नहीं हैं यह बात सत्य हैं परन्तु हम अपना जीवन -यापन किस प्रकार अहिंसात्मक प्रवत्ति की ओर ले जा सकते हैं ,यह समझना अत्यंत आवश्यक हैं।
भास्करनंदी करत सुख बोधिनी टीका में लिखा हैं –“सूक्ष्म एवं स्थूल जीवों से भरे ठसाठस भरे हुए लोक में जैन मुनि का किस प्रकार अहिंसा व्रत बन सकता हैं .कहा भी हैं ,जल में जीव हैं ,आकाश में जीव हैं, जब जीवों के समुदाय से जगत परिग्रह हैं तब मुनि महाराज कैसे अहिंसक रह सकते हैं ” यह सन्देश का निवारण इस प्रकार किया गया हैं — यह आक्षेप ठीक नहीं हैं , क्योंकि ज्ञानाध्ययन में तत्पर मुनिराज के प्रमत्तयोग रागादि भावों का अभाव रहता हैं।सूक्ष्म जीवों का घात तो असंभव हैं , स्थूल जीवों का रक्षण संभव हैं ,
अब प्रश्न यह आता हैं की लोक में पापमुक्त जीवन बिताने का क्या उपाय हैं। ‘मूलाचार’ में लिखा हैं “भगवान् से गणधर ने प्रश्न किया –प्रभो इसजगत में साधु किस प्रकार गमन करे ?किस प्रकार खड़ा रहे ? किस प्रकार बैठे ?किस प्रकार भोजन करे ? किस प्रकार सम्भाषण करे जिससे पापों का बंध न हों।इस प्रश्न का उत्तर का समाधान इस प्रकार किया गया —सावधानपूर्वक चलो ,यत्नाचार पूर्वक खड़े रहो ,यत्नाचार पूर्वक बैठों ,यत्नाचार पूर्वक शयन करो ,यत्नाचार पूर्वक निर्दोष भोजन करो ,यत्नाचार पूर्वक बोलो , इस प्रकार पाप का बंध नहीं होता हैं जिसके अंतःकरण में जीवदया का आभास नहीं हैं उसका उज्जवल चरित्र कैसे हो सकता हैं? जीव हिंसक की कोई भी क्रिया कल्याणदायिनी नहीं होती हैं।
कोई कोई पूछते हैं की हम अहिंसा व्रत का पालन करते हैं ,छोटे -बड़े जीवों पर दया पालन करते हैं तब हम अपने भोजन में उस दूध को क्यों ग्रहण करते हैं जिसकी उत्पत्ती रक्त और मांस से ही होती हैं ? दूध पीना और मांस से घृणा करना आश्चर्य की बात हैं।इस बात की पुष्टि आयुर्वेद शास्त्र का कथन हैं की भोज्य पदार्थ उदर में पहुंचने के बाद श्लेष्माशय को प्राप्त करके द्रव रूप होते हैं पश्चात पित्ताशय में पहुंचकर इनका परिपाक होता हैं और वे वाताशय को प्राप्त करते हैं। पश्चात् पित्ताशय उनका वायु के द्वारा विभाजन होते हुए खल भाग और रस भाग रूप परिणमन होता हैं।खल भाग मलमूत्र आदि रूप धारण करता हैं तथा रस भाग का रस ,रक्त ,मांस ,मेद,अस्थि ,मज्जा ,शुक्र रूप से क्रमशः परिणमन होता हैं।रस बनने के बाद रक्त बनता हैं तथा रक्त के बाद मांस बनता हैं ,
गो दूध को गो रस कहते हैं उसे कोई गो रक्त नहीं कहता हैं। रक्त के स्पर्श होने पर शुद्धता के हेतु विशेष स्वच्छता की जाती हैं।ऐसा व्यवहार गो दुग्ध के प्रति नहीं होता हैं।दूध रस हैं ,रस के बाद वह रक्त बनता हैं ,रक्त के बाद उसका मांस रूप में परिणमन होता हैं इसलिए गो दुग्ध को रक्त या मानना भयंकर भूल भरी बात हैं।
गाय के शरीर में दूध रहता हैं और मांस भी रहता हैं किन्तु वस्तु स्वरुप की विचित्रता हैं की दूध शुद्ध हैं और मांस अशुद्ध हैं।सगारधर्मामृत में इस बात की पुष्टि के लिए बहुत सुन्दर विवेचन दिया हैं कि सर्प के मस्तक पर मणि रहता हैं वह विष के विकार को दूर करता हैं किन्तु उसके पास में रहने वाला विष प्राणों का घात करता हैं।विष वृक्ष के पत्ते प्राण प्रदान करते हैं और उसकी जड़ प्राणों का विघात करती हैं।यद्यपि दोनों वृक्ष के अंग हैं इसी प्रकार दूध और मांस एक ही शरीर में पाए जाते हैं ,दूध कि थैली पृथक रहती इसीलिए मांस हेय हैं और दूध पीने योग्य हैं।
दूध यदि अपवित्र होता तो भगवान् के अभिषेक पूजन में सदृश्य अत्यंत पवित्र कार्यों में उसका उपयोग क्यों करते?
एक बात और विचारणीय हैं कि दूध के दुहने से गाय का शरीर क्षीण नहीं होता।यदि उसका दूध न दुहा जाय तो उसे पीड़ा का नुभव होता हैं।दूध को दुहने से गाय को शांति मिलती हैं।गाय घास ,खली जो पदार्थ कहती हैं वे ही गो रस में रूप में परिणित होते हैं।इस कारण उन पदार्थों कि गंध अदि दुग्ध में देखी जाती हैं। ये बातें मांस के विषय में चरितार्थ नहीं होती।
जब बालक अस्वस्थ्य होता हैं तब माता को औषधि देने से उसका दूध पीने वाला शिशु स्वस्थ होता हैं।यदि दूध के सेवन से मांस भक्षण का पक्ष जबरदस्ती माना जाय तो मनुष्य को शिशुकाल में माता का दूध पीने के कारण दांतों कि रचना आदि मांसाहारी प्राणियों के समान नहीं हैं।जिस प्रकार बन्दर शाकाहारी हैं उसी प्रकार मनुष्य भी प्राकृतिक रूप से शाकाहारी हैं इसलिए दूध सेवन से मांसाहार कि कल्पना करना पूर्णिमा को अमावस्या मानना हैं
आहार शास्त्र कि दृष्टि से दूध को सात्विक भोजन माना गया हैं किन्तु मांस को तामसी भोजन कहा गया हैं।दूध का निर्माण में वात्सल्य भाव पाया जाता हैं अतःउसके ग्रहण से मन में शांति का भाव होता हैं।
‘ क्षीर घृताभ्यासो रसायनं श्रेष्ठतम”
शरीर को परिपुष्ट और एक नया बना देने वाले रसायन तत्वों में दूध और घी सर्वश्रेष्ठ हैं।दूध में शरीर को क्षतिपूर्ति करके रसरक्तादि धातु को विवार्चित कर अंग-प्रत्यंग का विकास करने वाले तत्व प्रभुत मात्रा में होते हैं।.
महात्मा गाँधी ने कहा कि मैं शाकाहार का पक्षपाती हूँ।मगर अनुभव से मुझे यह स्वीकार करना पड़ा कि दूध और दूध से बनाए वाले पदार्थ जैसे मख्खन ,दही के बिना मनुष्य का शरीर पूरी तरह टिक नहीं सकता हैं।
दूध वस्तुतः पूर्ण आहार हैं।जन्म से ही केवल माता का दूध पीकर बालक स्वस्थ रहकर विकास पाता हैं।यह दूध के पूर्ण आहार का प्रतक्ष्य प्रमाण हैं।पर्याप्त मात्रा में दूध लेकर मनुष्य आनंद से पूरा जीवन बिता सकता हैं।
दूध में आहार के सभी घातक अच्छी मात्रा में पाए जाते हैं। दूध कि प्रोटीन बहुत उच्च प्रकार कि होती हैं।इसमें केसीनोजन,लैक्टेबलुमिन और लैक्टोग्लोमिन नामक प्रोटीन होती हैं। कार्बोज़ में लैक्टोज मिलता हैं जो आँतों में ग्लूकोज़ एवं गलेक्टोज़ में विभक्त हो जाता हैं।लैक्टोज़ लेक्टिव एसिड में बदलकर आंत्र की सड़न क्रिया करने वाले जीवाणु को नष्ट कर देता हैं।दूध में घी बहुत सूक्ष्म बिंदुओं के रूप में होने से बड़ी जल्दी पांच जाता हैं ,दूध में कई खनिज लवण जैसे कैल्शियम ,,फॉस्फोरस ,पोटेशियम और सोडियम अच्छी मात्रा में होती हैं। वास्तव में दूध ही कैल्शियम प्राप्ति का सामान्य भारतीयों के लिए एक प्रमुख साधन हैं।दूध में विटामिन ए,बी ,राइबोफ्लेविन तथा सी और डी मिलते हैं।
अन्य उच्च वर्गीय प्रोटीनों की अपेक्षा दूध में एक बड़ी विशेषता हैं।इसकी राख का क्षारीय होना जबकि मांस और मच्छली की राख अम्लीय होती हैं।इससे दूध पीने से शरीर में क्षारीय तत्वों का स्त्राव बढ़ता हैं।दूध के द्वारा आंन्त्रस्थ जीवांश (इंटेस्टिनल फ़्लोरा ) का संरक्षण होता हैं जो मानव स्वास्थ्य एवं विटामिन उत्पादन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं.
यथा सुराणाममृतं हिताय तथा नराणां भूवितकरमाहुः
दूध से बनने वाले पदार्थों में मख्खन बहुत हल्का होता हैं।उसका समूल भाग आँतों में प्रचूषित हो जाता हैं दूध से ही पनीर बनाया जाता हैं।इनमे छेना तो बहुत हल्का होता हैं परन्तु पनीर में २०% प्रोटीन ,२५% चर्बी और ६ %लवण होता हैं।पौष्टिकता के विचार से पनीर मांस से दो गुना पुष्टकारक होता हैं.
तुलनात्मक दूध का अध्ययन ग्राम /१०० ग्राम
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नंबर दूध पानी प्रोटीन चर्बी थाइमिल लैक्टोज़ कैलोरी
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ग्राम ग्राम ग्राम मि . ग्राम ग्राम
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१ गाय ८७.५ ३.२ ४.१ 0.03 ४.४ ६७
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२ भैंस ८१ ४.३ ८.८ ०.०४ ५.१ ११७
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३ बकरी ८६.८ ३.३ ४.५ ०.०५ ४.६ ७२
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४ मानव ८८ .० १.१ ३.४ ०.०२ ७.४ ६५
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इस प्रकार श्रीमती मेनका गाँधी का भ्रम और भ्रांतियों से ग्रसित है दूध के प्रति तो उनको अपनी मानसिकता में बदलाव की आवश्यकता हैं।

उ. कोरिया ने किया नाक में दम
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
क्या सारी दुनिया में उत्तर कोरिया-जैसा भी कोई देश है ? ढाई करोड़ लोगों के इस छोटे-से देश ने सारी दुनिया की नाक में दम कर रखा है। संयुक्तराष्ट्र संघ ने उसके खिलाफ कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं लेकिन वह अपनी टेक से टस से मस नहीं हो रहा है। उसके नेता कह रहे हैं कि ये प्रतिबंध अमेरिका की साजिश से लगवाए गए हैं। वह अमेरिका को हजार-गुना सख्त सबक सिखाएगा। उत्तर कोरिया का दोष यह है कि वह अब तक पांच परमाणु परीक्षण कर चुका है और पिछले माह उसने दो अंतर्महाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र छोड़े हैं अर्थात यह देश चाहे तो अमेरिका पर सीधा परमाणु हमला कर सकता है। वह सुदूर-पूर्व के देशों में तैनात 40 हजार अमेरिकी सैनिकों को तत्काल खत्म कर सकता है। उसकी विनाशकारी क्षमता भारत और पाकिस्तान से भी ज्यादा है और उसके दुस्साहस के क्या कहने ? वह तो हिटलर और मुसोलिनी को भी मात कर रहा है। उत्तर कोरिया ने परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर किए थे लेकिन बाद में उसने उसका बहिष्कार कर दिया था। उसके ढाई करोड़ लोगों में से लगभग दो करोड़ लोग या तो फौज में हैं या सैन्य-प्रशिक्षण पाये हुए हैं। यह देश 1950 से 1953 तक युद्ध लड़ चुका है। आधा उत्तरी कोरिया रुस और आधा दक्षिण कोरिया अमेरिका के कब्जे में चला गया। भारत और पाकिस्तान की तरह एक ही देश के दो टुकड़े हो गए और ये दोनों टुकड़े पिछले 60-70 साल में एक-दूसरे से इतने अलग हो गए कि उनमें सदा तलवारें खिंची रहती हैं। आजकल उत्तर कोरिया का वली-वारिस चीन ही है लेकिन अब चीन और रुस ने भी अमेरिका का साथ देते हुए ऐसे प्रतिबंध उ. कोरिया पर लगा दिए हैं कि यदि वह अपने प्रक्षेपास्त्र परीक्षण नहीं रोकेगा तो दुनिया के राष्ट्र उससे कोयला, लोहा, शीशा और समुद्री खुराक नहीं खरीदेंगे। उसे लगभग 1.3 बिलियन डाॅलर का घाटा होगा। उसकी अर्थ-व्यवस्था बैठ जाएगी। इन कड़े प्रतिबंधों और उ. कोरिया की हठधर्मी के बावजूद अमेरिका और चीन की कोशिश है कि बातचीत से कोई हल निकल आए। जब दोनों कोरियाओं के बीच युद्ध चल रहा था तो जवाहरलाल नेहरु ने शांति की पहल की थी। अब भारत सरकार क्या कर रही है ?

