…तो इसलिए उर्जित पटेल को लाया गया और रघुराम राजन को हटाया गया!

urjit64पूर्व केंद्रीय वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने एक खबरिया चैनल को दिए साक्षात्कार में बताया कि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के कार्यकाल में भी 500 और 1000 रुपये के नोट बंद करने का प्रस्ताव भारतीय रिजर्व बैंक को दिया गया था. उस वक्त आरबीआई के गवर्नर रहे रघुराम राजन ने सरकार के इस प्रस्ताव को यह कहते हुए खारिज कर दिया था कि इससे होने वाली परेशानी, इससे होने वाले फायदों से बहुत अधिक होगी.

आरबीआई के डिप्टी गवर्नर रहे केसी चक्रवर्ती ने भी एक अखबार को दिए साक्षात्कार में ऐसी ही बातें कही हैं. उन्होंने कहा इस प्रस्ताव को बहुत ही शुरुआती स्तर पर खारिज कर दिया गया था और इस पर बैंक के बोर्ड में चर्चा कराना भी उचित नहीं समझा गया.

तो क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि जब संप्रग सरकार यह प्रस्ताव लेकर आरबीआई के पास जा रही थी, उस वक्त तक रिजर्व बैंक एक संस्था के तौर पर मजबूत स्थिति में था और इसलिए उसने सरकार के प्रस्ताव को खारिज कर दिया? जब उसी प्रस्ताव को मौजूदा सरकार द्वारा दिया गया तो उसे रिजर्व बैंक ने मान लिया. क्या रिजर्व बैंक अब सरकार को ‘ना’ कहने की स्थिति में नहीं है?

यहां रघुराम राजन के उस बयान का जिक्र जरूरी है, जो उन्होंने अपना कार्यकाल खत्म होने के एक दिन पहले दिया था. दिल्ली के जाने-माने सेंट स्टीफंस कॉलेज में अपने आखिरी सार्वजनिक कार्यक्रम में राजन ने कहा था कि न सिर्फ रिजर्व बैंक की स्वायत्तता बनी रहनी चाहिए बल्कि इसकी ‘ना’ कहने की क्षमता की भी रक्षा की जानी चाहिए.

तो क्या राजन को पहले से ही इस बात का अहसास था कि नए गवर्नर उर्जित पटेल के कार्यकाल में रिजर्व बैंक किस रास्ते पर जाने वाला है? इस बारे में पक्के तौर पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता लेकिन राजन और पटेल दोनों एक साथ रिजर्व बैंक में लंबे समय से काम कर रहे थे और इस आधार पर कहा जा सकता है कि वे पटेल को समझते रहे होंगे.

यह एक तथ्य है कि रघुराम राजन को संप्रग सरकार ने पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार और बाद में रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया. लेकिन राजन बतौर गवर्नर अपने तीन साल के कार्यकाल में न तो कभी संप्रग सरकार के दबाव में आते दिखे और न ही बाद में केंद्र में आई नरेंद्र मोदी सरकार के दबाव में. जबकि उर्जित पटेल को भारतीय रिजर्व बैंक का गवर्नर बने दो महीने से थोड़ा ही अधिक वक्त हुआ है. लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने कुछ ऐसे काम किए हैं, जिससे कई लोगों को लगता है कि वे रिजर्व बैंक को उसी रास्ते पर ले जा रहे हैं, जिस रास्ते पर सरकार उसे ले जाना चाहती है. कहा तो यह भी जा रहा है कि जो काम पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन और डी सुब्बाराव से उनके समय की सरकारें नहीं करा पाई थीं, एक-एक करके अब वे काम उर्जित पटेल करते जा रहे हैं.

दो महीने से थोड़े अधिक के कार्यकाल में कम से कम पांच ऐसी चीजें हुई हैं, जिनसे ऐसा संकेत मिलता है कि उर्जित पटेल की अगुवाई में रिजर्व बैंक ने सरकार के बताए रास्ते पर चलना शुरू कर दिया है. नोटबंदी इसका सबसे नया उदाहरण है. तो क्या मोदी सरकार ने रघुराम राजन को हटाया और उर्जित पटेल को रिजर्व बैंक में लाया ही इसलिए था कि वह एक संस्था के तौर पर आरबीआई को अपने इशारे पर चला सके?