शहीदों के सपनों का क्या यही भारत है ?
(क्रां‎ति दिवस 9 अगस्त पर विशेष)
-डॉ. भरत मिश्र प्राची
आजादी के उपरान्त देश में अपहरण,भ्रष्टाचार,बलात्कार,अनैतिकता के अनेक कदम दिन प्रतिदिन बढ़ते जा रहे हैं। आतंकवाद से देश को चुनौतियां मिलने लगी हैं। देश की सुरक्षा, अस्मिता, दिन पर दिन खतरे में पड़ती जा रही है। जो जहां है, वहीं अपने-अपने तरीके से देश को लूट रहा है। आजादी से पूर्व इस देश को विदेशियों ने लूटा, आजादी के बाद देश वाले लूट रहे हैं। फिर देशी-विदेशी, आजादी-गुलामी की परिभाषा इस संदर्भ में किस तरह परिभाषित हो पायेगी, विचार किया जाना चाहिए। जहां इस तरह के जनप्रतिनिधियों की संख्या लोकतंत्र में बढ़ती जा रही है। जहां आज सुरसा की तरह बढ़ती जा रही महंगाई अनियंत्रित होती जा रही है वही अनेक लोग राजनीतिक छांव में अवैध रूप से धन बटोरने एवं राजनीतिज्ञों को सुख सुविधा के तमाम संसाधन जुटाने में तत्पर हैं।देश का सर्वोच्च पद भी स्वार्थ से प्रेरित अनैतिक राजनीति का शिकार बन चुका है। लोकतंत्र के इस सर्वोच्च पद पर भी राजनीतिक शिकंजा कसता नजर आ रहा है। हत्या,अपहरण, अवैध गतिविधियों में लिप्त आज लोकतंत्र का सम्मानित सांसद, विधायक है।जेल में बंद है, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार के केस चल रहे हे फिर भी सांसद /विधायक है। आखिर आजादी के बाद उभरे इस तरह के परिदृश्य के लिये कैन जिम्मेवार है? शहीदों के सपनों का क्या यहीं भारत है ? जिसके लिये शहीदों ने बलिदान दिया।
स्वतंत्रता उपरान्त स्वयंभू की प्रवृत्ति आज इतनी बढ़ चली है कि राष्ट्रहित से स्वहित सर्वोपरि साफ – साफ दिखने लगा है। जब कि स्वतंत्रता पूर्व देश की आजादी की लड़ाई में सभी के दिल में राष्ट्रहित की भावना सर्वोपरि बनी हुई थी। फिर आज यह क्या हो गया ? आजादी मिलते ही हम इतने स्वार्थी हो गये कि आजाद कराने वालें अनेक गुमनाम शहीदों की कुर्बानियों को भूलकर उनके आदर्श सपनों को मटियामेट करते हुए देश की अस्मिता को भी दांव पर लगाते जा रहे है। जन सेवा का संकल्प लिये लोकतंत्र के आज जनप्रतिनिधि वेतनभोगी हो गये है जो अपनी सेवा का वेतन देश के अन्य वेतनभोगियों की तरह लेने लगे है। हत्या, लूट, अपराध में लिप्त हमारे जनप्रतिनिधि बनकर आज लोकतंत्र के पवित्र आंगन को अपने अलोकतांत्रिक आचरण से अपवित्र किये जा रहे है और हम इनका विरोध करने के वजाय अभिनंदन करते जा रहे है। देश के सम्मानित एवं सर्वोच्य परिसर के जो हालात है, वह सभी के सामने है। आज कोई संसद पर हमला कर रहा है तो कोई हमलावार को बचाने की कोशिश कर रहा है, तो कोई संसद में बाहुबल का खुला प्रयोग कर संविधान की धज्जियां उड़ा रहा है। आज देश फिर से फरेबियों के जाल में फंसता जा रहा है। नकली सामानों , नकली नोटों एवं नकली दवाईयों की तो चारों ओर भरमार है। उद्योग धंधे तो बंद होते जा रहे है, रोजगार के नाम हर जगह लूट – खसोट की राजनीति पनाह ले रही है। न्याय की तलाश में आज भी लोग भटक रहे है जहां अंग्रेजों की ही नीतियां कायम है। अंग्रेज तो चले गये पर आज भी अंग्रेजियत हावी है जिसका खुला नजारा हर सरकारी कार्यालयों एवं हर संसदीय कार्यवाही में देखने को मिल सकता है। आज इसी कारण देश की संसद ही नहीं अनेक जगहों का स्वरुप भी विदेशी सा दिखाई देता है। अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी को सही मायने में आज तक नहीं अपना पाये। आज भी संसद से लेकर विदेश यात्रा तक अंग्रेजी भाषा का वर्चस्व इस तरह हावी है कि जिसे देखकर लगता ही नहीं कि इस देश की भी अपनी कोई भाषा है।
देश में आया राम ,गया राम की कहानी ज्यादा सक्रिय हो चली है। सत्ता पाने के लिये कौन किधर चला जाय, कुछ कहा नहीं जा सकता। नैतिकता की दुहाई देने वाले सर्वाधिक अनैतिकता में डुबे दिखाई दे रहे है। ऐन – केन प्रकारेण सत्ता आनी चाहिए। इस दिशा में भरमाने एवं लुभाने की प्रक्रिया सक्रिय हैं। क्रय- क्रिय का क्रम जारी है। साम दाम दंड भेद की राजनीति का वर्चस्व हावी है। इस परिवेश में कोई अपने वजूद को बचाने में लगा है तो कोई वजूद बढ़ाने में। आम जनता महंगाई की मार एवं बेराजगारी से परेशान है पर इसकी चिंता किसी को नहीं।
अब प्रश्न यह उभरता है, क्या देश की इन्हीं हालातों के लिये लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी ? क्राति दिवस पर इस तरह के उभरते हालातों पर आज मंथन करने की विशेष आवश्यकता है। सन् 1857 से लेकर 9 अगस्त 1947 के मध्य छिड़ी आजादी के जंग पर एक नजर डालें जहां देश की आजादी के लिये अनोखी जंग छिड़ गई थी। साथ ही साथ देश भक्ति में सराबोर हुए आजादी के दिवानों का जत्था जिनकी कुर्बानियों के आगे अंग्रेजी हुकूमत को यहां से बिदा होना पड़ा। हम याद करें , मंगल पांडे की कहानी जिसने नि:स्वार्थ भाव से अंग्रेजों के विरूद्ध अलख जगा कर आजादी की जंग छेड़ दी। राम प्रसाद विस्मिल, भगत सिंह आजाद आदि के त्याग एवं बलिदान की कहानी को इतना जल्दी कैसे भूल गये ? हम कैसे भूल गये सुभाष चंद्र को जिसने देश से बाहर आजाद हिन्द फौज का गठन कर आजादी की लड़ाई में अहम् भूमिका निभाई। साथ ही बिहार प्रदेश की राजधानी पटना में अंकित उन अमर शहीदों को भी हम भूल बैठे जिन्होंने आजादी के झंडे को अंतिम सांस तक झूकने नहीं दिया। देश की आजादी की जंग में सक्रिय भूमिका निभाने वाले अनेक गुमनाम शहीद हर भारतीय से पूछ रहे है , क्या भारत के इसी स्वरुप के लिये हम सब ने बलिदान दिया ? निश्चित रुप से आज यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है, जिसका हल हम सभी को ढ़ूढ़ना होगा। आजादी के बाद ही यह देश मुद्दों के बीच उलझ गया जहां सत्ता से जुड़ी राजनीति समा गई जिसनें शहीदों के सपनों के भारत का काया कल्प बिगाड दिया। जहां स्वहित राष्ट्रहित से सर्वोपरि हो चला है।
(स्वतंत्र पत्रकार)

दायित्व से भटके सांसद
-प्रमोद भार्गव
देश के जिन सांसदों पर कानून बनाने से लेकर देश और युवाओं को नई दिशा देने की जिम्मेबारी है, वही दायित्व से भटके नजर आ रहे हैं। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी की संसदीय दल की बैठक में सदन में कई सांसद अनुपस्थित रहा। लोकतंत्र के लिए यह अच्छी बात नहीं है। जब सांसद ही सदन से गायब रहेंगे, तब सदन का कामकाज कैसे चलेगा ? इसी वजह से राज्यसभा में पिछडा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने वाला विधेयक पारित नहीं हो सका। क्योंकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसदों की संख्या सदन में काम थी, लिहाजा विपक्ष ने अपना संशोधन पारित करा लिया। इस कारण भाजपा की जमकर किरकिरी हुई। जिसे पार्टी ने गंभीरता से लेते हुए सदन में गैरहाजिर सांसदों की खबर लेते हुए हिदायत देते हुए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा है कि जब भी सदन चले सांसदों को हर हाल में मौजूद रहना होगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी इस बाबत सांसदों को नसीहत दे चुके है।
केंद्र सरकार राष्ट्रीय पिछडा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का 123 वें संविधान संशोधन विधेयक पारित कराना चाहती थी। जैसे कि अनुसूचित जाति-जनजाति आयोग और अल्पसंख्यक आयोग हैं। भाजपा के पास जदयू के मिलाकर 89 सदस्य राज्यसभा में हैं। बाबजूद विधेयक पारित नहीं हुआ। जबकि विपक्ष के चार संशोधन मंजूर हो गए, सरकार इन संशोधनों के विपक्ष में कतई नहीं थी। राष्ट्रीय पिछडा वर्ग आयोग की स्थापना 1993 में हुई थी। लेकिन इस सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़ी जातियों को पिछड़े वर्ग की सूची में शामिल करने या पहले से सूची में दर्ज जातियों में से किसी को बाहर करने की सिफारिश करने से ज्यादा कोई अधिकार नहीं हैं। गोया, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चाहते हैं कि राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग की भूमिका महज अनुशंसाओं तक सीमित न रहें। इस लिहाज से इस अतिरिक्त अधिकार देकर सशक्त बनाया जाना था। यह बदलाव इसे संवैधानिक दर्जा देकर ही संभव था। हालांकि यह विधेयक लोकसभा से पारित हो चुका है। विपक्ष ने जो चार संशोधन मंजूर करा लिए हैं, उसके तईं अब आयोग पांच सदस्यीय हो जाएगा। इनसे एक सीट महिला और एक सीट अल्पसंख्यक वर्ग के प्रतिनिधि के लिए आरक्षित हो जाएगी। जबकि मूल विधेयक में अध्यक्ष, उपाअध्यक्ष सहित तीन सदस्यीय आयोग का प्रस्ताव शामिल था। सरकार आयोग को पांच सदस्यीय नहीं बनाना चाहती थी। यदि भाजपा और उसके सहयोगी दलों के सांसद सदन में हाजिर रहते तो सरकार को इस नौबत का सामना नहीं करना पड़ता। अब सरकार को विधेयक पारित कराने के लिए नए सिरे से कवायद करनी होगी।
अपने दल और सदन की गरिमा गिराने एवं जबावदेही से मुक्त रहने की यह कोई पहली घटना नहीं है। सांसदों ने घूस लेकर संसद में सवाल पूछने और सांसद निधि के वितरण में कमीशनखोरी के मामले पहले ही सामने आ चुके हैं। इस निधि को कायदे कानून तक पर रखकर विकास कार्यों को सीधे अपने कार्यकर्ताओं को देकर अनैतिकता का संदेश भी दे रहे हैं। यह स्थिति सांसद और विधायकों की राजनीतिक जमीन तो पुख्ता कर रही है, लेकिन नीति निर्माण और निगरानी जैसे जो सांसदों के मूल काम हैं, उनसे ध्यान हटा रही है। इसीलिए बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने विधायक निधि खत्म करने की आदर्श पहल की थी। इस निधि के साथ जो खेल सांसद खेलते हैं कमोबेश वही खेल राज्यों में विधायक खेलते हैं। इसीलिए इन निधियों को असंवैधानिक माना जाता रहा है।
दरअसल यहां यह सवाल गौरतलब है कि संवैधानिक ढाचांगत व्यवस्था के अनुसार जब जिस काम के लिए प्रशासन, स्थानीय निकाय और पंचायतें हैं तो विकास निधि के वितरण की जवाबदारी विधायिका पर क्यों ? संविधान के अनुसार तो सांसद-विधायकों का मुख्य काम जनहितैषी नीतियों का निर्माण कर उनका क्षेत्र में ईमानदारी से अमल कराना है, जिससे राशि का दुरूपयोग न हो और विकास कार्यो की गुणवक्ता बनी रहे। इसके संवैधानिक औचित्य पर सवाल खड़े करते हुए योजना आयोग, प्रशासनिक सुधार आयोग और नियंत्रक एंव महालेखा परीक्षक के अलावा कई संविधानविदों तथा गैर सरकारी संगठनों ने भी इस व्यवथा को संविधान विरोधी माना है। यही नहीं इस निधि को राज्यों के स्थानीय और स्वायत्तशासी निकायों के कार्यो में हस्तक्षेप भी माना है। इस योजना के साथ यह दलील भी जुड़ी है कि यह सांसद और विधायकों को कर्त्तव्यों से विमुख भी करती है। क्योंकि वे अब नीति निर्माण और निगरानी जैसे दायित्वों का निर्वाह करने की बजाय खुद विकास कार्यो से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष जुड़ गए हैं। नतीजतन विधायिका, नौकरशाह और ठेकेदारों का एक ऐसा गठजोड भी वजूद में गया है, जो इस अरबों रुपए की निधि कैसे निजी संपत्ति का हिस्सा बने इस फिराक में लगा, रहता है। इसी सोच का परिणाम था कि करीब दस साल पहले एक समाचार चैनल के स्ंिटग ऑपरेशन की सत्यता प्रमाणित होने के बाद तत्काल ग्यारह सांसदों की लोकसभा से सदस्यता भी रद्द कर दी गई थी। इस निधि के उपयोग के बाबत एक जनहित याचिका के मार्फत चूनौती भी दी गई थी। लेकिन 6 मई 2010 को तत्कालीन न्यायमूर्ति के जी बालकृष्णन की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने इस मामले में किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया था। इस स्थिति पर कोई पुनर्विचार करने की बजाय तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सरकार ने इस फैसले को योजना के पक्ष में माना और इसकी संवैधानिकता पर सवाल खडे करने वाली संस्थाओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया। बहरहाल तीन दशक से चली आ रही इस योजना के कोई बुनियादी लाभ तो हुए नहीं, योजना सांसद और विधायकों का चारित्रिक पतन करते हुए उनका नैतिक बल कमजोर करने में जरूर सहायक बनी हुई है।
हमारे देश ने आजादी के साथ ब्रिटेन से संसदीय प्रणाली तो ली है, किंतु उनके आदर्श मानक नहीं लिए। ब्रिटेन और अमेरिका में संसदीय परंपरा के अनुसार, वहां ऐसी संवैधानिक बाध्यता है कि सीनेटर बनने के बाद व्यक्ति को अपने व्यावसायिक हित छोड़ने पड़ते हैं। किंतु हमारे यहां इसके ठीक विपरीत होता है। व्यक्ति जब सांसद या विधायक बन जाता है तो वह बिना किसी ठोस व वैधानिक कारोबार किए साल दर साल बड़ा उद्योगपति बनता चला जाता है। यहीं कारण है कि हमारी लोकसभा, राज्यसभा और विधानसभाओं में करोड़पति एवं अरबपति जनप्रतिनिधियों की संख्या आधी से ज्यादा पहुंच गई है। इसीलिए ये प्रतिनिधि अपने बुनियादी दायित्व का ईमानदारी से निर्वहन करने की बजाए अपने निजी काम धंधों में लगे रहते हैं। इसीलिए संसद और विधानसभाओं में इनकी उपस्थिति लगातार घट रही है।
(लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं)