नोटबंदी

नोटबंदी के सरकार के फैसले को सिर्फ मानना भर रिजर्व बैंक के घुटने टेकने की कहानी नहीं कहता. एक बार को यह माना जा सकता है कि चुनी हुई सरकार के फैसले पर रिजर्व बैंक को सहमति देनी चाहिए. लेकिन देश की मौद्रिक व्यवस्था को चलाने की जिम्मेदारी रिजर्व बैंक की है. इसलिए अगर रिजर्व बैंक को सरकार की बात माननी ही थी तो इसके लिए जरूरी तैयारी की जिम्मेदारी काफी हद तक आरबीआई की थी. सरकार और आरबीआई ही यह बता रहे हैं कि कुल नगदी का 86 प्रतिशत हिस्सा 500 रुपये और 1,000 रुपये के नोटों का था.

ऐसे में एक झटके में इस 86 प्रतिशत नगदी को बंद कर देने और बचे हुए 14 फीसदी से आर्थिक तंत्र को चलाने की मुश्किलें क्या हैं, इसका सही अंदाजा और उसके हिसाब से तैयारी रिजर्व बैंक की होनी चाहिए थी. लेकिन यह तैयारी अब तक तो नदारद दिखी है. कम से कम रिजर्व बैंक अपनी तरफ से तैयारी करने का वक्त मांगकर सरकार के फैसले को तो रोक ही सकती थी. लेकिन ऐसा लगता है कि सरकार की हां में हां मिलाने के चक्कर में रिजर्व बैंक ने पर्याप्त तैयारियों की जरूरत ही नहीं समझी.

पहली बात तो यह कि अगर रिजर्व बैंक के पास पहले से कोई रणनीति होती तो हर रोज बैंकों को नए दिशानिर्देश नहीं जारी किए जाते? दूसरी बात कि आखिर 500 रुपये के नए नोटों को जारी करने से पहले क्या सोचकर 2,000 रुपये के नोट जारी किए गए? वह भी तब जब 2,000 रुपये के नोट के बाद बाजार में सबसे बड़ा नोट 100 रुपये का है. जिन्हें 2,000 रुपये के नोट बैंकों से मिले, उनके लिए इसे खर्च करना सरदर्दी बन गया. क्या आरबीआई गवर्नर, बोर्ड और वहां बैठे बड़े-बड़े अर्थशास्त्रियों को इन बुनियादी बातों की समझ नहीं थी?

इस स्थिति के बाद तो दो ही संभावनाएं दिखती हैं. पहली यह कि उन्हें समझ तो दिक्कतों की थी लेकिन वे सरकार के इतने अधिक दबाव में थे कि तैयारी का वक्त मांगने की भी हिम्मत नहीं जुटा पाए. दूसरी संभावना यह है कि उन्हें होने वाली दिक्कतों का अहसास हीं नहीं था. अगर ऐसा था तो फिर यह कल्पना भी भयावह है कि भारतीय रिजर्व बैंक किन हाथों में है.

नोटबंदी के फैसले के बाद मीडिया के सवालों का सामना करते कभी भी उर्जित पटेल नहीं दिखे. सरकार की ओर से मोर्चा संभालने का काम वित्त सचिव शक्तिकांत दास कर रहे हैं. पूर्व केंद्रीय मंत्री और कांग्रेसी नेता मणिशंकर अय्यर और बैंकिंग एसोसिएशन के अधिकारी उर्जित पटेल का इस्तीफा मांग चुके हैं. पटेल इस्तीफा भले न दें लेकिन क्या रिजर्व बैंक की सहमति से लिए गए इस निर्णय से दिन-रात परेशानी झेल रहे और इस वजह से जान गंवाने वाले लोगों के परिजन इस निर्णय के पीछे आरबीआई की सोच को जानने का हक नहीं रखते हैं!

नीतिगत दरों में कटौती

नीतिगत दरों में कटौती करने की बात सरकार लगातार कह रही थी. लेकिन रघुराम राजन ने अपने कार्यकाल की आखिरी दो मौद्रिक नीतियों में सरकार की इस राय के बावजूद इनमें कोई कटौती नहीं की. जबकि पटेल के कार्यकाल में जो पहली मौद्रिक नीति आई उसमें ही नीतिगत दरों में 0.25 फीसदी की कटौती की घोषणा कर दी गई. कुछ लोग इसे सरकार के दबाव का नतीजा मान रहे हैं. वहीं कुछ लोग इन आरोपों का बचाव यह कहते हुए कर रहे हैं कि यह निर्णय छह सदस्यों वाली मौद्रिक नीति समिति का है न कि सिर्फ उर्जित पटेल का. इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि इस समिति के तीन सदस्य तो सरकार के ही नुमाइंदे हैं और बाकी तीन रिजर्व बैंक के.

मौद्रिक नीति पर सरकार की छाप इसलिए भी दिख रही है क्योंकि नीतिगत दरों में कटौती तब की गई जब महंगाई दर तय लक्ष्य से अधिक है. अगस्त में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक 5.05 फीसदी पर रहा. रिजर्व बैंक की ओर से यह बताया गया कि उन्हें उम्मीद है कि दिसंबर तक यह दर पांच फीसदी के आसपास बनी रहेगी और मार्च 2017 तक 4.5 फीसदी पर आ जाएगी. भारत सरकार की ओर से रिजर्व बैंक को महंगाई दर को चार फीसदी पर रखने का लक्ष्य दिया गया है. इसमें दो फीसदी आगे या पीछे की गुंजाइश भी दी गई है. साफ है कि महंगाई दर चार फीसदी के लक्ष्य से अधिक थी फिर भी नीतिगत दरों में आरबीआई ने कटौती की.

रिजर्व बैंक ने इस कटौती के लिए अच्छे मॉनसून, बंपर फसल की उम्मीद, बुनियादी ढांचे में भारी सरकारी निवेश आदि को आधार बताया. लेकिन दूसरी तरफ इसका कोई जिक्र नहीं किया गया कि अंतरराष्ट्रीय बाजारों में तेल की कीमतें बढ़ रही हैं. जाहिर है कि इसका दबाव महंगाई दर पर होता ही है. लेकिन इस तथ्य को इस बार की मौद्रिक नीति में नजरंदाज कर दिया गया. इसकी व्याख्या रिजर्व बैंक पर सरकार के दबाव के तौर पर की जा रही है.

पीडीएमए को हरी झंडी

रिजर्व बैंक के मुख्य कार्यों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बांटा जा सकता है. इनमें पहला है ब्याज दरों का निर्धारण और दूसरा है सरकार के लिए जरूरत के वक्त कर्ज का बंदोबस्त करना. सरकार के लिए पैसा जुटाने के मकसद से रिजर्व बैंक समय-समय पर बॉन्ड और सिक्यूरिटीज जैसी चीजें जारी करता है. लंबे समय से सरकार में यह बात चलती रही है कि रिजर्व बैंक का दूसरा काम उससे ले लिया जाए और इसके लिए एक दूसरी एजेंसी बना दी जाए. 2015-16 का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री अरुण जेटली ने ऐसी ही एक संस्था पब्लिक डेब्ट मैनेजमेंट एजेंसी (पीडीएमए) बनाने का प्रस्ताव रखा था.

लेकिन उस वक्त के आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन ने इसका विरोध किया. दबाव में जेटली को यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा. राजन का कहना था कि अलग एजेंसी बनाने से रिजर्व बैंक लिए ब्याज दरों को संतुलित रखना मुश्किल होगा. चूंकि सरकार कोई छोटा-मोटा कर्ज तो बाजार से लेगी नहीं इसलिए वह ब्याज दर भी कर्जदारों से मोलभाव करके अपने हिसाब से तय कर सकती है. इससे देश में ब्याज दरों को लेकर अनिश्चितता का माहौल बन सकता है.

यही बात रिजर्व बैंक का गवर्नर रहते हुए डी सुब्बाराव ने भी तब कही थी जब मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान ऐसी एजेंसी बनाने की कोशिश की गई थी. हालांकि, राजन ने यह भी कहा था कि अगर ऐसी एजेंसी बनानी हो तो वह बिल्कुल स्वायत्त होनी चाहिए न कि सरकार के अंदर.

राजन के जाने और पटेल के आने के बाद सरकार पीडीएमए पर आगे बढ़ रही है. अब रिजर्व बैंक भी इसका विरोध नहीं कर रहा. अंतरिम व्यवस्था के तहत वित्त मंत्रालय के बजट विभाग के तहत पब्लिक डेब्ट मैनेजमेंट समिति (पीडीएमसी) का गठन किया गया है. वित्त मंत्रालय के मुताबिक यह समिति धीरे-धीरे सरकार के लिए कर्ज जुटाने और इसके प्रबंधन का काम आरबीआई से अपने हाथ में ले लेगी और दो साल बाद पीडीएमए का गठन कर दिया जाएगा.