कुंबापरस्ती में डूबे राजनेता
-निर्मल रानी
कांग्रेस विरोधियों द्वारा वैसे तो परिवारवाद की राजनीति करने के लिए सबसे बदनाम परिवार होने का तमगा नेहरू-गांधी परिवार को ही दे दिया गया है। परंतु यदि हम बारीकी से इस विषय पर अध्ययन करें तो हमें यही देखने को मिलता है कि पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी अथवा सोनिया गांधी ने भी अपनी संतान मोह में आकर उस स्तर तक नीचे जाने की कोशिश नहीं की जहां तक देश के दूसरे सत्तालोभी राजनेता जाते दिखाई दे रहे हैं। तमिलनाडु में एम करुणानिधि, ‎बिहार में लालू प्रसाद यादव तथा रामविलास पासवान, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, महाराष्ट्र में बाल ठाकरे का घराना जैसे और भी कई राजनेता ऐसे हैं जिन्होंने योग्यता-अयोग्यता को नज़रअंदाज़ करते हुए तथा अपने संगठन तथा प्रदेश के भविष्य को दांव पर लगाते हुए महज़ अपनी कुंबापरस्ती के लिए सभी हदों को पार करने का काम किया है।
करूणानिधि के परिवार में उनके पुत्रों के मध्य सत्ता संघर्ष की खबरें आती रहती हैं। केंद्र सरकार में किसी के साथ गठबंधन करना हो या प्रदेश की सत्ता हाथ में हो, उस समय करुणानिधि को अपनी संतानों अथवा अन्य परिजनों को प्रथम वरीयता के आधार पर मंत्री का पद देना अनिवार्य समझा जाता है। इसका अर्थ यह नहीं कि डीएमके में करुणानिधि के कुनबे के सदस्यों से अधिक शिक्षित, तजुर्बेकार अथवा वरिष्ठ नेता कोई नहीं है। बल्कि यह महज़ कुंबापरस्ती की एक पराकाष्ठा है जो करुणानिधि जैसे कई राजनैतिक घरानों में पाई जाती है। इसी रोग ने महाराष्ट्र में ठाकरे परिवार में विभाजन खड़ा कर दिया। ताज़ा तरीन उदाहरण इन दिनों सु‎र्खियों में रहने वाले बिहार राज्य का है। देश में दलबदल तथा वामपंथ-दक्षिणपंथ की बहस से दूर तथा किसी भी वैचारिक प्रतिबद्धताओं को दरकिनार करते हुए केवल और केवल सत्ता के साथ रहने वाले लोकजन शक्ति पार्टी के नेता रामविलास पासवान ने 2015 में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ा था। इस चुनाव में तथा इससे पूर्व 2014 में हुए संसदीय चुनाव में भी अपने पुत्र व भाईयों सहित कई रिश्तेदारों को पार्टी टिकट वितरित किए। चिराग पासवान नामक इनके पुत्र जो फिल्म जगत से लेकर क्रिकेट तक में अपना भविष्य आज़मा चुके हैं परंतु इन दोनों ही क्षेत्रों में असफल होने के बाद उन्हें अपने पिता की राजनैतिक विरासत को संभालने में ही सफलता दिखाई दी।
इस बार फिर जबकि बिहार के विकास बाबू कहे जाने वाले नितीश कुमार को देश की राजनीति में पलटी बाबा जैसे नए नाम से जाना जा रहा है इसमें भी पासवान कुंबापरस्ती की भूमिका निभाने में पीछे नहीं हैं। भले ही इसके नतीजे में राजग में दरारें ही क्यों न पड़ने लगें। हालांकि मुख्यमंत्री नितीश कुमार ने विधानसभा में विश्वासमत हासिल कर लिया है। परंतु उनकी टांग खींचने में लगे दूसरे नेता या वे नेता जो इस पलटीमारी के सत्ता परिवर्तन में केंद्र अथवा राज्य सरकार में अपनी मर्ज़ी का स्थान नहीं पा सके वे अवसरों की तलाश में लगे हुए हैं। सूत्रों के अनुसार नितीश कुमार ने अपने नवगठित मंत्रिमंडल में भाजपा के सहयोगी घटक लोजपा के जिस एकमात्र मंत्री को मंत्रिमंडल में शामिल किया है वह न तो विधानसभा का सदस्य है न ही विधानपरिषद का। जबकि इन दोनों ही सदनों में लोजपा के कई वरिष्ठ सदस्य मौजूद हैं। परंतु मंत्रीपद पर सुशोभित होने वाले व्यक्ति की विशेषता केवल यही है कि वह रामविलास पासवान के भाई बताए जा रहे हैं। इस घटनाक्रम से बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी जैसे कई नेता नाराज़ दिखाई दे रहे हैं। और कोई आश्चर्य नहीं कि नाराज़गी के यह स्वर किसी राजनैतिक विद्रोह का रूप भी धारण कर लें।
बिहार में ही आज लालू प्रसाद यादव के साथ जो भी घटनाक्रम चलता दिखाई दे रहा है उसके लिए भी उनकी कुंबापरस्ती ही ज़िम्मेदार है। लालू प्रसाद यादव का भ्रष्ट होना कोई खास मायने नहीं रखता। खासतौर पर भाजपा जैसे उस दल के लोग तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुखरित होने का वैसे भी नैतिक अधिकार इसलिए नहीं रखते क्योंकि उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण रिश्तव लेते हुए कैमरे में कैद हो चुके हैं। व्यापम जैसा घोटाला भारतीय भ्रष्टाचार के इतिहास में अब तक का सबसे बड़ा व खतरनाक घोटाला माना जा रहा है। कर्नाट्क के रेड्डी बंधुओं के भ्रष्टाचार व अनियमितताओं के ‎किस्से जगज़ाहिर हैं। येदिउरप्पा जैसे भ्रष्ट नेता भी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के ही सिपहसालार थे। ऐसे में यदि लालू भी भ्रष्ट थे या हैं तो कोई आश्चर्य का विषय नहीं है। कांग्रेस से लेकर देश के लगभग सभी राजनैतिक दलों के कोई न कोई नेता भ्रष्टाचार में संलिप्त रहे हैं। यह और बात है कि किसी ने भ्रष्टाचार करने में सफाई से काम नहीं लिया और अपने भ्रष्ट निशान छोड़ गए वे तो कानून की गिरफ्त में आ गए या जेल की सलाखों के पीछे चले गए और जो चतुर खिलाड़ी थे वे भ्रष्टाचार भी करते जा रहे हैं और भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुखरित भी होते दिखाई देते हैं। परंतु लालू प्रसाद यादव को सबसे अधिक समस्या जिस विषय को लेकर खड़ी हो रही है वह उनकी कुंबापरस्ती या परिवार के प्रति उनका मोह ही है।
लालू यादव के राजनैतिक ह्रास की कहानी उस समय शुरु होती है जबकि 1997 में चारा घोटाले के आरोप में लालू यादव को जेल जाना पड़ा। चूंकि लालू यादव उस समय बिहार के मुख्यमंत्री थे इसलिए उन्हें अपने उत्तराधिकारी का चयन बहुत ज़िम्मेदारी के साथ तथा सोच-समझकर करना चाहिए था। परंतु उन्होंने अपनी गैर तजुर्बेकार तथा अशिक्षित पत्नी राबड़ी देवी को प्रदेश का मुख्यमंत्री बना डाला। ठीक है, वे ऐसा कर सत्ता को अपने घर की चहारदीवारी में कैद कर रखने में तो ज़रूर सफल रहे परंतु इसका दूरगामी परिणाम यह रहा कि इससे बिहार की काफी जगहंसाई हुई। पिछले 2015 के चुनाव में भी जब महागठबंधन की सरकार बनी तो पुत्र मोह में डूबे लालू यादव को अपने ही दो पुत्रों के सिवा तीसरा कोई वरिष्ठ व तजुर्बेकार नेता नज़र ही नहीं आया जिसे वे राज्य का उपमुख्यमंत्री बनाते। आज परिस्थितियां सबके सामने हैं। भाजपा के इशारे पर लालू प्रसाद यादव के साथ की जा रही बदले की कार्रवाई को तो पूरा देश देख ही रहा है परंतु साथ-साथ देश यह भी महसूस कर रहा है कि आज उनके साथ जो कुछ भी घटित हो रहा है उसके लिए उनकी कुंबापरस्ती तथा परिवारवाद ही सबसे अधिक ज़िम्मेदार है।
उत्तर प्रदेश में मुलायमसिंह यादव की समाजवादी पार्टी के साथ जो कुछ घटित होता हुआ दिखाई दे रहा है उसके लिए भी मुलायम सिंह यादव की कुंबापरस्ती की राजनीति ही ज़िम्मेदार है। यदि मुलायम सिंह यादव के करीबी लोगों पर नज़र डाली जाए तो इनके वफादारों में यादव कुनबे से बाहर के लोग अधिक दिखाई देंगे जबकि जितने भी परिवार के सदस्य या भाई-भतीजे नज़र आएंगे वे सभी एक-दूसरे से बढ़त हासिल करने की ‎फिराक़ में लगे दिखाई देंगे या फिर एक-दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश में मशगूल नज़र आएंगे। 2012 में अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने के समय से लेकर समाजवादी पार्टी में इन दिनों आई भीषण दरार तक के सफर में यह बात गौर से देखी जा सकती है। यह परिस्थितियां एक प्रबुद्ध राजनेता के सोचने के लिए काफी हैं कि राजनीति में कुंबापरस्ती अथवा परिवारवाद का अनुसरण करना चाहिए या नहीं। इसमें कोई शक नहीं कि कुंबापरस्ती का रोग किसी व्यक्ति की राजनीति, उसके संगठन यहां तक कि उसकी सामाजिक छवि, उसके जनाधार तथा उसके अपने राजनैतिक भविष्य तक के लिए खतरा हो सकता है।

दुर्भाग्यपूर्ण है नीति आयोग के उपाध्यक्ष पनगढ़िया का इस्तीफा…
(ज़हीर अंसारी)
दुर्भाग्य कि विश्व प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अरविंद पनगढ़िया नीति आयोग के उपाध्यक्ष पद का त्याग कर शैक्षणिक क्षेत्र में वापिस लौट रहे हैं। यानि वे फिर अमेरिका का रुख करेंगे। इसके पहले रिजर्व बैंक के गवर्नर एन रघुराम राजन ऐसा कर चुके हैं। अरविंद पनगढ़िया का इस्तीफा भले ही केन्द्र सरकार के लिए कोई मायने न रखता हो पर भारतीय मूल के विश्व भर में फैले विद्वान अर्थशास्त्रियों के लिए मायने रखता है। जिन अरविंद जी स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जनवरी 2015 में नीति आयोग का उपाध्यक्ष बनाया था, अचानक उनका इस्तीफा कई महत्वपूर्ण सवालों की तरफ इंगित करता है।
क्या श्री पनगढ़िया नीति आयोग और केन्द्र सरकार की रीति-नीति से खुश नहीं थे, क्या वे वहां घुटन महसूस कर रहे थे, का जवाब सीधा तो नहीं मिल सका लेकिन उनको जानने वाले अर्थशास्त्रियों का समझना है कि देश संचालन के लिए जिस से की नीतियों और फार्मूले बनाए जा रहे हैं उससे वे नाखुश चल रहे थे। वे नोटबंदी के पक्ष में भी नहीं थे लेकिन मजबूरी वश मूक बने रहे। जानकारों का कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था के लिए जिस तरह का प्रयोगात्मक तौर-तरीके अपना जा रहा है, वह उन्हें रास नहीं आ रहा था। श्री पनगढ़िया का इस्तीफा देना इस ओर इंगित करता है कि या तो देश की अर्थव्यवस्था बेपटरी हो रही या फिर ध्वस्त होने जा रही है। इसी अंदेशे के चलते श्री पनगढ़िया ने अपना पद त्यागा ताकि उनकी अंतर्राष्ट्रीय छवि को धक्का न लगे।
अमेरिका में भारतीय मूल के कौशिक बसु, आमर्त्य सेन, जगदीश भगवती और अरविंद पनगढ़िया अव्वल दर्जे के अर्थशास्त्री माने जाते हैं। इन सब का अपना एक ओहदा है। ये ऐसे अर्थशास्त्री हैं जो किसी बंधन या किसी पक्षपाती विचारधारा में नहीं सिमट सकते, इनकी सोच समग्रता की होती है। इन जैसे हाई आर्डर इकॉनामिस्ट 40 साल तपने के बाद तैयार होते हैं। 40 सालों की कठिन तपस्या के बाद यदि इन्हें कोई जंजीरों में जकड़े तो ये उसे तोड़ने में तनिक भी देरी नहीं करते। अपने सिद्धांतों से समझौता ऐसे लोगों को क़तई पसंद नहीं होता।जानकार बताते हैं कि भारतीय अर्थव्यवस्था और केन्द्र सरकार के कामकाज के तौर तरीके पर प्राय: इन चारों में बातचीत होती रहती है क्योंकि ये सभी काफी गहराई से आपस में जुडे हुए हैं। जब कोई विद्वान अपनी जिम्मेदारी त्यागे तो सामान्य तौर पर यही कहा जा सकता है कि या तो व्यवस्था उसे समझ नहीं पा रही है या फिर वह व्यवस्था को।
श्री पनगढ़िया 30 अगस्त तक अपना पदभार छोड़कर वापस अमेरिका चले जाएंगे जैसे पूर्व आरबीआई गवर्नर एन रघुराम राजन चले गए। अब इसके बाद क्या यह सवाल भी उठ रहा है। अब एक मौका सुब्रामण्यम स्वामी को भी मिलना चाहिए। श्री स्वामी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी से शिक्षित हैं। अर्थशास्त्र और कानून पर उनकी अच्छी पकड़ है। हिन्दुत्व पर उनकी गहरी आस्था है इसलिए उन्हें नीति आयोग के उपाध्यक्ष के साथ-साथ चीफ इकॉनामिक एडवाईजर का जिम्मेदारी सौंपी जानी चाहिए।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे रवीन्द नाथ टैगोर
( पुण्यतिथि 7 अगस्त पर विशेष)
– मनोहर पुरी

भारतीय संस्कृति के अमर गायक रवीन्द नाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कोलकता में हुआ। बाल्यकाल से ही वह अत्यन्त कल्पनाशील थे। उन्होंने आठ वर्ष की अल्पायु में ही कविता लिखना शुरू कर दिया था। रवीन्द नाथकी काव्य प्रतिभा को उनके परिवार के सदस्यों ने शुरू में ही पहचान लिया था। किशोरावस्था में उन्होंने श्रेष्ठ काव्य कीरचना प्रारम्भ कर दी थी। वे शोर-शराबे और भीड़-भाड़ वाले स्थानों को छोड़ कर प्रकृति की गोद में रहना पसन्द करते थे। घन्टों अपने कल्पना लोक में विचरण करते रहते। प्राकृतिक सुन्दरता में ही उन्हें ईश्वर के दर्शन होते थे। साहित्य के अतिरिक्त उन्होंने नृत्य,गायन और संगीत की साधना भी की। रवीन्द नाथ टैगोर का विवाह मृणालिनी देवी के साथ सन् 1883 ई. में हुआ। उन्होंने पांच संतानों को जन्म दिया। उनका मत था कि बच्चों को शिक्षा प्रकृति की खुली गोद में दी जानी चाहिए। अत उन्होंने ऐसी पाठशाला खोलने का निश्चय किया जिसमें छात्र पूरी स्वतंत्रता से अध्ययन कर सकें। रवीन्द नाथ टैगोर ने सन् 1901ई. में शान्तिनिकेतन में ऐसे ही विद्यालय की स्थापना की। वहां प्रकृति की गोद में प्राचीन आश्रमों जैसी पाठशाला का वातावरण तैयार किया गया। वहां छात्रों को हर प्रकार की नैतिक ,धार्मिक,सामाजिक और आध्यात्मिक शिक्षा प्रदान की जाने लगी।
इस शिक्षा संस्थान को चलाने में उन्हें अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। उनके स्कूल को न तो कलकता विश्व विद्यालय ने मान्यता दी और न ही सरकार ने । पचास वर्ष तक वे इसे अपनी पुस्तकों और पैतृक सम्पति की आय के बल पर ही चलाते रहे। रविन्द नाथ टैगोर अपना हर कार्य बहुत ही तन्मयता से पूरा ध्यान लगा कर करते थे। अपने मार्ग में आने वाली हर बाधा का वह बहुत ही निर्भयता से सामना करते थे। इसके लिए उन्हें अपनी जान की भी परवाह नहीं होती थी। एक बार एक व्यक्ति उनकी हत्या करने के लिए हाथ में छुरा लिए उनके कक्ष में प्रविष्ठ हो गया। उन्होंने उस व्यक्ति की ओर देखा परन्तु अपना काम करते रहे। थोड़ी देर में उन्होंने पूछा,”क्या चाहते हो।“ उस व्यक्ति ने कहा मैं आपकी हत्या करने के लिए यहां आया हूं। टैगोर तनिक भी विचलित नहीं हुए और उससे बोले,” मैं एक जरूरी पत्र लिख रहा हूं। इसलिए कुछ देर ठहर जाओ। इतना कह कर वह पुन अपने काम में जुट गये। आने वाला व्यक्ति दंग रह गया। सोचने लगा यह कैसा आदमी है जिसे मौत का भी भय नहीं है। जो मौत को इतनी सहजता से लेता है उसे मारने से क्या लाभ होगा। वह दोनों हाथ जोड़ कर उनके सामने खड़ा हो गया। जब उन्होंने कुछ नहीं कहा तो उनके पैरों पर गिर कर क्षमा मांगने लगा। सहज होने पर उसने गुरूदेव से प्रश्न किया, मैं आपकी हत्या करने के लिए आया था परन्तु आप तो तनिक भी विचलित नहीं हुए । इसका क्या कारण है। गुरूदेव ने उत्तर दिया कि निर्भय रह सकने का गुण उसी में विकसित हो सकता है जिसने अपने भीतर शक्ति के स्रोत कें विकसित कर लिया हो। वह व्यक्ति नतमस्तक हो कर लौट गया।
रविन्द नाथ टैगोर ने गीतांजली और हमारे राष्ट्रीय गान ’जन-गण-मन‘ की रचना की। सन् 1910ई. में वह विदेश गए तो अनेक लेखकों एवं मित्रों के अनुरोध पर गीतांजली का अंग्रेजी में अनुवाद प्रकाशित करवाया गया।उनकी काव्य रचना ”गीतांजलि “ के अंग्रेजी अनुवाद से उन्हें साहित्य जगत में जो मान्यता मिली वह एशिया के किसी अन्य कवि को प्राप्त नहीं हुई थी। कविता में कल्पना की इसी उडान ने साहित्य के क्षेत्र में उन्हें भारत ही नहीं एशिया के प्रथम नोबल पुरुस्कार विजेता का गौरव प्रदान करवाया। पुरस्कार से प्राप्त राशि को उन्होंने शान्ति नेकेतन के लिए खर्च कर दिया।
जब उन्हें नोबल पुरुस्कार मिला तो उनके पास विश्व भर से बधाई संदेश आने लगे। उनके घर पर भी निरन्तर समाज के गणमान्य लोगों का आना जाना बहुत बढ़ गया। उनका एक पड़ोसी निरन्तर यह दृश्य देखता रहता था परन्तु कभी भी गुरूदेव का अभिवादन नहीं करता था। उसे लगता न जाने ऐसी क्या विशेष बात है कि लोग इनके चरण स्पर्श करने की होड़ में लगे रहते हैं। टैगोर भी पड़ोसी के उदासीनतापूर्वक व्यवहार को देख कर परेशान होते थे। उन्हें लगाकि शायद किसी कारण से मेरा पड़ोसी मुझ से रूष्ठ है। टैगोर ने सोचा यदि मेरा पड़ोसी मेरा अभिवादन नहीं करता तोमुझे ही पहल करना चाहिए। यह विचार मन में आते ही वह पड़ोसी के घर पर गए और उसके चरण छू कर उसका अभिवादन किया। वह टैगोर को अपने घर आया और चरण स्पर्श करते देख हैरान हो गया। उसकी आंखों से आसूं बहने लगे। बोला,” आप जैसा देवतुल्य व्यक्तित्व ही नोबल पुरुस्कार का वास्तविक अधिकारी है। इतना कह कर वह उनके चरणों में नत मस्तक हो गया। रविन्द नाथ की प्रतिभा और विशेष रूप से उनको नोबल पुरुस्कार की प्राप्ति के कारण बहुत से लोग उनके साथ ईर्ष्या रखने लगे थे। कुछ उनकी निंदा तक करने से बाज नहीं आते थे। लाख आलोचनाएं सुनने के बाद भी उन्होंने कभी किसी की निंदा नहीं की और न ही किसी आलोचक को कोई उत्तर दिया। उनका कहना था कि आलोचकों को उत्तर देने के लिए उन्हें भी उसी स्तर पर उतरना होगा जोकि उनके लिए संभव ही नहीं था।
रवीन्द नाथ टैगोर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। रवीन्द नाथ टैगोर ने अपनी बहुमुखी प्रतिभा के द्वारा भारतीय एवं मानव संस्कृति की महान सेवा की। रवीन्द नाथ टैगोर ने शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण एवं क्रान्तिकारी कार्य किया। वर्तमान शिक्षा प्रणाली को दोषपूर्ण बताते हुए उन्होंने कहा कि,” हमारे देश में शिक्षा की प्रचलित प्रणाली कठिन और कठोर है। उन्होंने कविता के अतिरिक्त उपन्यास,निबन्ध और नाटक भी उतनी ही कुशलता से लिखे। अपने अनूठे संगीत से उन्होंने संगीत और संगीतशास्त्र के सम्मान को बढ़ाया। उनके नाम पर ही संगीत की एक धारा रवीन्द संगीत के नाम से विख्यात हुई। अपने जीवन के अंंितम वर्षों में उन्होंने तूलिका से कमाल दिखाना प्रारम्भ किया । उन्होंने हजारों सुन्दर चित्र बना कर चित्र कला को समृद्ध किया। अपनी कल-कृतियों और रचनाओं के माध्यम से टैगोर ने मानव-मूल्यों के बारे में जो विचार व्यक्त किए, वे राजनीतिक चिंतन की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
रविन्दनाथ टैगोर मानते थे कि आनन्द मानव प्रकृति का मूल तत्व है। सुंदर दृश्य,मधुर ध्वनि,सुगंध,स्वाद और स्पर्श मानव मन में आनन्द का संचार करते हैं। व्यक्तिगत जीवन में भी वह सदैव आनन्द मग्न रहते थे और आनन्द प्राप्त करने के किसी भी अवसर को हाथ से नहीं जाने देते थे। रविन्द नाथ टैगोर को आम खाना बहुत पसंद था। एक बार वह चीन के प्रयास पर थे। उनके कुछ प्रशंसकों ने उनके लिए फिलिपीन्स से आम भिजवाये। बड़े आनंद के साथ वह आम खाने बैठे तो पाया कि इन आमों में बहुत रेशे थे। ऐसे आमों को काट कर खाना एक कठिन कार्य था। उन्होंने सोचा कि इन्हें तो चूस कर ही आनंदपूर्वक खाया जा सकता है। वह तत्काल आमों की ढेरी के सम्मुख हाथ जोड़ कर बैठ गए। जब उनसे प्रश्न किया गया कि आप आमों को नमस्कार क्यों कर रहे हैं तो उन्होंने उत्तर दिया,इन आमों के रेशे मेरी दाढ़ी के बालों से अधिक लम्बे हैं। अतएव ये आम नहीं बल्कि मेरी बड़े भाई हैं इसीलिए मैं इन्हें प्रणाम कर रहा हूं।
ऐसे महान स्वप्नदृष्ठा और युगप्रवर्तक से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी अत्याधिक प्रभावित थे। गांधी जी उन्हें अपना मार्ग दर्शक मानते थे। गांधी जी ने भारतीय संस्कृति के लिए उनके अतुलनीय योगदान से प्रभावित हो कर उन्हें ”गुरूदेव“ की उपाधि से सम्मानित किया। कृतज्ञ भारतीय गणतंत्र ने उनके जन-गण-मन गान को राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार किया। उनकी बहुमुखी प्रतिभा ने जीवन के हर क्षेत्र -साहित्य,शिक्षा,संगीत और कला को समृद्ध बनाया। सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्र में भी उन्होंने अपनी पहचान बनाई। ऐसे गौरवशाली महान व्यक्तित्व वाले गुरूदेव रवीन्द नाथ टैगोर का 7 अगस्त 1941में निधन हो गया।

बोए पेड़ बबूल का फूल कहां ते होय…..- भरतचन्द्र नायक
भारतीय लोकतंत्र की महिमा निराली है। यहां दशकों तक एक राजनैतिक दल ने आजादी के जंग में कामयाबी का श्रेय भी लूटा और राजनैतिक एकाधिकार भी जमाया। तब निर्वाचित सरकारे लोकतंत्र के नाम पर भंग भी की जाती रही और समय आने पर आया राम गया राम का खेल भी गुजरात और हरियाणा में खेलते हुए राजनैतिक कुशलता का ढोल भी पीटा गया। दिवंगत नेता भजनलाल का उल्लेख खूब हुआ और एक शब्दावली भी गढ़ी गयी लेकिन बलिहारी देश के मतदाताओं की जिन्होंने मुफलिस और मजलूम माने जाने पर भी करिश्मा कर दिखाया। उक्त पार्टी के एकाधिकार का दंभ खंडित किया। विकल्प भी पैदा किया। लोकशाही का मर्म सिखाते हुए फकीरों को बादशाह का रूतबा बख्श दिया। अब वही एकाधिकार वाले बादशाह तोहमत लगा रहे कि उनकी विरासत छीन कर बेइन्साफी की गयी है। जिस निजाम पर पक्षधरता का इल्जाम चस्पा होता रहा। वे ही अब चीख रहे है। उनका आरोप है कि लोकतंत्र को सरेआम लूटा जा रहा है।
चारों तरफ नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की जुगलबंदी के चर्चे है। राज्यसभा के चुनाव की सरगर्मी जारी है। उसके 6 माह बाद गुजरात के चुनाव है। इसी दरम्यान बिहार में जनता दल यू के राष्ट्रीय अध्यक्ष नीतिश कुमार ने महागठबंधन से दूरी बनाकर एनडीए का साथ पकड़ लिया। चारों तरफ कोहराम मचा। राहुल गांधी ने इसे महागठबंधन के साथ विश्वासघात बताया वहीं लालूप्रसाद यादव ने कहा कि यह जनता दल यू और कांग्रेस को मिले जनादेश का अपमान है। उपरी तौर पर उनकी आपत्ति सही भी लगती है, लेकिन नीतिश कुमार समर्थकों का यह कहना कि जनादेश जरूर जनता दल यू और कांग्रेस को ही मिला था और इस पर कायम रहना नैतिक जिम्मेदारी बनती थी लेकिन जनादेश के साथ बिहार के अवाम में यह भावना भी थी कि नीतिश कुमार की सरकार साफ सुथरा प्रशासन देगी और उनकी गठबंधन सरकार भ्रष्टाचार के प्रति जीरो टाॅलरेंस की प्रतिबद्धता पर खरी उतरेगी। लिहाजा जब नीतिश बाबू ने देखा कि न तो लालू परिवार भ्रष्टाचार का स्पष्टीकरण देना चाहता है और न भ्रष्टाचार पर प्रायश्चित करने का साहस दिखा रहा है तो वे भ्रष्टचारी शासन को ढोते रहकर कलंक के भागी क्यों बनतें लेकिन लालू प्रसाद यादव ने सत्ता पलट बर्दाश्त करने के बजाए नीतिश कुमार के खिलाफ अभिलेखागार से एक आरोप भी खोद निकाला और लेकर घूमते फिर रहे है। बात यही समाप्त नहीं होती बौखलाहट में नित नए आरोप लगाकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को घेरने की जुर्रत की जा रही है लेकिन राहुल बाबा और गुलाम नवी आजाद इस बात को गंवारा करने को तैयार नही है कि यदि राज्यसभा चुनाव की बेला में विधायक पाला बदल रहे है तो पूरी सरकार के दल बदल करने का शिल्प तो कांग्रेस की ही देन है जिसने आया राम गया राम को शह देकर सरकारे पलटी और एकाधिकार को मजबूत किया। फिर आमजन चुनाव की आहट में विधायक आ जा रहे है तो स्यापा की क्या बात है। विधायकों के इस्तीफा देकर दूसरे दल में शामिल होने के पीछे पार्षदों द्वारा अपनी विफलता, संगठन की अप्रासंगिकता पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। मां बेटा की पार्टी ने तो राज्यों के संगठन पर गौर करना छोड़ दिया। वरिष्ठ नेता बेकद्री से संगइन से विरक्त हो गए। जो डूबते जहाज से निकलकर राजनैतिक वैतरणी पार करना चाहते है वे ठौर देख रहे है। इसमें प्रधानमंत्री को लपेटना अमित शाह को घसीटने के बजाए कांग्रेस का श्रेष्ठ वर्ग आत्म परीक्षण करने का साहस क्यों नहीं दिखाता। चूक सरासर कांग्रेस की है जो सूबायी संगठनों को कबीलाई जंग में जाता देखकर भी तटस्थ दर्शक बनकर रह गया है। इसी तरह उत्तर प्रदेश में यदि राजनैतिक दलों से पलायन हो रहा है तो दलीय विफलता के अलावा क्या कहा जा सकता है, लेकिन मजे की बात है कि किं कत्र्तव्यं विमूढ़ समाजवादी पार्टी के प्रमुख अखिलेश यादव इस पलायन को भाजपा का राजनैतिक भ्रष्टाचार और बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख वहन मायावती इसे सत्ता की भूख बताकर हकीकत से मुंह मोड़ रही है।
आज हकीकत को अवसरवादिता के पैमाने पर देखना राजनैतिक दलों की फितरत बन गयी है। यदि ऐसा न होता तो कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी पं. बंगाल में हो रही जातीय हिंसा और केरल की वामपंथी सरकार की शह पर राष्ट्रवादी कार्यकर्ताओं के कत्ल के मामलों पर गौर करते और निंदा करते लेकिन उनका नजरिया वास्तविकता से भिन्न है और वे मोदी सरकार पर असहिष्णुता का इल्जाम लगा रहे है। आखिर वे जनता की आंखों में धूल झौंककर दलीय समर्थन खोने पर क्यों आमादा बने हुए है। ऐसे में एक विद्वान का यह कथन मौंजू है कि कल्पना शक्ति नाॅलेज से अधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि नालेज की तो सीमा होती है लेकिन कल्पना असीम है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष इसके धनी है और राजनीति की घिसी पिटी फितरते छोड़कर कल्पनाशीलता से जनता का मन मोह रहे है। कल्पना में विश्व समाया हुआ है। इसी के बल पर नरेन्द्र मोदी ने हताश मुल्क में सकारात्मक पर्यावरण रचा, उसे अमली जामा पहनाने का प्रयास किया। जनता का भरोसा जीता और भगवा परचम लहराया है। विपक्ष अरण्यरोदन करता फिर रहा है।
इस परिप्रेक्ष्य में जनता दल यू के पूर्व अध्यक्ष और वरिष्ठ नेता शरद यादव भी नीतिश कुमार से अप्रसन्न चल रहे है। वास्तव में उनकी नाराजगी के चर्चा उनकी प्रासंगिकता को नया रूप देने में सहायक हो सकती है और पुनर्वास का सिलसिला आगे बढ़ सकता है। राजनीति में तनिक भी रूचि लेने वालें इस बात पर अकस्मात दांतों तले अंगुली तो दबा लेते है कि एक जहाज का पंछी असुरक्षा के कारण दूसरे जहाज पर जा रहा है इसमें कोई अनुचित अवैध गोरखधंधा हो सकता है लेकिन जब वह याद करता है कि यह गोरखधंधा न तो नया और न इसकी अवैधता से आज विपक्ष अछूता है। उन्होंने सत्ता में रहकर कभी गौर नहीं किया है। अलबत्ता पूरी सरकार के पाला बदल लेने पर अपनी पीठ थपथपायी है। घोड़ा की मंडी का रिवाज तो उन्होंने ही आरंभ किया जो आज इस पर टीका टिप्पणी करते हुए यथार्थ से मुंह चुरा रहे है।
जिस तरह से उत्तर प्रदेश में विधान परिषद के सदस्यों ने पलायन किया और गुजरात में विधायकों ने कांग्रेस से किनारा किया है उससे अगस्त में होने जा रहे राज्यसभा के चुनाव के परिणाम अप्रत्याशित हो सकते है और कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अहमद पटेल की राज्यसभा पहुचने का रास्ता कंटकाकीर्ण बन सकता है। जहां तक राज्यसभा में एनडीए के वर्चस्व बढ़ने का सवाल है उसे 123 सदस्यों की गिनती पूरी करना है जिसके समीप पहुचकर उसने अल्पमत की लक्ष्मण रेखा को पार करने का कौशल दिखा दिया है। बुजुर्गो का कहना है कि संकट अकेला नहीं आता उसके साथ कई परेशानियां भी आती है। कमोवेश यही हालात देश में सबसे बड़े राजनैतिक दल कांग्रेस और उन क्षेत्रीय दलों की है जो वंश परंपरा और अपनी पारिवारिक विरासत के मत से नहीं उबर पाए है। इसमें कोई शक नहीं कि गुजरात जहां विधानसभा चुनाव सन्निकट है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह का गृह प्रदेश है, इसलिए गुजरात के चुनाव उनकी प्रतिष्ठा से जुड़े है। कांग्रेस में कद्दावर नेता रहे और वरिष्ठता का दर्जा हासिल करने वाले शंकर सिंह वाघेला का कांग्रेस से इस्तीफा और प्रदेश कांग्रेस संगठन में बिखराव कांग्रेस की विफलता है वही भाजपा के लिए वरदान साबित भी है। हर विफलता के पीछे सबब खोजना जरूरी समझा जाता है लेकिन सियासी दलों को यह मंजूर नहीं कि साहसपूर्वक कहे कि जनता ने उन्हें ठुकरा दिया। इसलिए वह ठीकरा तो फोड़ता है और जनता क्षणिक भ्रमित हो जाती है।

चीन अपने मुंह मियां मिट्ठू
(डॉ. वेदप्रताप वैदिक)
हमारे सीमांत पर चीन क्या खेल खेल रहा है, कुछ समझ में नहीं आता। अब वह कह रहा है कि देखिए, भारतीय कितने समझदार हैं कि उन्होंने दोकलाम से अपनी फौजें लगभग हटा ली हैं। 400 जवानों की जगह अब सिर्फ 40 जवान ही वहां बचे हैं। याने भारत डर गया है और वह अपने आप अपना कदम पीछे हटा रहा है। उसने चीनी सीमा में घुस आने की जो गल्ती की थी, उसे वह अपने आप सुधार रहा है। ऐसा कहकर चीन अपने मुंह मिया-मिट्ठू बन रहा है। भारत सरकार ने चीन की इस मनगढ़ंत कहानी को सिरे से रद्द कर दिया है। उसका कहना है कि हमारे जितने फौजी 16 जून को हमने दोकलाम पठार पर भेजे थे आज भी वहां उतने ही हैं और यदि वे वहां से हटेंगे तो तब ही हटेंगे जबकि चीनी फौजें भी वहां से हटें। इस बीच चीनी राष्ट्रपति के सख्त बयान भी आ चुके हैं। दो बार वे कह चुके हैं कि चीन अपनी संप्रभुता पर कोई हमला बर्दाश्त नहीं करेगा। दिल्ली स्थित चीनी दूतावास ने कल एक लंबा-चौड़ा बयान जारी करके दोकलाम-संकट के लिए भारत को जिम्मेदार ठहराया है। उसका कहना है कि दोकलाम-पठार पर सड़क-निर्माण करने के पहले चीन ने भारतीय अधिकारियों को नोटिस भी भेजा था। भारत ने इस बात को भी निराधार बताया है। समझ में नहीं आता कि चीन चाहता क्या है ? उसकी इन बयानबाजियों से लगता यह है कि वह भारत पर दबाव बनाना चाहता है। याने मुठभेड़ तो न हो और भारत डर कर अपनी फौज दोकलाम से हटा ले। हमारे सुरक्षा सलाहकार अजीत दोभाल की चीन-यात्रा का भी कोई असर चीनियों पर दिखाई नहीं पड़ रहा है। कुछ चीनी विद्वानों का यह विश्लेषण भी बेअसर साबित हो रहा है कि यदि दोकलाम को लेकर भारत-चीन युद्ध हो गया तो चीन की ‘ओबोर’ नामक एशियाई महापथ की योजना भी खंड-बंड हो जाएगी। एशिया के कई देश चीन के साथ सहयोग नहीं करेंगे। ऐसा नहीं है कि चीन इस तथ्य को नहीं समझता। उसे पता है कि अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार लीजा कर्टिस आजकल भारत में हैं और ट्रंप-प्रशासन का चीन और पाकिस्तान से मोह भंग हो चुका है। चीन की आर्थिक प्रगति यों भी लड़खड़ा रही है। यदि युद्ध हो गया तो उसकी परेशानियां बढ़ेंगी और उसके व्यापार को भी धक्का लगेगा। ऐसा लगता है कि यदि यह तनाव अक्तूबर-नवंबर तक खिंचता गया तो शायद यह अपने आप ही हल हो जाए। ठंड के मारे दोनों फौजें अपने आप दोकलाम से खिसक लेंगी।

एक हकीकत थी सहस्राब्दियों पुरानी सरस्वती नदी
भारत में सहस्राब्दियों पहले रचे गए वेदों में वर्णित सरस्वती नदी एक हकीकत थी। भौगोलिक, प्राकृतिक परिवर्तनों और मानवीय कारगुजारियों के कारण वह नदी लुप्त होकर सिर्फ मंत्रों में शेष रह गई। लेकिन कालक्रम से उसके अवशिष्ट सामने आने लगे। जैसे समुद्र में डूबी प्राचीन द्वारका के अवशेष खोज में सामने आ गए, वैसे ही सरस्वती के प्रवाह क्षेत्र के प्रमाण उसके होने की गवाही देने लगे। प्रमाणों ने विश्वास जगाया तो खोज को वैज्ञानिक ढंग से आगे बढ़ाने का संकल्प दृढ़ होने लगा। अब ऐसे ही संकल्प की पूर्ति के लिए विलुप्त सरस्वती नदी को पुनजीर्वित करने के लिए हरियाणा सरकार के सरस्वती धरोहर बोर्ड और तेल एवं प्राकृतिक गैस निगम (ओएनजीसी) के बीच समझौता है। इसके तहत सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग में ओएनजीसी 100 कुएं बनाकर नदी का पता लगाएगी।
हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और केन्द्राrय पेट्रोलियम एवं प्राकृतिक गैस राय मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान की उपस्थिति में इसके लिए सहमति पत्र पर हस्ताक्षर किए गए। इसके तहत सरस्वती नदी के पुनर्जीवन की इस परियोजना में केन्द्राrय जल संसाधन मंत्रालय की एजेंसी वैपकॉस सलाहकार के रूप में कार्य करेगी। योजना के तहत वैपकॉस द्वारा नदी मार्ग का सर्वेक्षण किया जाएगा। इसके पहले ओएनजीसी द्वारा सरस्वती नदी के प्रवाह मार्ग पर दस कुएं खोदकर भूमिगत जल की संभावनाओं का पता लगाया जाएगा। नदी के प्रवाह मार्ग पर कुओं की संख्या 100 तक बढ़ाई जाएगी।
सरस्वती नदी भारतीय उपमहाद्वीप की वैदिक कालीन गौरव है। इसकी खोज के लिए यमुनानगर जिले में सरस्वती नदी के उद्गम स्थल आदिबद्री से गुजरात तक कई पुरातत्त्वेत्ताओं ने यात्राएं की हैं। नदी के अस्तित्व को तलाशने के लिए की गई इन यात्राओं के अनुभव के आधार पर हरियाणा सरकार द्वारा 2015 में गठित हरियाणा सरस्वती धरोहर बोर्ड का मुख्य उद्देश्य इस नदी का जीर्णोद्धार कर इसके प्राचीन स्थलों को विश्वस्तर पर धार्मिक पर्यटन केन्द्राsं के रूप में विकसित करना है।
सरस्वती नदी के प्रवाह पर उसके पुनरावतरण का सपना तो शायद साकार न हो सके लेकिन भूतल में जल मिलने से प्रवाह-क्षेत्र की पुष्टि तो होगी ही। पूरे देश की निगाहें इस अभियान पर रहेंगी। लोग देखना चाहेंगे कि इसका क्या परिणाम सामने आता है।

कश्मीर को धारा 370 से आजाद करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर की मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती ने दिल्ली की एक संगोष्ठी में जो कहा, वह नहीं कहती तो क्या कहतीं ? उन्होंने कहा कि यदि संविधान की धारा 370 और 35 ए को आपने हटा दिया तो कश्मीर की घाटी में कोई तिरंगा ध्वज फहरानेवाला भी नहीं मिलेगा। इन दोनों धाराओं को लेकर इतनी सख्त बात उन्होंने क्यों कही ? इसका पहला कारण तो यह है कि कश्मीर उनसे संभल नहीं रहा। उनके शासन के दौरान कश्मीर में जैसा कोहराम मच रहा है, वैसा पिछले शासनों में कम ही मचा है। दूसरा, भाजपा के साथ मिलकर सरकार चलाने को ज्यादातर अलगाववादी नेता काफिराना हरकत मानते हैं। महबूबा को पता है कि अगले चुनाव में यही तथ्य उनके गले का पत्थर बन जाएगा और यह उन्हें डुबो देगा। तीसरा, महबूबा के राजनीतिक विरोधी फारुक अब्दुल्ला और उमर अब्दुल्ला आजकल कश्मीर की घटनाओं पर जिस तरह के बयान दे रहे हैं, वे कश्मीरी वोटरों को रिझाने की कोशिश कर रहे हैं। उनकी राजनीतिक काट करने के लिए महबूबा ऐसा तेवर अख्तियार कर रही हैं, जो अलगाववादियों को भी अच्छा लगे। चौथा, महबूबा के बयान को पाकिस्तान में भी सराहा जा रहा है। अर्थात कश्मीर के पाकिस्तानपरस्त तत्वों में उनका विरोध पतला पड़ सकता है।
कारण जो भी हों, महबूबा का यह बयान लगभग निरर्थक है, क्योंकि पिछले 60-65 साल में संविधान की ये दोनों धाराएं– 370 और 35 ए, घिसते-घिसते अब बिल्कुल चेहराविहीन हो गई हैं। अपना प्रांतीय संविधान और प्रांतीय ध्वज तो सिर्फ दिखावे की चीजें हैं। कश्मीर अब भारत के अन्य राज्यों से भी बदतर हालत में है। क्या इतनी हिंसा, इतना असंतोष, इतनी असुरक्षा, इतनी फौज, केंद्र पर इतनी निर्भरता किसी अन्य राज्य की है ? तो फिर इस धारा 370 द्वारा कश्मीर को दिया गया विशेष दर्जा क्या शुद्ध पाखंड नहीं है ? इस पाखंड को खत्म करने की आवाज लगानेवाला नेता आज कश्मीर में कोई है क्या ? यह महबूबा और फारुक के बूते के बाहर की बात है। कश्मीर को भारत के एक सहज और पूर्ण राज्य का दर्जा देने की आवाज शेख अब्दुल्ला-जैसा कोई बड़ा नेता ही कर सकता था। धारा 370 ने कश्मीर को एक अधूरा और अधमरा प्रांत बना दिया है। धारा 370 के शिकंजे से जब तक कश्मीर आजाद नहीं होगा, कश्मीर में शांति नहीं होगी। कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने की आवाज पता नहीं कौन उठाएगा?

व्यक्ति नहीं, व्यक्तित्व हैं राजेंद्र शुक्ल 

-ताहिर अली
राजेंद्र शुक्ल … मध्यप्रदेश के राजनीतिक परिदृश्य पर एक चमकदार नक्षत्र के रूप में उपस्थित यह नाम किसी व्यक्ति भर का नहीं है, बल्कि एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व का हैं। व्यक्ति से लेकर व्यक्तित्व तक का उनका सफर ठीक वैसा है जो सोने का कुंदन में तब्दील होने का होता है।
इस सच्चाई से भला कौन इंकार कर सकता है कि समय और समाज किसी व्यक्ति को नहीं एक व्यक्तित्व को ही याद रखता है। एक अमिट व्यक्तित्व के गुण-धर्म की चर्चा की जाये तो शिखर पर पहुँचकर भी विनम्र बने रहना सबसे बड़ा गुण है। एक शब्द में इसे कहा जाये तो विनम्रता। जहाँ तक राजेंद्र शुक्ल जी की बात हैं तो शायद उन्हें विनम्रता की प्रतिपूर्ति कहना कतई अतिशयोक्ति नहीं हैं। सरलता के गुण ने श्री शुक्ल को विशिष्ट बनाया। मेरे जनसंपर्क विभाग के एक सहयोगी अधिकारी और मित्र श्री मनोज खरे की दो लाइनें इस संदर्भ में याद आती हैं:-
जीत नहीं सकते तुम मुझको,
क्योंकि कठिन नहीं, आसान बहुत हूँ।।
नि:स्वार्थ सेवा, अथक परिश्रम, गहन समर्पण, अटूट निष्ठा, जरूरतमंदों की मदद के लिए सदैव तत्परता और लक्ष्य तक पहुँचाने के लिए अविराम यात्रा की ऊर्जा ने उन्हें भीड़ में अपनी पहचान दी है। पुन: उन्हीं मित्र की कविता की दो पंक्तियाँ याद आ रही हैं-
भीड़ में भीड़ बनकर रहे तो क्या रहे?
भीड़ में अपनी निजी पहचान होनी चाहिए।।
वे नवोन्मेषी हैं। उनके आंतरिक मन के अंतरिक्ष में विचार-पुंज सदा गतिशील रहते हैं। उनकी निरंतर कुछ नया और कुछ विशेष करने की ऊष्मा हर पल नये विचारों का प्रस्फुटन करती रहती है। लक्ष्य और चुनौतियों से जूझने की विकट जुझारू शक्ति है उनमें। सौंपे गये दायित्वों का कुशल संपादन और निर्वहन करने की क्षमता का आकलन कर विरोधी भी प्रशंसा किये बिना नहीं रहते हैं। वे अपना जीवन हर घड़ी संघर्षों के ताप में तपने देते हैं। वे काम के प्रति अपने आपको झोंक देते हैं। उन्हें पता है कि इन्हीं काँटों भरे रास्तों से गुजरकर ही मंजिल मिलेगी। असफलताएँ उन्हें नई ऊर्जा देती हैं। मुश्किलें उनके लिए अवसर बन जाती हैं। निराशा और हताशा उनके जीवन-कोष में है ही नहीं।
वे जानते हैं कि जब जीवन की परीक्षाओं के घन एक बेडौल लोहे के टुकड़े पर निरंतर पड़ते हैं तो जल्दी ही वह टुकड़ा एक आकार ग्रहण कर लेता है जो जन उपयोगी होता है… समाज उपयोगी होता है… देश उपयोगी होता है। निश्चित रूप से व्यक्तित्व के निर्माण में भी ऐसा ही होता है या यूँ कहें कि यही व्यक्तित्व के निर्माण की प्रक्रिया भी है।
श्री राजेन्द्र शुक्ल के व्यक्तित्व की उदारता, सहृदयता, संवेदनशीलता और सज्जनता के अद्भुत संयोजन में ऐसा व्यक्तित्व निर्मित हुआ हैं, जिसने सरल, सहज, उदार, स्नेही व्यक्तित्व की नई इबारत लिखी हैं। विशाल व्यक्तित्व के धनी का सशक्त पहलू व्यापक विचारधारा है। उनकी चिंतन क्षमता ने उनके व्यक्तित्व में व्यवहारिकता और अध्यात्मिकता का अनूठा संयोजन किया है। उनकी सफलताओं का आधार उनके करिश्‍माई व्यक्तित्व और करिश्‍माई सोच के चलते एक अलग पहचान बना रहा है। विचारों की व्यापकता का रूचि-नीति में भी परिलक्षित होती है। उनका यहीं सेवा-भाव जरूरतमंद की मदद करने में दिखता है।
श्री शुक्ल में सेवा-संकल्प का समर्पित भाव, चुनौतियों की जिद और जूनून के साथ सामना करने का जज्बा उनके व्यक्तित्व के ऐसे पहलू है, जिन्होंने राजनीति को सेवा नीति में बदल दिया है। एक योगी की तरह हर आम-खास की बात, समस्या सुनना, मनन करना और जरूरतमंदों की सेवाभाव से मदद करना उनकी प्राथमिकता में रहता है। उनका यह ऐसा गुण है, जिसमें आम “जन” के “मन” से उनका एक गहरा और आत्मीयता पूर्ण रिश्ता बन जाता है। श्री राजेन्द्र शुक्ल को कभी अपनी छवि निर्माण के लिए प्रयास नहीं करने पड़े। उनकी सद्इच्छाओं ने उनकी छवि को इतना पुख्ता कर दिया है कि लाख कोशिशें उसे धुंधला कर पाने में अक्षम हैं।
व्यक्तित्व का प्रभावी पहलू उनकी विशिष्ट संवाद क्षमता है। वे सीधे और सहज भाव से श्रोताओं के साथ सीधा सम्‍पर्क स्थापित कर उनकी समस्याओं का निदान करते हैं। सीधे संवाद की विशिष्ट क्षमता, विचारों की व्यापकता व्यवहार की सहजता, व्यक्तित्व की विशालता का अद्भुत संयोजन का ही नाम श्री राजेन्द्र शुक्ल हैं।
श्री राजेन्द्र शुक्ल असाधारण व्यक्ति वाले आम आदमी है। वे दिखते साधारण है लेकिन उनका व्यक्तित्व असाधारण रूप से विशाल और प्रतिभा संपन्न हैं। मानवीय संवेदनाओं, अनुभूतियों से उदार गुणों से भरा दिल है जो हर पल पीड़ित मानवता की सेवा के लिए धड़कता है। वे कार्यों पर जितनी चौकस निगाह रखते हैं, उतनी उनको चिंता है कि दरवाजे पर आए गंभीर रोग से पीड़ित और हर दुखियारे की मदद कर उसका दु:ख-दर्द दूर किया जाए।
सहजता, सरलता, सौम्यता, शुचिता के साथ ही तत्परता और त्वरित गति से जन-समस्याओं का निराकरण; ये वे गुण होते हैं जो राजनीति के क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति को एक मुकाम तक पहुँचाते हैं। विन्ध्य की धरती पर जन्में श्री राजेन्द्र शुक्ल के जीवन और उनके व्यक्तित्व-कृतित्व में ऐसे ही गुणों का समावेश है, जो सार्वजनिक जीवन में और राजनीति में काम करने की विशेषताएँ होती हैं, राजनीति उनके लिए सेवा का भाव रही है।
ओहदा उनके लिए कभी पहचान नहीं बना
श्री शुक्ल ने अपने संस्कारवान पिता समाजसेवी स्व. श्री भैयालाल शुक्ल के गुणों को सदैव ध्यान में रखते हुए स्वयं को ढाला। ओहदा उनके लिए कभी पहचान नहीं बना, बल्कि श्री शुक्ल से ओहदा की पहचान बनी है। घीर-गंभीर ऋषि-मुनि मानव सेवा के लक्ष्य में एक तपस्वी की तरह लीन रहना उनका लक्ष्य है। उनकी सेवा भावना की तपस्या को कभी किसी पद का लालच भंग करने का साहसी ही नहीं जुटा पाया है। लोगों के जीवन में थोड़ी खुशियाँ ला सके और उनके दिलों में यह एहसास जगा सके कि उनका अपना है, अपने इस उद्देश्य में श्री राजेन्द्र शुक्ल पूरी तरह सफल हैं।
रात-दिन विन्ध्य के विकास का सपना देखने वाले श्री राजेन्द्र शुक्ल ने अपनी जन्म-भूमि विन्ध्य के विकास के प्रति अपने दायित्व को बखूबी निभाया। उन्होंने विन्ध्य क्षेत्र के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा पर्यटन विकास को अपनी प्राथमिकता में रखा है। अपने क्षेत्र के विकास के लिए उनके ड्रीम प्रोजेक्ट्स मुकुन्दपुर व्हाईट टाईगर सफारी, चाकघाट से इलाहाबाद और हनुमना से बनारस फोर-लेन का निर्माण, हवाई पट्टी अथवा गुड़ में विश्व का सबसे बड़े 750 मेगावाट सौर ऊर्जा संयंत्र की स्थापना हो। श्री शुक्ल ने रीवा के चौतरफा विकास में विशेष रूचि ली है। इसी के चलते रीवा विकास शहर के रूप में उभरा है। रीवा सहित पूरे विन्ध्य को यातायात और संचार के साधन मिलने के लिए उन्होंने कायाकल्प करने का संकल्प लिया है। श्री शुक्ल ने अपने समाजसेवी पिता स्व. श्री भैयालाल शुक्ल की प्रेरणा से रीवा में स्थित लक्ष्मण बाग गौ-शाला को आदर्श गौशाला बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। अपनी तमाम व्यस्तता के बाद भी श्री शुक्ल लक्ष्मण बाग गौ-शाला में जाकर गायों की सेवा कर अपने पिता स्व. श्री भैयालाल शुक्ल जी को सच्ची श्रद्धाजंलि अर्पित करते हैं।
रीवा में तीन अगस्त 1964 को जन्में श्री राजेन्द्र शुक्ल ने युवा अवस्था में ही राजनीति के प्रति अपनी रूचि बता दी थी, जब वे वर्ष 1986 में रीवा इंजीनियरिंग कॉलेज के छात्र संघ के अध्यक्ष चुने गए। व्यवसाय कृषि, तैराकी के शौकीन पहली बार वर्ष 2003 में विधानसभा के लिए चुने गए। उसके बाद उन्होंने निरंतर तीसरी बार अपनी विजय को बरकरार रखा। योग्य, कुशल प्रबंधन और प्रशासनिक क्षमता के धनी श्री शुक्ल को जब भी जो जिम्मेदारी सौंपी गई, उन्होंने प्रबंधन कौशल का बेहतर प्रदर्शन कर उसे परिणाममूलक बनाया। अपने बेहतर प्रबंधन से राजनेताओं के सामने श्री शुक्ल ने अपनी पहचान को नए-नए आयाम दिए। विवादों से दूर रहकर बिना शोरगुल के काम करते रहने की नीति पर वे चले। राजनीति को राष्ट्र हित में रखते हुए वे राष्ट्रवादी चिंतन के साथ अपने कदम को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
श्री शुक्ल को तीन कार्यकाल में मंत्रीमंडल में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली। वे मंत्री पद की कसौटी पर भी सदैव खरे उतरे। नेतृत्व के प्रति निष्ठा और राज्य सरकार के लक्ष्यों और कार्यक्रमों को पूरा करने की प्रतिबद्धता श्री शुक्ल की विशेषता हैं। ऊर्जा मंत्री के रूप में बिजली संकट से जूझते हुए मध्यप्रदेश को रोशन करने की उन्हें चुनौती मिली। मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान की मंशा के अनुरूप उन्होंने प्रदेश को बिजली संकट से उभारा। आज मध्यप्रदेश सरप्लस बिजली राज्य के रूप में खड़ा है। श्री शुक्ल ने जनसंपर्क मंत्री के रूप में भी एक अलग पहचान स्थापित की। पत्रकारों के हित में अनेक योजनाओं को अमली जामा पहनाया। मुख्यमंत्री श्री चौहान के विश्वास पर खरे उतरते हुए श्री शुक्ल वर्तमान में उद्योग तथा खनिज विभाग के दायित्व को बखूबी निभा रहे हैं। वे प्रदेश में औद्योगिक क्रांति का संकल्प लेकर राज्य में उद्योगों का जाल बिछाने का उन्होंने लक्ष्य तय किया हैं। खनिज आधारित उद्योगों की स्थापना तथा राजस्व वृद्धि करने में सफलता पायी है।

वंदेमातरम् की अनिवार्यता पर संग्राम
-प्रमोद भार्गव
राष्ट्रगीत ’वंदे मातरम्’ को तमिलनाडु के विद्यालयों में अनिवार्य करने के उच्च न्यायालय के फैसले पर तमिलनाडु में भले ही कोई बवाल न मचा हो, लेकिन इसी परिप्रेक्ष्य में महाराष्ट्र में उबाल है। वंदे मातरम् को लेकर मुसलिम समुदाय के एक वर्ग और राजनीतिक दलों ने विरोध जताया है। खासतौर से ऑल इंडिया मजलिसे-इत्तेहादुल मुसलमीन के विधायक वारिस पठान ने कहा है कि मेरे सिर पर रिवॉल्वर भी रख दे तो भी राष्ट्रगीत नहीं गाउंगा। इसी तर्ज पर समाजवादी पार्टी के विधायक अबू आसिम आजमी ने कहा है कि यदि मुझे देश से बाहर भी फेंक दिया जाए, तो भी मैं इसे नहीं गाउंगा। ये प्रतिक्रियाएं तब आई जब भाजपा के विधायक राज पुरोहित ने मांग उठाई कि मद्रास हाईकोर्ट के आदेश के पालन में महाराष्ट्र के स्कूल-कॉलेजों में वंदे मातरम् का गाना अनिवार्य किया जाए।
राष्ट्रगीत का बहिष्कार संसद और विधानसभाओं में होना कोई नई बात नहीं है। संविधान के इस प्रावधान का अपमान अलगाववादी मानसिकता का प्रतीक है। यह मामला तब और गंभीर हो जाता है, जब निर्वाचित सांसद और विधायक वंदे मातरम् की उपेक्षा करें। क्योंकि कोई भी जनप्रतिनिधी न केवल बहुधर्मी और बहुजातीय मतदाताओं के बहुमत से संसद में पहुंचता है, बल्कि धर्म व जातीयता से ऊपर उठकर संविधान, देश व जनहित की शपथ लेकर अपने कर्तव्य का पालन शुरु करता है। लिहाजा यह मुद्दा धर्म और राजनीति से परे राष्ट्रीय गरिमा और सोच से जुड़ा मसला है। यदि राष्ट्रीय प्रतीकों का अपमान करने वाले लोगों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाई नहीं की गई तो इससे अलगाववाद की संकीर्ण मानसिकता को विस्तार मिलेगा और जनता में गलत संदेश जाएगा। इसलिए इस्लाम के बहाने वंदेमातरम् का विरोध करने वाले सांसद और विधायकों को सदस्यता से तो बर्खाश्त किया ही जाए, पूर्व सांसदों व विधायकों को मिलने वाले विशेषाधिकार व सुविधाओं से भी वंचित किया जाए। मालूम हो कुछ साल पहले व्यंग्य चित्रकार असीम त्रिवेदी ने राष्ट्र के प्रतीक अशोक चिन्ह के साथ छेड़छाड़ करते हुए जो कार्टून बनाया था, तो उन्हें महाराष्ट्र पुलिस ने हिरासत में लेकर जेल में डाल दिया था।
बंकिम चंद्र चटर्जी के बांग्ला भाषा में लिखे उपन्यास ’आनंद मठ‘ से राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकारा गया यह गीत कोई मामूली गीत नहीं है। भारत को उसकी व्यापक राष्ट्रीयता की पहचान और स्वाभिमान इसी गीत से प्राप्त हुए। नागरिक सभ्यता की विरासत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानव सेवा के मूल्यों के उत्स इसी गीत के समवेत स्वर की उपज हैं। अंग्रेजों के विरुद्ध भिन्न जातीय और धर्म-समुदायों को संगठित करने के अभियान में इसी गीत की भूमिका बुलंद थी। तय है, वंदे मातरम् क्रांति के स्वरों में नींव का पत्थर था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की रक्त धमनियों में विद्रोह की उग्र भावना इसी गीत की देन है। 1942 में महात्मा गांधी के भारत छोड़ो आंदोलन को देशव्यापी धरातल इसी गीत के बूते मिला था। और वह यही आंदोलन था, जिसमें गांधी ने ’करो या मरो‘ का नारा दिया था। सुभाषचंद्र बोस की आजाद हिन्द फौज के फौजियों ने भी इसी गीत को गाते हुए मातृभूमि की बलिवेदी पर प्राण न्यौछावर किए।
14 अगस्त 1947 की मध्य-रात्रि में जब देश आजाद हो रहा था, तब इस मंत्र गीत का गायन श्रीमती सुचेता कृपलानी ने किया और वहां उपस्थित लोग इस गीत के सम्मान में गीत खत्म न हो जाने तक खड़े रहे। 15 अगस्त 1947 को जब स्वतंत्रता का सूर्योदय हो रहा था, तब आकाशवाणी पर पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने इसे बड़े ही रोचक ढंग से गाया। आखिरकार 24 अगस्त 1948 को जन-गण-मन के साथ इस गीत को भी राष्ट्र गीत की प्रतिष्ठा मिली। लेखक और दार्शनिक युगदृष्टा होते हैं, इसलिए बंकिम बाबू ने इस गीत को लिखे जाने के वक्त ही अपनी दिव्यदृष्टि से अनुभव कर लिया था कि यह गीत राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बनकर लोकप्रियता के शिखर चूमेगा, इसीलिए उन्होंने इसे बंगाली भाषा में न लिखते हुए संस्कृत में लिखा। मूल और संपूर्ण गीत की केवल नौ पंक्तियां बंगाली में हैं। इस गीत का जो संपादित अंश राष्ट्रगीत के रुप में स्वीकार किया गया है, वह केवल आठ पंक्तियों का है।
वंदे मातरम् को इस्लाम विरोधी जताया जाना कोई नई बात नहीं है। जब कांग्रेस ने इसे प्रार्थना गीत के रुप में स्वीकार किया था, तब भी इसकी खिलाफत हुई थी। 1937 में कांग्रेस कार्यकारिणी ने आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। इसमें मौलाना आजाद, पंडित नेहरु और सुभाषचन्द्र बोस जैसे प्रखर संस्कृति मर्मज्ञ सदस्य थे। समिति को जिम्मेबारी सौंपी गई थी कि वे रवीन्द्रनाथ ठाकुर से मशविरा कर वंदे मातरम् के संबंध में दो टूक सलाह दें। समिति द्वारा रवीन्द्रनाथ से परामर्श के बाद जो प्रतिवेदन प्रस्तुत किया गया, उसके उपरांत कांग्रेस कार्यकारिणी ने फैसला लिया कि हरेक राष्ट्रीय व सार्वजनिक सभा में वंदे मातरम् के केवल दो पद गाये जाएं। ऐसे अवसरों पर भारत विभाजन के जनक मोहम्मद अली जिन्ना भी इस गीत को आदर के साथ खड़े होकर गाया करते थे। तय है गीत पर विवाद का समाधान स्वतंत्रता से पहले ही हो चुका था।
बाद में देश-विभाजन के लिए जिम्मेबार मुस्लिम लीग के नेताओं ने जरूर वंदे मातरम् को बुतपरस्ती, मसलन मूर्तिपूजा मानते हुए इसका विरोध किया। इस बहाने लीगियों ने अल्पसंख्यकों को खूब उकसाया। नतीजतन 1938 तक कांगेस के जो प्रमुख मुस्लिम नेता इस गीत की राष्ट्रीय गरिमा का ख्याल रखते चले आ रहे थे, वे भी दबी जुबान से इसका विरोध करने लगे। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बहुसंख्यक हिंदू और सिख हठपूर्वक इस गीत की महिमा के बखान में लगे रहे। बाद में साझा सांस्कृतिक विरासत को आगे बढ़ाने के नजरिये से उर्दू के उदारवादी कवियों व राजनीतिकों ने वंदे मातरम् का अनुवाद ’ऐ मादर, तुझे सलाम करता हूं‘ किया, अर्थात हे माता, तुझे प्रणाम करता हूं। मुल्क को गुलामी से आजाद कराने की इस इबादत में गलत क्या है ? अरबी फारसी के अनेक कवियों ने भी देश को ’मां‘ कहकर संबोधित किया है। लिहाजा राष्ट्र के प्रति अपनी भावनाओं व उद्गारों को प्रचलित रूपकों अथवा प्रतीकों में प्रगट करना मूर्तिपूजा या बुतपरस्ती कतई नहीं है। वंदे मातरम् एक मौलिक रचना है, इसकी व्याख्या धर्म नहीं, केवल साहित्य के संदर्भ में होनी चाहिए। इसे यदि कोई सांसद या विधायक इस्लाम विरोधी जताता है, तो उसका मकसद धर्म के बहाने राजनीतिक रोटियां सेंकना है, जो अलगाववादी राजनीति की संकीर्ण मानसिकता का प्रतीक है। खुद बंकिमचन्द्र ने लिखा है कि ’हिन्दू होने पर ही कोई अच्छा नहीं होता है, मुसलमान होने पर कोई बुरा नहीं होता और न ही मुसलमान होने पर कोई अच्छा होता है या हिन्दू होने पर कोई बुरा होता है। अच्छे बुरे दोनों जातियों में हैं। गोया, निर्वाचित चंद मुसलिम प्रतिनिधी इस्लाम के बहाने जिस राष्ट्रीयता का अपमान करते हैं, उसी राष्ट्रीयता के सम्मान में अन्य मुस्लिम प्रतिनिधी सुर में सुर मिलाते हैं। ऐसे ही चंद सिरफिरे मुस्लिमों ने आजाद हिंद फौज के नारे, ’जय हिंद‘ का भी विरोध किया था, जब दैनिक अखबार ’डान‘ ने वंदे मातरम् की आलोचना की तो महात्मा गांधी को कहना पड़ा, ’वंदे मातरम् कोई धार्मिक नारा नहीं है, यह विशुद्ध राजनीतिक नारा हैं।‘ यही नारा था, जिसने सोये हुए भारत को जगाने का काम करके, आजादी हासिल कराई थी।
राजनीतिक स्वार्थ के लिए राष्ट्र हितों को दरकिनार करना राष्ट्रघाती सोच है। कुछ सांसद और विधायक वंदे मातरम् का विरोध करने के आदी हो गए हैं। जबकि कुछ साल पहले देश के दिग्गज सांसदों ने सर्व-सम्मति से निर्णय लिया था कि संसद के सत्र का शुभारंभ राष्ट्रगान यानी जन-गण-मन…से होगा और सत्रावसान राष्ट्रगीत वंदे मातरम् से। इस फैसले के वक्त कोई एक धर्म विशेष के सांसद संसद में मौजूद नहीं थे, बल्कि सभी धर्मों के थे, लिहाजा यह फैसला सब धर्मावलंबियों के जन प्रतिनिधियों को मान्य होना चाहिए। ऐसे में जरुरी हो जाता है कि संविधान की गरिमा को पलीता लगाने वाले और राष्ट्रीयता के प्रतीक गीत का अपमान करने वाले प्रतिनिधियों को कानून के दायरे में सबक सिखाया जाए। जिससे सदनों में संकीर्ण सोच का विस्तार न हो। प्रतिनिधि बहुमत से लिए निर्णयों का आदर करने के लिए हैं, न कि निरादर के लिए? (लेखक, साहित्यकार एवं वरिष्ठ पत्रकार हैं )

अनिल जी फिर लौटें….
भरोसा नहीं होता है कि अनिल दवे जी अब हमारे बीच नहीं हैं। अदभुत व्यक्तित्व के धनी, नदी संरक्षक, पर्यावरणविद, मौलिक चिंतक, कुशल संगठक थे। अनिल जी मौलिक लेखक थे। वे कल्पनाशील मस्तिष्क के धनी थे। उन्होंने अनेकों किताबें लिखीं। वे असाधारण रणनीतिकार थे। बचपन से जीवन भारत माता के चरणों में समर्पित कर दिया। उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक के नाते पूरा जीवन, देश और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया।
अनिल जी को जो भी दायित्व मिला, उनको पूरा किया। संघ की योजना के अनुरूप वे भोपाल विभाग के प्रचारक थे और मैं उनका स्वयं-सेवक रहा। वे सबका ध्यान रखते थे। मुझे याद है कि मेरा जब एक्सीडेंट हुआ था तब उन्होंने मेरा आपरेशन मुम्बई में डॉ. ढोलकिया के हाथों से ही करवाना सुनिश्चित किया था। वे अपने कार्यकर्ताओं का हमेशा ध्यान रखते थे। सदैव कार्य में रमे रहते थे । कुशल रणनीतिकार थे। वर्ष 2003, 2008 व 2013 के विधान सभा व लोक सभा के चुनाव उनकी कुशल रणनीति के कारण हम जीते, मैं यह कहूँ तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। विजय में उनका उल्लेखनीय योगदान था।
सदैव काम मे लगे रहने वाले, रमे रहने वाले एवं माँ नर्मदा के वे ऐसे भक्त थे कि उन्हें जब भी समय मिलता था, मैय्या के तट पर पहुँच जाते थे। वे पायलट थे। उन्होंने नर्मदा की परिक्रमा छोटे विमान से की थी, फिर राफ्ट से गुजरे थे। इस दौरान नर्मदा संरक्षण के लिए गाँवों में संरक्षण चौपाल बैठकें की थीं। बांदराभान में नर्मदा महोत्सव का प्रति दो वर्ष में आयोजन करते थे। मैं भी उसमें भाग लेता था। ‘नमामि देवि नर्मदे’-सेवा यात्रा का विचार जब मैंने उन्हें बताया था तो वे बहुत प्रसन्न हुए थे। मेरी बहुत इच्छा थी कि वे नर्मदा सेवा यात्रा में आये और वे 09 मई को यात्रा में आए। नदी जल और पर्यावरण संरक्षण कार्यक्रम में 8 मई को भोपाल में भाग लिया था। परसों उनसे मेरी बात हुई थी। मैंने बताया कि अमरकंटक कार्यक्रम बहुत अच्छा हुआ। मैंने उन्हें आगे की योजनाएँ बनाईये एवं मिलकर उसे पूरी करना है। बहुत एवं अल्प समय में पर्यावरण एवं वन मंत्री होने के नाते अस्वस्थ होने के बाद भी उन्होंने बडी दक्षता एवं प्रशासनिक कुशलता का परिचय दिया था। भारतीय संस्कारों में पले-बढे पगे अनिल जी अब हमारे बीच नहीं हैं, सहज भरोसा नहीं होता।
उनके निधन से हमने कुशल संगठक, नदी संरक्षक, पर्यावरणविद एवं एक नेतृत्व जो देश के लिए समर्पित था उसे खोया है। उनका जाना प्रदेश व देश के लिए अपूरणीय क्षति है। लेकिन 0 अबनपर 8 बजे अंतिम यात्रा के व्यक्तिगत रूप से मेरी क्षति है। मैं सदमें में हूँ। लेकिन नियती पर किसी का बस नहीं है। उनकी वसियत मिली है जिसमें उन्होंने कहा है कि यदि संभव हो तो उनका अंतिम संस्कार बांद्राभान में नदी महोत्सव के स्थान पर किया जाए। अंतिम संस्कार वैदिक रीति से करें एवं उनकी स्मृति में स्थल का नामकरण, पुरस्कार, प्रतियोगिता इत्यादि का आयोजन न करें। अगर कुछ करना है तो पेड़ लगाए एवं उन्हें संरक्षित कर बढ़े करें एवं नदी तालाब का संरक्षण का कार्य करेंगें तो उन्हें आनंद होगा और ये करते हुए भी उनके नाम का उल्लेख न करें। एक महामानव ही इस तरह की वसियत लिख सकता है।
मैं उनके चरणों में प्रणाम करता हूँ। भगवान ने श्री चरणों में उनको स्थान दिया है। ईश्वर दिवंगत आत्मा शांति दे। मेरे जैसे हजारों कार्यकर्ता परिजनों को गहन दुख सहन करने की क्षमता दे। हो सके तो अनिल जी फिर लौटें……..

 

नया वित्त वर्ष – कृषि व्यवस्था पर प्रहार
– राजा पटेरिया
“सबकुछ बदल डालूंगा” की सनक में प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी नित नई तुगलकी योजनाओं को शुरू कर रहे हैं । उनकी देखा-देखी हमारे मध्यप्रदेश के किसान पुत्र मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने भी अपने शासनकाल के 12 वर्ष बाद राज्य में सबकुछ बदलने का बीड़ा उठाया है । हाल ही उन्होंने शासन के नये वित्त वर्ष की शुरुआत करने की घोषणा की है, जिसके अनुसार अब अंग्रेजी कैलेण्डर वर्ष ही वित्त वर्ष होगा । मुझे यह सोचते हुए आश्चर्य होता है कि अचानक संघ संस्कारों में दीक्षित शिवराज सिंह इतनी जल्दी रंग कैसे बदल लेते हैं । अभी तक जो हिन्दूवादी, राष्ट्रवादी कहीं विक्रम संवत् , तो कहीं किसी और क्षेत्रीय कैलेण्डर के आधार पर नववर्ष मनाने की जिद करते आये हैं, वे अचानक अंग्रेजी कैलेण्डर के प्रति इतने आस्थावान कैसे हो गये कि उसे ही नया वित्त वर्ष मानने लगे । जबकि हमारे व्यापारी भाई सदियों से दीपावली को अपना नया वित्त वर्ष मानते आये हैं और आज भी दीपावली-धनतेरस के दिन ही अपने लिये नये बही खाते की पुस्तकों की पूजन कर नये कारोबार के लेन-देन शुरू करने को शुभ मानते हैं ।
हिन्दू संस्कृति के इन भावुक राष्ट्रवादियों को सरकारी वित्त वर्ष के बारे में कोई जानकारी नहीं है । भारत में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था आदिकाल से रही है यहां तक कि मुस्लिम शासनकाल में भी विदेशी और देशी मुस्लिम शासकों ने दो फसलों के आने के बाद समाप्त हुई अवधि पर ही नये वित्त वर्ष की शुरुआत करने की परम्परा को प्रचलन में रखा। 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथों से ब्रिटिश सरकार ने भारत का साम्राज्य अपने हाथों में ले लिया और तबसे भारत के लिये एक लिखित नियमों और व्यवस्था आधारित शासन को लागू किया गया । इसी शासनकाल में भारत के एकीकरण की प्रक्रिया हुई और एक विशाल साम्राज्य के रूप में भारत ब्रिटेन का उपनिवेश बना । अंग्रेज शासकों ने सरकारी वित्तीय कामकाज के लिये एक अप्रैल से 31 मार्च तक की अवधि को एक वित्त वर्ष बनाया क्योंकि वे समझ गये थे कि भारत की अर्थव्यवस्था कृषि पर आधारित है और इस अवधि में भारत की मुख्य दो फसलों की आय के ठीक-ठीक अनुमान मिल जाते हैं । कृषि उपजों पर ही ज्यादातर उद्योग आधारित थे, जैसे जूट उद्योग, सूती वस्त्र उद्योग, कृषि उत्पाद, आधारित उद्योग। नारियल, चाय, काफी, मसाले आदि के उत्पादन से निर्यात आय का आंकलन होता था । कृषि उत्पादों और उद्योगों से ही विभिन्न प्रकार के कर राजस्व जुटाए जाते थे और उनके निर्यात से शासन को भरपूर आमदनी होती थी । अत कृषि व्यवस्था आधारित वित्त वर्ष शासन के लिये उपयोगी साबित हुआ । आज चूँकि भाजपा सरकार कृषि अर्थव्यवस्था और ग्रामीण अर्थव्यवस्था को तहस-नहस और बर्बाद करना चाहती है, इसीलिये सरकार ने पश्चिमी उद्योग व्यापार प्रधान देशों की तरह कैलेण्डर वर्ष को ही वित्त वर्ष बनाया है ।
केवल शिवराज सिंह का एक नया तमाशा और शगूफा ही है – नया वित्त वर्ष ।
(लेखक मप्र शासन के पूर्व मंत्री हैं)

मध्यप्रदेश के सैकड़ों लोगों के जीवन में आएगी नई मुस्कान
अशोक मनवानी

कुछ वर्ष पहले जन्मजात रोग प्रोजेरिया के बारे में हम लोगों ने हिन्दी फिल्म पा के माध्यम से कुछ जानकारी प्राप्त की थी। ऐसे ही कुछ रक्त रोग भी हैं जो शिशुओं को जन्मजात अपने माता-पिता से मिल जाते हैं। ऐसा ही एक रोग है थैलेसीमिया। बहुत से रोग उस रोग के रोगियों की संख्या से नहीं बल्कि रोग की गंभीर प्रकृति के कारण विकराल होते हैं। जब प्रोजेरिया बीमारी के पूरे विश्व में सौ से भी कम रोगी हैं और उस रोग के प्रति संवेदनशीलता जगाने के लिए फिल्म से ध्यान आकर्षित किया गया, तब लोगों का ध्यान इस बीमारी की ओर गया। यह उचित भी था।

पिछले दिनों मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान ने भी एक प्रोजेरिया से ग्रस्त प्रदेश के एक बालक से  आत्मीय भेंट कर उसका हौसला बढ़ाकर यह संदेश दिया था कि लोग ऐसे रोगियों के प्रति भी जागरुक और सहयोगी बनें। थैलेसीमिया रोग युवक-युवती दोनों के थैलेसीमिया माईनर होने की दशा में उनका विवाह होने पर उनकी संतानों में थैलेसीमिया मेजर के रूप में दिखाई देता है। होता यह है कि थैलेसीमिया मेजर के रोगी को जीवन भर दूसरों के रक्त पर निर्भर रहना पड़ता है। शरीर में रक्त का निर्माण न होने से यह स्थिति बनती है। भारत में इस रोग के रोगी अधिकतम तीस वर्ष तक जीते हैं। बोन मेरो ट्रांसप्लांट के माध्यम से रोगी को डोनर से बोन मेरो फ्ल्यूड देकर जीवन रक्षा की जाती रही है। यह ट्रांसप्लांट सफल होने पर रोगी का जीवन लम्बे समय तक चलता है। इस ट्रांसप्लांट की पद्धति के सफल होने से ऐसे रोगियों के इलाज में सफलता प्रतिशत धीरे-धीरे बढ़ रहा है। वर्तमान में तमिलनाडु के वैल्लोर, मुम्बई और नई दिल्ली में बीएमटी किया जा रहा है। मध्य भारत में इन्दौर प्रथम केन्द्र होगा जहाँ बोन मेरो ट्रांसप्लांट की सुविधा शुरू होगी। मध्यप्रदेश सरकार की यह इस रोग से ग्रस्त रोगों के कल्याण के लिए एक अहम पहल है। बीएमटी थैलेसीमिया के साथ ही कुछ अन्य रक्त रोगों का इलाज भी है।
ताज्जुब की बात है कि हमारे देश के शिक्षित समाज में इस रोग के बारे में जागरुकता की काफी कमी है। अतएव देश में ऐसे रोगियों की संख्या करीब 50 हजार है जो इस रोग के कारण कष्ट उठा रहे हैं। इससे पीड़ित रोगी दरअसल बेकसूर हैं। कसूरवार हैं वो माता-पिता जिन्होंने विवाह के पूर्व एक हजार रुपये से भी कम खर्च पर होने वाली वो रक्त जाँच नहीं करवाई, जिससे व्यक्ति के थैलेसीमिया माईनर से ग्रस्त होने की जानकारी मिलती है। कई राष्ट्रों में यह जाँच कानूनी रूप से अनिवार्य की गई है। फिर भी इस रोग के कुछ मामले उन राष्ट्रों में भी सामने आ ही जाते हैं। हमारे देश में जन-जागरुकता के अभाव में थैलेसीमिया रोग एक चुनौती बन गया है। इन सब बातों के बीच एक अच्छी खबर यह है कि इस रोग के प्रति अब जागरुकता बढ़ी है और सरकार और सामाजिक संगठन मिलकर प्रयास भी कर रहे हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने इन्दौर में बोन मेरो ट्रांसप्लांट प्रारंभ करने का निर्णय लिया है। खास यह है कि कुछ चिकित्सक इससे सेवा के रूप में जुड़ने के लिए आगे आए हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री शिवराजसिंह चौहान को जब कुछ चिकित्सकों ने इस रोग के इलाज के लिए अपनी सेवाएं देने की इच्छा व्यक्त की, तब यह पहल हुई जिसका लाभ थैलेसीमिया के साथ ही अन्य गंभीर रक्त रोगों के रोगियों को भी मिल सकेगा। मध्यप्रदेश के सैकड़ों लोग के जीवन में नई मुस्कान आएगी। मध्यप्रदेश के अलावा अन्य निकटवर्ती प्रांतों कोभी इसका लाभ मिलेगा। प्रदेश में स्वास्थ्य सेवाओं में निरंतर विस्तार जारी है अब जटिल रोगों के इलाज के लिए दूर- दराज नहीं जाना पड़ेगा। राज्य में लीवर ट्रांसप्लांट के बाद यह एक अहम शुरूआत है।
(लेखक थैलेसीमिया के लिए जन-जागरण का काम वर्षों से कर रहे हैं।)

शक्ति की साधना में रत ‘भारत’
– लोकेन्द्र पाराशर

सर्वविदित है कि नवरात्रि पर्व शक्ति साधना का पर्व हैं। हम भारतीय यह आदि काल से करते भी आये हैं, कर ही रहे हैं, करते भी रहेंगे। परन्तु साधना के केन्द्र में व्यष्टि भाव होने के कारण साधक की चेतना समष्टि स्वरूप में कम ही दिखाई दी। कारण बहुत स्पष्ट है कि हम व्यक्तिगत असुरक्षा की भावना के कारण स्वयं के लिए शक्ति संचय की जुगाड़ से ही बाहर नहीं आ पाये। परिणामत: हमारे व्यापक समाज अर्थात भारत की साख सभी स्तरों पर गिरती रही और शून्य से शिखर तक हम एक-दूसरे को कोसते रहे।
हमने स्वामी विवेकानंद के सपनों के भारत को भी खूब रटा, परन्तु वैसे ही रटा जैसे तोते ने रटा कि ‘शिकारी आता है, जाल फैलाता है……..’। लेकिन शिकारी के जाल में फंसने से स्वयं को बचा नहीं पाये। स्वतंत्र भारत के बीते वर्षों की यदि बात करें तो लालबहादुर शास्त्री के अलावा ऐसी परिशुद्धता किसके भीतर दिखाई दी जो यह कह सके कि हम एक दिन का व्रत करके देश का अन्न बचायेंगे, किसी दंभी देश के आगे हाथ नहीं फैलाएंगे।
सृष्टि के करवट लेने का समय काल संभवत: निश्चित है। कई विद्वान भविष्यवक्ता कहते भी रहे हैं कि 2011 से भारत में परिवर्तन के लक्षण दिखाई देंगे और आने वाली सदी पुन: भारत की सदी होगी। ठीक वैसी ही जब भारत ज्ञान, विज्ञान, स्वाभिमान, स्वदेशी और समरसता को समेटे हुए आध्यात्मिकता के सर्वोच्च सिंहासन पर आरूढ़ था।
मैं यह नहीं कहता कि बस चुटकी बजने ही वाली और सारा भारत अचानक जगमग हो उठेगा। यह तो तभी हो सकेगा जब जन-जन जगेगा। हां! इतना दृश्य स्पष्ट है कि भारत में शिखर से स्वाभिमान पर संवाद शुरू हो चुका है। जो लोग भारतीय तत्व को तिरोहित करने में ही विश्वास रखते हैं, जो प्रगतिशील (?) कुण्ठा से बाहर ही नहीं आना चाहते, उनकी परवाह किये बिना आज हम देख रहे हैं कि मौसम का मिजाज जोरों से बदला है। जो अमेरिका श्री नरेन्द्र मोदी को वीजा देने को भी तैयार नहीं था, वही अमेरिका उसी मोदी की शक्ति साधना देखकर हक्का-बक्का है। पहली अमेरिका यात्रा पर नवरात्र में मोदी सिर्फ नींबू पानी पीते रहे और ओबामा हैरत से देखते रहे। यह श्री नरेन्द्र मोदी की आत्मशुद्धि की ताकत है कि ओबामा से लेकर ट्रम्प तक का अमेरिका मोदी-मोदी रट रहा है। मोदी की रटन यानि व्यक्ति की नहीं उस शक्ति की रटन जिसका संपूर्ण लक्ष्य ही भारत का खोया वैभव लौटाना है। भारत के किसी प्रधानमंत्री ने पहली बार किसी बराक को ‘बराक’ कहा, तो विश्व ने सुना और सैकड़ों देशों ने ‘बराबरी’ के इस पैगाम को समझा।
ऐसा भी नहीं है कि भारत में स्वतंत्रता के पश्चात कुछ काम हुआ ही नहीं। हुआ, परन्तु होता रहा बिना दिशा और आत्मविश्वास के। बिना निर्धारित लक्ष्य के, वोट के लालच से, भ्रष्टाचार के दखल से, यह जितना और जैसा होना चाहिए था वैसा नहीं हो सका। काम से बड़ा विषय काम के संदेश का है। हमनें जो भी किया उसमें । ्र र्से ं तक भ्रष्टाचार की फेहरिस्त बनती गई तो स्वाभाविक है दुनियां ने हमें हिकारत से देखा और निरंतर हमें निगल जाने की हिमाकत की। लेकिन क्या यह सच नहीं है कि देश का निजाम बदलने के बाद अवाम भी बदलने लगा है। मैं चुनाव परिणामों की बात नहीं करना चाहता, मैं तो उस चर्चा से कुछ चुराना चाहता हूं जो दफ्तरों में, ड्राइंग रूम में और चौपालों पर हो रही हैं। देश का दृश्य बहुत स्पष्ट है कि लोग आत्मविश्वासी हो रहे है, सुरक्षित समझ रहे हैं और स्वावलंबन के साथ स्वदेशी की ओर बढऩा चाहते है। यानि भारत का ‘आत्मतत्व’ लौट रहा है।
सीरिया में जब आईएसआईएस के घेरे में भारतीय फंस जाते हैं तो हम याचना नहीं करते। हम अरिहंत को रवाना करते हैं। अरिहंत ठीक से समंदर का सीना चीर भी नहीं पाता, उससे पहले ही उसकी गर्जना से घबराएं आतंकी भारतीयों को मुक्त कर देते है। यह मोदी सरकार का पहला ट्रेलर था। पूर्वांचल तो जैसे देश से ही काट दिया गया था, लेकिन जब म्यामांर में मार दिया तो पूर्वांचल में भी विश्वास जाग उठा। आज वहां सडक़, रेल और पुलों की बाढ़ आ गई है। हमें परवाह नहीं है कि चीन इस विकास को देखकर कितना बौखलाया हुआ है। हम उसकी छाती पर सुपर हरक्यूलस उतारकर और ब्रम्होस की अपनी तैनाती का स्थान निर्धारित कर जबाव दे चुके हैं। दीपावली पर उसके पटाखे फुस्स कर उसे छटी का दूध याद दिला चुके हैं। रही बात पाकिस्तान की तो उसके पास सर्जिकल स्ट्राईक छुपाने के अलावा अपनी इज्जत बचाने का कोई तरीका बचा नहीं है।

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