बैड बैंक पर सहमति

सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की गैर निष्पादित संपत्तियों (कर्ज आदि में फंसी रकम जिसके वापस मिलने की उम्मीद कम हो) यानी एनपीए से निपटने के लिए सरकार लंबे समय से एक अलग बैड बैंक बनाने का प्रस्ताव रखती आई है. इसके तहत योजना यह है कि सरकारी बैंकों के एनपीए की जिम्मेदारी एक अलग बैड बैंक बनाकर उसे दे दी जाए. सरकार को लगता है कि इससे सरकारी बैंकों के बही-खाते साफ-सुथरे हो जाएंगे क्योंकि उनमें उनका एनपीए नहीं दिखेगा. इससे ये बैंक आकर्षक बनेंगे और निवेशकों की दिलचस्पी इनमें बढ़ेगी. जबकि दूसरी तरफ बैड बैंक अपने हिसाब से एनपीए से निपटने का काम करेगा.

रघुराम राजन जब रिजर्व बैंक के गवर्नर थे तो उन्होंने बैड बैंक बनाने के प्रस्ताव का विरोध किया था. उनका मानना था कि सरकारी बैंकों के जो एनपीए हैं, उनका बड़ा हिस्सा ऐसी परियोजनाओं में लगा हुआ है जो फायदेमंद साबित हो सकती हैं. वे कहते थे कि जरूरत बैड बैंक बनाने की नहीं बल्कि लटकी पड़ी परियोजनाओं को तेजी से मंजूरी दिलाने और उनके क्रियान्वयन में तेजी लाने की है. उन्हें लगता था कि अगर ऐसा हो गया तो बैंकों का कर्ज उन्हें वापस मिलने लगेगा.

बैड बैंक की आलोचना इस आधार पर भी होती आई है कि इससे समस्या का समाधान होने की बजाए एनपीए अलग-अलग सरकारी बैंकों के बही-खाते से निकलकर सिर्फ एक बैड बैंक के खाते में चला जाएगा.

अब खबरें आ रही हैं कि राजन के जाने और पटेल के आरबीआई में आने के बाद सरकार बैड बैंक की योजना को आगे बढ़ाने वाली है. जब मौद्रिक नीति की घोषणा पटेल कर रहे थे तो उनसे यह सवाल पूछा गया था. जवाब में उन्होंने सीधे-सीधे तो बैड बैंक की बात नहीं कही लेकिन यह जरूर कहा कि एनपीए की समस्या से निपटने के लिए आरबीआई सरकार के साथ मिलकर काम कर रही है और इस समस्या को रचनात्मक ढंग से निपटाना होगा. आर्थिक जानकार उनके इस बयान की व्याख्या बैड बैंक को लेकर उनकी सहमति के तौर पर कर रहे हैं.

सार्वजनिक तौर पर बोलने से परहेज

रघुराम राजन से केंद्र सरकार की एक बड़ी परेशानी यह रही थी कि वे सार्वजनिक तौर पर अपनी राय रखते थे. वे यह काम तब भी करते थे जब केंद्र में मनमोहन सिंह की सरकार थी और नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने ऐसा करने से कभी परहेज नहीं किया. उनकी कुछ बातें सरकार को परेशान करने वाली भी होती थीं. कुछ मौकों पर वे सिर्फ रिजर्व बैंक या अर्थव्यवस्था से जुड़ी बातों पर ही नहीं बोले बल्कि दूसरे मुददों पर भी अपनी राय रखी. मोदी सरकार में इस बात को लेकर नाराजगी रही. ऐसे में मोदी सरकार को रिजर्व बैंक गवर्नर के तौर पर एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था कि जो सार्वजनिक तौर पर नहीं बोले.

पटेल ने जब कार्यभार संभाला तो उस वक्त भी उन्होंने कोई औपचारिक संबोधन नहीं किया. जबकि राजन ने पदभार संभालते ही अपना पहला भाषण दिया था जिसमें उन्होंने बैंक के समक्ष उपस्थिति चुनौतियों का जिक्र विस्तार से किया था. पटेल मौद्रिक नीति की घोषणा के बाद सार्वजनिक तौर पर सिर्फ नोटबंदी पर प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद प्रेस वार्ता में दिखे, वह भी शक्तिकांत दास के साथ. इसके अलावा उन्होंने नोटबंदी पर भी कुछ नहीं बोला.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *