आलेख 24

हमारे पुरातन लोकतांत्रिक मूल्य और जी-20

शिवप्रकाश

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी के नेतृत्व में भारत जी-20 के कार्यक्रमों का आयोजन कर रहा है। जी-20 के माध्यम से होने वाले कार्यक्रम कुछ निश्चित प्रतिनिधियों के कूटनीतिक कार्यक्रम न होकर भारत में समाज की सहभागिता से उत्सवों का रूप ले चुके हैं। प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी की कार्यशैली की यह विशेषता है कि वह सरकारी योजनाओं को समाज के साथ जोड़कर संपूर्ण समाज का कार्यक्रम बनाते हैं। उनके द्वारा घोषित लक्ष्य “एक पृथ्वी, एक परिवार, एक भविष्य” (one earth, one family, one future) विश्व को जोड़ने का माध्यम बना है। यह भारतीय संस्कृति की वसुधैव कुटुंबकम की अवधारणा का साकार रूप है। भारत जी-20 के माध्यम से विविधता युक्त भारत के लोकतान्त्रिक पद्धति से विकास के मॉडल (Development , Diversity, Democracy) को विश्व के सम्मुख रखना चाहता हैं।

इस वर्ष इंदौर में आयोजित प्रवासी भारतीय दिवस के अवसर पर प्रवासी भारतीयों के मध्य बोलते हुए माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी जी ने कहा कि हम सभी को गर्व है कि भारत लोकतंत्र की जननी (Mother of Democracy) है। अभी तक हम भारत के लोकतंत्र की प्रशंसा करते हुए कहते थे कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश हैं। जहां दुनिया के लोकतंत्र में संकट आए, हमारे पड़ोसी पाकिस्तान में भी लोकतंत्र सेना के बूटो तले रौंदा गया, वहीं हम सफल लोकतंत्र सिद्ध हुए। प्रधानमंत्री मोदी जी ने अपने को केवल बड़े लोकतंत्र न कहकर लोकतंत्र की जननी के रूप में संबोधित किया है, क्योंकि भारत में वेदकाल से लोकतंत्र की परंपरा रही है।
गुलामी के कालखंड में हमारे ‘स्व’ को भुलाने का योजनाबद्ध प्रयास हुआ। हमको पढ़ाया एवं सिखाया गया कि भारत का अपना कुछ नहीं था, हमको सभी कुछ अंग्रेजों ने ही दिया है। गणित, ज्ञान-विज्ञान, कला, साहित्य, विकास अवधारणा आदि सभी अंग्रेजों से ही हमें विरासत में मिली है। इसी क्रम में उन्होंने कहा कि भारत में कोई शासन प्रणाली भी नहीं थी।
लोकतान्त्रिक व्यवस्था भी हमको अंग्रेजों की ही देन है। सुनियोजित मैकाले शिक्षा पद्धति से अध्ययन करने के बाद निकला भारत का भी एक बड़ा वर्ग इसी को सत्य मानने लगा।
हमको पढ़ाया गया कि विश्व का प्रथम लोकतंत्र एथेंस गणराज्य है। एथेंस राज्य तानाशाही से मुक्त होकर प्रथम गणराज्य बना जिसका इतिहास 2000 वर्ष पुराना है। एथेंस गणराज्य से हजारों वर्ष पूर्व भारत में वेदकाल से ही लोकतंत्र की भावना का विकास हुआ था। ऋग्वेद में गणतंत्र शब्द का प्रयो 40 बार एवं अथर्ववेद में 9 बार प्रयोग हुआ है। राजा के द्वारा अपने सहयोगियों से परामर्श कर शासन चलाने के उदाहरण ऋग्वेद में विद्यमान हैं। राजा एवं उसके सहयोगियों से बनने वाले समूह को “समिति” नाम से संबोधित किया गया। समिति की बैठकों में राजा की उपस्थिति अनिवार्य थी जैसे कि “राजा न सत्याः समितिरियानः” (जो राजा समिति की बैठक में नहीं आता वह सच्चा राजा नहीं है)
वेदों में तीन प्रकार कीे सभाओं का वर्णन है। जिसमें 1. विद्यार्यसभा (शिक्षा संबंधी) 2. धर्मार्य सभा (न्याय संबंधी) 3. राजार्य सभा (शासन प्रशासन से संबंधित) के माध्यम से शासन संचालन के प्रमाण मिलते हैं। समिति के समान ही सभा भी शासन संचालन का माध्यम थी। इसके अनेक प्रमाण साहित्य में उपलब्ध हैं। सभा की विशेषता का वर्णन करते हुए कहा है कि वह सभा सभा नहीं जिसमें अच्छे लोग नहीं। अच्छे लोग वह हैं जो राग द्वेष छोड़कर न्याय की बात करते हैं। “न सा सभा यत्थम न सन्ति संतो”।
महाभारत के शांति पर्व में जनसदन का उल्लेख है। शांति पर्व में भीष्म पितामह ने युधिष्ठिर को गणराज्य का महत्व समझाते हुए कहा “जनता के साथ सीधे जुड़ाव का माध्यम गणतंत्र है”। बौद्ध काल में शाक्य, कोलिओ, लिच्छवि, वज्जी, पिप्पलवन, अलल्पवन सभी प्रजातांत्रिक गणराज्य के उदाहरण हैं।
संविधान सभा में बोलते हुए डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने 2000 पूर्व उत्तर से दक्षिण गए हुए वणिको (व्यापारियों) के साथ राजा के संवाद का उल्लेख किया है। जब राजा पूछता है कि आप का राजा कौन है ? तब व्यापारी ने उत्तर दिया कि हममें से कुछ पर परिषद शासन करती है, कुछ पर राजा। पतंजलि, कौटिल्य आदि सभी भारतीय विद्वानों के साहित्यों मे प्रजातांत्रिक शासन व्यवस्था का वर्णन मिलता है। विदेशी विद्वान मेगस्थनीज, ह्वेनसांग आदि ने भारत की गणतांत्रिक व्यवस्था के संबंध में लिखा है।
भारत में लोकतंत्र की सफलता का रहस्य यह है कि भारत के सामान्य समाज में स्वभावतः ही लोकतंत्र का भाव कूट-कूट कर भरा है। दुनिया के अनेक देशों में वहां के राजा की तानाशाही प्रवृत्ति की प्रतिक्रिया के कारण लोकतांत्रिक व्यवस्था स्थापित हुई। वहीं भारत में सकारात्मक भाव से लोकतंत्र जन्मा है। भारतीय संस्कृति में मानव मन का जितना गहन अध्ययन हुआ है उतना अन्यत्र नहीं दिखता। भारत की समृद्ध परंपरा से उद्भूत अध्यात्म इसका कारण है। ऋग्वेद का मंत्र : संगच्छध्वं संवदध्वं। सं वो मनांसि जानताम्। समानो मन्त्रः समितिः समानी।
अर्थात : हम एक दिशा में चलें, एक समान बोलें, सभी के मनोभाव को जानें, हमारी समिति समान हो, सभी का मंत्र ( लक्ष्य) एक हो।
भारत में यह लोकतंत्र का सकारात्मक भाव प्राचीन काल से उत्पन्न हुआ। जो भारतीय जन-मन के संस्कारों में स्थित है। भारतीय संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण करते समय सभी को समान मताधिकार देकर इसी भाव को पुष्ट किया था। प्रधानमंत्री भारत को लोकतंत्रकी जननी कहकर इसी ऐतिहासिक सत्य को विश्व के सम्मुख उद्घाटित कर रहे हैं। जी-20 इसी प्रकार के भारतीय वैशिष्टय को स्थापित करने का माध्यम बनेगा। प्रधानमंत्री मोदी जी के पंच प्रण को साकार कर भारत को मानसिक गुलामी से भी मुक्ति प्रदान करेगा।
लेखक – भाजपा के राष्ट्रीय सह संगठन मंत्री है

क्या-क्या करे नया मंत्रिमंडल?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
स्वतंत्र भारत में इंदिराजी के ‘कामराज प्लान’ के बाद यह सबसे बड़ी साहसिक पहल प्र.मं. नरेंद्र मोदी ने की है। इन नए और युवा मंत्रियों को अपने अनुशासन में रखना और उनसे अपने मन मुताबिक काम करवाना आसान रहेगा लेकिन उनसे कौन से काम करवाना है, यह तो प्रधानमंत्री को ही तय करना होगा। पिछले सात वर्षों में इस सरकार ने कुछ भयंकर भूलें की हैं तो कई अच्छे कदम भी उठाए हैं, जिनका लाभ जनता के विभिन्न वर्गों को बराबर मिल रहा है। लेकिन जैसा राष्ट्र गांधी, लोहिया और दीनदयाल उपाध्याय बनाना चाहते थे, वैसा राष्ट्र बनाना तो दूर रहा, उस लक्ष्य के नजदीक पहुंचना भी हमारी कांग्रेस, जनता पार्टी और भाजपा सरकारों के लिए मुश्किल रहा है। इस समय नरेंद्र मोदी चाहें तो उक्त महापुरुषों के सपनों को कुछ हद तक साकार कर सकते हैं। क्योंकि इस वक्त पार्टी, सरकार और देश में उनका एकछत्र राज है। उनकी पार्टी और विपक्ष में उनके विरोधियों के हौंसले पस्त हैं। उनकी लोकप्रियता थोड़ी घटी जरुर है, कोरोना की वजह से लेकिन आज भी उनकी आवाज पर पूरा देश आगे बढ़ने को तैयार है। इस नए मंत्रिमंडल का पहला लक्ष्य तो यह होना चाहिए कि देश में प्रत्येक व्यक्ति को शिक्षा और चिकित्सा मुफ्त मिले। शिक्षा मन और बुद्धि को मजबूत बनाए और चिकित्सा तन को। देश का तन और मन स्वस्थ रहे तो धन तो अपने आप पैदा हो जाएगा। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए निजी अस्पतालों और शिक्षा-संस्थाओं पर पूर्ण प्रतिबंध लगे या उन्हें नियंत्रित किया जाए। देश में शत-प्रति-शत लोगों को शिक्षा और चिकित्सा उपलब्ध हो। शिक्षा और चिकित्सा के क्षेत्र में भारत, यूनान और चीन की प्राचीन पद्धतियों का लाभ बेखटके उठाया जाए। दूसरा, उच्चतम स्तर तक शिक्षा का माध्यम स्वभाषा हो। विदेशी भाषा के माध्यम पर कड़ा प्रतिबंध हो। विदेशी भाषाएं जरुर पढ़ाई जाएं लेकिन सिर्फ ऊँची कक्षाओं में स्वैच्छिक तौर पर और कम समय के लिए। तीसरा, जातीय आरक्षण खत्म किया जाए और राजनीतिक दल ऐसा माहौल बनाएं कि लोग जातीय उपनाम लगाना बंद करें। यह काम राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से शुरु होकर नीचे तक चला जाए। चौथा, देश में अंतरर्जातीय, अंतरधार्मिक और अंतरभाषिक विवाहों को प्रोत्साहित किया जाए। पांचवाँ, शारीरिक और बौद्धिक श्रम का फासला घटाया जाए। लोगों की आमदनी और निजी खर्च का अंतर कौड़ियों और करोड़ों में न हो। यह अंतर अधिक से अधिक एक से बीस तक हो। छठा, पुराने आर्यावर्त्त का जो सपना महावीर स्वामी, महर्षि दयानंद और डॉ. लोहिया ने देखा था, उसे साकार करने के लिए दक्षिण और मध्यएशिया के देशों का महासंघ खड़ा किया जाए, जिसका साझा संविधान, साझी संसद, साझा बाजार और सांझी संस्कृति हो। सातवाँ, भारत सरकार विश्वपरमाणु निरस्त्रीकरण की पहल करे। यदि इस नए मंत्रिमंडल को लेकर यह सरकार इन कामों को पूरा कर सके या इस दिशा में आगे बढ़ सके तो इतिहास उसे याद रखेगा वरना इतिहास का कूड़ेदान तो काफी बड़ा होता ही है।

समस्याओं की जड़ है जनसंख्या वृद्धि
योगेश कुमार गोयल
पूरी दुनिया की आबादी इस समय करीब 7.6 अरब है, जिसमें सबसे ज्यादा चीन की आबादी 1.43 अरब है जबकि भारत आबादी के मामले में 1.35 अरब जनसंख्या के साथ विश्व में दूसरे स्थान पर है। विश्व की कुल आबादी में से 17.85 फीसदी लोग भारत में रहते हैं और दुनिया के हर 6 नागरिकों में से एक भारतीय है। अगर भारत में जनसंख्या की सघनता का स्वरूप देखें तो जहां 1991 में देश में जनसंख्या की सघनता 77 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर थी, 1991 में बढ़कर वह 267 और 2011 में 382 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो गई। भारत में बढ़ती आबादी के बढ़ते खतरों को इसी से बखूबी समझा जा सकता है कि दुनिया की कुल आबादी का करीब छठा हिस्सा विश्व के महज ढ़ाई फीसदी भूभाग पर ही रहने को अभिशप्त है। जाहिर है कि किसी भी देश की जनसंख्या तेज गति से बढ़ेगी तो वहां उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों पर दबाव भी उसी के अनुरूप बढ़ता जाएगा। आंकड़ों पर नजर डालें तो आज दुनियाभर में करीब एक अरब लोग भुखमरी के शिकार हैं और अगर आबादी इसी प्रकार बढ़ती रही तो भुखमरी की समस्या एक बहुत बड़ी वैश्विक समस्या बन जाएगी, जिससे निपटना इतना आसान नहीं होगा। बढ़ती आबादी के कारण ही दुनियाभर में तेल, प्राकृतिक गैसों, कोयला इत्यादि ऊर्जा के संसाधनों पर दबाव अत्यधिक बढ़ गया है, जो भविष्य के लिए बड़े खतरे का संकेत है। जिस अनुपात में भारत में आबादी बढ़ रही है, उस अनुपात में उसके लिए भोजन, पानी, स्वास्थ्य, चिकित्सा इत्यादि सुविधाओं की व्यवस्था करना किसी भी सरकार के लिए आसान नहीं है।
जनसंख्या संबंधी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट का आकलन करें तो चौंकाने वाले तथ्य सामने आते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2050 तक एशिया महाद्वीप की आबादी पांच अरब हो जाएगी और सदी के अंत तक दुनिया की आबादी 12 अरब तक पहुंच जाएगी। 2024 तक भारत और चीन की जनसंख्या बराबर हो जाएगी और 2027 में भारत चीन को पछाड़कर विश्व का सर्वाधिक आबादी वाला देश बन जाएगा। रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक चीन की आबादी 140 करोड़ होगी जबकि भारत की आबादी 165 करोड़ तक पहुंचने का अनुमान है। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत में प्रतिवर्ष आस्ट्रेलिया की कुल जनसंख्या के बराबर बच्चों का जन्म होता है। हालांकि हम इस बात पर थोड़ा संतोष व्यक्त कर सकते हैं कि जनसंख्या वृद्धि दर के वर्तमान आंकड़ों की देश की आजादी के बाद के शुरूआती दो दशकों से तुलना करें तो 1970 के दशक से जनसंख्या वृद्धि दर में निरन्तर गिरावट दर्ज की गई है लेकिन यह गिरावट दर काफी धीमी रही है। आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक भारत में पिछले कुछ दशकों में जनसंख्या वृद्धि की गति धीमी हुई है। वर्ष 1971-81 के मध्य वार्षिक वृद्धि दर 2.5 प्रतिशत थी, जो 2011-16 में घटकर 1.3 प्रतिशत रह गई।
पिछले कुछ दशकों में देश में शिक्षा और स्वास्थ्य के स्तर में निरन्तर सुधार हुआ है, उसी का असर माना जा सकता है कि धीरे-धीरे जनसंख्या वृद्धि दर में थोड़ी गिरावट आई है लेकिन यह उतनी भी नहीं है, जिस पर जश्न मनाया जा सके। बेरोजगारी और गरीबी ऐसी समस्याएं हैं, जिनके कारण भ्रष्टाचार, चोरी, अनैतिकता, अराजकता और आतंकवाद जैसे अपराध पनपते हैं और जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण किए बिना इन समस्याओं का समाधान संभव नहीं है। विगत दशकों में यातायात, चिकित्सा, आवास इत्यादि सुविधाओं में व्यापक सुधार हुए हैं लेकिन तेजी से बढ़ती आबादी के कारण ये सभी सुविधाएं भी बहुत कम पड़ रही हैं। जनसंख्या वृद्धि की वर्तमान स्थिति की भयावहता को मद्देनजर रखते हुए पर्यावरण विशेषज्ञों की इस चेतावनी को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि यदि जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार में अपेक्षित कमी लाने में सफलता नहीं मिली तो निकट भविष्य में एक दिन ऐसा आएगा, जब रहने के लिए धरती कम पड़ जाएगी। विश्वभर में अभी भी करीब डेढ़ अरब लोग ढ़लानों पर, दलदल के करीब, जंगलों में तथा ज्वालामुखी के क्षेत्रों जैसी खतरनाक जगहों पर रह रहे हैं।
जहां तक प्रति हजार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या का सवाल है तो भले ही जनसंख्या वृद्धि दर धीमी गति से घट रही है किन्तु यह भी कम चिन्ता का विषय नहीं है कि जनसंख्या वृद्धि दर घटते जाने के साथ-साथ प्रति हजार पुरूषों पर महिलाओं की संख्या भी घट रही है। निसंदेह यह सब पुत्र की चाहत में कन्या भ्रूणों को आधुनिक मशीनों के जरिये गर्भ में ही नष्ट किए जाने का ही दुष्परिणाम है। जनसंख्या वृद्धि में अपेक्षित कमी लाने के साथ-साथ जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों में इस बात का ध्यान रखे जाने की भी नितांत आवश्यकता है कि पुरूष और महिलाओं की संख्या का अनुपात किसी भी सूरत में न बिगड़ने पाए क्योंकि यदि यह अनुपात इसी कदर गड़बड़ाता रहा तो आने वाले समय में इसके कितने घातक नतीजे सामने आएंगे, इसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते।
बढ़ती जनसंख्या जहां समूचे विश्व के लिए गहन चिन्ता का विषय बनी है, वहीं बढ़ती आबादी का सर्वाधिक चिंतनीय पहलू यह है कि बढ़ती जनसंख्या का सीधा प्रभाव पर्यावरण पर पड़ रहा है। विश्व विकास रिपोर्ट के अनुसार प्राकृतिक संसाधनों से जितनी भी आमदनी हो रही है, वह किसी भी तरह पूरी नहीं पड़ रही, दशकों से यही स्थिति बनी है और इसे लाख प्रयासों के बावजूद सुधारा नहीं जा पा रहा। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के मुताबिक सन् 2050 तक विश्व की दो तिहाई आबादी नगरों में रहने लगेगी और तब ऊर्जा, पानी तथा आवास की मांग और बढ़ेगी जबकि बहुत से पर्यावरणविदों का मानना है कि सन् 2025 तक ही विश्व की एक तिहाई आबादी समुद्रों के तटीय इलाकों में रहने को विवश हो जाएगी और इतनी जगह भी नहीं बचेगी कि लोग सुरक्षित भूमि पर घर बना सकें। इससे तटीय वातावरण तो प्रदूषित होगा ही, पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ जाएगा।
इन सब बातों पर विमर्श करते हुए आज इस बात की नितांत आवश्यकता महसूस होने लगी है कि दुनिया के ऐसे प्रत्येक देश में, जो जनसंख्या विस्फोट की समस्या से जूझ रहा है, जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रम युद्धस्तर पर चलाए जाएं और जनता को जागरूक करने के लिए विशेष अभियान चलाए जाएं। भारत जैसे विकासशील देश में तो इसकी और भी ज्यादा जरूरत है क्योंकि हमारे यहां ऐसे कार्यक्रम प्रायः बड़े जोशोखरोश के साथ शुरू तो होते हैं किन्तु अक्सर ऐसी योजनाएं शुरू होने के कुछ ही समय बाद टांय-टांय फिस्स होने लगती हैं। अतः जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण पाने के लिए हमें कुछ कठोर और कारगर कदम उठाते हुए ठोस जनसंख्या नियंत्रण नीति पर अमल करने हेतु कृतसंकल्प होना होगा ताकि कम से कम हमारी भावी पीढि़यां तो जनसंख्या विस्फोट के विनाशकारी दुष्परिणामों भुगतने से बच सकें।

मलेरकोटलाः एक बेमिसाल मिसाल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पंजाब के मलेरकोटला कस्बे के बारे में ज्ञानी जैलसिंहजी मुझे बताया करते थे कि अब से लगभग 300 साल पहले जब गुरु गोविंदसिंह के दोनों बेटों को दीवार में जिंदा चिनवाया जा रहा था, तब मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान ने उसका डटकर विरोध किया था और भरे दरबार में उठकर उन्होंने कहा था कि यह कुकर्म इस्लाम और कुरान के खिलाफ है। यह वही मलेरकोटला है, जिसे अब पंजाब की सरकार ने एक अलग जिला घोषित किया है। इसके अलग जिला बनाने का विरोध उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने किया है। उनका तर्क है कि मलेरकोटला का क्षेत्र मुस्लिम-बहुल है। उसे सांप्रदायिक आधार पर पृथक जिला बनाना बिल्कुल गलत है। योगी का तर्क इस दृष्टि से ठीक माना जा सकता है कि यदि सांप्रदायिक आधार पर नए जिले, नए ब्लाॅक और नए प्रांत बनने लगे तो यह भारत-विभाजन की भावना को दुबारा पनपाना होगा। योगी ने यह तर्क इसलिए दिया है कि मलेरकोटला की आबादी एक लाख 35 हजार है। इसमें से 92000 मुस्लिम हैं, 28 हजार हिंदू हैं और 12 हजार सिख हैं। शेष कुछ दूसरे संप्रदायों के लोग हैं। मलेरकोटला को पंजाब का 23 वाँ जिला घोषित करते हुए मुख्यमंत्री अमरिन्दरसिंह ने तर्क दिया है कि अगर जिले छोटे हो तो वहां प्रशासन बेहतर तरीके से काम करता है। मलेरकोटला को संगरुर जिले से अलग करने पर उसका विकास तेजी से होगा। अमरिंदर का तर्क निराधार नहीं है। दस साल पहले तक भारत में 593 जिले थे लेकिन आजकल उनकी संख्या 718 है। अभी कई प्रांत ऐसे हैं, जिनके जिले काफी बड़े-बड़े हैं। यदि भारत-जैसे विशाल देश में एक हजार जिले भी बना दिए जाएं तो भी उचित ही होगा। और जहां तक सांप्रदायिक आधार पर जिला-विभाजन की बात है तो मलेरकोटला तो अपने आप में सांप्रदायिक सदभाव की बेमिसाल मिसाल है। गुरु गोविंदसिंह के बच्चों की कुर्बानी की बात तो मैं बता ही चुका हूं लेकिन 1947 को भी हम न भूलें। विभाजन के वक्त जब पंजाब का चप्पा-चप्पा सांप्रदायिक दंगों में धधक रहा था, मुस्लिम-बहुल मलेरकोटला वह स्थान था, जहां लगभग शांति बनी रही। आज भी मलेरकोटला की गली-गली में मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे साथ-साथ बने हुए हैं। हिंदू, मुसलमान और सिख एक-दूसरे के त्यौहारों को साथ-साथ मिलकर मनाते हैं। सिखों ने मलेरकोटला में नवाब शेर मोहम्मद खान की स्मृति में ‘‘हा दा नारा साहेब’’ का गुरुद्वारा बना रखा है। मलेरकोटला के लक्ष्मीनारायण मंदिर के पुरोहित ने कहा है कि नया जिला बनने से आम लोगों का फायदा ही फायदा है। मुख्यमंत्री ने जो नए अस्पताल कालेज और सड़कें बनाने की घोषणा की है, क्या उनका उपयोग सिर्फ मुसलमान ही करेंगे ? यों भी भारतीय संविधान में राज्यों को पूरा अधिकार है कि वे अपने प्रांतों में जैसे चाहें, वैसे परिवर्तन करें।
पड़ोसी देश नेपाल में राजनीतिक उठापटक आज भी जारी है
अशोक भाटिया
नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली देश की संसद के निचले सदन में बहुमत साबित नहीं कर सके। इसके बाद अपने आप उनके हाथ से पीएम की कुर्सी चली गई। दूसरी ओर, सरकार बनाने के लिए जुगत और प्रक्रिया भी शुरू हो गई है। नेपाल की राष्ट्रपति बिद्या देवी भंडारी ने सभी पार्टियों से बहुमत की सरकार बनाने का दावा पेश करने के लिए कहा है। इससे पहले विपक्षी दलों ने राष्ट्रपति से नई सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू करने की अपील की थी।
संसद में बहुमत के लिए जरूरी 136 वोट न मिलने से ओली को बड़ा झटका लगा। उन्होंने बाद में कैबिनेट की एक बैठक भी की। वहीं दूसरी ओर विपक्षी दलों- नेपाली कांग्रेस, कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल( माओवादी केंद्र) और जनता समाज पार्टी के एक धड़े ने राष्ट्रपति भंडारी से अपील की कि नई सरकार के गठन की प्रक्रिया शुरू की जाए। उन्होंने भंडारी से आर्टिकल 76 (2) लागू करने की अपील की जिसमें स्पष्ट बहुमत न मिलने पर राष्ट्रपति को पीएम नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है।
नेपाल में जब के.पी. ओली सरकार का गठन हुआ था तब से ही इस बात की आशंकाएं व्यक्त की जाने लगी थीं कि सरकार में शामिल प्रमुख दलों में मतभेदों के चलते टकराव जरूर होगा और ऐसे में सत्ता में बने रहने के लिए शक्ति संतुलन को लम्बे समय तक साधे रखना मुश्किल होगा। पिछले कुछ महीने से जो सियासी तस्वीर बन रही थी कि के.पी. शर्मा ओली की सरकार का गिरना तय है। वही हुआ ओली नेपाल संसद में विश्वासमत का सामना नहीं कर पाए। नेपाल की संसद में कुल 271 सदस्य हैं जिसमें सरकार बचाने के लिए कम से कम 136 सदस्यों के समर्थन की जरूरत थी। जोड़-तोड़ तो ओली ने बहुत की लेकिन उनके पक्ष में 93 सदस्यों ने ही मतदान किया। 15 सदस्य तटस्थ रहे। नेपाल की राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने विपक्ष को तीन दिन के भीतर सरकार बनाने का दावा पेश करने को कहा है अगर विपक्ष सरकार बनाने के लिए संख्या बल जुटा पाता है तो नेपाल नए चुनावों से बच जाएगा। नेपाल के संविधान में प्रावधान है कि यदि विपक्ष सरकार बनाने में विफल रहता है तो संसद में सर्वाधिक संख्या वाले दल के नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त कर दिया जाएगा। इस तरह नेपाल में ओली भले ही विश्वासमत हार गए हों कुर्सी का खेल जारी है। क्योंकि ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल के संसद में अब भी 120 सदस्य हैं, जबकि पुष्प दहल कमल प्रचंड की पार्टी के केवल 48 सांसद ही हैं। जनता समाजवादी पार्टी के 32 जबकि नेपाली कांग्रेस के 61 सांसद हैं। संख्या बल के हिसाब से पलड़ा आेली का भारी है। अगर नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देऊबा अपने साथ जनता समाजवादी पार्टी और कुछ अन्य सांसदों को जोड़ भी लें तो भी वे 136 का आंकड़ा नहीं जुटा सकते। देखना होगा कि प्रचंड क्या निर्णय लेते हैं। के.पी. शर्मा ओली को चीन समर्थक माना जाता है। उन्होंने भारत विरोधी रुख अपनाया और देश में राष्ट्रवाद की भावनाओं को उभार कर पार्टी और सरकार में अपनी स्थिति मजबूत बनाने की कोशिश की। उन्होंने श्रीराम और अयोध्या को लेकर अनर्गल बयानबाजी भी और कहा कि श्रीराम का जन्म नेपाल में हुआ और अयोध्या भी नेपाल में ही है। उन्होंने भारतीय क्षेत्रों काला पानी, लिपुलेख आदि नेपाल के नक्शे में दिखा सीमा विवाद खड़ा किया। ओली जब से प्रधानमंत्री बने तभी से वो अक्सर अपने ऊपर आए संकट से ध्यान हटाने के लिए भारत विरोधी राजनीति का सहारा लेते आ रहे हैं। ओली को जब पहली बार अल्पमत में आने पर इस्तीफा देना पड़ा था तब उन्होंने भारत पर आरोप लगाए थे। इन सभी विवादों में चीनी राजदूत यांगकी की भूमिका अहम मानी जा रही है।
नेपाल के प्रधानमंत्री के दफ्तर से लेकर सेना मुख्यालय तक में यांगकी की सीधी पहुंच है। राजनीतिक संकट के दौरान चीनी प्रतिनिधिमंडल ने काठमांडाै आकर ओली और प्रचंड में समझौता कराने की कोशिश भी की थीं। दरअसल नेपाल में राजनीतिक संकट की पृष्ठभूमि पिछले वर्ष दिसम्बर में ही तैयार हो गई थी जब प्रधानमंत्री ओली ने मंत्रिमंडल की आपात बैठक बुलाई और संसद को भंग करने का फैसला किया। उस फैसले को आनन-फानन में
इसके बाद राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी ने मंजूरी भी दे दी और मध्यावधि चुनाव की घोषणा कर डाली। जब इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दे दी गई तो अदालत ने प्रतिनिधि सभा बहाल करने का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट का फैसला ओली के लिए झटका जरूर था लेकिन सियासत के माहिर खिलाड़ी की तरह उन्होंने विश्वासमत हासिल करने का पैंतरा फैंका। उन्हें पता है कि वह अब भी कुर्सी पर काबिज हो सकते हैं। 1966 से ही नेपाल की सियासत में सक्रिय रहे ओली के लिए तत्कालीन अधिनायकवादी पंचायत व्यवस्था के खिलाफ आंदोलन में शामिल होना टर्निंग प्वाइंट था। तब नौवीं कक्षा में पढ़ने वाले ओली के भीतर की आग का इस्तेमाल तत्कालीन राजशाही ने किया और अपने मोहरे के तौर पर पंचायत व्यवस्था के खिलाफ लड़ने वाले एक चेहरे के तौर पर इस्तेमाल किया। राजशाही लगातार उनकी पीठ थपथपाती रही। बाद में वह कम्युनिस्ट आंदोलन में शामिल हो गए। चीन उनके लिए आदर्श बन गया।
राजशाही के खिलाफ आंदोलन में भी वह भूमिगत रहकर काफी सक्रिय थे। 90 के दशक में ओली पूरी तरह राजनीति का अहम चेहरा बन गए। कोइराला सरकार में वह उपप्रधानमंत्री भी रहे। कम्युनिस्ट आंदोलन के उभार, राजशाही के विरोध और नेपाल में लोकतंत्र बहाली आंदोलन के दौरान उभरे माओवादी नेता प्रचंड से उनकी वैचारिक सहमति हमेशा से रही। प्रधानमंत्री बनने के बाद ओली चीन का मोहरा बन गए। देखना होगा नेपाल की सियासत क्या मोड़ लेती है। ओली आज भी निश्चिंत होकर नेपाल के लोगों को महामारी से बचाने के लिए दुनिया से मदद मांग रहे हैं। आक्सीजन के लिए तय सुविधाएं जुटाने का प्रयास कर रहे हैं। जहां तक राष्ट्रपति विद्या देवी भंडारी का सवाल है, उन्होंने हमेशा ओली के पक्ष में ही काम किया है।

नेता कोरोना से ऐसे निपटें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
दिल्ली के पास फरीदाबाद के विधायक नीरज शर्मा का एक वीडियो देखकर मैं दंग रह गया। नीरज ने बड़ी हिम्मत की और वे एक ऐसे गोदाम में घुस गए, जहां ऑक्सीजन के दर्जनों सिलेंडर खड़े हुए थे। उन्हें देखते ही उस गोदाम के चौकीदार भाग खड़े हुए। नीरज ने अपने वीडियो में यह सवाल उठाया है कि फरीदाबाद और गुड़गांव में लोग ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं और यहां इतने सिलेंडरों का भंडार कैसे जमा हुआ है ? हो सकता है कि ये सिलेंडर किसी ऑक्सीजन पैदा करनेवाली कंपनी के हों और किसी कालाबाजारी दलाल के न हों लेकिन नीरज शर्मा की पहल का परिणाम यह हुआ कि उस गोदाम के मालिक ने वे सिलेंडर तुरंत ही हरयाणा सरकार के एक अस्पताल को समर्पित कर दिए। नीरज ने उस गोदाम पर छापा इसलिए मारा था कि उनके विधानसभा क्षेत्र के कई लोगों ने आकर शिकायत की थी कि उनके परिजन ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ रहे हैं और फलां जगह सिलेंडर का भंडार भरा हुआ है। यहां असली सवाल यह है कि हमारे देश के पंच, पार्षद, विधायक और सांसद नीरज शर्मा की तरह सक्रिय क्यों नहीं हो जाते ? सारे राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं की संख्या लगभग 15 करोड़ है। यदि ये सब एक साथ जुट जाएं तो एक कार्यकर्ता को सिर्फ 14-15 लोगों की देखभाल करनी होगी। याने अपने अड़ोस-पड़ौस के सिर्फ 3-4 घरों की जिम्मेदारी वे ले लें तो सारा देश सुरक्षित हो सकता है। वे मरीजों के लिए ऑक्सीजन, इंजेक्शन, पलंग और दवाई का पर्याप्त इंतजाम कर सकते हैं। प्रशासनिक अधिकारी उनकी मांग पर अपेक्षाकृत जल्दी और ज्यादा ध्यान देंगे। आम लोगों का मनोबल भी अपने आप ऊंचा हो जाएगा। लगभग इसी तरह का काम अलवर (राजस्थान) के एक विधायक संजय शर्मा ने किया है। उन्होंने कलेक्टर के दफ्तर पर धरना देकर मांग की है कि अलवर के अस्पतालों में ऑक्सीजन तुरंत पहुंचाई जाए। यदि हमारे जन-प्रतिनिधि सक्रिय हो जाएं तो कालाबाजारी पर भी तुरंत लगाम लग सकती है। हमारी अदालतें और सरकारें इस भयंकर अपराध पर सिर्फ जबानी जमा-खर्च कर रही हैं। इस तरह के जनशत्रुओं को कैसे दंडित किया जाता है, यह मैंने अपनी आंखों से अफगानिस्तान में देखा है। अरब देशों में ऐसे नरपशुओं को सरेआम कोड़ों से पीटा जाता है, उनके हाथ काट दिए जाते हैं और उन्हें फांसी पर लटका दिया जाता है। उनकी दुर्गति देखकर भावी अपराधियों की रुह कांपने लगती है। यदि हमारी सरकारें और पार्टियां इन जनशत्रुओं का इलाज तुरंत नहीं करेंगी तो उसके सारे इलाज नाकाम हो सकते हैं।

कोरोना महामारी और समाज का दायित्व
रघु ठाकुर
कोरोना महामारी दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, पिछले वर्ष जब इस महामारी की शुरूआत हुई थी तब अधिकांश मरने वाले, बुजुर्ग उम्र दराज और अनेक बीमारियों से ग्रस्त लोग थे, परन्तु इस बार महामारी का हमला बुजुर्गाें पर कम जवानों पर ज्यादा हो रहा है। बहुत संभव है कि, इसका कारण बुजुर्गाें ने पिछले अनुभवों से सीख कर सावधानियां ज्यादा बरती हों परंतु युवाओं ने जोश में होश खो दिया। युवाओ ने न सावधानियां बरती और अधिकांश ने मास्क न पहनने को बहादुरी मानी और छोटे-मोटे संकेतों को ध्यान नहीं दिया।
आलोचना करना व्यक्ति का अधिकार भी है, और लोकतंत्र में आवश्यक भी। परन्तु इस महामारी के दौर में इस समय आवश्यकता सुझाव, सहयोग और समर्थन की ज्यादा है। इसमें कोई दो मत नहीं है कि महामारी इस तरह भारी होगी, उसका आंकलन सरकार नहीं कर सकी और फरवरी माह तक जो स्थितियां थी उनमें यह स्वाभाविक था। यह भी सही है कि, सरकार ने वैश्विक सूचनाओं की, चुनाव व कुंभ के लिये उपेक्षा की, जिनसे स्थितियां भयावह हुई। ईमानदारी से मुझे स्वीकार करना होगा की फरवरी में वैक्सीनेशन शुरू होने के बाद और मीडिया से प्राप्त समाचार के अनुसार में और मेरे जैसे बहुत से लोग यह मानने लगे थे कि महामारी का दौर बीत चुका है, कुछ विदेशी मीडिया और संस्थाओं की ओर से यह सूचनायें जरूर आ रही थी की कोरोना वायरस अब स्टेन-2 के रूप में दुगुनी ताकत के साथ वापस आ रहा है।
इन समाचारों पर या सूचनाओं पर देश में आम तौर पर एकदम कोई राय नहीं बन पाती। हालांकि सरकारों को अवश्य ऐसी सूचनाओं के प्रति सतर्क होना चाहिये और अपने वैज्ञानिक स्त्रोतों के माध्यम से परीक्षण और पुष्टि करना चाहिये। यह भी एक तथ्य है कि ऐसी सूचनाओं को जारी करने वाले अमेरिका और यूरोप के देश भी अपने आपको बावजूद सारी संपन्नता तकनीकी ज्ञान, शोध विशेषज्ञता के बचा नहीं पा रहे है। यूरोप के देशों में भी स्थितियां लगभग ऐसी ही भयावह है, जैसी भारत और ऐशियाई देशों में हैं। और कुल मिलाकर देश और दुनिया को उन्हीं पुराने अनुभवों और साधनों पर निर्भर रहना पड़ रहा है, जो 2020 के महामारी काल में प्रयोग में लाये गये थे। मसलन लाॅकडाऊन जिसे अब भारत में कोरोना कफ्र्यू कहा जा रहा है, परस्पर दूरी, आइसोलेशन, कोरेनटाइन, विटामिन-सी, और डी, तथा प्रोटीन का पर्याप्त मात्रा में लेना ताकि शरीर की प्रतिरोधात्मक क्षमता बढ़ सके। पिछले वर्ष वाले प्रयोग थोड़े से घट बड़ के साथ अभी भी प्रयोग में लाने के सुझाव चिकित्सा संस्थानों की ओर से दिये जा रहे है।
एक इन्जेक्शन रेमेडिसिविर जरूर ज्यादा चर्चा में आया है और इसकी माँग भी बहुत बढ़ी है। परन्तु यह कोई नई खोज नहीं है, बल्कि पुरानी खोज को ही लंबे अरसे के बाद व्यापक रूप में प्रयोग किया जा रहा है। दरअसल यह इंजेक्शन व्यक्ति की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाता है, और प्रतिरोधक क्षमता बढ़ने से इंसान कोरोना वायरस को परास्त करने में शक्ति पाता है। बड़े पैमाने पर माँग बढ़ने पर सरकार को इसमें उत्पादन की वृद्धि में लिये कई कदम उठाना पड़े। जिससे कंपनियों को अपनी क्षमता भर उत्पादन बढ़ाने की अनुमति, विदेशों को निर्यात पर रोक, काला बाजारी और मिलावट रोकने के लिये केन्द्रीकृत वितरण प्रणाली आदि। लगभग यही स्थिति आक्सीजन स्लेंडर, और वैन्टीलेटर आदि के मामलों की भी है, कोरोना से जिनके फेंफड़े ज्यादा संक्रमित हुये हैं, उन्हें फौरी तौर पर आक्सीजन ही सबसे बड़ा सहारा देता है। निसंदेह आक्सीजन की माँग बहुत बड़ी है, देश में कुछ राजनैतिक नेताओं ने वैक्सीन के निर्यात और रेमीडिसिविर इंजेक्शन के निर्यात की आलोचना की है। यह उनका अधिकार भी है, परन्तु मैं यह मानता हूॅ कि, अगर अपनी जरूरतों के अलावा संभव हो और उपलब्धता हो तो इनका निर्यात उन पीड़ित और जरूरतमंद दुनिया के लोगांें को होना चाहिये जो अपने जीवन को बचाने के लिये इन पर निर्भर हैं। मानवता की विखंडित सीमा बहुत तार्किक नहीं है और जब व्यवहारिक तौर पर यह महसूस हुआ कि जब हमारी अपने देश की आवश्यकता बहुत बढ़ गई है, तब निर्यात पर रोक लगाना विलंबित कदम तो है पर जरूरी था।
वैक्सिनेशन के क्रम में तो फर्क हो सकता है, और अलग-अलग राय हो सकती है। जैसे अगर वैक्सीन की प्रमाणिकता के बाद प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्रियों ने नामधारी नेताओं ने पहले चरण में कोरोना वाॅरियर्स के साथ वैक्सीन लगवा ली होती तो लोगों के मन में भय पैदा नहीं होता तथा, वैक्सीन की प्रक्रिया ज्यादा सफल होती। हमारे देश में मीडिया की भूमिका बहुत ही संकीर्ण और स्वार्थपरक ह,ै तथा मर्यादा विहीन आलोचना का दौर है। अगर सŸााधीशों और नेताओं ने पहले वैक्सीन लगवाई होती तो यही मीडिया जो लोगों के गम में वैक्सीन के प्रति भय पैदा कर रहा था शायद यह प्रचार करता कि देखों बड़े लोगांे ने खुद तो लगवा ली और गरीबों को छोड़ दिया। जैसा की अभी रूस के राष्ट्रपति श्री पुतिन और उनकी बेटी के वैक्सीन लगवाने को लेकर आलोचना हो रही हैं। फिर भी मेरी राय में प्रथम और दूसरे चरण में वैक्सीन लगवाने में जो लोगों के मन में भय और शिथिलता पैदा हुई थी वह कम होती और बड़ी संख्या में लोग वैक्सीन लगवाने को आते। तब, उसकी पूर्ति को भी पर्याप्त समय मिल जाता। तो जो वैक्सीन कम लोगों के आने के कारण बरबाद हुई वह भी नहीं होती।
इस समय मौतों की संख्या बड़ी है और इसमें भी मीडिया का एक हिस्सा तथ्यों को अप्रमाणित ढंग से प्रस्तुत कर रहा है। एक अखबार में खबर छपी की भोपाल शहर में 121 लोग कोरोना मौत के शिकार हुये और सरकार के अनुसार केवल 4-5 लोग कोरोना के कारण मृत बताये गये याने सरकार कोरोना की मौतें छिपा रही है। इस खबर पर सरकार की ओर से कोई खंडन नहीं आया है, और ना ही पुष्टि की गई। वैसे तो आम तौर पर लोग स्वतः भी अपने परिजन की मौत को कोरेाना मौत कहने से डरते है, और छिपाते हैं। एक वजह यह भी हो सकती है कि, जो लोग बीमार होकर अस्पतालों में भर्ती होते हैं उनके टेस्ट रिपोर्ट आते-आते 4-5 दिन लग जाते हैं, और इस बीच उनकी मौत हो जाये तो वह तकनीकी रूप से कोरोना की मौत नहीं है। परन्तु आम लोगों की नज़रों में ऐसी हर मौत कोरेाना मौत होती है। इससे आम लोगों में भय का फैलाव हो रहा है, रेमेडिसिविर इंजेक्शन की इतनी ज्यादा माँग बढ़ी की वह 30-40 हज़ार में ब्लेक में जबकि उसकी कीमत मात्र 1600/- रूपये थी बिकने लगा। हालांकि बाद में भारत सरकार ने कुछ नियंत्रित करने के कदम उठाये हैं पर वह अपर्याप्त हैं। मेरे एक जिम्मेदार मित्र ने जानकारी दी कि रेमेडीसिविर, तोशी वेराफिन आदि इजेक्शनों की गुजरात के अहमदाबाद शहर में सुबह से बाजार बोली शुरू होती है, जिन्हें खरीदना हैं, उसने दाम पर खरीदे। याने काला बाजारी सरेआम सरकार की नाक के नीचे हो रही है। और सरकार मूक दर्शक बनी है। इन कम्पनियांे पर सरकार को तत्काल नियंत्रक बिठाकर इनके उत्पादन बढ़ाने व शासन द्वारा निर्धारित दरों पर बिक्री व राज्यवार वितरण की व्यवस्था करना चाहिये।
यह बहुत ही शर्मनाक है कि दवा कंपनियों के लोग व बिचैलिये, मानव की मौत को भी बेच रहे हैं। क्या यह मामूली अपराध है? क्या यह इंसान का जानवर से भी बद्तर होना नहीं है। यह समाज को ही सोचना होगा।
तंत्र की स्थिति यह है कि भोपाल में 850 रेमेडिसिविर इंजेक्शन आये थे उन्हें सरकारी मेडीकल काॅलेज हमीदिया में रखा गया था। इन इंजेक्शन के चोरी होने का समाचार अखबारों में आया। फिर यह खबर भी आई की चोरों ने खिड़की की जाली काटकर इंजेक्शन चुराये हैं और इसके लिये 3 कर्मचारी और 1 डाॅक्टर के खिलाफ कार्यवाही हुई। राज्य सरकार ने अधीक्षक को भी हटा दिया। फिर खबर आई के 1 इंजेक्शन दिल्ली में बिका है और घटना के 8-10 दिन के बाद खबरे आ रही है, कि इंजेक्शन चोरी नहीं हुये थे। जांच पड़ताल और स्टाक मिलानो में गड़बड़ हुई थी आदि-आदि। क्या यह खबरंे विश्वसनीय है? वही पुलिस जो 10 दिन पहले स्टोर रूम की जाली काटकर चोरी की खबरे बताती है वही पुलिस बाद में इंजेक्शन पा लेती है। अपुष्ट जन भावना यह है कि इंजेक्शन चोरी नहीं हुये थे बल्कि सŸााधीशों और बड़े अफसरों ने मंगा-मंगा कर अपने घरों में रख लिये थे तथा अधीक्षक को लाचार होकर इंजेक्शन चोरी हुये कहना पड़ा। क्योंकि इनका आवंटन भारत सरकार के नियमों के अनुसार नहीं हुआ था। अगर चोरी नहीं हुई थी तो पुलिस के वे बड़े अधिकारी इस काल्पनिक षड़यंत्र के लिये जिम्मेवार हैं, जिन्होंने इन्हें चोरी बताया था और अगर अवैध आवंटन हुआ था तो यह तो चोरी से भी बड़ा अपराध है। तो उसके लिये जिम्मेवार इंजेक्शन देने वाला और लेने वाला दोनों दोषी हैं। बल्कि देने वाला कम क्योंकि वह माध्यम भर है, लेने वाला ज्यादा क्योंकि वह ताकतवर है। उनके ऊपर कार्यवाही होना चाहिये पर चूँकि मामला बड़े लोगों का है इसलिये ठंडे बस्ते में जा चुका है।
कोरोना से सबसे ज्यादा जान बूझकर और जान को जोखिम में डालकर लड़ने का काम चिकित्साकर्मी, पुलिसकर्मी, प्रशासन के कानून व्यवस्था के लोग और मरघटों शमशानों पर काम करने वाले लोग कर रहे है। डाॅक्टर जानते है कि संक्रमण की बीमारी है इसके बाद भी सुबह से शाम तक और कभी-कभी बिना खाये-पिये काम कर रहे हैं। निजी अस्पतालों चिकित्सकों के लिये भले ही कोरोना काल लूट की छूट का माल हो, परन्तु सरकारी डाॅक्टरों में तो अपवाद भले हों, अधिकांश डाॅक्टर दिन रात काम कर रहे हैं। पुलिस लोगों को निकलने से रोकने के लिये 40 डिग्री तापमान में दिन भर धूप में खड़ी है। चिकित्सा कर्मी, पुलिस और प्रशासन के अधिकारी यहां तक कि कलेक्टर तक संक्रमित हो रहे हैं और कई तो इस दौरान बीमारी से मर भी रहे हैं।
शमशान घाटों में काम करने वाल,े निगम में काम करने वाले कर्मचारी दिन रात दाह संस्कार का काम कर रहे हैं। यहां तक की जब कोरोना के भय से मृतकों के परिजन तक उन्हें मुखाग्नि नहीं दे रहे, उनके खून के रिश्ते वाले जिन्हेें उत्तराधिकार में सारी संपŸिा मिलना है वे तो दूर से ही विदा कर रहे हैं, और कर्मचारी पी.पी. किट में बंद होकर अपने कर्तव्य का निर्वाहन कर रहे हैं। दुख होता है जब इन कर्मचारियों, चिकित्सा कर्मियों, पुलिस और प्रशासन के लोगों पर झूठे आरोपों और अफवाहों की बौछार निहित स्वार्थाें द्वारा की जाती है। मीडिया और शासन मीडिया के माध्यम से फैलाई जा रही असत्य खबरों के आधार पर उन्हें अपमानित व लांछित करते है, जो सही मायने में पुरूस्कार और प्रशंसा के हकदार है। यहां तक कि उन्हें निंदा और दण्ड का पात्र बनाया जाता हैं। आज मैं समाज के सभी प्रबुद्ध और संवदनशील लोगों से अपील करूॅगा की यह समय इन चिकित्साकर्मी, निगम कर्मियों पुलिस प्रशासन के कर्मचारियों और अधिकारियों को प्रोत्साहित करने का है ना कि आरोपित करने का। अपवाद हो सकते हैं जो अपराधी हो परंतु अधिकांश तो अपराधी नहीं है, वे भी इंसान हैं। उनके भी परिवार हैं, उनकी तकलीफ को भी समाज को व शासन को समझना होगा।
मैं प्रधानमंत्री जी, मुख्यमंत्री जी से अवश्य अपील करूॅगा की वे चिकित्सा, नगर पालिकाओं, प्रशासन के कर्मचारियों को अवकाश, राहत और इलाज के लिये समय दिलाने हेतु फौरी तौर पर संविदा नियुक्तियों कि प्रक्रिया अपनायें ताकि कम से कम लगातार काम करने वाले इन कोरोना वारियर्स को राहत मिल सके और – अभाव की पूर्ति हो सके। इसके साथ ही टेस्ट वैक्सिनेशन और रेमेडिसिविर इंजेक्शन के दायरे का विस्तार करें। इसके वितरण और प्रयोग के दायरे का विस्तार करें। ताकि शीद्य्र ही देश और प्रदेश कोरोना महामारी और संभावित आशंकाओं से मुक्त हो सके। नये अस्पतालों के बनने में वक्त लगेगा। अभी तो वर्तमान को ही सुव्यवस्थित, अधिकतम क्षमता वाला और प्रभावी बनाने पर ध्यान व जोर देना होगा।

‘घोड़ा वायरस’ का नया खौफ
योगेश कुमार गोयल
एक ओर जहां पूरी दुनिया सवा साल से भी ज्यादा समय से कोरोना महामारी से त्रस्त है और कोरोना वायरस दुनियाभर में अब तक कई लाख लोगों की बलि ले चुका है, वहीं इसी अवधि के दौरान दुनिया के विभिन्न हिस्सों में कुछ और वायरसों का संक्रमण भी लगातार चुनौती पेश करता रहा है। कभी हंता वायरस तो कभी बर्ड फ्लू का खौफ या ऐसे ही कुछ और वायरसों का खौफ इंसानों को रह-रहकर डराता रहा है। हाल ही में उत्तर प्रदेश में मिले ‘बरखोडिया मेलियाई’ नामक खतरनाक वायरस ने नया खौफ पैदा किया है। दरअसल जानवरों में मिलने वाला यह खतरनाक वायरस बड़ी आसानी से जानवरों से इंसानों में फैल सकता है और पशु चिकित्सकों के मुताबिक यह वायरस पूरी दुनिया को भयाक्रांत करने वाले कोरोना वायरस से भी ज्यादा खतरनाक है। एक ओर जहां पिछले कुछ दिनों से देशभर में कोरोना संक्रमण को लेकर स्थिति काफी खतरनाक होती जा रही है, जहां चंद दिनों के भीतर प्रतिदिन संक्रमितों की संख्या एक लाख का आंकड़ा पार करने लगी है, ऐसे बुरे दौर में विभिन्न वायरसों या बीमारियों का सामने आना चिंता की स्थिति पैदा करता है।
जहां तक भारत में ‘बरखोडिया मेलियाई’ नामक खतरनाक वायरस मिलने की बात है तो यह वायरस हाल ही में मिला उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के कर्नलगंज कस्बे में, जहां एक घोड़े के अंदर यह खतरनाक वायरस मिलने की पुष्टि होने के बाद पूरे इलाके में हड़कंप मच गया। इस वायरस से घोड़े के संक्रमित पाए जाने के कारण ही इस वायरस को ‘घोड़ा वायरस’ के नाम से भी जाना जा रहा है। चूंकि घोड़े में पाया गया यह वायरस जानवरों से इंसानों में आसानी से फैल सकता है, इसीलिए प्रशासन को तुरंत मुस्तैद होना पड़ा और संक्रमित घोड़े को मौत की नींद सुलाने के बाद पशुपालन विभाग द्वारा आसपास के सभी पालतू जानवरों की जांच का अभियान शुरू किया गया है ताकि किसी अन्य जानवर में यह वायरस पाए जाने की स्थिति में इसे फैलने से पहले ही इस पर नियंत्रण किया जा सके।
गौरतलब है कि गत दिनों गोंडा जिले में कर्नलगंज कस्बे के बमपुलुस निवासी ईदु नामक व्यक्ति के दो घोड़ों की तबीयत अचानक काफी खराब हो गई थी, जिसके बाद उनके इलाज के लिए वह उन्हें कस्बे के पशु अस्पताल में ले गया। जब पशु चिकित्सकों ने घोड़ों का इलाज शुरू करने से पहले दोनों घोड़ों के कुछ नमूने लेकर बीमारी की पहचान के लिए उन्हें हरियाणा में हिसार एनआरसी लैब में भेजा तो जांच रिपोर्ट से पता चला कि दोनों में से एक घोड़ा ‘ग्लैंडर्स’ नामक खतरनाक बीमारी से ग्रसित है, जो काफी खतरनाक माने जाने वाले बरखोडिया मेलिया़ई वायरस के कारण होती है। रिपोर्ट में इस वायरस का नाम सामने आते ही पशु अस्पताल में हड़कंप मच गया और संक्रमित घोड़े से संक्रमण फैलने से रोकने के लिए आनन-फानन में पशुपालन विभाग द्वारा घोड़े को मौत की नींद सुलाने की योजना बनाई गई। तत्पश्चात् पीपीई किट पहनकर पशु चिकित्सा विभाग की टीम ने बहुत ही सावधानीपूर्वक संक्रमित घोड़े को नगर से बाहर ले जाकर पहले बेहोशी का इंजेक्शन दिया और उसके बाद उसे जहर का इंजेक्शन देकर मौत की नींद सुलाने के बाद जेसीबी द्वारा गड्ढा खुदवाकर जमीन में दफना दिया गया।
पशुपालन विभाग के अधिकारियों के मुताबिक ‘बरखोडिया मेलियाई’ से संक्रमण का यह मामला सामने आने के बाद न केवल इलाके के अन्य सभी जानवरों की जांच और सैम्पलिंग तेजी से कराई जा रही है बल्कि संक्रमित घोड़े के सम्पर्क में आने वाले अन्य लोगों की भी निरन्तर जांच की जा रही है ताकि वायरस अन्य जानवरों तथा जानवरों से इंसानों में फैलकर एक और महामारी का कारण न बनने पाए। दरअसल पशु विशेषज्ञों के मुताबिक इस वायरस के अन्य मवेशियों में फैलने का खतरा बना हुआ है और इस वायरस से होने वाली ‘ग्लैंडर्स’ नामक बीमारी कोरोना से भी ज्यादा खतरनाक होती है।
विशेषज्ञों के अनुसार बरखोडिया मेलियाई वायरस फैलने पर यह कोरोना से भी कहीं ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि इंसानों में यह संक्रमण तेजी से फैलता है, इसीलिए कोरोना के बाद इस बीमारी के लोगों के लिए बड़ा खतरा बनने की आशंका विशेषज्ञों को चिंता में डाल रही है। इसी कारण संक्रमित घोड़े का मामला सामने आते ही संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए उसे तुरंत मारकर दफन कर दिया गया और अन्य जानवरों की जांच और सैम्पलिंग की जा रही है। घोड़ों सहित कुछ अन्य जानवरों में पाई जाने वाली ‘ग्लैंडर्स’ नामक बीमारी बरखोडिया मेलियाई वायरस जनित ऐसी बीमारी है, जिसमें जानवर की आंखों और नाक से पानी आने के साथ ही उनके शरीर पर गांठ और चकत्ते पड़ जाते हैं। ऐसे संक्रमित जानवर के सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों के भी बड़ी आसानी से इस वायरस के शिकार होने की आशंका रहती है। किसी व्यक्ति में इस वायरस का संक्रमण होने पर शुरूआती दौर में छाती में दर्द, नाक तथा मुंह से पानी आना, सांस लेने में तकलीफ जैसे समस्याएं उत्पन्न होती हैं और संक्रमण बढ़ने पर संक्रमित व्यक्ति की स्थिति गंभीर हो सकती है। बहरहाल, कोरोना के इस भयावह दौर में बरखोडिया मेलियाई जैसा वायरस नुकसान न पहुंचा सके, इसलिए विशेष सतर्कता बरती जा रही है।

सतर्क रहे भारत
सिद्वार्थ शंकर
पूर्वी लद्दाख में सीमा पर जारी तनाव को कम करने के लिए भारत और चीन के बीच सैन्य वार्ता जारी है। पैंगोंग झील क्षेत्र में दोनों देशों द्वारा सफलतापूर्वक सेनाओं को पीछे करने के बाद भारत और चीन के बीच गोगरा की पहाडिय़ों और डेपसांग के मैदानी इलाके से भी सेनाएं पीछे करने पर चर्चा होनी है। दोनों देशों के बीच लगभग एक साल से सैन्य गतिरोध कायम है। सैन्य और राजनीतिक दोनों स्तरों पर व्यापक वार्ता के बाद पिछले महीने सबसे विवादास्पद पैंगोंग झील क्षेत्र से दोनों सेनाएं पीछे हट गई हैं। सेनाएं पीछे करने के लिए दोनों पक्षों के बीच अब तक कोर कमांडर स्तर की दस दौर की वार्ताएं हो चुकी हैं।
डेढ़ महीने पहले पूर्वी लद्दाख में पैंगोंग झील के उत्तरी और दक्षिणी हिस्से से चीन और भारत ने अपने सैनिकों को वापस बुला लिया था। तब यह उम्मीद बनी थी कि दोनों देशों के बीच महीनों से चला आ रहा गतिरोध टूटा है और आने वाले दिनों में इसमें और प्रगति दिखाई देगी। इसे भारत की बड़ी कूटनीतिक सफलता के तौर पर भी देखा गया। माना जा रहा था कि चीन अब डेपसांग, हॉट स्प्रिंग और गोगरा से भी अपने सैनिकों को जल्द ही हटा लेगा। इन इलाकों में अभी भी चीनी सैनिक जमे हैं। इसलिए अब सवाल यह है कि चीन कब अपने सैनिकों से यहां से हटाता है। चीनी सैनिकों की वापसी के मुद्दे को लेकर भारत जितना आशान्वित है, उससे कहीं ज्यादा चिंतित भी, क्योंकि जैसे-जैसे समय बीतता जाएगा, बात पुरानी पड़ती जाएगी और चीन वहां डटा रहेगा। हालांकि इस बारे में भारत और चीन के बीच सैन्य और राजनीतिक स्तर वार्ताओं के दौर जारी हैं। पर चीन जिस तरह की रणनीति पर चल रहा है और मामले को लंबा खींच कर विवाद को बनाए रखना चाहता है, वह हैरानी पैदा करने वाला है।
इसमें कोई संदेह नहीं कि सीमा पर शांति के बिना भारत और चीन के रिश्ते सामान्य नहीं हो सकते। इसीलिए भारत ने चीन से बार-बार यही कहा है कि वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) के पास जिन जगहों पर घुसपैठ कर उसने कब्जा जमाया है, उन्हें खाली किया जाए। अपनी तरफ से भारत ने जरूरत से ज्यादा संयम भी दिखाया है। लेकिन चीन का रुख बता रहा है कि वह स्थिति को उलझाने के फेर में है। वरना क्या कारण है कि अपने सैनिकों को भारतीय क्षेत्र से हटाने के लिए उसे इतना सोच-विचार करना पड़ रहा है! यह कोई दशकों पुराना पेचीदा मसला नहीं है जिस पर महीनों वार्ताओं के दौर चलें।
पिछले महीने भी भारत और चीन के बीच सीमा मामलों पर बने कार्यकारी तंत्र और शीर्ष कमांडरों की बैठक हुई थी, जिसमें जल्द ही इन इलाकों से सैनिकों की वापसी पर जोर दिया गया था। चीन चाहता है मामला जितना लंबा खिंचेगा, उसके पैर उतने ही मजबूत होंगे। पर अब यह भी साफ हो गया है कि भारत की स्थिति पहले जैसी नहीं है। बीस फरवरी को मोल्डो में भारत और चीन के सैन्य कमांडरों की दसवें दौर की बातचीत में भारत ने साफ कर दिया था कि हालात सामान्य बनाने के लिए चीन को देपसांग, हॉट स्प्रिंग और गोगरा इलाकों से अपने सैनिक हटाने होंगे। चीन को इसके नीहितार्थ समझने चाहिए।
चीन का रुख हमेशा से ही संदेहास्पद रहा है। अपनी बातों से मुकरने की उसकी पुरानी प्रवृत्ति है। गलवान घाटी से सैनिकों को हटाने को लेकर सैन्य और कूटनीतिक स्तर पर वार्ताओं के लंबे दौर चले, मास्को में भी भारत और चीन के रक्षा व विदेश मंत्रियों की वार्ताएं हुईं, लेकिन चीन के रुख की वजह से सुलह के सारे प्रयास निष्फल होते रहे। उसके इसी रवैए को देख कर भारत के विदेश मंत्री भी समय-समय पर यह चिंता व्यक्त करते रहे हैं कि लंबे समय तक चीन का इन इलाकों में बने रहना चिंता की बात है और इसका असर क्षेत्रीय शांति पर भी पड़ रहा है। हालांकि चीन भारत के बढ़ते कद को समझ रहा है। भारत क्वाड का सदस्य है और अमेरिका चीन को चेता चुका है कि जरूरत पडऩे पर वह भारत के साथ खड़ा होगा। ऐसे में बेहतर है कि चीन स्थितियों को समझे और अपने सैनिकों को हटा कर शांति की दिशा में बढ़े।

भारत क्यों बने किसी का मोहरा ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत, अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया- इन चार राष्ट्रों के चौगुटे का जो पहला शिखर-सम्मेलन हुआ, उसमें सबसे ध्यान देनेवाली बात यह हुई कि किसी भी नेता ने चीन के विरुद्ध एक शब्द भी नहीं बोला जबकि माना जा रहा है कि यह चौगुटा बना ही है, चीन को टक्कर देने के लिए। इसका नाम है- क्वाड याने ‘‘क्वाड्रीलेटरल सिक्यूरिटी डाॅयलाग’’ अर्थात सामरिक समीकरण ही इसका लक्ष्य है लेकिन इसमें भाग ले रहे भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन, जापान के प्रधानमंत्री योशिहिदे सुगा और आस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्काॅट मोरिसन ने अपना ध्यान केंद्रित किया- कोरोना महामारी से लड़ने पर। पिछले माह जब इसके विदेश मंत्रियों का सम्मेलन हुआ था, तब भी चाहे अमेरिकी विदेश मंत्री ने चीन के विरुद्ध जब-तब कुछ बयान दिए थे लेकिन चारों विदेश मंत्रियों का कोई संयुक्त वक्तव्य जारी नहीं हो सका, क्योंकि भारत नहीं चाहता था कि यह चौगुटा चीन-विरोधी मोर्चा बन जाए। भारत आज तक किसी भी सैनिक गुट में शामिल नहीं हुआ। शीत-युद्ध के दौरान वह सोवियत संघ के नजदीक जरुर रहा लेकिन वह किसी सेन्टो या नाटो के सैनिक गुट में शामिल नहीं हुआ। चीन ने इस चौगुटे को पहले ही ‘एशियाई नाटो’ घोषित किया हुआ है। इसमें शक नहीं है कि पिछले 10-15 साल में चीन की चुनौती से अमेरिका प्रकंपित है और इसीलिए उसने प्रशांत-क्षेत्र को भारत-प्रशांत क्षेत्र (इंडो-पेसिफिक) घोषित किया लेकिन भारत के नेता इतने कच्चे नहीं हैं कि वे अमेरिकी गोली को निगल जाएंगे। वे अमेरिका की खातिर चीन से दुश्मनी नहीं बांधेंगे। खुद बाइडन का अमेरिका चीन के साथ टक्कर जरुर ले रहा है लेकिन वह ट्रंप की तरह बेलगाम नहीं है। इसके अलावा उसे पता है कि जापान और आस्ट्रेलिया का चीन सबसे बड़ा व्यापारिक भागीदार है। अमेरिका के यूरोपीय साथी फ्रांस, जर्मनी और ब्रिटेन की अर्थ व्यवस्थाओं का चीन एक बड़ा सहारा है। इसीलिए इस शिखर सम्मेलन के संयुक्त वक्तव्य में चारों देशों ने कहा है कि यह चौगुटा समान विचारवाले देशों का लचीला संगठन है इसमें कुछ नए देश भी जुड़ सकते हैं। यह ठीक है कि प्रशांत और हिंदमहासागर क्षेत्र में अमेरिका, जापान और आस्ट्रेलिया ने अपने-अपने सामरिक अड्डे बना रखे हैं और चीन व उनके हितों में सामरिक प्रतिस्पर्धा भी है लेकिन भारत किसी भी राष्ट्र या गुट का मोहरा क्यों बनेगा ? भारत और चीन के बीच सीमांत को लेकर आजकल तनाव जरुर बना हुआ है लेकिन उस पर वार्ता चल रही है। इसके अलावा भारत और चीन ‘ब्रिक्स’ और ‘एससीओ’, इन दो संगठनों के सहभागी सदस्य भी हैं। चीन से आपस में निपटने में भारत सक्षम है। इसलिए भारत इस चौगुटे का फायदा उठाते हुए भी किसी का मोहरा क्यों बनेगा ?

फिर न हो रितिका जैसे आत्महत्या के केस
अशोक भाटिया
रितिका ने 15 मार्च को हरियाणा के चरखी दादरी में आत्महत्या कर ली, जहां वो अंतरराष्ट्रीय रेसलर गीता फोगाट और बबीता फोगाट के पिता और कुश्ती के मशहूर कोच महावीर फोगाट की अकेडमी में पिछले पांच साल से ट्रेनिंग ले रही थी।वो गीता और बबीता के मामा की बेटी थी और महावीर फोगाट रिश्ते में उसके फूफा लगते थे. आपको याद होगा इस परिवार पर दंगल नाम से एक फिल्म भी बन चुकी है , जो सुपरहिट हुई थी।लेकिन जिस अकेडमी में कुश्ती सीखने के लिए वो राजस्थान के झूंझुनू से लगभग 100 किलोमीटर दूर हरियाणा के चरखी दादरी आईं, वहीं उसने आत्महत्या कर ली। और इस आत्महत्या की वजह बना कुश्ती का वो एक पॉइंट , जिसने रितिका को हमेशा के लिए उसके परिवार से दूर कर दिया। उल्लेखनीय हैं कि खरा सोना तपके ही बनता है लेकिन आज कल की जो नई पीढ़ी है वो असफलता की तपिश में तपना नहीं चाहती है। रितिका ने इसी महीने की 14 तारीख को राजस्थान के भरतपुर में खेली गई एक राज्य स्तरीय कुश्ती प्रतियोगिता में हिस्सा लिया था और 53 किलोग्राम भार वर्ग में उसका फाइनल मुकाबला भीलवाड़ा की एक खिलाड़ी से था, जिसका नाम मायामाली है। दोनों के बीच 6 मिनट में तीन राउंड खेले गए और ऐसा दावा है कि एक-एक राउंड बराबर होने के बाद तीसरे राउंड में रितिका एक पॉइंट से प्रतियोगिता हार गईं।
यह सवाल इधर कुछ वर्षों में बढ़ गया है पर बिना किसी उत्तर के घूम रहा है। रितिका फोगाट के बारे में कहा जा रहा है कि वह अपना कुश्ती का फाइनल मुकाबला हार जाने से दुखी थीं इसी वजह से उन्होंने ऐसा कदम उठाया। लेकिन इस थियरी के चलते हम सुसाइड की गंभीरता को कम कर देते हैं। हम या हमारा समाज मान लेता है कि सुसाइड के पीछे परीक्षा में असफलता, प्रेम में दिल टूटना या बिजनेस में घाटा जैसा कोई तात्कालिक कारण ही है। इस तरह हम मूल समस्या को किसी दूसरी समस्या पर आधारित बताकर पल्ला झाड़ लेते हैं. किसी भी आत्महत्या के केस को कमजोर करने के लिए इतना काफी होता है। हमारे देश की जांच एजेंसियां भी इस तरह का कोई कारण निकालकर मामले को खत्म कर देती हैं. हमारे समाज को आत्महत्या के इन कारणों से इतर विचार करना होगा नहीं तो ऐसे मामले बढ़ते ही जाएंगे।
किसी की आत्महत्या के पीछे कई वजहें हो सकती हैं, खास तौर से वह अगर खिलाड़ी है तब तो और भी ज्यादा, दरअसल एक खिलाड़ी के लिए उसका खेल सब कुछ होता है और जब वह किसी ऐसे मैच को हार जाता है जिससे उसका जीवन बदल सकता था तो वह निराश हो जाता है। खास तौर से रितिका जैसे खिलाड़ी जिसके घर में बबीता और गीता जैसी रेसलर बहने हों जिन्होंने दुनिया में भारत का नाम रोशन किया हो।जब इस घर में रितिका हार के आई होंगी तो उन्हें लगा होगा कि वह अपने फोगाट परिवार का नाम ऊंचा नहीं कर पाईं. हालांकि, उनका ऐसा सोचना बिल्कुल गलत था। क्योंकि हार हमेशा हमें आने वाली जीत के लिए शिक्षा देती है। गीता और बबीता ने भी कई मुकाबले हारें लेकिन वह डटी रहीं और अपने हार से सीखती रहीं इसी लिए वह विश्व चैंपियन बन सकीं। रितिका भी अगर कोशिश करती तो जरूर एक दिन कामयाब होती। हालांकि पुलिस अभी इस मामले में छानबीन कर रही है कि रितिका के आत्महत्या कि मुख्य वजह क्या थी।
अगर किसी भी प्रकार की असफलता ही सुसाइड करने का कारण होता तो समाज में आत्महत्या करने वालों की संख्या शायद अधिक होती। देखने में आ रहा है कि कई बार से लगातार चुने जा रहे सांसद, आईएएस, आईपीएस और सिने जगत के सफल सितारे जैसे सफल लोगों में सुसाइड की दर ज्यादा है। रितिका फोगाट के आत्महत्या मामले ने एक बार फिर से इस सवाल को जिंदा कर दिया है कि क्या सफलता ही जीवन का पैमाना है? और अगर सफलता ही जीवन का पैमाना है तो तमाम सफल लोग क्यों सुसाइड कर रहे हैं?अगर सफलता ही सब कुछ है तो फिर सुसाइड करने वालों की संख्या अधिक होनी चाहिए, क्योंकि हर समाज में असफल लोगों की संख्या सफल लोगों से हजारों गुना अधिक होती है। लेकिन सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या, हाल ही के दिनों में 2 सांसदों की आत्महत्या और पिछले एक साल मे कई आईएएस और आईपीएस की आत्महत्या इस पैमाने को गलत साबित करती है। सुशांत सिंह राजपूत ने अपने छोटे से कैरियर में कई ब्लॉक बस्टर मूवी दिया और उनकी अच्छी फैन फॉलोइंग भी थी। लगातार सफल लोगों की आत्महत्या हमारे समाज के सामने चैलेंज की तरह है। आत्महत्या के पीछे कारण चाहे जो भी हों, लेकिन इसकी बढ़ती प्रवृत्ति से बहुमूल्य मानव संसाधन का राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान हो रहा है, जो चिंता का विषय है। भारत युवाओं का देश है। यदि यही प्रवृत्ति बरकरार रही, तो भविष्य में इसका खामियाजा देश को भुगतना पड़ सकता है। आत्मजागरूकता, समझदारी और सतर्कता इसका रामबाण इलाज है। लोगों को, मानव जीवन के औचित्य को समझते हुए इसकी सार्थकता सिद्ध करने पर जोर देना चाहिए।
आत्महत्या को लेकर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़े कहते हैं कि भारत में हर दिन तकरीबन 381 लोग आत्महत्या करते हैं. जबकि देश में 2019 में कुल 1,39,123 लोगों ने आत्महत्या कर अपने जीवन को खत्म कर लिया। इतने लोगों के द्वारा हर रोज आत्महत्या करना बताता है कि यह समाज के लिए कितनी बड़ी समस्या है और इससे जल्द पार पाने की जरूरत है। भारत में इसे इतनी गंभीरता से नहीं लिया जाता इसलिए यह इतनी तेजी से भारत में पांव पसार रहा है।साथ ही सवाल यह भी उठता है कि आखिर क्या कारण है कि आत्महत्या, जिसे नैतिक और कानूनी दोनों ही दृष्टिकोण से एक अपराध की संज्ञा दी जाती है, व्यक्ति को सभी दुखों का अंत लगती है? हो सकता है कुछ लोगों को यह बात सही ना लगे लेकिन सच यही है कि अगर व्यक्ति आत्महत्या करने की कोशिश करता है तो इसके पीछे उसका परिवार और आसपास का वातावरण पूर्ण उत्तरदायी होते हैं। अभिभावकों का अपने बच्चे से अत्याधिक अपेक्षाएं रखना, उनका तुलनात्मक स्वभाव और नंबर कम आने पर ढेर सारी डांट या मार बच्चे को मानसिक रूप से बहुत परेशान करती है।हो सकता है अभिभावक इसे अपनी जिम्मेदारियों का एक हिस्सा समझते हों लेकिन बच्चे के मस्तिष्क पर इसका नकारात्मक प्रभाव भी पड़ सकता है। वहीं दूसरी ओर अगर बच्चा अपने प्रेमी की ओर से निराश है तो उसे संभालने की पूरी जिम्मेदारी भी अभिभावकों , समाज और उसके दोस्तों की ही होती है। ऐसे समय में उनका यह दायित्व बन जाता है कि व्यक्ति को उसकी असफलता का अहसास ही ना होने दिया जाए।

भगवान के घर में भेद-भाव कैसा ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ताजा खबर यह है कि उत्तराखंड के सभी मंदिरों में अब यह प्रतिबंध लगेगा कि उनमें कोई मुसलमान नहीं जा सकता। क्यों नहीं जा सकता ? इसके उत्तर में हिंदू युवावाहिनी के लोगों का अपना तर्क है। वे कहते हैं कि इन मंदिरों में पहुंचकर मुसलमान लड़के हिंदू लड़कियों को अपने जाल में फंसा लेते हैं। यदि सचमुच ऐसा होता है तो यह बहुत बुरा है लेकिन इनसे कोई पूछे कि क्या यही काम अन्य स्थानों पर नहीं होता होगा ? यदि होता है तो देश के स्कूलों-कालेजों, मोहल्लों, बाजारों, अस्पतालों, सड़कों आदि में हर जगह पर इस प्रतिबंध की मांग ये लोग क्यों नहीं करते ? ये प्रतिबंध हर जगह लगवाइए और आप देश में एक नए पाकिस्तान की नींव डाल दीजिए। लालच, भय और बहकाकर की गई कोई भी शादी अनैतिक है, वह हिंदू से मुसलमान की हो या मुसलमान से हिंदू की ! मैं अंतधार्मिक, अन्तर्जातीय, अंतरप्रांतीय और अंतर्वर्गीय शादियों का सदा स्वागत करता हूं क्योंकि वे भारत की एकता और सहिष्णुता को बलवान बनाएंगी। देश की कोई भी मस्जिद हो, मंदिर हो, गिरजा हो, गुरुद्वारा हो, साइनेगाॅग हो— वहां सबको जाने की अनुमति क्यों नहीं होनी चाहिए ? यदि धर्म-स्थल भगवान के घर हैं तो वहां भेद-भाव कैसा ? यदि आप भेद-भाव करते हैं तो यह साफ है कि आपने भगवान के घर को अपना घर बना लिया है। यदि ईश्वर एक है तो सभी मनुष्य उसी एक ईश्वर के बच्चे है। मैं न तो मूर्ति-पूजा करता हूं, न नमाज पढ़ता हूं और न ही बाइबिल की आयतें लेकिन मुझे देश और दुनिया के मंदिरों, मस्जिदों, गिरजों, गुरुद्वारों और साइनेगागों में जाना बहुत अच्छा लगता है। वहां मुझे बहुत शांति, भव्यता और पवित्रता का अनुभव होता है। मुझे आज तक ताशकंद, काबुल, तेहरान, ढाका, अबू धाबी, लाहौर, पेशावर आदि की मस्जिदों में जाने से किसी ने कभी नहीं रोका; रोम, पेरिस और वाशिंगटन के गिरजाघरों में मेरे भाषण भी कई बार हुए। लंदन के साइनेगाॅग में अपने यहूदी मित्रों के साथ भी मैं उनकी प्रार्थना में शामिल हुआ। मैं तो भगवान से बड़ा इंसान को मानता हूं। सभी इंसानों की खुशी और भला ही सबसे बड़ा धर्म है। सारे धर्म और धर्मग्रंथ ईश्वरकृत हैं, इसमें भी मुझे संदेह होने लगा है लेकिन इनका आदर इसलिए जरुरी है कि इनके माननेवालों के लिए आपके दिल में प्रेम और सम्मान है। वह पूजा-गृह भी क्या पूजा-गृह है, जहां किसी अन्य पूजा-पद्धतिवालों का प्रवेश-निषेध हो ?

राम के बाद अब कृष्ण जन्मभूमि पर विवाद….?
ओमप्रकाश मेहता
अयोध्या में प्रस्तावित राम मंदिर की नींव भराई का काम भी पूरा नहीं हुआ है और अब कृष्ण जन्मभूमि (मथुरा) को लेकर विवाद शुरू हो गया है और न्यायालय की चौखट तक पहुंच गया है, अयोध्या में बाबरी मस्जिद को लेकर विवाद था तो कृष्ण जन्म स्थली मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद को लेकर विवाद है, अपने पक्ष का दावा स्वयं भगवान श्री कृष्ण विराजमान के नाम से ठोंका गया है, कहा जा रहा है कि श्री कृष्ण जन्मभूमि स्थल की 13.37 एकड़ जमीन पर शाही ईदगाह ट्रस्ट ने अवैध कब्जा कर रखा है, श्री कृष्ण विराजमान ने अपनी जन्मभूमि से अवैध कब्जा हटवा कर उक्त भूमि मंदिर ट्रस्ट को सौंपने की मांग की है तथा कोर्ट से अनुरोध किया गया है कि इस पूरे परिक्षेत्र को श्री कृष्ण जन्म स्थली क्षेत्र घोषित किया जाए। मथुरा के सिविल न्यायालय में दायर इस बाद में कहा गया है कि 1968 में शाही ईदगाह ट्रस्ट व श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट के बीच हुए समझौते के बाद यह भूखण्ड ईदगाह मस्जिद ट्रस्ट को दी गई थी, जो गलत था, यह कृष्ण जन्मभूमि की जमीन ईदगाह मस्जिद ट्रस्ट को नहीं दी जा सकती, मांग की गई है कि न्यायालय इस मामले की जांच कर विवादित स्थल से ईदगाह मस्जिद ट्रस्ट का कब्जा हटाए और यह भूखण्ड श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट को सौंपी जाए। यद्यपि इस विवाद के फैसले पर पूजास्थल कानून 1991 की रूकावट है, किंतु न्यायालय इस पर क्या फैसला लेता है, इसी पर सब की नजर है। पूजा स्थल कानून 1991 पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव के कार्यकाल में 11 जुलाई 1991 को लागू किया गया था, जिसके द्वारा पुरानी रियासतों व मुगलों के शासनकाल के दौरान तोड़े गए मंदिरों-मस्जिदों को लेकर न्यायालय के दरवाजें बंद कर दिए गए थे अकेले हिन्दू ही नहीं जैन, बौद्ध, सिक्ख व ईसाई पूजा स्थलों पर भी यह कानून लागू कर दिया था। इसी कानून के कारण देश के हजारों प्राचीन अराधना स्थलों को पुर्नजीवित नही किया जा सका है। विहिप ने 1984 की अपनी धर्म संसद में राममंदिर व कृष्ण जन्मभूमि के विवादों को लेकर कई प्रस्ताव पारित किए थे।
अब अयोध्या के राममंदिर विवाद के सुलझ जाने के बाद मथुरा के श्री कृष्ण जन्मभूमि विवाद को हवा दी जा रही है, जिससे कि केन्द्र में भाजपा की सरकार के रहते 2024 के पहले कृष्ण जन्मभूमि का विवाद भी न्यायालय द्वारा हल किया जा सके, इसलिए इस मामले को लेकर सरगर्मी बढ़ती ही जा रही है।
इसी विवाद के सन्दर्भ में एक नया विवाद यह भी उभर कर सामने आ रहा है कि देश के पुराने राजे-रजवाड़ों व रियासतों के सरदारों ने अपने आधिपत्य वाले राज्य के अलावा देश के अन्य राज्यों में भी सैकड़ों मंदिरों व मस्जिदों का निर्माण कराया था, सरदार वल्लभ भाई पटेल ने देश की आजादी के बाद जब इन क्षेत्रीय रियासतों को खत्म कर देश के साथ विलीनीकरण किया तो उस समय सरकार ने रियासतों के इन मंदिरों-मस्जिदों को अपने कब्जें में नहीं लिया और इन रियासती पूजा स्थलों पर कई अवैध कब्जें कर लिए गए, देश में ऐसे आज हजारों ऐसे पूजा स्थल है, जिनकी कमाई करोड़ों अरबों की है और इन पर सरकार का कोई कब्जा नहीं है, उदाहरण स्वरूप मध्यप्रदेश की पूर्व रियासतों के निर्मित करीब 84 मंदिर है जो उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु, आंध्रा, राजस्थान, केरल आदि राज्यों में है, जिनकी आज आमदानी करोड़ों में है, अब मध्यप्रदेश सरकार ने इन पूजा स्थलों को अपने कब्जे में लेने के प्रयास शुरू किए है, किंतु इन पूजा स्थलों के मौजूदा संचालकों द्वारा राज्य सरकार के प्रतिनिधि मंडल को कोई तवज्जोह नहीं दी जा रही है, बल्कि उन्हें उल्टे अपमानित किया जा रहा है, अब मध्यप्रदेश सरकार इस मसले पर गंभीरता से चिंतन कर इसे हल करने की दिशा में मंथन कर रही है।
यह तो अकेले मध्यप्रदेश का मैंने उदाहरण दिया है, किंतु ऐसे देश के प्रत्येक राज्य के मामले है और राज्य सरकारों की अपनी पहल में पी वी नरसिंह राव सरकार द्वारा बनाया गया पूजा स्थल कानून 1991 आड़े आ रहा है, जिसे राज्य सरकारों द्वारा रद्द करने की केन्द्र से मांग की जा रही है। इस दिशा में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ व उसके प्रमुख डॉ. मोहनराव भागवत भी सक्रिय हो गए है।
इस तरह देश में पूजा स्थलों को लेकर यह नया विवाद शुरू हो गया है और कृष्ण जन्म स्थल का विवाद तो है ही, क्या अब देश में सत्तारूढ़ भाजपा ”जय श्री राम“ के साथ ”जय श्री कृष्ण“ का भी नारा बुलंद करेगी?

धर्मग्रंथ, संविधान और रामराज्‍य
ओमप्रकाश श्रीवास्‍तव
सभ्‍यता के प्रारंभ से ही मनुष्‍य ने प्रकृति के रहस्‍यों को समझने के प्रयास किये और फिर जो भी अबूझ पहेलियॉं रह गईं उनके लिए संसार के अलग-अलग हिस्‍सों में निवास कर रहे समुदायों ने अपने-अपने तरीके से हल करने की कोशिश की। इसीलिए विभिन्‍न धर्मों, संप्रदायों और पंथों का उदय हुआ। जो नास्तिक हुए उन्‍होंने माना कि सब कुछ प्रकृति के नियमों से चल रहा है जिसे विज्ञान कहते हैं और ईश्‍वर का कोई अस्तित्‍व नहीं है। आस्तिकों ने माना कि पूरा संसार ही उनके प्रभु की इच्‍छा से संचालित है। उन्‍होंने हर अज्ञात घटना के पीछे ईश्‍वर की इच्‍छा बताई।
भारत में पैदा हुए समस्‍त धर्मों ने संसार व ईश्‍वर दोनों के अस्तित्‍व को माना । उन्‍होंने ईश्‍वर को सर्वोच्‍च बताया और संसार को उसकी रचना बताया परंतु उन्‍होंने संसार के महत्‍व को कम करके नहीं आँका। इसलिए भारतीय दर्शनों, विशेषकर हिन्‍दू दर्शन, ने संसार के माध्‍यम से ईश्‍वर से एकत्‍व प्राप्‍त करने की प्रक्रियाऍं प्रस्‍तुत कीं। सामान्‍य सिद्धांत यह माना गया कि ईश्‍वर की अनुभूति व्‍यक्तिगत उपलब्धि है परंतु इसके लिए अनुकूल व्‍यवस्‍थाएँ प्रदान करना समाज का कार्य है। कहावत है कि ‘’भूखे भजन न होये गोपाला’’। सच है जब तक रोटी, कपड़ाऔर मकान की व्‍यवस्‍था नहीं हो जातीतब तक व्‍यक्तिगत आध्‍यात्मिक उपलब्धियों की बात सोची भी नहीं जा सकती। इसके लिए आवश्‍यक है कि समाज में नियम हों, कानून का राज्‍य हो।
इसलिए हिन्‍दू दर्शन में जहाँ ईश्‍वर और संसार पर अलग-अलग विचार किया गया वहीं उन्‍हें आपस में संबंधित भी कर दिया गया। इसके लिए ग्रंथों को दो भागों में बॉंटा गया श्रुति और स्‍मृति। श्रुति में वेद और उसके भाग अर्थात् ब्राह्मण, आरण्‍यक और उपनिषद् आते हैं। इनमें ब्रह्म, जीव, माया आदि आध्‍यात्मिक बातों पर विचार के साथ ही साथ उस अनुभूति का वर्णन है जो ऋषियों ने चित्‍त की शुद्धतम और ध्‍यान की गहनतम अवस्‍था में जानी। इस अनुभूति में उन्‍होंने पाया कि संसार के कण कण में, सभी प्राणियों में एक ही सत्‍ता विद्यमान है। इस अनुभूति को परम सत्‍य कहा और घोषित किया कि मानव जीवन का अंतिम लक्ष्‍य इस अनुभूति को प्राप्‍त करना है। यह अनुभूति बौद्धिक नहीं है जो केवल पढ़कर या सुनकर नहीं हो जाए। इसके लिए स्‍वयं प्रयास करना होंगे। इसके लिए समाज में रहने के लिए सामूहिक व व्‍यक्तिगत नियम आवश्‍यक हैं। इन नियमों को जिन ग्रंथों में लिखा गया उन्‍हें स्‍मृति ग्रंथ कहा गया।
श्रुति ग्रंथ अपरिवर्तनीय हैंक्‍योंकि जो अनुभूति आज से 5 हजार वर्ष पूर्व ऋषियों को हुई थी प्रयास करने पर वही आज हमें होगी और वही अन्‍य लोगों को भविष्‍य में भी होगी। जो भारत में रहने वालों को होगी वही यूरोपीय लोगों को होगी वही अफ्रीकनों को होगी भले ही वे किसी भी धर्म, भाषा, जाति या संस्‍कृति के क्‍यों न हों। इस प्रकार यह देश और काल से परे है। परंतु इस अनुभूति को प्राप्‍त करने के लिए आवश्‍यक वातावरण प्रदान करने के लिए जो समाजिक व व्‍यक्तिगत नियम हैं वह समय और स्‍थान के अनुसार बदल सकते हैं। उदाहरण के लिए यदि किसी स्‍मृति में ब्रह्म मुहूर्त में गंगा-स्‍नान का विधान है तो वह गंगा किनारे रहने वालों के लिए तो उचित है परंतु अमेरिका में रह रहा व्‍यक्ति तो प्रतिदिन गंगा स्‍नान नहीं कर सकता और उत्‍तरीध्रुव के पास स्थित ग्रीनलैंड की ठंड में ब्रह्ममुहूर्त में खुले में स्‍नान करने से सत्‍य की अनुभूति से पहले ही मौत से साक्षत्‍कार हो जाएगा। इसलिए स्‍मृतियों में देश और काल के अनुसार परिवर्तन किया जा सकता है ।
श्रुति व स्‍मृति का क्षेत्र पूर्णत: पृथक् व परस्‍पर पूरक है। परंतु वर्तमान में इन दोनों के बीच भीषण घालमेल हो गया है। श्रुति और स्‍मृति दोनों को ही धर्मग्रंथ मानने की मूढ़ता चरम सीमा पर है। ढ़ाई हजार साल पहले लिखी गई मनुस्‍मृति के कुछ अंशों को लेकर धर्म पर हमले हो रहे हैं।आप इन स्‍मृति ग्रंथों को पढ़ें तो पाऍंगे कि इनमें 90 प्रतिशत तो ऐसे नियम हैं जो व्‍यक्ति और समाज संचालन के नैतिक नियम हैं। केवल 10 प्रतिशत से भी कम भाग ऐसा है जो वर्तमान समय में सामाजिक चेतना के विकास, विज्ञान और प्राद्योगिकी की प्रगति के साथ अप्रासंगिक हो चुके हैं और हमारा देश बड़ी खूबसूरती से बगैर किसी शोर-शराबे के इन्‍हें हटा चुका है। आधुनिक भारत में अब मनुस्‍मृति या याज्ञवल्‍यक स्‍मृति जैसे ग्रंथ उसी सीमा तक स्‍वीकार्य रह गये हैं जहॉं तक वे जीवन के मूल आदर्शोंके अनुरूप हैं और वर्तमान कानूनों के विरुद्ध नहीं हैं। स्‍मृतियों के दंड विधान तो कब के खत्‍म हो गये हैं। उनका स्‍थान भारतीय दंड संहिता ले चुकी है। स्‍मृतियों के उत्‍त्‍राधिकार के नियम के स्‍थान पर हिंदू उत्‍तराधिकार अधिनियम आ गया। स्‍मृतियों के विवाह कानूनों से अलग विशेष विवाह अधिनियम प्रचलन में है। अनेक आधुनिक कानूनों के द्वारा महिलाओं को और समाज के निचले तबके के लोगों को समान अधिकार मिले।इन सबका स्रोत भारत का संविधान है जो वर्तमान समय का सबसे बड़ा और मान्‍य स्‍मृति ग्रंथ है। जिस प्रकार स्‍मृति ग्रंथों में उस सीमा तक परिवर्तन हो सकता है जिस सीमा तक वह जीवन के मौलिक आदर्शों – सत्‍य, न्‍याय, करुणा, सहिष्‍णुता आदि – के विरुद्ध नहीं है उसी प्रकार एक नियत प्रक्रिया के अंतर्गत संविधान में भी परिवर्तन किये जा सकते हैं परंतु इसके मूल ढ़ॉंचे में छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। यह मूल ढ़ॉंचा संविधान की सर्वोच्‍चता, नागरिकों के मूल अधिकार और व्‍यक्तिगत स्‍वतंत्रता, विधि का शासन, सरकार का लोकतंत्रीय स्‍वरूप,राज्‍य का कल्‍याणकारी स्‍वरूप,धर्मनिरपेक्षताआदि से मिलकर बना है।
इस प्रकार स्‍मृतियों के कानूनों का उद्देश्‍य अच्‍छे समाज और राज्‍य की स्‍थापना करना है और राज्‍य का आदर्श रूप है रामराज्‍य, जिसकी रूपरेखा तुलसीदास जी ने प्रस्‍तुत की। उनके अनुसार रामराज्‍य में समाज की भौतिक उन्‍नति के साथ ही साथ नागरिकों की आध्‍य‍ात्मिक उन्‍नति भी चरम पर होती है। रामराज्‍य में लोगों को भय, शोक, रोगनहीं होता, सांसारिक और ईश्‍वरीय बाधाऍं नहीं होतीं, कोई दीन और दरिद्र नहीं होता, सभी कानून और मर्यादा का पालन करते हैं। राम राज्‍य में आध्‍यात्मिक उन्‍नति की बात करें तो लोगों में आंतरिक भेदभाव और दम्‍भ नहीं होता, सत्‍य शौच, दया और दान का प्रसार होता है, लोगों की प्रवृत्ति धर्म का पालन करने, उपकार मानने और धोखा न देने की होती है। आधुनिक भारत में राम राज्‍य की कल्‍पना गांधी जी ने की थी। उन्‍होंने 20 मार्च 1930 के नवजीवन में लिखा था –‘रामराज्‍य शब्‍द का भावार्थ यह है कि उसमें गरीबों की रक्षा होगी, सब कार्य धर्ममूलक होंगे तथा लोकमत का आदर किया जाएगा।‘यहॉं धर्म का तात्‍पर्य संकीर्ण अर्थों में धर्म नहीं बल्कि सत्‍य और अहिंसा से है। एक अन्‍य अवसर पर 1929 में गांधी जी कहते हैं –‘मेरे रामराज्‍य का अर्थ हिंदू राज्‍य नहीं है…… रामराज्‍य का प्राचीन आदर्श नि:संदेह वास्‍तविक लोकतंत्र है।‘तुलसीदास जी मूलत: भक्‍त थे अत: सारी बातों का श्रेय भगवान राम को देते हैं। गांधी जी व्‍यवहारिक राजनीतिज्ञ थे अत: उनका रामराज्‍य ऐसा आदर्श लोकतंत्र है जो सत्‍य और अहिंसा पर आधारित है। इसमें धर्म वैयक्तिक मामला है जिसमें राज्‍य का कोई हस्‍तक्षेप नहीं है।
यहीं हम मूल मुद्दे पर आते हैं। श्रुति ग्रंथ व्‍यक्तिगत धार्मिक उन्‍नति के लिए हैं जबकि स्‍मृति ग्रंथ समाज व राज्‍य के संचालन के लिए ।‘रामराज्‍य लाना’ आकर्षक राजनैतिक नारा हो सकता है। परंतु इससेसमाज का एक वर्ग यह मानने लगे या उसे यह समझाया जाए कि उसकी आस्‍थाओं का राज्‍य आ रहा है जो वैसा ही होगा जैसा धर्म ग्रंथों में वर्णित है तो इसकी प्रतिक्रिया स्‍वरूप दूसरे धर्मों को मानने वाले वर्ग सोचने लगेंगे कि भला उनके धर्म की आस्‍थाओं के आधार पर राज्‍य क्‍यों नहीं चलना चाहिए। इस क्रिया-प्रतिक्रिया का परिणाम होगा समाज में बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और अ‍सहिष्‍णुता। जो किसी के भी हित में नहीं होगा।
वास्‍तव में राज्‍य का कार्य मात्र यह है कि वह नागरिकों को ऐसा कानून का शासन प्रदान करेजो न्‍याय, सत्‍यऔर जीवन के नैतिक आदर्शों पर आधारित हो व जिसमें उन्‍हें अपनी उन्‍नति के समान अवसर मिल सकें । श्रुतियों में वर्णित आध्‍यात्मिक उन्‍नति का प्रयास या किसी अन्‍य धर्म की मान्‍यताऍं व्‍यक्तिगत मामला है, राज्‍य इसमें दखल नहीं दे सकता। इस प्रकार हिंदू धर्म की श्रुति व स्‍मृतियों के बीच व अन्‍य धर्मों की व्‍यक्तिगत साधना पद्धतियों व समाजिक नियमों के बीच बारीक अंतर है। सारा झगड़ा इसी अंतर को न समझ पाने का है। इसी कारण कई बार राज्‍य व्‍यक्तिगत धार्मिक मान्‍यताओं में हस्‍तक्षेप करता प्रतीत होने लगता है वहीं कई बार धर्मांध समूह अपने धर्म के अनुसार सामाजिक व्‍यवस्‍था लाना चाहते हैं। यदि राज्‍य धर्म के आधार पर कार्य करता है तो वह संविधान का उल्‍लंघन तो करता ही है, रामराज्‍य के स्‍थान पर सामाजिक तनाव पैदा करता है। राज्‍य का कार्य वर्तमान स्‍मृति अर्थात् भारत के संविधान के ढ़ॉंचे के अंतर्गत कार्य करते हुए लोकतांत्रिक संस्‍थाओं को मजबूत करना है। राज्‍य वर्तमान स्‍मृति अर्थात् संविधान के पालन तक और व्‍यक्ति अपने धार्मिक विश्‍वास को व्‍यक्तिगत स्‍तर तक सीमित रखे तभी सच्‍चा रामराज्‍य आएगा।
( लेखक आईएएस अधिकारी तथा धर्म, दर्शन और सहित्‍य के अध्‍येता हैं )

तीरथ सिंह रावत के सिर पर मुख्यमंत्री के रूप में कांटो भरा ताज!
डॉ. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
उत्तराखंड में पौड़ी-गढ़वाल सीट से बीजेपी के सांसद तीरथ सिंह रावत उत्तराखंड के नए मुख्यमंत्री बन गए है। उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती त्रिवेंद्र शासन के चार वर्षों में पैदा हुए असंतुष्टों को संतुष्ट करने की है।हालांकि वे बेहद सुलझे हुए और आम आदमी तक अपनी पकड़ रखने वाले सादगी संपन्न नेता है।देहरादून में भाजपा विधायक दल की बैठक में तीरथ सिंह रावत को नेता चुने जाने पर सहमति की मुहर लग गई है। बीजेपी विधायक दल की बैठक में तीरथ सिंह रावत के नाम पर फैसला होने के बाद पर्यवेक्षक रमन सिंह ने उनके नाम की घोषणा की। उत्तराखंड के कार्यवाहक सीएम त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मंगलवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया था। नए मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत का संघ से पुराना नाता रहा है। वे संघ के स्वयंसेवक और प्रचारक रहे हैं। संघ से ही वे भारतीय जनता पार्टी में आए थे। उत्तराखंड भाजपा में पिछले कई दिनों से चल रही सियासी उठापठक के बाद मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने मंगलवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया था।तीरथ सिंह रावत ने कहा कि उन्होंने कभी सोचा भी नहीं था कि वे एक दिन प्रदेश के मुख्यमंत्री बनेंगे। तीरथ सिंह रावत भाजपा के ‘संकल्प यात्रा’ अभियान का हिस्सा भी रहे। उन्होंने चार राज्यों हिमाचल, पंजाब, चंडीगढ़ और असम में इस अभियान के तहत महात्मा गांधी की डेढ़ सौ वीं जयन्ती पर महात्मा गांधी के सिद्धांतों की प्रासंगिकता को आमजन तक पहुंचाने का काम किया। तीरथ सिंह रावत भारतीय भारतीय जनता पार्टी के मंजे हुए राजनीतिज्ञ है। वह फरवरी 2013 से दिसंबर 2015 तक उत्तराखंड भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष रहे और चौबट्टाखाल से 2012 से 2017 तक विधायक रहे। वर्तमान में तीरथ सिंह रावत भाजपा के राष्ट्रीय सचिव व गढ़वाल लोकसभा से सांसद भी हैं। पौड़ी सीट से भाजपा के उम्मीदवार के अतिरिक्त 2019 के लोकसभा चुनाव में उन्हें हिमाचल प्रदेश का चुनाव प्रभारी भी बनाया गया था।
तीरथ सिंह रावत वर्ष 1983 से वर्ष 1988 तक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक रहे। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् (उत्तराखण्ड) के संगठन मंत्री और राष्ट्रीय मंत्री भी रहे।उन्हें
हेमवती नंदन गढ़वाल विश्व विधालय में छात्र संघ अध्यक्ष और छात्र संघ मोर्चा तत्कालीन उत्तर प्रदेश का प्रदेश उपाध्यक्ष होने का अवसर भी मिला। वही भारतीय जनता युवा मोर्चा तत्कालीन उत्तर प्रदेश के प्रदेश उपाध्यक्ष एवं राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे। वर्ष 1997 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद् के सदस्य निर्वाचित हुए तथा विधान परिषद् में विनिश्चय संकलन समिति के अध्यक्ष बनाये गए।
उत्तराखंड विधानमंडल की बैठक में भाजपा ने सारे कयासों को खारिज करते हुए तीरथ सिंह रावत के नाम पर उत्तराखंड के सीएम के लिए मोहर लगाना उनकी पार्टी के प्रति निष्ठा का प्रमाण है। अब तीरथ सिंह रावत राज्य के दसवें मुख्यमंत्री बन गए है। मुख्यमंत्री के रूप में तीरथ सिंह रावत राज्य के नो वें राजनेता है। भारतीय जनता पार्टी ने एक ऐसा नेता तय किया, जो कभी विवादित नहीं रहा। उनकी छवि भी अन्यो से बेहतर है। वह संघ से भी जुड़े हैं।सीएम चयन को लेकर इस बार भी संघ की भूमिका भी खास रही।
पर्यवेक्षक के रूप में वरिष्ठ भाजपा नेता व छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह व प्रदेश प्रभारी दुष्यंत कुमार गौतम की मौजूदगी में तीरथ सिंह रावत के चयन की ओपचारिकता पूरी हुई।
तीरथ सिंह का जन्म उत्तराखंड के सीरों, पट्टी असवालस्यूं पौड़ी गढ़वाल, में हुआ था। उनके पिता कलम सिंह रावत थे।
वह वर्ष 2000 में नवगठित उत्तराखण्ड के प्रथम शिक्षा मंत्री चुने गए थे। इसके बाद वर्ष 2007 में भारतीय जनता पार्टी उत्तराखण्ड के प्रदेश महामंत्री चुने गए तत्पश्चात प्रदेश चुनाव अधिकारी तथा प्रदेश सदस्यता प्रमुख रहे। वर्ष 2013 उत्तराखण्ड दैवीय आपदा प्रबंधन सलाहकार समिति के अध्यक्ष रहे। नए सीएम तीरथ सिंह रावत के सामने मुख्यमंत्री बनने के बाद तीन चुनौतियां होगी। इनमें पहली चुनौती उनका संसद सदस्य पद से त्याग पत्र देकर विधानसभा के लिए चुनाव लड़ना है और उस सीट को हर हाल में जीतना होगी। दूसरी चुनौती पौड़ी लोकसभा सीट से तीरथ सिंह रावत को इस्तीफा देने के बाद इस सीट को भाजपा के पक्ष में बचाए रखना भी बड़ी चुनौती होगा ।तीसरी चार साल के त्रिवेंद्र सरकार के समय के डैमेज को कंट्रोल कर विधानसभा चुनाव में भाजपा को भारी बहुमत से जीताना भी बड़ी परीक्षा होगा। इसके लिए उनके पास मात्र नौ माह का समय बचा है।इस लिए कहा जा सकता है कि तीरथ सिंह रावत के सिर पर जिम्मेदारी का कांटो भरा ताज सजाया गया है।

भाजपा में उपेक्षित सिंधिया क्या घुटन महसूस कर रहे हैं….?
ओमप्रकाश मेहता
आज से एक साल पहले याने दस मार्च 2020 को कांग्रेस के युवा नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने कांग्रेस छोड़ भाजपा में प्रवेश किया था और उनके साथ दो दर्जन से अधिक समर्थक कांग्रेसी विधायकों ने भी कांग्रेस को तिलांजली देकर कांग्रेस की राज्य सरकार को धराशायी कर दिया था, इसके बाद भाजपा की सरकार बनी और भाजपा के केन्द्रीय नेतृत्व ने ज्योतिरादित्य को राज्यसभा में पहुंचा दिया, वे आज से करीब नौ माह पर्वू जुलाई 2020 के अंत मे राज्यसभा पहुंचे, किंतु नौ महीने की अवधि गुजर जाने के बाद भी उन्हें वादे के अनुसार केन्द्रीय मंत्री परिषद में शामिल नहीं किया गया, जब कि उम्मीद की जा रही थी कि 2020 में ही वे मंत्री बना दिए जाएगें। इस कथित उपेक्षा से ज्योतिरादित्य क्या महसूस कर रहे है, यह तो उन्होंने अभी तक स्पष्ट नहीं किया है, किंतु उनके पुराने परम मित्र और कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने उनकी ”तमन्ना के घाव“ पर नमक छिडकने का काम अवश्य कर दिया है? उन्होंने स्वीकार किया कि ”कांग्रेस छोड़ने से पहले ज्योतिरादित्य ने उनसे (राहुल से) भेंट की थी और उन्हें उन्होंने (राहुल ने) ऐसा कदम उठाने से रोका भी था, किंतु ज्योतिरादित्य नहीं माने और आज अब भाजपा में घुटन महसूस कर रहे हैं, यहां (कांग्रेस में) रहते तो अब तक मुख्यमंत्री बन गए होते।“ साथ ही राहुल ने यह विश्वास भी प्रकट किया कि ”एक न एक दिन सिंधिया वापस कांग्रेस में आ जाएगें।“
अब राहुल जी के इस कथन में कितनी सच्चाई है यह तो सिंधिया जी या राहुल जी जाने, किंतु राहुल का यह कथन सिंधिया के राजनीतिक घावों को रिसने के लिए मजबूर करने को काफी था, यद्यपि सिंधिया जी ने राहुल जी के इस कथन पर अभी तक अपनी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की है, किंतु यह जरूर है कि राहुल जी के इस बयान से वे उद्वेलित अवश्य हुए होंगे।
यदि राहुल के इस बयान में सच्चाई खोजी जाए तो उनका कथन तो शत-प्रतिशत सही है, क्योंकि आज सिंधिया समर्थक विधायक जरूर मंत्री बने हुए है, किंतु उनके साथ भी भाजपा पार्टी संगठन व सरकार का उतना अधिक सामंजस्य नहीं है, जितना कि भाजपा के मंत्रियों के साथ है और जहां तक सिंधिया जी का सवाल है, वे तो भाजपा में वास्तव में ही ’पिछली सीट‘ (बैक बैंचर) पर बैठने को मजबूर है और यह पता भी नहीं कि उन्हें कब तक इसी स्थिति में रहना पड़ेगा? पर इस बात पर आश्चर्य अवश्य है कि राहुल जी के इस बयान के चौबीस घंटे बाद भी न तो भाजपा और न ही सिंधिया खेमें ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त की? सभी मौन स्वीकृति की मुद्रा में दिखाई दे रहे है।
अब यदि ’राजनीतिक घुटन‘ का इतिहास पूर्व सिंधिया राजवंश में खोजा जाए तो वह हर काल में देखने को मिलेगा। ज्योतिरादित्य के दादा जी स्व. जीवाजी राव सिंधिया के निधन के बाद राजमाता विजयाराजे सिंधिया सरकार आंग्रे की सलाह पर राजनीति में आई और वे मौजूदा भारतीय जनता पार्टी की ”जननी“ कहलाई, आज भाजपा जो कुछ भी है, उसमें स्वत्र राजमाता की अहम भूमिका रही है। राजमाता ने कई वर्षों तक भरसक प्रयास किया कि उनका एकमात्र पुत्र स्व. माधवराज सिंधिया भी कांग्रेस छोड़ भाजपा में आ जाए, किंतु माधवराव जी ने कांग्रेस से नाराज होकर नई पार्टी बनाना मंजूर किया, किंतु वे भाजपपा में नहीं आए, उनका एक हवाई दुर्घटना में अचानक निधन हो गया और वे अपने एकमात्र पुत्र ज्योतिरादित्य को राजनीतिक प्रशिक्षण नहीं दे पाए और माधवराव के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत भी उनके पुत्र ज्योतिरादित्य ने संभाल ली, किंतु माधवराव जी के समय के उनके पार्टी प्रतिद्विन्दियों ने उनके पुत्र ज्योतिरादित्य को आगे नहीं बढने दिया और पार्टी आलाकमान ने भी उनका (ज्योतिरादित्य का) साथ नहीं दिया तब उपेक्षित इस युवानेता ने पार्टी त्यागकर उन्हीं की राज्य सरकार गिरा दी, जिनके कारण वे पार्टी में कथित रूप से उपेक्षित रहे। किंतु अब शायद वे यह महसूस करने को मजबूर है कि राजनीतिक दल और उनकी कार्यप्रणाली एक जैसी ही है और वे उसी उपेक्षित माहौल में आज अपना समय गुजा रहे हैं।
अब आगे क्या होगा? भाजपा की चेतना जागेगी या वह जगाने के बाद भी ऐसे ही सोती रहेगी? यह तो भविष्य के गर्भ में है, किंतु यह सही है कि राहुल ने सिंधिया जी की चेतना को शायद झकझोर जरूर दिया है?

त्रिवेंद्र की विदाई क्यों
सिध्दार्थ शंकर
उत्तराखंड में अब सरकार के बचे कार्यकाल की जिम्मेदारी संघ के प्रचारक तीरथ सिंह रावत पर आ गई है। तीरथ सिंह रावत नए मुख्यमंत्री बन गए हैं। बात पूर्व मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की कुर्सी जाने की करें, तो इसकी एक नहीं कई वजह हैं। लगभग 4 साल सीएम रहे रावत की गद्दी जाने की बड़ी वजह राज्य के 4 जिलों चमोली, रुद्रप्रयाग, अल्मोड़ा और बागेश्वर को मिलाकर नया गैरसैंण मंडल बनाना माना जा रहा है। हालांकि, यह अकेली वजह नहीं है, जिसके कारण रावत को कुर्सी गंवानी पड़ी है। वह इससे पहले भी कई ऐसे फैसले कर चुके थे, जिनकी वजह से भाजपा आलाकमान को उन्हें हटाने का फैसला करना पड़ा। रावत पर कोई बड़ा आरोप नहीं था, लेकिन एक सर्वे में उन्हें सबसे अलोकप्रिय सीएम बताया गया था। यह बात भी उनके खिलाफ चली गई। उत्तराखंड सांस्कृतिक और भाषाई तौर पर मुख्य रूप से गढ़वाल और कुमाऊं मंडलों में बंटा है। दोनों ही मंडलों में हमेशा से हर क्षेत्र में दबदबा कायम करने की होड़ रही है। उत्तर प्रदेश में रहते हुए भी इन मंडलों में ऐसी होड़ थी कि अगर एक मंडल को कुछ मिलता तो उसी की तरह दूसरे मंडल को भी देना पड़ता था। इसीलिए रावत ने गढ़वाल के हिस्से गैरसैंण मंडल में कुमाऊं के दो जिलों अल्मोड़ा और बागेश्वर को शामिल किया तो पूरे कुमाऊं में सियासी तूफान आ गया। इसे कुमाऊं की अस्मिता और पहचान पर हमला माना गया। सरकार के फैसले के खिलाफ पूरे कुमाऊं के भाजपा नेताओं ने केंद्रीय नेतृत्व के सामने मोर्चा खोल दिया। अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले त्रिवेंद्र के इस फैसले को उन्होंने आत्मघाती करार दिया। केंद्रीय नेतृत्व ने भी इसे गंभीर माना और त्रिवेंद्र को विधानसभा का सत्र बीच में ही खत्म कर तत्काल केंद्रीय पर्यवेक्षक रमन सिंह और दुष्यंत गौतम के साथ बैठक करने के लिए देहरादून तलब कर लिया। विधायकों के साथ बैठक करने के बाद रमन सिंह और गौतम ने अपनी रिपोर्ट में साफ कर दिया कि त्रिवेंद्र के नेतृत्व में चुनाव लडऩे पर भाजपा को भारी नुकसान हो सकता है और उन्हें बदलना जरूरी है। फिर उत्तराखंड देवस्थानम् बोर्ड बनाने के फैसले से हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक संत समाज रावत के खिलाफ हो गया था। असल में त्रिवेंद्र ने जब उत्तराखंड देवस्थानम् बोर्ड बनाकर केदारनाथ, बद्रीनाथ, गंगोत्री और यमुनोत्री धाम को सरकार के अधीन कर दिया था तो इससे ब्राह्मण समाज में तीखी प्रतिक्रिया हुई थी। यही नहीं भाजपा के ही सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे दी थी। हालांकि हाईकोर्ट में सरकार जीत गई थी, लेकिन स्वामी सुप्रीम कोर्ट चले गए और अभी मामले पर सुनवाई हो रही है। त्रिवेंद्र के इस फैसले से भाजपा आलाकमान भी खुश नहीं था। हरिद्वार से लेकर बद्रीनाथ तक संत समाज भी त्रिवेंद्र के इस फैसले के खिलाफ था। गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाकर रावत ने इसे पर्वतीय जनभावनाओं के अनुरूप बताया, पर जनता को यह फैसला पसंद नहीं आया। त्रिवेंद्र सिंह ने आनन फानन में गैरसैंण को राज्य की ग्रीष्मकालीन राजधानी घोषित कर दिया। इस फैसले को उन्होंने पर्वतीय जनभावनाओं के अनुरूप बताया, पर जनता ने इसे नकार दिया। अपने फैसले को ठीक ठहराने के लिए उन्होंने गैरसैंण में काफी काम भी कराया। विधानसभा की बैठक भी बुलाई, लेकिन अफसरों के देहरादून में ही रहने की वजह से इसका लोगों को कोई फायदा नहीं हुआ। यह फैसला दिखावे से ज्यादा कुछ साबित नहीं हुआ। त्रिवेंद्र का खुद का व्यवहार भी लोगों की नाराजगी की बड़ी वजह था। वह कम बोलते थे, लेकिन एक ही वर्ग विशेष के लोगों को महत्व देने की वजह से लोगों के निशाने पर थे। इसकी वजह से मुख्यमंत्री की किसी भी आलोचना को ये लोग व्यक्तिगत रूप से लेकर बदले की भावना से काम करते थे। उन पर भ्रष्टाचार के ज्यादा आरोप तो नहीं थे, लेकिन एक चैनल के सर्वे में त्रिवेंद्र देश के सबसे अलोकप्रिय मुख्यमंत्री बताए गए थे और यह भी उनके खिलाफ गया।

भगवान शिव का त्यौहार है महाशिवरात्रि
रमेश सर्राफ धमोरा
(11 मार्च महाशिवरात्रि पर विशेष) महाशिवरात्रि भगवान शिव का त्यौहार है। भारत के सभी प्रदेशो में महाशिव रात्रि का पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। भारत के साथ नेपाल, मारिशस सहित दुनिया के कई अन्य देशों में भी महाशिवरात्रि मनाते है। फाल्गुन मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को महाशिव रात्रि का व्रत किया जाता है। हिन्दू पुराणों के अनुसार इसी दिन सृष्टि के आरंभ में मध्यरात्रि मे भगवान शिव ब्रह्मा से रुद्र के रूप में प्रकट हुए थे। इसीलिए इस दिन को महाशिवरात्रि कहा जाता है।
शिवरात्रि के प्रसंग को हमारे वेद, पुराणों में बताया गया है कि जब समुद्र मन्थन हो रहा था उस समय समुद्र में चैदह रत्न प्राप्त हुए। उन रत्नों में हलाहल भी था। जिसकी गर्मी से सभी देव दानव त्रस्त होने लगे तब भगवान शिव ने उसका पान किया। उन्होंने लोक कल्याण की भावना से अपने को उत्सर्ग कर दिया। इसलिए उनको महादेव कहा जाता है। जब हलाहल को उन्होंने अपने कंठ के पास रख लिया तो उसकी गर्मी से कंठ नीला हो गया। तभी से भगवान शिव को नीलकंठ भी कहते हैं। शिव का अर्थ कल्याण होता है। जब संसार में पापियों की संख्या बढ़ जाती है तो शिव उनका संहार कर लोगों की रक्षा करते हैं। इसीलिए उन्हें शिव कहा जाता है।
योगिक परम्परा में इस दिन और रात को इतना महत्व इसलिए दिया जाता है क्योंकि यह आध्यात्मिक साधक के लिए जबर्दस्त संभावनाएं प्रस्तुत करते हैं। आधुनिक विज्ञान कई चरणों से गुजरने के बाद आज उस बिंदु पर पहुंच गया है। जहां वह प्रमाणित करता है कि हर वह चीज जिसे आप जीवन के रूप में जानते हैं। पदार्थ और अस्तित्व के रूप में जानते हैं। जिसे आप ब्रह्मांड और आकाशगंगाओं के रूप में जानते हैं। वह सिर्फ एक ही ऊर्जा है। जो लाखों रूपों में खुद को अभिव्यक्त करती है।
माना जाता है की इस दिन भगवान शंकर और माता पार्वती का विवाह हुआ था। इस दिन लोग व्रत रखते हैं और भगवान शिव की पूजा करते है। महाशिवरात्रि का व्रत रखना सबसे आसान माना जाता है। इसलिये बच्चों से लेकर बूढ़ो तक सभी इस दिन व्रत रखते हैं। महाशिवरात्रि के व्रत रखने वालों के लिये अन्न खाना मना होता है। इसलिये उस दिन फलाहार किया जाता है। राजस्थान में व्रत के समय गाजर, बेर का सीजन होने से गांवों में लोगों द्धारा गाजर, बेर का फलाहार किया जाता है। लोग मन्दिरों में भगवान शिव की पूजा करते हैं व उन्हे आक, धतूरा चढ़ाते हैं। भगवान शिव को विशेष रूप से भांग का प्रसाद लगता है। इस कारण इस दिन काफी जगह शिवभक्त भांग घोट कर पीते हैं।
पुराणों में कहा जाता है कि एक समय शिव पार्वती जी कैलाश पर्वत पर बैठे थी। उसी समय पार्वती ने प्रश्न किया कि इस तरह का कोई व्रत है जिसके करने से मनुष्य आपके धाम को प्राप्त कर सके? तब उन्होंने यह कथा सुनाई थी कि प्रत्यना नामक देश में एक व्यक्ति रहता था, जो जीवों को बेचकर अपना भरण पोषण करता था। उसने सेठ से धन उधार ले रखा था। समय पर कर्ज न चुकाने के कारण सेठ ने उसको शिवमठ में बन्द कर दिया।
संयोग से उस दिन फाल्गुन बदी त्रयोदशी थी। वहां रातभर कथा, पूजा होती रही जिसे उसने भी सुना। अगले दिन शिघ्र कर्ज चुकाने की शर्त पर उसे छोड़ा गया। उसने सोचा रात को नदी के किनारे बैठना चाहिये। वहां जरूर कोई न कोई जानवर पानी पीने आयेगा। अतः उसने पास के बील वृक्ष पर बैठने का स्थान बना लिया। उस बील के नीचे शिवलिंग था। जब वह अपने छिपने का स्थान बना रहा था उस समय बील के पत्तों को तोडकर फेंकता जाता था जो शिवलिंग पर ही गिरते थे। वह दो दिन का भूखा था। इस तरह से वह अनजाने में ही शिवरात्रि का व्रत कर ही चुका था। साथ ही शिवलिंग पर बेल-पत्र भी अपने आप चढ़ते गये।
एक पहर रात्रि बीतने पर एक गर्भवती हिरणी पानी पीने आई। उस व्याध ने तीर को धनुष पर चढ़ाया किन्तु हिरणी की कातर वाणी सुनकर उसे इस शर्त पर जाने दिया कि सुबह होने पर वह स्वयं आयेगी। दूसरे पहर में दूसरी हिरणी आई। उसे भी छोड़ दिया। तीसरे पहर भी एक हिरणी आई उसे भी उसने छोड़ दिया और सभी ने यही कहा कि सुबह होने पर मैं आपके पास आऊंगी। चैथे पहर एक हिरण आया। उसने अपनी सारी कथा कह सुनाई कि वे तीनों हिरणियां मेरी स्त्री थी। वे सभी मुझसे मिलने को छटपटा रही थी। इस पर उसको भी छोड़ दिया तथा कुछ और भी बेल-पत्र नीचे गिराये। इससे उसका हृदय बिल्कुल पवित्र, निर्मल तथा कोमल हो गया। प्रातः होने पर वह बेल-पत्र से नीचे उतरा। नीचे उतरने से और भी बेल पत्र शिवलिंग पर चढ़ गये। अतः शिवजी ने प्रसन्न होकर उसके हृदय को इतना कोमल बना दिया कि अपने पुराने पापों को याद करके वह पछताने लगा और जानवरों का वध करने से उसे घृणा हो गई। सुबह वे सभी हिरणियां और हिरण आये। उनके सत्य वचन पालन करने को देखकर उसका हृदय दुग्ध सा धवल हो गया और वह फूट-फू ट कर रोने लगा।
महाशिवरात्रि आध्यात्मिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण है। इस रात धरती के उत्तरी गोलार्ध की स्थिति ऐसी होती है कि इंसान के शरीर में ऊर्जा कुदरती रूप से ऊपर की ओर बढ़ती है। इस दिन प्रकृति इंसान को अपने आध्यात्मिक चरम पर पहुंचने के लिए प्रेरित करती है। गृहस्थ जीवन में रहने वाले लोग महाशिवरात्रि को शिव की विवाह वर्षगांठ के रूप में मनाते हैं। सांसारिक महत्वाकांक्षाएं रखने वाले लोग इस दिन को शिव की दुश्मनों पर विजय के रूप में देखते हैं।
योगियों और संन्यासियों के लिए यह वह दिन है जब शिव कैलाश पर्वत के साथ एकाकार हो गए थे। योगिक परम्परा में शिव को ईश्वर के रूप में नहीं पूजा जाता है, बल्कि उन्हें प्रथम गुरु, आदि गुरु माना जाता है, जो योग विज्ञान के जन्मदाता थे। कई सदियों तक ध्यान करने के बाद शिव एक दिन वह पूरी तरह स्थिर हो गए। उनके भीतर की सारी हलचल रुक गई और वह पूरी तरह स्थिर हो गए। वह दिन महाशिवरात्रि था। इसलिए संन्यासी महाशिवरात्रि को स्थिरता की रात के रूप में देखते हैं।

शिव का अर्धनारीश्वर रूप है नारी स्वातंत्र्य का पर्यायवाची
हर्षवर्धन पाठक
शिव – पार्वती विवाह की याद दिलाता है महाशिवरात्रि का पर्व । यह महान पर्व स्मरण कराता है शिव -पार्वती के अलौकिक प्रेम की । यह बात भले ही अद्भुत लगे लेकिन यह सत्य है कि पार्वती ने शिव से विवाह के लिये अपने पिता के द्वारा चुने गये वर के विरुद्ध जाकर शिव को पसन्द किया इस संबंध में प्रचलित कथा यह बताती है कि ऋषियों के सुझाव पर हिमालय अपनी पुत्री पार्वती का विवाह विष्णु से करने के लिये तैयार हो गए थे । लेकिन पार्वती महादेव अर्थात शिव से विवाह के लिये ठान चुकी थीं । उनकी सखियां उन्हें जंगल ले गईं । यहां उन्होंने (पार्वती ने ) तपस्या की और पिता हिमालय शिव से अपनी पुत्री के विवाह के लिये तैयार हो गये । हरतालिका का त्यौहार ,जिसे लोकभाषा में तीज भी कहते हैं इसी कथा का अंश है। यह प्राचीन कथा बताती है उस समय में भी नारी अपने निर्णय स्वयं लेने और विवाह करने के लिये स्वतंत्र थी । नारी स्वातंत्र्य की आज बहुत चर्चा होती है । यह कथा बताती है कि नारी उस समय भी अपने भविष्य के फैसले स्वयं करती थी ।
भगवान शिव की यह कथा बहुत कही सुनी जाती है कि उन्होंने मानव कल्याण के लिये विष पान किया था । इस कारण उन्हें नीलकण्ठ भी कहा जाता है । यह कथा अद्भुत है । विश्व इतिहास में ऐसा कोई प्रसंग नहीं मिलता जिसमें मानव मात्र के कल्याण के लिये किसी ने हलाहल विष का पान इतनी सफलता के साथ किया हो और वह जीवित हो । उन्हें मृत्युंजय और महाकाल भी कहा जाता है। महाकाल का अर्थ होता है वह जो समय के परे हो । शिव को अजन्मा और अनादि माना जाता है इसलिये वह महाकाल हैं । मध्य प्रदेश के उज्जैन में महाकाल के दर्शन होते हैं ।
शिव को भोले भण्डारी , आशुतोष और अर्धनारीश्वर भी कहते हैं। ये नाम उनको सही प्रतिविम्बित करते हैं । वे भोले भण्डारी हैं । उनकी कृपा पाना आसान है। शिव का अर्धनारीश्वर रूप इसका प्रतीक है कि वे नारी शक्ति को महत्व देते है। नारी स्वातंत्र्य तो आज की बात है लेकिन शिव का अर्धनारीश्वर रूप इसका स्पष्ट संकेत है कि उन्होंने सदैव नारी का सम्मान किया । शिव का एक नाम मृत्युंजय भी है। जो महाकाल है वह मृत्युंजय भी होगा । वैसे महामृत्युंजय मंत्र का जाप रोगों से मुक्ति के लिये किया जाता है ।
कामदेव का नाम सदैव मानव के लिये उत्तेजक रूप में लिया जाता है । शिव ने काम देव को भस्म कर काम विजय का अनुपम उदाहरण मानव के लिये प्रस्तुत किया । इसके विपरीत उनका अर्धनारीश्वर रूप है । यह इस बात का प्रमाण है कि शिव ने हमेशा महिलाओं को प्रतिष्ठा दी । नारी शक्ति के प्रति आस्था का परिचय उन्होंने सती के प्रसंग में भी दिया । जब सती ने अपने पिता के यज्ञ में अपने पति शिव का अपमान देखा तो उनसे सहन नहीं हुआ । उन्होंने यज्ञ कुण्ड में कूदकर प्राण दे दिये । शिव ने यज्ञ का ध्वंस कराया और वे सती का शव लेकर दुनिया घूमने लगे। वे सती के शव के दाह संस्कार के लिये तैयार नहीं हुए । तब विष्णु ने चक्र चलाकर उस शव के 51 टुकड़े किये । यह कहा जाता है कि सती के शव के टुकड़े जहां जहां गिरे वहां शक्ति पीठ स्थापित हुई सती अगले जन्म में पार्वती के रूप में प्रकट हुईं और शिव ने उनसे विवाह किया । शिव का यह अद्भुत प्रेम था जब वे सती के शव को लेकर विश्व भ्रमण पर निकले और उनके दाह संस्कार के लिये भी तैयार नहीं हुए यद्यपि यह आवश्यक था । यह सती के प्रति अद्भुत प्रेम का परिचायक था ।
लेकिन शिव ने सदा लोक हित को प्राथमिकता दी । समुद्र मंथन इसका प्रमाण है । समुद्र मंथन में जब हलाहल विष निकला तब संपूर्ण जगत में हाहाकार मच गया । तब उसे पीने के लिये उनका तत्पर होना इसका साक्ष्य है कि वे सदा लोक कल्याण के लिये सोचते हैं । प्रसंग वश यह भी उल्लेखनीय है यद्यपि गणेश शिव – पार्वती के पुत्र माने जाते हैं लेकिन शिव – पार्वती विवाह के पूर्व गणेश पूजन हुआ था । तुलसी के राम चरित मानस में इस का वर्णन मिलता है ।
मध्य प्रदेश के लिये शिव नाम का अत्यधिक महत्व है । यहां अमर कंटक से नर्मदा नदी का उद्गम होता है । नर्मदा को शिवपुत्री कहा जाता है क्योंकि शिव के शरीर से बहने वाले स्वेद से नर्मदा का जन्म हुआ था । यह कहा जाता है कि नर्मदा नदी में विद्यमान हर कंकर फत्थर शिव शंकर होता है । शायद इसी कारण नार्मदेय शिवलिंग का बड़ा महत्व होता है ।

 

मानवता सबसे बड़ा धर्म
प्रो(डॉ)शरद नारायण खरे
मानवता मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म होता हैं। मानवता हर मनुष्य के लिए ज़रूरी है। अगर कोई मनुष्य दूसरों की सहायता करके मानवता नहीं दिखायेगा तो उस मनुष्य की सहायता भगवान भी नहीं करता है।
जिस मनुष्य के पास मानवता नहीं होती है, उसका जीवन निरर्थक होता है। इस धरती पर मनुष्य का जन्म इसलिए हुआ है, क्योंकि वह दुनिया में कुछ ऐसा करके दिखाए जिससे कई सालों तक दुनिया उसे याद रखे ।जैसे-महावीर,बुद्ध,ईसा,नानक,गांधी,मदर टेरेसा आदि ।
मानवता का अर्थ –
मानवता शब्द का सरल अर्थ होता है– मानव में मानव के गुण का होना,एकता की भावना का होना।
अगर कोई मनुष्य जरुरत मंद लोगों की सहायता करता है, भूखे लोगों को खाना खिलाता है, प्यासे को पानी पिलाता है,तो यह माना जाता है कि वो मनुष्य मानवता का धर्म निभाता है |मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो समाज में सभी लोगों के साथ मिल जुलकर रहता है | मनुष्य कोई भी कार्य कभी अकेले नहीं कर सकता हैं | अगर इस धरती पर मनुष्य मानवता को भूल जायेगा तो उसे अपना जीवन जीना बहुत मुश्किल हो जायेगा |
मानवता का महत्व
जिस मनुष्य के अंदर दया और इंसानियत नहीं होती हैं, उसे कभी इंसान नहीं कह सकते हैं | इस दुनिया में मनुष्य ही एक ऐसा जीव है,जो दूसरों के दुखों को समझ सकता है,और उसके दुखों को कम कर सकता है |जो मनुष्य अपने जीवन में दूसरों की सहायता करता है, उस मनुष्य के कार्यों को याद रखा जाता है। प्राचीन समय से ही हमें मानव में मानवता की भावना देखने को मिलती है |वास्तव में,मानवता मनुष्य का धर्म होता है।
मनुष्य यह एक ऐसा प्राणी हैं, जो समाज में सभी लोगों के साथ मिल जुलकर रहता हैं | मनुष्य कोई भी कार्य कभी अकेले नहीं कर सकता हैं | अगर इस धरती पर मनुष्य मानवता को भूल जायेगा तो उसे अपना जीवन जीना बहुत मुश्किल हो जायेगा।इनसानियत व मानवता सबसे बड़ा धर्म है । कहते हैं दुनिया में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो इनसान को गिरा सके, इन्सान ,इन्सान द्वारा ही गिराया जाता है । दुनिया में ऐसा नहीं है कि सभी लोग बुरे हैं, इस जगत में अच्छे-बुरे लोगों का संतुलन है । आज संस्कारों का चीरहरण हो रहा है ,खूनी रिश्ते खून बहा रहे हैं । संस्कृति का विनाश हो रहा है । दया ,धर्म ,ईमान का नामोनिशान मिट चुका है ।इनसान ख़ुदगर्ज़ बनता जा रहा है । दुनिया में लोगों की सोच बदलती जा रही है । निजी स्वार्थों के लिए कई जघन्य अपराध हो रहे हैं। बुराई का सर्वत्र बोलबाला हो रहा है। आज ईमानदारों को मुख्यधारा से हाशिए पर धकेला जा रहा है।गिरगिटों व बेईमानों को गले से लगाया जा रहा है। विडंवना देखिए कि आज इनसान रिश्तों को कलंकित कर रहा है। भाई-भाई के खून का प्यासा है ,जमीन जायदाद के लिए मां-बाप को मौत के घाट उतारा जा रहा है। आज माता -पिता का बंटवारा हो रहा है। आज बुजुर्ग दाने- दाने का मोहताज है। कलयुगी श्रवणों का बोलबाला है।आज संतानें मां-बाप को वृद्ध आश्रमों में भेज रही हैं। शायद यह बुज़ुर्गों का दुर्भाग्य है कि जिन बच्चों की ख़ातिर भूखे प्यासे रहे, पेट काटकर जिन्हे सफलता दिलवाई आज वही संतानें घातक सिद्व हो रही हैं। मां-बाप दस बच्चों को पाल सकते हैं, लेकिन दस बच्चे मां-बाप का बंटवारा कर रहे हैं। साल भर उन्हें महिनों में बांटा जाता है। वर्तमान परिवेश में ऐसे हालात देखने को मिल रहे है। बेशक ईश्वर ने संसार में करोड़ों जीव जन्तु बनाए, लेकिन इनसान सबसे अहम कृति बनाई। लेकिन ईश्वर की यह कृति पथभ्रष्ट हो रही है। आज सड़को पर आदमी तड़फ-तड़फ कर मर रहा है । इनसान पशु से भी बदतर होता जा रहा है। क्योंकि यदि पशु को एक जगह खूंटे से बांध दिया जाए, तो वह अपने आप को उसी अवस्था में ढाल लेता है। जबकि मानव परिस्थितियों के मुताबिक गिरगिट की तरह रंग बदलता है। आज पैसे का बोलबाला है। ईमानदारी कराह रही है। अच्छाई बिलख रही है, भाईचारा, सहयोग, मदद एक अंधेरे कमरे में सिमट गये हैं। आत्मा सिसक रही है। वर्तमान में अच्छे व संस्कारवान मनुष्य की कोई गिनती नहीं है।झूठों का आदर सत्कार किया जाता है। आज हंस भीड में खोते जा रहे हैं,कौओं को मंच मिल रहा है। हजारों कंस पैदा हो रहे हैं एक कृष्ण कुछ नहीं कर सकता। आज कतरे भी खुद को दरिया समझने लगे है लेकिन समुद्र का अपना आस्तित्व है। मानव आज दानव बनता जा रहा है। संवेदनाएं दम तोड़ रही हैं। मानव आज लापरवाही से जंगलों में आग लगा रहा है उस आग में हजारों जीव-जन्तु जलकर राख हो रहे हैं। जंगली जानवर शहरों की ओर भाग रहे हैं, जबकि सदियां गवाह हैं कि शहरों व आबादी वाले इलाकों में कभी नहीं आते थे, मगर जब मानव ने जानवरों का भोजन खत्म कर दिया। जीव-जन्तओं को काट खाया तो जंगली जानवर भूख मिटाने के लिए आबादी का ही रूख करेंगें। नरभक्षी बनेगें । आज संवेदनशीलता खत्म होती जा रही है। आज मानव मशीन बन गया है निजी स्वार्थो के आगे अंधा हो चुका है। अपने ऐशोआराम में मस्त है। दुनिया से कोई लेना देना नहीं है। संस्कारों का जनाज़ा निकाला जा रहा है। मर्यादाएं भंग हो रही हैं। मानव सेवा परम धर्म है। आज लोग भूखे प्यासे मर रहे हैं। दो जून की रोटी के लिए तरस रहे हैं। भूखमरी इतनी है कि शहरों में आदमी व कुते लोगों की फैंकी हुई जूठन तक एक साथ खाते हैं। आज मानव भगवान को न मानकर मानव निर्मित तथाकथित भगवानों को मान रहा है। आज मानव इतना गिर चुका है कि रिश्ते नाते भूल चुका है। रिश्तों में संक्रमण बढ़ता जा रहा है। मानव धरती के लिए खून कर रहा है । कई पीढियां गुजर गई मगर आज तक न तो धरती किसी के साथ गई न जाएगी। फिर यह नफरत व दंगा फसाद क्यों हो रहा है। मानव ,मानव से भेदभाव रि रहा है। उंच-नीच का तांडव हो रहा है। खून का रंग एक है फिर भी यह भेदभाव क्यों। यह बहुत गहरी खाई है इसे पाटना सबसे बडा धर्म है। आज लोग बिलासिता पर हजारों -लाखों रूपये पानी की तरह बहा देते हैं ,मगर किसी भूखे को एक रोटी नहीं खिला सकते। शराब पर पैसा उडा रहे हैं। अनैतिक कार्यो से पैसा कमा रहे हैं। पैसा पीर हो गया है ।मुंशी प्रेमचन्द ने कहा था कि जहां 100 में से 80 लोग भूखे मरते हों वहां शराब पीना गरीबों के खून पीने के बराबर है। भूखे को यदि रोटी दे दी जाए तो भूखे की आत्मा की तृप्ति देखकर जो आनन्द प्राप्त होगा वह सच्चा सुख है। आज प्रकृति से छेडछाड हो रही है। प्रकृति के बिना मानव प्रगति नहीं कर सकता। प्रकृति एक ऐसी देवी है जो भेदभाव नहीं करती ,प्रत्येक मानव को बराबर धूप व हवा दे रही है। मानव कृतध्न बनता जा रहा है। मंदिरों में दुष्कर्म हो रहे है ।आज मानव स्वार्थ के कारण अंधा होता जा रहा है। नारी पर अत्याचार हो रहा है। मानवीय मूल्यों का पतन होता जा रहा है। नफ़रत को छोड़ देना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य की सहायता करनी चाहिए। भगवान के पास हर चीज़ का लेखा -जोखा है। ईश्वर की चक्की जब चलती है तो वह पाप व पापी को पीस कर रख देती है मानव सेवा ही नारायण सेवा है। यह अटल सत्य है। भगवान व शमशान को हर रोज याद करना चाहिए। किसी को दुखी नहीं करना चाहिए। अल्लाह की लाठी जब पड़ती है तो उसकी आवाज़ नहीं होती। ईश्वर इस धरा के कण -कण में विद्यमान है ।
कहा भी तो गया है कि,
“अपने लिए,जिए तो क्या जिए,
तू जी,ऐ दिल,ज़माने के लिए।”
“परहित सरस धरम नहिं भाई,
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।”

महिलाओं को भी मिले समान अवसर
रमेश सर्राफ धमोरा
(विश्व महिला दिवस 8 मार्च पर विशेष) महिलाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के लिये हर वर्ष 8 मार्च को विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है। हमारे देश की महिलायें आज हर क्षेत्र में पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर अपनी ताकत का अहसास करवा रही है। भारत में रहने वाली महिलाओं के लिये इस वर्ष का महिला दिवस कई नई सौगाते लेकर आया है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महिलाओं के अधिकार को बढ़ावा और सुरक्षा देने के लिए दुनियाभर में कुछ मापदंड निर्धारित किए हैं।
महिलाओं के लिये अच्छी खबर यह है कि लोकसभा में महिला सांसदो की संख्या बढकर 78 हो गयी है जो अब तक की सबसे ज्यादा हैं। सेना में महिलाओं को स्थाई कमीशन मिलने से अब सेना में महिलायें भी पुरूषों के समान पदों पर काम कर पायेगी। इससे महिलाओं का मनोबल बढ़ेगा। उनके आगे बढ़ने का मार्ग प्रशस्त होगा।
स्वतंत्रता प्राप्ति के 74 वर्ष बाद भी भारत में 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल कार्यों में लगी हैं। जिस कारण उनको काम के बदले कम मजदूरी मिलती है। पुरुषों की तुलना में महिलाएं औसतन हर दिन छः घण्टे ज्यादा काम करती हैं। चूल्हा-चैका, खाना बनाना, सफाई करना, बच्चों का पालन पोषण करना तो महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं जिनकी कहीं गणना ही नहीं होती है। दुनिया में काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से भी अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं। जबकि उनका सम्पति पर मात्र एक प्रतिशत ही मालिकाना हक हैं।
वर्तमान दौर में महिलाओं ने अपनी ताकत को पहचान कर काफी हद तक अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी सीख लिया है। अब महिलाओं ने इस बात को अच्छी तरह जान लिया है कि वे एक-दूसरे की सहयोगी हैं। महिलाओं का काम अब केवल घर चलाने तक ही सीमित नहीं है। बल्कि वे हर क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवा रही हैं। पारिवार हो या व्यवसाय महिलाओं ने साबित कर दिखाया है कि वे हर काम करके दिखा सकती हैं जिसमें अभी तब सिर्फ पुरुषों का ही वर्चस्व माना जाता था। शिक्षित होने के साथ ही महिलाओं की समझ में वृद्धि हुयी है। अब उनमें खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच पनपने लगी है। महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा है और घर के बाहर की दुनिया को जीतने का सपना सच करने की दिशा में कदम बढ़ाने लगी है।
सरकार ने महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो बहुत सारे बना रखें हैं किन्तु उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की उम्र वाली 70 फीसदी महिलाएं किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व घरेलू महिलायें भी शामिल हैं। देशभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग डेढ़ लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं। जबकि इसके कई गुणा अधिक मामले दबकर रह जाते हैं।
घरेलू हिंसा अधिनियम देश का पहला ऐसा कानून है जो महिलाओं को उनके घर में सम्मानपूर्वक रहने का अधिकार सुनिश्चित करता है। इस कानून में महिलाओं को सिर्फ शारीरिक हिंसा से ही नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक एवं यौन हिंसा से बचाव करने का अधिकार भी शामिल है। भारत में लिंगानुपात की स्थिति भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। लिंगानुपात के वैश्विक औसत 990 के मुकाबले भारत में 941 ही है। हमें भारत में लिंगानुपात सुधारने की दिशा में विशेष काम करना होगा। ताकि लिंगानुपात की खराब स्थिति को बेहतर बनायी जा सके।
दुख की बात यह है कि नारी सशक्तिकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही सिमटकर रह गई हैं। एक ओर शहरों में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रुप से स्वतंत्र हैं जो पुरुषों के अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम है। वहीं दूसरी तरफ गांवों में रहने वाली महिलाओं को तो अपने अधिकारो का भी पूरा ज्ञान नहीं हैं। वे चुपचाप अत्याचारों सहती रहती है और सामाजिक बंधनों में इस कदर जकड़ी है कि वहां से निकल नहीं सकती हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दोगुने से भी अधिक हुए हैं। पिछले दशक के आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले दर्ज होते है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं के प्रति की जाने वाली क्रूरता में वृद्धि हुई है।
कहने को तो सम्पूर्ण विश्व की महिलाएं एकजुट होकर महिला दिवस को मनाती हैं। मगर हकीकत में यह सब बाते सरकारी दावों व कागजो तक ही सिमट कर रह जाती है। देश की अधिकांश महिलाओं को तो आज भी इस बात का पता नहीं है कि महिला दिवस का मतलब क्या होता है। महिला दिवस कब आता है कब चला जाता है। भारत में अधिकतर महिलायें अपने घर-परिवार में इतनी उलझी होती है कि उन्हे बाहरी दुनिया से मतलब ही नहीं होता है। लेकिन इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा। जब तक महिलायें स्वयं अपने सामाजिक स्तर व आर्थिक स्थिति में सुधार नहीं करेगी तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहेगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान का जरूर कुछ असर दिखने लगा है। इस अभियान से अब देश में महिलाओं के प्रति सम्मान बढने लगा है। जो इस बात का अहसास करवाता है कि आने वाले समय में महिलाओं के प्रति समाज का नजरिया सकारात्मक होने वाला होगा। विकसित देशों की तुलना में हमारे देश में महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है। आज भी महाराष्ट्र के बीड़, गुजरात के सूरत, भुज में घटने वाली महिला उत्पीडन की घटनाये सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग लगा जाती है।
देश में आज भी सबसे ज्यादा उत्पीडन महिलाओं का ही होता है। आये दिन महिलाओं के साथ बलात्कार, हत्या, प्रताडना की घटनाओं से समाचार पत्रों के पन्ने भरे रहते हैं। महिलाओं के साथ आज के युग में भी दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है। बाल विवाह की घटनाओं पर पूर्णतया रोक ना लग पाना एक तरह से महिलाओं का उत्पीडन ही है। कम उम्र में शादी व कम उम्र में मा बनने से लडकी का पूर्ण रूपेण शारीरिक व मानसिक विकास नहीं हो पाता है। आज हम बेटा बेटी एक समान की बातें तो करते हैं मगर बेटी होते ही उसके पिता को बेटी की शादी की चिंता सताने लग जाती है। समाज में जब तक दहेज लेने व देने की प्रवृति नहीं बदलेगी तब तक कोई भी बाप बेटी पैदा होने पर सच्चे मन से खुशी नहीं मना सकता है।
महिला दिवस पर देश भर में अनेको स्थान पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। मगर अगले ही दिन उन सभी बातों को भुला दिया जाता है। समाज में अभी पुरूषवादी मानसिकता मिट नहीं पायी है। समाज में अपने अधिकारों एवं सम्मान पाने के लिए अब महिलाओं को स्वयं आगे बढना होगा। देश में जब तक महिलाओं का सामाजिक, वैचारिक एवं पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक महिला सशक्तिकरण की बाते करना बेमानी होगा।

कांग्रेसः मरता, क्या नहीं करता ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस पार्टी आजकल वैचारिक अधःपतन की मिसाल बनती जा रही है। नेहरू की जिस कांग्रेस ने पंथ-निरपेक्षता का झंडा देश में पहराया था, उसी कांग्रेस के हाथ में आज डंडा तो पंथ-निरपेक्षता का है लेकिन उस पर झंडा सांप्रदायिकता का लहरा रहा है। सांप्रदायिकता भी कैसी ? हर प्रकार की। उल्टी भी, सीधी भी। जिससे भी वोट खिंच सकें, उसी तरह की। भाजपा भाई-भाई पार्टी बन गई है, वैसे ही कांग्रेस भी भाई-बहन पार्टी बन गई है। भाई-बहन को लगा कि भाजपा देश में इसलिए दनदना रही है कि वह हिंदू सांप्रदायिकता को हवा दे रही है तो उन्होंने भी हिंदू मंदिरों, तीर्थों, पवित्र नदियों और साधु-संन्यासियों के आश्रमों के चक्कर लगाने शुरु कर दिए लेकिन उसका भी जब कोई ठोस असर नहीं दिखा तो अब उन्होंने बंगाल, असम और केरल की मुस्लिम पार्टियां से हाथ मिलाना शुरु कर दिया। बंगाल में अब्बास सिद्दिकी के ‘इंडियन सेक्युलर फ्रंट’, असम में बदरूद्दीन अजमल के ‘आॅल इंडिया यूनाइटेड फ्रंट’ और केरल में ‘वेलफेयर पार्टी’ से कांग्रेस ने गठबंधन किसलिए किया है, इसीलिए कि जहां इन पार्टियों के उम्मीदवार न हों, वहां मुस्लिम वोट कांग्रेस को सेंत-मेंत में मिल जाएं। क्या इन वोटों से कांग्रेस चुनाव जीत सकती है ? नहीं, बिल्कुल नहीं। लेकिन फिर ऐसे सिद्धांतविरोधी समझौते कांग्रेस ने क्यों किए हैं ? इसीलिए की इन सभी राज्यों में उसका जनाधार खिसक चुका है। अतः जो भी वोट, वह जैसे भी कबाड़ सके, वही गनीमत है। इन पार्टियों के साथ हुए कांग्रेसी गठबंधन को मैंने ठग-बंधन का नाम दिया है, क्योंकि ऐसा करके कांग्रेस अपने कार्यकर्ताओं को तो ठग ही रही है, वह इन मुस्लिम वोटरों को भी ठगने का काम कर रही है। कांग्रेस को वोट देकर इन प्रदेशों के मुस्लिम मतदाता सत्ता से काफी दूर छिटक जाएंगे। कांग्रेस की हार सुनिश्चित है। यदि ये ही मुस्लिम मतदाता अन्य गैर-भाजपा पार्टियां के साथ टिके रहते तो या तो वे किसी सत्तारुढ़ पार्टी के साथ होते या उसी प्रदेश की प्रभावशाली विरोधी पार्टी का संरक्षण उन्हें मिलता। कांग्रेस के इस पैंतरे का विरोध आनंद शर्मा जैसे वरिष्ठ नेता ने दो-टूक शब्दों में किया है। कांग्रेस यों तो अखिल भारतीय पार्टी है लेकिन उसकी नीतियों में अखिल भारतीयता कहां है ? वह बंगाल में जिस कम्युनिस्ट पार्टी के साथ है, केरल में उसी के खिलाफ लड़ रही है। महाराष्ट्र में वह घनघोर हिंदूवादी शिवसेना के साथ सरकार में है और तीनों प्रांतों में वह मुस्लिम संस्थाओं के साथ गठबंधन में है। दूसरे शब्दों में कांग्रेस किसी भी कीमत पर अपनी जान बचाने में लगी हुई है। मरता, क्या नहीं करता ?

खेती-किसानी और किसानों की बेहतरी के पुरोधा शिवराज
किसान पुत्र होने के नाते खेती-किसानी को बेहतर तरीके से जानने वाले मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने प्रदेश के किसानों के लिये जो किया है, वह कृषि क्षेत्र में मील का पत्थर साबित हो रहा है। एक लंबे समय से उनके द्वारा खेती-किसानी और किसानों की बेहतरी के लिए किए गए प्रयासों और नवाचारों के परिणाम अब न केवल पूरे देश-दुनिया के सामने है बल्कि उन्हें इसका पुरोधा भी माना गया है।
प्रदेश के किसानों के हित में खेती को लाभप्रद बनाने और किसानों की आय दोगुनी करने के लिये मुख्यमंत्री श्री चौहान ने अनेक नवाचार भी किये हैं। आत्म-निर्भर मध्यप्रदेश के निर्माण में कृषि क्षेत्र की महत्वपूर्ण भागीदारी है। कृषि उत्पादन को बढ़ाना, उत्पादन की लागत को कम करना, कृषि उपज के उचित दाम दिलाना और प्राकृतिक आपदा या अन्य स्थिति में उपज को हुए नुकसान में किसान को पर्याप्त क्षतिपूर्ति देना, मुख्यमंत्री श्री चौहान के प्रयासों में शामिल हैं।
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने प्रदेश के किसानों को जो संबल दिया, उससे किसानों ने प्रमुख रूप से गेहूँ उत्पादन में रिकार्ड कायम किया। मध्यप्रदेश गेहूँ उपार्जन में पूरे देश में अव्वल रहा। किसानों के हित में कृषि उपज मंडी अधिनियम में संशोधन करते हुए ई-ट्रेडिंग का प्रावधान किया गया और किसानों को उपार्जन केन्द्र के साथ ही मंडी के अधिकृत निजी खरीदी केन्द्र और सौदा-पत्रक व्यवस्था के माध्यम से भी फसल बेचने की सुविधा प्रदान की गई। गेहूँ, धान एवं अन्य फसलों के उपार्जन की 33 हजार करोड़ रूपये से अधिक की राशि किसानों के खातों में अंतरित की गई।
प्रदेश के किसानों को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि में प्रतिवर्ष 6-6 हजार रूपये तो मिल ही रहे हैं। इसी कड़ी में मुख्यमंत्री श्री चौहान ने प्रदेश के किसानों के लिये मुख्यमंत्री किसान-कल्याण सम्मान निधि योजना की शुरूआत कर किसानों को मध्यप्रदेश शासन की ओर से प्रतिवर्ष 4 हजार रूपये दो बराबर किश्तों में दिये जाना शुरू किया गया। इस प्रकार किसानों को अब कुल 10 हजार रूपये प्रतिवर्ष किसान सम्मान निधि मिल रही है।
किसानों की परेशानियों को भी मुख्यमंत्री श्री चौहान भलीभांति समझते हैं। उन्होंने प्राकृतिक आपदा या किसी अन्य परिस्थिति में किसान की उपज को हुए नुकसान में राहत पहुँचाने वाली प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना का लंबित प्रीमियम जमा कर किसानों को राहत पहुँचाई। लॉकडाउन की विकट स्थिति में एक करोड़ 29 लाख टन गेहूँ 16 लाख किसानों से खरीद कर उनके खातों में 27 हजार करोड़ से अधिक की राशि अंतरित किया जाना किसानों के लिये बड़ी राहत थी।
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने किसानों को शून्य प्रतिशत ब्याज पर ऋण योजना को पुन: चालू करते हुए किसानों को राहत पहुँचाई। इसके लिये सहकारी बैंकों को 800 करोड़ रूपये की राशि भी उपलब्ध करवाई गई। किसानों की आय को बढ़ाने के लिये मुख्यमंत्री श्री चौहान ने बेहतर प्रबंधन और सिंचाई परियोजनाओं पर प्राथमिकता से कार्य करवाये। इन कार्यों से प्रदेश में अधिक से अधिक क्षेत्र में सिंचाई की उपलब्धता सुनिश्चित की गई। वर्ष 2020 तक लगभग 40 लाख 27 हजार हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई सुविधाएँ विकसित की गईं। प्रदेश में 19 वृहद, 97 मध्यम और 5344 लघु सिंचाई योजनाओं का कार्य पूर्ण किया गया। इसके साथ ही 27 वृहद, 47 मध्यम और 287 लघु सिंचाई योजनाएँ प्रगति पर हैं। प्रदेश में अगले 5 वर्षों में 65 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। कोरोना काल में पंचायत एवं ग्रामीण विकास की विभिन्न योजनाओं में 57 हजार 653 जल- संरचनाओं का निर्माण किया गया। इन सभी जल संरचनाओं से जहाँ एक ओर स्थानीय लोगों को कोरोना काल में रोजगार मिला, वहीं भू-जल स्तर में बढ़ोत्तरी के साथ किसानों को खेती में सिंचाई के लिये पानी भी मिल रहा है। प्रदेश सरकार द्वारा विगत कई वर्षों से सिंचाई बजट में निरंतर वृद्धि भी की जा रही है।
हाल ही में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मंत्रि-परिषद की बैठक में महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए राजस्व पुस्तक परिपत्र में नये प्रावधान जोड़े हैं। इन प्रावधानो में प्राकृतिक प्रकोप, आग लगने तथा वन्य प्राणियों द्वारा मकान नष्ट किये जाने पर आर्थिक सहायता को शामिल किया। किसानों को कृषि कार्य के लिये फ्लैट दरों पर बिजली दी जा रही है, जिसमें 22 लाख कृषि उपभोक्ता लाभान्वित हुए हैं। किसानों को खेती के लिये बिजली कनेक्शनों पर 14 हजार 244 करोड़ रूपये का अनुदान दिया गया।
प्रदेश कृषि अधोसंरचना विकास फंड के उपयोग में मध्यप्रदेश देश में सबसे आगे है। अधोसंरचना विकास के लिये आत्म-निर्भर कृषि मिशन का गठन किया गया है। कृषि विकास एवं किसान-कल्याण के लिये विभिन्न योजनाओं पर 83 हजार करोड़ रूपये से अधिक के हितलाभ दिये गये हैं। किसानों के हित में मंड़ी नियमों में ऐतिहासिक सुधार भी किया गया हैं। मंडी टेक्स 1.50 प्रतिशत से घटाकर 0.50 प्रतिशत किया गया। कृषि की लागत कम करने, उत्पादन बढ़ाने तथा उपज का सही दाम किसानों के दिलाने के लिए कृषि उत्पादक संगठनों (एफ.पी.ओ.) को मजबूत किया जा रहा है। आगामी वर्षों मे एक हजार नये कृषि उत्पादक संगठनों का गठन किया जाएगा।
किसानों के हित में महत्वपूर्ण निर्णय लेते हुए मुख्यमंत्री श्री चौहान द्वारा फसल नुकसानी पर न्यूनतम मुआवजा राशि 5 हजार रूपये की गई है। इस संबंध में राजस्व पुस्तक परिपत्र में संशोधन भी किया गया है। शिवराज के इन्हीं सब कार्यों का परिणाम है कि मध्यप्रदेश की कृषि विकास दर निरंतर बढ़ रही है। प्रदेश को लगातार सातवीं बार कृषि कर्मण अवार्ड से नवाजा गया है। मुख्यमंत्री श्री चौहान के सफल प्रयासों ने उन्हें खेती-किसानी और किसानों की बेहतरी के पुरोधा के रूप में मान्यता दिलाई है।

 

‘‘निमाड़ का खेवैया नंदूभईया’’
प्रभात झा
नंद कुमार चौहान नहीं रहे। ’शाहपुर’ के एक गांव से निकला युवक सन् 1967 में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का प्रथम वर्ष कर जनसेवा के मैदान में कूद पड़ता है। तब से लेकर आज तक उन्होने पलटकर नहीं देखा। जनसंघ का ’दीया’ जलाते हुए, निमाड़ क्षेत्र के गांव-गांव में कमल खिलाने में अगर किसी व्यक्ति ने जुनूनी भूमिका निभाई तो उस व्यक्तित्व का नाम था, नंद कुमार चौहान (नंदूभईया)।
निमाड़ में एक ही नारा लगता था निमाड़ का खेवैया, नंदूभईया। शाहपुर में विधानसभा का उपचुनाव था। मुझे दल ने श्री सौदान सिंह के साथ वहां चुनाव में भेजा। नंदूभईया से सहज परिचय पूर्व से था, पर उन दो महिनों में बहुत निकट का परिचय आया। उनकी लोकप्रियता निमाड़ मे क्या थी, वह एक घटना से सभी प्रदेशवासियों को समझ में आ जाएगी। वे खंडवा के सांसद थे। उपचुनाव में दौरा करते-करते शाहपुर पहुंचे। शाहपुर में उनकी अंतिम चुनावी सभा थी। रात के दस बज गए थे। हजारों की भीड़ थी। चुनाव आयोग की आचार संहिता के कारण रात दस बजे के बाद सभा नहीं हो सकती थी। जनता से नंदूभईया ने कहा कि आज मैं हाथ जोड़ रहा हूं। भाजपा के रामदास शिवहरे को हम सभी को जिताना है। लोगों ने नहीं माना। सभी ने कहा ’’निमाड़ का खेवैया, नंदूभईया’’ नंदूभईया ने कहा चुनाव निरस्त हो जाएगा। जनता ने कहा हो जाने दो। नंदूभईया को झुकना पड़ा। नंदूभईया ने मराठी में अपना भाषण शुरू किया। तालियों की गड़गड़ाहट से जनता ने नंदूभईया की प्रथम वाणी का स्वागत किया। नंदू भईया धारा प्रवाह मराठी में भाषण देते रहे। वह रात जो मैने दृश्य देखा तो मुझे लगा कि राजनीति केे अंधेरे में एक ऐसा व्यक्ति जिसको कुशाभाऊ ठाकरे का आशीर्वाद सदैव मिलता रहा उसे प्रदेश में अभी तक क्यों नहीं लाया गया? उपचुनाव जीत गए। आने के बाद तत्कालीन प्रांत कार्यवाहक प्रो. कप्तान सिंह सोलंकी को मैनें आकर बताया कि एक ऐसा कार्यकर्ता नंदकुमार चौहान है, जिसकी लोकप्रियता एैसी है। उन्होने भाजपा के नेतृत्व से चर्चा की और उन्हे प्रदेश की टीम में लाया गया। नंदूभईया इस तरह प्रांत की राजनीति में लाए गए।
नंद कुमार चौहान ने शाहपुरा नगर पालिका के अध्यक्ष पद से अपने राजनैतिक जीवन की चुनावी यात्रा की शुरूआत की थी। तब से लेकर अब तक वे तीन बार विधायक और छह बार सांसद रहे। मात्र एक बार लोकसभा चुनाव हारे। ’नंदू भईया’ पांच बार प्रदेश के पांच अध्यक्षों के साथ लगातार महामंत्री रहे। सब कुछ करते हुए वे कभी अपने निमाड़ क्षेत्र को उन्होने नहीं छोड़ा। वे समर्पित, सुलभ सहज सरल एवं एक आदर्श कार्यकर्ता थे। कार्यकर्ता मन में अपने स्नेह की अखंड ज्योति जला देते थे।
वे सतत् प्रवास करते थे।वे जब तक सांसद रहे तो वे एक ही बात करते थे, मुझे कुशाभाऊ ठाकरे ने अपनी खंडवा लोकसभी सीट सौंपी है। मैं ठाकरे जी की इज्जत कभी खराब नहीं होने दूंगा। वे प्रवास अलग प्रकार से करते थे। वे अपनी गाड़ी में ही तकिया चादर और ओढ़ने का सामान रखते थे। खाना खराब हो जाता था, अतः नमकीन और बिस्कुत रखते थे। चुनाव के दिनों में वे कहते थे प्रभातजी यह गाड़ी नहीं मेरा चलता फिरता चुनावी कार्यालय है। वे अनथक यात्री की तरह सतत् प्रवास करते थे। वे भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष बने। सहज निवास पर मिलने आए। उन्होने कहा कि ’’भाईसाहब’’ आपका ’महामंत्री’ प्रदेश अध्यक्ष बन गया। मैंने कहा नंदू भईया आप मुझसे आठ साल बड़े हैं। अब अध्यक्ष के नाते भी मेरे अधिकारी हो गए। वैसे तो आप मेरे बड़े भाई सदैव हैं और रहेंगे।
नंदू भईया ने जो जवाब दिया वह अस्मरणीय और पाथेय जैसा था। उन्होने कहा कि प्रभात जी ’’मै कितने दिन अध्यक्ष रहूंगा। आप भी दो-ढाई साल रहे, मै भी इतने दिन रह लूंगा। सवाल यह नहीं है कि हम अध्यक्ष कितने दिन रहेगे, सवाल यह है कि इन दिनों में हम कितने कार्यकर्ताओं के दिल में अपना घर बनाते हैं, और पार्टी के कार्य का कितना विस्तार करते हैं।
’नंदू भईया’ में आदर्श कार्यकर्ता के सभी गुण थे। वे वर्तमान राजनीति में आज जो दृश्य सामने आते रहते हैं वे वैसे नहीं थे। वे सतत् कार्यकर्ता भाव से जीवित रहे। दिल्ली स्थित उनके आवास पर सदैव कार्यकर्ताओं का तांता लगा रहता था। आज की राजनीति में वे जमीन से कितने जुड़े थे, उसका ताजा उदाहरण खंडवा, बुरहानपुर, शाजापुर सहित खरगोन बड़वानी में देखने को मिला। जब वे मेदान्ता में जीवन और मृत्यु से संघर्ष कर रहे थे, तब उनके जीवन के लिए इन क्षेत्रों में हजारों घरों में महामृत्युंजय जब और सुन्दरकांड के पाठ चल रहे थे।
आज के भौतिकवादी युग में अपने परिजनों के लिए लोग इस तरह का ना जाप करते हैं, ना पाठ। उन्हे लोग परिवार का सदस्य या मुखिया मानते थे। वे कहते थे अपने कार्य की प्रमाणिकता और नैतिकता पर कभी सवाल नहीं उठाना चाहिए। नंदूभईया के मन में जनपीड़ा, परपीड़ा के लिए सदैव सहानुभूति रहती थी। वे पत्रकारों के अमित्र मित्र थे। वे संगठन सर्वोपरि के अखंड उपासक थे। हाल ही में उनके लोकसभा क्षेत्र से दो कांग्रेस विधायक पार्टी छोड़ भाजपा में आए। नंदूभईया को मुख्यमंत्री शिवराजजी एवं अध्यक्ष विष्णुदत्त शर्मा ने कहा कि नंदूभईया दोनों सीटे जीतनी है। नंदूभईया ने कहा कि दल के फैसले को जनता के दिल का फैसला बना दूंगा। ऐसा हुआ भी दोनों सीटे जीत गए। ऐसे थे नंदूभईया। भाजपा ने जहां प्रदेश में एक वरिष्ठ नेता खोया वहीं निमाड़ ने अपना खेवैया नंदूभईया खो दिया। उनकी चरणों में विनम्र श्रद्धांजली।

‘अभिव्यक्ति’ को सलाखें नहीं ‘आजादी’ चाहिए ?
प्रभुनाथ शुक्ल
दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट ने जलवायु एक्टिविस्ट दिशा रवि को एक लाख के निजी मुचलके पर चर्चित ‘टूलकिट’ मामले में तिहाड़ जेल से रिहा करने का आदेश दिया है। अदालत के आदेश के बाद दिल्ली पुलिस खुद कटघरे में खड़ी हो गई है। सवाल उठता है कि क्या सरकार के खिलाफ बोलना, लिखना देशद्रोह है। वास्तव में अगर ऐसा है तो यह उन्मुक्त लोकतंत्र की अंतिम सांस है। अदालत की तरफ से जो तीखी टिप्पणी की गई है उसका साफ संदेश भी तो यही है।
अदालत की तरफ से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को किस तरह बाधित ना होने दिया जाए। सरकार से असहमति का यह मतलब देशद्रोह नहीं होता है। अपनी बातों को समझाने के लिए अदालत ने ऋग्वेद का भी उदाहरण दिया है। जमानत आम आदमी का अधिकार भी है अगर उसने कोई बड़ा जुर्म नहीं किया है। इस मामले में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी। हालांकि अदालत ने साफ तौर पर कह दिया है कि टूलकिट में हिंसा फैलाने के की कोई बात नहीं है। इससे साफ जाहिर होता है कि दिशा रवि और दूसरे लोग भविष्य में देशद्रोह के आरोप से मुक्त हो सकते हैं
पटियाला हाउसकोर्ट ने साफ तौर पर कहा है कि किसी भी देश के नागरिक देश को दिशा देने वाले होते हैं। उन्हें सिर्फ इसलिए जेल नहीं भेजा जा सकता है कि वह सरकार की नीतियों से सहमत हैं। सरकार से असहमति और नीतियों का विरोध लोकतंत्र को और पारदर्शी एवं स्वस्थ्य बनाता है। नागरिकों की आलोचनाओं को दृष्टिगत रखते हुए सरकारें अपनी कार्यप्रणाली और करतब में विशेष सुधार ला सकती हैं। देश में सजग नागरिक मजबूत राष्ट्रवाद का द्योतक है। सरकार की हां में हां मिलाने वाले लोगों से भले इस तरह के सजग नागरिक हैं।
अदालत की तरफ से ऋगवेद का उदाहरण देते हुए कहा गया है कि अलग-अलग विचारों को रखना हमारी सभ्यता और मजबूत लोकतंत्र का आधार है। किसी भी मुद्दे पर सरकार से असहमति सामान्य सी बात है। हमें इस तरह के विचारों से कोई असहमति नहीं होनी चाहिए। जबकि दिल्ली पुलिस ने दिशा रवि की जमानत का विरोध किया। पुलिस ने कहा कि उन्होंने व्हाट्सएप ग्रुप बनाया और टूलकिट को एडिट किया। पुलिस की दलील को अदालत में अमान्य कर दिया और कहा कि व्हाट्सएप ग्रुप बनाना कोई राष्ट्र दोष नहीं होता है।
अदालत ने कहा कि दिशा रवि की तरफ से की गई गतिविधियों का कोई ऐसा लिंक भी नहीं मिला है जो देशद्रोह की श्रेणी में आता हो, जिसके आधार पर उसे जमानत न दी जाए। अदालत की तरफ से की गई तल्ख टिप्पणियों का संज्ञान हमें लेना चाहिए। बेवजह किसी भी नागरिक को परेशान नहीं करना चाहिए।अभिव्यक्ति की आजादी बनाए रखना भी स्वस्थ लोकतंत्र की परंपरा और सरकारों का दायित्व भी है।
टूलकिट मामले में दिशा रवि और दूसरे लोगों को अदालत से राहत भले मिल गईं हो लेकिन दिल्ली के लाल किले पर 26 जनवरी को जो कुछ हुआ वास्तव में इसे हम उचित नहीं ठहरा सकते हैं। दिल्ली पुलिस की जांच में जो तथ्य सामने आए हैं उससे तो यहीं लगता है कि पंजाब में खालिस्तान से जुड़े लोग एक बार फिर आतंकवाद की नई कोपलें उगाना चाहते हैं। किसान आंदोलन की आड़ में अपनी साजिश को कामयाब करना चाहते हैं।
देश में ‘टूलकिट’ पर राजनीतिक सरगर्मियां भी खूब हुई। दिशा रवि और अन्य की गिरफ्तारी को लेकर सत्ता के खिलाफ विपक्ष लामबंद भी हुआ। लेकिन दिल्ली पुलिस की प्राथमिक जांच में जो तथ्य सामने आए उससे तो यही साबित होता है कि कनाडा में बैठे खालिस्तान संगठन और पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई ने मिल कर इस साजिश को अंजाम दिया। हालांकि अभी जांच की प्रक्रिया लम्बी चलेगी लेकिन दिशा और अन्य की जमानत के बाद दिल्ली पुलिस को झटका लगा है उसकी पारदर्शिता भी बेनकाब हुई है। उसका उत्साह भी कमजोर पड़ सकता है।
‘टूलकिट’ एक गूगल दास्ताबेज है जिसे अपनी सुविधा के अनुसार एडिट किया जा सकता है। सोशलमिडिया पर यह किट अपने संगठन से जुड़े लोगों के बीच वायरल की जाती है। इस ‘टूलकिट’ में सारी बातें बिस्तार से लिखी होती हैं, जिसमें आंदोलन को कैसे तेज करना है। किन लोगों को जोड़ना है। जिसके पास अधिक फॉलोवर होते हैं उसे वरीयता के आधार पर जोड़ा जाता है। इसमें सारी बातें लिखित होती हैं।
अदालत की तरफ से ‘टूलकिट’ मामले में दिशा रवि और दूसरे लोगों को जमानत भले मिल गईं हो लेकिन यह मामला देश की आंतरिक सुरक्षा से जुड़ा हुआ है। दिल्ली पुलिस की जांच में अब तक जितने लोगों के नाम आए हैं उनमें अधिकांश पर्यावरणविद और जलवायु एक्टिवस्ट हैं। सभी युवा और ग्लोबल स्तर पर चर्चित चेहरे हैं। लेकिन इसमें खालिस्तान संगठन की भूमिका भी उभर कर आयीं है। ग्रेटा और तमाम विदेशी चेहरे भी बेनक़ाब हुए हैं।
सवाल उठता है कि ‘टूल किट’ का उपयोग कर देश और विदेश में बैठे लोग किसान आंदोलन को भड़काने का काम क्यों किया। मैं यह मानता हूँ कि किसी मसले पर सरकार से असहमति रखना देशद्रोह नहीं हो सकता है। लेकिन जब देश में किसान आंदोलन चल रहा हो उस दशा में विदेशी लोगों से मिल कर टूलकिट को वायरल करना क्या गलत कार्य नहीं है। ग्रेटा थनबर्ग और दिशा के बीच हुए चैट खुद इसकी गवाही देते हैं। दिशा ने खुद पर शिकंजा कसने की बात चैट में कहा था। देशद्रोह के नाम पर किसी को बेवजह परेशान नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन टूलकिट की सच्चाई भी देश के सामने आनी चाहिए।

 

मिलावट तो मौन-हत्या है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
खाद्य-पदार्थों और दवाइयों में मिलावट करनेवाले अब जरा डरेंगे, क्योंकि बंगाल, असम और उप्र की तरह अब मध्यप्रदेश भी उन्हें उम्र कैद देने का प्रावधान कर रहा है। अब तक उनके लिए सिर्फ 6 माह की सजा और 1000 रु. के जुर्माने का ही प्रावधान था। इस ढिलाई का नतीजा यह हुआ है कि आज देश में 30 प्रतिशत से भी ज्यादा चीजों में मिलावट होती है। सिर्फ घी, दूध और मसाले ही मिलावटी नहीं होते, अनाजों में भी मिलावट जारी है। सबसे खतरनाक मिलावट दवाइयों में होती है। इसके फलस्वरूप हर साल लाखों लोगों की जानें चली जाती हैं, करोड़ों बीमार पड़ते हैं और उनकी शारीरिक कमजोरी के नुकसान सारे देश को भुगतने पड़ते हैं। मिलावट-विरोधी कानून पहली बार 1954 में बना था लेकिन आज तक कोई भी कानून सख्ती से लागू नहीं किया गया। 2006 और 2018 में नए कानून भी जुड़े लेकिन उनका पालन उनके उल्लंघन से ही होता है। उसके कई कारण हैं। पहला तो यही कि उस अपराध की सजा बहुत कम है। वह नहीं के बराबर है। मैं तो यह कहूंगा कि वह सजा नहीं, बल्कि मिलावटखोर को दिया जानेवाला इनाम है। यदि उसे 6 माह की जेल और एक हजार रु. जुर्माना होता है तो वह एक हजार रु. याने लगभग डेढ़ सौ रुपए महिने में जेल में मौज मारेगा। उसका खाना-पीना, रहना और दवा- सब मुफ्त ! अपराधी के तौर पर कोई सेठ नहीं, उसका नौकर ही पकड़ा जाता है। अब कानून ऐसा बनना चाहिए कि मिलावट के अपराध में कंपनी या दुकान के शीर्षस्थ मालिक को पकड़ा जाए। उसे पहले सरे-आम कोड़े लगवाए जाएं और फिर उसे सश्रम कारावास दिया जाए। उसकी सारी चल-संपत्ति जब्त की जानी चाहिए। यदि हर प्रांत में ऐसी एक मिसाल भी पेश कर दी जाए तो देखिए मिलावट जड़ से खत्म होती है कि नहीं। थोड़ी-बहुत सजा मिलावटी समान बेचनेवालों को भी दी जानी चाहिए। इसके अलावा मिलावट की जांच के नतीजे दो-तीन दिन में ही आ जाने चाहिए। मिलावटियों से सांठ-गांठ करनेवाले अफसरों को नौकरी से हमेशा के लिए निकाल दिया जाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय सभी भाषाओं में विज्ञापन देकर लोगों को यह बताए कि मिलावटी चीजों को कैसे घर में ही जांचा जाए। दवाइयों और खाद्य-पदार्थों में मिलावट करना एक प्रकार का हत्या-जैसा अपराध है। यह हत्या से भी अधिक जघन्य है। यह सामूहिक हत्या है। यह अदृश्य और मौन हत्या है। इस हत्या के विरुद्ध संसद को चाहिए कि वह सारे देश के लिए कठोर कानून पारित करे।

पीएम मोदी का विपक्ष को जवाब
सिध्दार्थ शंकर
भारत में कोरोना वैक्सीनेशन का दूसरा फेज सोमवार से शुरू हो गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को कोरोना वैक्सीन की पहली डोज लगवाई है। एक मार्च से कोरोना टीकाकरण का दूसरा चरण शुरू होने वाला है, ऐसे में प्रधानमंत्री मोदी ने टीका लगवाकर लोगों को एक खास संदेश दिया है। देश में वैक्सीन को लेकर कई बयानबाजी हुई, यहां तक कि विपक्ष ने प्रधानमंत्री मोदी को वैक्सीन लगवाने की चुनौती तक दे दी थी। बता दें कि प्रधानमंत्री मोदी ने भारत बायोटेक द्वारा विकसित की गई वैक्सीन कोवैक्सीन की खुराक ली है। यह वही वैक्सीन है, जिस पर विपक्ष ने कई सवाल खड़े किए थे। इस वैक्सीन को तीसरे चरण के ट्रायल के दौरान ही इस्तेमाल की मंजूरी मिल गई थी, जिस पर विपक्ष ने हंगामा खड़ा कर दिया था और वैक्सीन की गंभीरता पर सवाल खड़े किए थे। इस फेज के साथ वैक्सीनेशन प्रोग्राम सप्लाई-ड्रिवन नहीं रह जाएगा बल्कि डिमांड-ड्रिवन हो जाएगा। आम नागरिकों को केंद्र में रखकर इस प्लान को अंतिम रूप दिया गया है। यह फेज रेलवे की तर्ज पर काम करेगा। जिस तरह रेलवे टाइमटेबल बनाता है, वैसे ही अस्पताल तय करेंगे कि कब और कितने लोगों को वैक्सीन लगानी है। रेलवे में रिजर्वेशन और बिना रिजर्वेशन के भी सीटें मिलती हैं, इसी तरह अस्पतालों में शेड्यूल के अनुसार वैक्सीन लगेगी और वॉक-इन की व्यवस्था भी रहेगी। यानी बिना रिजर्वेशन के भी लोग वैक्सीन लगवा सकेंगे। आम लोगों के लिए वैक्सीन का दिन तय करने के साथ ही समस्या कोरोना के नए केसों को लेकर भी है। महाराष्ट्र के हालात तो नए खतरे की ओर इशारा कर रहे हैं। राज्य में संक्रमण को फैलने से रोकने के लिए नागरिकों के लिए पूर्व की भांति सख्त नियम लागू कर कर दिए हैं। महाराष्ट्र सरकार के इन कदमों ने दस महीने पहले की भयावह स्थिति की याद दिला दी है। केरल में मामले बढ़ते देख कर्नाटक ने उससे लगने वाली सीमा को सील कर दिया है। एक पखवाड़े पहले तक देश में संक्रमितों की संख्या काफी कमी आ गई थी और लगने लगा था कि अब हम महामारी से मुक्त होने की ओर बढ़ रहे हैं। लेकिन अब फिर से संक्रमण के नए मामलों में तेज वृद्धि से लग रहा है कि महामारी कहीं फिर से तो नहीं लौट रही। महाराष्ट्र और केरल के अलावा मध्यप्रदेश, पंजाब, छत्तीसगढ़ और यहां तक कि जम्मू-कश्मीर में भी संक्रमण लगातार नए मामलों का मिलना बता रहा है कि अगर हम अब भी नहीं चेते तो देश फिर संकट में फंस सकता है।
देश में कोरोना की सबसे ज्यादा मार महाराष्ट्र पर पड़ी है। हालांकि भारत में पहला कोरोना संक्रमित मरीज पिछले साल फरवरी में केरल में मिला था। ऐसे में अब केरल और महाराष्ट्र के हालात को हल्के में नहीं लिया जा सकता। लंबे समय से देखने में आ रहा है कि महामारी के खतरे को लेकर लोग एकदम बेपरवाह हो गए हैं और मास्क लगाने व सुरक्षित दूरी जैसे बचाव के जरूरी उपायों का कहीं पालन नहीं कर रहे। ऐसी स्थिति देश के सभी राज्यों में देखने को मिल रही है। सबसे बड़ा संकट यह खड़ा हो गया है कि जब लोगों को मास्क और सुरक्षित दूरी जैसे नियम का पालन करने की सबसे ज्यादा जरूरत है, तभी वे घोर लापरवाही बरत रहे हैं। ऐसे में संक्रमण को फैलने से कैसे रोका जा सकता है? देश के ज्यादातर राज्यों में तो अब स्कूल, कालेज सहित सभी शिक्षण संस्थान, सरकारी-निजी दफ्तर खुल गए हैं और आर्थिक गतिविधियों को पटरी पर लाने के लिए भी कवायदें जारी हैं। मुंबई में तो कुछ समय पहले लोकल ट्रेन सेवा भी अब सामान्य हो गई है। जाहिर है हर जगह भीड़ बढ़ रही है और साथ ही खतरा भी। कोरोना के नए स्वरूप के भी कुछ मामले में भारत में आए हैं। ऐसे में सबसे ज्यादा सावधान रहने की जरूरत अब है।
राहत की बात यह है कि भारत के पास अब कोरोना का टीका भी है और व्यापक स्तर पर टीकाकरण का काम चल रहा है। लेकिन सभी को टीका मिलने में वक्त लगेगा। यह नहीं भूलना चाहिए कि अभी हम गंभीर संकट से निकले ही हैं और खतरा अभी टला नहीं है। अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों में जहां लोगों ने न केवल लॉकडाउन का विरोध किया, बल्कि मास्क लगाने तक से परहेज किया, वहां अब महामारी की दूसरी लहर से लोगों की जान खतरे में है। ऐसे में महामारी से निपटने के लिए बिना जन सहयोग के सरकारें कुछ नहीं कर पाएंगी।

नेपाल में ओली की मुसीबत
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
नेपाल के सर्वोच्च न्यायालय ने एतिहासिक फैसला दे दिया है। उसने संसद को बहाल कर दिया है। दो माह पहले 20 दिसंबर को प्रधानमंत्री के.पी. ओली ने नेपाली संसद के निम्न सदन को भंग कर दिया था और अप्रैल 2021 में नए चुनावों की घोषणा कर दी थी। ऐसा उन्होंने सिर्फ एक कारण से किया था। सत्तारुढ़ नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी में उनके खिलाफ बगावत फूट पड़ी थी। पार्टी के सह-अध्यक्ष और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ ने मांग की कि पार्टी के सत्तारुढ़ होते समय 2017 में जो समझौता हुआ था, उसे लागू किया जाए। समझौता यह था कि ढाई साल ओली राज करेंगे और ढाई साल प्रचंड ! लेकिन वे सत्ता छोड़ने को तैयार नहीं थे। पार्टी की कार्यकारिणी में भी उनका बहुमत नहीं था। इसीलिए उन्होंने राष्ट्रपति विद्यादेवी से संसद भंग करवा दी। नेपाली संविधान में इस तरह संसद भंग करवाने का कोई प्रावधान नहीं है। ओली ने अपनी राष्ट्रवादी छवि चमकाने के लिए कई पैंतरे अपनाए। उन्होंने लिपुलेख-विवाद को लेकर भारत-विरोधी अभियान चला दिया। नेपाली संसद में हिंदी में बोलने और धोती-कुर्त्ता पहनकर आने पर रोक लगवा दी। (लगभग 30 साल पहले लोकसभा-अध्यक्ष दमननाथ ढुंगाना और गजेंद्र बाबू से कहकर इसकी अनुमति मैंने दिलवाई थी।) ओली ने नेपाल का नया नक्शा भी संसद से पास करवा लिया, जिसमें भारतीय क्षेत्रों को नेपाल में दिखा दिया गया था लेकिन अपनी राष्ट्रवादी छवि मजबूत बनाने के बाद ओली ने भारत की खुशामद भी शुरु कर दी। भारतीय विदेश सचिव और सेनापति का उन्होंने काठमांडो में स्वागत भी किया और चीन की महिला राजदूत हाउ यांकी से कुछ दूरी भी बनाई। उधर प्रचंड ने भी, जो चीनभक्त समझे जाते हैं, भारतप्रेमी बयान दिए। इसके बावजूद ओली ने यही सोचकर संसद भंग कर दी थी कि अविश्वास प्रस्ताव में हार कर चुनाव लड़ने की बजाय संसद भंग कर देना बेहतर है लेकिन मैंने उस समय भी लिखा था कि सर्वोच्च न्यायालय ओली के इस कदम को असंवैधानिक घोषित कर सकता है। अब उसने ओली से कहा है कि अगले 13 दिनों में वे संसद का सत्र बुलाएं। जाहिर है कि तब अविश्वास प्रस्ताव फिर से आएगा। हो सकता है कि ओली लालच और भय का इस्तेमाल करें और अपनी सरकार बचा ले जाएं। वैसे उन्होंने पिछले दो माह में जितनी भी नई नियुक्तियां की हैं, अदालत ने उन्हें भी रद्द कर दिया है। अदालत के इस फैसले से ओली की छवि पर काफी बुरा असर पड़ेगा। फिर भी यदि उनकी सरकार बच गई तो भी उसका चलना काफी मुश्किल होगा। भारत के लिए बेहतर यही होगा कि नेपाल के इस आंतरिक दंगल का वह दूरदर्शक बना रहे।

उत्तराखंड की जल विद्युत परियोजनाओं पर प्रश्न चिन्ह
हर्ष वर्धन पाठक
चमौली की घटना को हिमालय की चेतावनी के रूप में लिया जाना चाहिए। धौलीगंगा , ऋषि गंगा ये नदियां अलकनंदा की सहायक नदियां हैं जो अलकनंदा में मिलती हैं। इन नदियों पर जल विद्युत परियोजनाएं निर्माण के विभिन्न चरणों में हैं। वैसे समूचे उत्तराखंड में लगभग दो सौ परियोजनाएं प्रस्तावित हैं जिनमें से 58 पनबिजली परियोजनाओं पर काम चल रहा है। इसके अलावा लगभग डेढ़ सौ जल विद्युत परियोजनाएं उत्तराखंड की विभिन्न छोटी बड़ी नदियों पर प्रस्तावित हैं। ग्लेशियर पिघलने की घटना ने इन सभी पनबिजली परियोजनाओं के निर्माण पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। उत्तराखंड के मुख्यमंत्री श्री रावत यद्यपि इन सभी जल विद्युत परियोजनाओं के पक्ष में हैं और दृढ़ता से इन परियोजनाओं को राज्य के विकास के लिए जरूरी अबता रहे हैं। वे चमौली की घटना को लेकर चिन्तित जरूर हैं लेकिन इसे स्वीकार नहीं करते कि यह घटना हिमालय की चेतावनी है या प्रकृति से इसका कोई संबंध है । यह सही है कि उत्तराखंड की जनता में रोष है। उत्तराखंड की जनता यह मानती है जब अधिकांश नदियां उनके प्रदेश से निकलती हैं तब उनका लाभ उनके प्रदेश को नहीं मिलता। जब वहां की नदियां दूसरे प्रदेशों में जाती हैं‌ तब उन प्रदेशों में बड़े बांध बनते हैं जिनसे सिंचाई होती है, खेत लहलहाते हैं ,बिजली बनती है , प्रकाश मिलता है। उत्तराखंड की जनता के इस असंतोष को दूर करने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं बनीं। उत्तराखंड में प्रस्तावित इन पन बिजली योजनाओं का दुहरा लाभ होगा। एक ओर जनअसंतोष दूर होगा वहां प्रांत में विद्युत की कमी समाप्त होगी और यह प्रदेश बिजली की दृष्टि से सरप्लस स्टेट होगा। आज सभी उद्योग विद्युत आधारित होते हैं ,यह सभी जानते हैं।
उत्तराखंड सरकार की सोच ठीक है लेकिन इस सोच के कारण कुछ प्रश्न चिन्ह उपस्थित होते हैं। हिमालय में अकूत वन और प्राकृतिक संपदा है। यदि नदियों का जल प्रवाह रुकता है , वन कटते हैं तो इस प्राकृतिक सम्पदा का क्या होगा ! इस समस्या का हल सरकार के पास नहीं है ! हिमालय में ग्लेशियर बहुत बड़ी संख्या में हैं। ये ग्लेशियर नदियों को सदानीरा बनाते हैं। नदियों के जीवन में इनका बहुत महत्व हैं। ये ग्लेशियर जब क्रोधित होते हैं तब ही मुसीबत आती है। लेकिन उत्तराखंड के मुख्यमंत्री इसे ग्लेशियर का क्रोध या प्रकृति का प्रकोप मानने तैयार नहीं हैं।उनका कहना है कि यह पहला मौका नहीं है जब यहां आपदा आई लेकिन इस डर से विकास की उपेक्षा करना अफोर्ड नहीं कर सकते। हमारे पहाड़ों के लोक गीत आपदाओं के उदाहरणों से भरे पड़े हैं।
हिमांचल में पेड़ों की रक्षा के लिये चिपको आन्दोलन की परंपरा रही है।इस परंपरा के अन्तर्गत गौरादेवी सहित अनेक महिलाओं ने सत्याग्रह भी किया। आन्दोलनकारी महिलाओं का मत है कि ठेकेदारों के द्वारा आन्दोलन के दौरान बहुत अत्याचार किया जाता है लेकिन स्थानीय पुलिस तथा प्रशासन द्वारा उनका ही पक्ष लिया जाता है।
अनेक वैज्ञानिक और पर्यावरणविदों का मत है कि इन परियोजनाओं में भू गर्भ संरचना की जो चिन्ता होना चाहिये वह नदारद है। इस आशंका के बावजूद विकास नाम विनाश के बीच सन्तुलन का ध्यान नहीं रखा गया। केदार नाथ कांड पर लोक सभा मे चर्चा के दौरान श्रीमती सुषमा स्वराज ने यह मांग की थी कि गंगा मैया पर बनने वाले सारे बांध निरस्त किये जांय। यह बात कांग्रेस सरकार के जमाने की है।
पर्यावरण वैज्ञानिकों के अनुसार पन बिजली योजनाओं की भूख बढ़ती गई। इनके लिये नदियों के स्वाभाविक बहाव को रोका गया। यही तबाही का कारण है। इसके विपरीत संयुक्त राज्य अमेरिका और कुछ विकसित देशों का जल विद्युत परियोजनाओं का अनुभव अच्छा नहीं है। इन देशों का अनुभव यह है कि जल विद्युत परियोजनाओं में रख रखाव का खर्च अधिक होता है। अब ये परियोजनाएं सरकारी हों या प्रायवेट , इनकी लागत और रख रखाव का का भार अन्तत: जनता को ही उठाना पड़ता है। एक बात और , पन बिजली योजनाओं में पूरे वर्ष बिजली प्राप्त नहीं की जा सकती। भारत में केवल चार प्रतिशत बांध ऐसे हैं जहां निरन्तर जल विद्युत पैदा की जाती है।
चमोली की आपदा प्राकृतिक थी जिसे पनबिजली परियोजनाओ ने अधिक व्यापक कर दिया। प्रश्न यही है कि क्या इस बार अधिक सतर्कता से काम होगा और इन परियोजनाओं पर नियंत्रण लगेगा या हिमालय को ही चेतावनी देने के लिये बाध्य होना पड़ेगा !लेकिन यह लगता है कि उत्तराखंड में शान्ति नहीं है ! नवीनतम समाचार यह है कि धौलीगंगा और ऋषिगंगा नदियों में बाढ़ की स्थिति समाप्त नहीं हुई है।

 

कोरोनाः भारत बना विश्व-त्राता
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कुछ दिन पहले जब मैंने लिखा था कि कोरोना का टीका भारत को विश्व की महाशक्ति के रूप में उभार रहा है तो कुछ प्रबुद्ध पाठकों ने मुझे कहा था कि आप मोदी सरकार को जबर्दस्ती इसका श्रेय दे रहे हैं। इसका श्रेय आप जिसे चाहें दें या न दें, जो बात मैंने लिखी थी, उस पर विश्व स्वास्थ्य संगठन के महासचिव एंतोनियो गुतरेस ने मोहर लगा दी है।
गुतरेस ने कहा है कि कोरोना के युद्ध में भारत ने विश्व का नेतृत्व किया है। वह विश्व-त्राता बन गया है। जैसा कि मैं दशकों से लिखता रहा हूं कि भारत को हमें भयंकर महाशक्ति नहीं, प्रियंकर महाशक्ति बनाना है, उसका अब शुभारंभ हो गया है। भारत ने दुनिया के लगभग 150 देशों को कोरोना के टीके, जांच किट, पीपीई और वेंटिलेटर उपलब्ध करवाए हैं। इन देशों से भारत ने इन चीजों के पैसे या तो नाम-मात्र के लिए हैं या बिल्कुल नहीं लिए हैं। संयुक्तराष्ट्र संघ की शांति सेना को दो लाख टीके भारत ने भेंट किए हैं। अभी तक भारत लगभग ढाई करोड़ टीके कई देशों को भेज चुका है। उन देशों के राष्ट्रपतियों और प्रधानमंत्रियों ने भारत का बहुत आभार माना है। इसका श्रेय भारत के वैज्ञानिकों, दवा-उत्पादकों और स्वास्थ्य मंत्रालय को अपने आप मिल रहा है। यदि भारत सरकार इस संकट में आयुर्वेदिक काढ़े को भी सारे विश्व में फैला देती तो भारत को अरबों रु. की आमदनी तो होती ही, भारत की महान और प्राचीन चिकित्सा-पद्धति सारे विश्व में लोकप्रिय हो जाती लेकिन हमारे नेताओं में आत्म-विश्वास और आत्म-गौरव की इतनी कमी है कि वे नौकरशाहों के इशारे पर ही थिरकते रहते हैं। कोरोना युद्ध में भारत की विजय सारी दुनिया में बेजोड़ हैं। अमेरिका-जैसे शक्तिशाली और साधन-संपन्न देश में 5 लाख से ज्यादा लाख लोग मर चुके हैं। जो देश भारत के प्रांतों से भी छोटे हैं, उनमें हताहत होनेवालों की संख्या देखकर हमें हतप्रभ रह जाना पड़ता है। ऐसा क्यों है ? इसका कारण भारत की जीवन-पद्धति, खान-पान और चिकित्सा-पद्धति है। दुनिया के सबसे ज्यादा शाकाहारी भारत में रहते हैं। जो मांसाहार करते हैं, वे भी इन दिनों शाकाहारी हो गए हैं। हमारे भोजन में रोजाना इस्तेमाल होनेवाले मसाले हमारी प्रतिरोध-शक्ति को बढ़ाते हैं। हमारी नमस्ते लोगों में शारीरिक दूरी अपने आप बना देती है। मेरे आग्रह पर आयुष मंत्रालय ने काढ़े की कोरोड़ों पुड़ियां बटवाईं। इन सब का सुपरिणाम है कि भारत की गरीबी, गंदगी और भीड़-भाड़ के बावजूद आज भारत कोरोना को मात देने में सारे देशों में सबसे अग्रणी है। यदि भारत सरकार थोड़ी ढील दे दे और गैर-सरकारी स्तर पर भी टीकाकरण की शुरुआत करवा दे तो कुछ ही दिनों में 50-60 करोड़ लोग टीका लगवा लेंगे।

दक्षिण भारत कांग्रेस मुक्त
सिद्धार्थ शंकर
अंतत: दक्षिण भारतीय केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में भी कांग्रेस की सरकार गिर गई। वी. नारायणसामी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार सोमवार को विधानसभा में बहुमत साबित नहीं कर पाई और विश्वास मत हारने के बाद मुख्यमंत्री वी. नारायणसामी ने राजभवन जाकर उपराज्यपाल तमिलिसाई सुंदरराजन को अपना इस्तीफा सौंप दिया। पिछले कई दिनों से कई विधायकों के इस्तीफे के बाद कांग्रेस-द्रमुक गठबंधन सरकार के पास सदन में संख्याबल घटकर 11 रह गया था, जबकि विपक्ष के पास 14 विधायक थे। कांग्रेस के भीतर पिछले दो वर्षों से नारायणसामी को हटाने के लिए कई महत्वपूर्ण कांग्रेसी नेता पिछले दरवाजे से कोशिश कर रहे थे। लेकिन राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा उन्हें रोकते रहे थे। नमशिवायम नाम के कांग्रेस के एक बहुत ही वरिष्ठ मंत्री को आगे बढऩे का मौका नहीं मिल रहा था, इसलिए वह कांग्रेस से इस्तीफा देकर भाजपा में चले गए। वह आगामी चुनाव में मुख्यमंत्री बनना चाहते थे। लेकिन राहुल गांधी ने आगामी चुनाव के लिए भी नारायणसामी को ही मुख्यमंत्री का चेहरा बताया। तभी से कांग्रेस में असंतोष था। इधर कांग्रेस के कई विधायकों ने विधानसभा से इस्तीफा दे दिया। इसी का नतीजा है कि नारायणसामी सरकार ने अपना बहुमत खो दिया। एक तरह से देखें, तो कांग्रेस मुक्त भारत का जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का नारा था, वह दक्षिण भारत में पूरा हो गया है। सच्चाई यह है कि दक्षिण भारत के किसी भी राज्य में अब कांग्रेस की सरकार नहीं बची है। इस घटनाक्रम का राजनीतिक महत्व यह है कि अन्नाद्रमुक इस बार तमिलनाडु में पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ेगी और पुडुचेरी उसने भाजपा के लिए छोड़ दिया है। उम्मीद की जा रही है कि आगामी चुनाव में पुडुचेरी में भाजपा सत्ता में आ जाएगी, क्योंकि एन रंगास्वामी को मुख्यमंत्री का चेहरा बनाकर अन्नाद्रमुक, एनआर कांग्रेस और भाजपा गठबंधन को 15 से 16 सीटें मिल जाएंगी। वहां सात सीट अन्नाद्रमुक को और पांच-छह सीटें भाजपा को मिल सकती हैं। तीन मनोनीत सदस्यों की सीटें भी भाजपा को मिलेंगी। यानी कांग्रेस के लिए मुश्किलें और बढऩे वाली हैं।
पुडुचेरी की इस सियासी हलचल का असर निश्चित रूप से तमिलनाडु की राजनीति पर भी पड़ेगा। तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक के बीच कांटे की लड़ाई है। इसी तरह पुडुचेरी में भी दोनों के बीच कड़ी टक्कर है। लेकिन नरेंद्र मोदी और अमित शाह की जोड़ी के चलते इन दोनों राज्यों में इस बार के चुनाव में भाजपा अपनी गहरी पैठ बनाएगी। 234 सीटों वाली तमिलनाडु विधानसभा चुनाव में भाजपा 25 सीटों पर चुनाव लडऩे वाली है, जिसमें से पांच-छह सीटों पर उसके जीतने की संभावना है। इसी तरह पुडुचेरी में भी भाजपा पांच से छह सीटों पर जीत हासिल कर सकती है। यानी जहां-जहां कांग्रेस मजबूत थी, वहां-वहां भाजपा अपनी पैठ जमाती जा रही है।
अब सवाल उठता है कि वी. नारायणसामी सरकार के पतन के बाद आखिर पुडुचेरी का क्या होगा। उप राज्यपाल के पास क्या विकल्प है? क्या वहां फिर से कोई नई सरकार बनेगी अथवा राष्ट्रपति शासन लगाया जाएगा? एस आर बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद उप राज्यपाल के पास पहला विकल्प है कि जिस पक्ष के पास बहुमत है, उसे सरकार गठन के लिए आमंत्रित करना। इसलिए वह एन रंगास्वामी को सरकार गठन के लिए बुला सकती हैं। एन रंगास्वामी या तो सरकार बनाने का दावा कर सकते हैं या नहीं भी कर सकते हैं। इसी बीच एक-दो दिन के भीतर चुनाव आयोग तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, असम, पुडुचेरी में आगामी अप्रैल-मई में होने वाले चुनाव की तिथियों की घोषणा कर सकता है। इसलिए हो सकता है कि उप राज्यपाल चुनाव का इंतजार करें अथवा केंद्र सरकार के कानून मंत्रालय से कानूनी सलाह लें। इन सब चीजों का कानूनी तौर पर अध्ययन करके वह कोई फैसला कर सकती हैं।

क्या अब मिलेगी अपनी बात छिपाने की आजादी?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले तीन-चार सौ साल से दुनिया में एक बड़ी लड़ाई चल रही है। उसका नाम है, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता। ब्रिटेन, यूरोप, अमेरिका और भारत-जैसे कई देशों में तो यह नागरिकों को उपलब्ध हो गई है लेकिन आज भी चीन, रूस और कुछ अफ्रीकी और अरब देशों में इसके लिए लड़ाइयाँ जारी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता क्या है ? अपने दिल की बात बताने की स्वतंत्रता ! लेकिन आजकल एक नई लड़ाई सारी दुनिया में छिड़ गई है। वह है, अपनी बात बताने की नहीं, छिपाने की स्वतंत्रता। छिपाने का अर्थ क्या है ? यही कि आपने किसी से फोन पर या ईमेल पर कोई बात की तो उसे कोई तीसरा व्यक्ति न जान पाए। वह तभी जाने जबकि आप उसे अनुमति दें।
आजकल मोबाइल फोन और इंटरनेट की तकनीकी का कमाल ऐसा हो गया है कि करोड़ों लोग हर रोज़ अरबों-खरबों संदेशों का लेन-देन करते रहते हैं लेकिन उनमें से ज्यादातर को यह पता नहीं है कि उनके एक-एक शब्द पर कुछ खास लोगों की नजर रहती है। कौन हैं, ये खास लोग? ये हैं, व्हाट्साप और फेसबुक के अधिकारी लोग! उन्होंने ऐसी तरकीबें निकाल रखी हैं कि आपकी कितनी भी गोपनीय बात हो, वे उसे सुन और पढ़ सकते हैं। ऐसा करने के पीछे उनका स्वार्थ है। वे आप पर जासूसी कर सकते हैं, आपको आर्थिक नुकसान पहुंचा सकते हैं, वे आपके फैसलों को बदलवा सकते हैं, आपके पारस्परिक संबंधों को बिगाड़ सकते हैं। यही शक्ति वे सरकार के मंत्रियों, सांसदों और अधिकारियों के विरूद्ध भी इस्तेमाल कर सकते हैं।
इसीलिए यह मांग उठ रही है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की तरह निजता याने गोपनीयता की स्वतंत्रता की भी कानूनी गारंटी हो। हमारे संविधान में निजता की कोई गारंटी नहीं है। 2017 में हमारे सर्वोच्च न्यायालय में इस मुद्दे पर जमकर बहस हुई थी। अब 2021 में भी सर्वोच्च न्यायालय में यही मुद्दा जोरों से उठा है। लेकिन दोनों में बड़ा फर्क है। जुलाई 2017 में कुछ याचिकाकर्त्ताओं ने मांग की थी कि निजता को भी अभिव्यक्ति की तरह संविधान में मूल अधिकार की मान्यता दी जाए लेकिन तब सरकारी वकील ने तर्क दिया कि यदि निजता को मूल अधिकार बना दिया गया तो उसकी आड़ में वेश्यावृत्ति, तस्करी, विदेशी जासूसी, ठगी, आपराधिक, राष्ट्र्रद्रोही और आतंकी गतिविधियां बेखटके चलाई जा सकती हैं। उसने सर्वोच्च न्यायालय के 1954 और 1956 के दो फैसलों का जिक्र भी किया था, जिनमें निजता के अधिकार को मान्य नहीं किया गया था।
लेकिन अब सरकारी वकील निजता के अधिकार के लिए सर्वोच्च न्यायालय में पूरा जोर लगाए हुए हैं। क्यों ? क्योंकि व्हाटसाप और फेसबुक जैसी कंपनियों के बारे में शिकायतें आ रही हैं कि वे निजी संदेशों की जासूसी करके बेशुमार फायदे उठा रही हैं। व्हाटसाप के जरिए भेजे जानेवाले संदेशों से इतना फायदा उठाया जाता है कि व्हाट्साप को फेसबुक ने 19 अरब डॉलर जैसी मोटी रकम देकर खरीद लिया है। हर व्हाटसाप संदेश के ऊपर यह लिखा हुआ आता है कि आपके संदेश या वार्ता को कोई न पढ़ सकता है, न सुन सकता है लेकिन इस साल उसने घोषणा कर दी थी कि 8 फरवरी 2021 से उसके हर संदेश या बातचीत को फेसबुक देख सकेगी। यह खबर निकलते ही इतना हंगामा मचा की व्हाट्साप ने इस तारीख को आगे खिसकाकर 15 मई कर दिया।
लोग इतने डर गए कि लाखों लोगों ने व्हाट्साप की जगह तत्काल ‘सिग्नल, ‘टेलीग्राम’ और ‘बोटिम’ जैसे नए माध्यमों को पकड़ लिया। देश में आजकल जैसा माहौल है, ज्यादातर मंत्रिगण, नेता, पत्रकार और बड़े व्यापारी लोग व्हाट्साप के इस्तेमाल को ही सुरक्षित समझते हैं। इसीलिए भारत सरकार ने 2018 में ‘व्यक्तिगत संवाद रक्षा कानून’ के निर्माण पर बहस चलाई है। उसमें दर्जनों संशोधन आए हैं और संसद के इसी सत्र में वह शायद कानून भी बन सकता है। यह कानून ऐसा बन रहा है, जिसमें व्यक्तिगत निजता की तो पूरी गारंटी होगी लेकिन राष्ट्रविरोधी और आपराधिक गतिविधियों को पकड़ने की छूट होगी।
आजकल सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकील फेसबुक के वकीलों से जमकर बहस कर रहे हैं और पूछ रहे हैं कि यूरोप में आप जिस नीति को पिछले दो साल से चला रहे हैं, वह आप भारत में क्यों नहीं चलाते ? यूरोपीय संघ ने लंबे विचार विमर्श के बाद निजता-भंग पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए हैं और उसका उल्लंघन करनेवाली कंपनियों पर भारी जुर्माना ठोक दिया है। व्यक्ति-विशेष की अनुमति के बिना उसके संदेश को किसी भी हालत में कोई नहीं पढ़ सकता। 16 साल की उम्र के बाद ही बच्चे व्हाट्साप का इस्तेमाल कर सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने भी निजता के अधिकार की रक्षा में गहरी रूचि दिखाई है। चीफ जस्टिस एस ए बोबडे की अध्यक्षतावाली पीठ ने फेसबुक के लोगों को कहा है कि ‘‘आप होंगे, दो-तीन ट्रिलियन की कंपनी, लेकिन लोगों की निजता उससे ज्यादा कीमती है। हर हाल में उसकी रक्षा हमारा फर्ज है।’’ न्यायपीठ ने व्हाट्साप से कहा है कि वह चार हफ्तों में अपनी प्रतिक्रिया दे। फेसबुक के वकीलों ने कहा है कि यदि भारतीय संसद यूरोप-जैसा कानून बना देगी तो हम उसका भी पालन करेंगे। हमारी संसद को यही सावधानी रखनी होगी कि निजता का यह कानून बनाते वक्त वह कृषि-कानूनों की तरह जल्दबाजी न करे।

हादसे दर हादसे
सिद्धार्थ शंकर
मध्यप्रदेश के सीधी जिले में मंगलवार सुबह 7:30 बजे बड़ा हादसा हो गया। ड्राइवर समेत 62 लोगों के साथ सतना जा रही बस 22 फीट गहरी बाणसागर नहर में गिर गई। हादसे में 50 से ज्यादा लोगों की मौत हुई है। मरने वालों में 16 यात्रियों की उम्र 25 साल या कम है। 51 शवों के पोस्टमॉर्टम के लिए रामपुर नैकिन में डॉक्टर कम पड़ गए। जिलेभर से डॉक्टरों को बुलाया गया, तब सभी शवों का पोस्टमॉर्टम हुआ। बीते कुछ दिनों में एक के बाद एक हादसे हुए हैं, जिसमें 10 से ज्यादा लोगों की जान गई है। माना कि हादसों पर किसी का नियंत्रण नहीं है और सरकार भी सिर्फ कानून ही बना सकती है, लेकिन सवाल है कि जिन इलाकों में आम लोगों की आवाजाही हो या किसी भी वजह से उनकी मौजूदगी हो, उसमें एक वाहन की रफ्तार कैसे इतनी थी कि उस पर चालक का नियंत्रण नहीं रहा! फिर सड़क यातायात का नियमन करने वाले महकमे की ड्यूटी क्या थी? अब हादसे की भयावहता के मद्देनजर एक रस्म तरह सरकार की ओर से यह घोषणा कर दी गई है कि समूची घटना की जांच कराई जाएगी और पीडि़तों और मृतकों के परिजनों को मुआवजा दिया जाएगा। संभव है कि यह हादसे के शिकार लोगों के परिवारों के लिए किसी राहत जैसा हो, लेकिन क्या इस तरह की औपचारिकताएं समस्या का वास्तविक समाधान या फिर विकल्प हो सकती हैं? ऐसा नहीं है कि सरकारें चाहें तो इन हालात से निपटा नहीं जा सकता। सड़क यातायात को नियंत्रित करने के लिए एक समूचा महकमा काम करता है। फिर भी वाहनों के नियंत्रण खो देने की घटनाएं अब चौंकाती नहीं हैं। मगर अक्सर वाहनों के बेलगाम हो जाने के बाद हुए हादसे और उसमें नाहक ही लोगों के मारे जाने की त्रासदी के बाद जांच और मुआवजे की औपचारिकताएं जरूर सामने आती हैं।
यह समझना मुश्किल है कि वाहन चलाते हुए लोगों को यह ध्यान रखना जरूरी क्यों नहीं लगता कि बेहद मामूली लापरवाही की वजह से अगर गाड़ी का संतुलन बिगड़ा तो न केवल दूसरों की, बल्कि खुद उनकी जान भी जा सकती है। लगता है, हमारे यहां ज्यादातर लोग सड़कों पर सिर्फ वाहन चलाना जानते हैं, सड़क-सुरक्षा से जुड़े नियम-कायदों का पालन करना उन्हें जरूरी नहीं लगता। जबकि ऐसी दुर्घटनाओं में से लगभग सभी में यही बात सामने आती है कि किसी खास वाहन के चालक ने नियमों को धता बता दिया था। यह बेवजह नहीं है कि देश भर में होने वाले सड़क हादसों में रोजाना सैकड़ों लोग मारे जाते हैं। एक अध्ययन के मुताबिक दुनिया भर में हर साल सड़क हादसों में होने वाली मौतों का दसवां हिस्सा अकेले भारत का होता है। खुद भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2015 में देश भर में पांच लाख से ज्यादा सड़क दुर्घटनाएं हुईं, जिसमें करीब डेढ़ लाख लोगों की जान चली गई।
यह आंकड़ा इसलिए चिंताजनक है कि इतने लोग आपदाओं, आतंकवादी हमलों या फिर अन्य संघर्षों में भी नहीं मारे जाते। फर्क यह है कि आतंकी हमलों जैसी घटनाओं में मारे गए लोगों की गिनती होती है, लेकिन हादसों में जान गंवाने वालों के आंकड़े हमें परेशान नहीं करते। जबकि सड़क हादसों में मारे जाने वालों में ज्यादातर लोग कामकाजी होते हैं और उनमें ज्यादा संख्या युवाओं की होती है। यानी ये हादसे न केवल बड़ी तादाद में जनक्षति की वजह बनते हैं, बल्कि इनसे देश की अर्थव्यवस्था को भी भारी नुकसान होता है। विधि आयोग की एक रिपोर्ट के मुताबिक अगर सड़क दुर्घटना के एक घंटे के भीतर घायलों को अस्पताल पहुंचा दिया जाए या उन्हें आपात चिकित्सा मिल जाए तो करीब पचास फीसद की जान बचाई जा सकती है। लेकिन एक बड़ी समस्या यह भी है कि बहुत सारे लोगों की जान इसलिए भी चली जाती है कि हादसे के बाद अगर कोई व्यक्ति बुरी तरह घायल अवस्था में होता है तो उसे समय रहते आपात चिकित्सा की सुविधा नहीं मिल पाती। सड़क सुरक्षा को सुनिश्चित करने वाले तंत्र से लेकर लोगों की अपने स्तर पर सुरक्षित वाहन चलाने को लेकर जागरूकता की भूमिका जब तक सक्रिय नहीं होगी, तब तक ऐसी घटनाएं देश के लिए बड़े नुकसान की वजह बनती रहेंगी।

किसका विरोध, क्या जनता का ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय ने जन-प्रदर्शनों के बारे में जो ताज़ा फैसला किया है, उससे उन याचिकाकर्ताओं को निराशा जरूर हुई होगी, जो विरोध-प्रदर्शन के अधिकार के लिए लड़ रहे हैं। यदि किसी राज्य में जनता को विरोध-प्रदर्शन का अधिकार न हो तो वह लोकतंत्र हो ही नहीं सकता। विपक्ष या विरोध तो लोकतंत्र की मोटरकार में ब्रेक की तरह होता है। विरोधरहित लोकतंत्र तो बिना ब्रेक की गाड़ी बन जाता है। अदालत ने विरोध-प्रदर्शन, धरने, अनशन, जुलूस आदि को भारतीय नागरिकों का मूलभूत अधिकार माना है लेकिन उसने यह भी साफ़-साफ़ कहा है कि उक्त सभी कार्यों से जनता को लंबे समय तक असुविधा होती है तो उन्हें रोकना सरकार का अधिकार है। अदालत की यह बात एकदम सही है, क्योंकि आम जनता का कोई हुक्का-पानी बंद कर दे तो यह भी उसके मूलभूत अधिकारों का उल्लंघन है। यह सरकार का नहीं, जनता का विरोध है। प्रदर्शनकारी तो सीमित संख्या में होते हैं लेकिन उनके धरनों से असंख्य लोगों की स्वतंत्रता बाधित हो जाती है। लाखों लोगों को लंबे-लंबे रास्तों से गुजरना पड़ता है, धरना-स्थलों के आस-पास के कल-कारखाने बंद हो जाते हैं और सैकड़ों छोटे-व्यापारियों की दुकानें चौपट हो जाती हैं। गंभीर मरीज़ अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते दम तोड़ देते हैं। शाहीन बाग और किसानों जैसे धरने यदि हफ्तों तक चलते रहते हैं तो देश को अरबों रु. का नुकसान हो जाता है। रेल रोको अभियान सड़कबंद धरनों से भी ज्यादा दुखदायी सिद्ध होते हैं। ऐसे प्रदर्शनकारी जनता की भी सहानुभूति खो देते हैं। उनसे कोई पूछे कि आप किसका विरोध कर रहे हैं, सरकार का या जनता का ? इस तरह के धरने चलाने के पहले अब पुलिस की अनुमति लेना जरुरी होगी, वरना पुलिस उन्हें हटा देगी। पता नहीं, दिल्ली सीमा पर चल रहे लंबे धरने पर बैठे किसान अब अदालत की सुनेंगे या नहीं। इन धरनों और जुलूसों से एक-दो घंटे के लिए यदि सड़कें बंद हो जाती हैं और कुछ सार्वजनिक स्थानों पर प्रदर्शनकारियों का कब्जा हो जाता है तो कोई बात नहीं लेकिन यदि इन पैंतरों से मानव-अधिकारों का लंबा उल्लंघन होगा तो पुलिस-कार्रवाई न्यायोचित ही कही जाएगी। पिछले 60-65 वर्षों में मैंने ऐसे धरने, प्रदर्शन, जुलूस और अनशन दर्जनों बार स्वयं आयोजित किए हैं लेकिन इंदौर, दिल्ली, लखनऊ, वाराणसी, भोपाल, नागपुर आदि शहरों की पुलिस ने उन पर कभी भी लाठियां नहीं बरसाईं। महात्मा गांधी ने यही सिखाया है कि हमें अपने प्रदर्शनों को हमेशा अहिंसक और अनुशासित रखना है। उन्होंने चौरीचौरा का आंदोलन बंद क्यों किया था, क्योंकि आंदोलनकारियों ने वहां हत्या और हुड़दंग मचा दिया था।

सरस्वती माँ विवेक की देवी हैं
प्रो (डॉ)शरद नारायण खरे
सरस्वती को वागीश्वरी, भगवती, शारदा और वीणावादिनी सहित अनेक नामों से संबोधित जाता है। ये सभी प्रकार के ब्रह्म विद्या-बुद्धि एवं वाक् प्रदाता हैं। संगीत की उत्पत्ति करने के कारण ये संगीत की अधिष्ठात्री देवी भी हैं। ऋग्वेद में भगवती सरस्वती का वर्णन करते हुए कहा गया है कि, प्रणो देवी सरस्वती परम चेतना हैं। सरस्वती के रूप में वे हमारी बुद्धि, प्रज्ञा तथा मनोवृत्तियों की संरक्षिका हैं। हम में जो आचार और मेधा है उसका आधार भगवती सरस्वती ही हैं। इनकी समृद्धि और स्वरूप का वैभव अद्भुत है। कई पुराणों के अनुसार नित्यगोलोक निवासी श्रीकृष्ण भगवान ने सरस्वती से प्रसन्न होकर कहा कि उनकी बसंत पंचमी के दिन विशेष आराधना करने वालों को ज्ञान विद्या कला मे चरम उत्कर्ष प्राप्त होगा । इस सत्य के फलस्वरूप भारत में वसंत पंचमी के दिन ब्रह्मविद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की पूजा होने कि परंपरा आज तक जारी है।
सरस्वती को साहित्य, संगीत, कला की देवी माना जाता है। उसमें विचारणा, भावना एवं संवेदना का त्रिविध समन्वय है। वीणा संगीत की, पुस्तक विचारणा की,वे हंस-वाहन कला की अभिव्यक्ति हैं। लोक चर्चा में सरस्वती को शिक्षा की देवी माना गया है। शिक्षा संस्थाओं में वसंत पंचमी को सरस्वती का जन्म दिन समारोह पूर्वक मनाया जाता है। पशु को मनुष्य बनाने का ,अंधे को नेत्र मिल जाने का श्रेय शिक्षा को दिया जाता है। मनन से मनुष्य बनता है। मनन बुद्धि का विषय है। भौतिक प्रगति का श्रेय बुद्धि-वर्चस् को दिया जाना और उसे सरस्वती का अनुग्रह माना जाना उचित भी है। इस उपलब्धि के बिना मनुष्य को नर-वानरों की तरह वनमानुष जैसा जीवन बिताना पड़ता है। शिक्षा की गरिमा-बौद्धिक विकास की आवश्यकता जन-जन को समझाने के लिए सरस्वती अर्चना की परम्परा है। इसे प्रकारान्तर से गायत्री महाशक्ति के अंतगर्त बुद्धि पक्ष की आराधना कहना चाहिए।
सरस्वती के एक मुख, चार हाथ हैं। मुस्कान से उल्लास, दो हाथों में वीणा-भाव संचार एवं कलात्मकता की प्रतीक है। पुस्तक से ज्ञान और माला से ईशनिष्ठा-सात्त्विकता का बोध होता है। वाहन राजहंस -सौन्दर्य एवं मधुर स्वर का प्रतीक है। इनका वाहन राजहंस माना जाता है और इनके हाथों में वीणा, वेदग्रंथ और स्फटिक माला होती है। भारत में कोई भी शैक्षणिक कार्य के पहले इनकी पूजा की जाती है।
कहते हैं कि महाकवि कालिदास, वरदराजाचार्य, वोपदेव आदि मंद बुद्धि के लोग सरस्वती उपासना के सहारे उच्च कोटि के विद्वान् बने थे। इसका सामान्य तात्पर्य तो इतना ही है कि ये लोग अधिक मनोयोग एवं उत्साह के साथ अध्ययन में रुचिपूवर्क संलग्न हो गए और अनुत्साह की मनःस्थिति में प्रसुप्त पड़े रहने वाली मस्तिष्कीय क्षमता को सुविकसित कर सकने में सफल हुए होंगे। इसका एक रहस्य यह भी हो सकता है कि कारणवश दुर्बलता की स्थिति में रह रहे बुद्धि-संस्थान को सजग-सक्षम बनाने के लिए वे उपाय-उपचार किए गए जिन्हें ‘सरस्वती आराधना’ कहा जाता है। उपासना की प्रक्रिया भाव-विज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है। श्रद्धा और तन्मयता के समन्वय से की जाने वाली साधना-प्रक्रिया एक विशिष्ट शक्ति है। मनःशास्त्र के रहस्यों को जानने वाले स्वीकार करते हैं कि व्यायाम, अध्ययन, कला, अभ्यास की तरह साधना भी एक समर्थ प्रक्रिया है, जो चेतना क्षेत्र की अनेकानेक रहस्यमयी क्षमताओं को उभारने तथा बढ़ाने में पूणर्तया समर्थ है। सरस्वती उपासना के संबंध में भी यही बात है। उसे शास्त्रीय विधि से किया जाय तो वह अन्य मानसिक उपचारों की तुलना में बौद्धिक क्षमता विकसित करने में कम नहीं, अधिक ही सफल होती है।
मन्दबुद्धि लोगों के लिए गायत्री महाशक्ति का सरस्वती तत्त्व अधिक हितकर सिद्घ होता है। बौद्धिक क्षमता विकसित करने, चित्त की चंचलता एवं अस्वस्थता दूर करने के लिए सरस्वती साधना की विशेष उपयोगिता है। मस्तिष्क-तंत्र से संबंधित अनिद्रा, सिर दर्द्, तनाव, जुकाम जैसे रोगों में गायत्री के इस अंश-सरस्वती साधना का लाभ मिलता है। कल्पना शक्ति की कमी, समय पर उचित निणर्य न कर सकना, विस्मृति, प्रमाद, दीघर्सूत्रता, अरुचि जैसे कारणों से भी मनुष्य मानसिक दृष्टि से अपंग, असमर्थ जैसा बना रहता है और मूर्ख कहलाता है। उस अभाव को दूर करने के लिए सरस्वती साधना एक उपयोगी आध्यात्मिक उपचार है।
शिक्षा के प्रति जन-जन के मन-मन में अधिक उत्साह भरने-लौकिक अध्ययन और आत्मिक स्वाध्याय की उपयोगिता अधिक गम्भीरता पूवर्क समझने के लिए भी सरस्वती पूजन की परम्परा है। बुद्धिमत्ता को बहुमूल्य सम्पदा समझा जाय और उसके लिए धन कमाने, बल बढ़ाने, साधन जुटाने, मोद मनाने से भी अधिक ध्यान दिया जाता है। महाशक्ति गायत्री मंत्र उपासना के अंतर्गत एक महत्त्वपूर्ण धारा सरस्वती की मानी गयी है संध्यावंदन मे प्रातः सावित्री, मध्यान्ह गायत्री एवं सायं सरस्वती ध्यान से युक्त त्रिकाल संध्यावंदन करने की विधा है। सरस्वती के स्वरूप एवं आसन आदि का संक्षिप्त तात्त्विक विवेचन इस तरह है-
“या कुन्देन्दुतुषारहारधवला या शुभ्रवस्त्रावृता
या वीणावरदण्डमण्डितकरा या श्वेतपद्मासना।
या ब्रह्माच्युत शंकरप्रभृतिभिर्देवैः सदा वन्दिता
सा मां पातु सरस्वती भगवती निःशेषजाड्यापहा ॥
शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमामाद्यां जगद्व्यापिनीं
वीणा-पुस्तक-धारिणीमभयदां जाड्यान्धकारापहाम्‌।
हस्ते स्फटिकमालिकां विदधतीं पद्मासने संस्थिताम्‌
वन्दे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदाम्‌॥”
जो विद्या की देवी भगवती सरस्वती कुन्द के फूल, चंद्रमा, हिमराशि और मोती के हार की तरह धवल वर्ण की हैं और जो श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, जिनके हाथ में वीणा-दण्ड शोभायमान है, जिन्होंने श्वेत कमलों पर आसन ग्रहण किया है तथा ब्रह्मा, विष्णु एवं शंकर आदि देवताओं द्वारा जो सदा पूजित हैं, वही संपूर्ण जड़ता और अज्ञान को दूर कर देने वाली माँ सरस्वती हमारी रक्षा करें।
शुक्लवर्ण वाली, संपूर्ण चराचर जगत्‌ में व्याप्त, आदिशक्ति, परब्रह्म के विषय में किए गए विचार एवं चिंतन के सार रूप परम उत्कर्ष को धारण करने वाली, सभी भयों से भयदान देने वाली, अज्ञान के अँधेरे को मिटाने वाली, हाथों में वीणा, पुस्तक और स्फटिक की माला धारण करने वाली और पद्मासन पर विराजमान्‌ बुद्धि प्रदान करने वाली, सर्वोच्च ऐश्वर्य से अलंकृत, भगवती शारदा (सरस्वती देवी) की मैं वंदना करता हूँ।
तो,हम सब यही कामना करते हैं कि हे ज्ञान की देवी,विद्या-बुद्धि व विवेक की अधिष्ठात्री मां सरस्वती आप हमारे चेतना को सद्गुणों से परिपूर्ण कर हमारा जीवन सफल बनाएं।

देश को इंदौर दिखाए रास्ता
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
इंदौर के कुछ प्रमुख व्यापारियों ने कल एक ऐसा काम कर दिखाया है, जिसका अनुकरण देश के सभी व्यापारियों को करना चाहिए। इंदौर के नमकीन और मिठाई व्यापारियों ने शपथ ली है कि वे अपने बनाए नमकीनों और मिठाइयों में किसी तरह की मिलावट नहीं करेंगे। वे इनमें कोई ऐसे घी, तेल और मसाले का उपयोग नहीं करेंगे, जो सेहत के लिए नुकसानदेह हो। यह शपथ मुंहजबानी नहीं है। 400 व्यापारी यह शपथ बाकायदा 50 रु. के स्टाम्प पेपर पर नोटरी करवाकर ले रहे हैं। इन व्यापारियों के संगठनों ने घोषणा की है कि जो भी व्यापारी मिलावट करता पाया गया, उसकी सदस्यता ही खत्म नहीं होगी, उसके खिलाफ त्वरित कानूनी कार्रवाई भी होगी। व्यापारियों पर नजर रखने के लिए इन संगठनों ने जांच-दल भी बना लिया है लेकिन मप्र के उच्च न्यायालय ने जिला-प्रशासन को निर्देश दिया है कि किसी व्यापारी के खिलाफ थाने में रपट लिखवाने के पहले उसके माल पर जांचशाला की रपट को आने दिया जाए। एक-दो व्यापारियों को जल्दबाजी में पकड़कर जेल में डाल दिया गया था। नमकीन और मिठाई का कारोबार इंदौर में कम से कम 800 करोड़ रु. सालाना का है। इंदौर की ये दोनों चीजें सारे भारत में ही नहीं, विदेशों में भी लोकप्रिय हैं। इनमें मिलावट के मामले सामने तो आते हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। महिने में मुश्किल से 8-10 ! लेकिन इन संगठनों का संकल्प है कि देश में इंदौर जैसे स्वच्छता का पर्याय बन गया है, वैसे ही यह खाद्यान्न शुद्धता का पर्याय बन जाए। इंदौर के व्यापारी लगभग 50 टन तेल रोज़ वापरते हैं। इनमें से 40 व्यापारी अपने तेल को सिर्फ एक बार ही इस्तेमाल करते हैं। इस्तेमाल किए हुए तेल को वे बायो-डीजल बनाने के लिए बेच देते हैं। यदि सारे देश के व्यापारी इंदौरियों से सीखें तो देश का नक्शा ही बदल जाए। इंदौर के व्यापारियों ने अभी सिर्फ खाद्यान्न की शुद्धता का रास्ता खोला है, यह रास्ता भारत से मिलावट, भ्रष्टाचार और सारे अपराधों को लगभग शून्य कर सकता है। इसने सिद्ध किया है कि कानून से भी बड़ी कोई चीज है तो वह है- आत्म-संकल्प! देश के करोड़ों लोग शराब नहीं पीते, मांस नहीं खाते, व्यभिचार नहीं करते तो क्या यह सब वे कानून के डर से नहीं करते ? नहीं। ऐसा वे अपने संस्कार, अपने संकल्प, अपनी पारिवारिक पंरपरा के कारण करते हैं। यदि देश के नेता और नौकरशाह भी स्वच्छता की ऐसी कोई शपथ ले लें तो इस देश की गरीबी जल्दी ही दूर हो जाएगी, भ्रष्टाचार की जड़ों में मट्ठा डल जाएगा और भारत महाशक्ति बन जाएगा।

संयुक्त राष्ट्र संघ पुनर्गठन की आवश्यकता
रघु ठाकुर
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई थी, उसके पहले प्रथम विश्व युद्ध के समय लीग आफ नेशन्स के नाम की संस्था बनी थी। परन्तु द्वितीय विश्व युद्ध के बाद मित्र राष्ट्रो ने अपनी जीत का लाभ उठाकर संयुक्त राष्ट्र संघ के नाम से वैश्विक संस्था खड़ी की तथा दुनिया की सुरक्षा के नाम पर यू.एन.ओ. की सुरक्षा परिषद में 5 देशों अमेरिका, चीन, ब्रिटेन, रूस और फ्रांस ने वीटो का अधिकार अपने पास रख लिया। उस कालखण्ड की वैश्विक बनावट में उन्हें यह आसान भी रहा क्योंकि रूस मित्र राष्ट्रों के सहयोगी में से एक था और 1917 में बोलसेविकस क्रांति के बाद का साम्यवादी रूस लगभग अमेरिका के समकक्ष विश्व शक्ति था। चीन एक मजबूत साम्यवादी देश के रूप में शक्तिशाली होकर उभरा था। जिन पाँच देशों को सुरक्षा परिषद में वीटो पाॅवर दिया गया उनमें 3 देश यूरोप के थे, याने ब्रिटेन, फ्रांस और रूस तथा अमेरिका भी यूरोपीय नस्ल शासित देश था। द्वितीय विश्व युद्ध में भी उसकी बड़ी भूमिका थी और जापान पर अणुबम के हमले के बाद उसकी शक्ति एक मजबूत ताकत के रूप में स्थापित हो गई थी। याने यूरोप और यूरोपीय नस्ल के बाहर का एक मात्र देश जो सुरक्षा परिषद में वीटो पाॅवर हासिल कर सका वह चीन था। संभव है कि, चीन को शामिल करना इन अन्य देशों की लाचारी हो या फिर कोई दीर्घकालीन रणनीति हो। परन्तु उस समय दुनिया की आबादी लगभग 4 अरब थी उसमें से केवल लगभग 1 अरब की आबादी के सŸााधीशों के पास वीटो पाॅवर था तथा तीन अरब की आबादी इस नवगठित संयुक्त राष्ट्र संघ में सम्पन्न और ताकतवर देशों की पिछलग्गू बना दी गई थी।
संयुक्त राष्ट्र संघ के निर्माण के समय यह लक्ष्य तय किया गया था कि एक तरफ संयुक्त राष्ट्र संघ विश्व में पैदा होने वाले अन्तर देशीय तनाव और परस्पर युद्धों को रोकने के लिए, परमाणु अस्त्रों के प्रसार को रोकने के लिए, विश्व के सम्पूर्ण विकास और प्रगतिशील विश्व बनाने के लिए, कारगर भूमिका अदा करेगा। परन्तु संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना के लगभग 75 वर्ष के बाद आज यह महसूस हो रहा है कि यूरोप अपने बड़े लक्ष्यों को हासिल करने में लगभग पिछड़ रहा है।
यू.एन.ओ. और सुरक्षा परिषद ताकतवर देशों की मनमानी और दादागिरी पर कोई रोक नहीं लगा सका है। यू.एन.ओ. की स्थापना के लगभग 44 साल तक दुनिया दो ध्रुवीय थी तात्पर्य दुनिया दो महाशक्तियों या विश्वशक्तियों में बँटी थी। एक तरफ रूसी खेमा था और दूसरी तरफ अमेरिकी खेमा। इस खेमेबंदी के कुछ दुष्परिणाम थे और उसमें से एक यह था कि संयुक्त राष्ट्र संघ सामूहिक उŸारदायित्वों और न्याय की संस्था के बजाय गुटीय हितों की पूर्ति की संस्था बन गई। वीटो पाॅवर का इस्तेमाल अपने अपने गुटीय हितों के इस्तेमाल के लिए किया जाता रहा। हालांकि इस गुटीय संतुलन से एक यह भी लाभ हुआ कि संयुक्त राष्ट्र संघ किसी एक शक्ति का नहंी बन सका था तथा कुछ गरीब और रंगीन दुनिया की तरक्की के लिए नीति बनाई गई थी जैसे कि विश्व बैंक ने दुनिया की सिंचाई की योजनाओं के लिए पैसा देना शुरू किया था। गरीब देशों के विकास केन्द्रों के लिए विश्व बैंक सस्ती दरों पर ऋण उपलब्ध कराता था तथा अनेकों विकासशील योजनाओं के लिए मदद भी करता था। परन्तु रूस के बिखराव के बाद दो ध्रुवीय दुनिया एक ध्रुवीय बन गई और रूस कमजोर हुआ तथा अमेरिका ही एक मात्र विश्व सम्राट जैसा व्यवहार करने लगा। विश्व बैंक की नीतियां बदल गई और संयुक्त राष्ट्र संघ ने यद्यपि शिक्षा-चिकित्सा-महिला सशक्तीकरण लैगिंक समानता, रंग भेद समाप्ति और जातीयता के विरूद्ध कुछ कार्यक्रम महिला बनाये परन्तु यह कार्यक्रम या तो प्रचार तक सीमित रहे या फिर केवल दिखावे तक सीमित रहे। अगर 2020 में अमेरिका में गोरे पुलिस अफसर सरे आम काले की हत्या करते है, अगर अमेरिका या ब्रिटेन या यूरोप के देश अपने ही देशो में रंग भेद को नहीं मिटा सके तो कहीं न कहीं यह इन देशों की नीयत की खोट है और संयुक्त राष्ट्र संघ की असफलता भी। कुछ मुद्दों को सम्पन्न देशों ने अपने व्यापारिक हितों के लिए इस्तेमाल किया। बाल श्रमिक जैसे महत्व पूर्ण मुद्दे को अमेरिका और यूरोप ने अपने आयात को कम करने के लिए इस्तेमाल किया।
हथियारों और विशेषतः परमाणु अस्त्रों के ऊपर नियंत्रण में भी संयुक्त राष्ट्र संघ असफल ही रहा है। वैसे तो परमाणु अप्रसार संधि की शुरूआत हुई और ऊपरी तौर पर परमाणु हथियारों को कम करने का लक्ष्य बताया गया परन्तु यह भी केवल दिखावे का खेल रहा। आज भी अमेरिका और रूस के पास परमाणु हथियारों का जखीरा है। अमेरिका ईरान पर परमाणु निर्माण पर रोक लगाना चाहता है और इस उद्देश्य के लिए परमाणु अप्रसार सन्धि के नाम पर आर्थिक प्रतिबन्धों का प्रयोग हथियार के रूप में करता है, परन्तु वही अमेरिका इजराइल के मामले में उसके परमाणु कार्यक्रम को लेकर लगभग चुप्पी साध लेता है।
कार्बन उत्सर्जन और ग्रीन हाऊस गैस के उत्सर्जन को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ की पहल को स्वतः अमेरिका ने इसलिए नकार दिया कि अमेरिकी समाज अपने उपभोग के लिए सर्वाधिक कार्बन उत्सर्जन करता है, तथा सहमति के हस्ताक्षर के बाद भी अमेरिका अपने वायदे और सन्धि से मुकर गया।
संयुक्त राष्ट्र संघ आर्थिक रूप से भी लाचार संस्था है, क्योंकि इसके भारी भरकम खर्चाें की पूर्ति करने के लिए दुनिया के देश अपने दायित्व के अनुरूप आर्थिक सहभागिता नहंी करते और उस खर्च का एक बड़ा हिस्सा अमेरिका उठाता है, और इसलिये वह यू.एन.ओ. को अपनी जेब में रखने का प्रयास करता है। चीन यद्यपि पिछले 3 दशकों में विश्व की बड़ी आर्थिक शक्ति बना है, और इसके पीछे भी अमेरिका की सोची समझी योजना रही है। क्योंकि अमेरिका को चीन और रूस के बजाय रूस बनाम चीन ज्यादा उपयुक्त समीकरण है। और अब जब अमेरिका चीन के आर्थिक सम्पन्नता और बोझ से मुक्ति पाना चाहता है तो संयुक्त राष्ट्र संघ उसके हाथ का खिलौना बन जाता है। वैश्विक संस्थाएं और उनकी उप संस्थाएं पैसा देने वालों की हित पूरक बन जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन का प्रयोग चीन अपने हक में कर सका क्योंकि उसमें मुख्य आर्थिक सहभागिता चीन की थी। विकास के नाम को लेकर भी जो कल्पना संयुक्त राष्ट्र संघ ने की है वह बराबरी की नहीं है बल्कि एक प्रकार से वैश्विक पूँजीवाद का एजेन्डा संयुक्त राष्ट्र संघ आगे बढ़ाता है।
आज दुनिया में युद्ध के स्वरूप बदले है। अब सीधे पारंपरिक हथियार युद्ध कम हुए है और प्राक्सीवार शुरू हुए है। प्राक्सीवार याने तकनीकी, राजनैतिक अस्थिरता, सŸाा परिवर्तन, ग्रह युद्ध जैसी घटनाओं को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से प्रोत्साहित करना। अब नव साम्राज्यवाद, नव सामंतवाद, नव पूँजीवाद और नव छद्म युद्ध का जमाना है। इन छद्म युद्धों में सम्बन्धित पक्षों की प्रतिबद्धता और प्राथमिकता की पहचान कैसे होती है जो सामने दिखता है वह कुछ और होता है, जो पीछे से रचा जा रहा है वह कुछ और होता है। मिस्र का सŸाा पलट याने तथाकथित जेसमिन रिवोल्यूशन के बाद के घटनाक्रम से ऐसे ही छदम युद्ध का रूप सिद्ध होता है। प्रचार तंत्र के माध्यम से बगावत कराना यह भी छदम युद्ध का हिस्सा है, और संयुक्त राष्ट्र संघ भी कई बार जाने अनजाने छदम युद्धों का सहभागी नज़र आता है।
दुनिया की विषमताओं, मानवीय शोषण और हिंसा के सवालों पर भी संयुक्त राष्ट्र संघ कोई मजबूत भूमिका अदा नहीं कर सका। ईश निंदा कानून के नाम पर हो रही ज्यादती धर्म परिवर्तन और अल्प संख्यकों के ऊपर हो रही ज्यादतियां, नारी समता और शिक्षा के लिए या प्रगतिशील समाज बनाने के लिए चल रहे आँदोलनों में शिकार हो रही मानवता के लिए भी संयुक्त राष्ट्र संघ कोई वास्तविक सहयोगी नहीं बन सका। सऊदी अरब में महिलाओं की आवाज़ संगठन के माध्यम से महिलाओं को कार चलाने की अनुमति दिलाने की पहल करने वाली लूजैन अल हथलौल को आतंकवाद विरोधी कानून में 5 वर्ष की सजा दे दी गई। करिमा बालूच की कनाडा में संदिग्ध मौत हो गई। अफगानिस्तान में और पाकिस्तान के कुछ इलाकों में लड़कियों की शिक्षा की माँग करने वाले लड़कियों पर सरेआम हमले होते है, गोलियां चलाई जाती हैं, परन्तु यू.एन.ओ. इस सब मामलों में असहाय बना रहता है।
अब संयुक्त राष्ट्र संघ के लोकतंत्रीकरण की आवश्यकता है। प्रथम चरण में सुरक्षा परिषद के कुछ सदस्यों के वीटों के अधिकार को समाप्त करना चाहिए तथा एक देश एक वोट और सब देश समान की नीति के आधार पर संयुक्त राष्ट्र संघ का पुनः गठन होना चाहिए।
वैसे तो दुनिया के विकास शाँति, युद्ध और हथियार से मुक्ति के लिये सबसे सुखद दिन वह होगा जब डाॅ. लोहिया के सपने के अनुसार बालिग मताधिकार से, निर्वाचित विश्व संसद अस्तित्व में आयेगी।

भारतीय मुसलमान सर्वश्रेष्ठ
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कांग्रेस के नेता गुलाम नबी आजाद की संसद से बिदाई अपने आप में एक अपूर्व घटना बन गई। पिछले साठ-सत्तर साल में किसी अन्य सांसद की ऐसी भावुक विदाई हुई हो, ऐसा मुझे याद नहीं पड़ता। इस विदाई ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के एक अज्ञात आयाम को उजागर किया। गुजराती पर्यटकों के शहीद होने की घटना का जिक्र करते ही उनकी आंखों से आंसू आने लगे। लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह हुई कि गुलाम नबी आजाद ने अपनी जीवन-यात्रा का जिक्र करते हुए ऐसी बात कह दी, जो सिर्फ भारतीय मुसलमानों के लिए ही नहीं, प्रत्येक भारतीय के लिए गर्व की बात है। उन्होंने कहा कि मुझे गर्व है कि मैं एक हिंदुस्तानी मुसलमान हूँ। यही बात अब से 10-11 साल पहले मेरे मुँह से अचानक दुबई में निकल गई थी। मैंने अपने एक भाषण में कह दिया कि भारतीय मुसलमान तो दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान है। दुबई में हमारे राजदूतावास ने एक बड़ी सभा करके वहाँ मेरा व्याख्यान रखवाया था, जिसका विषय था, भारत-अरब संबंध। उस कार्यक्रम में सैकड़ों प्रवासी भारतीय तो थे ही दर्जनों शेख और मौलाना लोग भी आए थे। मेरे मुंह से जैसे ही वह उपरोक्त वाक्य निकला, सभा में उपस्थित भारतीय मुसलमानों ने तालियों से सभा-कक्ष गुंजा दिया लेकिन अगली कतार में बैठे अरबी शेख लोग एक-दूसरे की तरफ देखने लगे। उनकी परेशानी देखकर मैंने उस पंक्ति की व्याख्या कर डाली। मैंने कहा कि हर भारतीय मुसलमान की नसों में हजारों वर्षों से चला आ रहा भारतीय संस्कार ज्यों का त्यों दौड़ रहा है और उसे निर्गुण-निराकार ईश्वर का समतामूलक क्रांतिकारी इस्लामी संस्कार भी पैगंबर मुहम्मद ने दे दिया। इसीलिए वह दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मुसलमान है। यही बात गुलाम नबी आजाद ने संसद में कह डाली। उनका यह कथन सत्य है, यह मैंने अपने अनुभव से भी जाना है। दुनिया के कई मुस्लिम देशों में रहते हुए मैंने पाया कि हमारे मुसलमान कहीं अधिक धार्मिक, अधिक सदाचारी, अधिक दयालु और अधिक उदार होते हैं। लेकिन मैं भाई गुलाम नबी की दो बातों से सहमत नहीं हूं। एक तो यह कि वे खुश हैं कि वे कभी पाकिस्तान नहीं गए और दूसरी यह कि पाकिस्तानी मुसलमानों की बुराइयाँ हमारे मुसलमानों में न आए। पाकिस्तान जाने से वे क्यों डरे ? मैं दर्जनों बार गया और वहां के सर्वोच्च नेताओं और फौजी जनरलों से खरी-खरी बात की। वे जाते तो कश्मीर समस्या का कुछ हल निकाल लाते। दूसरी बात यह कि पाकिस्तान में आतंकवाद, संकीर्णता और भारत-घृणा ने घर कर रखा है लेकिन ज्यादातर पाकिस्तानी बिल्कुल वैसे ही हैं, जैसे हम भारतीय हैं। वे 70-75 साल पहले भारतीय ही थे। निश्चय ही भारतीय मुसलमानों की स्थिति बेहतर है लेकिन दक्षिण एशिया के सबसे बड़े देश होने के नाते हमारा कर्तव्य क्या है ? हमें पुराने आर्यावर्त के सभी देशों और लोगों को जोड़ना और उनका उत्थान करना है।

उत्तराखंड में हिमनद फटने की चेतावनी दी थी वैज्ञानिकों ने!
डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
7 फरवरी को उत्तराखंड के चमोली जिले में जिस हिमनद के फटने से इतनी बड़ी तबाही आई है और सवा दो सौ लोगो की जान चली गई।जिनमे कुछ के शव मिल चुके कुछ लापता है। इस हादसे की चेतावनी उत्तराखंड के ही वैज्ञानिकों ने 8 महीने पहले दे दी थी।वैज्ञानिकों ने बताया था कि उत्तराखंड, जम्मू-कश्मीर और हिमाचल के कई इलाकों में ऐसे ग्लेशियर हैं, जो कभी भी फट सकते हैं।लेकिन इस चेतावनी को नजरअंदाज कर दिया गया था।
वैज्ञानिकों ने बताया था कि श्योक नदी के प्रवाह को एक हिमनद ने रोक दिया है। इसकी वजह से अब वहां एक बड़ी झील बन गई है। झील में ज्यादा पानी जमा हुआ तो उसके फटने की आशंका है। यह चेतावनी देहरादून के वाडिया इंस्टीट्यूट ऑफ जियोलॉजी के वैज्ञानिकों ने दी थी। वैज्ञानिकों ने सचेत किया था कि जम्मू-कश्मीर काराकोरम रेंज समेत पूरे हिमालय क्षेत्र में ग्लेशियरों द्वारा नदी का प्रवाह रोकने पर कई झीलें बनी हैं, यह बेहद खतरनाक स्थिति है।जो इस आपदा के रूप में हमारे सामने आई है।
पृथ्वी पर 99% हिमानियाँ ध्रुवों पर ध्रुवीय हिम चादर के रूप में हैं। इसके अलावा गैर-ध्रुवीय क्षेत्रों के हिमनदों को अल्पाइन हिमनद कहा जाता है और ये उन ऊंचे पर्वतों के सहारे पाए जाते हैं जिन पर वर्ष भर ऊपरी हिस्सा हिमाच्छादित रहता है।
ये हिमानियाँ समेकित रूप से विश्व के मीठे पानी का सबसे बड़ा भण्डार हैं और पृथ्वी की धरातलीय सतह पर पानी के सबसे बड़े भण्डार भी हैं।
हिमानियों द्वारा कई प्रकार के स्थलरूप भी निर्मित किये जाते हैं जिनमें प्लेस्टोसीन काल के व्यापक हिमाच्छादन के दौरान बने स्थलरूप प्रमुख हैं। इस काल में हिमानियों का विस्तार काफ़ी बड़े क्षेत्र में हुआ था और इस विस्तार के दौरान और बाद में इन हिमानियों के निवर्तन से बने स्थलरूप उन जगहों पर भी पाए जाते हैं जहाँ आज उष्ण या शीतोष्ण जलवायु पायी जाती है। वर्तमान समय में भी उन्नीसवी सदी के मध्य से ही हिमानियों का निवर्तन जारी है और कुछ विद्वान इसे प्लेस्टोसीन काल के हिम युग के समापन की प्रक्रिया के तौर पर भी मानते हैं।
हिमानियों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है क्योंकि ये जलवायु के दीर्घकालिक परिवर्तनों जैसे वर्षण, मेघाच्छादन, तापमान इत्यादी के प्रतिरूपों, से प्रभावित होते हैं। हिमालय में हजारों छोटे-बड़े हिमनद है जो लगभग 3350 वर्ग किमी क्षेत्र में फैले है। इन हिमनदों में सबसे पहले गंगोत्री हिमनद है ,जो 26 किमी लम्बा तथा 4 किमी चौड़ा है,यह उत्तरकाशी के उत्तर में स्थित है।इसके बाद पिण्डारी गढ़वाल-कुमाऊँ सीमा के उत्तरी भाग पर स्थित है।जबकि सियाचिन का हिमनद काराकोरम श्रेणी में है और 72 किलोमीटर लम्बा है।इसी तरह
सासाइनी,बियाफो हिस्पर ,बातुरा व खुर्दोपिन काराकोरम श्रेणी के हिमनद है।रूपल,सोनापानी व रिमो कश्मीर में है जिसकी लम्बाई 40 किलोमीटर तक है।वही
केदारनाथ व कोसा – उत्तराखंड में है।जेमू हिमनद भारत के सिक्किम व नेपाल में 26 किलोमीटर तक फैला है।कंचनजंघा भी नेपाल में है ।जिसकी लम्बाई 16 किलोमीटर तक है। हिम यानि बर्फ के एकत्र होने से निचली परतों के ऊपर दबाव पड़ता है और वे सघन हिम के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। यही सघन हिमराशि अपने भार के कारण ढालों पर प्रवाहित होती है, जिसे हिमनद यानि ग्लेशियर कहते हैं। प्रायः यह हिमखंड नीचे आकर पिघलता है और पिघलने पर जल में परिवर्तित हो जाता है।
उत्तराखंड से निकलने वाली प्रमुख नदियों में भागीरथी ,अलकनंदा, विष्णुगंगा, भ्युंदर, पिंडर, धौलीगंगा, अमृत गंगा, दूधगंगा, मंदाकिनी, बिंदाल, यमुना, टोंस, सोंग, काली, गोला, रामगंगा, कोसी, जाह्नवी, नंदाकिनी के नाम हैं. रविवार की घटना धौलीगंगा नदीं में हुई है. धौलीगंगा नदी अलकनंदा की सहायक नदी है. गढ़वाल और तिब्बत के बीच यह नदी नीति दर्रे से निकलती है. इसमें कई छोटी नदियां मिलती हैं जैसे कि पर्ला, कामत, जैंती, अमृतगंगा और गिर्थी नदियां. धौलीगंगा नदी पिथौरागढ़ में काली नदी की सहायक नदी है. आपके मन में सवाल होंगे कि ग्लेशियर टूटने की घटना क्या है, इससे नदी का जनस्तर कैसे बढ़ता है और ग्लेशियर टूटते क्यों हैं? बर्फ की नदी, जिसका पानी ठंड के कारण जम जाता है. हिमनद में बहाव नहीं होता।सामान्यतः हिमनद जब टूटते हैं तो स्थिति काफी विकराल होती है। क्योंकि बर्फ पिघलकर पानी बनता है और उस क्षेत्र की नदियों में समाता है। इससे नदी का जलस्तर अचानक काफी ज्यादा बढ़ जाता है। चूंकि पहाड़ी क्षेत्र होता है इसलिए पानी का बहाव भी काफी तेज होता है। ऐसी स्थिति तबाही लाती है।नदी अपने तेज बहाव के साथ रास्ते में पड़ने वाली हर चीज को तबाह करते हुए आगे बढ़ती है।हिमनद दो प्रकार के होते हैं,एक घाटी रूप में दूसरा पहाड़ रूप में उत्तराखंड के चमोली जिले में हुई घटना का संबंध पहाड़ी हिमनद से है, जो ऊंचे पर्वतों के पास बनते हैं और घाटियों की ओर बहते हैं। पहाड़ी हिमनद ही सबसे ज्यादा घातक माने जाते हैं। हिमनद वहां बनते हैं जहां काफी ठंड होती है। बर्फ पूरे साल जमा होती रहती है। मौसम बदलने पर यह बर्फ पिघलती है जो नदियों में पानी का मुख्य स्त्रोत होता है। ठंड में बर्फबारी होने पर पहले से जमीं बर्फ दबने लगती है। उसका घनत्व काफी बढ़ जाता है और वायुदाब के कारण वह फट जाता है। हिमनद पृथ्वी पर पानी का सबसे बड़ा माध्यम हैं। इनकी उपयोगिता नदियों के स्रोत के तौर पर होती है।जो नदियां पूरे साल पानी से लबालब रहती हैं वे ग्लेशियर से ही निकलती हैं. गंगा नदी का प्रमुख स्रोत गंगोत्री हिमनद ही है।यमुना नदी का स्रोत यमुनोत्री भी हिमनद ही है। हिमनद का टूटना या पिघलना ऐसी दुर्घटनाएं हैं, जो बड़ूी आबादी पर असर डालती हैं। कई बार पहाड़ों पर घूमने गए सैलानी, माउंटेनियर ग्लेशियर की चोटियों पर पहुंचने की कोशिश करते हैं। ये बर्फीली चोटियां काफी खतरनाक होती हैं।कभी भी गिर सकती हैं।
हिमनद में कई बार बड़ी-बड़ी दरारें आ जाती हैं, जो ऊपर से बर्फ की पतली परत से ढंकी होती हैं।ये जमी हुई मजबूत बर्फ की चट्टान की तरह ही दिखती हैं। ऐसी चट्टान के पास जाने पर वजन पड़ते ही हिमनद में मौजूद बर्फ की पतली परत टूट जाती है और व्यक्ति सीधे बर्फ की विशालकाय दरार में जा गिरता है। इसी तरह यदि भूकंप या कंपन होता है तब भी चोटियों पर जमी बर्फ ​खिसककर नीचे आने लगती है, जिसे एवलॉन्च कहते हैं। कई बार तेज आवाज, विस्फोट के कारण भी एवलॉन्च आते हैं।जो दुर्घटना का कारण बनते है।
प्रकृति ने ली अंगड़ाई है
पहाड़ में फिर तबाही है
हिमनद फिर से पिघल गए
टुकड़ो टुकड़ो में बिखर गए
सैकड़ो जाने चली गई
प्रकृति के हाथों छली गई
एक दिन पहले से हलचल थी
हिमनद फटने की तड़पन थी
बस, हम ही नही समझ पाए
अपनो की जान नही बचा पाए
इस तबाही से सबक ले लो
दिवंगतों को श्रद्धांजलि दे दो।

इमरानः कश्मीर में जनमत-संग्रह ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पाकिस्तान में हर साल 5 फरवरी को कश्मीर-दिवस मनाया जाता है। इस साल पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और सेनापति कमर जावेद बाजवा ने थोड़े सम्हलकर बयान दिए हैं। भारत के साथ गाली-गुफ्ता नहीं किया है। बाजवा ने कहा है भारत कश्मीर का कोई सम्मानपूर्ण हल निकाले लेकिन इमरान खान ने परंपरा से हटकर कोई बात नहीं की। पुराने प्रधानमंत्रियों की तरह उन्होंने कश्मीर पर संयुक्तराष्ट्र के प्रस्ताव को लागू करने, और जनमत-संग्रह करवाने की बात कही और धारा 370 दुबारा लागू करने का आग्रह किया। यहाँ इमरान खान से मेरा पहला सवाल यह है कि उन्होंने संयुक्तराष्ट्र संघ का 1948 का कश्मीर-प्रस्ताव पढ़ा भी है या नहीं ? जब प्रधानमंत्री बेनजीर भुट्टो ने उनसे मेरी पहली मुलाकात में यही बात इस्लामाबाद में मुझसे कही थी, तब मैंने उनसे यही सवाल पूछा था। उनका असमंजस देखकर मैंने उस प्रस्ताव का मूलपाठ, जो मैं अपने साथ ले गया था, उन्हें पढ़वा दिया। उसकी पहली धारा कहती है कि जनमत-संग्रह के पहले तथाकथित ‘आज़ाद कश्मीर’ में से प्रत्येक पाकिस्तानी नागरिक को हटाया जाए। क्या इस धारा का आज तक पूरी तरह उल्लंघन नहीं हो रहा है? पाकिस्तानी नागरिक ही नहीं, फौज के हजारों जवान उस ‘आजाद’ कश्मीर को गुलाम बनाए हुए हैं। 1983 में जब इस्लामाबाद के ‘इंस्टीट्यूट आफ स्ट्रेटजिक स्टडीज़’ में मेरा भाषण हुआ तो उसकी अध्यक्षता पाकिस्तान के प्रसिद्ध नेता आगा शाही कर रहे थे। वहाँ भी यही सवाल उठा तो मैंने उनसे उस आजाद कश्मीरी लेखक की ताजा किताब पढ़ने को कहा, जिसके अनुसार ‘पाकिस्तानी कश्मीर’ गर्मियों के दिन में विराट वेश्यालय बन जाता है। आज असलियत तो यह है कि पाकिस्तान की फौज और नेता कश्मीर को लेकर थक गए हैं। उन्होंने हर पैंतरा आजमा लिया है। युद्ध, आतंक, अंतरराष्ट्रीय दबाव, इस्लाम को खतरे का नारा आदि। अब वे बातचीत का नारा लगा रहे हैं। बातचीत क्यों नहीं हो सकती ? जरुर हो। कश्मीर उसी तरह आजाद होना चाहिए जैसे दिल्ली और लाहौर हैं लेकिन उसे अलग करने की बात सबसे ज्यादा कश्मीरियों के लिए ही हानिकर होगी।क्या पाकिस्तान अपने कश्मीर को अलग करेगा ? कदापि नहीं। भारत-पाक से घिरे अलग कश्मीर का दम घुट जाएगा। कश्मीर के शानदार और खूबसूरत लोग पूर्ण आजादी का आनंद ले सकें, इसके लिए जरुरी है कि पाकिस्तानी फौज़ उसे अपने वर्चस्व का मोहरा बनाना बंद करे। धारा 370 तो असल में कभी की खत्म हो चुकी थी। अब उसका रोना रोने से कोई फायदा नहीं है। भारत और पाक इस कश्मीर की गुत्थी को कैसे सुलझाएं, इस पर विस्तार से फिर कभी!
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

प्राकृतिक हादसा – ग्लेशियर के कहर से उत्तराखंड में भारी तबाही!
डॉ. श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
उत्तराखंड के चमोली जिले के रैनी में रविवार को ग्लेशियर फट गया। ग्लेशियर फटने से धौली नदी में बाढ़ आ गई । इस प्राकृतिक आपदा से चमोली से हरिद्वार तक बाढ़ का खतरा बढ़ गया है।उत्तराखंड प्रशासन की टीम घटना स्थल के लिए रवाना हो गई है। चमोली जिले में नदी किनारे की बस्तियों को पुलिस लाउडस्पीकर से अलर्ट किया जा रहा है। कर्णप्रयाग में अलकनंदा नदी किनारे बसे लोग मकान खाली करने में जुटे है। इस ग्लेशियर के फटने से ऋषि गंगा और तपोवन हाईड्रो प्रोजेक्ट पूरी तरह ध्वस्त हो गए हैं। हरिद्वार जिला प्रशासन ने भी उक्त बाबत अलर्ट जारी कर दिया है। सभी थानों और नदी किनारे बसी आबादी को सतर्क रहने के निर्देश दिए गए हैं। ऋषिकेश में भी अलर्ट जारी किया गया है। नदी से बोट संचालन और राफ्टिंग संचालकों को तुरंत हटाने के निर्देश दिए गए हैं।साथ ही श्रीनगर जल विद्युत परियोजना को झील का पानी कम करने के निर्देश जारी किए गए हैं। ताकि अलकनंदा का जल स्तर बढ़ने पर अतिरिक्त पानी छोड़ने में दिक्कत न हो।
चमोली के पुलिस अधीक्षक यशवंत सिंह चौहान ने बताया कि काफी नुकसान की सूचना आ रही है। लेकिन अभी स्थिति स्पष्ट नहीं। टीम मौके पर जा रही है, उसके बाद ही नुकसान की स्थिति स्पष्ट होगी।
इस हादसे के बाद नदियों में बाढ़ आ गई है। श्रीनगर में प्रशासन ने नदी किनारे बस्तियों में रह रहे लोगों से सुरक्षित स्थानों में जाने की अपील की है। नदी में काम कर रहे मजदूरों को भी हटाया जा रहा है। बाढ़ के बाद अब धौली नदी का जल स्तर पूरी तक रूका हुआ है। स्टेट कंट्रोल रूम के अनुसार, गढ़वाल की नदियों में पानी ज्यादा बढ़ा हुआ है। करंट लगने से कई लोग लापता बताये जा रहे है।
उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने सचिव आपदा प्रबंधन और डीएम चमोली से पूरी जानकारी प्राप्त की है। मुख्यमंत्री लगातार पूरी स्थिति पर नजर रखे हुए हैं। संबंधित सभी जिलों को अलर्ट कर दिया गया है। लोगों से अपील की जा रही है कि गंगा नदी के किनारे न जाएं। सीएम घटनास्थल का हवाई दौरा भी कर सकते हैं। चमोली जिले के सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए गए हैं।आईटीबीपी के जवान बचाव कार्य के लिए पहुंच गए हैं. एनडीआरएफ की और तीन टीमें गाजियाबाद से रवाना हों रही है।
चमोली जिले के तपोवन इलाके में रैणी गांव में बिजली परियोजना पर हिमस्खलन के बाद धौलीगंगा नंदी में जलस्तर अचानक बढ़ गया है। निजले इलाके में रहने वाले लोगों को ऊपरी इलाकों में भेजा जा रहा है. ग्लेशियर फटने से हुई तबाही को देखते हुए श्रीनगर, ऋषिकेश और हरिद्वार समेत अन्य जगहों पर अलर्ट जारी किया गया है।
राज्य के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने कहा, “चमोली के रिणी गांव में ऋषिगंगा प्रोजेक्ट को भारी बारिश व अचानक पानी आने से क्षति की संभावना है। नदी में अचानक पाने आने से अलकनंदा के निचले क्षेत्रों में भी बाढ़ की संभावना है।तटीय क्षेत्रों में लोगों को अलर्ट किया गया है. नदी किनारे बसे लोगों को क्षेत्र से हटाया जा रहा है।” ग्‍लेश‍ियर सालों तक भारी मात्रा में बर्फ के एक जगह जमा होने से बनता है। ये दो तरह के होते हैं- अल्‍पाइन ग्‍लेशियर और आइस शीट्स। पहाड़ों के ग्‍लेशियर अल्‍पाइन कैटेगरी में आते हैं। पहाड़ों पर ग्‍लेशियर टूटने की कई वजहें हो सकती हैं। एक तो गुरुत्‍वाकर्षण की वजह से और दूसरा ग्‍लेशियर के किनारों पर टेंशन बढ़ने की वजह से। ग्‍लोबल वार्मिंग के चलते बर्फ पिघलने से भी ग्‍लेशियर का एक हिस्‍सा टूटकर अलग हो सकता है। जब ग्‍लेशियर से बर्फ का कोई टुकड़ा अलग होता है तो उसे काल्विंग कहते हैं। ग्‍लेशियर फटने या टूटने से आने वाली बाढ़ का नतीजा बेहद भयानक हो सकता है। ऐसा आमतौर पर तब होता है जब ग्‍लेशियर के भीतर ड्रेनेज ब्‍लॉक होती है। पानी अपना रास्‍ता ढूंढ लेता है और जब वह ग्‍लेशियर के बीच से बहता है तो बर्फ पिघलने का रेट बढ़ जाता है। इससे उसका रास्‍ता बड़ा होता जाता है और साथ में बर्फ भी पिघलकर बहने लगती है। इंसाइक्‍लोपीडिया ब्रिटैनिका के अनुसार, इसे आउटबर्स्‍ट फ्लड कहते हैं। कुछ ग्‍लेशियर हर साल टूटते हैं, कुछ दो या तीन साल के अंतर पर। कुछ कब टूटेंगे, इसका अंदाजा लगा पाना लगभग नामुमकिन होता है।बहरहाल यह फटा ग्लेशियर कितनी तबाही मचाएगा यह तो कहना मुश्किल है।फिलहाल तो बचाव ही एक मात्र उपाय है जिसमे चमोली से हरिद्वार तक सरकार, अधिकारी और जनता जुटी है।

चौरीचौराः यह कैसी नौटंकी ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जब मैंने अखबारों में पढ़ा कि गोरखपुर के चौरीचौरा कांड का शताब्दि समारोह मनाया जाएगा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उसका उदघाटन करेंगे तो मेरा मन कौतूहल से भर गया। मैंने सोचा कि 4 फरवरी 1922 याने ठीक सौ साल पहले चौरीचौरा नामक गांव की भयंकर दुर्घटना का मोदी हवाला देंगे और किसानों से वे कहेंगे कि जैसे गांधीजी ने उस घटना के कारण अपना असहयोग आंदोलन वापिस ले लिया था, वैसे ही किसान भी अपना आंदोलन खत्म करें, क्योंकि लाल किले पर सांप्रदायिक झंडा फहराने की घटना से सारा देश मर्माहत हुआ है। लेकिन हुआ कुछ उल्टा ही। मोदी ने उन प्रदर्शनकारियों की तारीफ के पुल बांधे, जिन्होंने 22 भारतीय पुलिसवालों को जिंदा जलाकर मार डाला था। इस जघन्य अपराध के कारण उन्नीस आदमियों को फांसी हुई थी और लगभग 100 लोगों को उम्र-कैद। गांधीजी ने इस भीड़ की हिंसा की कड़ी निंदा की थी लेकिन मोदी ने इन्हीं लोगों की याद में उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए शताब्दि-समारोह की शुरुआत कर दी। अपने पूरे भाषण में मोदी ने गांधीजी का एक बार नाम तक नहीं लिया। गोरखपुर के महंत और उ.प्र. के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने भी मोदी को सावधान करने की बजाय उस समारोह को उ.प्र. के सभी जिलों में मनाने की घोषणा कर दी। मुझे आश्चर्य है कि इस गांधी-विरोधी और बदनाम-कार्य को उत्सव का रुप देने की सलाह किस नौकरशाह या किस अति उत्साही कार्यकर्त्ता ने इन नेताओं को दे दी ? क्या इस समारोह का संदेश देश भर में यह नहीं जाएगा कि किसी को भी जिंदा जला देना ठीक है ? मोदी सरकार इसे गलत नहीं समझती है। चौरीचौरा में तो 22 पुलिसवालों को जिंदा जलाया गया था याने अब खिसियाए हुए किसान यदि ऐसी कोई नृशंस दुर्घटना कर डालें तो क्या वह भी सराहनीय होगी? यदि लालकिले पर किसी नासमझ लड़के ने तिरंगे की बजाय कोई और झंडा फहरा दिया तो यह क्या कोई गंभीर मामला ही नहीं है ? किसान आंदोलन को ठंडा करने के लिए कुछ नौटंकियां हमारी सरकार रचाए, यह स्वाभाविक ही है लेकिन साल भर चलनेवाली यह नौटंकी हमारी संकटग्रस्त वर्तमान अर्थ-व्यवस्था पर करोड़ों रु. का बोझ बढ़ा देगी और भाजपाई सरकारों को बदनाम भी कर देगी। यह ठीक है कि हमारे ज्यादातर नेताओं को पढ़ने-लिखने का समय नहीं होता और उनसे इतिहासविज्ञ होने की आशा भी नहीं की जा सकती लेकिन उनसे यह अपेक्षा तो अवश्य की जाती है कि इस तरह की नौटंकियों का जब भी कोई प्रस्ताव उनके सामने लाया जाए तो वे विद्वानों और विशेषज्ञों से विनम्रतापूर्वक सलाह जरुर करें ताकि वे इतिहास के पटल पर शीर्षासन की मुद्रा में दिखाई न पड़ें।

शराब बंदी ही हल है
रघु ठाकुर
मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में मानपुर छैरा गाँव में देशी शराब के पीने से लगभग 24 लोगों की मौत हो चुकी है। अभी भी यह संख्या अंतिम नहीं है बल्कि और भी बढ़ सकती है।
मानपुर छैरा की घटना जहरीली शराब से मरने वालों की कोई पहली घटना नहीं है। इससे पहले भी ऐसी घटनाएँ घटती रहीं है। न केवल मध्यप्रदेश में बल्कि समूचे देश में और लगभग सभी प्रकार की विचार धाराओं की सरकार में।
आमतौर पर जब जहरीली शराब से मरने वालों की घटनायें हुई हैं, वे राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप में उलझकर रह जातीं हैं, और कुछ दिन छापने के बाद जब मीडिया को कोई नया मुद्दा मिल जाता है, तब वो धीरे-धीरे जन चर्चा से बाहर हो जाती है।
अमूमन जाँच करने के लिये कुछ कमेटियां बनाई जाती हैं उनकी माह और सालों के बाद रपट आती है। तब तक जनता उन्हें भूल जाती है और सरकार की प्राथमिकताएं बदल जाती है। यह एक अनन्त कहानी है जो दशकों से चली आ रही है।
मानपुर छैरा की घटना के बाद मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने कुछ बड़े अधिकारियों यानी कलेक्टर, एसपी को हटाया है। कुछ पुलिस वालों के तबादले किए हैं और एक दो पुलिस या आबकारी विभाग के छोटे अधिकारियों को निलंबित किया है। कोई भी सरकार घटना घटने के बाद जो बेहतर कर सकती है वही इस सरकार ने भी किया है। इसीलिए बाद की प्रशासनिक कार्यवाही के प्रति मैं कोई आरोप या कोई शिकायत नहीं कर रहा। शराब से मरने वालों में शराब बेचने वाले परिवार के भी लोग हैं और शराब बेचने वाले अपराधी गिरोह के व्यक्ति भी मौत का शिकार हुए हैं।
इसका मतलब हुआ कि शराब बेचने वालों को भी यह जानकारी नहीं थी कि यह शराब कितनी जहरीली हो चुकी हे। इसीलिए मैं मानपुर छैरा शराब कांड और इस प्रकार की सच्ची घटनाओं को दो भिन्न संदर्भें की कसौटी पर देखना चाहूगा। एक समाज चेतना और सामाजिक दायित्व दूसरा शराब बंदी के बारे में। जहाँ तक पहले बिन्दु का प्रश्न है वह भी एक गंभीर और विचारणीय विषय है। शराब बंदी और समाज सुधार को लेकर कई प्रकार के प्रयोग सामाजिक स्तरों पर पहले भी होते रहे हैं। कुछ जातीय संगठन और उनके धार्मिक गुरू शराब के खिलाफ, दहेज आदि कुरीतिओं के खिलाफ अभियान चलाते रहे हैं, जिनसे फौरी तौर पर कुछ परिणाम भी आए परंतु वे टिकाऊ या दीर्घकालिक साबित नहीं हुए। कुछ अन्य धर्म गुरूओं ने भी अपने-अपने अनुयायी समूहों में जनचेतना अभियान चलाये और धर्म के प्रचार के प्रयोग के साथ-साथ शराबबंदी के अभियान भी चलाएं लेकिन यह भी सफल और टिकाऊ नहीं हुए। मेरी राय में कोई भी धर्म शराब का समर्थक नहीं है। परंतु धर्म संगठन इन असामाजिक अपराधियों पर कोई कार्यवाही करने में असमर्थ है। धर्म गुरूओं के लिये भी धार्मिक मूल्य या उपदेश अमूमन केवल धर्म सभाओं तक सीमित है। उनके अनुयायी उन मूल्यों का पालन कर रहे हैं, या नहीं यह कसौटी उनकी नहीं होती।
समाज में भी इस गंभीर बीमारी के प्रति कोई चेतना नहीं है। परिवार या समाज अपने दायित्व के प्रति सजग नहीं है। और अब तो स्थिति इतनी चिंताजनक हो गई है कि, शराब का प्रचलन, बहुत दूर तक फैल गया है। शराब विक्रेताओं ने स्कूलों के बच्चों के लिये 5-10 रूपये वाले, पाऊच (जिन्हें छोटू कहा जाता है) शुरू किये हैं। बच्चों को उनके अभिभावक जो पैसा स्कूल जाने पर जेब खर्च के लिये देते हैं, उस पैसे से बच्चे शराब के पाऊच खरीद रहे हैं तथा स्कूल में पढ़ने के बजाय आसपास के पार्क या सड़कों के पास बैठकर सामूहिक मधपान करने लगे है।
मुझे कानपुर के एक मित्र ने दिल्ली वि.वि. के छात्र संघ चुनाव का एक अनुभव सुनाया, जिसे सुनकर मैं हैरान भी हुआ तथा तभी से निरंतर मानसिक चिंतन में ग्रस्त भी हू। उनकी बेटी दिल्ली वि.वि. छात्र संघ का चुनाव जीती थी। तथा उनके अनुसार उस चुनाव पर उन्होंने 70 लाख रूपया खर्च किया था। उन्हीं ने बताया कि मैं प्रतिदिन 2-3 पेटी शराब (व्हिस्की) छात्रावासों के छात्रों के लिये तथा लगभग इतनी ही बियर की पेटियां, कन्या छात्रावास के लिये भेजता था। उनकी बेटी के दलीय समर्थक छात्र -छात्रायें भी शराब की माँग करती थी और विलंब होने पर शिकायत व सूचना भेजती थी तथा पहुंच जाने पर संदेश भेजकर धन्यवाद अदा करती थीं। अगर छात्रसंघों की यह स्थितियां हो गई हैं, स्कूलों के बच्चों की यह स्थिति हो गई है, तो इसकी भयावहता समझी जा सकती है। और समाज का भविष्य किस पतन के गर्त में जा रहा है, इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
सरकारें शराब को आमदनी का जरिया बनाती हैं, तथा म.प्र. सरकार ने तो बाकायदा अन्य राज्यों के आबादी व शराब की दुकानों की तुलना करते हुए कहा कि प्रति 1 लाख की आबादी पर राजस्थान में 17 महाराष्ट्र में 21 और उत्तर प्रदेश में 12 वैध दुकानें हैं जबकि म.प्र. में मात्र चार दुकानें हैं, याने म.प्र. में दुकानें कम हैं और मुरैना के मानपुर छैरा की घटना की वजह शराब की सरकारी वैध दुकानों की कभी है। म.प्र. सरकार ने तुलना तीन ही राज्यों से की है राजस्थान जहाँ कांग्रेस सरकार है- महाराष्ट्र जहाँ शिवसेना के नेतृत्व वाली उद्धव सरकार है, तथा उ.प्र. जहाँ भा.ज.पा. की सरकार है। उन्होंने गुजरात की तुलना नहीं की, क्योंकि वह प्रधानमंत्री का प्रदेश है तथा उनकी नाराजगी महँगी पड़ सकती है।
दूसरे जहाँ दुकाने ज्यादा है, क्या वहाँ, अवैध शराब की बिक्री या शराब से मौतें नहीं हो रही? महाराष्ट्र, राजस्थान व उ.प्र. में तो कुछ ही दिनों पूर्व जहरीली शराब पीने से मौतें हुई थीं।
अत: मूल प्रश्न है कि, अवैध शराब को कैसे रोका जाये व क्या शराब का व्यापार सरकार को करना चाहिये? 20 फरवरी को मुख्यमंत्री जी ने बयान दिया
है कि शराब माफिया को खत्म करो वरना बर्खास्त कर देंगे“। मुख्यमंत्री जी का बयान अधिकारियों को कड़ा संदेश हो सकता है, परंतु क्या वह वास्तव में कड़ा व टिकाऊ है, यह भी देखना होगा? कड़ा पर प्रश्न चिन्ह है? क्योंकि किसी अधिकारी को उसके जिले के प्रभार से स्थानांतरित करना क्या वास्तव में कोई दंड है? ट्रांसफर क्या वास्तव में कोई दंड है? जो भ्रष्ट अधिकारी होते हैं, उन्हें कुछ चिंता अवश्य होगी क्योंकि भ्रष्टाचार के बँधे स्त्रोत छूट जायेंगे। परंतु भ्रष्टाचार तो अपना रास्ता बना ही लेता है। जहाँ जायेंगे वहाँ मार्ग खोज लेंगे अन्यथा कुछ दिनों के बाद किसी मलाईदार स्थान पर पुन: पहुंच जायेंगे। सरकारों को कैसे खरीदना-उपयोग करना-बिगाड़ना व खुश रखना यह सब नौकरशाही का, शास्वत अभ्यास है। कड़ी कार्यवाही तो तब होगी जब वे किन्हीं बड़े अधिकारियों को बर्खास्त करें, जिन्हें वे स्वत: जवाबदार मानते है। अभाव सूचना तंत्र का नहीं है वरन नियत का है। जब शराब माफियायों का या अन्य असामाजिक अपराधियों से नियमित पैसा नीचे से ऊपर तक जाता है तो यह तो सूचना तंत्र का अभाव नहीं वरन सक्षमता है। बताया जाता है कि वैध शराब की निर्धारित 75/- की बोतल वैध दुकानों पर 110/- में बिकती है तथा अवैध शराब की बोतल पच्चीस रूपये में।
दरअसल समस्या का निदान शराब बंदी है। शराब के पक्ष में सरकार निम्न तर्क देती है। एक शराबबंदी से सरकार की आमदनी कम हो जायेगी तथा विकास को पैसा कम होगा। दूसरे अवैध शराब बिकेगी, तीसरा पड़ोसी राज्यों से अवैध शराब आयेगी। सरकार की आय के बारे में विचार करते हुए मैं राष्ट्रपिता, महात्मा गाँधी के कथन से ही बात शुरू करॅगा :-
1. ”मैं भारत का कंगाल होना पसंद करॅगा लेकिन यह बर्दाश्त नहीं कर सकता कि हजारों लोग शराबी हों।“ (यंग इंडिया – 15/09/1927)
2. ”अगर मुझे घंटे भर को भारत का सर्वाधिकारी (डिक्टेटर) बना दिया जाये तो सबसे पहले मैं तमाम शराबखाने मुआवज़े दिये बगैर बंद करा दूगा।“
3. ”यह याद रखने की बात है कि शराब और जहरीली चीजों में पैदा होने वाली आय एक अत्यंत नीचे गिराने वाला कर है। सच्चा कर तो वह है जो कर दाता को आवश्यक सेवाओं के रूप में दस गुना बदला चुका दे। किंतु यह आबकारी आय क्या करती है? लोगों को अपने नैतिक मानसिक और शारीरिक पतन और भ्रष्टता के लिये कर देने को मजबूर करती है। शराबबंदी से राष्ट्र को जो जबरदस्त फायदा होगा उसके अलावा आर्थिक लाभ भी हागा। (हरिजन सेवक 31/07/1937 पृ. 190)
मैं समझता हू कि बापू के उपरोक्त उद्धरणों के बाद शराबबंदी के खिलाफ आय के मुद्दे का उत्तर मिल जाता है। दूसरा तर्क अवैध शराब बिकने का है। तो क्या उन सभी कानूनों को समाप्त किया जाये, जो अपराध रोकने के लिये बनाये गये थे। क्योंकि कानूनों के बावजूद भी अपराध हो रहे है, – यथा – हत्या – डकैती बलात्कार आदि। इन जधन्य अपराधों संबंधी कानूनों के द्वारा सख्त दंड के बावजूद भी ये अपराध हो रहे है तो क्या कानून ही खत्म कर दिया जाये। कानून अकेले दंड नहीं वरन देश व समाज के मान्य सिद्धांत व संकल्प भी होते हैं। तीसरा बिंदु अन्य राज्यों से अवैध शराब आने का है तो, यह भी तो संभावना है कि यहाँ के प्रयोग को देखकर पड़ोसी राज्य भी वैसा ही शराबबंदी का कदम उठाये और भारत सरकार भी सम्पूर्ण शराबबंदी लागू कर बापू को उनकी पुण्यतिथि पर श्रद्धांजलि अर्पित करें।
म.प्र. सरकार ने तो बापू की पुण्यतिथि पर जो संदेश दिया है, वह बहुत ही चिंताजनक है। 30 जनवरी 2021 को बापू की पुण्यतिथि के दिन दैनिक भास्कर में खबर छपी कि म.प्र. सरकार के आबकारी मंत्री के पास देवास प्रस्ताव पहुंच चुका है कि शराब की होम डिलेवरी शुरू की जाये। मैं बापू की पुण्यतिथि पर उम्मीद करता हू कि प्रदेश सरकार को सद्बुद्धि आयेगी तथा ऐसा समाज विरोधी, आपराधिक निर्णय सरकार नहीं करेगा।

बजट अच्छा है लेकिन क्रांतिकारी नहीं
डॉ.वैदप्रताप वैदिक
जैसा मैंने परसों लिखा था कि देश का वह बजट आदर्श बजट होगा, जो देश के सभी 140 करोड़ लोगों के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा और चिकित्सा की न्यूनतम व्यवस्था तो करे। राष्ट्र को परिवार बना दे। इस कसौटी पर किसी भी बचत का खरा उतरना तभी संभव है, जबकि देश के शीर्ष नेताओं के दिल में ऐसा प्रबल संकल्प हो और उन्हें आर्थिक मामलों की गहरी समझ भी हो लेकिन वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने वर्तमान परिस्थितियों में ऐसा बजट पेश किया है, जिसका छिद्रान्वेषण तो कई आधार पर किया जा सकता है। फिर भी यह तो मानना पड़ेगा कि इस बार उन्होंने ऐसे कोई प्रावधान नहीं किए हैं, जो हर बजट में कमोबेश किए ही जाते हैं। जैसे आयकर, संपत्ति कर, कोरोना कर तथा अन्य कई छोटे-मोटे कर न उन्होंने बढ़ाए हैं और न ही घटाए हैं। देश के 6-7 करोड़ आयकरदाता यह जरुर सोचते थे कि इस बार टैक्स घटेगा ताकि लोगों के हाथ में खर्च के लिए पैसा बढ़ेगा। यदि चीजों की मांग बढ़ेगी तो उत्पादन भी बढ़ेगा।
गनीमत है कि इस बजट में नए टैक्स नहीं थोपे गए हैं। सरकार इस वर्ष के लगभग 35 लाख करोड़ रु. के खर्च को कैसे जुटाएगी? वह सरकारी ज़मीनों, कारखानों, वित्तीय संगठनों, सरकारी कंपनियों वगैरह को बेचेगी। दो सरकारी बैंक भी जाएंगे। विपक्षी नेता इसे ‘देश को बेचना’ कह रहे हैं। लेकिन वास्तव में वे ही संगठन बेचे जाएंगे, जो निकम्मे हैं, नुकसानदेह हैं और जिन्हें चलाने में सरकार असमर्थ है। वह दो बैंकों को भी अपनी गिरफ्त से बाहर करेगी। बीमा कंपनियों में वह विदेशी पूंजी को 74 प्रतिशत विनिवेश होने देगी। सरकार यह सब नहीं करती और आम नागरिकों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष टैक्सों की बौछार कर देती तो क्या ठीक होता ? यह ठीक है कि सड़क-निर्माण और रेल्वे में वह ज्यादा पूंजी लगाएगी। उससे रोजगार बढ़ेंगे लेकिन देश के साल भर में एक-डेढ़ करोड़ बेरोजगार हुए लोगों का पेट कैसे भरेगा ? मनरेगा की प्रति व्यक्ति मजदूरी की राशि में कोई बढ़ोत्तरी नहीं है लेकिन उसका खर्च भी 1.15 लाख करोड़ से घटाकर 73000 करोड़ रु. कर दिया गया है।
इसी तरह प्र.मं. आवास योजना का खर्च 40500 करोड़ से 27500 करोड़ रु. और किसान सहायता भी 75000 करोड़ से घटकर अब 65000 करोड़ रु. रह गया है। बैंकों, रेल्वे, सड़कों, पुलों, कंपनियों आदि के निजीकरण के बाद उनकी सेवाओं और चीजों के दाम जरुर बढ़ेंगे। जब तक सरकार ‘दाम बांधो’ नीति लागू नहीं करेगी, आम उपभोक्ता ठगा जैसा रहेगा। अभी शेयर मार्केट जैसी छलांगें भर रहा है, क्या वह लोगों की कंजूसी नहीं बढ़ाएगा ताकि वे अपने खर्च घटाएं और पैसा शेयरों में लगाएं ? स्वास्थ्य सेवा के बजट में वृद्धि सराहनीय है लेकिन गांवों और कस्बों में बसे लोगों को कोरोना के बाद इसका कितना लाभ मिलेगा, यह समय ही बताएगा। इस बजट से खेती कितनी बढ़ेगी, यह भी अनुमान का विषय है। कुल मिलाकर बजट अच्छा है लेकिन इसे क्रांतिकारी या ऐतिहासिक या असाधारण कहना ज़रा कठिन है।

वैक्सीन की चाह, आधी दुनिया और मोदी सरकार
डॉ. मयंक चतुर्वेदी
कोरोना महामारी इस वक्‍त दुनिया के हर देश के लिए महासंकट बना हुआ है, जो देश अपने को सबसे स्‍वच्‍छ और आधुनिक मानते हैं (यूरोप और अमेरिका), देखा जा रहा है कि संकट उनके यहां ही सबसे अधिक गहराया है, ऐसे में जब भारत ”सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामयाः” की भावना के साथ वर्तमान में नेतृत्‍व करता दिखता है, तब हर भारतीय अपने आप में और अपनी चुनी हुई मोदी सरकार को लेकर गौरव अनुभव कर रहा है।
कोविड वैक्‍सीन विकसित होने के बावजूद, दुनिया के कई देशों के सामने जो बड़ी समस्‍या है वह उनके यहां वैक्‍सीन नहीं बनने के साथ ही अर्थ का अभाव है, उनका उतना बजट नहीं कि वे अमेरिकी, चीनी, रूस या ब्रिटेन से वैक्‍सीन खरीद सकें। ऐसे देशों के लिए भारत ही आशा की किरण है। छोटे और कम आय वाले कई देशों को भारत ने अपने यहां बनी ऑक्‍सफर्ड-एस्‍ट्राजेनेका वैक्‍सीन ‘कोविशील्‍ड’ की खेप भिजवाई है, वह भी तोहफे के रूप में। एक तरफ देश में टीकाकरण अभियान जारी है तो दूसरी तरफ, इन देशों की मदद भी। भारत की इस पहल को दुनिया भी सराह रही है।
वस्‍तुत: विश्व स्वास्थ्य संगठन के महानिदेशक ट्रेडोस घेब्रेयसिस ने वैश्विक महामारी कोविड-19 से निपटने में निरंतर सहयोग के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आभार प्रकट किया है। इसी प्रकार से संयुक्त राष्ट्र के महासचिव ने भी भारत की वैक्सीन निर्माण क्षमता की प्रशंसा करते हुए इसे विश्व के लिए एक थाती बताया है। इन दोनों की तरह ही अनेक राष्‍ट्राध्‍यक्षों को भी विश्‍वास है कि ”ग्लोबल वैक्सीनेशन कैंपेन को कामयाब बनाने के लिए भारत हर तरह की भूमिका निभाएगा”।
हमारे लिए अच्छी बात यह भी है कि आज भारत की वैक्सीन उत्पादन की क्षमता बहुत अधिक है। भारत की वैक्सीन अन्य देशों के लिए उनके जीवित बने रहने का आधार सिद्ध हो रही है। यही कारण है कि भारत में कोरोना के खिलाफ टीकाकरण अभियान शुरू होने के बाद से लगातार अन्य देशों में भी इसकी मांग जोर पकड़ रही है। स्थिति यह है कि दुनिया के 92 देशों ने मेड इन इंडिया वैक्सीन के लिए भारत से संपर्क किया है। इससे वैक्सीन हब के रूप में भारत की साख और मजबूत हुई है।
इसी के साथ यह भी हमारे लिए बड़ी सफलता की बात है कि कोरोना के खिलाफ टीकाकरण अभियान शुरू होने के बाद भारत में निर्मित टीकों के नगण्य साइड इफेक्ट देखे गए हैं। निश्चित रूप से यह उपलब्धि हमारे विज्ञानियों के अथक परिश्रम का परिणाम है कि अपने कोरोना योद्धाओं का हौसला बढ़ाने वाले इस देश ने न केवल आज दो-दो वैक्सीन बनाने में सफलता हासिल की बल्‍कि अब तीसरे की तैयारी लगभग पूर्णता की ओर है।
वस्‍तुत: यह किसी गौरव से कम नहीं कि दुनिया भर में दी जाने वाली विभिन्न प्रकार की वैक्सीन में 70 फीसद का उत्पादन अकेला भारत करता है। शेष 30 प्रतिशत विश्‍व के सभी देश मिलाकर कर पाते हैं। वैक्‍सीन को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी ओर से भारत की नीति को लेकर भी साफ कर दिया है कि भारत अपने व्यापक वैक्‍सीन इन्‍फ्रास्‍ट्रक्‍चर का इस्‍तेमाल दूसरे देशों की मदद में जब तक करता रहेगा तब तक कि कोरोना का टीका अंतिम व्‍यक्‍ति तक नहीं लग जाता है । सरकार का साफ स्‍टैंड है कि दुनिया भर को वैक्‍सीन उपलब्‍ध कराई जाए। महामारी के दौर को स्‍वाथी न बनाने दिया जाए। जिसके बाद से देखने में आ रहा है कि देश के लोगों की जरूरत पूरी करने के साथ ही भारत अपने पड़ोसियों और सहयोगियों को पहली प्राथमिकता दे रहा है। भारत सरकार सद्भावना के तौर पर नेपाल, भूटान, मालदीव, श्रीलंका, अफगानिस्तान, मॉरीशस, बांग्लादेश और म्यांमार समेत कई पड़ोसी देशों को वैक्सीन भेज भी रही है। उसने तो मानवीयता के हित में अपने धुर विरोधी पाकिस्‍तान को भी संदेश भिजवाया है, कि अहंकार को त्‍यागो, जरूरत को देखते हुए बिना संकोच अपनी वैक्‍सीन आवश्‍यकता बताओ।
यहां हम यदि आंकड़ों के साथ देखें तो भारत ने अब तक बांग्‍लादेश – 20 लाख डोज, म्‍यांमार – 15 लाख, नेपाल – 10 लाख, श्रीलंका – 5 लाख, भूटान- डेढ़ लाख, मालदीव – 1 लाख, मॉरीशस – 1 लाख, ओमन – 1 लाख, सेशेल्‍स – 50 हजार डोज, अफगानिस्‍तान – 5 लाख, निकारगुआ – 2 लाख, मंगोलिया – 1.5 लाख, बारबेडोज – 1 लाख, डॉमिनिका – 70 हजार डोज पहली खेप में पहुंचाएं हैं। इनके अलावा भी अन्‍य देश ब्राजील से लेकर युरोप, अफ्र‍िकी व अमेरिकी हैं जिन्‍हें भारत लगातार वैक्‍सीन उपलब्‍ध करवा रहा है।
वस्‍तुत: यही कारण है विश्‍व समुदाय आज भारत के गुणगान गा रहा है । भारत ने जहां-जहां वैक्‍सीन भेजी है, उन देशों ने भी बेहद भावुक होकर शुक्रिया अदा किया है। अमेरिका बार-बार मानवता की सेवा में हमारे कार्य को प्रमाण कर रहा है। अमेरिका के ‘डिपार्टमेंट ऑफ स्टेट के दक्षिण और मध्य एशियाई देशों के विभाग ने भारत की ओर से अपने पड़ोसी मुल्कों की मदद किए जाने की जबरदस्त प्रशंसा में यहां तक कह दिया है कि ”हम वैश्विक स्वास्थ्य में भारत की भूमिका की सराहना करते हैं, जो दक्षिण एशिया में कोविड-19 वैक्सीन की लाखों डोज साझा कर रहा है। भारत द्वारा वैक्सीन के फ्री शिपमेंट मालदीव, भूटान, बांग्लादेश और नेपाल जैसे देशों में पहुंचने लगे हैं जो आगे और भी देशों में भेजे जाएंगे। भारत एक सच्चा दोस्त है जो अपने फार्मा का उपयोग वैश्विक समुदाय की मदद के लिए कर रहा है” । वहीं, कई देश भारत से वैक्‍सीन हासिल होने की आशा लगाकर बैठे हैं । ऐसे में यह भी कहा जा सकता है कि कोरोना वैक्सीन को लेकर विश्व की नजर भारत पर टिकी हुई है।
वास्‍तव में जो तारीफ आज विश्‍व समुदाय की ओर से भारत को मिल रही है, यह उन लोगों के लिए भी एक सबक है जो कल तक कोरोना महामारी के विरुद्ध लड़ाई के आरंभिक दौर में अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ताली-थाली बजवाने और दीये जलवाने जैसे आह्वान का मजाक बना रहे थे और कह रहे थे कि दुनिया वैक्सीन बनाने में लगी है, भारत ताली-थाली बजाने में लगा है । इन लोगों ने हमारे विज्ञानियों की प्रतिभा पर भी विश्वास नहीं किया था।
(लेखक, फिल्‍म प्रमाणन बोर्ड एडवाइजरी कमेटी के पूर्व सदस्‍य एवं न्‍यूज एजेंसी हिन्‍दुस्‍थान समाचार से जुड़े पत्रकार हैं)

म्यांमार में तख्ता-पलट
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के पड़ौसी देश म्यांमार (बर्मा या ब्रह्मदेश) में आज सुबह-सुबह तख्ता-पलट हो गया। उसके राष्ट्रपति बिन मिन्त और सर्वोच्च नेता श्रीमती आंग सान सू की को नजरबंद कर दिया गया है और फौज ने देश पर कब्जा कर लिया है। यह फौजी तख्ता-पलट सुबह-सुबह हुआ है जबकि अन्य देशों में यह प्रायः रात को होता है। म्यांमार की फौज ने यह तख्ता इतनी आसानी से इसीलिए पलट दिया है कि वह पहले से ही सत्ता के तख्त के नीचे घुसी हुई थी। 2008 में उसने जो संविधान बनाया था, उसके अनुसार संसद के 25 प्रतिशत सदस्य फौजी होने अनिवार्य थे और कोई चुनी हुई लोकप्रिय सरकार भी बने तो भी उसके गृह, रक्षा और सीमा- इन तीनों मंत्रालयों का फौज के पास रखा जाना अनिवार्य था। 20 साल के फौजी राज्य के बावजूद जब 2011 में चुनाव हुए तो सू की की पार्टी ‘नेशनल लीग फाॅर डेमोक्रेसी’ को स्पष्ट बहुमत मिला और उसने सरकार बना ली। फौज की अड़ंगेबाजी के बावजूद सू की की पार्टी ने सरकार चला ली लेकिन फौज ने सू की पर ऐसे प्रतिबंध लगा दिए कि सरकार में वह कोई औपचारिक पद नहीं ले सकीं लेकिन उनकी पार्टी फौजी संविधान में आमूल-चूल परिवर्तन की मांग करती रही। नवंबर 2020 में जो संसद के चुनाव हुए तो उनकी पार्टी ने 440 में से 315 सीटें 80 प्रतिशत वोटों के आधार पर जीत लीं। फौज समर्थक पार्टी और नेतागण देखते रह गए। अब 1 फरवरी को जबकि नई संसद को समवेत होना था, सुबह-सुबह फौज ने तख्ता-पलट कर दिया। कई मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और मुखर नेताओं को भी उसने पकड़कर अंदर कर दिया है। यह आपात्काल उसने अभी अगले एक साल के लिए घोषित किया है। उसका आंरोप है कि नवंबर 2020 के संसदीय चुनाव में भयंकर धांधली हुई है। लगभग एक करोड़ फर्जी वोट डाले गए हैं। म्यांमार के चुनाव आयोग ने इस आरोप को एकदम रद्द किया है और कहा है कि चुनाव बिल्कुल साफ-सुथरा हुआ है। अभी तक फौज के विरुद्ध कोई बड़े प्रदर्शन आदि नहीं हुए हैं लेकिन दुनिया के सभी प्रमुख देशों ने इस फौजी तख्ता-पलट की कड़ी भर्त्सना की है और फौज से कहा है कि वह तुरंत लोकतांत्रिक व्यवस्था को बहाल करे, वरना उसे इसके नतीजे भुगतने होंगे। भारत ने भी दबी जुबान से लोकतंत्र की हिमायत की है लेकिन चीन साफ़-साफ़ बचकर निकल गया है। वह एकदम तटस्थ है। उसने बर्मी फौज के साथ लंबे समय से गहरी सांठ-गांठ कर रखी है। बर्मा 1937 तक भारत का ही एक प्रांत था। भारत सरकार का विशेष दायित्व है कि वह म्यांमार के लोकतंत्र के पक्ष में खड़ी हो।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं)

सरकार की मजबूरी
सिद्धार्थ शंकर
कोरोना काल के बाद मोदी सरकार का पहला बजट आ चुका है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बजट पेश किया है। इसमें मिडिल क्लास खाली हाथ ही रहा। सरकार ने इनकम टैक्स स्लैब में कोई बदलाव नहीं किया, न ही कोई छूट दी। हालांकि, किफायती घर खरीदने वालों को ब्याज में 1.5 लाख रुपए की एक्स्ट्रा छूट का समय एक साल बढ़ाकर मार्च 2022 तक कर दिया। वहीं 75 साल से ज्यादा उम्र वाले पेंशनर्स को इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने से छूट भी दी है। बजट को बाजार ने पूरे नंबर दिए हैं। भाषण के बाद बाजार में रिकॉर्ड तेजी दिखी। सेंसेक्स 2,020 अंकों की बढ़त के साथ 48,306.59 पर पहुंच गया। इनकम टैक्स को लेकर बजट में कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ है। पिछले साल की ही तरह इस साल भी इनकम टैक्स रिटर्न फाइल करने के दो ऑप्शन मिलेंगे। इनकम टैैक्स में बदलाव की उम्मीद नौकरी पेशा कर रहा था, मगर उसे निराशा हाथ लगी है।
बजट में सरकार का पूरा जोर कोरोना संकट से बाहर आने पर हैै। अभी सरकार की मंशा पस्त पड़ी अर्थव्यवस्था को उबारने और लोगों तक वैक्सीन पहुंचाने की है। इसीलिए स्वास्थ्य क्षेत्र को उम्मीद से ज्यादा दिया गया है। इस कोरोना काल में पहले से ही ये उम्मीद की जा रही थी कि स्वास्थ्य क्षेत्र को बजट से बहुत कुछ मिलेगा और ऐसा हुआ भी। स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बजट में बढ़ोतरी की गई है और साथ ही वित्त मंत्री सीतारमण ने आत्मनिर्भर स्वस्थ भारत योजना का तोहफा दिया। वित्त मंत्री ने स्वच्छ भारत मिशन को आगे बढ़ाने का ऐलान किया, जिसके तहत शहरों में अमृत योजना को आगे बढ़ाया जाएगा। इसके लिए दो लाख 87 हजार करोड़ रुपए जारी किए गए। वित्त मंत्री की ओर से मिशन पोषण 2.0 का भी ऐलान किया गया है। वित्त मंत्री ने कोविड-19 वैक्सीन के लिए 35 हजार करोड़ रुपए का ऐलान किया। उन्होंने बताया कि स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट को 137 फीसदी तक बढ़ाया गया है।
वित्त मंत्री ने कहा कि सरकार अगले छह सालों में स्वास्थ्य क्षेत्र पर करीब 61 हजार करोड़ रुपए खर्च करेगी। उन्होंने कहा कि इन पैसों को प्राथमिक स्तर से लेकर उच्च स्तर तक की स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाएगा और नई बीमारियों पर भी ध्यान दिया जाएगा और यह राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन से अलग होगा। मोदी सरकार ने किसानों की नाराजगी को दूर करने के लिए भी कदम उठाया है। सीतारमण ने कृषि सेक्टर के लिए 16.5 लाख करोड़ के बजट का एलान किया, जिसमें पिछले साल के मुकाबले इजाफा किया गया। बता दें कि साल 2020-21 के बजट में कृषि सेक्टर के लिए 15 लाख करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। बजट में कृषि कानूनों के विरोध कर रहे किसानों का जिक्र नहीं किया गया, लेकिन आंकड़ों के माध्यम से उन्हें साधने की कोशिश की गई। ऐसे ही कुछ ऐलान आम आदमी के लिए भी किए जाते तो बेहतर रहता।
कुल मिलाकर इस बजट को खारिज नहीं किया जा सकता। अभी तो चुनौती यह है कि सरकार कोरोना काल में पीछे गई अर्थव्यवस्था को पटरी पर लेकर आए। इसीलिए सरकार काफी दिनों से कह रही थी इस बार राहत की ज्यादा उम्मीद देश न करे। इस बात के संकेत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी दे चुके थे। सो, सीतारमण के इस बजट को संकट काल का सबसे बेहतरीन बजट कहा जा सकता है, जिसमें उन्होंने न किसी को ज्यादा खुश किया और न ही किसी को ज्यादा नाराज।
बजट में जिन प्रावधानों का ऐलान नहीं किया गया है, उसमें यात्रियों को यात्रा के दौरान कंफर्म सीट मिलना है। ट्रेनों में लगातार लंबी होती जा रही वेटिंग सूची ने रेलवे के पूरे तंत्र को फेल कर रखा है। उम्मीद है कि रेलवे को जो बजट मिला है, उससे वह इस तरफ कुछ काम करेगी। पिछली यूपीए सरकार के समय तक बजट में टे्रनों की भारी-भरकम घोषणाओं का दौर मोदी सरकार के आने के बाद खत्म हो चुका है और सरकार समय-समय पर सुविधायुक्त ट्रेनों को शुरू भी कर रही है, मगर अब भी ट्रेनों की गुंजाइश बनी है।

1988 के किसान आंदोलन के बाद उ.प्र. की सत्ता से बाहर
सनत जैन
किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में लगभग 5 लाख किसानों ने 1 सप्ताह तक दिल्ली के बोट क्लब पर इकट्ठा होकर तत्कालीन राजीव गांधी सरकार के लिए चुनौती खड़ी की थी। 14 राज्यों के किसान इस आंदोलन में शामिल हुए थे। किसानों की मांग मान लिए जाने के बाद भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस फिर कभी अपनी जड़ें नहीं जमा पाई। किसानों के एक बड़े समूह ने 1988 में विजय चौक से लेकर इंडिया गेट तक कब्जा कर लिया था। किसानों ने उस समय भी अपने ट्रैक्टर और बैलगाड़ियों को वोट क्लब में लाकर खड़ा कर दिया था। वोट क्लब में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि मनाने के लिए जो मंच बनाया गया था। उस मंच पर किसानों ने कब्जा कर लिया था। उस समय भी सरकार ने कई दिनों तक किसानों की बात नहीं मानी थी। लेकिन किसानों के आंदोलन में लाखों किसानों के एकत्रित होने से दिल्ली एक तरह बंधक हो गई थी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी को किसानों के जबरदस्त आंदोलन को देखते हुए, किसानों की बात को मानना पड़ा था। तत्कालीन सरकार ने किसानों की 35 सूत्री मांगों को स्वीकार किया था। तभी किसान अपने घर वापस लौटे थे।
किसान समुदाय एक ऐसी कौम है, जिसे सदैव लड़ते हुए अपने अस्तित्व को बनाए रखना पड़ता है। कभी बारिश नहीं होना, सूखा होना, समय पर बारिश नहीं होने से बोनी का नुकसान होना, विपरीत परिस्थितियों में हर मौसम में लड़ते हुए किसान खेती का काम करते हैं। इस काम में किसान का पूरा परिवार उनके साथ जुटा रहता है। किसान परिवार का जुझारूपन और खेती से उनकी निर्भरता को इस बात से समझा जा सकता है कि किसान खाद बीज कर्ज में लेकर इस आशा में खेतों में डाल देता है। किसान को भाग्य और अपने विश्वास पर भरोसा होता है। कुछ ना कुछ फसल तो उसकी होगी। उसकी मेहनत तो निकल जाएगी। कई बार किसान फसल में जो खर्च करता है, वह भी नहीं निकल पाती है। उल्टे किसान कर्ज में फंस जाता है। इसके बाद भी वह कभी अपना काम नहीं बदलता है। किसान को अपनी जमीन और फसल से उतना ही प्यार होता है। जितना वह अपने परिवार के सदस्यों से प्यार करता है। खेती के लिए वह जीवन भर प्रकृति से लड़ता है, साहूकारों से भी लड़ता है। कड़ी मेहनत करने के बाद भी उसे जब पर्याप्त मुआवजा नहीं मिल पाता है। इसके बाद भी किसान निराश हुए बिना वह पुनः अपनी नई फसल की तैयारी शुरू कर देता है। केंद्र सरकार किसानों की इस आंदोलन को क्यों नहीं समझ पा रही है। इसे राजनीतिक हलकों में बड़े आश्चर्य से देखा जा रहा है। कांग्रेस की राजीव सरकार ने एक बार किसानों की अनदेखी की। जिसका परिणाम है पिछले 32 वर्षों से उत्तर प्रदेश से कांग्रेस का सूपड़ा एक तरह से साफ हो गया है। किसानों के 1988 आंदोलन के बाद उ.प्र. का किसान भाजपा और सपा का वोटर बन गया। अजीत सिंह की भी हिस्सेदारी किसानों में बढ़ गई थी। कभी उत्तर प्रदेश में राज करने वाली कांग्रेस आज उत्तर प्रदेश में चौथे नंबर की पार्टी बनकर, उत्तर प्रदेश तथा केंद्र की सत्ता से बाहर है।
भारत में जब जब किसानों के आंदोलन हुए हैं। उसके बाद बहुत बड़े राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं। सबसे पहले 1947 में हैदराबाद रियासत में सामंती अर्थव्यवस्था के खिलाफ किसानों ने आंदोलन शुरू किया था। जो लगभग 4 साल तक चला। इसने आंध्र प्रदेश की पूरी राजनीति के समीकरण बदल दिए थे। 1967 में पश्चिम बंगाल के किसानों ने खेती की जमीन को लेकर बड़े-बड़े कास्तकारों के खिलाफ आंदोलन शुरू किया था। जो आगे चलकर नक्शलवाड़ी के रूप में परिवर्तित हुआ था। उसके बाद पश्चिम बंगाल में नक्सलियों के आंदोलन बढ़े और पश्चिम बंगाल की सत्ता पर वामपंथी काबिज हो गए। 1988 में दिल्ली के बोट क्लब पर किसानों का आंदोलन हुआ, उसके बाद से कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश की सत्ता से आज तक बाहर है। एक बार फिर किसान आंदोलन बड़े पैमाने पर दिल्ली के बॉर्डर पर बैठा हुआ है। 67 दिन से ज्यादा इस आंदोलन को चलते हुए हो गए हैं। किसान आंदोलन में लगभग 150 लोगों की मौत हो चुकी है। 400 से ज्यादा किसान गिरफ्तार हैं। इसके बाद भी आंदोलन पूरे जोश खरोश से शांतिपूर्वक चल रहा है। इसके पूर्व जो भी किसान आंदोलन हुए, उसमें किसानों को कभी बेइज्जत नहीं किया गया था। इस आंदोलन में सरकार ने खालिस्तानी, टुकड़े-टुकड़े गैंग, किसान ही नहीं है, गद्दार इत्यादि संबोधन देकर किसानों के जमीर को जिस तरह से झकझोरा है। उससे यह आंदोलन अभी तक के सभी आंदोलनों से हटकर किसान आंदोलन बन गया है। पंजाब से शुरू हुआ यह आंदोलन पिछले दो माह में हरियाणा, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान इत्यादि की सीमाओं को लाघते हुए देश के कई राज्यों में फैल गया है। त्रिपुरा के राज्यपाल सत्यपाल मलिक का यह कहना कि सरकार आंदोलनकारियों से ठीक तरह से निपटें, नहीं तो पार्टी को इससे नुकसान होगा। भारतीय जनता पार्टी के सहयोगी दलों ने भी जिस तरीके से भाजपा से किनारा करना शुरू कर दिया है। धीरे-धीरे यह जनआंदोलन में परिवर्तन हो रहा है। किसान आंदोलन भाजपा के लिए शुभ संकेत नहीं है।

अर्थव्यवस्था को गति दे सकता है बजट
सिद्धार्थ शंकर
कोरोना काल के बाद मोदी सरकार सोमवार को पहला बजट पेश करेगी। बजट में सरकार के सामने ग्रोथ और राजकोषीय घाटे दोनों को ही साधने की चुनौती होगी। कोरोना महामारी ने दुनियाभर की सरकारों और व्यापारियों को अपने तौर-तरीकों में बदलाव के लिए मजबूर किया है। अब तेजी से वैक्सीनेशन के साथ भारत एक बार फिर विकास के रास्ते पर वापसी कर रहा है। ऐसे में ग्राहक, बिजनेस और उद्योग केंद्रीय बजट 2021 से राहत की उम्मीद लगाए बैठे हैं ताकि महामारी के दौर में उन्हें हुए नुकसान की भरपाई की जा सके और आने वाले दिनों में उन्हें तरक्की के मौके मिल सकें। कोरोना महामारी के दौरान सरकार ने आत्मनिर्भर भारत का मंत्र दिया था। आत्मनिर्भरता का सपना मैनुफैक्चरिंग और इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश से ही साकार हो सकता है। मैनुफैक्चरिंग सेक्टर में ग्रोथ के लिहाज से पिछले बजट में नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन की घोषणा की गई थी। इसके तहत 2020 से 2025 के बीच करीब 7300 परियोजनाओं पर 111 लाख करोड़ रुपए खर्च होने हैं लेकिन इन परियोजनाओं के बारे में और स्पष्टता की जरूरत है। कोरोना प्रसार के बावजूद एग्रीकल्चर सेक्टर ने शानदार वृद्धि की है। देश में सबसे ज्यादा लोग इसी सेक्टर में काम करते हैं। इस बजट में सरकार को कृषि निर्यात को प्रोत्साहन देना चाहिए। एग्रीकल्चर सेक्टर के लिए योजनाओं और छूट की घोषणा की जानी चाहिए। रियल एस्टेट की बात करें तो 2020 में ज्यादातर समय सुस्त पड़े रहने के बाद अब सीमेंट, स्टील और पेंट जैसे सेक्टर में भी तेजी आने की उम्मीद है। इसलिए रियल स्टेट इनवेस्टमेंट को बढ़ावा देने के लिए कम ब्याज दरों पर लोन दिया जाना चाहिए। विदेशी निवेशकों को भी इस सेक्टर में मौका दिया जाना चाहिए। यह सेक्टर अपनी गति को वापस पा सका तो प्रवासी और अकुशल मजदूरों को फिर से काम मिल सकेगा जो महामारी से सबसे ज्यादा प्रभावित हुए हैं। इसके साथ ही पर्सनल और कॉर्पोरेट इनकम टैक्स में कटौती की जानी चाहिए। सामाजिक सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में मदद को बढ़ाया जाना चाहिए। सरकार के सामने इस वक्त दोहरी चुनौती है। एक ओर अर्थव्यवस्था को बढ़ाना है तो दूसरी ओर राजकोषीय घाटे को नियंत्रित रखना है। ऐसे में विदेशी निवेश सरकार कि मुश्किलें आसान कर सकता है। चीन से आने वाली कंपनियों को बड़े पैमाने पर भारत में आकर्षित करने के लिए ईज ऑफ डूइंग बिजनेस में सुधार की जरूरत है। बजट में कंपनियों के लिए टैक्स सिस्टम में सुधार किया जाए जिससे आय और निवेश के ज्यादा मौके बन सकें। श्रम और भूमि से जुड़े कानूनों को अच्छी तरह लागू किया जाए। सीतारमण द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले वर्ष 2021-22 के बजट के समक्ष सात बड़ी चुनौतियां होंगी। एक, कोविड-19 से निर्मित अप्रत्याशित आर्थिक सुस्ती का मुकाबला करने और विभिन्न वर्गों को राहत देने के लिए व्यय बढ़ाना। दो, रोजगार के नये अवसर पैदा करना। तीन, तेजी से घटे हुए निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए आकर्षक प्रावधान करना। चार, बैंकों में लगातार बढ़ते हुए एनपीए को नियंत्रित करना और क्रेडिट सपोर्ट को जारी रखना। पांच, महंगाई पर नियंत्रण रखना। छह, नयी मांग का निर्माण करना और सात, कोरोना वायरस से बचाव के लिए टीकाकरण एवं अन्य स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च में वृद्धि करना। ऐसे में वित्तमंत्री वर्ष 2021-22 के बजट में राजकोषीय घाटे (फिजिकल डेफिसिट) का नया खाका पेश करती हुई दिखाई दे सकती हैं। गौरतलब है कि सरकार ने चालू वित्त वर्ष 2020-21 में राजकोषीय घाटे को 3.5 प्रतिशत सीमित करने का लक्ष्य रखा था। कोरोना महामारी के कारण जीडीपी में संकुचन और राजस्व संग्रह तथा व्यय के बीच बढ़ते हुए अंतर के कारण राजकोषीय घाटा बढ़कर 7 से 8 प्रतिशत के बीच पहुंच सकता है। यह घाटा आगामी वित्त वर्ष में बढऩे की पूरी संभावनाएं रखता है।

शराबबंदी ही गाँधी को सच्ची श्रद्धांजलि
रघु ठाकुर
प्रदेश में अवैध शराब और जहरीली शराब से हो रही मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है। मुरैना में तो लगभग 25 से अधिक मौतें हो चुकी हैं, मुरैना के अलावा भी पहले कई जिलों में अवैध शराब से मृत्यु की घटनाएं हुई हैं।
अवैध और जहरीली शराब से केवल म.प्र. ही नही बल्कि अन्य प्रदेशों जैसे उ.प्र., महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश, तैलांगना, पंजाब आदि में भी ऐसी घटनाऐं हुई है जो प्रचार तंत्र में प्रमुखता के साथ छपी है।
अमूमन ऐसी घटनाओं के सामने आने के बाद समाज और राजनैतिक दल इसे कानून व्यवस्था या आबकारी पुलिस और राजनैतिक भष्ट्राचार के रूप में देखते हैं तथा कर्मचारियों व अधिकारियों को ही एक मात्र दोषी मानकर उन पर कार्यवाही की मांग करते हैं। सरकारें भी जन आक्रोश को शाँत करने के लिए कुछ कार्यवाही करती है तथा कुछ समय पश्चात्् मीडिया के मुख्य पृष्ठ से भी यह खबरें दूर हो जाती हैं और धीरे-धीरे लोग भी भूल जाते हैं।
कई बार सरकारें समितियां भी गठित करती है, उन समितियों की भारी भरकम रपटें भी आती है। और वे भी फाईलों में बंद होकर दब जाती है। जो मूल प्रश्न है उस पर समाज, मीडिया और सरकारें सभी मूल प्रश्नों को बहस का विषय नही बनाती। लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी चाहती है कि प्रदेश व देश में संपूर्ण शराबबंदी होना चाहिए। हम जानते है कि हमारी माँग के बाद तीन प्रकार के तर्क दिये जायेंगे।
1. अगर शराबबंदी कानून से हो भी जाए तो अवैध शराब बिकती रहेगी और इसकी खपत ज्यादा बढ जाएगी।
2. सरकार के राजस्व में कमी होगी और आय घट जाएगी जिसका असर विकास कार्यों पर होगा।
3. शराब पीना लोगों का अपना अधिकार है, दुनिया के देशों में भी लोग शराब पीते है। भारत के अतीत में भी शराब का प्रचलन था और कुछ लोग यह भी तथ्य देंगे कि देवता भी सोमरस पान करते थे याने शराब पीते थे।
पहले बिंदु पर हम विचार करें तो यह संभव है कि शराबबंदी के बाद भी अवैध शराब माफिया सक्रिय हो जो अभी भी सक्रिय है और अगर शराब की बिक्री और पीना तथा उत्पादन वैधानिक होने के बाद भी अगर अवैध शराब बनती बिकती और पी जाती है तो इसके कारणों की खोज आवश्यक है। यह वैधानिक प्रशासनिक और सामाजिक तीनों पक्षों की कमी है अकेले शराब के नाम से ही नही बल्कि बहुत सारे ऐसे कानून है कि जिनके होते हुए भी अनेकों उनसे संबंधी अपराध प्रतिदिन होते है। क्या आयकर कानून के बाद आयकर की चोरी नही होती है? क्या आई.पी.सी. में प्रावधान होने के बाद भी डकैती और बलात्कार के खिलाफ मृत्युदण्ड तक का प्रावधान होने के बावजूद भी ये अपराध नही होते? तो क्या इन सब कानूनों को समाप्त कर देना चाहिए? कानून बनने के पीछे जहाँ एक तरफ विधायिकाओं का बहुमत होता है वही दूसरी तरफ जनमत की भी अभिव्यक्ति होती है। यह एक प्रकार से समाज के बहुमत की और समाज की प्रतिनिधि राय होती है। कानून का उल्लघंन अपवाद और विकृतियां है तथा अपवाद और विकृतियों के नाम पर हम समाज को अपराध की खुली छूट नही दे सकते क्योंकि इसका अर्थ होगा जंगलराज और ताकत का राज्य। इसलिए इस नकारात्मक तुलना के बजाय पहल यह होना चाहिए कि इन कानूनों को ठीक ढंग से कैसे लागू किया जाए ताकि अपराध ही न हों।
जहाँ तक राजस्व का सवाल है तो अगर गहराई से अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि शराब से होनी वाली आय और इस आय को इकठ्ठा करने वाले प्रशासन तंत्र के खर्च में कुछ ज्यादा फर्क नही है। फिर अगर आय भी हो तो क्या फिर ऐसा समाज देश व दुनिया अच्छी मानी जायेगी जो अपराध और सामाजिक पतन से पैसा कमाए? क्या डकैती या वेश्यावृत्ति के लायसेंस देकर किसी सरकार के द्वारा टेक्स वसूली और आय होने का तर्क स्वीकार होगा? मेरे ख्याल से कोई भी सभ्य समाज या सभ्य सरकार इसे स्वीकार नही करेगी। दरअसल सच्चाई तो यह है कि शराब से सरकार को आय भले ही कुछ होती हो परंतु अधिकांश राजनैतिक दल और विशेषत: बड़े राजनैतिक दल शराब माफियाओं के पैसे से ही चल रहे है। यहाँ तक कि चुनाव में मतदाताओं को खरीदने के लिए शराब के पैसे और शराब की बोतलों का इन दिनों भारी इस्तेमाल होने लगा है। मुझे स्मरण है कि जब संयुक्त म.प्र. के (जब म.प्र. और छत्तीसगढ़ इकठ्ठा था) के मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह जी थे तब दुर्ग जिले के भिलाई में श्री केडिया जो एक बहुत बड़े शराब उत्पादक थे के पारिवारिक आयोजन में भोपाल से एक विशेष विमान भिलाई गया था। जिसमें मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह और उनकी स्व. पत्नी, स्व. श्यामाचरण शुक्ल और उनकी पत्नि, स्व. कैलाश जोशी पूर्व मुख्यमंत्री और उनकी स्व. पत्नी तीनों एक साथ थे। स्व. श्यामाचरण शुक्ल जी कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे थे तथा स्व. कैलाश जोशी जनता पार्टी के मुख्यमंत्री रहे थे और भाजपा के बड़े नेता थे। भिलाई के पत्रकारों से बातचीत करते हुए श्री दिग्विजय सिंह ने साहसिक स्वीकारोक्ति की थी कि “सभी राजनैतिक दलों के दिये केडिया के तेल से जलते है“ याने सभी राजनैतिक दल केडिया के पैसे से चलते है। यह कल का भी सत्य था और आज का भी है कि अधिकांश राजनैतिक दल शराब उद्योगपतियों के पैसे से चल रहे है। जितनी आय शराब से सरकार को होती है, उससे ज्यादा पैसा शराब उद्योगपति मुनाफे में कमाते है, और राजनैतिक दल चंदा के रूप में ले लेते है।
शराब एक ऐसे मुकाम पर पहुंच गई है जो समाज को ही मिटा रही है। समचार पत्रों में आये दिन समाचार छपते है कि शराब पीकर हत्यायें और बलात्कार किये जाते है। शराब के पैसे के लिए पति पत्नी की हत्या कर देता है, बेटा माता और पिता की हत्या कर देता है। शराब घरों को नष्ट कर रही जहां शराब पीने वाले व्यक्ति अपनी पत्नी के साथ मारपीट गाली गलोज करते है, वहीं अपने बच्चों को दुर्गुण सिखाते है। बेरोजगार नौजवान या तो शराब के लिए घरों का पैसा चुराते है यहाँ तक कि पढ़ने वाले विद्यार्थी तक लूटपाट करते है, ऐसी स्थिति बन गई है। ग्रामीण अंचलों में किसानों की जमीन शराब माफिया और साहूकार गिरवी रख लेते है और उन्हें शराब पीने को उधार पैसा देते है जिस पर मनमाना ब्याज लेते है, और फिर गुंडा शक्ति से जमीनों पर कब्जा कर लेते है और जमीनें अपने नाम करा लेते है। अब तो यहां तक स्थिति हो गई है कि गाँव-गाँव में बेरोजगार लड़को की एक फौज खड़ी हो गई है, जो शराब दुकानों से शराब के इकठ्ठे पाउच लेती है और गाँव में जाकर बेचती है। यहाँ तक कि गाँव में उधारी पर शराब दी जा रही है। यहीं शराब माफिया के तंत्र के नौजवान उनके मालिक के समर्थक सरकारी दल के प्रचारक भी बन जाते है। शराब ने लोकतंत्र को भ्रष्ट तो कर ही दिया है और अब नष्ट करने की कगार पर है। भारतीय लोकतंत्र तो लोकमत से बनने वाले तंत्र के बजाय शराब के बोतलों से जन्म देने वाला तंत्र बन गया है। याने लोकतंत्र एक अर्थ में शराबतंत्र बन रहा है, ”जो शराब से ही पैदा होगा – शराब माफियाओं के लिए काम करेगा और शराब माफियाओं का होगा।
जहाँ तक वैदिक काल और प्राचीन काल में सोमरस या शराब के प्रचलन का संबंध है वह अब न तार्किक है और न सामयिक। यद्यपि उसके कोई प्रमाणिक तथ्य भी मौजूद नहीं है। परंतु अगर मान लो कि वे है भी तो भी यह सोचना होगा कि क्या वे आज के लिए उचित या आदर्श है? हो सकता है कि उस कालखण्ड में भौगोलिक परिस्थितियां उत्पादन और कृषि का अभाव आदि कारण रहे हो परंतु अब उनका कोई औचित्य नहीं है। कुछ लोग आदिवासी समाज की प्राचीन परंपरा का उदाहरण भी देंगे और कहेंगे कि आदिवासी अपनी परंपरा के अनुसार शराब बनाता है और पीता है। परंतु आदिवासी समाज के इतिहास में शराब-नशे, अपराध या मुनाफे की नहीं वरण उनके जीवन के पोषण अभाव की पूर्ति और खानपान की जरूरत थी वह उनके समूह जीवन का हिस्सा थी। परंतु उसमें अपराध नहीं था। इन मित्रों से में कहना चाहूगा कि वे आदिवासी समाज के इतिहास व परिस्थितियों का अध्ययन करे। हज़ारों साल के इतिहास में आदिवासी समाज में न कभी डकैतियां हुई न बलात्कार हुए ना नारी का असम्मान हुआ और न संपत्ति का संचय और शोषण हुआ। आदिवासी समाज में संपूर्ण क्षमता थी और आदर्श लोकतंत्र था। जहाँ सब मिलकर पैदा करते थे – पैदावार के साधन सबके सामूहिक स्वामित्व के थे और अपनी-अपनी जरूरत के अनुसार उपयोग करते थे – साथ में रहते थे तथा वस्त्रों के अभाव के बावजूद भी कभी कोई बलात्कार नहीं हुआ और न नारी के साथ कोई हिंसा हुई। अब आदिवासी समाज का भी अच्छा खासा हिस्सा शिक्षा व काम के लिए शहरों में आया है व शहरों में अब वस्त्र पहनकर रहते है और शराबखोरी नहीं करते।
दरअसल समाज व मीडिया का दायित्व समाज की कमियां व बुराईयों को दूर करना उसे सभ्यता के जीवन मूल्यों की ओर ले जाना है। 30 जनवरी राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी की पुण्यतिथि है। बापू संपूर्ण शराबबंदी के पक्षधर थे और उन्होंने शराब के खिलाफ न केवल लिखा बोला बल्कि एक सामाजिक अभियान भी चलाया।
आज सरकारों का यह दायित्व है, कि वे 30 जनवरी को संपूर्ण शराबबंदी की घोषणा कर राष्ट्रपिता को सच्ची श्रद्धांजलि अर्पित करें और समाज का भी यह दायित्व है कि राष्ट्रपिता के बताए मार्ग पर चले और शराब के चलन को राजनीति और समाज से मिटाने के लिए सक्रिय हो तथा अपने राष्ट्रीय व नैतिक दायित्व का निर्वहन करें।

 

ये और वेः दोनों अराजक
डॉ.वैदप्रताप वैदिक
इस बार का गणतंत्र-दिवस गनतंत्र-दिवस न बन जाए, इसकी आशंका मैंने पहले ही व्यक्त की थी। मुझे खुशी है कि किसानों के प्रदर्शनों में किसी ने भी बंदूके नहीं चलाईं। न तो किसानों ने और न ही पुलिसवालों ने ! लेकिन बंदूकें चलने से भी अधिक गंभीर घटना हो गई। उसे दुर्घटना कहें तो बेहतर होगा। ऐसी दुर्घटना किसी भी राष्ट्र के इतिहास में कभी घटी हो तो उसकी जानकारी मुझे नहीं है। क्या कोई भी राष्ट्र अपने लालकिले या राष्ट्रपति भवन या संसद भवन या प्रधानमंत्री कार्यालय पर किसी संप्रदाय के ध्वज को फहरा सकता है ? हर संप्रदाय का ध्वज सम्मान के योग्य है लेकिन लाल किले पर उसका फहर जाना तो दुस्साहस की पराकाष्ठा है। जिस सरकार के साये में ऐसी शर्मनाक घटना घटे, वह सरकार, क्या सरकार कहलाने के योग्य है ? ऐसी घटनाएं तभी घटती हैं, जब दुनिया के देशों में सरकारों का खूनी तख्ता-पलट होता है।
यहाँ किसी का खून बहना तो दूर, बाल भी बांका नहीं हुआ। लाल किले का इतना मजबूत दरवाजा, जिसे पागल हाथी भी नहीं तोड़ सकते, उसे लांघकर उपद्रवी अंदर घुस जाएं, सैकड़ों की संख्या में मंच पर चढ़ जाएं और पुलिस असहाय निरुपाय खड़ी रहे, क्या ऐसी अनहोनी पहले कभी हुई है ? खंभों और गुंबजों पर चढ़ते वक्त उन उपद्रवियों को पुलिस ने रोका क्यों नहीं ? पुलिस अगर उनके विरुद्ध कठोरतम कार्रवाई करती तो भी पूरा देश उसका समर्थन करता लेकिन पुलिस की इस अकर्मण्यता के पीछे कई लोग अब सरकार का ही हाथ बता रहे हैं।
उनका अजीब-सा सोचना है कि यह नौटंकी सरकार ने ही आयोजित करवाई है ताकि किसान-आंदोलन को बदनाम किया जा सके। दिल्ली की सीमाओं पर आक्रामक किसानों के साथ पुलिस के लचर-पचर व्यवहार को भी इस सरकारी साजिश का अंग बताया जा रहा है। लगभग सौ पुलिसवाले बुरी तरह से घायल होकर अस्पताल में पड़े है। सरकार के 56 इंच के सीने को सिकोड़कर किसानों ने 6 इंच का कर दिया है। किसान नेता प्रदर्शनकारियों के कुकृत्य की कितनी ही भर्त्सना करें, लेकिन अब इस आंदोलन के माथे पर काला टीका लग गया है।
मैंने इस अहिंसक आंदोलन को दुनिया का अपूर्व आंदोलन कहा था लेकिन इसकी असली कमजोरियां अब उजागर हो रही हैं। यह नेताविहीन तो है ही, यह दिशाविहीन भी है। इसका अब बिखरना और टूटना अवश्यंभावी है। ज़रा सोचें कि दिल्ली के अलावा अन्य 20 शहरों में हुए किसानों के प्रदर्शन इतने शांतिपूर्ण कैसे हुए ? क्योंकि इनके पीछे पार्टियां थीं और नेता थे। लेकिन लगता है कि अब सरकार और किसान, दोनों अराजक हो गए हैं।
जाहिर है कि अब एक फरवरी को संसद पर किसान-प्रदर्शन असंभव होगा। सरकार और किसान, दोनों अपना-अपना दुराग्रह छोड़ें। वापसी की रट न लगाएं। न किसानों की और न ही कानूनों की वापसी हो। दोनों मध्यम मार्ग पर सहमत हों। इन कानूनों को जो राज्य मानना चाहें, वे मानें, जो न मानना चाहें, वे न मानें।

बैकफुट पर किसान
सिद्धार्थ शंकर
दिल्ली हिंसा के बाद देश में नाराजगी औैर सरकार के कड़े रुख का असर दिखने लगा है। मेरठ के पास बड़ौत में चल रहे किसानों के आंदोलन पर भी पुलिस प्रशासन ने सख्त रुख अपनाया और बुधवार रात करीब साढ़े 11 बजे पुलिस धरना स्थल पर पहुंचकर हल्का बल प्रयोग कर धरनास्थल खाली करा लिया। किसानों ने 31 जनवरी को महापंचायत बुलाने का एलान किया था। भगदड़ में कुछ किसानों को चोट आई है। वहीं बीते दो महीने से जारी किसान आंदोलन के भविष्य के लिए अगले दो-तीन दिन बेहद अहम हैं। गणतंत्र दिवस हिंसा के बाद जहां किसान नेताओं के बीच दरार पैदा हुई है, वहीं पहली बार दिल्ली की विभिन्न सीमाओं पर डटे आंदोलनकारियों की संख्या में कमी आई है। अगर अगले एक-दो दिनों में आंदोलनकारियों की संख्या और घटी तो किसान संगठनों के लिए सरकार पर दबाव बनाना बेहद मुश्किल होगा। गौरतलब है कि आंदोलनकारियों की संख्या कम होने और नेताओं के बीच मतभेद सामने आने के कारण ही सरकार की ओर से गणतंत्र दिवस हिंसा पर कोई प्रतिक्रिया नहीं आ रही। सरकार चाहती है कि आंदोलन अंतर्विरोधों के कारण खुद कमजोर हो जाए। गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में ट्रैक्टर परेड के दौरान जिस तरह बवाल हुआ और लाल किले पर धार्मिक झंडा फहराया गया, उससे आंदोलन में दरार पडऩी शुरू हो गई है। हरियाणा के खाप प्रतिनिधि और किसान नेताओं ने इस पर नाराजगी जता साफ कहा है कि तिरंगे की जगह धार्मिक झंडा किसी भी हालत में मंजूर नहीं है। वहीं इस घटनाक्रम से नाराज हरियाणा के काफी किसान जहां घर लौट गए हैं, वहीं खाप पंचायतें भी आंदोलन से सर्मथन वापसी का मन बना रही हैं। इस बीच पंजाब के किसान संगठन सीमा पर किसानों की संख्या पूर्व की तरह ही बरकरार रखने के लिए नए सिरे से सक्रिय हुए हैं। इन संगठनों की योजना पंजाब से नए सिरे से भीड़ जुटाने की है। सूत्रों का कहना है कि इस आशय की सूचना मिलने के बाद सरकार ने हरियाणा सरकार को आगाह किया है। हरियाणा के खाप प्रतिनिधियों ने जल्द ही सर्वखाप पंचायत कर किसान संगठनों को समर्थन पर फैसला लेने की बात कही है। खाप प्रतिनिधियों ने साफ कहा कि किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं करेंगे कि लाल किले पर तिरंगे की जगह कोई धार्मिक झंडा फहराया जाए। देश की एकता और अखंडता को तोडऩे की इजाजत किसी को नहीं दी जा सकती है। वहीं हरियाणा के किसानों ने साफ कहा कि उन्हें पहले पता होता कि आंदोलन की आड़ में ऐसा बवाल हो सकता है तो वह आंदोलन में शामिल ही नहीं होते। वहीं आंदोलन के बीच विपक्ष भी अपनी रोटी सेंकने की तैयारी कर चुका है। 29 जनवरी से शुरू हो रहे बजट सत्र में सरकार को घेरने के लिए विपक्ष ने अपनी तैयारी कर ली है। लोकसभा और राज्यसभा में विपक्ष की ओर से नए कृषि कानून, चीन और कोरोना संकट में गिरती अर्थव्यवस्था को लेकर सवालों की लंबी सूची तैयार की गई, जिनका जवाब मोदी सरकार को देना होगा। अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर घिरी सरकार के लिए ये बजट आसान नहीं होने वाला है, लेकिन सबसे बड़ी समस्या नए कृषि कानूनों को लेकर किसानों और सरकार के बीच जारी संग्राम और भारत-चीन सीमा पर तनाव है। विपक्षी दल तीन विवादास्पद कृषि कानूनों को निरस्त करने की मांग करेंगे। विपक्षी नेताओं ने दावा किया कि गैर-भाजपा दल इस सत्र में एकजुट रहेंगे। मगर अभी तो सरकार पर दबाव बनाने की किसी भी तैयारी पर पानी फिर चुका है। लाल किले पर जो कुछ हुआ, उसका समर्थन करने का नैतिक साहस किसी में नहीं है। जो आंदोलन के रहनुुमा हैं, वे बचने के रास्ते तलाश रहे हंै। अगर विपक्ष ने उपद्रवियों की करतूत पर पर्दा डालने का प्रयास किया, तो वे और भी बुरी हालत का शिकार हो सकते हैं।

किसान-आंदोलनः आशा बंधी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कल किसान नेताओं और मंत्रियों के सार्थक संवाद से यह आशा बंधी है कि इस बार का गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र दिवस में कदापि नहीं बदलेगा। यों भी हमारे किसानों ने अपने अहिंसक आंदोलन से दुनिया के सामने बेहतरीन मिसाल पेश की है। उन्होंने सरकार से वार्ता के लगभग दर्जन भर दौर चलाकर यह संदेश भी दे दिया है कि वे दुनिया के कूटनीतिज्ञों-जितने समझदार और धैर्यवान हैं। उन्होंने अपने अनवरत संवाद के दम पर आखिरकार सरकार को झुका ही लिया है। सरकार आखिरकार मान गई है कि वह एक-डेढ़ साल तक इन कृषि-कानूनों को ताक पर रख देगी और एक संयुक्त समिति के तहत इन पर सार्थक विचार-विमर्श करवाएगी। उसने बिना कहे ही यह मान लिया कि उसने सर्वोच्च न्यायालय के कंधे पर से जो छर्रे छोड़े थे, वे फुस्स हो गए हैं। अदालत ने चार विशेषज्ञों की समिति घोषित करके जबर्दस्ती ही अपनी दाल पतली करवाई। अब वह अपनी इज्जत बचाने में जुटी हुई है। अच्छा हुआ कि सरकार अदालत के भरोसे नहीं रही। अब जो कमेटी बनेगी, वह एकतरफा नहीं होगी। उसमें किसानों की भागीदारी भी बराबरी की होगी। अब संसद भी डटकर बहस करेगी। किसानों को सरकार का यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार लेना चाहिए।
सरकार का यह प्रस्ताव अपने आप ही यह सिद्ध कर रहा है कि हमारी सरकार कोई भी बड़ा फैसला लेते वक्त उस पर गंभीरतापूर्वक विचार नहीं करती। न तो मंत्रिमंडल उस पर ठीक से बहस करता है, न संसदीय कमेटी उसकी सांगोपांग चीर-फाड़ करती है और न ही संसद में उस पर जमकर बहस होती है। सरकार सिर्फ नौकरशाहों के इशारे पर थिरकने लगती है। यह किसान आंदोलन मोदी सरकार के लिए अपने आप में गंभीर सबक है। फिलहाल, सरकार ने जो बीच का रास्ता निकाला है, वह बहुत ही व्यावहारिक है। यदि किसान इसे रद्द करेंगे तो वे अपने आप को काफी मुसीबत में डाल लेंगे। यों भी पिछले 55-56 दिनों में उन्हें पता चल गया है कि सारे विरोधी दलों ने जोर लगा दिया, इसके बाजवूद यह आंदोलन सिर्फ पंजाब और हरयाणा तक ही सीमित रहा है। किसानों के साथ पूर्ण सहमति रखनेवाले लोग भी चाहते हैं कि किसान नेता इस मौके को हाथ से फिसलने न दें। पारस्परिक विचार-विमर्श के बाद जो कानून बनें, वे ऐसे हों, जो भारत को दुनिया का सबसे बड़ा खाद्यान्न-सम्राट बना दें और औसत किसानों की आय भारत के मध्यम-वर्गों के बराबर कर दे।

सुभाषचन्द्र बोस ने गांधी जी को राष्ट्रपिता का सम्बोधन दिया
हर्षवर्धन पाठक
यह बात वर्ष उन्नीस सौ उन्तालीस की है। उस समय महात्मा गांधी का जादू पूरे देश पर चल रहा था। तब कौन सोच सकता था कि महात्मा गांधी को कांग्रेस में चुनौती मिलेगी। उस समय उनके अजेय नेतृत्व को चुनौती सफलता पूर्वक मिली। यह चुनौती देने वाले सुभाषचन्द्र बोस थे। उन्होंने महात्मा गांधी की इच्छा के विरुद्ध और उनके उम्मीदवार पट्टाभि सीतारमैया के विरूद्ध कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए चुनाव लड़ा तथा विजय हासिल की। वास्तव में वे ( सुभाष) कांग्रेस के हरिपुरा (गुजरात )अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुने गए थे और पुनः त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए थे। उनका सोच यह था कि पूर्व में हरिपुरा अधिवेशन में जो कार्य उनके द्वारा शुरू किए गए थे वे अपूर्ण थे तथा उन्हें पूरा करना चाहते थे , इनके लिए वे फिर से अध्यक्ष पद चाहते थे लेकिन गांधी जी उनसे सहमत नहीं थे।इस कारण वे गांधी जी की इच्छा के विरुद्ध त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए। महात्मा गांधी ने अध्यक्ष पद हेतु पट्टाभि सीतारमैया को अपना उम्मीदवार बनाया। इसके फलस्वरूप मतदान हुआ। सुभाष गांधी जी के उम्मीदवार को हराकर विजयी हुए। उन्हें १५८०वोट मिले जबकि पट्टाभि सीतारमैया को१३७५वोट मिले। स्वयं गांधी जी ने पट्टाभि की हार को अपनी हार माना। इसमें खास बात यह रही कि उत्तर प्रदेश से ,जहां से जवाहर लाल नेहरू तथा सुभाष के कट्टर विरोधी कृपलानी थे , सुभाष को विजय मिली। त्रिपुरी की हार को गांधी जी पचा नहीं पाए। बाद में , उनके रुख को देखते हुए कांग्रेस की कार्य कारिणी के सदस्यों ने इस्तीफा दे दिया। सुभाष ने भी कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ दिया और फारवर्ड ब्लाक के नाम से अपना नया दल बना लिया। गांधी जी ने बाद में एक चर्चा में कहा कि सुभाष को दल से बाहर करना आसान था ,लेकिन वे(सुभाष) उनके हृदय में सदैव रहेंगे।कस्तूरबा गांधी ने बाद में कहा कि सुभाष के मामले में गांधी जी बहुत भावुक हो गए थे। सुभाष के पिता जानकी नाथ बोस भी स्वाभिमानी स्वभाव के थे । वे शासकीय अधिवक्ता थे और इस कारण उनको बहुत सुविधायें मिली थीं। उस समय शासकीय अधिवक्ता होना गर्व की बात मानी जाती थी। उन्होंनेे शासकीय अधिवक्ता के गौरव पूर्ण पद से इस्तीफा दे दिया क्योंकि एक प्रकरण में न्यायाधीश के मत से सहमत नहीं थे। उन्होंने गुलामी के प्रतीक इस पद को छोड़ना बेहतर समझा। न्यायाधीश अंग्रेज था। यद्यपि उनकी पत्नी उनके इस निर्णय से प्रारंभ में सहमत नहीं थीं लेकिन उन्होंने पति की क्षमता पर विश्वास था ।
सुभाष बचपन में स्वामी विवेकानंद तथा राम कृष्ण परमहंस से बहुत प्रभावित थे।उनका यह विश्वास अंत तक बना रहा। पिता की सलाह मानकर आई सी एस परीक्षा में बैठे और इसमें वे सफल रहे। लेकिन वे प्रशासन के क्षेत्र में नहीं गए अपितु जनसेवा के लिए राजनीति को माध्यम बनाया। चितरंजन दास के सहयोगी के रूप में वे जनसेवा की राजनीति में आए। वे कलकत्ता (अब कोलकाता) नगर निगम के कार्यकारी अधिकारी रहे। यह सुभाष के राजनीतिक जीवन की यह पहली सीढ़ी थी। वे जल्द ही कांग्रेस के प्रमुख नेताओं में गिने जाने लगे। इसके साथ ही वे तत्कालीन अंग्रेज सरकार के निगाहों में आ गए। अंग्रेजी सरकार उन्हें खतरनाक मानने लगी । तत्कालीन अंग्रेज सरकार ने उन्हें ११ बार कारावास में बन्द किया। वे कुछ समय जबलपुर के पास सिवनी जेल में रहे। अब बात त्रिपुरी कांग्रेस की। जैसा पूर्व में लिखा गया है , त्रिपुरी कांग्रेस धिवेशन के लिए महात्मा गांधी के उम्मीदवार को हराकर वे अध्यक्ष निर्वाचित हुए थे। नर्मदा नदी के तट पर स्थित यह ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व का स्थान है। इसका धार्मिक महत्व भी है। लेकिन यह अधिवेशन कांग्रेस के लिए अच्छा नहीं रहा। जबलपुर में कमानिया गेट पर त्रिपुरी कांग्रेस स्मारक बनाया गया। शहर में ५२ हाथियों का जुलूस निकाला गया क्योंकि यह कांग्रेस का ५२ वां अधिवेशन था। महात्मा गांधी इसमें शामिल नहीं हुए। सुभाष चंद्र बोस के स्थान पर कांग्रेस ने बाद में राजेंद्र प्रसाद को गांधी जी के सुझाव पर अध्यक्ष चुन लिया तो सुभाष ने कांग्रेस छोड़कर अपना नया दल बना लिया। लेकिन वे कुछ और करना चाहते थे। उन्होंने अपने एक सहयोगी से यह कहा भी वे कुछ नया करना चाहते हैं।अंग्रेज सरकार ने जब १९४१ में नजरबंद किया तो उन्होंने दाढ़ी बढ़ा दी और जलालुद्दीन के नाम से देश छोड़ दिया। जबलपुर उनके दिमाग में ऐसा छाया हुआ था कि उनके छद्म पते पर सिविल लाइन जबलपुर का पता था। इसके बाद वे अफगानिस्तान होते हुए पहले जर्मनी जाकर हिटलर से मिले और जापान चले गए।बड़ी संख्या में भारतीय सैनिक जापान ने गिरफ्तार कर लिए थे । ये सैनिक ब्रिटिश फौज के भाग थे।रास बिहारी बोस ने इन सैनिकों से एक फौज बनाई थी। सुभाष चन्द्र बोस ने आज़ाद हिन्द फौज का गठन इन सैनिकों से किया और भारत की आज़ादी की लड़ाई प्रारंभ की। इन सैनिकों ने भारत के पूर्वांचल के अधिकांश भाग पर आधिपत्य किया। तभी अमेरिका ने जापान पर आण्विक आक्रमण किया। उसने हिरोशिमा और नागासाकी पर अणु बम गिराए। जापान ने विवश होकर समर्पण किया। सुभाष बाबू की इच्छा अधूरी रह गई। वे इस मार्ग से भारत की आज़ादी चाहते थे।वे सशस्त्र क्रांति के पक्ष में थे।
दो वर्ष बाद उनकी इच्छा पूरी हुई। भारत की नौ सेना ने विद्रोह कर दिया। गांधी जी के नेतृत्व में अंग्रेजो भारत छोड़ो का आन्दोलन हो चुका था। ब्रिटिश शासकों ने समझ लिया कि बदली हुई परिस्थिति में वे अधिक समय तक भारत को अपने शासन में नहीं रख सकते। वे देश को आजाद कर चले गए। नेताजी का स्वप्न पूरा हुआ।
सुभाष चंद्र बोस को एक और श्रेय दिया जाता है। उन्होंने पहली बार गांधी जी को राष्ट्रपिता का सम्बोधन दिया। उन्होंने सिंगापुर रेडियो के एक प्रसारण में महात्मा गांधी को राष्ट्रपिता कहकर सम्बोधित किया।यह सम्बोधन दोनों के परस्पर रिश्तों को बताता है। वास्तव में दोनों के लक्ष्य एक थे लेकिन मार्ग अलग अलग थे।

अमेरिका में अब बाइडेन युग

सिद्धार्थ शंकर
दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र अमेरिका एक नए इतिहास में प्रवेश करने कर चुका है। जो बाइडेन अमेरिका के राष्ट्रपति के पद की शपथ ले चुके हैं। साथ ही भारतीय मूल की कमला हैरिस ने उपराष्ट्रपति पद की शपथ ली। इन हालात में, पुराने जमाने की डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडेन द्वारा भारत का समर्थन सिर्फ स्वागतयोग्य कदम से कुछ अधिक है। पिछले हफ्ते भारतीय अमेरिकी समुदाय के लिए अपनी टिप्पणी में उन्होंने कहा, मैं हमेशा भारत के साथ खड़ा रहूंगा और इसके अपनी सीमाओं पर सामना कर रहे खतरों में इसका साथ दूंगा। भले ही उन्होंने पूर्वी लद्दाख में टकराव का जिक्र नहीं किया हो, लेकिन सीमाओं पर भारत की स्थिति के लिए उनका आम समर्थन भरोसा जगाता है और अगर वो नवंबर में अमेरिका के अगले राष्ट्रपति चुने जाते हैं तो अमेरिकी नीति में एक नया आयाम भी ला सकता है। विदेश नीति के अनुसार, बाइडेनपहले से ही एक काबिल टीम बना चुके हैं, जिसमें 20 भारतीयों को जगह दी गई है। बाइडेन की विदेश नीति का मुख्य लक्ष्य राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विदेश नीति पर कुछ ज्यादा विवादास्पद कदमों को वापस लेना होगा। वास्तविक नियंत्रण रेखा पर भारत की मौजूदा स्थिति का समर्थन भारत-अमेरिका संबंधों में आगे बढऩे का एक बड़ा कदम होगा। 77 वर्षीय बाइडेन अमेरिकी इतिहास के सबसे उम्रदराज राष्ट्रपति होंगे। इससे पहले यह रिकार्ड डोनाल्ड ट्रंप के नाम था, जो 70 वर्ष की उम्र में 2016 में अमेरिकी राष्ट्रपति बने थे। बाइडेन की इस चुनावी जीत के साथ ही डोनाल्ड ट्रंप पिछले तीन दशक के अमेरिकी इतिहास के ऐसे राष्ट्रपति बन गए हैं जो राष्ट्रपति रहते हुए अपना चुनाव हारे हों। इससे पहले 1992 में जॉर्ज बुश सीनियर राष्ट्रपति रहते हुए अपना चुनाव बिल क्लिंटन से हार गए थे। इसके बाद बिल क्लिंटन, जॉर्ज बुश जूनियर और बराक ओबामा ने फिर से चुनाव जीता था। ये तीनों लगातार दो बार चुनाव जीतकर 8-8 वर्ष तक अमेरिका के राष्ट्रपति रहे थे। सबसे दिलचस्प तथ्य तो यह है कि अमेरिका के पिछले 100 वर्षों के इतिहास में अब तक सिर्फ चार राष्ट्रपति ही ऐसे हुए हैं, जिन्हें अपने दूसरे चुनाव में हार का सामना करना पड़ा था। ट्रंप की चुनावी हार के बाद से ही भारत-अमेरिकी संबंधों को लेकर कई तरह की चर्चाएं चल रही हैं। भारत के अंदर एक बड़ा तबका ट्रंप की हार को नरेंद्र मोदी की हार के तौर पर प्रचारित कर रहा है। यह राजनीतिक आरोप लगाया जा रहा है कि डोनाल्ड ट्रंप का चुनावी प्रचार करके प्रधानमंत्री मोदी ने जो गलती की थी, उसका खामियाजा अब भारत को उठाना पड़ सकता है। सवाल यह है कि क्या वाकई ऐसा होने जा रहा है? क्या वाकई अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे का असर भारत-अमेरिकी संबंधों पर नकारात्मक ढंग से पडऩे जा रहा है? क्या वाकई जो बाइडेन भारत के प्रति अमेरिका की नीति में कोई बड़ा बदलाव करने की सोच रहे हैं ? दरअसल, ऐसा कहने वालों को न तो अंतर्राष्ट्रीय कूटनीतिक परंपरा का ज्ञान है और न ही जो बाइडेन के इतिहास का। राजनीतिक तौर पर जिस तरह के भी आरोप-प्रत्यारोप लगाए जाएं लेकिन दो देशों का आपसी संबंध जब निर्धारित होते हैं तो उसके पीछे कई तरह की वजहें होती हैं। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो बाइडेन के साथ अपनी तस्वीर को सोशल मीडिया पर शेयर करते हुए जिस अंदाज में अमेरिका के नव-निर्वाचित राष्ट्रपति को बधाई दी है, उससे भविष्य की कहानी का अंदाजा तो हो ही रहा है। अमेरिका में ज्यादातर राष्ट्रपति ऐसे बने हैं जिन्हें पहले से अंतर्राष्ट्रीय संबंधों का कोई व्यवहारिक अनुभव नहीं हुआ करता था। इसलिए कई बार अमेरिकी राष्ट्रपति के बारे में यह मजाक में कहा भी जाता है कि 4 वर्ष के अपने पहले कार्यकाल में वो जो सीखते हैं उसी को 4 वर्ष के दूसरे कार्यकाल में अमली-जामा पहनाते हैं। इस मामले में जो बाइडेन को अमेरिकी इतिहास का अनोखा राष्ट्रपति कहा जा सकता है। बाइडेन 2008 में अमेरिका के उपराष्ट्रपति चुने गए थे। 2012 में अमेरिकी जनता ने उन्हें दोबारा अपना उपराष्ट्रपति चुना था। बराक ओबामा के राष्ट्रपति कार्यकाल के दौरान 8 वर्षों तक बाइडेन ने उपराष्ट्रपति के तौर पर अमेरिकी प्रशासन के कामकाज के तौर-तरीकों को गहराई से देखा है, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति को गहराई से समझा है और उन्हें एशिया में शांति की अहमियत और भारत के प्रभाव का अंदाजा बखूबी है। इसलिए दोनों देशों के संबंधों में 360 डिग्री जैसा कोई बड़ा बदलाव आएगा, इसकी कल्पना करना भी बेमानी है।

संबल है गरीबों का मंगल

डॉ. मयंक चतुर्वेदी
प्रदेश में एक बार फिर से संबल योजना में 10 हजार 285 हितग्राहियों को 224 करोड़ 08 लाख रूपए की अनुग्रह सहायता राशि सिंगल क्लिक के माध्यम से सीएम शिवराज ने उनके खातों में अंतरित की है । वस्‍तुत: मुख्‍यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने सत्‍ता संभालते ही गरीबों के हित में जो निर्णय लेना शुरू कर दिए थे, उन तमाम अच्‍छे निर्णयों में से एक ”संबल योजना” का पुन: शुरू होना है, जिसे कांग्रेस राज में बंद कर दिया गया था। मुख्यमंत्री चौहान की संवेदनशील सोच से उपजी संबल योजना में मध्य प्रदेश में गरीब वर्ग की जन्म से लेकर मृत्यु तक होने वाले व्यय की जिम्मेदारी शासन उठाता है।
अर्थात् योजना में बच्चे के जन्म से पहले 4 हजार रूपए, जन्म के बाद 16 हजार रूपए, फिर पढ़ाई, राशन, मकान, इलाज और मृत्यु के बाद अनुग्रह सहायता दी जाती है। ‘संबल’ के पुन: आरंभ होने पर अब तक 1 लाख 80 हजार हितग्राहियों को 1483 करोड़ रूपए का हितलाभ वितरित किया गया है। योजना में 1 लाख 92 हजार प्रवासी मजदूरों का भी पंजीयन कर उन्हें लाभ दिया जा रहा है। वस्‍तुत: इन आंकड़ों से भी समझा जा सकता है कि प्रदेश के गरीबजन के लिए इस योजना का अपना कितना अधिक महत्‍व है ।
आज मुख्यमंत्री चौहान जब कहते हैं कि सरकार ने तय किया है कि वर्ष 2024 तक कोई गरीब कच्चे मकान में नहीं रहेगा। सबकी पक्की छत होगी। साथ ही हर घर में नल से पानी दिया जाएगा। सरकार हर गरीब के लिए रोटी, कपड़ा, मकान, पढ़ाई-लिखाई तथा दवाई का इंतजाम कर रही है और जो अधिक कमाते हैं उनसे टैक्स लेंगे और जिनके पास नहीं है उन्हें सहायता करेंगे। तब प्रदेश के जिलों में रह रहीं बैतूल जिले की मुमताज बानो, जबलपुर की राशि देवलिया, बड़वाह की यशोदा बाई कुशवाह एवं उज्जैन की ममता सिकरवार जैसे जरूरतमंदों के चेहरों पर जोश उमड़ पड़ता है, वस्‍तुत: ऐसे तमाम चेहरे उत्‍साह से भर उठते हैं । उन्‍हें सच में लगता है कि प्रदेश की शिवराज सरकार अपनी जनसंघ-भाजपाई परंपरा के अनुकूल अंतिम व्‍यक्‍ति को मुख्‍य धारा में लाने के लिए प्रतिबद्ध है।
मुख्यमंत्री चौहान संबल योजना को न्याय का माध्यम मानते हैं। उनका कहना है कि गरीब भगवान का स्वरूप है और उनकी सेवा भगवान की पूजा के समान है। इसी उद्देश्य से प्रदेश में संबल योजना का प्रावधान किया गया। संबल में पढ़ाई की नि:शुल्क व्यवस्था है। किताबें, आठवीं तक यूनिफार्म् और मध्याह्न भोजन की व्यवस्था है। मुख्यमंत्री ने एक नई योजना इसमें जोड़ी है, संबल परिवार के ऐसे बच्चे जो 12वीं में मेरिट में आते हैं, ऐसे 5 हजार बच्चों को 30 हजार रुपये प्रति विद्यार्थी अलग से दिये जा रहे हैं । मेडिकल, इंजीनियरिंग, आईआईटी, आईआईएम में गरीब बच्चों का चयन हो जाता है तो फीस भरना उसके बूते की बात नही, इसलिए सरकार फीस की व्यवस्था करती है।
पढ़ाई के साथ ही खेल में बच्चों को प्रोत्साहित करने के लिए इसके अंतर्गत संबल परिवार के बच्चों जो ऑल इंडिया इंटर यूनिवर्सिटी कॉम्पिटिशन या राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में भाग लेने पर उन्हें प्रोत्साहन राशि देने की व्यवस्था की गई है। सही पूछा जाए तो देश भर में कोई राज्‍य आज ऐसा नहीं है जहां ऐसी योजना हो । वस्‍तुत: समाज में नीचे खड़े व्यक्ति को बराबर पर खड़े करने के लिए यह योजना एक संबल है। इसलिए कहा जा सकता है कि यह योजना वास्‍तव में गरीबों का मंगल है। जहां वे अपना पंजीयन कराकर बिना भेदभाव के निरंतर सहजता के साथ आगे बढ़ने का क्रम सफलता से जारी रख सकते हैं।
सच पूछा जाए तो इस योजना को भारत सरकार द्वारा देश हित में सभी राज्‍यों में आरंभ किया जाना चाहिए। जो अच्‍छा है वह सब का है, उसे मध्‍य प्रदेश तक ही सीमित नहीं रहना चाहिए। सबके हित में, सबके साथ चलकर ही भारत आनेवाले दिनों में विश्‍व की महाशक्‍ति बन सकता है, नहीं तो हमारे आसपास ही गरीबी के मामले इतने अधिक हैं कि देश का आम नागरिक इनसे कभी भी जीवनभर मुक्‍त नहीं हो सकता, फिर देश के हित और समाज हित के बारे में कब सोचेगा, इस पर सहज ही विचार किया जा सकता है । इसलिए आज जरूरी हो गया है कि देशहित में ‘संबल’ राज्‍य से ऊपर उठकर शीघ्र देश का संबल बने और सभी का मंगल करे। उम्‍मीद है सीएम शिवराज की इस संवेदनशील योजना पर प्रधानमंत्री मोदी अवश्‍य विचार करेंगे।
(लेखक न्‍यूज एजेंसी हिन्‍दुस्‍थान समाचार से जुड़े हैं।)

मुसीबत में है, व्हाट्साप
डॉ वेदप्रताप वैदिक
आजकल व्हाट्साप को दुनिया के करोड़ों लोग रोज इस्तेमाल करते हैं। वह भी मुफ्त! लेकिन पिछले दिनों लाखों लोगों ने उसकी बजाय ‘सिग्नल’, ‘टेलीग्राम’ और ‘बोटिम’ जैसे माध्यमों की शरण ले ली और यही क्रम कुछ महिने और चलता रहता तो करोड़ों लोग ‘व्हाट्साप’ से मुंह मोड़ लेते। ऐसी आशंका इसलिए हो रही है कि व्हाट्साप की मालिक कंपनी ‘फेसबुक’ ने नई नीति बनाई है जिसके अनुसार जो भी संदेश व्हाट्साप से भेजा जाएगा, उसे फेसबुक देख सकेगा याने जो गोपनीयता व्हाट्साप की जान थी, वह निकलने वाली थी। व्हाटसाप की सबसे बड़ी खूबी यही थी और जिसका बखान उसे खोलते ही आपको पढ़ने को मिलता है कि आपकी बात या संदेश का एक शब्द भी न कोई दूसरा व्यक्ति सुन सकता है और न पढ़ सकता है। यही वजह थी कि देश के बड़े-बड़े नेता भी आपस में या मेरे-जैसे लोगों से दिल खोलकर बात करना चाहते हैं तो वे व्हाट्साप का ही इस्तेमाल करते हैं।
इसका दुरुपयोग भी होता है। आतंकवादी, हत्यारे, चोर-डकैत, दुराचारी और भ्रष्ट नेता व अफसरों के लिए यह गोपनीयता वरदान सिद्ध होती है। इस दुरुपयोग के विरुद्ध सरकार ‘व्यक्तिगत संवाद रक्षा कानून’ ला रही है, जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और गोपनीयता की रक्षा तो करेगा ही लेकिन संविधान विरोधी बातचीत या संदेश को पकड़ सकेगा। मैं आशा करता हूं कि इस महत्वपूर्ण कानून को बनाते वक्त हमारी सरकार और संसद वैसी लापरवाही नहीं करेगी, जैसी उसने कृषि-कानूनों के साथ की है।अभी भी व्हाट्साप पर स्वास्थ्य-जांच रपटें, यात्रा और होटल के विवरण तथा व्यापारिक लेन-देन के संदेशों को भेजने की खुली व्यवस्था है। ‘फेसबुक’ चाहती है कि ‘व्हाट्साप’ की समस्त जानकारी का वह इस्तेमाल कर ले ताकि उससे वह करोड़ों रुपए कमा सकती है और दुनिया के बड़े-बड़े लोगों की गुप्त जानकारियों का खजाना भी बन सकती है। व्हाटसाप इस नई व्यवस्था को 8 फरवरी से शुरु करने वाला था लेकिन लोगों के विरोध और क्रोध को देखते हुए उसने अब इसे 15 मई तक आगे खिसका दिया है।
फेसबुक को व्हाट्साप की मिल्कियत 19 अरब डालर में मिली है। वह इसे कई गुना करने पर आमादा है। उसे पीछे हटाना मुश्किल है लेकिन ‘यूरोपियन यूनियन’ की तरह भारत का कानून इतना सरल होना चाहिए कि नागरिकों की निजता पूरी तरह से सुरक्षित रह सके लेकिन मेरा अपना मानना यह है कि जिन लोगों का जीवन खुली किताब की तरह होता है, उनके यहाँ गोपनीयता नाम की कोई चीज़ ही नहीं होती। वे किसी फेसबुक से क्यों डरें ?

राम मंदिर निर्माण और किसान आंदोलन
सनत कुमार जैन
किसान आंदोलन 55 वें दिन में प्रवेश कर गया है। केंद्र सरकार किसान संगठनों से 10 दौर की बातचीत कर चुकी है। 11 वें दौर की बातचीत की तारीख निश्चित है। किसान आंदोलन धीरे-धीरे सारे राज्यों में फैलता चला जा रहा है। दिल्ली बार्डर पर दिल्ली के समीपवर्ती राज्य म.प्र., उ.प्र., राजस्थान, महाराष्ट्र, गुजरात, हरियाणा एवं पंजाब के किसान बड़ी संख्या में एकजुट हैं। किसानों के इस आंदोलन के दौरान मुखरता के साथ सरकार के विरोध में आमजन सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहा है, उसके बाद भी आंदोलन को खत्म कराने के लिए सरकार की ओर से अभी जो प्रयास हो रहे हैं, उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि किसान आंदोलन को लेकर केंद्र सरकार और भाजपा में आत्मविश्वास बना हुआ है, कि किसान आंदोलन से सरकार और भाजपा को राजनैतिक कोई नुकसान नहीं होने वाला है। किसान जहां तीनों कानून समाप्त करने पर अड़े हुए हैं, वहीं सरकार कानून खत्म करने के स्थान पर संशोधन करने पर अड़ी हुई है। किसानों में आंदोलन को लेकर उत्साह दिनों-दिन कम होने के स्थान पर बढ़ता ही जा रहा है। 26 जनवरी को दिल्ली की रिंगरोड में ट्रैक्टर रैली के माध्यम से किसानों ने पूरी दिल्ली को घेरने की रणनीति बनाई है। उसके बाद भी इस संवेदनशील मसले पर सरकार किसानों की बात मानने के लिए तैयार नहीं है। इसके पीछे निश्चित रूप से भारतीय जनता पार्टी संगठन, संघ और सरकार का कोई आत्मविश्वास जरूर काम कर रहा है। जिसमें किसान आंदोलन से सरकार और भाजपा की सेहत पर कोई असर पड़ने वाला नहीं है। तभी सरकार आंदोलन को खत्म करने सभी राज्यों का प्रयोग कर रही है।
राजनीतिक विशेषज्ञों के अनुसार भारतीय जनता पार्टी और केंद्र सरकार राम मंदिर निर्माण और हिंदुत्व को लेकर अति आत्मविश्वास में है। सरकार और भाजपा नेतृत्व का मानना है कि किसान आंदोलन समाप्त होने के बाद हिंदुत्व को लेकर आम जनता के बीच भारतीय जनता पार्टी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति जो विश्वास बना हुआ है वह कायम रहेगा। राम मंदिर निर्माण को लेकर संघ एवं भाजपा संगठन द्वारा घर-घर जाकर राम मंदिर निर्माण के लिए धन राशि एकत्रित की जा रही है, उसके कारण आमजनता का जुड़ाव भारतीय जनता पार्टी और मोदी के प्रति बना रहेगा। किसानों के देशव्यापी आंदोलन को सरकार यह मानकर चल रही है कि इसका असर बहुत कम समय के लिए किसानों और आमजनता के बीच रहेगा। अंततोगत्वा बहुसंख्यक किसान हिंदू हैं, और वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में ही खड़े रहेंगे। किसानों के आंदोलन को खत्म करने के जो भी प्रयास सरकार द्वारा अभी तक किए गए हैं वह एक तरह से अप्रभावी साबित हुए हैं। आंदोलन बढ़ने के साथ ही किसानों का उत्साह बढ़ता जा रहा है। भारी ठंड और बारिश के बीच किसान बैठे हुए हैं। हरियाणा जैसे राज्य में हर 10 किलोमीटर में किसानों और मजदूरों के लिए लंगर संचालित किए जा रहे हैं। उसको देखते हुए राजनीतिक विशेषज्ञ मान रहे हैं कि सरकार आंदोलन को लेकर बड़े धोखे में है। आंदोलन के दौरान सरकार ने किसानों को खालिस्तानी, माओवादी, नक्सली इत्यादि संबोधन देकर नाराज करने का काम किया था। हाल ही में एनआईआई के सम्मन जारी करके किसानों और उनके नेताओं को उद्वेलित करने का काम सरकार ने किया है। उससे यह माना जा सकता है कि सरकार के पास किसान आंदोलन से हुए नुकसान को कवर करने के लिए कोई ब्रह्मास्त्र बचा हुआ है। वह ब्रह्मास्त्र राम मंदिर का निर्माण और हिंदुत्व को लेकर जनमानस के बीच भाजपा और मोदी की जो छवि बनी है। वहीं केंद्र सरकार का ब्रम्हास्त्र है। सरकार को यह ध्यान रखना होगा कि भारत जैसे देश में किसानों के माध्यम से गैर संगठित क्षेत्र में करोड़ों मजदूरों को रोजगार उपलब्ध होता है, इनसे सभी वर्गों के लोग जुड़े होते हैं। किसान बड़े भरोसे के साथ कर्ज लेकर अपनी जमीन में खाद बीज डालकर महीनों इंतजार करते हैं कि उन्होंने जो बीज खेतों में बोया है। वह फसल के रूप में कुछ महीने के बाद उसके सामने होगा। कई बार प्राकृतिक आपदाओं के चलते उसकी फसल नष्ट भी होती है लेकिन उसका विश्वास हमेशा कायम रहता है। कर्जदार होने के बाद भी कर्ज लेकर खेती करना, लोगों को मजदूरी देना उनकी जिजीविषा का प्रमाण है। खेती के काम में असंगठित क्षेत्र के जो भी मजदूर और रोजगार से संबंधित लोग जुड़े होते हैं, उन पर किसानों का बहुत प्रभाव होता है। किसान आंदोलन में किसानों का यह विश्वास परिलीक्षित हो रहा है। केंद्र सरकार और भाजपा किसान आंदोलन से जिस तरह से निपट रही है। उसको देखते हुए यही कहा जा सकता है। सरकार को भरोसा है कि किसान आंदोलन के कारण उसे राजनीतिक रूप से कोई नुकसान नहीं होने रहा है।
एमएसपी को लेकर किसानों ने जो मांग केंद्र सरकार के सामने रखी है। उसको मानने के लिए केंद्र सरकार के कोष में धन नहीं है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां एमएसपी पर अनाज खरीदने सहमत नहीं है। इस स्थिति में सरकार 2 पाटों के बीच में फंसी हुई है। सुप्रीमकोर्ट द्वारा कानून रद्द करने और समिति बना देने से भी किसानों का आंदोलन खत्म नहीं हुआ है। अभिमन्यु की तरह अपने ही बनाए चक्रब्यूह में सरकार फंस गई है। बाहर निकलने का रास्ता नहीं मिल रहा है। इसके बाद भी सरकार को भरोसा है कि किसान जल्द ही आंदोलन को समाप्त करने विवश होंगे।

 

प्रेम-विवाह सबसे ऊपर
डॉ वेदप्रताप वैदिक
इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज विवेक चौधरी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने अपने फैसले से उस कानूनी बाधा को दूर कर दिया है, जो अंतर्धार्मिक या अन्तरजातीय विवाहों के आड़े आती है। 1954 के विवाह के विशेष कानून की उस धारा को अदालत ने रद्द कर दिया है, जिसमें उक्त प्रकार की शादी करनेवालों को 30 दिन पहले अपनी शादी की सूचना को सार्वजनिक करना जरुरी था। यदि किसी हिंदू और मुसलमान या सवर्ण-दलित के बीच शादी हो तो उसकी सूचना अब तक अखबारों में छपाना या सरकार को सूचित करना जरुरी होता था। लेकिन यह अब जरुरी नहीं होगा। यह मामला अदालत में इसलिए आया था कि एक मुस्लिम लड़की ने एक हिंदू युवक से शादी कर ली थी। मुस्लिम लड़की के पिता ने अदालत में याचिका लगाई कि इस शादी की खबर किसी को कानोंकान भी नहीं लगी और दोनों ने गुपचुप शादी कर ली। इसे अवैध घोषित किया जाए। अदालत ने 30 दिन की पूर्व-सूचना के इस प्रावधान को रद्द कर दिया और कहा कि शादी निजी मामला है। इसका ढिंढोरा पहले से पीटना क्यों जरुरी है ? उसे अनिवार्य बनाना मूलभूत मानव अधिकारों का उल्लंघन है। यही बात लव-जिहाद के उन कानूनों पर भी क्यों लागू नहीं की जाती, जो उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश आदि की सरकारें बना रही हैं ? सर्वोच्च न्यायालय स्वयं क्यों नहीं इस समस्या का संज्ञान लेता है ? 1954 के कानून में 30 दिन का नोटिस है और लव जिहाद कानून में 60 दिन का है। इसी परेशानी की वजह से लोग पहले अपना धर्म-परिवर्तन कर लेते हैं और फिर शादी कर लेते हैं ताकि उन्हें किसी अदालत-वदालत में जाना न पड़े। दूसरे शब्दों में लव-जिहाद कानून की वजह से अब धर्म-परिवर्तन को बढ़ावा मिलेगा याने यह कानून ऐसा बना है, जो शादी के पहले धर्म-परिवर्तन के लिए वर या वधू को मजबूर करेगा। ऐसी शादियाँ वास्तव में प्रेम-विवाह होते हैं। प्रेम के आगे मजहब, जाति, रंग, पैसा, सामाजिक हैसियत- सब कुछ छोटे पड़ जाते हैं। शादी के बाद भी जो जिस मजहब या जात में पैदा हुआ है, उसे न बदले तो भी क्या फर्क पड़ता है ? हमें ऐसा हिंदुस्तान बनाना है, जिसमें लोग मजहब और जात के तंग दायरों से निकलकर इंसानियत और मोहब्बत के चौड़े दायरे में खुली सांस ले सकें।

लव- जिहाद ,लिव इन रिलेशन ,बलात्कार, अपहरण आदि का कानून से रुकना संभव !
वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
जब से सृष्टि का उदय हुआ और मानव युगल में हुए तब से अपराध /पाप आदि शुरू हुए कारण मानव में मन होने से वह सबसे अधिक समाज में विकृतियां फैलाई हैं जिस कारण पुराण ,शास्त्रों ,वेदों में और तो और कानून की किताबें लिखी गयी। आज विश्व में जितने भी क़ानून बने हैं वे मात्र पांच पापों के लिए बनाये गए हैं छठवा कोई पाप नहीं होता। हिंसा ,झूठ, चोरी ,कुशील ,परिग्रह और इनका इलाज़ मात्र पंच व्रतों में निहित हैं वे हैं अहिंसा ,सत्य ,अचौर्य ,ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह।
इन पंच पापों और चार कषायों ( क्रोध ,मान माया लोभ ) यानी संक्षेप में तो मोह के वशीभूत होकर, राग द्वेष से लिप्त होने के कारण संसार में परिभ्रमण करते हैं /कर रहे हैं और किया था ,इसी कारण संसार में हिंसा, व्यभिचार परिग्रह ,चोरी और असत्य का वातावरण फैला हुआ हैं। कानूनों की अपनी सीमायें होती हैं। उसमे बहुत पोल होती हैं उसमे से अपराधी निकल भागते हैं।
जीवित इतिहास में तो रावण ने सीता अपहरण किया था ।सुभद्रा ने अर्जुन का। इस देश को इस स्थिति में लाने का श्रेय यदि किसी को हैं तो वह पृथ्वीराज चौहान को जिन्होंने संयोगिता का अपहरण किया और जयचंद ने मोहम्मद गौरी को बुलाया और हम आज इस स्थिति में हैं।
यानी हमें पांच पापों से मुक्त होना हैं तो हमें अपने जीवन में पांच व्रतों का पालन करना ही होगा ,इसके बिना कल्याण नहीं हैं। आज हमारे व्यक्तिगत ,पारिवारिक ,सामाजिक ,राजनैतिक धार्मिक क्षेत्रों में पापों की बहुलता होने से विश्व में विषम स्थितियां निर्मित हो रही हैं। इनको जानना आवश्यक है।
रागालोककथात्यागः सर्वस्त्रीस्थापनादिषु।
मातानुजा तनुजेति,मत्या ब्रह्मव्रतम मतम।।
मनुष्य, त्रियंच और देवगति सम्बन्धी सर्व प्रकार की स्त्रियों में और काष्ठ,पुस्तक ,भित्ति आदि पर चित्रामआदि से अंकित या स्थापित स्त्री चित्रों में यह मेरी माता हैं ,यह बहिन हैं ,यह लड़की हैं ,इस प्रकार अवस्था के अनुसार कल्पना करके उनमे रागभाव का ,उनके देखने का और उनकी कथाओं के करने का त्याग करना ब्रह्मचर्य महाव्रत माना गया हैं।
परविवाहकरणेत्वरिका -परिग्रहीतापरिग्रहीता -गमनानांगक्रीड़ाकामतीव्राभीनिवेशा ।
१ वाग्दत्ता ,अल्पवयस्क या अवयस्क तथा रखैल के साथ मर्यादा के विपरीत आचरण इस अतिचार के अंतर्गतआता हैं । वर्तमान
सन्दर्भों में इस प्रकार के संबंधों को शारीरिक ,सामाजिक और कानूनी दृष्टियों से वर्जनीय तथा हेय माना जाता हैं
२ किसी भी प्रकार की पराई स्त्री या पर पुरुष के साथ समागम करणे की ओर बढ़नाहैं जिसका व्रत के द्वारा निषेध हैं।
३ स्वाभाविक रूप से कामवासना की बजाय अप्राकृतिक तरीकों और कृत्रिम साधनों से काम क्रीड़ा करना अनंग क्रीड़ा अतिचार हैं। इस अतिचार के माध्यम से समलैंगिक कामक्रीडाओं से कोसों दूर रहने की पावन प्रेरणा भी मिलती हैं।
४ सदगृहस्थ को चाहिए की वह एक विवाह के पश्चात दूसरा विवाह न करे वर्तमान में जहाँ सम्बन्ध जुड़ना कठिनतर हो रहा हैं ,विलम्बित विवाह और अविवाह की स्थितियां समाज में पैदा हो रही हैं। वहां इस सहयोग का मूल्य और बढ़ जाता हैं ब्रह्मचर्य व्रत का मुख्य लक्ष्य भोगासक्ति घटाना और समाज में सदाचार की स्थापना करना हैं। विवाह इन्हीं उच्चतर लक्ष्यों से जुड़ा हैं।
५ व्रती को कामोत्तजना को बढ़ाने वाली औषधियों व मादक चीज़ों का सेवन नहीं करना चाहिए। तीव्र भोगेच्छा से बचने वाला अपनी जीवन -शक्ति ,दीर्घजीविता ,रचनात्मकता और आध्यात्मिकता को बढ़ाता हैं।
यदि यह दृष्टिकोण व्यक्ति ,परिवार, समाज, देश और विश्व में स्थापित हो जाय और इसे मान्य किया जाय तो अपराध बहुत कम हो सकते हैं पर वर्तमान में जितनी अधिक शिक्षा और उच्च पद की नौकरियाँ और उसके पहले स्कूली कॉलेज की पढ़ाई में चारित्र की गिरावट शुरू होने लगती हैं। जब नौकरी में जाते हैं तो माँ बाप उनकी देखरेख को कभी नहीं जाते। इसके लिए कभी कभी अचानक निरिक्षण करना चाहिए। जिससे उनके क्रियाकलाप पता चल जाता हैं।
जैसे आज लव जिहाद के सम्बन्ध में यदि व्यस्क लड़के लड़की को इतना जानकारी होती हैं की कौन किस जाति का हैं और वर्षों से मिल जुल रहे हैं और सब कुछ हो जाता हैं जैसे आकर्षण में शारीरिक सम्बन्ध का होना और उसके बाद अलग अलग कहानियां प्रताड़ना मिलना और कभी कभी मौतों का होना।अपराध बनना। कहावत हैं भूख न देखें जूठा भात ,प्यार न देखे जात पात और नींद न देखे टूटी टाट।
वर्षों से प्यार मोहब्बत चलता रहता हैं और माँ बाप परिवार जन्य बेफिक्र। और जब सर से पानी निकलने लगता हैं तब आँख खुलती हैं। इसमें कौन दोषी हैं कहना मुश्किल पर प्रभाव प्रभावित होने वालों पर होता हैं। कानून और सामाजिक संस्थाएं कितना बचाव और योगदान दे सकते हैं मालूम नहीं पर हम अपने परिवार में ऐसी बातों की शंका होने पर बच्चों को समझाया जाय और उसके बाद के क्या क्या परेशानियां उठानी पड़ती हैं। कभी कभी गर्भवती होने पर विषम स्थिति बनती हैं। आजकल एकल परिवार में सीमित संख्या होने से अधिकतर समझौता करते हैं। इसमें समाज मामला बनाने की जगह बिगाड़ते हैं। प्रभावित परिवार को दो चार दिन संवेदनाएं मिलती हैं उसके बाद कोई को कोई मतलब नहीं होता हैं। मनुष्य की स्मृतिशक्ति अस्थायी होती हैं।
लिव इन रिलेशन को कानूनी मान्यता मिलने के कारण इसका चलन बहुत हैं। इसमें कानूनी रूप से वयस्क होते हैं और इसका दुष्परिणाम शुरुआत में नहीं मिलते पर अंत सुखद नहीं होते हैं। समलैंगिकता के कारण समाज में जो विकृतियां हो रही हैं उससे मानसिक तनाव के कारन सामाजिक जीवन सुखद नहीं होता। समाज उन्हें हिकारत से देखती हैं। उन्हें कोई भी सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती। वे अपने आप में मस्त रह सकते हैं पर उसके बहुत दुष्परिणाम भोगना पड़ते हैं। इसमें सबसे पहले मनोरोग और मानसिक रोग की अधिकता होती हैं।
बलात्कार यानी जबरदस्ती यौन सुखकी प्राप्ति ,जबकि यौन सुख आपसी प्रेम के कारण होता हैं। यह एक मानसिक रोग हैं। इसमें रुग्ण व्यक्ति अपनी कामेच्छा की पुर्ति के लिए जबरन यौनाचार करता हैं। इसके लिए बहुत नियम कानून बने हैं और सुधार किये जा रहे हैं पर जितने अधिक कानून उससे अधिक अपराध। बलात्कार सड़क और घर में ,निजियों से। नजदीकी रिश्तेदारों द्वारा ,पिता भाई चचेरे ममेरे मित्र आदि के द्वारा किया जा रहा हैं। इससे सिद्ध होता हैं की सामाजिक मूल्य समाप्त हो चुके या हो रहे हैं। अब प्रश्न आ रहा हैं की इस पर विश्वास /भरोसा करे।
अपहरण भी एक प्रकार की मानसिक ,सामाजिक बीमारी हैं ,इसके दो लक्ष्य होते हैं पहला यौनाचार और कभी कभी अर्थ के मांग की पूर्ती। इसमें अपहरण कर्ताओं के मान की पूर्ती न होने पर मौत के घाट पर उतार देते हैं।
कुल मिला कर इसमें कई घटक कार्य करते हैं –पहला परिवार जनो का बहुत अधिक नियंत्रण रखना या बहुत अधिक छूट देना ,परिवार में स्वच्छ वातावरण न होना ,परिवार में नैतिकता न होना ,बहुत अधिक गरीबी या धनवान होना कम उम्र में मोबाइल ,पिक्चर ,टी वी में जो नहीं देखना वो देखना ,कम आकर्षण में आकर्षित होना ,छोटे छोटे प्रलोभन में फंसना ,गलत सोहबत ,सत्संग में रहना ,नशा का सेवन करना ,अनियंत्रित जीवन शैली अपनाना ,देर रात तक घूमना ,होटल बाज़ी करना ,अकेले रहने के दुष्परिणाम भी इसमें योगदान देता हैं। अपनी आय से अधिक खर्च के कारण अन्य- आय से अपने शौक की पूर्ती करना।
इन सबसे बचने का सुगम उपाय अपने जीवन में अच्छी बातें सीखना ,धर्म की बातों को अंगीकार करना ,अच्छा साहित्य पढ़ना ,माँ बाप को अपनी संतान को मित्रवत व्यवहार कर क्या अच्छा और क्या बुरा होता हैं समझाना। बच्चों को भी अपने साथ हुई घटना को तुरंत बताना। किसी गुरु से कुछ नियम लेना। अपने द्वारा किये गए कर्मों का फल यहाँ पर तुरंत भोगना पड़ता हैं। दूसरी बात इस संसार में कोई भी बात गुप्त नहीं होती। सात कमरों के भीतर किया गया यौनाचार नौ माह के बाद बाहर दिखाई देने लगता हैं।
यह सब व्यक्ति के साथ परिजन की जिम्मेदारी हैं ,शासन मात्र दंड देने के लिए अधिकृत हैं पर किये गए कर्म का फल स्वयं को भोगना पड़ता हैं। आजकल कुशील पाप की बहुतायत का इलाज़ मात्र ब्रह्मचर्य व्रत से ही सम्भव हैं। इसको समझने की जरुरत हैं।
वैसे एक क्षण का अपराध ,जीवन भर के लिए गुनाहगार बना देती हैं।
वैसे हम इस सुन्दर शरीर के आकर्षण के वशीभूत होकर एक दूसरे के पार्टी आकर्षित होते है जबकि इस शरीर की यदि चमड़ी हटा दी जाय तो स्वयं इससे घृणा करेंगे।
कूरे तियाके अशुचि तन में , काम -रोगी रति करें।
बहु मृतक सडहिं मसान माहीं ,काग ज्यों चोंचें भरें।
शासन के नियम के अलावा यदि सब लोग अपनी पत्नी को छोड़कर अन्य स्त्री को माता ,बहिन ,पुत्री माने तो यह अपराध बहुत सीमा तक नियंत्रित हो सकता हैं। यह पाप सर्व व्यापी रोग हैं जैसा की कोरोना। इसमें स्वयं वचाब की जरुरत हैं।
विषय बहुत विस्तृत हैं।

बुरे फंसे डोनाल्ड ट्रंप
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की जैसी दुर्दशा आज हो रही है, किसी भी अमेरिकी राष्ट्रपति की कभी नहीं हुई। ऐसा नहीं है कि ढाई सौ साल के इतिहास में किसी अमेरिकी राष्ट्रपति पर कभी महाभियोग चला ही नहीं। ट्रंप के पहले तीन राष्ट्रपतियों पर महाभियोग चले हैं। 1865 में एंड्रू जॉनसन पर, 1974 में रिचर्ड निक्सन पर और 1998 में बिल क्लिंटन पर! इन तीनों राष्ट्रपतियों पर जो आरोप लगे थे, उनके मुकाबले ट्रंप पर जो आरोप लगा है, वह अत्यधिक गंभीर है। ट्रंप पर राष्ट्रद्रोह या तख्ता-पलट या बगावत का आरोप लगा है। अमेरिकी संसद (कांग्रेस) के निम्न सदन– प्रतिनिधि सदन– ने ट्रंप के विरोध में 205 के मुकाबले 223 वोटों से जो महाभियोग का प्रस्ताव पारित किया है, वह अमेरिकी संविधान, लोकतंत्र की भावना और शांति-भंग के सुनियोजित षड़यंत्र का आरोप ट्रंप पर लगा रहा है। ट्रंप अब अमेरिका के संवैधानिक इतिहास में ऐसे पहले खलनायक के तौर पर जाने जाएंगे, जिन पर चार साल में दो बार महाभियोग का मुकदमा चला है।
अब यह प्रस्ताव उच्च सदन (सीनेट) में जाएगा। 100 सदस्यीय सीनेट के अध्यक्ष हैं, रिपब्लिकन पार्टी के नेता और उप-राष्ट्रपति माइक पेंस! पेंस की सहमति होती तो ट्रंप को बिना महाभियोग चलाए ही चलता किया जा सकता था। अमेरिकी संविधान के 25 वें संशोधन के मुताबिक उप-राष्ट्रपति और आधा मंत्रिमंडल, दोनों सहमत होते तो ट्रंप को पिछले सप्ताह ही हटाया जा सकता था लेकिन पेंस ने यह गंभीर कदम उठाने से मना कर दिया है। अब सीनेट भी उन्हें तभी हटा सकेगी, जबकि उसके 2/3 सदस्य महाभियोग का समर्थन करें। इसमें दो अड़चने हैं। एक तो सीनेट का सत्र 19 जनवरी को आहूत होना है। उस दिन याने एक दिन पहले ट्रंप को हटाना मुश्किल है, क्योंकि इस मुद्दे पर बहस भी होगी। 20 जनवरी को वे अपने आप हटेंगे ही। दूसरी अड़चन यह है कि सीनेट में अब भी ट्रंप की रिपब्लिकन पार्टी के 52 सदस्य हैं और डेमोक्रेटिक पार्टी के 48. जो दो नए डेमोक्रेट जीते हैं, उन्होंने अभी शपथ नहीं ली है और 67 सदस्यों से ही 2/3 बहुमत बनता है। इसके अलावा माइक पेंस एक भावी राष्ट्रपति के उम्मीदवार के नाते अपने रिपब्लिकन पार्टी के सीनेटरों को नाराज़ नहीं करना चाहेंगे। वे बाइडन की शपथ के बाद भी महाभियोग जरुर चलाना चाहेंगे ताकि ट्रंप दुबारा चुनाव नहीं लड़ सकें और रिपब्लिकन पार्टी उनसे अपना पिंड छुड़ा सके। कई रिपब्लिकन सीनेटर और कांग्रेसमेन ट्रंप के विरुद्ध खुले-आम बयान दे रहे हैं। अमेरिकी सेनापतियों ने भी संविधान की रक्षा का संकल्प दोहराकर अपनी मन्शा प्रकट कर दी है।

सावधान! क्या वाट्स ऐप बनेगा बेईमान?
ऋतुपर्ण दवे
इण्टरनेट, संचार क्रान्ति में वरदान तो जरूर साबित हुआ और देखते ही देखते पूरी मानव सभ्यता की अहम जरूरत बन भी गया। हकीकत भी यही है कि ‘दुनिया मेरी मुट्ठी में’ का असल सपना इण्टरनेट ने ही पूरा किया। लेकिन अब बड़ा सच यह भी है कि इस सेवा का जरिया बने यूजर्स से ही कमाई कर रहे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स न केवल चोरी-छिपे न केवल सायबर डाकैती करते हैं बल्कि यूजर्स डेटा को ही अपने पास स्टोर करने की कोशिशें करते रहते हैं। यह न केवल निजता का उलंघन है बल्कि भविष्य में हर किसी की हैसियत को नापने का जरिया भी। दरअसल अभी आम लोगों को इस बारे में वाकई में ज्यादा जानकारी नहीं है। लेकिन यदि इस पर रोक नहीं लगी और कानून नहीं बना तो आपके एक-एक हिसाब किताब यहाँ तक लेन-देन तक की सारी जानकारियाँ विदेशों में बैठे ऐसे सोशल मीडिया प्रोवाइडर के पास होगी जो अन एडिटेड ऐसे सोशल मीडिया में सारा कंटेंट जस का तस परोस देते हैं। वहीं वैध इलेक्ट्रॉनिक मीडिया हो या प्रिन्ट, जिम्मेदार संपादक से लेकर कंटेंट एडीटर, कॉपी एडीटर की लंबी चौड़ी और लगातार काम करने वाली टीम होती है। इसके द्वारा एक-एक शब्द को परखा और समझा जाता है तब जाकर सामग्री प्रकाशित या प्रसारित की जाती है।
हाल ही में वाट्स ऐप के द्वारा निजी डेटा के नाम पर जो इजाजत का प्रपंच रचा जा रहा है, वह देखने में तो महज चंद शब्दों का साधारण सा नोटिफिकेशन दिखता है। लेकिन उसकी असल गहराई किसी साजिश से कम नहीं है। इससे सात समंदर पार दूर विदेश में बैठा वह सर्विस प्रोवाइडर जिसे यहाँ न उपयोगकर्ता जानता है न देखा है उसे आपकी हर एक गतिविधि यहाँ तक कि मूवमेण्ट की भी जानकारी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर ऐक्टिव होते ही हो जाएगी जो रिकॉर्ड होती रहेगी। मसलन आपने मॉल में कितने की खरीददारी की, आपकी मूवमेण्ट कहाँ-कहाँ थी, चूंकि भारत में वाट्स ऐप पेमेंट सेवा भी शुरू है तो लेन-देन तक यानी सारा कुछ जो आपके परिवारवालों को भी नहीं पता होता है, उस सोशल मीडिया सर्वर के जरिए वहाँ इकट्ठा होता रहेगी। झूठ और सच की महापाठशाला यानी वाट्स ऐप यूनिवर्सिटी भविष्य में उसी का काल बनेगी जो अभी मस्ती या सही, गलत सूचना के लिए इसका उपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं। सच तो यह है कि इण्टरनेट ही तो वो दुनिया है जहां असल साम्यवाद है। सब बराबर हैं। किसी का रुतबा और पैसा यहां नहीं चलता। इसके लिए सारे यूजर समान हैं। किसी से भेदभाव भी नहीं है। सबको समान रूप से पल प्रतिपल इण्टरनेट ही तो अपडेट रखता है। लेकिन उसी इण्टरनेट की आड़ में निजी डेटा खंगालने का विदेशी खेल ठीक नहीं।
अब वाट्स ऐप भारत सहित यूरोप से बाहर रहने वालों में लोकप्रिय इस इंस्टैंट मैसेजिंग ऐप के उपयोग के लिए अपनी निजी पॉलिसी और शर्तों में बदलाव करने जा रहा है। 8 फरवरी के बाद वॉट्सऐप इस्तेमाल तभी कर पाएंगे जब इन्हें स्वीकारेंगे वरना एकाउण्ट डिलीट हो जाएगा। यानी वाट्स ऐप द्वारा दादागीरी पूर्वक जबरन इजाजत ली जा रही है। अब तक यह देखा गया है कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स इस तरह के अड़ियल रवैया नहीं अपनाते हैं और स्वीकार या अस्वीकार का ऑप्शन देते हैं। दरअसल फेसबुक ने 2014 में वाट्स ऐप को खरीदते ही कई बार पॉलिसी में बदलाव किए हैं। सितंबर 2016 से अपने उपयोगकर्ताओं का डेटा फेसबुक से शेयर भी कर रहा है। वाट्स ऐप की हालिया नई प्राइवेसी पॉलिसी और शर्तों की बारीकियों पर नजर डालें तो दिखता है कि यह हमारे आईटी कानूनों के अनुरूप कहीं से भी वाजिब नहीं है। लेकिन यहाँ गौर करना होगा कि वाट्स ऐप भी अलग-अलग देशों में वहाँ के कानूनों के अनुरूप अपनी निजता की पॉलिसी बनाता है। मसलन जिन देशों में प्राइवेसी और निजता से जुड़े बेहद कड़े क़ानून मौजूद हैं वहाँ उनका पालन इनकी मजबूरी होती है। जैसे यूरोपीय क्षेत्र, ब्राज़ील और अमेरिका, तीनों के लिए अलग-अलग नीतियाँ हैं। यूरोपीय संघ यानी यूरोपियन यूनियन और यूरोपीय क्षेत्रों के तहत आने वाले देशों के लिए अलग तो ब्राज़ील के लिए अलग। वहीं अमेरिका के उपयोगकर्ताओं के लिए वहाँ के स्थानीय स्थानीय कानूनों के तहत अलग-अलग प्राइवेसी पॉलिसियाँ व शर्ते हैं। शायद इसीलिए तमाम विकसित देशों की इस पर गंभीरता दिखती है क्योंकि वो अपने नागरिकों की निजता को लेकर बेहद सतर्क रहते हैं। यही कारण है कि देश के कानूनों से इतर ऐसे ऐप्स को वहाँ के प्ले स्टोर्स में जगह तक नहीं मिलती। हालांकि हमारे देश में पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन बिल लंबित है परन्तु उससे पहले ही वॉट्स ऐप का यह फरमान निश्चित रूप से परेशानी में तो डाल ही रहा है। इसकी वजह यह है कि बिल के पास होने तक वाट्स ऐप लोगों के निजी डेटा को न केवल इकट्ठा कर चुका होगा बल्कि जहाँ फायदा होगा वहाँ तक भी पहुँचा चुका होगा। ऐसे में इस बिल की प्रासंगिकता से कुछ खास हासिल होगा, लगता नहीं है। भारतीयों के डेटा का बाहर कैसा उपयोग होगा इसको लेकर भी अनिश्चितता का माहौल है। साफ है कि इस बारे में कोई कानून नहीं है और जरूरत है सबसे पहले प्राइवेसी और निजी डेटा प्रोटेरक्शन की।
दरअसल हमारे देश में अभी भी अंग्रेजों के बनाए कानूनों की भरमार है। वक्त के साथ इन्हीं में बदलाव कर काम चलाने की हमारी आदत गई नहीं है। जबकि इक्कीसवीं सदी, तकनीकी और संचार क्रान्ति का जमाना है। सारा कुछ मुट्ठी में और एक क्लिक में होने के दावे का नया दौर। ऐसे में कोई पलक झपकते ही हमारी निजता को ही कब्जा ले, यह कहाँ की बात हुई? निजता चाहे वह डेटा में हो या अन्य तरीकों में, सुरक्षा बेहद जरूरी है। गौर करना होगा कि हमारे सुप्रीम कोर्ट ने भी 2017 में पुट्टुस्वामी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के प्रकरण में ऐतिहासिक फैसला देते हुए कहा था निजता का अधिकार हर भारतीय का मौलिक अधिकार है। तभी अदालत ने इसे भारतीय संविधान के अनुच्छेद-21 यानी जीवन के अधिकार से जोड़ा था। सुप्रीम कोर्ट की 9 जजों की संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला दिया और 1954 तथा 1962 में दिए गए फैसलों को पलटते हुए यह फैसला दिया था क्योंकि पुराने दोनों फैसलों में निजता को मौलिक अधिकार नहीं माना गया था।
वाट्स ऐप की नीयत पर शक होना लाजिमी है। 2016 में अमेरिकी चुनावों के वक्त फेसबुक का कैंब्रिज एनालिटिका स्कैंडल लोग भूले नहीं हैं। जबकि 2019 में इसराइली कंपनी पेगासस ने इसी वॉटसऐप के ज़रिए हजारों भारतीयों की जासूसी की थी। इधर भारत में भी फ़ेसबुक की भूमिका पर जब-तब सवाल उठते रहे हैं। ऐसे में फेसबुक की मिल्कियत वॉट्सऐप द्वारा खुले आम फेसबुक और इससे जुड़ी कंपनियों से उपयोगकर्ताओं का डेटा साझा करने की बात समझनी होगी। हालांकि सफाई में वाट्स ऐप का कहना है कि नई प्राइवेसी पॉलिसी से इस पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा कि आप अपने परिवार या दोस्तों से कैसे बात करते हैं। लेकिन यह भी तो सच है कि जानकारी, संपर्क, हंसी-ठिठोली और मनमाफिक असली-नकली सूचनाओं को बिना रुकावट भेजने का प्लेटफॉर्म बना वाट्स ऐप का इस्तेमाल बहुत सारी व्यापारिक गतिविधियों के बढ़ावे के लिए भी हो रहा है। इसमें कई संवेदनशील जानकारियाँ भी होती होंगी। स्वाभाविक है कि यह देश की सीमाओं के बाहर न जाएँ।
साफ लग रहा है कि हमारे यहाँ प्राइवेसी से सम्बन्धित क़ानूनों की कमीं है, यही वजह है कि वॉट्सऐप और ऐसे ही प्लेटफॉर्म्स के लिए भारत जैसा विशाल देश आसान निशाना होते हैं। शायद हो भी यही रहा है। वॉट्सऐप के ताज़ा नोटिफिकेशन से जहाँ विशेषज्ञों की चिंताएँ तो बढ़ी ही होंगी वहीं सरकार भी जरूर चिन्तित होगी। इस सबके बावजूद इतनी बारीकियों से बेखबर एक औसत भारतीय को भी सजग होना होगा ताकि वह ऐसे झाँसे में आने से बचे। इसके लिए बिना समय गंवाएं तत्काल मिल जुलकर कोई कदम उठाया जाए जो हमेशा के लिए ऐसे विवादों को ही समाप्त कर दे ताकि भारत में सायबर दायरों की आड़ में पैठ बनाते विदेशी प्लेटफॉर्म अपनी हदों में ही रहे। हाँ, यहाँ हमारे दुश्मन ही सही चीन से नसीहत लेनी होगी जिसने शायद इसी वजह से ही विदेशी प्लेटफॉर्म्स को देश में घुसने ही नहीं दिया सारा कुछ खुद का बनाया इस्तेमाल करता है। यकीनन चिंताएं सबकी बढ़ी हैं और एक यूज़र के तौर पर हमको, आपको सबको इससे चिंतित होना चाहिए।

सरकार तुरंत पहल करे
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
सर्वोच्च न्यायालय की यह कोशिश तो नाकाम हो गई कि वह कोई बीच का रास्ता निकाले। सरकार और किसानों की मुठभेड़ टालने के लिए अदालत ने यह काम किया, जो अदालतें प्रायः नहीं करतीं। सर्वोच्च न्यायालय का काम यह देखना है कि सरकार या संसद ने जो कानून बनाया है, वह संविधान की धाराओं का उल्लंघन तो नहीं कर रहा है ? इस प्रश्न पर सर्वोच्च न्यायाधीशों ने एक शब्द भी नहीं कहा। उन्होंने जो किया, वह काम सरकार या संसद का है या जयप्रकाश नारायण जैसे उच्च कोटि के मध्यस्थों का है। उसका एक संकेत अदालत ने जरुर दिया। उसने तीनों कृषि-कानूनों को फिलहाल लागू होने से रोक दिया। उसने सरकार का काम कर दिया। सरकार भी यही करना चाहती थी लेकिन वह खुद करती तो उसकी नाक कट जाती। लेकिन अदालत ने जो दूसरा काम किया, वह ऐसा है, जिसने उसके पहले काम पर पानी फेर दिया। उसने किसानों से बातचीत के लिए चार विशेषज्ञों की कमेटी बना दी। यह कमेटी तो ऐसे विशेषज्ञों की है, जो इन तीनों कानूनों का खुले-आम समर्थन करते रहे हैं। इनके नाम तय करने के पहले क्या हमारे विद्वान जजों ने अपने दिमाग का इस्तेमाल ज़रा भी नहीं किया ? क्या ये विशेषज्ञ ही इन तीनों अटपटे कानूनों के अज्ञात या अल्पज्ञात पिता नहीं हैं ? हमारे न्यायाधीशों के भोलेपन और सज्जनता पर कुर्बान जाने को मन करता है। मंत्रियों से संवाद करनेवाले किसान नेताओं को नीचे उतारकर अपने सलाहकारों से भिड़वा देना कौनसी बुद्धिमानी है, कौनसा न्याय है, कौनसी शिष्टता है ? इस कदम का एक अर्थ यह भी निकलता है कि हमारी सरकार के नेताओं के पास अपनी सोच का बड़ा टोटा है। इसीलिए उसने अपने मार्गदर्शकों के कंधे पर बंदूक धरवा दी। किसान नेताओं से संवाद करने के लिए सरकार को किसानों की सहमति से ऐसा मध्यस्थ-मंडल तुरंत बनाना चाहिए, जिसकी निष्पक्षता और ईमानदारी पर किसी को शक न हो। यदि इस काम में देरी हुई तो उसके परिणाम अत्यंत भयंकर भी हो सकते हैं। हमारा गणतंत्र-दिवस, गनतंत्र-दिवस में भी बदल सकता है। वह अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में जून 1984 में हुए हादसे को दोहरा सकता है। उससे बचना बहुत जरुरी है। किसानों ने अभी तक गांधीवादी सत्याग्रह की अद्भुत मिसाल पेश की है और अब भी वे अपनी नाराजी को काबू में रखेंगे लेकिन सरकार से भी अविलंब पहल की अपेक्षा है।

शेयर बाजार एवं बिटक्वाइन के बीच रेस
सनत कुमार जैन
भारत सहित दुनियाभर के शेयर बाजारों ने निवेशकों तथा अर्थशास्त्रियों को आश्चर्यचकित करके रखा है 2019 के बाद से ही वैश्विक मंदी तथा 2020 के जनवरी माह से कोरोना महामारी के चलते शेयर बाजार में जिस तरीके की तेजी अभी देखने को मिल रही है, उससे सारी दुनिया के निवेशक चकित हैं।
विशेषज्ञों का मानना है कि आभासी मुद्रा बिटक्वाइन में तेजी से बढ़ती निवेशकों की रूचि को देखते हुए शेयर बाजार को आभासी बाजार में तब्दील करने की कोशिश अन्तरराष्ट्रीय धन्नासेठ कर रहे हैं। शेयर बाजार बिटक्वाइन से ज्यादा मुनाफा देने की धारणा में काम कर रहा है। तेजी का एक कारण यह भी माना जा रहा है।
कोविड-19 के कारण दुनिया भर में आर्थिक, सामाजिक एवं स्वास्थ्य संबंधी संकट से दुनिया में करोड़ों लोग बेरोजगार हो गए। उद्योग और धंधे कई महीनों तक बंद रहे। कारोबारियों और उत्पादकों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। लाखों छोटे कारोबारी तबाह हो गए। भारत में हजारों कंपनियां बैंकों का ऋण नहीं चुका पाई और दिवालिया होने की कगार पर खड़ी हुई है इसके बाद भी शेयर बाजार की तेजी से निवेशक और अर्थशास्त्री हतप्रभ हैं।
शेयर बाजार चमत्कारिक ढंग से नई-नई ऊंचाइयों के कीर्तिमान स्थापित कर रहे हैं। पूंजी बाजार और व्यापार की स्थिति अत्यंत भयावह है। बैंकों का एनपीए लगातार बढ़ रहा है। भारत में बैंकों को एनपीए के कारण सरकार से पूंजी की आवश्यकता है, हजारों की संख्या में बड़े-बड़े उद्योग दिवालिया होने की कगार पर खड़े हैं इसके बाद भी जनवरी माह में शेयर बाजार ने जो सरपट दौड़ लगाई है उससे हैरानी पड़ गई है। कोरोना के बाद मार्च 2020 में निफ्टी 7522 के अंकों तक गोता लगा गया था। उसके बाद आर्थिक बदहाली के चलते जनवरी माह में 14564 के उच्चतम स्तर पर पहुंच गया। 6 माह के अंदर बाजार लगभग दोगुना स्तर पर पहुंच गया इसके पहले कभी भी शेयर बाजार में इतनी रिकवरी नहीं देखी गई थी जो पिछले 6 माह में देखने को मिली हैं। जानकारों का मानना है कि शेयर बाजार अंतरराष्ट्रीय पूंजीपतियों के हाथ में चला गया है और इसको सट्टेबाजी की तरह चलाया जा रहा है आर्थिक बदहाली जब सारे विश्व में फैली हुई है। उस समय दुनिया की सभी देशों की सरकारें भी इस मामले में चुप्पी साध कर बैठी हैं जिसके कारण शेयर बाजार को नियंत्रित करने के लिए अब कोई भी नियामक संस्था भारत से दुनिया के किसी भी देश में प्रभावी साबित नहीं हो रही है। वैश्विक व्यापार संधि के बाद सारी दुनिया के शेयर बाजार एक सूत्र में बंध गए हैं जिसके कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जो बड़े-बड़े धन पशु हैं वही शेयर बाजार और पूंजी के इस खेल को अपने ढंग से खेल रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय धनाढ्य वर्ग द्वारा शेयर बाजार को कमाई का बड़ा जरिया बना लिया है। शेयर बाजार को नियंत्रित करने के लिए जो नियम थे वह निष्प्रभावी साबित हो रहे हैं। सपनों की दुनिया में जिस तरह से प्रकाश से तेज गति से विचारों को ले जाया जा सकता है ठीक उसी तरह अब शेयर बाजार को भी दुनिया के बड़े बड़े पूंजीपति सारी दुनिया मैं निवेशकों को लूटने के लिए लालच मैं डाल कर साजिश कर रहे हैं। उल्लेखनीय है 1992 दो हजार तथा 2008 में भी भारत के शेयर बाजारों में गिरावट आई थी, तब दुनिया की स्थिति आर्थिक रूप से खराब नहीं थी लेकिन 2019 के बाद जिस तरह से वैश्विक स्तर पर आर्थिक मंदी से सारी दुनिया जूझ रही थी एवं 2020 में कोरोना संकट के कारण सारी दुनिया लॉकडाउन की विभीषिका से जूझ कर घरों में कैद थी, आर्थिक सम व्यवहार पूरी तरह से बंद थे अभी भी कोरोना का कहर सारी दुनिया के देशों में मंडरा रहा है उसके बाद भी यदि शेयर बाजार में इस तरह की तेजी आ रही है तो उससे निवेशक और अर्थशास्त्री दोनों का हैरान होना स्वाभाविक है वह इस तेजी को जानने की जितने भी प्रयास कर रहे हैं अभी तक तेजी का कोई कारण नहीं खोज पाए हैं सभी का मानना है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह साजिश बड़े बड़े धन्ना सेठों द्वारा रची गई है जिसके शिकार भारत सहित दुनिया के देशों के वित्तीय संस्थान बैंकिंग सेक्टर और निवेशक इससे प्रभावित होंगे इसे अंतरराष्ट्रीय लूट के रूप में भी देखा जा रहा है। भारत के संदर्भ में कहा जाए कि स्वर्ग का सपना देखते हुए लोग अपना सर्वस्व निछावर कर देते हैं इसी तरीके की स्थिति शेयर बाजार की बन गई है। जहां लोग ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की होड़ में अपने जीवन भर की कमाई शेयर बाजार में झोंक रहे हैं। शेयर बाजार को लेकर कोई भी सटीक अनुमान लगा पाना आर्थिक विशेषज्ञों के वश में नहीं रहा, निवेशकों का जोखिम लगातार बढ़ता ही जा रहा है इस स्थिति को लेकर सभी आश्चर्यचकित हैं।

दोनों मुठभेड़ से बचें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसे कि कल मैंने अपने लेख में आशंका व्यक्त की थी, सरकार और किसानों के बीच सीधी मुठभेड़ का दौर शुरु हो गया है। आठवें दौर की बातचीत में जो कटुता बढ़ी है, वह दोनों पक्षों के आचरण में भी उतर आई है। करनाल और जालंधर जैसे शहरों से अब किसानों और पुलिस की मुठभेड़ की खबरें आने लगी हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली पर डटे हुए किसान संगठनों का भी धैर्य अब टूट जाए और वे भी तोड़-फोड़ पर उतारु हो जाएं। यह अच्छा ही हुआ कि हरयाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने करनाल के एक गांव में आयोजित किसानों की महापंचायत के जलसे को स्थगित कर दिया। यदि वे जलसा करने पर अड़े रहते तो निश्चय ही पुलिस को गोलियां चलानी पड़तीं, किसान संगठन भी परस्पर विरोधियों पर हमला करते और भयंकर रक्तपात होता। लेकिन किसान संगठनों ने भी कोई कमी नहीं रखी। उन्होंने सभा-स्थल पर लगाए गए बेरिकेड तोड़ दिए, मंच को तहस-नहस कर दिया और जिस हेलीपेड पर मुख्यमंत्री का हेलिकाॅप्टर उतरना था, उसे ध्वस्त कर दिया। किसान नेता इस बात पर अपना सीना जरुर फुला सकते हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री को मार भगाया लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि सरकार के पास उनसे कहीं ज्यादा ताकत है। यदि खट्टर की जगह कोई और मुख्यमंत्री होता तो पता नहीं आज हरयाणा का क्या हाल होता ? करनाल में किसानों के नाम पर किन्हीं भी तत्वों ने जो कुछ किया, क्या उसे किसानों के हित में माना जाएगा ? मुश्किल ही है। क्योंकि अभी तक किसानों का आंदोलन गांधीवादी शैली में अहिंसक और अनुशासित रहा है और उसने नेताओं को भी आदर्श व्यवहार सिखाया है लेकिन अब यदि ऐसी मुठभेड़ें बढ़ती गईं तो किसानों की छवि बिगड़ती चली जाएगी। यदि किसान नेता अपने धरनों और वार्ता के जरिए अपना पक्ष पेश कर रहे हैं तो उन्हें चाहिए कि वे सरकार को भी अपना पक्ष पेश करने दें। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष को अपनी बात कहने की समान छूट होनी चाहिए। यह स्वाभाविक है कि कड़ाके की ठंड, आए दिन होनेवाली मौतों और आत्महत्याओं के कारण किसानों की बेचैनी बढ़ रही है लेकिन बातचीत के जरिए ही रास्ता निकालना ठीक है। यह समझ में नहीं आता कि सरकार भी क्यों अड़ी हुई है ? या तो रास्ता निकलने तक वह कानून को स्थगित क्यों नहीं कर देती या राज्यों को उसे लागू करने की छूट वह क्यों नहीं दे देती ?

एक विवादित सवाल…..? क्या न्यायपालिका प्रतिपक्ष की भूमिका में आ गई है….?
ओमप्रकाश मेहता
अब भारत में यह एक प्रचलित परम्परा बन गई है कि जब भी न्यायपालिका सरकार के खिलाफ कोई फैसला सुनाती है तो हमारे देश के सत्तासीन कर्णधारों द्वारा न्यायपालिका को प्रतिपक्ष की भूमिका में देखना शुरू कर दिया जाता है, छोटे-मोटे सत्तासीन नेता तो ठीक पिछले दिनों तो स्वयं उपराष्ट्रपति जी ने ही खुलेआम यह कह दिया कि कुछ अदालती फैसलों से लगता है कि सरकार व कानून व्यवस्था में न्यायपालिका का हस्तक्षेप बढ़ा है, साथ ही उन्होंने यह भी दुहाई दी कि संविधान में वर्णित प्रजातंत्र के तीनों अंगों को एक-दूसरे के कार्यक्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। अब उप-राष्ट्रपति जी के इन उद्गारों के बाद सवाल यह उठाया जा रहा है कि क्या सरकार स्वयं कोई कानून या संविधान के खिलाफ निर्णय लेती है तो क्या उसके बारे में भी माननीय न्यायालय को अपनी राय या फैसला देने का हक नहीं? अब तो सरकार या उस पर विराजित कर्णधारों का यह चलन ही हो गया है कि जब न्यायालय सरकार या सत्तारूढ़ दल के हक में फैसला सुनाता है तो न्यायालिका की जमकर तारीफ की जाती है, जैसी कि अयोध्या राम मंदिर से जुड़े फैसलें के समय की गई थी, किंतु जब न्यायालय सरकार के किसी फैसले के खिलाफ न्यायसंगत फैसला सुनाता है तो फिर उसे प्रतिपक्ष के कटघरे में खड़ा कर दिया जाता है, अर्थात साधारण बोलचाल की भाषा में ”मीठा-मीठा गटक और कड़वा-कड़वा थूं“। क्या सरकार का यह रवैया संविधान की मंशाओं की पूर्ति करता है?
इसमें कोई दो राय नहीं कि वर्तमान में देश का आम नागरिक सिर्फ और सिर्फ न्यायपालिका पर ही विश्वास रखकर उसे अपने अधिकारों की रक्षक मानता है, क्योंकि अब देश में ऐसी स्थिति निर्मित कर दी गई है कि देश के आम वर्ग का न्यायपालिका के अलावा किसी पर भी कोई भरोसा नहीं रहा, फिर वह चाहे मीडिया ही क्यों न हो? क्या किया जाए…. प्रजातंत्र का तो अब यह आम चलन ही हो गया है कि आज की राजनीति अपने आपकों देश व संविधान से भी ऊपर मानती है और देश के असली मालिक (जनता या आम वोटर) को तभी पूछती है, जब उससे वोट की भीख मांगना होती है, शेष समय में भारत का इसली मालिक सब तरफ से उपेक्षित ही रहता है।
इस लम्बी दलील का सीधा मतलब यही निकलता है कि भारत की आजादी के सत्तर साल बाद अब संविधान की पुस्तक की महत्ता सिर्फ राजनेताओं की शपथ तक ही सीमित रह गई है, उस पुस्तक में लिखी इबारत पर कोई ध्यान नहीं देता वहीं सत्ता प्राप्ति के बाद देश के असली मालिक (वोटर) की उपेक्षा आज की राजनीति का आम चलन हो गया है, यही स्थिति संविधान वर्णित प्रजातंत्र के दो अंगों कार्यपालिका और विधायिका की है, जो अब पूरी तरह राजनीति केन्द्रित होकरर उसी के नियंत्रण में आ गई है, इसीलिए आजकल संविधान की बात कने वालों की न सिर्फ उपेक्षा की जाती है, बल्कि उनका भरपूर मजाक भी उड़ाया जाता है।
…..और प्रजातंत्र के तीनों अंगों में आज भी न्यायपालिका को सर्वश्रेष्ठ और भरोसे के लायक इसलिए माना गया है, क्योंकि वह नियम-कानून और संविधान के अनुरूपप संचालित होती है, इसीलिए न्यायपालिका आज सर्वोपरी है और चुनाव आयोग जैसे अन्य संवैधानिक संगठनों की संविधान सम्मत बातें या उनके फैसले इसलिए सरकार के ”नक्कारखाने“ में ”तूती“ साबित होते है, क्योंकि इन पर सीधे-सीधे सरकार का नियंत्रण रहता है, इसका एक ताजा उदाहरण देखिये…. चुनाव आयोग ने दागी नेताओं को जीवन भर चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहराने का प्रस्ताव रखा था, जिसकी सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्रशंसा की थी, किंतु छ: साल पहले एक साल की अवधि में देश के सभी दागी या अपराधी नेताओं के न्यायालयीन प्रकरणों का निपटारा करने की संसद में घोषणा करने वाले प्रधानमंत्री जी ने चुनाव आयोग के इस प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया और मौजूदा सरकार के दूसरे कार्यकाल में भी दागी नेता ही देश के कर्णधार बने हुए है।
इस तरह कुल मिलाकर आज सही व न्याय व संविधान सम्मत बात करने वाला सरकार विरोधी माना जाता है, फिर वह चाहे न्यायपालिका ही क्यों न हो? किंतु देश को विश्वास है कि न्यायपालिका देश का विश्वास भंग नहीं करेगी, फिर चाहे उसे कुछ भी क्यों न करना पड़े?

 

ट्रंप की फजीहत
सिद्धार्थ शंकर
अमेरिका में तीन नवंबर को राष्ट्रपति चुनाव के बाद जिस बात का डर था, वही हुआ। हिंसा की आशंका थी और यह हुई भी। दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र बुधवार को सबसे बड़े संकट में नजर आया। मौका भी साधारण नहीं था और घटना भी। वॉशिंगटन की कैपिटल बिल्डिंग में अमेरिकी कांग्रेस इलेक्टोरल कॉलेज को लेकर बहस कर रही थी और इसी बहस के बाद प्रेसिडेंट इलेक्ट जो बाइडेन की जीत की ऑफिशियल और लीगल पुष्टि की जानी थी। इसी दौरान मौजूदा राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के समर्थकों ने हजारों की तादाद में प्रदर्शन शुरू कर दिया। ट्रंप समर्थक कैपिटल बिल्डिंग के भीतर दाखिल हो गए और अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव रद्द करने की मांग करने लगे। इस दौरान वे हिंसक हो उठे और उन्हें रोकने के लिए नेशनल गाड्र्स को एक्शन में आना पड़ा। कैपिटल बिल्डिंग में प्रदर्शन के दौरान एक महिला को गोली लग गई। जिसकी अस्पताल में मौत हो गई। बिल्डिंग से फायरिंग की आवाजें भी सुनी गईं। कैपिटल बिल्डिंग के पास एक विस्फोटक डिवाइस भी मिली है। जिस वक्त ट्रंप समर्थक कैपिटल बिल्डिंग में दाखिल हो रहे थे, उस दौरान यूएस के सांसदों को गैस मास्क पहनने को कहा गया, क्योंकि प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए सुरक्षा बलों को आंसू गैस भी छोडऩी पड़ी। आंदोलनकारी बिल्डिंग के भीतर दाखिल हो रहे थे, ऐसे में अधिकारियों और सुरक्षाकर्मियों ने अपनी बंदूकें भी निकाल ली थीं, ताकि हालात बिगडऩे पर उन्हें काबू किया जा सके। हालात किस कदर बिगड़ गए थे, इसका अंदाजा लगाया जा सकता है।
हालांकि, 3 नवंबर को ही यह तय हो गया था कि जो बाइडेन दुनिया के सबसे ताकतवर देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। जिद्दी डोनाल्ड ट्रंप फिर भी हार मानने को तैयार नहीं थे। चुनावी धांधली के आरोप लगाकर जनमत को नकारते रहे। हिंसा की धमकियां भी दीं। यहां तक कि वे अपने स्टाफ से कहते रहे कि बाइडेन की शपथ वाले दिन भी वे व्हाइट हाउस नहीं छोड़ेंगे। ट्रंप के इस तरह के ऐलान से यह तो साफ था कि वे चुनाव में अपनी हार को आसानी से कबूल करने वाले नहीं हैं और अब संसद में जिस तरह से हंगामा और हिंसा हुई, यह शर्मसार कर देने वाली हैै। वोटिंग के 64 दिन बाद जब अमेरिकी संसद बाइडेन की जीत पर मुहर लगाने जुटी तो अमेरिकी लोकतंत्र शर्मसार हो गया। ट्रंप के समर्थक दंगाइयों में तब्दील हो गए। संसद में घुसे। तोडफ़ोड़ और हिंसा की। बता दें कि राष्ट्रपति चुनाव में बाइडेन को 306 और ट्रंप को 232 वोट मिले। सब साफ होने के बावजूद ट्रंप ने हार नहीं कबूली। उनका आरोप है कि वोटिंग के दौरान और फिर काउंटिंग में बड़े पैमाने पर धांधली हुई। कई राज्यों में केस दर्ज कराए। ज्यादातर में ट्रंप समर्थकों की अपील खारिज हो गई। दो मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी याचिकाएं खारिज कर दीं। चुनाव प्रचार के दौरान और बाद में ट्रंप इशारों में हिंसा की धमकी देते रहे हैं। बुधवार को हुई हिंसा ने साबित कर दिया कि सुरक्षा एजेंसियां ट्रम्प समर्थकों के प्लान को समझने में नाकाम रहीं। बता दें कि प्रेसिडेंट इलेक्ट की जीत पर मुहर लगाने के लिए कांग्रेस यानी अमेरिकी संसद का संयुक्त सत्र बुलाया जाता है। इसकी अध्यक्षता उप राष्ट्रपति करते हैं। इस बार इस कुर्सी पर माइक पेंस थे। पेंस रिपब्लिकन पार्टी के हैं। ट्रंप के बाद उनका ही नंबर आता है। वे भी ट्रंप समर्थकों की हरकत से बेहद खफा दिखे। कहा-यह अमेरिकी इतिहास का सबसे काला दिन है। हिंसा से लोकतंत्र को दबाया या हराया नहीं जा सकता। यह अमेरिकी जनता के भरोसे का केंद्र था, है और हमेशा रहेगा।
जो भी हो, ट्रंप के समर्थकों ने जिस तरह का व्यवहार दिखाया है, उसे पूरी दुनिया वाकिफ हो चुकी है। अमेरिकी संसद से जो तस्वीरें आईं, वह काफी दिनों तक जेहन में ताजी रहेंगी और जब भी संसदीय परंपरा भंग होने का मामला सामने आएगा, तब अमेरिका का यह उदाहरण भी दिया जाएगा। बेहतर होता कि ट्रंप अपनी हार स्वीकार करते और बाइडेन के लिए सत्ता का द्वार खोलते। इससे उनकी साख बनी रहती। मगर अब जो हुआ है, उससे नुकसान ट्रंप को ही उठाना पड़ेगा।

ऊर्जा क्षमता को बढ़ा रहे पवन टरबाइन
के.सी.ढिमोले
ऊर्जा स्थापित क्षमता किसी भी देश के विकास और गुणवत्ता का आकलन करने के लिए सबसे महत्वपूर्ण कारकों में से एक है। दुनिया वर्तमान में पर्यावरण के मुद्दों का बहुत सामना कर रही है, विशेष रूप से ग्लोबल वार्मिंग के प्रभाव के कारण जलवायु परिवर्तन, जीवाश्म ईंधन स्रोतों से ऊर्जा के बड़े पैमाने पर उत्पादन के कारण। प्रभाव को कम करने के लिए, कई देशों ने जीवाश्म ईंधन के उपयोग को कम करने का निर्णय लिया है और वैकल्पिक ऊर्जा स्रोतों को खोजने की कोशिश कर रहे हैं। अक्षय ऊर्जा स्रोत स्वच्छ और हरे होते हैं, जो ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करने की विशाल क्षमता रखते हैं जो जलवायु परिवर्तन के मुद्दों को कम कर सकते हैं। भारतीय ऊर्जा स्थापित उत्पादन क्षमता 370 गीगावॉट से अधिक पहुंच गई है, लेकिन अभी भी कमी का अनुभव है और विकास संबंधी प्राथमिकताओं को पूरा करने के लिए और अधिक स्थापना की आवश्यकता है। भारत में वर्ष 2022 तक नवीकरणीय ऊर्जा से 175 गीगावॉट बिजली का बहुत महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा गया है,उसमें 60 गीगावाट पवन उर्जा द्वारा स्थापित करना है।जुलाई माह तक अक्षय ऊर्जा स्थापित क्षमता 88 गीगावाट थी। भारत में पवन ऊर्जा संयंत्र की स्थापना तेजी से बढ़ रही है। विश्व पवन ऊर्जा विकास के साथ भारत 37829.55 मेगावाट की स्थापित क्षमता के साथ दुनिया में चौथे स्थान पर है, जो कि कुल भारतीय ऊर्जा स्थापित क्षमता का लगभग 10 प्रतिशत है। विंड एनर्जी द्वारा ऊर्जा संसाधनों का टिपिंग पॉइंट वर्ष 1983-84 के दौरान था। भारत में पवन टरबाइन की पहली स्थापना 1986 में 55 किलोवाट की सबसे छोटी व्यावसायिक क्षमता के साथ हुई थी और यह क्षमता कुछ समय में बढ़ी और अब भारत में उच्चतम क्षमता वाली पवन टरबाइन 3 मेगावाट की है। वर्तमान में भारतीय पवन ऊर्जा पूरे विश्व में स्थापित क्षमता 595 गेगावाटका लगभग 6.35प्रतिशत योगदान देती है और विभिन्न ऊंचाइयों पर बड़ी क्षमता का अनुमान लगाया जारहा है, उसी के दोहन से भविष्य में बेहतर योगदान मिलेगा। वर्तमान सरकार का लक्ष्य निश्चित रूप से इस क्षेत्र में विकास को बढ़ावा देगा। भारत अब पवन टर्बाइनों के लिए एक वैश्विक विनिर्माण केंद्र है जिसमें उच्च क्षमता वाले पवन टरबाइन के 20 से अधिक बड़े पवन टरबाइन के निर्माता हैं7
हमारे देश में उच्च पवन उर्जा की क्षमता है, और नेशनल इंस्टिट्यूट आफ विंड एनर्जी के अनुसार भारत में 302 गीगावाट 100 मीटर ऊंचाई पर तथा 695 गीगावाट 120 मीटर ऊंचाई पर की दोहन की क्षमता है। जहां तक पवन ऊर्जा उत्पादन की दर है वह प्रति यूनिट कम होती जा रही है, और 2019 में टेरिफ केप को संसोधित करके 2.93 रुपए/यूनिट किया गया था परंतु इस उद्योग का कहना है कि यह अभी भी अलाभकारी है और हाल ही में जेएसडब्लू एनर्जी ने 970 मेगावाट के पवन ऊर्जा परियोजना के लिए सोलर एनर्जी कारपोरेशन (सेकी) से नवीनतम नीलामी प्राप्त की है और देश की पवन ऊर्जा उत्पादन क्षेत्र में अपनी प्रविष्टि को चिन्हित किया है। इस कंपनी को 3 रुपये प्रति यूनिट को दर से यह प्रोजेक्ट दिया गया है। भारत में अभी कुल स्थापित बिजली क्षमता लगभग 370गीगावॉट है तथा ऊर्जा के स्रोतों और बिजली की मांग हर साल 10 फीसदी की दर से बढ़ रही है। ऊर्जा सुरक्षा और सतत विकास जीवाश्म ईंधन की कमी और जलवायु परिवर्तन के मुद्दों का सामना करने के लिए सबसे बड़ी चुनौतियां हैं। अक्षय उर्जा स्रोतों से बिजली उत्पादन भारत में गति प्राप्त कर रहा है। भारतीय विद्युत अधिनियम 2003 अक्षय उर्जा स्रोतों से बिजली के उत्पादन को बढ़ावा देने के प्रावधान के साथ अक्षय उर्जा विकास का समर्थन कर रहा है, जो कि किसी भी खरीद के लिए बिजली की ग्रिड और बिक्री के साथ कनेक्टिविटी के लिए उपयुक्त उपाय प्रदान करता है।
गैर-पारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के बीच, पवन ऊर्जा पूरे विश्व में ऊर्जा के सबसे परिपक्व स्रोत के रूप में साबित होती है, बिजली के स्वच्छ और सुरक्षित उत्पादन के लिए। हवा मोशन में हवा के अलावा और कुछ नहीं है। पृथ्वी की विभिन्न सतह पर सौर विकिरण के विभेदक अवशोषण के मात्र 2 से 3 प्रतिशत के कारण हवा चलती है। धूप के घंटों के दौरान, वायुमंडल में हवा गर्म हो जाती है और हवा के कण हवा बनाते हुए, कम दबाव वाले क्षेत्रों की ओर बढऩे लगते हैं। पवन में गतिज ऊर्जा (मोशन में ऊर्जा) है और इसे पवन ऊर्जा रूपांतरण प्रणाली या विंड टर्बाइन के माध्यम से यांत्रिक ऊर्जा और फिर विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित किया जाता है। पवन ऊर्जा टिकाऊ है और ऊर्जा के आर्थिक रूप से प्रतिस्पर्धी स्रोत के रूप में उभर रही है। पवन ऊर्जा एक ऐसा महत्वपूर्ण स्रोत है जिसे कथानक और नवीन तकनीकों के साथ विद्युत ऊर्जा के रूप में परिवर्तित करने के लिए तीव्र मोड में दोहन करने की आवश्यकता है। पवन ऊर्जा कभी भी बाहर नहीं जाएगी और स्वतंत्र रूप से उपलब्ध स्रोत में समृद्ध क्षमता होगी। पृथ्वी की व्यावसायिक रूप से व्यवहार्य पवन ऊर्जा क्षमता 72 टेरावाट होने का अनुमान है जो दुनिया की वर्तमान कुल ऊर्जा मांग से चार गुना अधिक है।
व्यावसायिक पैमाने पर पवन ऊर्जा विकसित करने वाला भारत एशिया का पहला देश है। भारत को अच्छे पवन संसाधन और जलवायु विज्ञान का आशीर्वाद प्राप्त है। भारत की हवा दक्षिण-पश्चिम गर्मियों के मानसून से प्रभावित होती है, जो मई-जून में शुरू होती है, जब ठंडी, नम हवा भूमि की ओर बढ़ती है और कमजोर पड़ती है जब उत्तर-पूर्वी शीतकालीन मानसून, जब अक्टूबर में शुरू होता है। भारत दुनिया में सबसे बड़े पवन संसाधन आकलन में से एक का संचालन करता है और संसाधन मूल्यांकन के लिए पवन निगरानी स्टेशन समर्पित करता है और सेटअप देश की पूरी लंबाई और चौड़ाई को कवर करता है। पवन संसाधन मूल्यांकन अब तक 28 राज्यों और 5 केंद्र शासित प्रदेशों में 809 से अधिक समर्पित पवन निगरानी स्टेशनों की स्थापना करके कवर किया गया है। हर साल और अधिक स्टेशनों को जोड़ा जा रहा है ताकि विभिन्न राज्यों में वैज्ञानिक रूप से उजागर क्षेत्रों का अध्ययन किया जा सके। निगरानी स्टेशनों से एक से दो साल की अवधि के लिए पवन डेटा एकत्र किया जा रहा है और समय-समय पर पवन फार्मों के विकास का समर्थन करने के लिए भारत में पवन ऊर्जा संसाधन सर्वेक्षण का प्रकाशन किया जाता है। एकत्रित डेटा विंड एटलस और अन्य शोध अध्ययनों की तैयारी के लिए एक डेटा बैंक के रूप में भी काम करता है। म.प्र. में कुल 137 पवन निगरानी स्टेशन स्थापित किये जा चुके हंै और पवन घनत्व के आधार पर पवन ऊर्जा के लिए अच्छी साइट्स जमगोदरानी और नागदा जिला देवास, कुकरू जिला बैतूल, महुरिया जिला साजापुर, ममतखेड़ा जिला रतलाम, बरियालपानी जिला बड़वानी, तथा सेंधवा जिला सेंधवा में है।
मध्यप्रदेश में जुलाई 2020 तक 24950.60 मेगावाट पावर उत्पादन क्षमता स्थापित की जा चुकी है इसमें अक्षय ऊर्जा की 5050.85 मेगावाट है जो कि कुल उत्पादन क्षमता का 20.24 प्रतिशत है इसमें 2519.89 मेगावाट (जुलाई 2020) तक की पवन उर्जा क्षमता स्थापित की जा चुकी है और 2000 मेगावाट पर कार्य होने जा रहा है, जिसका मुख्यमंत्री ने 10 जुलाई 2020 को रीवा अल्ट्रा मेगा सौर परियोजना 750 मेगावाट के उद्घाटन सत्र में जिक्र किया गया था। अभी पवन ऊर्जा स्थापित क्षमता के आधार पर मध्य प्रदेश का पूरे भारत में तामिलनाडू, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के बाद सातवां स्थान पर है और मप्र अक्षय उर्जा स्त्रोतों के दोहन में अग्रणी होते जा रहा है। अभी जुलाई माह में ही 750 मेगावाट की रीवा अल्ट्रा मेगा सौर परियोजना चालू की गई है, जो की विश्व की एक बड़ी परियोजनाओं में से एक है। पवन टरबाइन के लिए देश में एक बड़ा घरेलू विनिर्माण आधार स्थापित किया गया है। देश में वैश्विक खिलाडिय़ों के साथ प्रौद्योगिकी तेजी से विकसित हो रही है। पवन टरबाइनों का आकार 1980 से 2016 में 55-100 किलोवाट से 30 वर्ष की अवधि में 2016 में 3 मेगावाट हो गया है। भारत सरकार सही नीतियों, योजनाओं और विकास कार्यक्रमों के माध्यम से अक्षय ऊर्जा और पवन ऊर्जा को सक्रिय रूप से विकसित कर रही है। अब, भारत 37.8 गेगावाटकी पवन ऊर्जा स्थापित क्षमता के साथ दुनिया में चौथे स्थान पर है। भारतीय विद्युत अधिनियम 2003 के अनुसार अक्षय स्रोतों से बिजली उत्पादन को बढ़ावा देने के प्रावधान के साथ नवीकरणीय ऊर्जा विकास के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ। भारत दुनिया के सबसे बड़े पवन संसाधन आकलन में से एक है और देश की पूरी लंबाई और चौड़ाई को कवर करने के लिए संसाधन मूल्यांकन सेटअप के लिए पवन निगरानी स्टेशन हैं। भारतीय पवन ऊर्जा संस्थान चेन्नई ने हाल ही में पवन पूर्वानुमान सेवा शुरू की है, पवन ऊर्जा के दोहन निकासी को बढाने के लिए, भारत ने प्रतिबद्ध किया है कि 2030 तक उसकी कुल बिजली क्षमता का 40 प्रतिशत नवीकरणीय स्रोतों पर आधारित होगी।
( लेखक तकनीक सलाहकार-मुख्य मंत्री, अरुणाचल प्रदेश )

कृषि-कानूनः असली मुद्दा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
आशा के विपरीत सरकार और किसानों का 7 वां संवाद बेनतीजा रहा। छठे संवाद में जो परस्पर सौहार्द दिखाई पड़ा था, वह इस बार नदारद था। किसानों और मंत्रियों ने इस बार साथ-साथ भोजन भी नहीं किया। अब 8 जनवरी को फिर दोनों पक्षों की बैठक होगी लेकिन उसमें से भी कुछ ठोस समाधान निकलने की संभावना कम ही दिखाई पड़ रही है, क्योंकि दोनों पक्ष अपनी-अपनी टेक पर अड़े हुए हैं। किसान कहते हैं कि तीनों कानून वापस लो जबकि सरकार कहती है कि उसमें जो भी सुधार करना हो, बताते जाइए, हम संशोधन करने की कोशिश करेंगे। वैसे तो किसानों के लिए दरवाजा खुल गया है। वे चाहें तो इतने संशोधन और अभिवर्द्धन बता दें कि उनके हो जाने के बाद ये तीनों कानून पहचाने ही न जाएं। उनका होना या न होना या रहना या न रहना पता ही न चले। लेकिन इस प्रक्रिया में पेंच है। वह यह कि यह द्विपक्षीय संवाद, संवाद न रहकर द्रौपदी का चीर बन सकता है। पहले ही इस 40 दिन पुराने धरने में 55 किसान स्वर्गवासी हो गए हैं।
कुछ आत्महत्याएं भी हुई हैं। इतने अहिंसक और निरापद धरने गांधी-सत्याग्रहों की याद ताजा करते हैं। दिल्ली की इस भयंकर ठंड और बेमौसम बरसात में ये तो पंजाब, हरयाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश के किसानों का दमगुर्दा है कि वे टिके हुए हैं। उनकी जगह यदि किसी राजनीतिक दल के लेाग हुए होते तो वे अब तक भाग खड़े होते। यह तो अच्छा हुआ कि अभी तक कोई किसान आमरण अनशन पर नहीं बैठा। वह अकेला अनशन इस लंबे धरने से भी भारी पड़ता। सरकार का दावा है कि ये तीनों कानून उसने किसानों के भले के लिए बनाए हैं। यदि वे सहमत नहीं है तो सरकार उनके गले में इन्हें जबर्दस्ती क्यों ठूंस रही है ? जो राज्य इसे मानना चाहें, उन्हें और जो नहीं मानना चाहें, उन्हें भी वह छूट क्यों नहीं दे देती ? यों भी इन तीनों कानूनों के बिना भी देश के 94 प्रतिशत किसान मुक्त-खेती और मुक्त-बिक्री के लिए स्वतंत्र हैं। जहां तक 6 प्रतिशत संपन्न किसान, जो सरकार को अपना गेहूं और धान बेचते हैं, वे भी फल और सब्जियां भी उगाना शुरु कर सकते हैं, यदि सरकार उन उत्पादों के लिए भी केरल की तरह न्यूनतम समर्थन मूल्य घोषित करती रहे। असली मुद्दा यही है। यह मुद्दा आसानी से हल हो सकता है।

कोरोना का अंधकार; टीके की चमक…
ओमप्रकाश मेहता
पिछले करीब एक साल से छाये कोरोना के घटाटोप में अब वैक्सीन की किरण की जुगुनू नुमां चमक दिखाई जा रही है, हमारे स्वदेशी वैक्सीन (टीके) को अन्तर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ समिति ने मंजूरी अवश्य दे दी है, किंतु अब हमारी वैक्सीन को मंजूरी के बाद केन्द्र सरकार को यह सूझ नही पड रही है कि देश के एक सौ पैंतीस करोड लोगों को यह वैक्सीन कैसे लगाई जाए? केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने पहले यह घोषणा की कि पूरे देश में यह टीका निःशुल्क लगाया जाएगा, किंतु कुछ देर बाद ही उन्होंने अपना बयान बदल दिया और कहा कि फिलहाल देश के सिर्फ तीन करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों व अन्य वर्गों के लोगों को यह टीका मुफ्त लगाया जाएगा और सत्ताईस करोड के बारे में जुलाई माह तक तय किया जाएगा कि वह टीका सशुल्क होगा या निःशुल्क केन्द्रीय मंत्री जी ने अभी सिर्फ तीस करोड लोगों के बारे में सोचा है, वह भी जुलाई तक फैसला लेगें, शेष एक सौ पांच करोड़ लोगों को कब व कैसे टीका मुहैय्या होगा, इस बारे में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री जी की कोई योजना नहीं है, जब 27 करोड़ का फैसला लेने में सात महीनें लगेगें तो फिर शेष 105 करोड के बारे में फैसला लेने में कितना समय लगेगा? यह विचारणीय प्रश्न है…. और क्या तब तक पुराना कोरोना वाॅयरस और नया स्ट्रेन वाॅयरस टीके का इंतजार करेगा? केन्द्र के इसी फैसले के इंतजार में देश के कितने लोग कोरोना से ग्रसित होकर इस असार संसार से विदा ले लेगें, इस पर केन्द्र ने विचार किया? जबकि केन्द्र द्वारा बार-बार यह कहा जा रहा है कि पूरे देशवासियों को टीका लगाने की कार्य योजना तैयार है, किंतु कोई भी यह बताने को तैयार नहीं कि फाईलों की यह कार्य योजना मैदान में कब तक आ जाएगी और उसके अभाव में देश डरा-सहमा कब तक रहेगा? जबकि केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री हर्षवर्धन जी अपना बयान बारा-बार बदलकर देश में और अधिक डर पैदा कर रहे है। कहा तो यह भी जा रहा है कि राज्यों ने भी अपनी-अपनी योजनाएं तैयार कर ली है, किंतु मध्यप्रदेश सहित किसी भी राज्य ने उसे सार्वजनिक रूप से उजागर नहीं किया है, राज्य अपनी योजनाएं उजागर करें कैसे? उनकी योजनाएं तो वैक्सीन की उपलब्धता पर निर्भर है, जब तक वैक्सीन का पर्याप्त कोटा राज्यों को प्राप्त नहीं होगा, तब तक उनकी योजनाओं को मूर्तरूप कैसे मिल सकता है? अभी तो सिर्फ पांच या दस करोड सिरम (शीशीयों) के कोटे की ही बात कही जा रही है, जब तक टीके का पर्याप्त मात्रा में उत्पादन नही होगा और सीरम उत्पादक कम्पनियों का विदेशी मोेह कम नहीं होगा, तब तक हमारे समूचे देशवासियों को वैक्सीन कैसे उपलब्ध हो सकती है?
…..फिर यहां यह भी उल्लेखनीय है कि भारतीय परम्परा के अनुसार इस वैक्सीन को लेकर भी राजनीति शुरू हो गई है, समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने इसे भाजपा की वैक्सीन बताकर इसे लगवाने से इंकार कर दिया, जब अध्यक्ष जी वैक्सीन नहीं लगवाएगें तो फिर कार्यकर्तागण कैसे लगवा सकते है, सिर्फ इतना ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भी कई देशों में इस वैक्सीन को लेकर अनेक भ्रांतियां फैलाई जा रही है, इसी कारण न सिर्फ भारत बल्कि विदेशों के नागरिक भी इस वैक्सीन का डोज लेने से घबरा रहे हैं।
जो भी हो….. फिलहाल यदि भारत के सभी 135 करोड भारतवासी वैक्सीन के दो डोज के लिए तैयार भी हो जाए, तो इतनी मात्रा में वैक्सीन का होना भी तो जरूरी है, जो कि फिलहाल उपलब्ध नहीं है। इसीलिए वैक्सीन की प्राथमिकताएं तय की गई है, पहले चरण में स्वास्थ्यकर्मी, दूसरे चरण में बुजुर्ग और उसके बाद अन्य। इसीलिए फिलहाल अभी यह तय नहीं है कि पूरे भारतवासियों के लिए पर्याप्त मात्रा में वैक्सीन कब व कैसे उपलब्ध हो पाएगी और देश का हर नागरिक कोरोना के डर से कब मुक्त हो पाएगा? यह भी जरूरी नहीं कि 2021 के अंत तक सभी को वैक्सीन लग जाएगी और तब तक कितने लोग स्वर्ग सिधार चुके होंगे? इसलिए यदि फिलहाल यह कहा जाए कि सरकार अंधेरे में एक किरण देखकर हाथ-पांव मार रही है तो कतई गलत नहीं होगा?

छत ढही और इज्जत भी
डॉ वेदप्रताप वैदिक
गाजियाबाद के मुरादनगर श्मशान घाट में छत गिरने से 25 लोगों से ज्यादा की मौत हो गई और लगभग सौ लोग बुरी तरह से घायल हो गए। यह छत कोई 100-150 साल पुरानी नहीं थी। यह अंग्रेजों की बनाई हुई नहीं थी। इसे बने हुए अभी सिर्फ दो महिने हुए थे। यह नई छत थी, कोई पुराना पुल नहीं, जिस पर बहुत भारी टैंक चले हों और जिनके कारण वह बैठ गई हो। इतने लोगों का मरना, एक साथ मरना और श्मशान घाट में मरना मेरी याद में यह ऐसी पहली दुर्घटना है। सारी दुनिया में शवों को श्मशान या कब्रिस्तान ले जाया जाता है लेकिन मुरादनगर के श्मशान से ये शव घर लाए गए। सारी दुर्घटना कितनी रोंगटे खड़े करने वाली थी, इसका अंदाज हमारे टीवी चैनलों और अखबारों से लगाया जा सकता है। जिस व्यक्ति की अंत्येष्टि के लिए लोग श्मशान में जुटे थे, उसका पुत्र भी दब गया।
उसके कई रिश्तेदार और मित्र, जो उसके अंतिम संस्कार के लिए वहां गए थे, उन्हें क्या पता था कि उनके भी अंतिम संस्कार की तैयारी हो गई है। जो लोग दिवंगत नहीं हुए, उनके सिर फूट गए, हाथ-पांव टूट गए और यों कहें तो ठीक रहेगा कि वे अब जीते जी भी मरते ही रहेंगे। मृतकों को उत्तरप्रदेश की सरकार ने दो-दो लाख रु. की कृपा-राशि दी है। इससे बड़ा मजाक क्या हो सकता है ? किसी परिवार का कमाऊ मुखिया चला जाए तो क्या उसका गुजारा एक हजार रु. महिने में हो जाएगा ? दो लाख रु. का ब्याज उस परिवार को कितना मिलेगा ? सरकार को चाहिए कि हर परिवार को कम से कम एक-एक करोड़ रु. दे। राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री ने हताहतों के लिए शोक और सहानुभूति बताई, यह तो ठीक है लेकिन उन्हें उनकी जिम्मेदारी का भी कुछ एहसास है या नहीं ?
श्मशान-घाट की वह छत मुरादनगर की नगर निगम ने बनवाई थी। सरकारी पैसे से बनी 55 लाख रु. की यह छत दो माह में ही ढह गई। इस छत के साथ-साथ हमारे नेताओं और अफसरों की इज्जत भी क्या पैंदे में नहीं बैठ गई ? छत बनाने वाले ठेकेदार, इंजीनियर तथा जिम्मेदार नेता को कम से कम दस-दस साल की सजा हो, उनकी निजी संपत्तियां जब्त की जाएं, उनसे इस्तीफे लिए जाएं, उनकी भविष्य निधि और पेंशन रोक ली जाए। उन्हें दिल्ली की सड़कों पर कोड़े लगवाए जाएं ताकि सारा भारत और पड़ौसी देश भी देखें कि लालच में फंसे भ्रष्ट अफसरों, नेताओं और ठेकेदारों के साथ यह राष्ट्रवादी सरकार कैसे पेश आती है।

राहुल की इटली यात्रा के निहितार्थ
सुरेश हिन्दुस्थानी
कांग्रेस में विरासती पृष्ठभूमि के आधार पर राजनेता बने राहुल गांधी की बयानबाजी तो सदैव चर्चा की विषय बनती ही हैं, साथ ही उनकी विदेश यात्राओं पर भी चटकारे लिए जाते हैं। सुनने में आया है कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी अभी इटली में अपनी नानी से मिलने ननिहाल गए हैं। राहुल गांधी की इस यात्रा पर कई प्रकार के प्रश्न उपस्थित हो रहे हैं, और कांग्रेस के अन्य नेता राहुल का बचाव कर रहे हैं। कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि नानी से मिलने जाने में कोई हर्ज नहीं है। यहां मुख्य सवाल यह उठ रहा है कि इटली जाने के लिए राहुल गांधी ने अंग्रेजी नव वर्ष का समय ही क्यों चुना? क्या वे अंग्रेजियत के समर्थक हैं? ऐसे सवालों के जवाब आज देश की जनता जानना चाहती है। क्योंकि एक तरफ अप्रत्यक्ष रूप से कांग्रेस द्वारा समर्थित किसान आंदोलन चलाया जा रहा है, वहीं दूसरी तरफ अंग्रेज़ों द्वारा स्थापित कांग्रेस पार्टी का स्थापना दिवस मनाया गया। इन दोनों महत्वपूर्ण कार्यक्रमों से किनारा करके राहुल गांधी का इटली के लिए प्रस्थान करना एक प्रकार से यही सिद्ध करता है कि उन्हें देश की समस्याओं से कोई सरोकार नहीं है, वे पहले भी देश में उत्पन्न हुईं कठिन परिस्थितियों के बीच विदेश यात्राओं पर गए हैं। यहां सबसे विचारणीय तथ्य यह है कि राहुल गांधी बिना प्रचारित किए विदेश यात्रा पर जाते हैं और उनके जाने के बाद ही पता चलता है कि वे विदेश यात्रा पर गए हैं। विदेश यात्रा निजी हो सकती है, लेकिन इस विदेश यात्रा में वे करते क्या हैं, यह देश जानना चाहता है।
दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि एक राजनेता का व्यक्तिगत जीवन कुछ नहीं होता, राजनेता जितना सार्वजनिक जीवन जिएगा उतना ही वह देश के बारे में जान सकता है। राहुल गांधी कौन सा जीवन जीते हैं, यह सभी को पता है। इतना ही नहीं कभी-कभी कांग्रेस के अंदर ही राहुल गांधी को लेकर सवाल उठते हैं, कभी गांधी परिवार से बाहर का अध्यक्ष बनाए जाने की बात की जाती है तो कभी राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की कवायद की जाती है। आज कांग्रेस की सबसे बड़ी समस्या यह है कि गांधी परिवार के अलावा कोई नेता राष्ट्रीय अध्यक्ष के लिए स्वीकार योग्य नहीं है। इसके पीछे कारण यही माना जा सकता है कि कांग्रेस में किसी भी राजनेता का राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक प्रभाव नहीं है। कांग्रेस में जो राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित हैं, वह भी केवल प्रादेशिक क्षत्रप ही हैं। इसलिए राहुल गांधी का न चाहते हुए भी समर्थन करना उनकी विवशता है। जबकि कांग्रेस के कई नेता यह समझते हैं कि राहुल गांधी कभी-कभी बचकानी हरकत भी कर जाते हैं। इतना ही नहीं वे अपने झूठे बयान पर सर्वोच्च न्यायालय में माफी भी मांग चुके हैं। इससे यह समझा जा सकता है कि राहुल के राजनीतिक बयानों में कितनी सच्चाई होती है।
वर्तमान में राजनीतिक अस्तित्व के लिए जमीन तलाश रही कांग्रेस के नेता राहुल गांधी के बारे में कितनी भी सफाई प्रस्तुत करें, लेकिन इतना तो उजागर हो ही चुका है कि जब से राहुल गांधी मुख्य भूमिका में आए हैं, तब से कांग्रेस निरंतर अवनति की ओर कदम बढ़ा रही है। राहुल गांधी की इटली यात्रा के बारे में एक कांग्रेस नेता का स्पष्ट कहना है कि पार्टी को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। उनके इस बयान का आशय यही निकाला जा रहा है कि अभी कांग्रेस का भविष्य सुरक्षित नहीं है। कांग्रेस की राजनीति की सबसे बड़ी विसंगति यह भी है कि वह मुस्लिम परस्त राजनीति को ही धर्म निरपेक्ष मानती है, इसी श्रेणी में हिन्दू विरोध को भी रखा जाता है। जबकि संवैधानिक दृष्टि से सभी धर्मों को समान रूप से देखना और समान रूप से व्यवहार करना ही धर्म निरपेक्षता है। जबकि भारत के बारे में सत्य यही है कि भारत सदैव धर्म के सापेक्ष ही रहा है, निरपेक्ष नहीं।
हम जानते हैं कि कांग्रेस को लोकसभा के चुनावों में अपनी अब तक की सबसे बड़ी पराजय का सामना किया है, लेकिन इसके बाद कांग्रेस को आत्ममंथन की मुद्रा में आना चाहिए था, लेकिन वहां आत्ममंथन की बात तो दूर केवल राहुल गांधी को अध्यक्ष पद पर कैसे स्थापित किया जाए, इसी पर पूरी राजनीति केंद्रित होती जा रही है। जबकि यह सत्य है कि जब से राहुल गांधी कांग्रेस में मुख्य भूमिका में आए हैं, तब से कांग्रेस पतन की ओर ही जा रही है। कांग्रेस के पतन का एक कारण यह भी माना जा रहा है कि वह आज सिद्धांतों की राजनीति से बहुत दूर होती जा रही है। वह केवल मोदी के विरोध तक ही सीमित हो गई है।

किसान-सरकार: शुभ संवाद
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जैसी कि मुझे आशा थी, सरकार और किसानों की बातचीत थोड़ी आगे जरुर बढ़ी है। दोनों पहले से नरम तो पड़े हैं। इस आंशिक सफलता के लिए जितने किसान नेता बधाई के पात्र हैं, उतनी ही सराहना के पात्र हमारे कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और व्यापार-उद्योग मंत्री पीयूष गोयल भी हैं। पांच घंटे की बातचीत के बाद दो मुद्दों पर दोनों पक्षों की सहमति हुई। सरकार ने माना कि उसके वायु-प्रदूषण अध्यादेश और बिजली के प्रस्तावित कानून में वह संशोधन कर लेगी ! अब किसानों पर वह कानून नहीं लागू होगा, जिसके तहत पराली जलाने पर उन्हें पांच साल की सजा या एक करोड़ रु. का जुर्माना भी देना पड़ सकता था। इसी प्रकार बिजली के बिल में मिलनेवाली रियायतें भी किसानों को मिलती रहेंगी। इन दोनों रियायतों से 41 किसान नेता इतने खुश थे कि उन्होंने मंत्रियों को अपना लाया हुआ भोजन करवाया और बाद में उन्होंने मंत्रियों की चाय भी स्वीकार की। याद कीजिए कि पिछली बैठकों में किसानों ने सरकारी आतिथ्य को अस्वीकार कर दिया था। अब कृषि मंत्री का कहना है कि किसानों की 50 प्रतिशत मांगें तो स्वीकार हो गई हैं। यह आशावादी बयान कुछ किसान नेताओं को स्वीकार नहीं है। उनका मानना है कि ये तो छोटे-मोटे मसले थे। असली मामला तो यह है कि तीनों कृषि-कानून वापस हों और न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी रुप दिया जाए। किसानों के इस आग्रह को मंत्रियों ने रद्द नहीं किया है। यह उनकी परिपक्वता का सूचक है। वे संवाद की खिड़कियां खुली रखना चाहते हैं। वे इन सुझावों पर गौर करने के लिए एक संयुक्त कमेटी बनाने को भी तैयार हैं। अब सरकार और किसान नेताओं के बीच 4 जनवरी को पुनः संवाद होगा। इस संवाद की भूमिका भी अच्छे ढंग से तैयार हो रही है। रक्षामंत्री राजनाथ सिंह ने किसानों के घावों पर गहरा मरहम लगा दिया है। उन्होंने भारतीय किसानों को विदेशी एजेंट, आतंकवादी या खालिस्तानी कहकर बदनाम करने की कड़ी आलोचना की है। उन्होंने सिख बहादुरों द्वारा देश की रक्षा के लिए किए जा रहे बलिदानों को भी याद किया। कोरोना के संकट-काल में कृषि-उत्पादन की श्रेष्ठता का भी बखान उन्होंने किया। लेकिन यह दुखद ही हे कि कुछ विघ्नसंतोषी किसानों ने लगभग 1600 मोबाइल टाॅवर तोड़ दिए हैं। वे अंबानी को सबक सिखाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा करके वे अपने ही पांव पर कुल्हाड़ी मार रहे हैं। भारतीय किसानों के अपूर्व और अहिंसक सत्याग्रह को वे कलंकित कर रहे हैं।

चौराहे पर खड़ी कांग्रेस किस दिशा में जायेगी
सच्चिदानंद शेकटकर
देश को आजादी दिलाने वाली कांग्रेस पार्टी आज अपना 136 वां स्थापना दिवस मना चुकी है। देश के सबसे पुराने राजनैतिक दल की दिशा और दशा दोनों ही खराब है। आज भटकाव के दौर से गुजर रही कांग्रेस चौराहे पर खड़ी है। सबसे बुरे दौर का सामना कर रही कांग्रेस का भविष्य क्या होगा और वह किस दिशा में जायेगी आज ये सबसे बड़ा सवाल उठ रहा है।
जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस का जो सफर शुरू हुआ वह उनकी बेटी इंदिरा गांधी के नियंत्रण में आ गया। इंदिराजी के नेतृत्व में कांग्रेस ने बड़े उतार चढ़ाव भी देखें। आपातकाल के बाद हुए 1977 के आम चुनाव में कांग्रेस को पहली बार हार का मुंह देखना पड़ा था। लेकिन तब भी कांग्रेस को 153 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। इंदिराजी की हत्या के बाद उनके पुत्र राजीव गांधी के हाथों में कांग्रेस का नेतृत्व आ गया। राजीव गांधी के कार्यकाल में भी कांग्रेस को जीत और हार का दौर देखना पड़ा।
राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंहराव के हाथों में नेतृत्व आया। लेकिन कुछ समय बाद कांग्रेस की कमान सोनिया गांधी के हाथों में आ गयी और अब उनके पुत्र राहुल गांधी भी कांग्रेस का नेतृत्व कर रहे हैं। आज इन मां बेटे के नेतृत्व में कांग्रेस सबसे खराब दौर में पहुंच गयी है।
भारतीय जनता पार्टी का नेतृत्व जबसे नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने सम्हाला है तबसे इस जोड़ी ने कांग्रेस मुक्त भारत का नया ऐजेंडा चला रखा है। मोदी और शाह कांग्रेस को कमजोर करने में और कांग्रेसियों का मनोबल और तोडऩे में लगातार कामयाब हो रहे हैं। इस जोड़ी ने 2014 में कांग्रेस को 44 सीटों पर समेट कर रख दिया। 70 साल के इतिहास में कांग्रेस को सबसे खराब दिन देखना पड़े। 2019 में भी कांग्रेस को 52 सीटें हीं मिल पायीं और कांग्रेस विपक्षी दल के नेता को भी तरस गयी। मोदी शाह यहीं नहीं रुके।इनने राज्यों से कांग्रेस की सरकारों को छीनना भी शुरू कर दिया। इतना ही नहीं राज्यों में कांग्रेस के विधायकों की स्थिति बिकाऊ सामान की तरह हो गयी।राज्य दर राज्य भाजपा कांग्रेस के विधायकों को खरीदती चली गयी और कांग्रेस की सरकारें मिटती चली गयीं। कर्नाटक के बाद मध्यप्रदेश,राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने जैसे तैसे सरकार बनायी। लेकिन मोदी और शाह ने कर्नाटक और बाद में मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिरा दी। हाल ही में बिहार विधानसभा के चुनाव में कांग्रेस की सबसे ज्यादा दुर्दशा हुई। वहीं दिल्ली में तो दो चुनाव में कांग्रेस का खाता भी नहीं खुल पाया।
अब मुख्य मुद्दा ये है कि आखिर संक्रमण काल से गुजर रही कांग्रेस का भविष्य क्या होगा।क्या कांग्रेस यूं ही रसातल की ओर जाती रहेगी या अपना अस्तित्व बचाने कुछ उपाय भी करेगी। आज कांग्रेस के सामने सबसे बड़ा मसला गांधी परिवार बन गया है। अभी तक चुनौतीहीन रहे गांधी परिवार को पहली बार चुनौती मिलना शुरू हुआ है। 23 वरिष्ठ नेता नेतृत्व परिवर्तन की अलख जगा रहे हैं। कांग्रेस की विडंबना ये है कि गांधी परिवार एक तो कांग्रेस को अपनी पकड़ से बाहर नहीं जाने दे रहा है और न ही कांग्रेस को मजबूत करने पूरी ताकत के साथ मैदान में उतरना चाहता है।सोनिया गांधी को कांग्रेस से मोह की जगह पुत्र मोह ज्यादा है।अब एक बार फिर पार्टटाईम राजनीति करने वाले और सिर्फ ट्विटर से विरोध करने तक सीमित राहुल गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की तैयारी हो रही है।यदि राहुल गांधी फिर से अध्यक्ष बनते हैं तो कांग्रेसियों को अपना और कांग्रेस का अस्तित्व बचाने की चिंता करना होगी।

 

 

वर्ष 2020 : क्या खोया क्या पाया
रघु ठाकुर
वर्ष 2020 जाने को है, और नया वर्ष प्रतीक्षित है, वर्ष का आना और जाना यह एक नियमित क्रिया है, परन्तु 2020 का साल लगभग 80 वर्षें के बाद एक बड़ी त्रासदी का साल रहा है। इसकी शुरूआत ही न केवल देश में बल्कि दुनिया में एक ऐसी महामारी से हुई जो अज्ञात भी थी और ला ईलाज भी। 100 साल पहले 1920 के आसपास देश में प्लेग फैला था और जिससे वस्तुत: लाखों लोग मरे थे। कहा जाता है कि उस ज़मानें में 20-30 लाख लोग प्लेग की महामारी से मौत के शिकार हुए थे। परंतु प्लेग के बारे में कुछ दवाएं और जानकारियां उस समय थीं, 1940 के दशक में भी जो भीषण अकाल पड़ा था, उसमें भी लाखों लोग मौत के शिकार हुए थे और वह भी कम से कम जानकारी में था, परन्तु कोरोना की महामारी के फैलने के बाद ही उसके बारे में खोजबीन और अध्ययन शुरू हुए और दवाएं तो अभी एक वर्ष बीत जाने के बाद भी प्रमाणिक तौर पर नहीं बन सकीं है।
वैक्सीन के परीक्षण चल रहे है और परीक्षण काल में ही देशों और कम्पनियों में बिक्री को लेकर प्रतिस्पर्धात्मक होड़ शुरू हो गई है। सरकारें भी केवल वैक्सीन के वितरण उपलब्धता कीमत और गुणवत्ता के बारे में मीडिया प्रचार तक सीमित है। यद्यपि कोरोना से मरने वालों की संख्या तुलनात्मक रूप से कम है। परन्तु, कोरोना का मानसिक भय 19वीं सदी की महामारी जिसमें मरने वालों की संख्या 40 से 50 गुना ज्यादा थी उससे 1000 गुना ज्यादा है। वैश्वीकरण और मशीनी दौर ने मानवीय रिश्तों को पहले भी प्रभावित किया था। परन्तु कोरोना की महामारी ने तो जैसे मानवता को ही मार दिया है। जहां पत्नी अपने पति के, बेटा अपने पिता के और परिजन अपने परिवार वालों के अंतिम संस्कार में भी जाने के इच्छुक नहीं है।
कोरोना की महामारी का वायरस कहां और कैसे जन्मा इसको लेकर दुनिया में बहस भी है, खेमाबंदी भी है और दोपारोपण है। परंतु यह निर्विवाद सत्य है कि दुनिया के बड़े-बड़े प्रदूषण ने पर्यावरण को और मानव को इतना नष्ट और कमजोर कर दिया है कि, उसकी सहनशीलता और क्षमता लगभग शून्य जैसी हो गई। हाल ही की एक वैज्ञानिक रपट के अनुसार देश में लगभग 19 लाख लोग प्रदूषण के चलते एक वर्ष में मौत के शिकार हुए और अकेले मध्यप्रदेश में ही लगभग डेढ़ लाख लोग मरे है। प्रदूषण ने पर्यावरण की भी हत्या की है, और मानवता की भी। करोड़ों छोटे-छोटे बच्चे धूल और धुंए के प्रदूषण अस्थमा के शिकार हो रहे है। प्राणवायु के अभाव में इंसान के फेंफड़ें नष्ट और कमजोर हो चुके हैं। और दुनिया के चिकित्सक यह कह रहे है कि, कोरोना के फैलाव का एक बड़ा कारण इम्युनिटी पॉवर का कम होना भी है। पर अब दुनिया को इस नए वर्ष में यह सोचना होगा कि अशुद्ध वायु, अशुद्ध भोजन, अशुद्ध पानी अनाज और सब्जियों का जहर इस सीमा तक बढ़ चुका है कि वह अपने आप में एक महामारी और उसका जनक बन चुका है। जो नदियाँ देश की पवित्र नदियां कहीं जातीं थी, गंगा और यमुना, कृष्णा और गोदावरी अब वे कारखानों के बेस्ट मटैरियल से जहरीली बन चुकी है। परमाणु परीक्षण, परमाणु ताप घर छिपे तौर पर मानवता को नष्ट करने के नए विकास के उपक्रम है। याने वैश्विक विकास की अवधारणा ही वैश्विक विनाश का पर्याय बन गई है।
देश की अर्थव्यवस्था जो पहले से ही मंदी की ओर थी कोरोना वर्ष में और अधिक प्रभावित हुई है, और 7 प्रतिशत से घटकर लगभग 4 प्रतिशत तक आ गई है। 2020 के कोरोना वर्ष में जहाँ आम आदमी के रोज़ी-रोटी और रोज़गार पर भारी विपरीत असर हुआ है। वहीं बड़े-बड़े कारर्पेट, दान पूँजीपति और उद्योगपतियों का अतुल्य विकास हुआ है। देश के 4-5 करोड़ फुटकर व्यापारियों के धंधे बंद होने की कगार पर परंतु अमेजन लिपकार्ट और ऐसी अन्य होम डिलेवरी के नाम पर महाकाय कंपनियों का दैत्याकार बड़ा है।
ऑनलाईन शिक्षा और कोरोना के नाम पर शिक्षण संस्थाओं की बंदी से जहाँ एक तरफ लाखों शिक्षक बेरोजगार हो गए है, वहीं दूसरी तरफ 4 करोड़ ग्रामीण कस्बाई और नगरों की शिक्षा का ढांचा ही लगभग नष्ट हो चुका है। ऑनलाईन शिक्षा के नाम पर मोबाईल कंपनियों ने लाखों करोड़ों का धंधा कर लिया और बच्चों को अशिक्षा और अज्ञानता के अंधकार में ढकेल दिया है।
देश में सरकारी क्षेत्र के ऊपर कोरोना की आड़ में निजीकरण का हमला हुआ है, और वे विशालकाय देश की जनता की पूँजी से खड़े हुए सार्वजनिक क्षेत्र के कारखाने जिनमें देश के कुल बजट से दस गुनें से अधिक पूँजी लगी है। यथा रेलवे, उड्डयन यातायात आदि मिट्टी मोल के भाव निजी क्षेत्रों को बेचे जा रहे हैं। जहाँ एक तरफ संपन्न दुनिया रेल का निजीकरण समाप्त कर रेल को सार्वजनिक क्षेत्र में ला रही है, वहाँ भारत सार्वजनिक क्षेत्र को खत्म कर निजी हाथों में देकर भारतीय रेल को अडानी-अंबानी रेल बना रहा है।
देश के किसान बेचैन हैं, और हरियाणा और पंजाब जैसे सीचिंत कृषि के संपन्न किसान अपने भविष्य की आकांक्षाओं से इतने भयभीत हैं कि 40 दिनों से इतनी भीषण ठंड में राजधानी की सीमा पर ठंड में बैठे हैं और जान दे रहे हैं। 40 से अधिक किसान भीषण सर्दी के कारण धरना देते मौत के शिकार हो चुके हैं। परंतु देश के संवैधानिक प्रमुख राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री संवैधानिक संस्थाएं संसद और सर्वेच्च न्यायालय सब मूक दृष्टा है। और लोकतंत्र की आत्मा सत्ता और जनता के बीच संवाद ठहरा हुआ है। सत्ता ने संसद को पंगु और चाकर बना दिया है, जहाँ बगैर मतदान के ध्वनिमत से प्रस्ताव पारित कर दिए जाते है। कोरोना के नाम पर संसद और विधानसभा के सत्र टाल दिए गए हैं। तथा संवैधानिक प्रावधान लंबित कर दिए गए हैं। जो राजनीतिक दल मुश्किल से एक माह पहले हजारों लाखों लोगों की चुनाव प्रचार की रैलियां आयोजित कर रहे थे, वही अब कोरोना के नाम पर 550 लोगों की संसद, सौ दो. सौ विधायकों की विधानसभाओं की बैठक नहीं कर रहे हैं। जो संसद और विधानसभाएं युद्धकाल में मुखर रहीं वे अब कोरोना के बहानें आत्महत्या को विवश हैं। संवैधानिक नियमों के अनुसार 06 माह के अंतराल में संसद और विधानसभाओं के सत्र होना चाहिए पर इन्हें बगैर कहे निष्प्रभावी कर दिया गया है। 1950 के दशक में जहाँ साथ में औसतन 100-125 दिन संसद और विधानसभाएं चलतीं थी अब एक-एक दिन का भी सत्र नहीं चला पा रही है। देश की जनता कमजोर और मूक है, वरना यह सवाल पूँछा जाना चाहिए जो सांसद और विधायक कोरोना के भय से संसद और विधानसभा में जनता के मुद्दे नहीं उठा सकतें, उन्हें सांसद और विधायक रहने का वेतन और भत्ते उठाने का क्या हक है? जब संसद और विधानसभा ही नहीं चलना हो तो एक-एक हज़ार करोड़ रूपया खर्च कर संसद भवन और 20 हज़ार करोड़ के विस्टा प्रोजेक्ट पर जनता का धन बर्बाद करने की क्या आवश्यकता है? 2020 ने देश और दुनिया को संकेत दे दिया है कि कोरोना और उसके बदलते रूपों, प्रदूषण और ऐसे ही अन्य प्राकृतिक संकटों से बचना है तो फिर 1910 में बापू की लिखी हिंद स्वराज की तरफ जाओं जो समूची दुनिया की मानवता सभ्यता और प्रकृति को बचाने का बीजमंत्र है। राष्ट्रपिता ने 110 साल पहले मंत्र दिए थे महानगरों के बजाय गाँव दैत्याकार तकनीक के बजाय हाथ और कान्क्रीट के महलों के बजाय शुद्ध वायु और जल देने वाली ग्रामीण सभ्यता और कृषि। परंतु किसान न्यूनतम मूल्य पाने के लिए मर रहा है, और कारखानेदार अधिकतम मूल्य लूटने के लिए खुला छोड़ दिया गया है। 2021 का आने वाला साल शिक्षा और सुधरने का साल हो सकता है, परन्तु आम लोगों को भी अब चुप्पी तोड़ना होगी, बोलना होगा संविधान में रक्षा खोजने की बजाय संविधान की रक्षा को आगे आना होगा और गाँधी की ओर मुड़ना होगा।

शालीनता,सत्यनिष्ठा ,कर्मठता की प्रतिमूति सिंधिया
मुकेश तिवारी
खुशमिजाज ,खूबसूरत ज्योतिरादित्य सिधिया भले ही महाराज कहलाना न चाहे ,लेकिन आमजन उन्हें महाराज कहना ही पसंद करते हैं कम से कम मध्यप्रदेश में तो ऐसा ही है।तभी तो जब मुबई में उनका जन्म हुआ तब,ग्वालियर चंबल संभाग के लोगो ने हर्श-विभोर होकर बेतरह खुशियॉ मनाई थी।आज भी उनके लिए वहॉ की जनता वैसा ही प्यार उडेलती है,राज्यसभा सदस्य श्रीमंत ज्योतिरादित्य सिधिया की देश में भी प्रभावकारी छवि है ।
भारतीय राजनीति में कुछ शख्सियत हैं जिन्होंने जनसेवा , विकास के प्रति अपनी सकारात्मक सोच एंव राष्ट्र के नवनिर्माण में अपने महत्वपूर्ण योगदान के चलते सिर्फ राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय पटल पर भी अपनी विशिष्ट पहचान बनाई हैं यहॉ हम जिक्र कर रहें है। देश के लोकप्रिय एंव जनाधार वाले वरिष्ठ युवा तुर्क नेता ज्योतिरादित्य सिधिया का । ज्योतिरादित्य सिंधिया ने जमीन से जुडे रहकर लोगों के दिलों में अपनी खास जगह बनायी हैं ।म प्र के प्रतिष्ठित सिंधिया राजघराने से संबंध रखने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया सही मायने में ऐसे इंसान हैं जिन्होनें बच्चों ,युवाओं, बुजुगों में अपनी बेदाग छवि और कर्तव्य परायणता के बल पर अमिट छाप छोडी देश का युवा उन्हे ं अपना आदर्ष मानता हैं। उनकेदिवगत पिता माधवराव सिधिया और दादीराजमाता विजयाराजे सिधिया भी सक्रिय राजनीति में रह चुकी हैं।वर्तमान में उनकी बुआ वसुधराराजेऔर यशोधराराजे भी सक्रिय तौर पर राजनीति से जुडी हुई हैं।
तमाम तरह की चुनौतियों और बढते दबावो के बावजूद बहुत ही कम समय में उन्होने जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की सफल और ईमानदार कोशिश की है।पिछले दो दशको का बीता अरसा हर साल हर क्षेत्र में अनेक उपलब्धियों की नयी सौगात लेकर आता रहा है।जनता से किये गये वादों को तेज रफतार से पूरा करने की तत्परता प्रदेश के उर्जावान राज्यसभा सदस्य सिधिया के हर कदम में झलकती रही है।देश के युवा राजनेताओं में अग्रणी सिधिया इन कामयाबियों के बावजूद सिर्फ इतना ही कहते हैं हमें अभी बहुत से क्षेत्रों में बहुत ज्यादा काम करना है,इस पर सर्वाधिक ध्यान देने के साथ ही जनता से किये गये सारे वादों को पूरा करना है तथाहर हाल में ग्वालियर चंबल संभाग को देश का आदर्ष और प्रदेश का उत्तम संभाग बनाना है।ंहर हाल में जनता के भरोसे को कायम रखना ही उनका लक्ष्य है। इन्ही इरादों कोशिशों और कामयाबियों के साथ वे अचल में चहुंमुखी विकास से बदलाव ला रहे हैं
सिंधिया यूपीए की दोनों सरकारों में केद्रीय मंत्री रह चुके हैं ज्योतिरादित्य सिधिया की नीतियां एवं कार्य सिद्धात समाज के आखिरी छोर पर खडें वंचित एंव अभावग्रस्त लोगों के आंसू पोछने तथा उनका दामन में खुशियों का सैलाव समर्पित करने वाली रही हैं।
सिंधिया की बातें और विचार सदा तर्कपूर्ण होते हैं और उनके विचारों में जवान सोच झलकती हैं।यही झलक उन्हें युवाओं में लोकप्रिय बनाती हैं सिधिया सादा जीवन ,उच्चविचार तथा कडी मेहनत में विश्वास करते हैं और उन्होने इन्हीं बातों को अपने जीवन में उतारा और बुलंदियों तक पहुंचे।ंिसधिया अनुशासन प्रिय व्यक्ति हैं वे सभी के जीवन में उजाला चाहते हैंसिंधिया हमेशा कहते हैं कि किसी के जीवन में उजाला डालों ं।हकीकत में सिंधिया खासकर म प्र के लोगों में अपनी उपलब्धियों और अपने विचारों का ऐसा उजाला डाल रहें हैं जो कि प्रदेश के नौजवानों को सदा राह दिखाता रहेगा
सिंधिया की ईमानदारी शालीनता सादगी और सौम्यता हर किसी का दिल जीत लेती हैं।उनके जीवन दर्षन ने म प्र के युवाओं कोएक नई प्रेरणादी लाखों लोगों कें वह रोड मॉडल है। ज्योतिरादित्य सिंधिया सही मायनों में कर्मयोगी हैं।
विकास के ब्लूप्रिंट का उम्दा क्रियान्वयन
विकास एंव जानसेवा के प्रति अपने समर्पण भाव तथा जीवटता के चलते ज्योतिरादित्य सिंधिया ने ग्वालियर गुना शिवपुरी को राष्ट्रीय पटल पर चमका दिया हैं। केन्द्र सरकार में यूपीए शासन के दस बर्शीय कार्यकाल का उपयोग उन्होने अपने प्रभा मंडल वाले क्षेत्र की आधारभूत संरचना तैयार करने एवं सुनियोजित ढंग से इसे क्रियान्वित करने में किया। आज हम ग्वालियर से लेकर गुना शिवपुरी तक चहुमुखी विकास की जो लम्वी श्रृंखला देख रहे हैं।वह ज्योतिरादित्य के अथक प्रयासों का ही प्रतिफल हैं। उन्होने अपने संसदीय क्ष़ेत्र को एक विकास के मॉडल के रूप में विकसित किया है। साल 2002 से सक्रिय राजनीति में प्रवेश के पश्चात ज्योतिरादित्य सिंधिया ने सर्वप्रथम अपने दिवंगत पिता माधवराव ंिसंधिया के अधूरे रहे कार्यो को पूर्ण किया । अंचल के चहुमुखी विकास संबधी जिन योजनाओं का ब्लूप्रिंट माधवराव सिंधिया ने तैयार किया था उन्हें ज्योतिरादित्य ने बडें ही सुनियोजित ढंग से मूर्त रूप दिया सबसे अहम बात हैंकि उन्होने अपने परंपरागत गढं गुना शिवपुरी में चारों ओर बेहत्तर सडकों का जाल जब से बिछाया हैं, विकास को पंख लग गए हैं। विकास और तरक्की से इस अचंल के लोगों को आर्थिक संबल मिला हैं,वही आवागमन और परिवहन के लिए बेहत्तर सडके व्यापार और व्यवसाय बढाने में सहायक हो रही हैं। बेहतर सडकों का नेटवर्क अब यह की पहचान बन गया हैं सिंधिया ने बीते डेढ दशक में खासकर ग्वालियर चंबल संभाग के लोगो को आवागमन और परिवहन की वेहतर सुविधा के साथ साथ अनेक प्रकार की नई अनगिनत सौगात देकर लोगोंकी जिंदगी को बेहतर बना दिया हैं
लोगों के दिलों पर राज करते हैं सिंधिया
1 जनवरी 1971 को मुबई में जन्में ज्योतिरादित्य सिंधिया को तत्कालीन ग्वालियर रियासत के सिंधिया राजधराने के मुखिया के रूप में महाराज की पदवी अपने कैलाशवासी पिता माधवराव सिधिया के निधन के पश्चात विरासत में मिली हैं।एक दिग्गज भाजपा नेता के साथही उन्हें ग्वालियर के महाराज के रूप में जानापहचाना जाता है,उनके ब्यक्तित्व के जादुई रूप का हर कोई कायल हैं इस लोकतात्रिक युग में भी उनके अतुलनीय योगदान ने उनके नाम को हर भारतीय की जुबां पर ला दिया और उन्हें देश का हीरो बना दिया 2018 में मप्र के विधान सभा चुनावों में 15 साल पुरानी भाजपा सरकार को उखाड फेकने के लिए काग्रेस ने सिधिया को चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष बनाया था उन्होने चुनावी कैपेन को संभालते हुए जिस उर्जा और करिश्में के साथ उन्होने 115 से जयादा रैलिया कर म प्र की चुनावी फिजा को बदलकर रख दिया वे भीड खीचने वाले उस नेता की तरह उभरे जिसने काग्रेस को जबरदस्त सफलता दिलवाई सिधिया ने मेहनतकर म प्र में 15 साल बाद पुन काग्रेस सरकार बनवाने में अहम भूमिका अदा कि यह तक ज्योतिरादित्य सिधिया ने मुख्यमंत्री के लिए कमलनाथ का नाम आगे कर त्याग और समर्पण की मिसाल पेश कर खुद को कुर्सी की दौड से अलग कर लिया लेकिन कमलनाथ और दिग्विजय सिह ने जिस तरह का सलूक सिधिया के साथ किया गयों उससे खिन्न होकर महाराज ने अपने कैलासवासी पिता की 75 वी जयती के दिन अपने 22 विधायको के साथ भाजपा का दामन थमकर कमलनाथ सरकार को गिराकर प्रदेश में फिर से भाजपा कि सरकार वनवाकर इतिहास रच दिया वे वर्तमान भारतीय राजनीति के सर्वाधिक पढे लिखे हाईटेक राजनेताओ में अग्रणी स्थान रखते है। उन्होने कैम्पियन स्कूल एवं दून स्कूल से प्रारभिक शिक्षा हासिल की तदुपरात 1993 में हार्वड यूनिवसिटी से एमबीए की डिग्री ली । उन्होने हार्वड से ही इकोनोमिकस में एम ए किया है।12 दिसम्बर 1994 को बडौदा के महाराज संग्राम सिह गायकवाड की सुप़ुत्री प्रियदशिनी राजेसिह से उनका विवाह हुआ । उनके पुत्र युवराज महाआर्यमन सिंधिया एंव प़ुत्री अनन्या राजे सिधिया भी अपने परिवार के महान संस्कारों एवं जनसेवी भावना से ओतप्रोत होने के साथ ही अनुशासन प्रिय है।

मन्नत पशु बलि से नहीं पुन्य से मिलती
वैद्य अरविंद प्रेमचंद जैन
छत्तीसगढ़ के स्वनामधन्य मंत्री और क्षत्रिय वंशजअपने आप को कहे जाने वाले मंत्री ने अपनी मन्नत यानी कुर्सी यानी पद यानी मुख्यमंत्री के पद के लिए 101 बकरों कुर्बानी देने का वचन दिया है इससे क्या होने वाला है? जीव हिंसा से कोई भी पद नहीं मिलता पद मिलता है अपने पूर्व कर्मों के फल और वर्तमान में किए गए कर्म के फल से मिलता है। जिनके हृदय में दया नहीं वे किस आधार पर जनता और स्वयं दया का भाव रखते होंगे। अभी मनोवांछित पद न मिलने पर बकरों की बलि, पद मिलने पर जनता की बलि लेने में भी नहीं चूकेंगे। मांसाहारी की कोई भी क्रिया दयाहीन होती है
बलि का बकरा फूलों की माला पहने, माथे पर टीका लगाये जुलूस में सबसे आगे चल रहा था। बिहार के चम्पारन जिले में इस बकरे के बलिदान की विधि शुरु हो उसके पहले ही महात्मा गांधी लोगों के सामने आ गये।
देवी के भोग पर चर्चा हुई तो महात्मा गांधी अपना भोग अपनी बलि चढ़ाने को तैयार हो गये। बापू बोले — गूंगे और निर्दोष प्राणी के खून से क्या देवी प्रसन्न होती है? किसी निर्दोष प्राणी की बलि चढ़ाना पुण्य नहीं पाप है,अधर्म है। इस बकरे को छोड़ दीजिए। इसकी मुक्ति से देवी आज जितनी प्रसन्न होगी, उतनी पहले कभी नहीं हुई होगी।
आत्मा की आवाज ने ग्रामवासियों को जगा दिया। लोगों ने बकरे को छोड़ दिया और गाँव भर में प्रेम के दिये जगमगा उठे।
एक बकरे को बचाने के इस पावन प्रसंग के प्रचार को १९५६ में तत्कालीन केन्द्रीय सरकार ने प्रोत्साहित किया था। इसी तारतम्य में बलि के विरूद्ध आवाज उठाने का एक अच्छा अवसर आया है। २८ एवं २९ नवम्बर २०१४ को नेपाल के गधिमाई मेले में दो से पाँच लाख पशुओं का कत्ल होने वाला है। मुख्यत: नर भैंसे मारे जायेंगे, लेकिन बकरी, बतख, मुर्गें, कबूतर, चूहे भी क्रूरतापूर्वक मारे जाते हैं। देवी गधिमाई के नाम पर पूरे ४८ घंटे चलने वाले धरती के सबसे बड़े पशु हत्याकांड में शामिल लोगों में से ७० प्रतिशत भारतीय होते हैं।
बुद्ध और महावीर ने भारतीय संस्कृति में आ गई हिंसक विकृतियों को दूर कर धार्मिक हिंसा को हटा दिया था। हालांकि मूल वैदिक संस्कृति भी प्रकृति और अहिंसा प्रेम में पगी हुई थी। वास्तव में पूरा हिन्दूस्तानी भारतीय हिन्दू दर्शन पशु प्रेम से भरा पड़ा है।चंद स्वार्थी लोगों ने बलि का विधानकर पुण्य भूमि को पतित कर दिया। लगभग यही कहानी इस्लाम एवं अन्य धर्मों की दिखती है। प्राचीन धर्मग्रन्थों से जान कर हम सभी हिन्दू—मुस्लिम द्वारा पशु बलि को रोक करके लाखों पशुओं को अभयदान देना ही चाहिये।
असम में दुर्गा पूजा के दौरान मां कामाख्या समेत कई मंदिरों में अभी भी मूक प्राणियों की बलि दी जाती है। वहाँ पर इसका विरोध भी बढ़ रहा है।असम के मुख्यमंत्री तरूण गोगोई पूजा के नाम पर बलि विधान के घोर विरोधी थे । देश के सर्वश्रेष्ठ साहित्य पुरस्कारों से सम्मानित लेखिका डॉ. इन्दिरा गोस्वामी ने बलि का विरोध करते हुये ‘छिन्नमस्ता’ उपन्यास लिखा। अपने वक्तव्य के समर्थन में लेखिका ने कालिका पुराण आदि शास्त्रों के अंशों को भी उद्धृत किया है। लेखिका लिखती हैं— माँ छिन्नमस्ता, माँ तुम रक्त वस्त्र उतार दो।
हिन्दू संस्कृति ग्रन्थों में यज्ञ—
पं. श्रीराम शर्मा ने पशुबलि को हिन्दु संस्कृति एवं विश्व मानवता पर एक कलंक मानते हुये विभिन्न धर्मग्रन्थों के माध्यम से विस्तृत विवेचना दिया है। शर्माजी लिखते हैं— मांसाहार, मद्यपान और व्यभिचार यह तीन पाप हमारे यहाँ बहुत बड़े माने गये हैं। लोग अपनी आसुरी वृत्तियों से प्रेरित होकर इन्हें करते हैं पर इसके लिए समाज में उनकी निंदा होती है और अंतरात्मा भी धिक्कारती है। इन दोनों ही विरोधों से बचने के लिए मांसाहार को पशुबलि के बहाने उचित ठहराने का किन्हीं ने निन्दनीय प्रयास किया होगा। खेद है कि उन्हें सफलता भी मिली और पिछले दिनों यह पाप प्रचंड रूप से पल्लवित हुआ।
भागवत ४/२५/७—८ में नारद कहते हैं हे राजन तेरे यज्ञ में सहस्त्रों पशु, निर्दयतापूर्वक मारे गए। वे तेरी क्रूरता को याद करते हुए क्रोध में भरे हुए तीक्ष्ण हथियारों से तुझे काटने को बैठे हैं।
भागवत स्कन्ध— ११ अध्याय २१ के श्लोक ३० में आया है कि — जो मनुष्य श्राद्ध और यज्ञ में पशुबलि करते हैं वास्तव में वह माँस के लोभ से ऐसा करते हैं और निश्चय रूप से छल और कपट करने वाले होते हैं।
भागवत ३/३/७ में लिखा है—हे अकलंक, सर्व वेद, यज्ञ, तप, दान उस मनुष्य के पुण्य के सामने अंशमात्र भी नहीं है जो जीवों को अभयदान प्रदान करके रक्षा करते हैं।’
मनुस्मृति ५/५१ के अनुसार—‘ पशुवध के लिए सम्मति देने वाला, माँस को काटने, पशु आदि के मारने, उनको मारने के लिए लेने और बेचने, माँस को पकाने, परोसने और खाने वाले, यह आठ मनुष्य घातक है।’
उपनिषद का वचन है—‘ काम, क्रोध लोभादय: पशव:’ काम, क्रोध, लोभ, मोह यह पशु हैं, इन्हीं को मारकर यज्ञ में हवन करना चाहिए।
महाभारत शान्तिपर्व अ.२६५ में कहा गया है, सुरा मत्स्य, शराब,माँस, आस्रव आदि सब व्यवहार धूर्तों का चलाया हुआ है। उसका वेदों में कोई प्रमाण नहीं हैं। मान, मोह, लोभ और जिव्हा की लोलपुता के कारण यह बनाया गया है।
महाभारत के अश्वमेघ पर्व अ.६१, श्लोक १३,१४ के अनुसार पशु बलि के बाँधने के खूँटे को गाड़ कर, पशुओं को मारकर, खून खच्चर मचा कर स्वर्ग चला जाएगा तो नरक कौन जाएगा ?
वेदमूर्ति पं. श्री रामशर्मा लिखते हैं— जगदम्बा माता भवानी के पवित्र नाम पर जब पशु बलि होती हैं तो देवत्व की आत्मा कांपने लगती है। बेचारे निरीह बकरे— भैंसे माता के आगे निर्दयता पूर्वक कत्ल किये जाते हैं और उनका रक्त—माँस माता को खिलाने के लिये उपस्थित किया जाता है, यह कितना नृशंस कार्य है—
पशु बलि कुछ लोग करें और शेष लोग चुपचाप देखें। उसके विरुद्ध न कुछ कहें न कुछ करें यह सब प्रकार से अशोभनीय हैं। भगवान ने वाणी और शक्ति, दया और करूणा इसीलिए दी है कि उसका उपयोग, अन्याय को रोकने, अधर्म का प्रतिकार करने और दुर्बलों का पक्ष लेने में व्यय करें। इस्लाम और शाकाहार— इसी नाम से मुजफ्फर हुसैन ने एक क्रान्तिकारी किताब लिखी है जिसमें कुरान और हदीस की रोशनी में जीवदया को महिमा मंडित किया गया है। ऐसा लगता है कि जिस प्रकार से भारतीय संस्कृति में पशुबलि ने घुसपैठ की है उसी प्रकार इस्लाम में भी कुर्र्बानी प्रचलित हुई। भारत में महावीर और बुद्ध ने इनका शुद्धीकरण कर दिया परन्तु इस्लाम में ऐसा अब तक नहीं हो पाया है।
पवित्र कुरान कहता हैं— किसी छोटी चिड़िया को भी सताओगी तो उसका जवाब भी तुम्हें देना होगा। जो कोई छोटे जीव पर दया करेगा अल्लाह उसका बदला भी तुम्हें दुनिया में और दुनिया के बाद आखिरत में देने वाला है।
मुजफ्फर हुसैन के अनुसार— हजरत इब्राहीम मध्य एशिया से निकले हुए तीनों धर्म यहूदियत, ईसाइयत और इस्लाम के पितामह हैं। मुस्लिम जिन्हें इब्राहीम कहते हैं,यहूदी और ईसाई उनका उच्चारण अब्राहम करते हैं। हजरते इब्राहीम से कुर्बानी की घटना जुड़ी हुई है। उनके प्रिय पुत्र इस्माइल के स्थान पर एक भेड़ आ गई। कुछ विद्वानों का कहना है कि ईश्वर ने भेड़ को बचा लिया।
पद्मश्री से सम्मानित मुजफ्फर हुसैन कुर्बानी एवं जीवदया का व्यापक विवेचन करते हुये दो शानदार विचार पेश करते हैं—
१. हज यात्रा प्रारंभ करने से पूर्व इस्लाम का कड़ा आदेश है कि अपने शरीर पर चलते छोटे से कीड़े को भी मत मारो।
२. हजरत इब्राहीम और उनके पुत्र इस्माइल से संबंधित घटना को पवित्र परम्परा के रूप में मुस्लिम अनुसरण करते आये हैं……
लेकिन जब इब्राहीम , यहूदी और इसाईयों के पितामह हैं तो फिर इन दोनों धर्मों के उक्त परम्परा क्यों नहीं हैं ?
बलि विरोध में कुर्बान—
आमतौर पर लोगों को गलत फहमी रहती है कि इस्लाम में क्रूरता भरी है जबकि हिन्दूत्व पशु प्रेमी है, वस्तुत: दोनों दोस्तों के अनेकानेक कट्टर अनुयाइयों ने धर्म के नाम पर पशुओं को कुर्बान किया है। बलि अभी भी जारी है, अगर अच्छी जांच पड़ताल हो तो बलि में, कुर्बानी और कत्लखानों आदि में मरने वाले पशु—पक्षियों के पीछे सब समान रूप से जिम्मेदार है लेकिन सच्चे हिन्दूत्व एवं इस्लाम में जीवमात्र के प्रति स्नेह भरा पड़ा है अतएव आइये हम सब मिलकर बलि के विरोध में समर्पित हो जायें……
कुर्बान हो जाये। हम अगर इस पुण्य कार्य में थोड़े से वक्त की बलि दे दें, थोड़ी सी ही दौलत कुर्बान कर दें तो हजारों लाखों मूक जानवरोें की कराहें रोकी जा सकती है।
दया हीन को संविधानिक पद पर नहीं होना चाहिए।आप निजी स्तर पर कुछ भी करे पर सार्वजनिक पर यह मान्य नहीं हैं । हो सकता हैं की आपकी मन्नत पूरी न हो और बेचारे व्यर्थ में मारे जाए .हाई कमान के समक्ष नतमस्तक होने पर काम चलेगा या विधायकों का समर्थन .नरेश होते हुए भिखारी

नीतीश कुमार का समाजवाद
सिद्धार्थ शंकर
समाजवादियों का उत्तराधिकारी बताने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार परिवारवाद में तो नहीं फंसे, मगर जातिवादी राजनीतिक का सूत्रपात कर बैठे। रविवार को जदयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में उन्होंने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को दरकिनार करते हुए स्वजातीय व राजनीति में कम अनुभव रखनेवाले आरसीपी सिंह (रामचंद्र प्रसाद सिंह) को अपनी राजनीतिक विरासत सौंप दी। नीतीश समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और बीजू पटनायक की परिवारवाद की राजनीति का विरोध करते रहे। अब उन्होंने पार्टी के समर्पित वरिष्ठ समाजवादी नेता वशिष्ठ नारायण सिंह और केसी त्यागी को दरकिनार करते हुए आरसीपी को पार्टी की कमान सौंपी है। नीतीश खुद को समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया और कर्पूरी ठाकुर की तरह वंशवाद और जातिवाद का विरोधी बताते रहे हैं। उन्होंने देश के समाजवादियों की लौ जगाने के लिए राजस्थान के बांसवाड़ा में मामा बालेश्वर दास के कार्यक्षेत्र में लोगों को जोडऩे का काम किया। उन्होंने मध्यप्रदेश, लक्षद्वीप, कर्नाटक, मणिपुर और छत्तीसगढ़ में भी समाजवाद की मशाल जलाने की भी कोशिश की। नीतीश ने जदयू के लिए अपने उत्तराधिकारी की घोषणा तो कर दी है, मगर इसी के साथ समाजवाद के दामन पर जातिवाद के दाग भी गहरे कर दिए। अरसे से ये सवाल तैर रहा था कि नीतीश कुमार के बाद जदयू का नेतृत्व कौन संभालेगा। यह दलील भी दी जी रही थी कि नीतीश परिवारवाद के सख्त विरोधी हैं और वह बेटे निशांत को अपनी राजनीतिक विरासत नहीं सौंपेंगे। नीतीश की छवि को मजबूत करने में इस दलील की बड़ी भूमिका रही है। लेकिन क्या ये सच है कि नीतीश कुमार अपने बेटे निशांत को अपनी राजनीतिक विरासत सिर्फ इसलिए सौंपना नहीं चाहते हैं कि इससे परिवारवाद बढ़ेगा। नीतीश को बेहद करीब से जानने वाले उनके अपने गांव के लोग ऐसा नहीं मानते हैं। नाम नहीं छापने की शर्त पर नालंदा के कल्याणबिगहा गांव के लोग बताते हैं कि नीतीश के बेटे का झुकाव आध्यात्म की तरफ है। वे दर्शन की बड़ी-बड़ी बातें करते हैं। स्वास्थ्य कारणों से भी वह राजनीति के लिए खुद को फिट नहीं मानते। निशांत को नीतीश कुमार की राजनीतिक विरासत संभालने की पहल भी की गई। गांववालों की मानें तो अगर निशांत आध्यात्म के साथ-साथ सांसारिक जीवन से ठीकठाक तालमेल बनाते तो संभव था कि उन्हें ही नीतीश की राजनीतिक विरासत संभालने का मौका मिलता। अब आरसीपी सिंह नीतीश की विरासत संभालेंगे। दरअसल, बिहार की राजनीति में जातीय समीकरण को मजबूत करने के लिए सोशल इंजीनियरिंग शब्द का इस्तेमाल पहली बार नीतीश कुमार ने ही किया। अंग्रेजी में बोले गए इस शब्द के जरिए जातिवाद को और गहरा किया गया और जातीय समीकरण साधकर नीतीश ने खुद को मजबूत बनाए रखा। नीतीश खुद कुर्मी जाति से आते हैं। कुर्मी जाति की आबादी भले ही कम है लेकिन पटना और उसके आसपास के जिलों में कुर्मी बेहद प्रभावशाली हैं। कहीं तो बेहद दबंग भी। 1977 में बिहार का पहला नरसंहार पटना से सटे में बेलछी में हुआ था। इस नरसंहार को अंजाम देने वाले प्रमुख आरोपी कुर्मी जाति के ही थे। 1994 के आसपास नीतीश के नेतृत्व में कुर्मी जाति पूरी तरह से गोलबंद हुई और आज तक गोलबंद है। बाद में नीतीश ने सोशल इंजीनियरिंग के जरिए दलित, महादलित, कुशवाहा, अति पिछड़ी जातियों के एक बड़े समूह और सवर्ण भूमिहारों को अपने पक्ष में किया। हालांकि, जब बारी राजनीतिक विरासत सौंपने की आई तो नीतीश कुमार ने स्वजातीय आरसीपी सिंह को आगे किया।

यह लव के लिए जिहाद तो नहीं ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अब मध्यप्रदेश ने भी उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड की तरह ‘लव जिहाद’ के खिलाफ जिहाद बोल दिया है। मप्र सरकार का यह कानून पिछले कानूनों के मुकाबले अधिक कठोर जरुर है लेकिन यह कानून उनसे बेहतर है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान का यह कथन भी गौर करने लायक है कि यदि कोई स्वेच्छा से अपना धर्म-परिवर्तन करना चाहे तो करे लेकिन वह लालच, डर और धोखेबाजी के कारण वैसा करता है तो उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होगी। उस पर 10 साल की सजा और एक लाख रु. तक जुर्माना ठोका जा सकता है। यह तो ठीक है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि लोग किसी धर्म को क्यों मानने लगते हैं या वे एक धर्म को छोड़कर दूसरे धर्म में क्यों चले जाते हैं ? मुझे पिछले 70-75 साल में सारी दुनिया में ऐसे लोग शायद दर्जन भर भी नहीं मिले, जो वेद-उपनिषद् पढ़कर हिंदू बने हों, बाइबिल पढ़कर यहूदी और ईसाई बने हों या कुरान-शरीफ़ पढ़कर मुसलमान बने हों। लगभग हर मनुष्य इसीलिए किसी धर्म (याने संस्कृत का ‘धर्म’ नहीं) बल्कि रिलीजन या मजहब या पंथ या संप्रदाय का अनुयायी होता है कि उसके माँ-बाप उसे मानते रहे हैं। लेकिन जो लोग अपना ‘धर्म-परिवर्तन’ करते हैं, वे क्यों करते हैं ? वे क्या उस ‘धर्म’ की सभी बारीकियों को समझकर वैसा करते हैं ? हाँ, करते हैं लेकिन उनकी संख्या लाखों में एक-दो होती है। ज्यादातर ‘धर्म-परिवर्तन’ थोक में होते हैं, जैसे कि ईसाइयत और इस्लाम में हुए हैं। ये काम तलवार, पैसे, ओहदे, वासना और डर के कारण होते हैं। यूरोप और एशिया का इतिहास आप ध्यान से पढ़ें तो आपको मेरी बात समझ में आ जाएगी। जब ये मजहब शुरु हुए तो इनकी भूमिका क्रांतिकारी रही और हजारों-लाखों लोगों ने स्वेच्छा से इन्हें स्वीकार किया। लेकिन बाद में ये सत्ता और वासना की सीढ़ियां बन गए। मजहब तो राजनीति से भी ज्यादा खतरनाक और खूनी बन गया। मजहब के नाम पर एक मुल्क ही खड़ा कर दिया गया। मजहब ने राजनीति को अपना हथियार बना लिया और राजनीति ने मजहब को ! अब हमारे देश में ‘लव जिहाद’ की राजनीति चल पड़ी है। असली प्रश्न यह है कि आप लव के लिए जिहाद कर रहे हैं या जिहाद के लिए लव कर रहे हैं ? यदि किन्हीं दो विधर्मी औरत-मर्द में ‘लव’ हो जाता है और वे अपने मजहब को नीचे और प्यार को ऊपर करके शादी कर लेते हैं तो उसका तो स्वागत होना चाहिए। उनसे बड़ा मानव-धर्म को माननेवाला कौन होगा ? लेकिन जो लोग जिहाद के खातिर लव करते हैं याने किसी लड़के या लड़की को प्यार का झांसा देकर मुसलमान, ईसाई या हिंदू बनने के लिए मजबूर करते हैं, उनको जितनी भी सजा दी जाए, कम है। हालांकि इस मजबूरी को अदालत में सिद्ध करना बड़ा मुश्किल है।

बंगाल चुनाव देश की राजनीति की दिशा तय करेगा।
डॉ. नीलम महेंद्र
माँ माटी और मानुष इन तीनों शब्दों की व्याख्या को संकुचित करने का मनोविज्ञान लिए होता है। इसी प्रकार जब वहाँ की मुख्यमंत्री बंगाल की धरती पर खड़े होकर गैर बंगला भाषी को”बाहरी”कहने का काम करती हैं तो वो भारत की विशाल सांस्क्रतिक विरासत के आभामंडल को अस्वीकार करने का असफल प्रयास करती नज़र आती हैं।
बंगाल चुनाव देश की राजनीति की दिशा तय करेगा।
बंगाल एक बार फिर चर्चा में है। गुरुदेव रबिन्द्रनाथ टैगोर, स्वामी विवेकानंद, सुभाष चंद्र बोस, औरोबिंदो घोष, बंकिमचन्द्र चैटर्जी जैसी महान विभूतियों के जीवन चरित्र की विरासत को अपनी भूमि में समेटे यह धरती आज अपनी सांस्कृतिक धरोहर नहीं बल्कि अपनी हिंसक राजनीति के कारण चर्चा में है।
वैसे तो ममता बनर्जी के बंगाल की मुख्यमंत्री के रूप में दोनों ही कार्यकाल देश भर में चर्चा का विषय रहे हैं। चाहे वो 2011 का उनका कार्यकाल हो जब उन्होंने लगभग 34 साल तक बंगाल में शासन करने वाली कम्युनिस्ट पार्टी को भारी बहुमत के साथ सत्ता से बेदखल करके राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली हो। या फिर वो 2016 हो जब वो 294 सीटों में से 211 सीटों पर जीतकर एकबार फिर पहले से अधिक ताकत के साथ राज्य की मुख्यमंत्री बनी हों। दीदी एक प्रकार से बंगाल में विपक्ष का ही सफाया करने में कामयाब हो गई थीं।
क्योंकि विपक्ष के नाम पर बंगाल में तीन ही दल हैं जिनमें से कम्युनिस्ट के 34 वर्ष के कार्यकाल और उसकी कार्यशैली ने ही बंगाल में उसकी जड़ें कमजोर करीं तो कांग्रेस बंगाल समेत पूरे देश में ही अपनी जमीन तलाश रही है। लेकिन वो बीजेपी जो 2011 तक मात्र 4 प्रतिशत वोट शेयर के साथ श्यामा प्रसाद मुखर्जी के बंगाल में अपना अस्तित्व तलाश रही थी, 2019 में 40 प्रतिशत वोट शेयर के साथ तृणमूल को उसके ही गढ़ में ललकारती है। बल्कि 295 की विधानसभा में 200 सीटों का लक्ष्य रखकर दीदी को बेचैन भी कर देती है। इसी राजनैतिक उठापटक के परिणामस्वरूप आज उसी बंगाल की राजनीति में भूचाल आया हुआ है। लेकिन जब बात राजनीतिक दाँव पेंच से आगे निकल कर हिंसक राजनीति का रूप ले ले तो निश्चित ही देश भर में चर्चा ही नहीं गहन मंथन का भी विषय बन जाती है। क्योंकि जिस प्रकार से आए दिन तृणमूल और भाजपा के कार्यकर्ताओं की हिंसक झड़प की खबरें सामने आती हैं वो वहाँ की राजनीति के गिरते स्तर को ही उजागर करती हैं। भाजपा का कहना है कि अबतक की राजनैतिक हिंसा में बंगाल में उनके 100 से ऊपर कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है। यह किसी से छुपा नहीं है कि बंगाल में चाहे स्थानीय चुनाव ही क्यों न हों , चुनावों के दौरान हिंसा आम बात है। लेकिन जब यह राजनैतिक हिंसा बंगाल की धरती पर होती है, तो उसकी पृष्ठभूमि में “माँ माटी और मानुष” का नारा होता है जो माँ माटी और मानुष इन तीनों शब्दों की व्याख्या को संकुचित करने का मनोविज्ञान लिए होता है। इसी प्रकार जब वहाँ की मुख्यमंत्री बंगाल की धरती पर खड़े होकर गैर बंगला भाषी को “बाहरी” कहने का काम करती हैं तो वो भारत की विशाल सांस्क्रतिक विरासत के आभामंडल को अस्वीकार करने का असफल प्रयास करती नज़र आती हैं। क्योंकि ग़ुलामी के दौर में जब अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ इस देश के अलग अलग हिस्सों से अलग अलग आवाजें उठ रही थीं तो वो बंगाल की ही धरती थी जहाँ से दो ऐसी आवाजें उठी थीं जिसने पूरे देश को एक ही सुर में बांध दिया था। वो बंगाल का ही सुर था जिसने पूरे भारत की आवाज़ को एक ही स्वर प्रदान किया था। वो स्वर जिसकी गूंज से ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिलने लगी थी। वो गूंज जो कल तक इस धरती पुत्रों के इस पुण्य भूमि के प्रति प्रेम त्याग और बलिदान का प्रतीक थी वो आज इस देश की पहचान है। जी हाँ “वंदे मातरम” का नारा लगाते देश भर में न जाने कितने आज़ादी के मतवाले इस मिट्टी पर हंसते हंसते कुर्बान हो गए। आज वो नारा हमारा राष्ट्र गीत है और इसे देने वाले बंकिमचन्द्र चैटर्जी जिस भूमि की वंदना कर रहे हैं वो मात्र बंगाल की नहीं बल्कि पूरे राष्ट्र की है। रबिन्द्रनाथ टैगोर द्वारा लिखित “जन गण मन” केवल बंगाल की नहीं हमारे भारत राष्ट्र की पहचान है। इसी प्रकार 1893 में विश्व धर्म सभा में स्वामी विवेकानंद ने सनातन धर्म की व्याख्या करते समय भारत देश का प्रतिनिधित्व किया था बंगाल का नहीं। बंगाल की धरती ऐसे अनेकों उदाहरणों से भरी पड़ी है। और जब ऐसी धरती से देश के अन्य राज्य के नागरिक के लिए “बाहरी” शब्द का प्रयोग किया जाता है वो भी वहाँ की मुख्यमंत्री के द्वारा वो केवल बंगाल की महान सांस्कृतिक विरासत का ही अपमान नहीं होता बल्कि देश के संविधान को भी नकारने का प्रयास होता है। दरसअल जब राजनैतिक स्वार्थ राष्ट्र हित से ऊपर होता है तो इस प्रकार के आचरण सामने आते हैं। लेकिन दीदी को समझना चाहिए कि वर्तमान राजनैतिक पटल पर अब इस प्रकार की राजनीति का कोई स्थान नहीं है।
बंगाल के आने वाले चुनावों की तैयारी करने से पहले उन्हें देश में हुए कुछ ताज़ा चुनाव परिणामों पर नज़र डाल लेनी चाहिए ताकि उन्हें वोटर का मनोविज्ञान समझने में आसानी हो। किसान आंदोलन के बीच राजिस्थान जिला परिषद और पंचायत के ताजा चुनावों में किसान आंदोलन का समर्थन करने वाले दलों को जनता नकार देती है। असम में तिवा स्वायत्त परिषद के चुनाव में बीजेपी को 36 में से 33 सीट देकर वहाँ की जनता अलगाववाद की बात करने वाले संगठनों को पूरी तरह से बाहर का रास्ता दिखा देती है। इसी प्रकार हाल ही में जम्मू कश्मीर के डीडीसी चुनावों में धारा 370 की वकालत करने वाले छह दलों के गुपकार गठबंधन को भी जनता अस्वीकार कर देती है। यह कुछ ऐसे उदाहरण हैं जो देश में भविष्य की राजनीति की बदलती दिशा की ओर इशारा कर रहे हैं। यह इस बात का संकेत हैं कि वोट बैंक की राजनीति अब जीत की कुंजी नहीं रही।
लेकिन फिर भी अगर बंगाल की वोट बैंक की राजनीति की बात करें तो वहाँ का वोट चार दलों में बंटता है। पिछले चुनाव परिणाम बताते हैं कि तृणमूल का वोट शेयर 43 प्रतिशत था और बीजेपी का 40 प्रतिशत। कांग्रेस 5 प्रतिशत और कम्युनिस्ट पार्टी लगभग 4 प्रतिशत। पिछले दो तीन चुनावों में (लोकसभा और विधानसभा मिलाकर) तृणमूल का वोट शेयर बरकरार है जबकि कांग्रेस का कम्युनिस्ट पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ने से भाजपा को फायदा होता है। और चूंकि इस बार 2014 से ही भाजपा ने बंगाल में जमीनी स्तर पर काम किया है तो कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी से हताश बंगाल के लोगों को मोदी ब्रांड भाजपा में तृणमूल का एक सशक्त विकल्प नज़र आ रहा है। रही सही कसर ममता सरकार की ही मुस्लिम तुष्टिकरण की राजनीति पूरी कर सकती है जो काफी हद तक वहाँ के गैर मुस्लिम वोटों के ध्रुवीकरण का एक मजबूत कारण बन सकती है। इसलिए दीदी को समझना चाहिए कि इस दौर में नकारात्मक राजनीति से सकारात्मक परिणाम मिलने मुश्किल हैं। लेकिन दीदी के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस बार उनका मुकाबला विपक्ष के नाम पर वोट बैंक की राजनीति करने वाले या कर्ज़ माफी जैसे खोखले नारे देने वाले किसी दल से ना होकर बूथ लेवल पर काम करने वाले संगठन से है। इसलिए बंगाल का यह चुनाव तृणमूल बनाम भाजपा मात्र दो दलों के बीच का चुनाव नहीं रह गया है बल्कि यह चुनाव देश की राजनीति के लिए भविष्य की दिशा भी तय करेगा। बंगाल की धरती शायद एक बार फिर देश के राजनैतिक दलों की सोच और कार्यशैली में मूलभूत बदलाव की क्रांति का आगाज़ करे।

क्या भारत का लोकतंत्र फर्जी है?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत के किसानों ने विपक्षी दलों पर जबर्दस्त मेहरबानी कर दी है। छह साल हो गए और वे हवा में मुक्के चलाते रहे। अब किसानों की कृपा से उनके हाथ में एक बोथरा चाकू आ गया है, उसे वे जितना मोदी सरकार के खिलाफ चलाते हैं, वह उतना ही उनके खिलाफ चलता जाता है। अब विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी किसानों की बजाय भारत के राष्ट्रपति के पास पहुंच गए। कहते हैं कि किसान-आंदोलन के पक्ष में उन्होंने दो करोड़ हस्ताक्षरवाला ज्ञापन राष्ट्रपति को दिया है। दो करोड़ तो बहुत कम हैं। उसे 100 करोड़ भी कहा जा सकता था। यदि दो करोड़ लोगों ने उस पर सचमुच दस्तखत किए हैं तो राहुलजी उनमें से कम से कम दो लाख लोगों को तो दिल्ली ले आते। उनकी बहन प्रियंका को पुलिस ने पकड़ लिया। उस पर उनकी आपत्ति ठीक हो सकती है लेकिन इसीलिए आप यह कह दें कि भारत का लोकतंत्र फर्जी है, बनावटी है, काल्पनिक है, बिल्कुल बेजा बात है। भारत का लोकतंत्र, अपनी सब कमियों के बावजूद, आज भी दुनिया का सबसे बड़ा और बहुत हद तक अच्छा लोकतंत्र है। राहुल का यह कहना हास्यास्पद है कि मोदी का जो भी विरोध करे, उसे आतंकवादी घोषित कर दिया जाता है। वैसे सिर्फ कहलवाना ही है तो विदूषक कहलवाने से बेहतर है— आतंकवादी कहलवाना लेकिन भारत में आज किसकी आजादी में क्या कमी है ? जो भी जो चाहता है, वह बोलता और लिखता है। उसे रोकनेवाला कौन है ? जो अखबार, पत्रकार और टीवी चैनल खुशामदी हैं, डरपोक हैं, कायर हैं, लालची हैं— वे अपना ईमान बेच रहे हैं। वे खुद दब रहे हैं। उन्हें दबाए जाने की जरुरत नहीं है। उन्हें दबाया गया था, आपात्काल में, राहुल की दादी के द्वारा। पांच-सात साल के राहुल को क्या पता चला होगा कि काल्पनिक लोकतंत्र कैसा होता है ? जहां तक पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र का सवाल है, युवराज की हिम्मत नहीं कि इस सवाल को वह कभी छू भी ले। नरसिंहराव-काल को छोड़ दें तो पिछले 50 साल में कांग्रेस तो एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बनकर रह गई है। उसमें अब भी बड़े योग्य और प्रतिभाशाली नेता हैं लेकिन उनकी हैसियत क्या है ? यही कांग्रेसी-कोरोना देश के सभी दलों में फैल गया है। पार्टियों के आतंरिक लोकतंत्र का खात्मा ही बाह्य लोकतंत्र के खात्मे का कारण बनता है।

किशोरावस्था में बढ़ रहे अपराध
सिद्धार्थ शंकर
किशोरावस्था व्यक्ति के जीवन का वह नाजुक दौर होता है, जब बहुत आसानी से कदम डगमगा सकते हैं। जब व्यक्ति अधीर हो उठता है अपनी मनचाही वस्तु को पाने के लिए। जब अनुशासन और नियंत्रण से दूरी बनाना ही उसका लक्ष्य हो जाता है और इस तरह किसी दिन आपराधिक घटना घट जाती है। कभी-कभी घटनाएं इतनी संगीन हो जाती हैं कि पूरा देश सिहर जाता है। दिल्ली के निर्भया कांड ने पूरे देश को उद्वेलित किया था। उस परिणाम स्वरूप कानूनों में कई अहम बदलाव किए गए। दंड विधान को और कठोर बनाया गया। निर्भया के बाद शक्ति मिल्स, मुंबई में दो बलाकार की घटनाएं प्रकाश में आईं, जिनमें फिर किशोर आयु के युवक की संलिप्तता उजागर हुई। इसी तरह रेयान इंटरनेशनल स्कूल के एक छात्र की निर्मम हत्या में भी एक किशोर की पहचान की गई। लखनऊ में सातवीं कक्षा की एक छात्रा ने एक बच्चे को चाकू से वार कर जख्मी कर दिया। फिर दिल्ली में बारहवीं के एक छात्र ने अपनी प्रिंसिपल को गोलियों से भून दिया।
ये सभी किशोर व किशोरियां किसी न किसी विद्यालय के विद्यार्थी थे। उन पर पडऩे वाले मनोवैज्ञानिक दबाव की परिणति गंभीर अपराधों में देखने को मिली। अल्बर्ट के. कोहेन पहले अपराधशास्त्री हैं, जिन्होंने किशोर अपराध को अध्ययन का विषय बनाया। 1955 में पुस्तक में उन्होंने किशोर अपराध का विस्तार से उल्लेख किया। उन्होंने मध्यवर्गीय व श्रमिक वर्ग के बालकों का तुलनात्मक अध्ययन करके यह स्पष्ट करने का प्रयास किया कि कैसे श्रमिक वर्ग के बालकों को उपलब्ध सुविधाएं देख कर निम्नवर्ग के बालकों में नैराश्य जन्म लेता है। इसकी वजह से उनमें प्रतिक्रिया पैदा होती और किशोर वय के निम्नवर्गीय बालकों में अपचारी अपसंस्कृति पैदा होने लगती है। वे भी मध्यवर्गीय बालकों वाले लक्ष्य प्राप्त करना चाहते हैं। पर साधनों के अभाव में वे गलत रास्ता चुन लेते हैं। कोहेन आगे कहते हैं कि मध्यवर्ग के मूल्यों और मान्यताओं को ही मानदंड मान कर किसी भी व्यवहार की विवेचना की जाती है।
मसलन, महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अध्ययन करना पड़ता है, पर निम्न मध्यवर्ग के बालक ऐसे मूल्यों और मान्यताओं से शासित नहीं हो पाते व अपचारी अपसंस्कृति को जन्म देते हैं। इस प्रकार कोहेन ने बताने का प्रयास किया कि अपचारिता के शिकार ज्यादातर निम्नवर्ग के बालक होते हैं। हालांकि उनका यह सिद्धांत आलोचनाओं से परे नहीं रह पाया। निर्भया और शक्ति मिल्स में संलिप्त किशोर तो कोहेन के सिद्धांतों के तहत विश्लेषित हो जाते हैं, पर विद्यार्थियों की घटनाएं अलग ही प्रश्न उठाती हैं। किशोर अपचारिता के विश्लेषण के लिए जिन कानूनी प्रावधानों को व्याख्यायित किया जा सकता है, उनमें भारतीय दंड संहिता की धारा 82 और 83 तथा किशोर न्याय अधिनियम 1986, किशोर न्याय (देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम 2015 प्रमुख हैं। जहां तक भारतीय दंड संहिता की बात है, तो यह उल्लेखनीय है कि यह एक सामान्य कानून है और भाग चार के अपवाद खंड की दो धाराओं के जरिए यह स्पष्ट करता है कि सात वर्ष से नीचे के बालकों को अबोध माना जाता है और उन्हें आपराधिक दायित्व से पूर्ण उन्मुक्ति दी गई है, जबकि सात वर्ष से ऊपर और बारह वर्ष से नीचे के बालकों को सीमित उन्मुक्ति प्रदान की जाती है।
यह देखकर कि क्या उनकी समझ परिपक्व थी और वे परिणाम की प्रत्याशा में अपने कार्य करते हैं या उनकी समझ इतनी नहीं थी कि उनके कार्य और परिणाम के बीच एक तार्किक संबंध स्थापित किया जा सके। चूंकि किशोर न्याय अधिनियम विशिष्ट कानून है, इसलिए विधि सिद्धांतों के तहत विशिष्ट कानून सामान्य कानून के ऊपर अपना प्रभाव रखेंगे, जिसका सम्मिलित निष्कर्ष यह होगा कि सात वर्ष से ऊपर के बालक अगर परिपक्व हैं, तो किशोर न्याय अधिनियम के प्रावधानों से शासित होंगे। किशोर न्याय अधिनियम में उत्तरोत्तर हो रहे परिवर्तनों को इस प्रकार समझा जा सकता है। एक ऐसे अधिनियम की आवश्यकता पूर्व में विद्यमान कानून के पुनरवलोकन में ऐसे अधिनियम की आवश्यकता को महसूस किया गया, जो एकरूप हो।
इसलिए किशोर न्याय अधिनियम 1986 में सोलह वर्ष से कम उम्र के बालकों और 18 वर्ष से कम उम्र की बालिकाओं पर लागू हुआ। चूंकि अधिनियम में उपेक्षित और अपचारी किशोरों के लिए भिन्न व्यवस्था नहीं बनाई गई थी व लड़के और लड़कियों की उम्र में अंतर था, इसलिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाल अधिकार अभिसमय 1989 के अनुसरण में किशोर न्याय (देखभाल एवं संरक्षण) अधिनियम-2000 पारित हुआ, जिसमें उपेक्षित एवं अपचारी शब्दों को हटा कर देखभाल की आवश्यकता वाले बालक और विधि के संघर्ष में बालक-बालिकाओं को रखा गया।
अब समाज को सोचना पड़ेगा कि वह कहां और कैसे गलत हो रहा है। मध्यवर्ग, जो सबसे बड़ा जन समूह है, आज अपने मूल्यों से ही भटक गया है। पश्चिमी सभ्यता और संस्कृति ने इसे दिग्भ्रमित कर दिया है। आज के अभिभावक अपने छह माह के बच्चे से भी ऐसी उम्मीदें लगा लेते हैं कि बस आज ही पूरी दुनिया में उसका नाम हो जाएगा। यही सोच बच्चों के स्वाभाविक विकास में बाधक बन रही है। उनमें दूसरों की भलाई और उनके सुख-दुख के बारे में सोचने का संस्कार ही नहीं पड़ पा रहा है।

 

कांग्रेस की कमान फिर राहुल गांधी के हाथों में आएगी!
डॉ श्रीगोपाल नारसन एडवोकेट
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस इस समय अपनी मजबूती के लिए वह हर उपाय तलाश रही है,जो कांग्रेस को उसका जनाधार लौटा सके।जिसके लिए कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस की कमान सौंपने का मन बना लिया है।इस बैठक में सोनिया गांधी ने स्वास्थ्य कारणों से पद छोड़ने की इच्छा जताई तो बैठक में मौजूद सभी वरिष्ठ पदाधिकारियों ने एक स्वर में राहुल गांधी को अपना नेता माना और राहुल गांधी ने भी थोड़ी झिझक के बाद उनके अनुरोध को स्वीकार कर लिया।यह बैठक बुलाई ही इसलिए गई थी कि राहुल गांधी के नाम पर हो रहे गतिरोध को समाप्त किया जा सके।हालांकि पहले राहुल गांधी ने स्वयं ही कांग्रेस अध्यक्ष पद से मुक्त होकर किसी अन्य को यह जिम्मेदारी देने की जिद्द की थी जिसपर सोनिया गांधी को कार्यवाहक अध्यक्ष रूप में दायित्व सम्भालना पड़ा था।राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने से कांग्रेस विरोधी उन ताकतों का मुहं बंद होगा,जो अभी तक राहुल गांधी का मजाक उड़ाकर या फिर उन्हें कमजोर प्रचारित करके कांग्रेस की छवि खराब करने में जुटे हुए थे।लेकिन यह भी सच है कि कांग्रेस को हार के संकट से उभरने के लिए संगठन स्तर पर फेरबदल करके जमीनी कार्यकर्ताओ को आगे लाना होगा।लेकिन यह भी तय है कि एक बार फिर गांधी परिवार से बाहर के किसी व्यक्ति को कांग्रेस की कमान सोंपने की मांग बलवती नही हो सकी।स्वयं राजस्थान के मुख्य मंत्री अशोक गहलोत और उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री व वर्तमान में राष्ट्रीय महासचिव हरीश रावत,गुलाम नबी आजाद, ए के एंटनी,पी चिदम्बरम, समेत बैठक में मौजूद सभी नेताओं ने राहुल गांधी पर ही भरोसा जताया। अब उन नेताओं को भी आगे लाना होगा जिनकी जमीनी स्तर पर संगठन के लिहाज से गहरी पकड़ है।राहुल गांधी उस कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष फिर से बनने जा रहे है जिसका भारत की आज़ादी में सबसे बड़ा योगदान रहा है। भारत की आज़ादी के बाद यह देश की प्रमुख राजनीतिक पार्टी बन गई थी।सन 1885 में अस्तित्व में आई कांग्रेस की स्थापना को 135 वर्ष अधिक हो चुके है।
आज़ादी के बाद 1952 में हुए चुनाव के साथ केंद्र की सत्ता में आई कांग्रेस का सन 1977 तक देश पर एकछत्र शासन था। शुरुआती 25 सालों में कांग्रेस के सामने टक्टर में कोई बड़ी विपक्षी पार्टी भी नहीं थी.
लेकिन जब छठी लोकसभा के लिए 1977 में चुनाव हुए तो जनता पार्टी ने कांग्रेस की कुर्सी छीन ली। हालांकि तीन साल के अंदर ही सन 1980 में कांग्रेस की वापसी हो गई थी,लेकिन 1989 में कांग्रेस को फिर हार का सामना करना पड़ा था। 11 महीनों तक भारतीय जनता पार्टी और वामदलों के समर्थन से वीपी सिंह प्रधानमंत्री रहे लेकिन बाद में कांग्रेस के समर्थन से छह महीनों से कुछ अधिक अवधि के लिए चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने थे।
सन 1980 में एक बार फिर कांग्रेस सत्ता में लौटी ।कांग्रेस छह महीने को छोड़ 1996 तक केंद्र में बनी रही. इसके बाद 2004 से 2014 तक लगातार दो बार कांग्रेस एक बार फिर केंद्र की सत्ता में धमक के साथ बनी रही।
जबकि 1991, 2004 और 2009 में कांग्रेस ने सफलता पूर्वक केंद्र में गठबंधन की सरकार का नेतृत्व किया।
1952 से 2019 तक देश में 17 बार आम चुनाव हुए हैं जिसमे कांग्रेस पार्टी ने अब तक सात बार पूर्ण बहुमत तो चार बार गठबंधन के साथ केंद्र सरकार का हिस्सा रही है।कांग्रेस ने भारत को सात प्रधानमंत्री (जवाहरलाल नेहरू, गुलज़ारीलाल नंदा, लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पीवी नरसिंहा राव और मनमोहन सिंह) दिये हैं और 50 वर्षों से अधिक केंद्र की सत्ता का नेतृत्व किया है।
आज़ादी से पहले कांग्रेस के अध्यक्ष का कार्यकाल एक साल के हुआ करता था. सन1885 में डब्ल्यू सी बनर्जी से लेकर आज़ादी के वक़्त जेपी कृपलानी और 1950 में पुरुषोत्तम दास टंडन तक कांग्रेस ने 60 बार अपने अध्यक्ष चुने।
देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पिता मोती लाल नेहरू सन 1928 में कांग्रेस अध्यक्ष चुने गये तो आज़ादी से पहले जवाहर लाल नेहरू चार बार (1929, 1930, 1936, 1937) कांग्रेस के अध्यक्ष रहे।
आज़ादी के बाद के अधिकांश वर्षों में कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर नेहरू-गांधी परिवार का ही राज रहा है. सन1951-52 से लेकर 1954 तक नेहरू फिर 1959 में इंदिरा गांधी. इंदिरा गांधी ही फिर 1978 से 1984 तक अध्यक्ष रहीं. उनकी मौत के बाद 1985 से 1991 तक राजीव गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष बने। हालांकि सबसे लंबे समय तक देश की इस सबसे पुरानी पार्टी की अध्यक्ष सोनिया गांधी रही है।वे 1998 से 2017 तक क़रीब 20 वर्षों तक पार्टी की अध्यक्ष रहीं और उनके बाद से राहुल गांधी पार्टी और फिर सोनिया गांधी कांग्रेस की कमान संभालते रहे हैं।
सन 1928 में मोती लाल नेहरू के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के साथ ही नेहरू-गांधी परिवार का इस पार्टी के अध्यक्ष पद से नाता जुड़ा जो आज तक बदस्तूर जारी है.आज़ादी के बाद से अब तक कांग्रेस के 29 अध्यक्ष रहे हैं।इन 72 वर्षों में 37 वर्ष नेहरू-गांधी परिवार के तो 35 वर्ष ग़ैर कांग्रेसी अध्यक्ष रहे हैं।लेकिन अब फिर राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाये जाने की सहमति से यह तय हो गया है कि कांग्रेस का नेतृत्व गाँधी परिवार से बाहर नही जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार है।)

उपलब्धि: मोबाइल-टीवी सिग्नल बढ़ाने में मददगार होगा सीएमएस-01
योगेश कुमार गोयल
इसरो (भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन) द्वारा एक बार फिर अंतरिक्ष में सफलता का नया इतिहास रचा गया है। भारत द्वारा 17 दिसम्बर को चेन्नई से 120 किलोमीटर दूर श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन अंतरिक्ष केन्द्र के दूसरे लांच पैड से पीएसएलवी-सी50 रॉकेट के जरिये अपना 42वां संचार उपग्रह ‘सीएमएस-01’ सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया। इसरो के 320 टन वजनी पीएसएलवी-सी50 रॉकेट ने 20 मिनट की उड़ान के बाद सीएमएस-01 (पूर्व नाम जीसैट-12आर) को उसकी तय कक्षा जियोसिंक्रोनस ट्रांसफर आर्बिट (जीटीओ) में पहुंचा दिया और अब इस कक्षा में आगे की यात्रा यह उपग्रह स्वयं पूरी करेगा। पीएसएलवी (ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान) रॉकेट का यह 52वां मिशन था और पीएसएलवी-एक्सएल रॉकेट (छह स्ट्रेपऑन मोटर से संचालित) की 22वीं सफल उड़ान थी तथा सतीश धवन स्पेस सेंटर से इसरो का यह 77वां लांच मिशन था। इसरो के मुताबिक चार दिनों में सीएमएस-01 अपनी कक्षा के तय स्थान पर तैनात हो जाएगा। सीएमएस-01 को पृथ्वी की कक्षा में 42164 किलोमीटर के सबसे दूरस्थ बिन्दु पर स्थापित किया गया है। इस कक्षा में स्थापित होने पर यह सैटेलाइट अब पृथ्वी के चारों तरफ उसी की गति से घूमेगा और पृथ्वी से देखे जाने पर आकाश में एक जगह खड़े होने का भ्रम देगा।
सीएमएस-01 उपग्रह के जरिए सी-बैंड फ्रीक्वेंसी को मजबूती मिलेगी। सीएमएस-01 को मोबाइल फोन से लेकर टीवी तक के सिग्नलों के स्तर को सुधारने के लिए तैयार किया गया है, जो भारत के जमीनी इलाकों के अलावा अंडमान निकोबार और लक्षद्वीप को भी कवर करने वाले फ्रीक्वेंसी स्पेक्ट्रम के विस्तारित सी-बैंड में सेवाएं मुहैया करेगा। इस उपग्रह की मदद से देश में टीवी संचार को लेकर नई तकनीक विकसित की जा सकेगी और यह उपग्रह मोबाइल-टीवी सिग्नल को बढ़ाने में काफी मददगार साबित होगा। इसके जरिये टीवी संचार प्रणाली, टीवी से संबंधित संचार प्रणालियों और व्यवस्थाओं को परिष्कृत करने का अवसर मिलेगा। सीएमएस-01 की मदद से टीवी चैनलों की दृश्य गुणवत्ता बेहतर होने के अलावा सरकार को टेली-एजुकेशन, टेली-मेडिसन को आगे बढ़ाने तथा आपदा प्रबंधन के दौरान मदद मिलेगी। यह उपग्रह 11 जुलाई 2011 को लांच किए गए संचार उपग्रह ‘जीसैट-12’ का स्थान लेगा, जो आगामी सात वर्षों तक एक्सटेंडेड सी-बैंड फ्रिक्वेंसी स्पेक्ट्रम में अपनी बेहतर सेवाएं देता रहेगा। जीसैट-12 की मिशन अवधि आठ वर्ष की थी, जो पूरी हो चुकी है।
इसरो प्रमुख डा. के सिवन के मुताबिक कोरोना महामारी के दौर में भी इसरो ने कड़ी मेहनत की है और यह पूरे देश के लिए गर्व का विषय है। दरअसल सीएमएस-01 महामारी के इस दौर में इस साल का देश का दूसरा और अंतिम प्रक्षेपण था। इससे पहले 7 नवम्बर को इसरो ने पीएसएलवी-सी49 के जरिये भू-निगरानी उपग्रह ‘ईओएस-01’ को 9 अन्य विदेशी उपग्रहों के साथ प्रक्षेपित किया था। ‘ईओएस-01’ अर्थ ऑब्जर्वेशन रीसैट उपग्रह की ही एक एडवांस्ड सीरीज है, जो कृषि, वानिकी और आपदा प्रबंधन सहायता में प्रयोग किया जाने वाला पृथ्वी अवलोकन उपग्रह है। यह एक ऐसा अग्रिम रडार इमेजिंग उपग्रह है, जिसका सिंथैटिक अपरचर रडार बादलों के पार भी दिन-रात तथा हर प्रकार के मौसम में स्पष्टता के साथ देख सकता है और इसमें लगे कैमरों से बेहद स्पष्ट तस्वीरें खींची जा सकती हैं। इसकी इन्हीं विशेषताओं के कारण इस उपग्रह के जरिये न केवल सैन्य निगरानी में मदद मिलेगी बल्कि कृषि, वानिकी, मिट्टी की नमी मापने, भूगर्भ शास्त्र और तटों की निगरानी में भी यह काफी सहायक साबित होगा। कोरोना काल से ठीक पहले इसरो द्वारा 17 जनवरी 2020 को यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी एरियनस्पेस के एरियन-5 रॉकेट के जरिये संचार उपग्रह ‘जीसैट-30’ प्रक्षेपित किया गया था।
इसरो द्वारा हाल ही में अपने उपग्रहों के नाम उसके वर्ग के आधार पर रखने का फैसला किया गया था और ‘सीएमएस-01’ पहला ऐसा संचार उपग्रह है, जिसे इसरो ने इस नई उपग्रह नामकरण योजना के तहत कक्षा में स्थापित किया है। इससे पहले इसरो ने अपने भू-निगरानी उपग्रह का नाम ‘ईओएस’ रखा था और अब संचार उपग्रह का नामकरण ‘सीएमएस’ किया गया है। संचार उपग्रह ‘सीएमएस-01’ के सफल प्रक्षेपण के बाद इसरो का अगला प्रक्षेपित किया जाने वाला रॉकेट पीएसएलवी-सी51 होगा, जो फरवरी-मार्च 2021 में लांच किया जाएगा। पीएसएलवी-सी51 का प्राथमिक पेलोड 600-700 किलोग्राम वजनी ब्राजील का उपग्रह होगा। पीएसएलवी-सी51 भारत के पहले स्टार्टअप (पिक्ससेल) निर्मित भू-निगरानी उपग्रह को लेकर अंतरिक्ष में जाएगा। पीएसएलवी-सी51 इसके साथ ‘स्पेसकिड्ज’ टीम के तहत छात्रों द्वारा निर्मित संचार उपग्रह और तीन विश्वविद्यालयों के समूह द्वारा निर्मित एक अन्य उपग्रह को भी लेकर जाएगा।
पीएसएलवी इसरो द्वारा संचालित एक ऐसी उन्नत प्रक्षेपण प्रणाली है, जिसे भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा अपने उपग्रहों को अंतरिक्ष की कक्षा में प्रक्षेपित करने के लिए विकसित किया गया है। पीएसएलवी को भारतीयों उपग्रहों के अलावा विदेशी उपग्रहों की लांचिंग के अलावा भी उपयोग किया जाता रहा है। यह एक चार चरण/इंजन वाला ऐसा रॉकेट है, जो ठोस तथा तरल ईंधन द्वारा वैकल्पिक रूप से छह बूस्टर मोटर्स के साथ संचालित किया जाता है और शुरूआती उड़ान के दौरान उच्च गति देने के लिए पहले चरण पर स्ट्रैप होता है। पीएसएलवी छोटे आकार के उपग्रहों को भू-स्थिर कक्षा में भी भेज सकने में सक्षम है और पीएसएलवी की सहायता से अभी तक सत्तर से भी ज्यादा अंतरिक्ष यानों को विभिन्न कक्षाओं में प्रक्षेपित किया जा चुका है। बहरहाल, कोरोना की वजह से प्रभावित हुए अपने मिशनों को पूरा करने में इसरो अब जी-जान से जुटा है। इसरो प्रमुख के सिवन के अनुसार इसरो टीम का शेड्îूल बेहद व्यस्त है क्योंकि इसरो टीम को आने वाले समय में चंद्रयान-3, आदित्य एल-1 उपग्रह, भारत के मानव अंतरिक्ष मिशन गगनयान और स्मॉल रॉकेट स्मॉल सेटेलाइट लांच व्हीकल (एसएसएलवी) का प्रक्षेपण करना है।

जम्मू-कश्मीर चुनाव का अर्थ
डॉ वेदप्रताप वैदिक
जम्मू-कश्मीर के जिला विकास परिषद के चुनाव-परिणामों का क्या अर्थ निकाला जाए ? उसकी 280 सीटों में से गुपकार गठबंधन को 144 सीटें, भाजपा को 72, कांग्रेस को 26 और निर्दलीयों को बाकी सीटें मिली हैं। असली टक्कर गुपकार मोर्चे और भाजपा में है। दोनों दावा कर रहे हैं कि उनकी विजय हुई है। कांग्रेस ने अपने चिन्ह पर चुनाव लड़ा है लेकिन वह गुपकार के साथ है और निर्दलीयों का पता नहीं कि कौन किसके खेमे में जाएगा। गुपकार मोर्चे के नेता डाॅ. फारुक अब्दुल्ला का कहना है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने धारा 370 और 35 ए को खत्म करने के केंद्र सरकार के कदम को रद्द कर दिया है। इसका प्रमाण यह भी है कि इस बार हुए इन जिला चुनावों में 51 प्रतिशत से ज्यादा लोगों ने मतदान किया। 57 लाख मतदाताओं में से 30 लाख से ज्यादा लोग कड़ाके की ठंड में भी वोट डालने के लिए सड़कों पर उतर आए। वे क्यों उतर आए ? क्योंकि वे केंद्र सरकार को अपना विरोध जताना चाहते हैं। अंदाज लगाया जा रहा है कि अब 20 जिला परिषदों में से 13 गुपकार के कब्जे में होंगी। गुपकार-पार्टियों ने गत वर्ष हुए दो स्थानीय चुनावों का बहिष्कार किया था लेकिन इन जिला-चुनावों में उसने भाग लेकर दर्शाया है कि वह लोकतांत्रिक पद्धति में विश्वास करती है। इसके बावजूद उसे जो प्रचंड बहुमत मिलने की आशा थी, वह इसलिए भी नहीं मिला हो सकता है कि एक तो उसके नेताओं के खिलाफ भ्रष्टाचार के तीखे आरोप लगे, उनमें से कुछ ने पाकिस्तान और कुछ ने चीन के पक्ष में अटपटे बयान दे दिए। इन पार्टियों के कुछ महत्वपूर्ण नेताओं ने अपने पद भी त्याग दिए। इतना ही नहीं, पहली बार ऐसा हुआ है कि कश्मीर की घाटी में भाजपा के तीन उम्मीदवार जीते हैं। पार्टी के तौर पर इस चुनाव में भाजपा ने अकेले ही सबसे ज्यादा सीटें जीती हैं लेकिन जम्मू-क्षेत्र में 70 से ज्यादा सीटें जीतने के बावजूद उसकी सीटें कम हुई हैं। उसका कारण शायद यह रहा हो कि इस बार कश्मीरी पंडितों ने ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया और भाजपा ने इस बार विकास आधारित रचनात्मक अभियान पर कम और गुपकार को सिर्फ बदनाम करने में ज्यादा ताकत लगाई। अब यदि ये जिला-परिषदें ठीक से काम करेंगी और उप-राज्यपाल मनोज सिंह उनसे संतुष्ट होंगे तो कोई आश्चर्य नहीं कि नए साल में जम्मू-कश्मीर फिर से पूर्ण राज्य बन जाएगा।

एक स्वर में सभी कहते थे, अटलजी जैसा कोई नही।
प्रभात झा
पिछले सात दशक की राजनीति में भारत में एक व्यक्तित्व उभरा और देश ने उसे सहज स्वीकार किया। जिस तरह इतिहास घटता है, रचा नहीं जाता; उसी तरह नेता प्रकृति प्रदत्त प्रसाद होता है, वह बनाया नहीं जाता बल्कि पैदा होता है। प्रकृति की ऐसी ही एक रचना का नाम है पं. अटल बिहारी वाजपेयी।
अटलजी के जीवन पर, विचार पर, कार्यपद्धति पर, विपक्ष के नेता के रूप में, भारत के जननेता के रूप में, विदेश नीति पर, संसदीय जीवन पर , उनकी वक्तृत्व कला पर, उनके कवित्व रूपी व्यक्तित्व पर, उनके रसभरे जीवन पर, उनकी वासंती भाव – भंगिमा पर, जनमानस के मानस पर अमिट छाप, उनके कर्तृत्व पर एक नहीं अनेक लोग शोध कर रहे हैं । आज जो राजनीतिज्ञ देश में हैं, उनमें अगर किसी भी दल के किसी भी नेता से किसी भी समय अगर सामान्य सा सवाल किया जाए कि उन्हें अटलजी कैसे लगते थे? तो सर्वदलीय भाव से एक ही उत्तर आएगा – ‘ उन जैसा कोई नहीं था !
’भारत रत्न’ अटल बिहारी वाजपेयी भारत के एक बार तेरह दिन, दूसरी बार तेरह महीने और तीसरी बार साढे़ चार वर्ष प्रधानमंत्री रहे। अटलजी प्रधानमंत्री बने यह सिर्फ भाजपा की नहीं बल्कि पूरे भारत की इच्छा थी। वर्षों तक विपक्ष के नेता रहते हुए भारत का अनेकों बार भ्रमण किया। भ्रमण के दौरान अपनी वाणी से प्रत्येक भारतीयों को जहां जोड़ा और भारत को समझा वहीं सदन के भीतर सत्ता में बैठे लोगों पर मां भारती के प्रहरी बनकर सदैव उनकी गलतियों को देश के सामने रखते रहे। भारत की राजनीति में विपक्ष में रहते हुए जितनें लोकप्रिय और सर्वप्रिय अटलजी रहे प्रधानमंत्री रहते हुए भी पण्डित जवाहरलाल नेहरू उतने लोकप्रिय नहीं हुए।
अटलजी के आचरण और वचन में लयबद्धता और एकरूपता थी। वे जबतक सदन में विपक्ष या सत्ता में रहे तब तक सदन के “राजनैतिक हीरो’’ अटलजी ही रहे। इस बात को हम नहीं बल्कि तत्कालीन अनेक वरिष्ठ नेतागण स्वंय कहते थे।
‘अटलजी’ थे तो जनसंघ और आगे भाजपा के, परंतु उन्हे सभी दलो के लोग अपना मानते थे। उनकी ग्राह्यता और स्वीकार्यता तो इसी से पता लग जाती है कि उन्हे भारत के पूर्व प्रधानमंत्री कांग्रेस के नेता पी. वी. नरसिम्हाराव ने सन् 1994 में जब प्रतिपक्ष का नेता रहते हुए जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारत के प्रतिनिधि मंडल के नेता के रूप में भेजा था। जबकि ऐसी बैठकों में भारत का प्रधानमंत्री या अन्य ज्येष्ठ मंत्री ही नेता के रूप में जाते हैं, इस घटना से सारा विश्व चकित था। वहीं पूर्व प्रधानमंत्री इंदिराजी हों या स्व.चन्द्रशेखर सभी उन्हे संसद की गरिमा और प्रेरणा मानते हुए सम्मान करते थे।
भारत के राजनैतिक विश्लेषकों का मानना था कि अटलजी अगर दस वर्ष पूर्व भारत के प्रधानमंत्री बन गए होते तो भारत का भविष्य कुछ और होता। आजादी के दूसरे दिन जो प्राथमिकतांए तय होनी थी, वह अटलजी के प्रधानमंत्री बनने तक तय नहीं हुई थी। बावजूद इसके कि अटलजी कवि हृदय और प्रखर पत्रकार रहते हुए अपने कार्यकाल में जो ऐतिहासिक और कठोर निर्णय लिए उसे भारत के राजनैतिक जीवन दर्शन में सदैव याद रखा जाएगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ हिंदी में भाषण
सन 1977 में आपात काल हटने के बाद जब जनता पार्टी की सरकार बनी, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी भाई देसाई ने उन्हें अपने काबीना मे विदेश मंत्री बनाया था। उस दौरान की एक घटना आज भी भारत ही नहीं विश्व भर में लोगों के जहन में ताजा है। संयुक्त राष्ट्र संघ में जब विदेश मंत्री के नाते अटलजी पहुंचे और भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी में सम्बोधन किया तो पूरा भारत झूम उठा था वे जब जहां और जैसे भी रहे सदैव भारत की मर्यादा और भारतमाता को वैभवशाली बनाने का कार्य किया।
‘‘पोखरण विस्फोट’’
पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का मानना था कि हमें हमारी सुरक्षा का पूरा अधिकार है। इसी के तहत मई 1998 में भारत ने पोखरण में परमाणु परीक्षण किया था। वह 1974 के बाद भारत का पहला परमाणु परीक्षण था। 11 मई 1998 यानी आज से 22 साल पहले राजस्थान के पोखरण में एक जोरदार धमाका हुआ और धरती हिल उठी। ये कोई भूकंप नहीं था, बल्कि हिंदुस्तान के शौर्य की धमक थी और भारत के परमाणु पराक्रम की गूंज थी। इस परीक्षण से भारत एक मजबूत और ताकतवर देश के रूप में दुनिया के सामने उभरा। दुनिया की प्रतिक्रियाएं स्वाभाविक थीं, लेकिन अब भारत के परमाणु महाशक्ति बनने का मार्ग प्रशस्त हो चुका था और वह दिन लदने जा रहे थे जब परमाणु क्लब में बैठे पांच देश अपनी आंखों के इशारे से दुनिया की तकदीर को बदलते थे। पोखरण ने हमें दुनिया के सामने सीना तानकर चलने की हिम्मत दी, हौसला दिया।
पोटा कानून
13 दिसंबर, 2001 को आतंकवादियों द्वारा भारतीय संसद पर हमला किया गया। इस हमले में कई सुरक्षाकर्मी शहीद हो गए। आतंरिक सुरक्षा के लिए सख्त कानून बनाने की मांग हुई और अटल बिहारी वाजपेयी जी के नेतृत्व में सरकार ने पोटा क़ानून बनाया, अत्यंत सख्त आतंकवाद निरोधी कानून था, जिसे 1995 के टाडा क़ानून के मुक़ाबले बेहद कड़ा माना गया था। हालांकि इस क़ानून के बनने के बाद ही इसको लेकर आलोचनाओं का दौर शुरू हो गया कि इसके ज़रिए सरकार विरोधियों को निशाना बना रही है। महज दो साल के अंदर इस क़ानून के तहत 800 लोगों को गिरफ़्तार किया गया। और क़रीब 4000 लोगों पर मुक़दमा दर्ज किए गए। उस दौरान वाजपेयी सरकार ने 32 संगठनों पर पोटा के तहत पाबंदी लगाई। 2004 में जब यूपीए सरकार सत्ता में आई तब ये क़ानून निरस्त कर दिया गया।
लाहौर बस सेवा की शुरुआत
अटलजी हमेशा पाकिस्तान से बेहतर रिश्ते की बात करते थे। उन्होंने पहल करते हुए दोनों देशों के बीच रिश्ते सुधारने की दिशा में काम किया। अटल बिहारी वाजपेयी के ही कार्यकाल में फरवरी, 1999 में दिल्ली-लाहौर बस सेवा की शुरूआत हुई थी। पहली बस सेवा से वे खुद लाहौर गए और पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ मिलकर लाहौर दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। वाजपेयी जी अपनी इस लाहौर यात्रा के दौरान मीनार-ए-पाकिस्तान भी गए। तब तक भारत का कोई भी कांग्रेसी प्रधानमंत्री मीनार-ए-पाकिस्तान जाने का साहस नहीं जुटा पाए थे। मीनार-ए-पाकिस्तान वो जगह है जहां पाकिस्तान को बनाने का प्रस्ताव 23 मार्च, 1940 को पास किया गया था।
जाति आधारित जनगणना पर रोक
1999 में अटल बिहारी वाजपेयी जी की सरकार के बनने से पहले एचडी देवगौड़ा सरकार ने जाति आधारित जनगणना कराने को मंजूरी दे दी थी जिसके चलते 2001 में जातिगत जनगणना होनी थी। मंडल कमीशन के प्रावधानों को लागू करने के बाद देश में पहली बार जनगणना 2001 में होनी थी, कमीशन के प्रावधानों को ठीक ढंग से लागू किया जा रहा है या नहीं इसे देखने के लिए जातिगत जनगणना कराए जाने की मांग जोर पकड़ रही थी। न्यायिक प्रणाली की ओर से बार-बार तथ्यात्मक आंकड़ों को जुटाने की बात कही जा रही थी ताकि कोई ठोस कार्य प्रणाली बनाई जा सके। तत्कालीन रजिस्टार जनरल ने भी जातिगत जनगणना की मंजूरी दे दी थी। लेकिन वाजपेयी सरकार ने इस फ़ैसले को पलट दिया। जिसके चलते जातिवार जनगणना नहीं हो पाई।
स्वर्णिम चतुर्भुज और ग्रामीण सड़क परियोजना
प्रधानमंत्री के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी ने देश को एक सूत्र में पिरोने के लिए सड़कों का जाल बिछाने का अहम फैसला लिया था, जिसे स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना नाम दिया गया। उन्होंने चेन्नई, कोलकाता, दिल्ली और मुबंई को जोड़ने के लिए स्वर्णिम चतुर्भुज सड़क परियोजना लागू किया। जिसका लाभ आज पूरे देश को मिल रहा है। आज उन्ही सड़कों के कारण आम आदमी का एक राज्य से दूसरे राज्य जाना आसान हुआ है। बड़े महानगरों के अलावा ग्रामीण इलाकों के लिए प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना लागू की। इस योजना के जरिए सभी गांवों में अच्छी सड़क बनी। जिससे वहां यातायात सुगम हुआ और ग्रामीणों को व्यापार के अच्छे अवसर मिले।
दूरसंचार क्रांति
देश में दूरसंचार क्रांति लाने और उसे गांव-गांव तक पहुचाने का श्रेय अटल बिहारी वाजपेयी को ही जाता है। वाजपेयी सरकार ने 1999 में बीएसएनएल के एकाधिकार को खत्म कर नई दूरसंचार नीति लागू की। नई नीति के जरिए लोगों को सस्ती कॉल दरें मिली और मोबाइल का चलन बढ़ा। इस फैसले के बाद ही टेलीकॉम ऑपरेटर्स ने मोबाइल सेवा शुरू की।
8 प्रतिशत से अधिक पहुंची थी आर्थिक वृद्धि दर
अटलजी की सबसे बढ़ी उपलब्धि आर्थिक मोर्चे पर रही। उन्होंने 1991 में नरसिंहराव सरकार के दौरान शुरू किये गए आर्थिक सुधारों को आगे बढ़ाया। 2004 में जब मनमोहन सिंह ने वाजपेयी सरकार के बाद सत्ता संभाली तब अर्थव्यवस्था की तस्वीर बेहद मजबूत थी। जीडीपी वृद्धि दर 8 प्रतिशत से अधिक थी, मंहगाई दर 4 प्रतिशत से कम थी और विदेशी मुद्रा भंडार रिकॉर्ड स्तर पर भरा था।
सर्व शिक्षा अभियान
6 से 14 साल के बच्चों को मुफ्त शिक्षा देने का अभियान ‘सर्व शिक्षा अभियान’ अटल बिहारी वाजपेयी के कार्यकाल में ही शुरू किया गया था। उनके इस क्रांतिकारी अभियान से साक्षरता और शिक्षा दर में अभूतपूर्व रूप से बढ़ोतरी हुई। लोगों ने पढ़ाई को महत्व दिया और अपने बच्चों को काम पर भेजने के बजाये पढ़ाई के लिए भेजना आरंभ किया। वाजपेयी सरकार के इस अभियान ने व्यापक सामाजिक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त किया।
जब डॉ. अब्दुल कलाम को भारत का राष्ट्रपति बनाया
नेहरूजी के जमाने से जनसंघ और वर्तमान की भाजपा, कांग्रेस सहित सभी विपक्षी दलों ने साम्प्रदायिकता का आरोप लगाया। अटलजी ने मिसाइल मैन प्रख्यात वैज्ञानिक डॉ. अब्दुल कलाम को भारत का राष्ट्रपति बनाकर साम्प्रदायिकता का आरोप लगाने वालों को करारा जवाब दिया।
अटलजी ने कभी भी ‘भारतमाता’ को अपनी आंखों से ओझल नहीं किया। वे जीए तो भारत मां के लिए और मरे भी तो भारत मां के लिए। भारत मां के ऐसे महान सपूत और अंतर्राष्ट्रीय व्यक्ति को भारतरत्न देकर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देश के सबसे बड़े सम्मान के साथ न्याय किया। इसके साथ ही जन-जन में यह विश्वास जगा कि भारत में कृतत्व को प्रणाम किया जाता है। इतना ही नहीं दिल्ली मे ‘सदैव अटल’ समाधि बनाकर संपूर्ण राष्ट्र की ओर से जो श्रद्धांजलि दी गई वह सदैव स्मरणीय रहेगा।
(लेखक पूर्व राज्य सभा सांसद हैं)

अच्छा नहीं इंतजार, रास्ता निकाले सरकार
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसान आंदोलन गंभीर रुप धारण करता जा रहा है। तीन हफ्ते बीत गए, लेकिन इसका कोई समाधान दिखाई नहीं पड़ रहा है। कृषि मंत्री और गृहमंत्री के साथ किसान नेताओं की कई दौर की बातचीत हो चुकी है लेकिन कितनी विचित्र स्थिति है कि अब सर्वोच्च न्यायालय को बीच में पड़ना पड़ रहा है। मुझे नहीं लगता कि अदालत की यह मध्यस्थता भी कुछ मददगार हो पाएगी, क्योंकि किसान इस पर अड़े हुए हैं कि सरकार इन तीनों कृषि सुधार कानूनों को वापस ले ले और सरकार किसानों को यह समझाने में लगी है कि ये कानून उनके फायदे के लिए ही बनाए गए हैं।
यह आंदोलन किसानों का है लेकिन विरोधी दलों की चांदी हो गई। उनके भाग्य से छत्ता टूट पड़ा है। पिछले छह साल में मोदी सरकार ने कई भयंकर भूलें कीं लेकिन विपक्ष उसका बाल भी बांका नहीं कर पाया लेकिन किसानों के बहाने विपक्ष के हाथ में अब ऐसा भौंपू आ गया है, जिसकी दहाड़ें देश और विदेशों में भी सुनी जा सकती हैं।
इस विसंगति के लिए मोदी सरकार की जिम्मेदारी कम नहीं है। उसने ये तीनों कृषि-कानून आनन-फानन बनाए और कोरोना के दौर में संसद से झटपट पास करा लिए। न तो उन पर संसद में जमकर बहस हुई और न ही किसानों से विचार-विमर्श किया गया। जैसे नोटबंदी, जीएसटी, तीन तलाक और नागरिकता संशोधन कानून एक झटके में थोप दिए गए, वही किसान-कानून के साथ किया गया। सरकार ने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उसके विरुद्ध इतना बड़ा आंदोलन उठ खड़ा होगा।
यह ठीक है कि यह आंदोलन विलक्षण है। देश में ऐसा आंदोलन पहले कभी नहीं हुआ। कड़ाके की ठंड में हजारों किसान तंबुओं और खुले आसमान के नीचे डटे हुए हैं। पंजाब और हरयाणा के इन किसानों के लिए खाने-पीने, बैठने-सोने और नित्य-कर्म का जैसा इंतजाम हम टीवी चैनलों पर देखते हैं, उसे देखकर दंग रह जाना पड़ता है। कोई राजनीतिक दल अपने प्रदर्शनकारियों के लिए ऐसा शानदार और सलीकेदार इंतजाम कभी नहीं कर सका। यह विश्वास ही नहीं होता कि जो लोग धरने पर बैठे हैं, वे भारत के गरीब किसान हैं।
इन किसानों पर यह आरेाप लगाना अनुचित है कि ये सब खालिस्तानी या पाकिस्तानी इशारों पर उचके हुए हैं। यह ठीक है कि वे सब भारत-विरोधी तत्व इस आंदोलन से प्रसन्न होंगे और हमारे अपने विरोधी दल भी इसमें क्यों नहीं अपनी रोटियां सेकेंगे, चाहे कल तक वे अपने चुनावी घोषणा पत्रों में इसी नीति का समर्थन करते रहे हों लेकिन हमारे किसानों की सराहना करनी पड़ेगी कि उन्होंने इन विघ्नसंतोषी नेताओं को जरा भी भाव नहीं दिए। वे स्वयं ही सरकार से बातें कर रहे हैं। इस आंदोलन को ब्रिटेन और कनाडा के कुछ भारतवंशियों का भी समर्थन मिल रहा है। लेकिन भारत की आम जनता बड़े असमंजस में है। अपने किसानों के लिए उसके दिल में प्रेम और सम्मान तो बहुत है लेकिन उसकी समझ में यह नहीं आ रहा है कि इन कानूनों से किसानों को क्या नुकसान होनेवाला है। सरकार ने वायदा किया है कि वह न्यूनतम समर्थन मूल्य कायम रखेगी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंकड़े देकर बताया है कि उनकी सरकार ने किसानों की गेहूं और धान की फसलों की खरीद में कितनी बढ़ोतरी की है और उन्हें कितनी ज्यादा कीमतों पर खरीदा है। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने लिखित आश्वासन दे दिया है कि समर्थन मूल्य की नीति कायम रहेगी और मंडी-व्यवस्था से छेड़छाड़ नहीं की जाएगी। यदि किसान बड़ी कंपनियों के साथ मिलकर खेती करना चाहेंगे और अपना माल मंडियों के बाहर बेचना चाहेंगे तो उन्हें यह सुविधा भी मिलेगी। यदि कंपनियों और किसानों के बीच कोई विवाद हुआ तो वे सरकारी अधिकारियों नहीं, अदालतों के शरण में जा सकेंगे। सरकार ने उपजों के भंडारण की सीमा भी खत्म कर दी है।
सरकार और अनेक कृषि विशेषज्ञों की राय है कि इन कानूनों से भारतीय खेती के आधुनिकीकरण की गति बहुत तेज हो जाएगी। किसानों को बेहतर बीज, सिंचाई, कटाई, भंडारण और बिक्री के अवसर मिलेंगे। अब तक भारतीय किसान एक एकड़ में जितना अनाज पैदा करता है, वह चीन और कोरिया जैसे देशों के मुकाबले एक-चौथाई है। भारत में खेती की जमीन दुनिया के ज्यादातर देशों के मुकाबले कई गुना ज्यादा है। देश में किसानों की संख्या का अनुपात भी अन्य देशों के मुकाबले कई गुना है। पंजाब, हरयाणा और उत्तरप्रदेश के मुट्ठीभर किसानों के अलावा भारतीय किसानों की हालत अत्यंत दयनीय है।
लेकिन हमारे किसान नेताओं का कहना है कि ये तीनों कानून थोपकर यह सरकार किसानों की अपनी गर्दन पूंजीपतियों के हाथ में दे देने की साजिश रच रही है। धीरे-धीरे न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था खत्म होती चली जाएगी, मंडियां उजड़ जाएंगी और आढ़तिए हाथ मलते रह जाएंगे।
किसानों में यह शंका इतनी ज्यादा घर कर गई है कि अब सरकार या अदालत शायद इसे दूर नहीं कर पाएगी। अभी तक तो किसानों ने सिर्फ रेल और सड़कों को ही थोड़े दिन तक रोका है लेकिन यदि वे तोड़-फोड़ और हिंसा पर उतारु हो गए तो क्या होगा ? सरकार हाथ पर हाथ धरे तो बैठ नहीं सकती। यदि वह प्रतिहिंसा पर उतर आई तो आम जनता की सहानुभूति भी किसानों के साथ हो जाएगी।
ऐसी स्थिति में अब सरकार क्या करे? वह चाहे तो राज्यों को छूट दे दे। जिन राज्यों को यह कानून लागू करना हो वे करें, जिन्हें न करना हो, न करें। या फिर सरकार आंदोलनकारी समर्थ किसानों के मुकाबले देश के सभी किसानों के समानांतर धरने-प्रदर्शन आयोजित करे या वह इन कृषि-कानूनों को वापस ले ले। अब भी देश के 94 प्रतिशत किसान एमएसपी की दया पर निर्भर नहीं हैं। वे मुक्त हैं, किसी भी कंपनी से सौदा करने, अपना माल खुले बाजार में बेचने और अपनी खेती का आधुनिकीकरण करने के लिए। इन कानूनों के रहने या न रहने से उनको कोई खास फायदा या नुकसान नहीं है। केंद्र सरकार चाहे तो केरल की कम्युनिस्ट सरकार की तरह, जैसे 16 सब्जियों पर उसने समर्थन मूल्य घोषित किए हैं, वैसे दर्जनों अनाज, फल और सब्जियों पर भी घोषित कर सकती है। उन्हें वह खरीदे ही यह जरुरी नहीं है। सरकार किसानों पर कृपा करने का श्रेय-लाभ लेने की बजाय उन्हें अपने हाल पर ही छोड़ दे तो क्या बेहतर नहीं होगा ?

आयुर्वेद सर्जरी सर्वोत्तम !
वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
आयुर्वेद यानी आयु +वेद = आयुर्वेद. आयु यानि शरीर आत्मा मन और इन्द्रियों के संयोग को आयु कहते हैं और जिस शास्त्र में या वेद या विज्ञानं में जिसे पढ़ाया जाता हैं उसे आयुर्विज्ञान या आयुर्वेद कहते हैं .आयुर्वेद का मूल सिद्धांत स्वस्थ्य के स्वास्थय की रक्षा करना और रोगी का इलाज़ करना आयुर्वेद सम्पूर्ण चिकित्सा शास्त्र हैं .
कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है।
भारत में आज भले ही आयुर्वेद लोगों की पहली पसंद न हो, लेकिन एक वक्त था जब यहां एलोपैथी का नाम तक नहीं था। लोग आयुर्वेद से ही सभी तरह का इलाज कराते थे। इसमें सर्जरी भी शामिल थी। ईसा पूर्व छठी सदी (आज से लगभग 2500 साल पहले) में धंवंतरि के शिष्य सुश्रुत ने सुश्रुत संहिता की रचना की जबकि एलोपैथी में मॉडर्न सर्जरी की शुरुआत सैकड़ों वर्षों में मान सकते हैं।
बेशक आयुर्वेद भारत का बहुत ही पुराना इलाज का तरीका है। जड़ी-बूटियों, मिनरल्स, लोहा (आयरन), मर्करी (पारा), सोना, चांदी जैसी धातुओं के जरिए इसमें इलाज किया जाता है। हालांकि कुछ लोग ही इस बात को जानते हैं कि आयुर्वेद में सर्जरी (शल्य चिकित्सा) का भी अहम स्थान है। सुश्रुत संहिता में स्पेशलिटी के आधार पर आयुर्वेद को 8 हिस्सों में बांटा गया है:
1. काय चिकित्सा (मेडिसिन): ऐसी बीमारियां जिनमें अमूमन दवाई से इलाज मुमकिन है, जैसे विभिन्न तरह के बुखार, खांसी, पाचन संबंधी बीमारियां।
2. शल्य तंत्र (सर्जरी): वे बीमारियां जिनमें सर्जरी की जरूरत होती है, जैसे फिस्टुला, पाइल्स आदि।
3. शालाक्य तंत्र (इ. इन .टी ): आंख, कान, नाक, मुंह और गले के रोग।
4. कौमार भृत्य (महिला और बच्चे): स्त्री रोग, प्रसव विज्ञान, बच्चों को होने वाली बीमारियां।
5. अगद तंत्र (विष विज्ञान): ये सभी प्रकार के विषों, जैसे सांप का जहर, धतूरा आदि जैसे जहरीले पौधे का शरीर पर पड़ने वाले असर और उनकी चिकित्सा का विज्ञान है।
6. रसायन तंत्र (रीजूवनेशन और जेरियट्रिक्स): इंसानों को स्वस्थ कैसे रखा जाए और उम्र का असर कैसे कम हो।
7. वाजीकरण तंत्र (सेक्सॉलजी): लंबे समय तक काम शक्ति (सेक्स पावर) को कैसे संजोकर रखा जाए।
8. भूत विद्या (साइकायट्री): मनोरोग से संबंधित।
सर्जरी शुरुआत से ही आयुर्वेद का एक खास हिस्सा रहा है। महर्षि चरक ने जहां चरक-संहिता को काय-चिकित्सा (मेडिसिन) के एक अहम ग्रंथ के रूप में बताया है, वहीं महर्षि सुश्रुत ने शल्य-चिकित्सा (सर्जरी) के लिए सुश्रुत संहिता लिखी। इसमें सर्जरी से संबंधित सभी तरह की जानकारी उपलब्ध है।
सर्जरी के 3 भाग बताए गए हैं:
1. पूर्व कर्म (प्री-ऑपरेटिव)
2. प्रधान कर्म (ऑपरेटिव)
3. पश्चात कर्म (पोस्ट-ऑपरेटिव)
इन तीनों प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए ‘अष्टविध शस्त्र कर्म’ (आठ विधियां) करने की बात कही गई है:
1. छेदन (एक्सिजन): शरीर के किसी भाग को काट कर निकालना।
2. भेदन (इंसिजन): किसी भी तरह की सर्जरी के लिए शरीर में चीरा लगाना।
3. लेखन (स्क्रैपिंग): शरीर के दूषित भाग को खुरच कर दूर करना।
4. वेधन (पंक्चरिंग): शरीर के फोड़े से पूय (पस) या दूषितद्रव लिक्विड को सुई से छेद करके निकालना।
5. ऐषण (प्रोबिंग): भगंदर जैसी बीमारियों को जांचना। इसमें टेस्ट के लिए धातु के उपकरण एषणी (प्रोब) की मदद ली जाती है।
6. आहरण (एक्स्ट्रक्सन): शरीर में पहुंचे किसी भी तरह के बाहरी पदार्थ को औजार से खींचकर बाहर निकालना, जैसे- गोली, पथरी या दांत।
7. विस्रावण (ड्रेनेज): पेट, जोड़ों या फेफड़ों में भरे अतिरिक्त पानी को सुई की मदद से बाहर निकालना।
8. सीवन (सुचरिंग): सर्जरी के बाद (शरीर में चोट लगने से कटे-फटे अंग और त्वचा) को वापस उसी जगह पर जोड़ देना।
इनके अलावा, घाव कितने तरह के होते हैं, सीवन (घाव सीने या कटे अंगों को जोड़ने) में इस्तेमाल होने वाला धागा कैसा होना चाहिए, सीवन कितने तरह की होती हैं और सीवन का काम किस प्रकार से करें, ये सभी बातें बहुत ही विस्तार से सुश्रुत संहिता मे समझाई गई हैं।
जाहिर है, जब सर्जरी होती है तो इसमें सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट्स की भी जरूरत होगी। सुश्रुत ने 101 तरह के यंत्रों के बारे में बताया है। विभिन्न प्रकार की चिमटियां (फोरसेप्स) और दर्शन यंत्र (स्कोप्स) शामिल हैं। ताज्जुब की बात है कि सुश्रुत ने चिमटियों का जो वर्णन विभिन्न पशु-पक्षियों के मुंह की आकृति के आधार पर किया था, वे औजार आज भी उसी प्रकार से वर्गीकृत हैं। इन औजारों का उपयोग मॉडर्न मेडिसिन के सर्जन जरूरत के हिसाब से वैसे ही कर रहे हैं, जैसा पहले आयुर्वेद के सर्जन करते थे।
कौन-कौन-सी सर्जरी किन-किन बीमारियों में करनी चाहिए, यह वर्णन भी सुश्रुत संहिता में किया गया है। बड़ी सर्जरी जैसे उदर विपाटन (लेप्रोटमी) किन रोगों में करें और छोटी या बड़ी आंत (स्मॉल या लार्ज इंटस्टाइन) में छेदन (एक्सिजन), भेदन (इंसिजन) करने के बाद उनका मिलान और सीवन (घाव को सीने का काम) किस प्रकार से करें और चीटों का इस्तेमाल कैसे करें, इसके बारे में भी सुश्रुत संहिता में उल्लेख है।
आयुर्वेदिक सर्जरी की खासियत
खून में होने वाली गड़बड़ी को आयुर्वेद में बीमारियों का सबसे अहम कारण माना गया है। इन्हें दूर करने के दो उपाय बताए गए हैं- पहला है, सिर्फ दवाई लेना और दूसरा दवाई के साथ खून की सफाई (रक्त-मोक्षण)। दूषित रक्त को हटाना सर्जरी की एक प्रक्रिया है। इसके लिए आयुर्वेद में खास विधि अपनाई जाती है।
लीच थेरपी
आयुर्वेद में खून की सफाई के लिए जलौकावचरण (लीच थेरपी) का विस्तार से वर्णन किया गया है। जैसे, किस तरह के घाव में जलौका यानी जोंक (लीच) का उपयोग करना चाहिए, यह कितने प्रकार की होती है, जलौका किस प्रकार से लगानी चाहिए और उन्हें किस तरह रखा जाता है, ऐसे सभी सवालों के जवाब हमें सुश्रुत संहिता में मिलते हैं। आर्टरीज और वेन्स में खून का जमना और पित्त की समस्या से होने वाले बीमारी, जैसे: फोड़े, फुंसियों और त्वचा से जुड़ी परेशानियों में लीच थेरपी से जल्दी फायदा होता है।
दरअसल, जलौका दो तरह के होते हैं- सविष (विषैली) और निर्विष (विष विहीन)। चिकित्सा के लिए निर्विष जलौका का प्रयोग किया जाता है। इन दोनों को देखकर भी पहचाना जा सकता है। निर्विष जलौका जहां हरे रंग की चिकनी त्वचा वाली और बिना बालों वाली होती है। सविष जलौका गहरे काले रंग का और खुरदरी त्वचा वाला होता है। इस पर बाल भी होती हैं। अमूमन निर्विष जलौका साफ बहते हुए पानी में मिलती हैं, जबकि सविष जलौका गंदे ठहरे हुए पानी और तालाबों में पाई जाती है। ऐसा माना जाता है कि जलौका दूषित रक्त को ही चूसती है, शुद्ध रक्त को छोड़ देती है। जलौका (लीच) लगाने की क्रिया सप्ताह में एक बार की जाती है। इस प्रक्रिया में मामूली-सा घाव बनता है, जिस पर पट्टी करके उसी दिन रोगी को घर भेज दिया जाता है।
प्लास्टिक सर्जरी
प्राचीन काल में युद्ध तलवारों से होते थे और अक्सर योद्धाओं की नाक या कान कट जाते थे। कटे हुए कान और नाक को फिर से किस प्रकार से जोड़ा जाए, इस प्रक्रिया की पूरी जानकारी सुश्रुत संहिता में दी गई है। इसके लिए संधान कर्म (प्लास्टिक सर्जरी) की जाती थी। इन्हीं खासियतों की वजह से महर्षि सुश्रुत को ‘फादर ऑफ सर्जरी’ भी कहा जाता है। फिलहाल आयुर्वेद में प्लास्टिक सर्जरी चलन में बहुत कम है।
क्षार सूत्र चिकित्सा: ब्लड लेस सर्जरी का एक प्रकार
शरीर के कई ऐसे हिस्से हैं जिन पर सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट्स से सर्जरी नहीं करने की बात कही गई है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए गुदा (एनस) में होने वाली समस्याएं, जैसे: अर्श या बवासीर (पाइल्स) और भगंदर (फिस्टुला) में ‘क्षार सूत्र चिकित्सा’ का इस्तेमाल बहुत कामयाब रहा है। इस इलाज में मरीज को अपने काम से छुट्टी भी नहीं लेनी पड़ती क्योंकि कोई बड़ा जख्म नहीं बनता और खून भी नहीं निकलता। यह ब्लडलेस सर्जरी का बेहतरीन उदाहरण है।
यह सच है कि जब से ऐनिस्थीसिया की खोज हुई है, शरीर के किसी भी हिस्से की सर्जरी करना आसान हो गया है, लेकिन एनस/गुदा जैसी जगहों पर सर्जरी से मिलने वाली कामयाबी को लेकर अभी निश्चिंत नहीं हुआ जा सकता। यही वजह है कि आयुर्वेद में फिस्टुला या पाइल्स के मामले में सर्जरी इंस्ट्रूमेंट्स (औजारों) की मदद से नहीं बल्कि क्षार (ऐल्कली) की जाती है। क्षार की सबसे बड़ी विशेषता है कि यह औजार न होते हुए भी किसी अंग को काटने, हटाने की उतनी ही क्षमता रखता है जितना कि कोई सर्जिकल इंस्ट्रूमेंट।
क्या होते हैं क्षार (ऐल्कली)?
इस काम के लिए कुछ खास औषधीय पौधों का प्रयोग किया जाता है, जैसे: अपामार्ग (लटजीरा), यव, मूली, पुनर्नवा, अर्क
इनमें से जिस भी पौधे का क्षार बनाना हो, उसके पंचांग (पौधे के सभी 5 भाग: जड़, तना, पत्ती, फूल और फल) को सबसे पहले धोकर सुखा लिया जाता है। इसके बाद इनके छोटे-छोटे टुकड़े करके एक बड़े बर्तन में रखकर उसको जला लेते हैं। जलाने में किसी प्रकार का ईंधन या दूसरी चीजों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। पौधे के टुकड़ों को जला दिया जाता है।
जलने के बाद बनी राख को 8 गुने जल में घोला जाता है। इसके बाद महीन कपड़े से कम से कम 21 बार छानकर उसे तब तक उबाला जाता है जब तक कि पूरा पानी भाप न बन जाए। इसके बाद बर्तन में नीचे जो लाल या भूरे रंग का पाउडर बचता है, उसे ही क्षार कहते हैं। बर्तन से उसे खुरचकर और थोड़ा पीसकर किसी कांच की शीशी में इस तरह से जमा किया जाता है कि उसका संपर्क हवा से पूरी तरह से खत्म हो जाए क्योंकि क्षार हवा की नमी सोखकर अपना असर खो देते हैं।
कितने तरह के क्षार?
क्षार दो तरह के होते हैं। जिनका प्रयोग औषधि के रूप में खाने के लिए किया जाता है उन्हें पानीय (खाने लायक) क्षार कहते हैं। जिनका इस्तेमाल घाव या किसी अंग विशेष पर किया जाता है, उन्हें प्रतिसारणीय (शरीर पर लगाने वाले) क्षार कहते हैं। क्षार सूत्र बनाने के लिए शरीर पर लगाने वाले क्षारों यानी प्रतिसारणीय क्षार का प्रयोग किया जाता है।
क्या होता है क्षार सूत्र और ये कैसे बनाए जाते हैं?
पक्के धागे पर क्षार की लगभग 21 परतें चढ़ाकर जो सूत्र या धागा बनाया जाता है उसे ही क्षार सूत्र कहते हैं। इसका इस्तेमाल सर्जरी में किया जाता है। क्षार सूत्र बनाने के लिए मुख्य रूप से 4 चीजों की जरूरत पड़ती है:
1. पक्का धागा
2. धागा बांधने के लिए एक फ्रेम
3. औषधियां
4. स्पेशलिस्ट
औषधियां: स्नुही दूध (कैक्टस के पौधे से निकला हुआ लिक्विड), उपरोक्त में से कोई भी क्षार (बेस) और हल्दी पाउडर।
सबसे पहले स्पेशलिस्ट सुबह में स्नुही यानी कैक्टस के कांटेदार पौधे के तने पर चाकू से सावधानीपूर्वक तेज चीरा लगाता है। चीरा लगाते ही तने से दूध निकलने लगता है जिसे कांच की शीशी में इकट्ठा कर लिया जाता है। एक फ्रेम पर धागा कस कर पहले ही रख लिया जाता है। करीब 50 ml दूध में रुई को डुबोकर फ्रेम पर लगे धागे पर 10 बार लगाया जाता है। हर बार दूध लगाने के बाद धागे को धूप में रख कर सुखा लेते हैं, फिर उसी पर दूसरा लेप लगाते हैं। इसके बाद 7 बार दूध लगाकर फिर क्षार के पाउडर को धागे के ऊपर लगा कर सुखा लिया जाता है। अंत में 4 बार दूध, फिर क्षार और हल्दी, तीनों को धागे के ऊपर लगाकर तेज धूप में सुखा लिया जाता है और फिर फ्रेम पर से उतार लिया जाता है। करीब 1 फुट लंबे धागे को काटकर कांच की परखनली में रख लिया जाता है। इस परखनली को अच्छी तरह से सील कर दिया जाता है ताकि उसमें हवा न घुस सके। यह काम विशेषज्ञ सर्जरी में इस्तेमाल होने वाले दस्ताने पहनकर करता है क्योंकि स्नुही दूध और क्षार काफी तेज होते हैं। इनमें त्वचा (स्किन) को काटने की क्षमता होती है। विकल्प के तौर पर बढ़िया क्वॉलिटी की पॉलिथीन की थैली में भी क्षार सूत्र को अच्छी तरह से सील करके रखा जा सकता है।
आजकल क्षार सूत्र बनाने में काफी प्रगति हुई है। केंद्रीय आयुर्वेदिक अनुसंधान केंद्र ने आईआईटी, दिल्ली के सहयोग से क्षार सूत्र बनाने की ऑटोमैटिक मशीन तैयार की है, जिसकी सहायता से काफी कम समय में क्षार सूत्र तैयार किए जा सकते हैं।
किन बीमारियों में क्षार सूत्र का इस्तेमाल
क्षार सूत्र का इस्तेमाल अर्श या बवासीर (पाइल्स) और भगंदर (फिस्टुला) जैसी बीमारियों में किया जाता है। यह सर्जरी कहलाती है और इस काम को आयुर्वेदिक सर्जन ही अंजाम देते हैं। अच्छी बात यह है कि इस इलाज मंर किसी प्रकार की काट-छांट नहीं होती, न ही खून निकलता है।
दूसरी बीमारियां, जिनमें क्षार सूत्र का प्रयोग किया जाता है, वे हैं: नाड़ीवण (साइनस), त्वचा पर उगने वाले मस्से और कील। नाक के अंदर होने वाले मस्से में भी क्षारों का प्रयोग किया जाता है जिससे वे धीरे-धीरे कटकर नष्ट हो जाते हैं। त्वचा पर होने वाले उभार या ग्रंथियों को भी क्षार सूत्र से बांध कर नष्ट किया जा सकता है।
बवासीर में क्षार सूत्र ट्रीटमेंट
बवासीर में गुदा (एनस) में जो मस्से बन जाते हैं, उनकी जड़ को क्षार सूत्र से कसकर बांध दिया जाता है जिससे वे खुद ही सूख कर गिर जाते हैं। ये काम दो प्रकार से होते हैं। मस्से अगर बड़े हैं तो सर्जन एनस के बाहर (बाह्य अर्श या एक्सटर्नल पाइल्स) और अंदर वाले अर्श (इंटरनल पाइल्स) की जड़ों में क्षार सूत्र को बांध देते हैं। लेकिन अगर मस्से की जड़ें छोटी हैं या फिर ज्यादा अंदर की तरफ हैं तो क्षार सूत्र को अर्धचंद्राकार सुई में पिरोकर उसे मस्से की जड़ों के आर-पार करके जड़ की चारों ओर कसकर बांध दिया जाता है। इस काम में लोकल ऐनिस्थीसिया की जरूरत होती है और कभी-कभी स्पाइनल या जनरल ऐनिस्थीसिया की भी। ऐसे में किसी ऐनिस्थीसिया स्पेशलिस्ट की मदद ली जाती है, जिससे क्षार सूत्र बांधने का काम सही तरीके से हो सके और मरीज को दर्द भी न हो।
फिस्टुला का इलाज
भगंदर यानी फिस्टुला में गुदा के आसपास पहले एक फोड़ा निकलता है। एलोपैथी में इसका इलाज यह है कि इस फोड़े में छेद करके पस को बाहर निकाल दिया जाता है, फिर छेदन करके उस हिस्से को काटकर अलग कर देते हैं। इसके बाद सामान्य तरीके से मरहम-पट्टी करके मरीज को छोड़ दिया जाता है। ऐसे घाव को भरने का समय घाव की लंबाई, चौड़ाई और गहराई के हिसाब से कुछ दिनों से लेकर हफ्तों या महीनों तक हो सकता है। कुछ मरीजों में एक बार ठीक होने के बाद समस्या फिर से उभर आती है और दोबारा सर्जरी की जरूरत पड़ती है। बार-बार सर्जरी की वजह से मरीज के एनल स्फिंक्टर के क्षतिग्रस्त होने का खतरा बढ़ जाता है जिससे मरीज के मल को रोकने की शक्ति कम हो जाती है। ऐसे में फिस्टुला के इलाज के लिए बहुत ज्यादा सर्जरी भी नहीं की जा सकती। इस स्थिति में क्षार सूत्र-चिकित्सा काफी कामयाब है।
आयुर्वेद से एक्स्ट्रा मस्सों को हटाना मुमकिन
मस्सों की जड़ों में क्षारसूत्र को खास तरह की गांठ द्वारा बांधा जाता है। इसमें मस्सों को अंदर कर दिया जाता है और धागा बाहर की ओर लटकता रहता है। इसे बेंडेज द्वारा स्थिर कर दिया जाता है।
-मस्सों को हटाने में एक से दो हफ्ते का समय लग सकता है।
-इस दौरान क्षारसूत्र के जरिए दवाएं धीरे-धीरे मस्से को काटती रहती हैं और आखिरकार सुखाकर गिरा देती हैं। मस्से गिरने के साथ ही धागा भी अपने आप गिर जाता है। इसमें दर्द नहीं होता।
-इस दौरान मरीज को कुछ दवाओं का सेवन करने के लिए कहा जाता है और ऐसी चीजें ज्यादा खाने की सलाह दी जाती हैं जो कब्ज दूर करने में सहायक हों। इनके अलावा गर्म पानी की सिकाई और कुछ व्यायाम भी बताए जाते हैं।
-क्षारसूत्र चिकित्सा के लिए अस्पताल में भर्ती होने की भी जरूरत नहीं होती।
आयुर्वेदिक सर्जरी के बाद 10 बातें जो जरूर ध्यान रखें:
1. सर्जरी से पहले मरीज और उसके रिश्तेदारों को होने वाले सर्जरी और उसके नतीजे के बारे में पूरी जानकारी रखनी चाहिए।
2. सर्जरी के पहले और बाद में क्या नहीं खाना, खाना कब और कैसे शुरू करना है जैसी बातें आयुर्वेदिक चिकित्सक की सलाह से ही करनी चाहिए।
3. दवाई कब लेनी है, खाने के बाद लेनी है या पहले, अगर पहले लेनी है तो कितनी देर पेट खाली रहने के बाद, दवाई लेने के कितनी देर बाद खाना खाना है, जैसी बातों को अच्छी तरह से समझ लें।
4. सर्जरी के बाद जख्म की साफ-सफाई, पट्टी आदि डॉक्टर की देखरेख में ही करवाएं क्योंकि आपकी थोड़ी-सी जल्दबाजी और लापरवाही सर्जरी को असफल बना सकती है।
5. किसी भी प्रकार की एक्सरसाइज या शारीरिक मेहनत तब तक न करें जब तक कि आपका डॉक्टर इसकी इजाजत न दे।
6. फिजिकल रिलेशन बनाने में जल्दी न करें और डॉक्टर के निर्देशों का पालन करें।
7. शरीर की सफाई रखें और गर्मी में ठंडे पानी से और सर्दी में गर्म पानी से नहाएं।
8. कपड़े और बेड की चादर आदि को हर दिन बदलें ताकि इन्फेक्शन दूर रहे।
9. कार या बाइक चलाने की जल्दी न करें। पूरी तरह से ठीक होने तक इंतजार करें।
10. अपने सर्जन में, उनकी योग्यता में पूरा विश्वास रखें। सर्जरी के बाद होने वाली किसी भी समस्या जैसे, घाव से खून आने, भूख न लगने, बुखार हो जाने, दस्त होने, घाव में दर्द होने, पेशाब में परेशानी होने पर फौरन ही डॉक्टर से संपर्क करें।
जरूरी सवालों के जवाब
– किस तरह की सर्जरी आयुर्वेद से करनी चाहिए और किस तरह की नहीं?
किसी भी इलाज की विशेषता उसकी अपनी टेक्नॉलजी और दवाइयां होती हैं। बड़ी से बड़ी और छोटी से छोटी सर्जरी में भी आयुर्वेद के सर्जन आयुर्वेदिक से जुड़ी तकनीक और दवाओं का ही इस्तेमाल करते हैं। माना जाता है कि ऐसा कोई भी इलाज जिसमें दूसरी फील्ड के तरीकों और इलाज का इस्तेमाल करना पड़े, अपनी विशेषता खो देता है। जैसे यदि किसी मरीज को सर्जरी के दौरान किसी भी अवस्था में वेन्स के द्वारा (इंट्रा-वीनस) ग्लूकोज, वॉटर, मिनरल्स, ब्लड और दवाइयां देने की जरूरत पड़े तो यह आयुर्वेद के बुनियादी उसूलों के खिलाफ है। इस बात पर जोर दिया जाता है कि जहां आयुर्वेद और एलोपैथी के बीच कोई फर्क ही न रहे, ऐसी सर्जरी आयुर्वेदिक सर्जन को नहीं करनी चाहिए। हां, लोकल एनिस्थीसिया या पूरी तरह से बेहोश करने की जरूरत हो तो सिर्फ मदद के तौर पर एलोपैथी के इस तरीके का इस्तेमाल के लिए विशेषज्ञ की सहायता ली जा सकती है।
– अगर कोई सर्जरी होती है तो आयुर्वेद में क्या इसके लिए कोई अतिरिक्त चुनौती भी है?
सर्जरी किसी भी तरह की हो चुनौती तो होती है, लेकिन आयुर्वेद की सर्जरी कम जोखिम वाली है।
मान लें, किसी ने आयुर्वेदिक डॉक्टर से सर्जरी कराई। अगर कोई समस्या आ गई तो क्या वह दोबारा आयुर्वेदिक सर्जन के पास जाए या एलोपैथिक सर्जन के पास?
अमूमन आयुर्वेदिक सर्जरी के बाद होने वाली किसी भी समस्या के लिए पहले उसी आयुर्वेदिक सर्जन के पास जाना चाहिए, जिसने सर्जरी की है। ध्यान देने वाली बात यह है कि मरीज का सर्जन में विश्वास और सर्जन का खुद में विश्वास मरीज को जरूर फायदा पहुंचाता है। यही किसी भी इलाज की कामयाबी की चाबी है। कई बार ऐसा देखा जाता है कि मरीज को सब कुछ करने के बाद भी मॉडर्न सर्जन से फायदा नहीं मिल रहा है तो वह आयुर्वेदिक सर्जन के पास पहुंचता है। यहां भी फायदा न मिलने पर वह वापस एलोपैथिक सर्जन के पास चला जाता है। तो कहने का मतलब यह है कि मरीज को फायदा होना चाहिए और इसके लिए वह कहीं भी, किसी के भी पास जाने के लिए आजाद है। यह एक सामान्य चलन है।
आयुर्वेद की सर्जरी एलोपैथी से अलग और बेहतर कैसे है?
आयुर्वेदिक सर्जरी और एलोपैथिक सर्जरी दोनों ही अपने आप में खास हैं। इनमें आपस में कोई कॉम्पिटिशन या विरोध नहीं है। आयुर्वेद की प्लास्टिक सर्जरी और क्षार सूत्र चिकित्सा को एलोपैथी ने खुशी से अपनाया है। आधुनिक एलोपैथिक सर्जन भी इन विधियों से मरीजों का इलाज कर रहे हैं। सर्जरी एक तकनीक है जो दोनों विधियों में लगभग सामान्य है। अगर कोई फर्क है तो वह दवाइयों का है जो सर्जरी के दौरान मरीज को दी जाती है और उन्हीं के आधार पर हम एक को आयुर्वेदिक सर्जरी और दूसरी को एलोपैथिक सर्जरी कहते हैं। इनमें कुछ अपवाद हैं, जैसे: क्षार सूत्र चिकित्सा, अग्नि कर्म, जलौका-लगाना और रक्त मोक्षण सिर्फ आयुर्वेद की खासियत हैं। वहीं, ऑर्गन ट्रांसप्लांट, बाईपास सर्जरी, लेजर और की-होल रोबॉटिक सर्जरी आदि एलोपैथी की खासियत हैं।
– क्या नहीं खाना और क्या खाना चाहिए?
इस विषय में डॉक्टर के निर्देशों का पालन करें। आयुर्वेद में अमूमन कम तेल और कम मिर्च-मसालों वाली चीजें ही खाने के लिए कहा जाता है। यदि मरीज को शुगर और हाई बीपी की समस्या है तो डॉक्टर ने जिस तरह का खाना बताया है, उसका पूरी तरह से पालन करना चाहिए। यह भी मुमकिन है कि डॉक्टर कुछ दिनों के लिए सिर्फ तरल पदार्थ लेने को कहे। ऐसे में डॉक्टर की कही गई बातों को जरूर मानें। वह जिस तरह का पेय लेने को कहे, वही लें। अपने मन से कुछ भी न लें।
डॉक्टर की डिग्री कम से कम क्या होनी चाहिए?
सर्जरी एक स्पेशल साइंस है, जिसके लिए स्पेशल एजुकेशन और प्रैक्टिस की जरूरत होती है। आयुर्वेद में भी सर्जन बनने के लिए तीन साल की मास्टर ऑफ सर्जरी (एमएस आयुर्वेद) की जरूरत होती है जो ग्रैजुएशन (बीएएमएस) के बाद ही की जा सकती है। वैसे, महारत हासिल करने के लिए एमएस आयुर्वेद करने के बाद पीएचडी भी की जा सकती है, लेकिन एक आयुर्वेद सर्जन बनने के लिए कम से कम एमएस आयुर्वेद बहुत जरूरी है।
इस प्रकार जन सामान्य के साथ बुद्धिजीवियों को भी आयुर्वेद विज्ञान के बारे में फैली भ्रांतियां दूर करने का प्रयास किया गया हैं .इसके साथ तकनीकी आधुनिक होने से कुछ सुगमता हैं पर मूलतः सिद्धांत वे ही हैं जो हजारों साल पूर्व बताये गए थे .
सन्दर्भ –सुश्रुत्र संहिता

जनता की सरकार, पहुंच रही जनता के द्वार
डॉ. शिवकुमार डहरिया
दो साल पहले तक शहरों की तस्वीर कुछ और ही थी। न तो नागरिकों के लिए बेहतर सुविधाएं थीं और न ही विकास का ऐसा रोडमेप, जो जनता की सुविधाओं से जुड़ा हो। वक्त के साथ समय का पहिया आगे बढता़ गया। यह जनता की एक ऐसी सरकार है, जिसे भरोसा और विश्वास के साथ जनता ने बहुत मजबूती के साथ सत्ता में बिठाया। जनता की इन्हीं आकांक्षाओं, उम्मीदों पर खरा उतरने नई सरकार ने विकास का ऐसा रोडमेप तैयार किया कि आम नागरिकों को नई तस्वीर दिखाई देने के साथ उनसे जुड़ी सुविधाएं भी उनके द्वार तक पहुंचने लगी है। विगत दो साल में किए गए कार्यों का ही परिणाम है कि मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में नगरीय प्रशासन विभाग अंतर्गत योजनाओं और नागरिकों से जुड़ी सेवाओं में उल्लेखनीय कार्य करने पर पूरे देश में शहरी गवर्नेंस इंडेक्स-2020 रैंकिंग में छत्तीसगढ़ को तीसरा स्थान हासिल किया है। छत्तीसगढ़ ने देश भर में ओपन डाटा पोर्टल तक नागरिकों की पहुंच के मामले में पहला स्थान, नागरिक समस्याओं के समाधान के मामले में दूसरी रैंक और करों के राजकोषीय प्रबंधन में पहली रैंक नगरीय निकायों के चुने हुए जनप्रतिनिधियों और विधायी परिषदों के सशक्तीकरण के मामले में दूसरी रैंक, नागरिक सशक्तीकरण में तीसरी रैंक हासिल की है।
विकास के नये आयाम को देखे तो शहर अब सिर्फ शहर ही नहीं है, शहर अब स्मार्ट शहर के रूप में पहचान बनाने जा रही है। स्वाभाविक है कि नई कालोनियां छोटे-छोटे शहरों की अपेक्षा वर्तमान और भविष्य की जरूरतों के मुताबिक अनेक सुविधाओं का स्वप्न लेकर बस रही हैं। इन काॅलोनियों में नई पीढ़ी है। नई सोच है और नई जरूरतें हैं। यूं कहें कि शहरों की परिभाषा अब सिर्फ व्यावसायिक दुकानें और बड़े-बड़े दफ्तर, शैक्षणिक संस्थान ही नहीं रहे। शहर अब चैड़ी सड़कों में सरपट भागती मोटर-कारों, दिन के उजालों में सड़क के आजू-बाजू हरियाली,रंगबिरंगी फूलों और रात के अंधेरों में जगमगाती स्ट्रीट लाइट, रेडियम से चमकते हुई रोड डिवाइडर और रोड स्टड से ब्लींक करते चैराहे, बहुमंजिला पार्किंग के साथ व्यवस्थित दुकानें, सुंदरता पर चार चांद लगाती चैराहे सहित अनगिनत नए दृश्य वर्तमान में एक नए शहर का स्वरूप है। शहरों के इस बदलते स्वरूप के बीच नई पीढ़ी के नागरिकों की अनेक आवश्यकताएं हैं। इन आवश्कताओं की पूर्ति के लिए छत्तीसगढ़ की सरकार भी पुरानी पीढ़ी की सुविधाओं का ख्याल रखते हुए नई पीढ़ी के लोगों के साथ नई सोच के साथ कदम बढ़ा रही है।
मुख्यमंत्री श्री भूपेश बघेल के नेतृत्व में नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग छत्तीसगढ़ के शहरों का कायाकल्प करने में जुटा है। शहर स्वच्छ हो सुंदर हो और स्मार्ट हो इस दिशा में निरन्तर कार्य किये जा रहे हंै। शहर और गली मुहल्लों में स्ट्रीट लाइट के माध्यम से अंधेरा दूर कर हर जगह नई रोशनी बिखेरी जा रही है। आम नागरिकों की जरूरतों के अनुरूप सड़कों को चैड़ी ही नहीं अपितु अन्य सुविधाएं भी उपलब्ध कराई जा रही हंै। व्यवस्थित बाजार, व्यवस्थित पार्किंग, पानी निकासी, ड्रेनेज निर्माण, अपशिष्ट का प्रबंधन, स्वच्छ पेयजल व्यवस्था, बच्चों-बुजुर्गों, आकर्षक उद्यान से लेकर नागरिकों की मूलभूत सुविधाओं का विकास किया जा रहा है।
नगरीय क्षेत्रों में लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं से जुड़ी जरूरतों को पूरा करने के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य, गरीबों के उन्नयन, स्वच्छता से संबंधित कार्य, शहरी गरीबों के लिए आवास, घर-घर पेयजल उपलब्ध कराने की दिशा में पहले से बेहतर कदम उठाया जा रहा है।
इस कड़ी में मुख्यमंत्री वार्ड कार्यालय नागरिक सुविधाओं के लिए वरदान बनता जा रहा है। प्रदेश भर में 14 नगर निगम के 101 वार्डों में यह वार्ड कार्यालय संचालित हो रहे हंै। 18285 प्राप्त आवेदनों में से 16305 को निराकृत भी कर दिया गया है। मुख्यमंत्री वार्ड कार्यालय एक ऐसा माध्यम बन गया है जहां आसानी से किसी भी समस्या का निदान संभव हो पाया है। यह सरकार की दूरदर्शी सोच और जनता के प्रति जवाबेदही का ही परिणाम है कि वार्डों में समस्याओं को सुनने कार्यालय की स्थापना की गई है। आम नागरिकों के लिए टोल फ्री नंबर निदान-1100 की व्यवस्था भी है, यहां फोन कर नगरीय निकायों से संबंधित किसी भी समस्या की शिकायत आसानी से दर्ज कराई जा सकती है। निदान से एक लाख से अधिक लोगों की शिकायतों को निराकृत किया जा चुका है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जिसमें शिकायतकर्ता की संतुष्टि के बाद ही शिकायतों को निराकृत माना जाता है। इसमें लापरवाही करने पर अधिकारियों पर जुर्माना भी लगाया जाता है। हमारी कोशिश है कि भविष्य में शिकायत निवारण प्रणाली को और भी आसान व सहज बनाया जाए ताकि आमनागरिकों को सरकार की सेवाओं का लाभ सुनिश्चित हो सके।
किसी भी व्यक्ति का बेहतर स्वास्थ्य उसके बेहतर जीवन का आधार होता है। कभी कभी छोटी-छोटी बीमारी, पीडित ही नहीं उसके परिवार को भी बर्बाद कर देता है। गरीबी या अपनी व्यस्तता की वजह से अस्पताल नहीं जा सकने वालों के उपचार के लिए मुख्यमंत्री शहरी स्लम स्वास्थ्य योजना और दाई-दीदी क्लीनिक योजना किसी की बीमारी को ठीक करना ही नहीं, उनकी जिंदगी को बेहतर बनाना भी है। मुख्यमंत्री स्लम स्वास्थ्य योजना से राज्य के 14 नगर निगमों में 60 मोबाइल मेडिकल यूनिट एंबुलेस के जरिए डाक्टरों की टीम सेवाएं प्रदान कर रही हैं। स्लम क्षेत्रों में स्वास्थ्य शिविर लगाकर मुफ्त में परामर्श, उपचार, दवाइयां तथा शुगर, खून,पेशाब, बीपी विभिन्न प्रकार की निःशुल्क जांच भी की जाती है। मुख्यमंत्री दाई-दीदी क्लीनिक योजना से महिलाओं को नई सुविधा प्रदान की जा रही है। देश में ऐसा पहली बार हुआ है कि दाई-दीदी क्लीनिक योजना जिसमें महिलाओं की जांच उनके ही घर के आसपास महिला चिकित्सकों द्वारा की जा रही है।
नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग के माध्यम से गरीबों को अपनी बीमारी की जांच के लिए अनावश्यक खर्च करना न पडे़, इसका भी ख्याल रखा जा रहा है। पैथोलाॅजी एवं डायग्नोस्टिक्स सुविधा देने डाॅ.राधाबाई डायग्नोस्टिक्स सेंटर सभी जरूरतमंद परिवारों के लिए वरदान बनेगा और जांच के नाम पर अधिक पैसा लेने वालों की गतिविधियों पर इससे लगाम भी लगेगी।
हमारी सोच है कि शासन की योजनाओं का लाभ नागरिकों को घर बैठे मिल सके, मुख्यमंत्री मितान योजना भी ऐसी सुविधा है जिसके माध्यम से लगभग सौ से अधिक शासकीय सेवाओं जैसे ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, बिजली बिल,पेंशन, राजस्व, जन्म प्रमाण पत्र,राजस्व अभिलेख आदि उपलब्ध कराई जाएगी। नगरीय प्रशासन विभाग गर्मी के दिनों में व्याप्त होने वाली पेयजल संकट को दूर करने की दिशा में कार्य कर रहा है। टैंकरों से होने वाली पानी आपूर्ति और आम नागरिकों को होने वाली दुविधा को ध्यान रखकर शासन द्वारा इन बस्तियों में पेयजल की स्थायी व्यवस्था और टैंकर मुक्त करने की पहल की जा रही है। 62 शहरी स्थानीय निकायों को टैंकर मुक्त बनाया गया है। 4 नगर निगमों,43 नगर परिषदों एवं 109 नगर पंचायतों में जलप्रदाय योजना शुरू की गई है। वर्ष 2023 तक अनेक परियोजनाओं को पूरा करने का लक्ष्य भी रखा गया है। गर्मी के दिनों में उत्पन्न होने वाली पेयजल संकट को दूर करने 20 करोड़ की राशि जारी की गई है।
सरकार की लगभग सभी योजनाओं में गरीबों को प्राथमिकता दी गई है। भूमिहीन व्यक्तियों को भूमि धारण का अधिकार प्रदान करने हेतु अधिनियम लाया गया है। 19 नवंबर 2018 के पूर्व काबिज कब्जा धारकों को भू-स्वामित्व अधिकार प्रदान किया जाएगा। इसमें ऐसे व्यक्ति भी लाभान्वित होंगे जिन्हें पूर्व में पट्टा प्रदान किया गया था परंतु नवीनीकरण प्रावधानों के अभाव में वह भूमि का उपभोग नहीं कर पा रहे थे। इस निर्णय में राज्य के लगभग दो लाख से अधिक शहरी गरीब परिवार सीधे लाभान्वित होंगे तथा उन्हें ‘मोर जमीन मोर मकान‘ योजना में 2.5 लाख तक वित्तीय सहायता प्रदान की जा सकेगी। अवैध/अनियमित हस्तांतरण/ भूमि प्रयोजन में परिवर्तन प्रकरण में नियमानुसार भूमि स्वामी अधिकार दिया गया। अतिरिक्त कब्जे की स्थिति में निकाय श्रेणी अनुसार 900 से 1500 वर्गफीट तक नियमतीकरण की सुविधा दी गई है। कालातीत पट्टों का 30 वर्षों हेतु नवीनीकरण की मान्यता दी गई है।
मोर जमीन मोर मकान योजना से गरीबों को जोड़कर हितग्राहियों को लाभान्वित किया जा रहा है। अभी तक 74365 हितग्राहियों का आवास पूर्ण हो गया है। किफायती आवास योजना-मोर मकान मोर चिन्हारी अंतर्गत 1782.83 करोड़ की लागत से 48326 नवीन आवासों को स्वीकृति देकर कार्य प्रारंभ किया गया है।
नगरीय प्रशासन एवं विकास विभाग छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा तय की गई प्राथमिकताओं को ध्यान रखकर शहरी क्षेत्र के गरीबों के उन्नयन, गरीबों को सुविधाएं देने और आम नागरिकों को सेवाएं प्रदान करने के साथ उन्हें बेहतर सुविधा प्रदान करने की दिशा में कार्य कर रही है।

वर्तमान में आयुर्वेद विकास में शिक्षकों और चिकित्सको के कन्धों पर गुरुतर भार
वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
विगत दिन आई एम् ए द्वारा अखिल भारत बंद का आयोजन आयुर्वेद चिकिसकों को शल्य क्रिया का अधिकार देने के विरोध में किया गया ,जिसके अलग अलग दावें किये जा रहे हैं। पर केंद्र सरकार द्वारा जारी अध्यादेश लागू करने और जन सामान्य का सहयोग मिलने से आई एम् ए को आशातीत सफलता नहीं मिल पायी और न मिलेंगी। कारण केंद्र सरकार द्वारा बहुत चिंतन और मनन के आधार पर ही आयुर्वेद चिकित्सकों को शल्य क्रिया का अधिकार दिया गया हैं ,जिसके लिए आयुर्वेद परिवार केंद्र सरकार का बहुत आभारी हैं।
12 दिसंबर 2020 के जनसत्ता में प्रकाशित लेख “स्वास्थ्य के क्षेत्र में ख़राब सेहत “स्पष्ट उल्लेखित किया गया हैं की देश में पंजीकृत चिकित्सकों की संख्या सात लाख पचास हज़ार हैं औरअभी देश में 6 लाख डॉक्टर्स और 20 लख नर्सों की जरुरत हैं। अभी देश में 10189 की आबादी में एक डॉक्टर हैं जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एक हजार की आबादी में एक चिकित्सक होना चाहिए । इस समय देश की स्वास्थ्य समस्या में सबसे बड़ा योगदान विशेषज्ञ चिकिसकों द्वारा अंधाधुंध एंटी —बॉयटिक्स का उपयोग और उनके दुष्परिणामों से देश का स्वास्थ्य बिगाड़ा हैं। आज स्वयं एलॉपथी के चिकित्सा करने वाले आयुर्वेद ,होमियोपैथी का इलाज़ लेना पसंद करते हैं। कारण एंटीबॉयटिक्स के दुष्परिणामों और कॉर्टिकॉस्टेरॉइड्स के दुष्परिणामों से पूरा समाज दुखी और भयभीत हैं। आजकल देश और विदेशों में एंटीबॉयटिक्स का बहिष्कार हो रहा हैं और अत्यंत आवश्यकता होने पर उपयोग करते हैं पर चिकित्सक स्वयं कम से कम उपयोग करते हैं।
आयुर्वेद चिकित्सा का सिद्धांत हैं स्वस्थ्य के स्वास्थ्य की रक्षा करना और बीमार का इलाज़ करना। आयुर्वेद के बारे में लोगों में बहुत भ्रांतियां हैं। उनका मानना हैं आयुर्वेद जड़ी बूटी का विज्ञान हैं जबकि आयुर्वेद एक दर्शन हैं जिसके माध्यम से हम अपना जीवन कैसे सुन्दर और कलात्मक बना सकते हैं। आयुर्वेद की परिभाषा को समझना जरुरी हैं। आयु +वेद =आयुर्वेद. आयु यानी शरीर आत्मा ,मन और इन्द्रियों के संयोग को आयु कहते हैं और जिसमे यह ज्ञान मिलता हैं उसे वेद या विज्ञानं कहते हैं। इसीलिए अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संसथान नाम रखा गया हैं। क्योकि शरीर में सब रोगो होने से उसकी चिकित्सा करने आयुर्वेद या आयुर्विज्ञान की जरुरत पड़ती हैं।
चिकित्सा के चार स्तम्भ होते हैं जिन पर चिकित्सा अवलंवित हैं। चिकित्सक ,औषधि ,नर्सिंग स्टाफ और रोगी। इनके चार चार गुण होने से 16 गुण होते हैं। जिस प्रकार चन्द्रमा में सौलह कलाएं पूर्ण होने से वह पूर्ण माना जाता हैं उसी प्रकार चिकित्सा के 16 गुण के पूर्ण होने पर चिकित्सा पूरी मानी जाते हैं जितनी जितनी कलाएं कम होती जाती हैं उतनी चिकित्सा अपूर्ण होती जाती हैं।
भारत वर्ष में लगभग एक सौ पचास वर्षों से एलॉपथी चिकित्सा द्वारा बहुत देश की सेवा की और करोड़ों की जान बचाई और हर समय आज भी मुख्यधारा में कार्यरत हैं। चिकित्सा क्षेत्र में जितना अधिक से अधिक शोध से चिकित्सा विज्ञानं और शल्यतंत्र में बहुत विकास हुआ। तकनिकी साधनों ने सुगम कर दिया। चिकित्सा फलदायी होती हैं वह रोग से मुक्त होने पर विश्वास करती हैं और जनता भी जल्द से जल्द आराम चाहती हैं और उसके लिए बहुआयामी एंटीबॉयटिक्स के उपयोग से मानवीय शरीर रसायन युक्त हो चुके हैं और अधिकतर उन पर एंटीबॉयटिक्स असरकारी नहीं होने से मरीज़ और डॉक्टर दोनों परेशान होते हैं।
इस समय जब सरकार ने शल्य चिकित्सा करने की मान्यता देने से आयुर्वेद संकाय और विभाग की महत्व पूर्ण जिम्मेदारी गयीहैइसके लिए सभीमहाविद्यालय,विश्वविद्यालय,चिकित्सालय ,औषधालय की अधोसंरचना सुसज्जित हो योग्य शिक्षकों द्वारा अध्ययन अध्यापन होना चाहिए। विषयक्रम भी वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिपूर्ण हो। थ्योरी और प्रैक्टिकल समकक्ष हो। इसमें शासन और आयुर्वेद परिवार की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी होंगी। हम जब रिजल्ट देंगे तभी आई एम् ए वालों को संस्तुष्टि होंगी।
आज भी अलोपथी वाले आचार्य चरक ,सुश्रुत ,वाग्भट आदि महापुरुषों के ऋणी हैं ,कारण सुश्रुत आदि द्वारा स्थापित शल्य के सिद्धांत उन्हें मान्य हैं। सुश्रुत द्वारा ऑटो ट्रांसप्लांटेशन ,होमो ट्रांसप्लांटेशन और हेट्रो ट्रांसप्लांटेशन किया गया जिसको आज भी मान्य हैं। उनके द्वारा अन्वेषित शल्य उपार्जन आज भी अपनाये जा रहे हैं ,तकनिकी के कारण शल्य क्रिया में परिमार्जन हुआ।
चिकित्सा की सभी पद्धति मानव कल्याण के लिए हैं इसमें विवाद /विरोध की जरुरत नहीं। सिम्पथी से बढ़कर एम्पथी का होना आवश्यक हैं। पूर्व में चिकित्सक /वैद्य सेवा भाव से चिकित्सा करते थे ,निःशुल्क दवा देते थे जिससे उनको आदर मिलता था। आज व्यवसायीकरण होने के कारण अमानवीय व्यवहार होने के कारण आदर उनसे दूर होता जा रहा हैं। यदि अर्थ की प्रधानता सीमित हो तो बहुत अच्छा। चिकित्सा कभी निष्फल नहीं जाती ,चिकित्सा धर्म हैं ,यश मिलता हैं ,धन मिलता हैं और मित्रता मिलती हैं।
आयुर्वेद चिकित्सको और शिक्षकों की गुरुतर जिम्मेदारी हैं जिससे हम समानता के साथ कन्धा से कन्धा मिलाकर जनसेवा कर सकेंगे। न कोई बड़ा होगा और न कोई छोटा। हम भी सरकार की अवैध संतान नहीं हैं। एलॉपथी वाले सौतेला व्यवहार करना छोड़ दे।

लवजिहाद कानून का शीर्षासन
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
धोखेबाजी, ज़ोर-जबर्दस्ती, लालच या भय के द्वारा धर्म-परिवर्तन करने को मैं पाप-कर्म मानता हूं लेकिन लव-जिहाद के कानून के बारे में जो शंका मैंने शुरु में ही व्यक्त की थी, वह अब सही निकली। संस्कृत में इसे कहते हैं- प्रथमग्रासे मक्षिकापातः। याने पहले कौर में ही मक्खी पड़ गई। मुरादाबाद के कांठ नामक गांव के एक मुस्लिम लड़के मोहम्मद राशिद से पिंकी नामक एक हिंदू दलित लड़की ने 22 जुलाई को शादी कर ली थी। दोनों देहरादून में काम करते थे। दोनों में ‘लव’ हो गया था। पिंकी मुस्कानजहान बन गई। अब इन दोनों के खिलाफ बजरंग दल के कुछ अतिउत्साही नौजवानों ने ‘जिहाद’ छेड़ दिया। पिंकी की मां को भड़काया गया। उसने थाने में रपट लिखवा दी कि मेरी बेटी को धोखा देकर शादी की गई है। एक मुसलमान ने हिंदू नाम रखकर उसे प्रेमजाल में फंसाया, मुसलमान होने के लिए मजबूर किया और फिर शादी कर ली। पुलिस ने राशिद और पिंकी दोनों को पकड़ लिया। राशिद और उसके भाई को जेल में डाल दिया गया और पिंकी को सरकारी शेल्टर होम में। यह लव-जिहाद कानून 2020 के तहत किया गया। यह कानून लागू हुआ 28 नवंबर 2020 से और यह शादी हुई थी, 24 जुलाई को। याने यह गिरफ्तारी गैर-कानूनी थी। इसके लिए किस-किस को सजा मिलनी चाहिए और किस-किस को उन पति-पत्नी से माफी मांगनी चाहिए, यह आप स्वयं तय करें। पिंकी का पति और जेठ अभी भी जेल में हैं। पिंकी ने अपने बयान में साफ-साफ कहा है कि राशिद मुसलमान है, यह उसे शादी के पहले से पता था। उसने स्वेच्छा से धर्म परिवर्तन किया, शादी की और गर्भवती हुई। उस मुस्कानजहान का गर्भ, जो दो-तीन महिने का था, इस पकड़ा-धकड़ी और चिंता में गिर गया। यह मानना जरा कठिन है कि सरकारी अस्पताल के डाक्टरों ने उसे जान-बूझकर गिराया होगा। हमारे डाक्टर ऐसी नीचता नहीं कर सकते लेकिन क्या इसका जवाब ‘‘हमारे लवजिहादियों’’ के पास है ? यदि जोर-जबर्दस्ती, लालच या डर के मारे पिंकी ने मुस्कानजहान बनना मंजूर किया होता तो शेल्टर होम से छूटने के बाद वह अपने हिंदू मायके में क्यों नहीं गई ? कांठ के मुस्लिम सुसराल में वह स्वेच्छा से क्यों चली गई ? इस घटना-चक्र ने लव-जिहाद के कानून के मुंह पर कालिख पोत दी है। उसे शीर्षासन करा दिया है।

ब्राह्मी लिपी के संबंध में विभिन्न विचार धारा
वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
वैसे इतिहास हमेशा विवाद का विषय रहा हैं या रहता हैं। कारण हर विचारधारा वाला अपनी श्रेष्ठता बताने कुछ भी प्रमाण देते हैं वो चाहे संदर्भित हों या न हो। परन्तु विवाद समाप्त करने न्यायाधीश या उस विषय के विशेषज्ञ की बात मानना पड़ेगी। इस बात में अब कोई विवाद का स्थान नहीं रहा की ब्राह्मी लिपि भगवान ऋषभ देव जी ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को ब्राह्मी लिपि सिखाई और सुंदरी को अंक विज्ञान सिखाया। उक्त आधार पर भगवान् आदिनाथ की प्राचीनता अन्यों से कम हैं।
जैन परम्परा में मान्य चैाबीस तीर्थंकरों की श्रृखंला में भगवान ऋषभदेव का नाम प्रथम स्थान पर एवं अंतिम तीर्थंकर भगवान महावीर स्वामी हैं। जैनधर्म विश्व के प्राचीन धर्माें में से एक है किंतु अज्ञानता और प्रमाद के कारण आज भी अनेक व्यक्ति जैन धर्म के संस्थापक के रूप में भगवान महावीर को स्मरण करते हैं । विश्व के प्राचीनतम लिपिबद्ध धर्म ग्रंथों में से एक वेद में तथा श्रीमद्भागवत इत्यादि में आये भगवान ऋषभदेव के उल्लेख तथा विश्व की लगभग समस्त संस्कृतियों में ऋषभदेव की किसी न किसी रूप में उपस्थिति जैनधर्म की प्राचीनता और भगवान ऋषभदेव की सर्वमान्य स्थिति को व्यक्त करती है।
तीर्थंकर आदिनाथ प्रथम तीर्थंकर हैं, जिन्होंने मानव जाति को पुरूषार्थ का उपदेश दिया। अपने जीवन निर्माण के लिए, परिवार, राष्ट् के लिए उन्होंने कर्म का उपदेश दिया। मानव जाति से उन्होंने कहा कि- तुम पुरुषार्थ के द्वारा अपनी समस्याओं को हल कर सकते हो, इस दृष्टि से विभिन्न कलाओं का निरूपण किया। साम्राज्य का भी त्याग किया, तप, त्याग के द्वारा कैवल्य प्राप्त किया। वीतराग, निराकार हो गये। धर्म के उपदेश द्वारा समाज का सृजन किया। परमात्मा के रूप में ‘बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, सर्वे भविन्तु सुखिनः’ को साकार करते रहे।
भगवान आदिनाथ के बारे में श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए भारत के राष्ट्पति डा0 शंकरदयाल शर्मा ने कहा था-’’मैंने विश्व के तथा अपने देश के करीब-करीब सभी धर्मों का थोडा बहुत अध्ययन किया है। जैनधर्म की अनेक सैद्धांतिक और व्यवहारिक बातों ने मुझे प्रभावित किया है। जैनधर्म के प्रवर्तक भगवान ऋषभदेव की यह प्रतिमा दिखाई दे रही है, इसे मैं कई अर्थों में जैन सिद्धांतों का प्रतीक मानता हूं। इस प्रतिमा की विशालता, अपने शाश्वत और भव्य स्वरूप में उपदेश दे रही है, हमें अपने हद्रय को इतना विशाल बनाना है, संकीर्ण विचारों, स्वार्थ लिप्सा की वृत्ति से ऊपर उठकर उदात्त बनाना है। श्री मदभागवत के पांचवे स्कंध में अध्याय 2 से 6 में ऋषभदेव का वर्णन मिलता है। इसमें अपने पुत्रों को दिये उनके उपदेश का उल्लेख है।
जैनधर्म के लिए यह गौरव की बात है कि इन्हीं प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से इस देश का नामकरण ‘भारतवर्ष’ इन्हीं की प्रसिद्धि के कारण विख्यात हुआ। इतना ही नहीं, अपितु कुछ विद्वान भी संभवतः इस तथ्य से अपरिचित होंगे कि आर्यखण्ड रूप इस भारतवर्ष का एक प्राचीन नाम नाभिखण्ड ‘अजनाभवर्ष’ भी इन्हीं ऋषभदेव के पिता ‘नाभिराय’ के नाम से प्रसिद्ध था। ये नाभि और कोई नहीं, अपितु स्वायंभ्व मनु के पुत्र प्रियव्रत और प्रियव्रत के पुत्र नाभि थे। नाभिराय का एक नाम ‘अजनाभ’ भी था। स्कंधपुराण में कहा है- ‘हिमाद्रिजलधरेन्तर्नाभिखण्डमिति स्मृतम्’-1/2/37/55
श्रीमदभागवत में कहा है अजनाभवर्ष ही आगे चलकर ‘भारतवर्ष’ इस संज्ञा से अभिहित हुआ।
श्रीमद्भागवत 5/4/9, व 11/2/17 में इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं। मार्कण्डेय पुराण में 10/10-11, वायुपुराण पूर्वार्ध, नारद पुराण पूर्वखण्ड, लिंगपुराण, शिवपुराण, मत्स्यपुराण ब्रहााण्ड पुराण पूर्व में भी इसके प्रमाण देखे जा सकते हैं।
जैनधर्म के प्रवर्तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव इस विश्व के लिए उज्जवल प्रकाश हैं। उन्होंने कर्मों पर विजय प्राप्त कर दुनिया को त्याग का मार्ग बताया। भगवान ऋषभदेव की शिक्षाएं मानवता के कल्याण के लिए हैं, उनके उपदेश आज भी समाज के विघटनशोषण,साम्प्रदायिक विद्वेष एवं पर्यावरण प्रदूषण को रोकने में सक्षम एवं प्रासंगिक हैं।
भारतीय संस्कृति के प्रणेता एवं जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की जनकल्याणकारी शिक्षा द्वारा प्रतिपादित जीवन-शैली, आज के चुनौती भरे माहौल में उनके सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की प्रासंगिकता है।
तीर्थंकर ऋषभदेव अध्यात्म विद्या के भी जनक रहे हैं। उनके पुत्र भरत और बाहुबली का कथन इस तथ्य का प्रमाण है, कि संसारी व्यक्ति कितना रागी द्वेषी रहता है, जो अपने सहोदर के भी अधिकार को स्वीकार नहीं कर पाता। दोनों भाइयों के बीच हुआ युद्ध हर परिवार के युद्ध का प्रतिबिम्ब है। बाहुबली का स्वाभिमान हर व्यक्ति के स्वाभिमान का दिग्दर्शक है। सामथ्र्य होने पर भी अपने बडे भाई को न मारना, उनके सहज कर्तव्य का स्फुरण है। अन्त में दोनों का वीतरागी बनकर मोक्ष प्राप्त करना, जीव की स्वाभाविक परिणति का सूचक है। निरासक्त व्यक्ति की यह आध्यात्मिक दृष्टि है।
सामाजिक संरचना में उन्होंने प्रजाजनों केा तीन श्रेणियों में विभाजित करते हुए उनको अपने अपने कत्र्तव्य, अधिकार तथा उपलब्धियों के बारे में प्रथम मार्गदर्शन किया। सर्वांगीण विकास के मूल आधारभूत तत्वों का विवेचन कर वास्तविक समाजवादी व्यवस्था का बोध कराया।
प्रत्येक वर्ण व्यवस्था में पूर्ण सामंजस्य निर्मित करने हेतु तथा उनके निर्वाह के लिए आवश्यक मार्गदर्शक सिद्धांत, प्रतिपादन करते हुए स्वयं उसका प्रयोग या निर्माण करके प्रात्याक्षिक भी किया। अश्व परीक्षा, आयुध निर्माण, रत्न परीक्षा, पशु पालन आदि बहत्तर कलाओं का ज्ञान प्रदर्शित किया । उनके द्वारा प्रदत्त शिक्षाओं का वर्गीकरण कुछ इस प्रकार से किया जा सकता है-
1. असि-शस्त्र विद्या, 2. मसि-पशुपालन, 3. कृषि- खेती, वृक्ष, लता वेली, आयुर्वेद, 4.विद्या- पढना, लिखना, 5. वाणिज्य- व्यापार, वाणिज्य, 6.शिल्प- सभी प्रकार के कलाकारी कार्य।
ऋषभदेव ने महिला साक्षरता तथा स्त्री समानता पर भी महत्वपूर्ण कार्य किया है। अपनी दोनों पुत्रियों को ब्राही को अक्षर ज्ञान के साथ साथ व्याकरण, छंद, अलंकार, रूपक, उपमा आदि के साथ स्त्रियोचित अनेक गुणों के ज्ञान से अलंकृत किया। दूसरी पुत्री सुंदरी को अंकगणतीय ज्ञान से पुरस्कृत किया। आज भी उनके द्वार निर्मित व्याकरणशास्त्र तथा गणितिय सिद्धांतो ने महानतम ग्रंथों में स्थान प्राप्त किया है।
प्रशासनिक कार्य में इस भारत भूमि को उन्होंने राज्य, नगर, खेट, कर्वट, मटम्ब, द्रोण मुख तथा संवाहन में विभाजित कर सुयोग्य प्रशासनिक, न्यायिक अधिकारों से युक्त राजा, माण्डलिक, किलेदार, नगर प्रमुख आदि के सुर्पुद किया। आपने आदर्श दण्ड संहिता का भी प्रावधान कुशलता पूर्वक किया।
ब्राह्मी एक प्राचीन लिपि है जिससे कई एशियाई लिपियों का विकास हुआ है। देवनागरी सहित अन्य दक्षिण एशियाई, दक्षिण-पूर्व एशियाई, तिब्बती तथा कुछ लोगों के अनुसार कोरियाई लिपि का विकास भी इसी से हुआ था।इथियोपियाई लिपि पर ब्राह्मी लिपि का स्पष्ट प्रभाव है।अभी तक माना जाता था कि ब्राह्मी लिपि का विकास चौथी से तीसरी सदी ईसा पूर्व में मौर्यों ने किया था, पर भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के ताजा उत्खनन से पता चला है कि तमिलनाडु और श्रीलंका में यह ६ठी सदी ईसा पूर्व से ही विद्यमान थी।
कई विद्वानों का मत है कि यह लिपि प्राचीन सरस्वती लिपि (सिन्धु लिपि) से निकली, अतः यह पूर्ववर्ती रूप में भारत में पहले से प्रयोग में थी। सरस्वती लिपि के प्रचलन से हट जाने के बाद संस्कृत लिखने के लिये ब्रह्मी लिपि प्रचलन मे आई। ब्रह्मी लिपि में संस्कृत मे ज्यादा कुछ ऐसा नहीं लिखा गया जो समय की मार झेल सके। प्राकृत/पाली भाषा मे लिखे गये मौर्य सम्राट अशोक के बौद्ध उपदेश आज भी सुरक्षित है। इसी लिये शायद यह भ्रम उपन्न हुआ कि इस का विकास मौर्यों ने किया।
यह लिपि उसी प्रकार बाँई ओर से दाहिनी ओर को लिखी जाती थी जैसे, उनसे निकली हुई आजकल की लिपियाँ। ललितविस्तर में लिपियों के जो नाम गिनाए गए हैं, उनमें ‘ब्रह्मलिपि’ का नाम भी मिला है। इस लिपि का सबसे पुराना रूप अशोक के शिलालेखों में ही मिला है।
उक्त आधार पर यह सुस्पस्ट होता हैं की भारतवर्ष में ब्राह्मी लिपि और अंक विद्या के जनक भगवान् ऋषभदेव को माना जाना उचित हैं।

मदरसों पर टेढ़ी नजर ?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
असम सरकार ने मदरसों के बारे में जो नीति बनाई है, उसे लेकर अभी तक हमारे सेक्यूलरिस्ट क्यों नहीं बौखलाए, इस पर मुझे आश्चर्य हो रहा है। असम के शिक्षा मंत्री हिमंत विश्व शर्मा ने जो कदम उठाया है, वह तुर्की के विश्व विख्यात नेता कमाल पाशा अतातुर्क की तरह है। उन्होंने अपनी मंत्रिमंडल से यह घोषणा करवाई है कि अब नए सत्र से असम के सारे सरकारी मदरसे सरकारी स्कूलों में बदल दिए जाएंगे। राज्य का मदरसा शिक्षा बोर्ड अगले साल से भंग कर दिया जाएगा। इन मदरसों में अब कुरान शरीफ, हदीस, उसूल-अल-फिका, तफसीर हदीस, फरियाद आदि विषय नहीं पढ़ाए जाएंगे, हालांकि भाषा के तौर पर अरबी जरुर पढ़ाई जाएगी। जिन छोटे-बड़े मदरसों को स्कूल नाम दिया जाएगा, उनकी संख्या 189 और 542 है। इन पर सरकार हर साल खर्च होनेवाले करोड़ों रुपयों का इस्तेमाल अब आधुनिक शिक्षा देने में करेगी।
इस कदम से ऐसा लगता है कि यह इस्लाम-विरोधी घनघोर सांप्रदायिक षड़यंत्र है लेकिन वास्तव में यह सोच ठीक नहीं है। इसके कई कारण हैं। पहला, मदरसों के साथ-साथ यह सरकार 97 पोंगापंथी संस्कृत केंद्रों को भी बंद कर रही है। उनमें अब सांस्कृतिक और भाषिक शिक्षा ही दी जाएगी। धार्मिक शिक्षा नहीं। अब से लगभग 70 साल पहले जब मैं संस्कृत-कक्षा में जाता था तो वहां मुझे वेद, उपनिषद् और गीता नहीं, बल्कि कालिदास, भास और बाणभट्ट को पढ़ाया जाता था। दूसरा, जो गैर-सरकारी मदरसे हैं, उन्हें वे जो चाहें सो पढ़ाने की छूट रहेगी। तीसरा, इन मदरसों और संस्कृत केंद्रों में पढ़नेवाले छात्रों की बेरोजगारी अब समस्या नहीं बनी रहेगी। वे आधुनिक शिक्षा के जरिए रोजगार और सम्मान दोनों अर्जित करेंगे। चौथा, असम सरकार के इस कदम से प्रेरणा लेकर जिन 18 राज्यों के मदरसों को केंद्र सरकार करोड़ों रु. की मदद देती है, उनका स्वरुप भी बदलेगा। सिर्फ 4 राज्यों में 10 हजार मदरसे और 20 लाख छात्र हैं। धर्म-निरपेक्ष सरकार इन धार्मिक मदरसों, पाठशालाओं या गुरुकुलों पर जनता का पैसा खर्च क्यों करे? हां, इन पर किसी तरह का प्रतिबंध लगाना भी सर्वथा अनुचित है। असम सरकार ने जिस बात का बहुत ध्यान रखा है, उसका ध्यान सभी प्रांतीय सरकारें और केंद्रीय सरकार भी रखे, यह बहुत जरुरी है। असम के मदरसों और संस्कृत केंद्रों के एक भी अध्यापक को बर्खास्त नहीं किया जाएगा। उनकी नौकरी कायम रहेगी। वे अब नए और आधुनिक विषयों को पढ़ाएंगे। असम सरकार का यह प्रगतिशील और क्रांतिकारी कदम देश के गरीब, अशिक्षित और अल्पसंख्यक वर्गों के नौजवानों के लिए नया विहान लेकर उपस्थित हो रहा है।

औद्योगिक विकास के दंश
सिद्धार्थ शंकर
दुनियाभर में वायु प्रदूषण के सबसे खराब स्तर वाले शहरों की सालाना सूची में भारत शीर्ष पर है। गाजियाबाद शहर दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में है। वैश्विक वायु गुणवत्ता का यह आंकड़ा आईक्यूएआईआर के शोधकर्ताओं ने तैयार किया है। हर साल यह रिपोर्ट तैयार होती है। 2018 की रिपोर्ट में शीर्ष तीस प्रदूषित शहरों में भारत के 22 शहर शामिल थे। वायु प्रदूषण में दक्षिण एशिया के तीस में से 27 शहर शामिल हैं, जिनमें भारत के अलावा पाक और बांग्लादेश के शहर भी हैं। इसके उलट चीन की राजधानी बीजिंग ने पिछले साल वायु गुणवत्ता में सुधार किया है। बीजिंग दुनिया के 200 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची से बाहर हो गया है। लेकिन भारत में प्रदूषण नियंत्रण की सरकारी नीतियों और प्रयासों के बावजूद हवा की गुणवत्ता पिछले पांच साल के दौरान काफी ज्यादा बिगड़ी है।
जाहिर है, प्रदूषण की समस्या कहीं अधिक गंभीर हो चुकी है और वह केवल दिल्ली तक ही सीमित नहीं रह गई है, बल्कि भारत में बड़े शहरों से इतर छोटे-छोटे शहरों में भी हवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है। उसमें घुला जहर लोगों को न सिर्फ धीरे-धीरे बीमार कर रहा है, बल्कि उनकी मौत की वजह भी बन रहा है। वैसे तो आज पूरी दुनिया वायु प्रदूषण का शिकार का शिकार है, लेकिन भारत के लिए यह समस्या विकराल रूप धारण करती जा रही है। अब समस्या इतनी व्यापक और गंभीर हो चुकी है कि दुनिया के सामूहिक प्रयास के बिना इससे निजात नहीं मिल सकती। आज के समय में हमारे सामने दो बड़ी चुनौतियां हैं। एक-पर्यावरण को स्वच्छ रखने में हम कैसे योगदान दें और दूसरा-खतरनाक स्तर तक पहुंच चुके पर्यावरण प्रदूषण को कैसे कम किया जाए। वायु प्रदूषण सिर्फ नागरिकों के स्वास्थ्य पर ही नहीं, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था पर भी नकारात्मक प्रभाव डालता है। भारत में होने वाली मौतों के प्रमुख कारणों में वायु प्रदूषण भी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के मुताबिक जहरीली हवा से हर साल 70 लाख लोगों की मौत हो जाती है।
वायु प्रदूषण पर नजर रखने वाले एयर क्वालिटी लाइफ इंडेक्स और शिकागो विश्वविद्यालय स्थित एनर्जी पॉलिसी इंस्टीट्यूट के एक अध्ययन में कहा गया है कि उत्तर भारत में खराब हवा के कारण सामान्य इंसान की जिंदगी औसतन साढ़े सात साल कम हो रही है। इससे स्पष्ट है कि भारत में बड़े शहरों से इतर अब छोटे-छोटे शहरों में भी हवा सांस लेने लायक नहीं रह गई है। उसमें घुला जहर लोगों को न सिर्फ धीरे-धीरे बीमार कर रहा है, बल्कि उनकी मौत की वजह भी बन रहा है। हवा जहरीली और प्रदूषित होने का मतलब है कि उसमें पार्टिकुलेट मैटर यानी जहरीले कणों के स्तर में वृद्धि होना। हवा में पीएम-2.5 की मात्रा 60 और पीएम-10 की मात्रा 100 होने पर सुरक्षित माना जाता है। लेकिन इससे ज्यादा हो तो वह बेहद नुकसानदायक हो जाती है। ऐसी गंभीर स्थिति पर काबू पाने के लिए कठोर कदम उठाने की जरूरत है। प्रदूषण से लडऩे के लिए सरकारों को दीर्घकालीन नीतियां बना कर उन पर सख्ती से अमल करना होगा। लेकिन विकसित और विकासशील देशों में विकास के नाम पर आगे निकलने की होड़ ने पर्यावरण को इतना प्रदूषित कर दिया है कि आज विश्व के समक्ष जलवायु परिवर्तन, बढ़ता तापमान और ओजोन परत के क्षरण की समस्या ने मानव के अस्तित्व के समक्ष संकट खड़ा कर दिया है।
प्रदूषण को बढ़ाने में मनुष्य के क्रियाकलाप और उसकी जीवनशैली काफी हद तक जिम्मेवार है। प्रारंभ में जब प्रौद्योगिकी विकास नहीं हुआ था, तब लोग प्रकृति व पर्यावरण से सामंजस्य बैठा कर रहते थे। लेकिन परंतु तकनीकी विकास और औद्योगीकरण के कारण आधुनिक मनुष्य में आगे बढऩे की होड़ उत्पन्न हो गई। इस होड़ में मनुष्य को केवल अपना स्वार्थ दिखाई पड़ रहा है। वह यह भूल गया है कि इस पृथ्वी पर उसका वजूद प्रकृति एवं पर्यावरण के कारण ही है। लेकिन इसके बावजूद लोग अपने त्रासदीपूर्ण भविष्य को लेकर पूरी से तरह से बेखबर हैं। सवाल उठता है कि आखिर सरकारें कर क्या रही हैं? पानी प्रदूषित, नदियां प्रदूषित, मिट्टी प्रदूषित और हवा प्रदूषित। देश में बढ़ते प्रदूषण का मिजाज इसी तरह से बना रहा तो आने वाले दशकों में मानव के अस्तित्व को बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। गौर करने वाली बात यह है कि आबादी के लिहाज से सबसे ज्यादा नुकसान भारत का ही होने वाला है, लिहाजा भारत को अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझते हुए तत्काल सार्थक और ठोस उपाय करने होंगे। जो थोड़े-बहुत प्रयास हो भी रहे हैं, वे बेअसर साबित हो रहे हैं।
वायु प्रदूषण के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर होने की एक बड़ी वजह यह है कि इसमें जनता सक्रिय रूप से भागीदार नहीं बन रही है। इसका नतीजा यह होता है कि वायु प्रदूषण रोकने के लिए उठाया गया अच्छे से अच्छा कदम भी नाकाम हो जाता है। प्रदूषण की समस्या का स्थायी इलाज निकालने के लिए भारत कई दूसरे देशों से सबक ले सकता है। दरअसल, कई अन्य देश भी प्रदूषण की समस्या से जूझ रहे हैं। इन देशों में प्रदूषण से निपटने के कई तरीके अपनाए गए हैं, जिनसे उन्हें कुछ सफलता भी हासिल हुई है। आज वायु प्रदूषण ऐसा गंभीर मुद्दा है जो पूरी दुनिया के लिए चिंता की बात है। इसे आपसी सहमति और ईमानदार प्रयासों के बिना हल नहीं किया जा सकता। वायु प्रदूषण को निश्चित रूप से नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन इसके लिए हम सभी नागरिकों और संगठनों से लेकर निजी कंपनियों और सरकारों तक को एक साथ मिल कर प्रयास करना होगा। भारत में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए नियम-कानूनों और दिशानिर्देशों की कोई कमी नहीं है।
समस्या यह है कि इन नियम-कानूनों को कहीं भी उतनी सख्ती से लागू नहीं किया गया, जितनी कि जरूरत थी। इस समय भारत विश्व की सबसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि हवा में घुलते जहर के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं, इसलिए समस्या बहुआयामी है। दशकों से किसी भी सरकार या प्रदूषण नियंत्रण एजेंसियों ने बढ़ते प्रदूषण पर अंकुश लगाने की दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की है। अब नतीजा सामने है। इस समस्या पर अंकुश लगाने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के साथ ही साथ एक एकीकृत योजना बना कर उसे गंभीरता से लागू करना भी होना चाहिए। 21वीं सदी में जिस प्रकार से हम औद्योगिक विकास और भौतिक समृद्धि की ओर बढ़े चले जा रहे हैं, उस सुख-समृद्धि ने पर्यावरण संतुलन को भारी नुकसान पहुंचाया है। यह खतरे की घंटी है।
इसीलिए अब यह अत्यावश्यक हो जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने वातावरण के प्रति जागरूक रहे और जीवन की प्राथमिकताओं में स्वच्छ वातावरण के निर्माण को शीर्ष पर रखे। लेकिन अफसोस की बात है कि हम चेत नहीं रहे हैं। साल दर साल बीत जाने के बाद भी भारत में वायु प्रदूषण बढ़ता ही जा रहा है। वक्त कुछ करने का है न कि सोचने का। प्रदूषण को लेकर जिस तरह से समय-समय पर चिंता दिखाई जाती है, उसे जीवन में अपनाने की जरूरत है, ताकि हम इस समस्या से निपटने में किसी तरह की ढिलाई न दिखाएं।

भाजपा और ममता में टक्कर
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पश्चिम बंगाल के डायमंड हार्बर इलाके में भाजपा अध्यक्ष जगत नड्डा और भाजपा प्रभारी कैलाश विजयवर्गीय के काफिले पर जो हमला हुआ, उसमें ऐसा कुछ भी हो सकता था, जिसके कारण ममता बनर्जी की सरकार को भंग करने की नौबत भी आ सकती थी। यदि नड्डा की कार सुरक्षित नहीं होती तो यह हमला जानलेवा ही सिद्ध होता। कैलाश विजयवर्गीय की कार विशेष सुरक्षित नहीं थी तो उनको काफी चोटें लगीं। क्या इस तरह की घटनाओं से ममता सरकार की इज्जत या लोकप्रियता बढ़ती है ? यह ठीक है कि भाजपा के काफिले पर यह हमला ममता ने नहीं करवाया होगा। शायद इसका उन्हें पहले से पता भी न हो लेकिन उनके कार्यकर्ताओं द्वारा यह हमला किए जाने के बाद उन्होंने न तो उसकी कड़ी भर्त्सना की और न ही अपने कार्यकर्ताओं के खिलाफ कोई ठोस कार्रवाई की। बंगाल की पुलिस ने जो प्रतिक्रिया ट्वीट की, वह यह थी कि घटना-स्थल पर ‘‘खास कुछ हुआ ही नहीं’’। पुलिस ने यह भी कहा कि ‘‘कुछ लोगों ने पत्थर जरुर फेंके लेकिन सभी लोग सुरक्षित हैं। सारी स्थिति शांतिपूर्ण है।’’ जरा सोचिए कि पुलिसवाले इस तरह का रवैया आखिर क्यों रख रहे हैं ? क्योंकि वे आंख मींचकर ममता सरकार के इशारों पर थिरक रहे हैं। सरकार ने उन्हें यदि यह कहने के लिए प्रेरित नहीं किया हो तो भी उनका यह रवैया सरकार की मंशा के प्रति शक पैदा करता है। यह शक इसलिए भी पैदा होता है कि ममता-राज में दर्जनों भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या हो चुकी है और उक्त घटना के बाद कल भी एक और हत्याकांड हुआ है। प. बंगाल के चुनाव सिर पर हैं। यदि हत्या और हिंसा का यह सिलसिला नहीं रुका तो चुनाव तक अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है। केंद्र और राज्य में इतनी ज्यादा ठन सकती है कि ममता सरकार को भंग करने की नौबत भी आ सकती है। उसका एक संकेत तो अभी-अभी आ चुका है। पुलिस के तीन बड़े केंद्रीय अफसर, जो बंगाल में नियुक्त थे और जो नड्डा-काफिले की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार थे, उन्हें गृहमंत्री अमित शाह ने वापस दिल्ली बुला लिया है। ममता इससे सहमत नहीं है। लेकिन इस तरह के कई मामलों में अदालत ने केंद्र को सही ठहराया है। ममता को आखिरकार झुकना ही पड़ेगा। राज्यपाल जगदीप धनखड़ और ममता के बीच रस्साकशी की खबरें प्रायः आती ही रहती हैं। भाजपा की केंद्र सरकार और ममता सरकार को जरा संयम से काम लेना होगा, वरना बंगाल की राजनीति को रक्तरंजित होने से कोई रोक नहीं पाएगा।

वन नेशन वन हैल्थ पॉलिसी की ओर बढ़ती मोदी सरकार
डॉ अजय खेमरिया
हाल में 11 दिसम्बर को देश भर के एलोपैथिक चिकित्सक काम बंद हड़ताल पर रहे । यह हड़ताल मोदी सरकार द्वारा आयुष चिकित्सकों को कतिपय शल्य क्रिया के साथ एलोपैथिक परामर्श की अनुमति के विरोध में की गई ।इंडियन मेडिकल एशोसिएशन ने सरकार के इस निर्णय का आरम्भ से ही तीखा विरोध किया है।एशोसिएशन ने इसे ” मिक्स थैरेपी ” की संज्ञा देकर एक खतरनाक कदम बताया है।दूसरी तरफ मोदी सरकार इस मामले पर नीतिगत रूप से बहुत ही तेज निर्णय ले रही है ताकि 135 करोड़ नागरिकों के आरोग्य को सुनिश्चित किया जा सके।
सरकार ने देश में एकीकृत स्वास्थ्य नीति को अमल में लाने के कारवाई भी आरम्भ कर दी है।2030 तक “एक राष्ट्र एक स्वास्थ्य प्रणाली “की योजना लागू करने की दिशा में सरकार तेजी से आगे बढ़ रही है।नेशनल मेडिकल कमीशन,होम्योपैथी कमीशन और भारतीय आयुर्विज्ञान प्रणाली विधेयकों को मंजूरी दिलाने के साथ ही सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 में प्रावधित चिकित्सा शिक्षा को अमल में लाने की तैयारियां भी कर ली हैं।नीति आयोग के सदस्य (स्वास्थ्य ) डॉ वीके पॉल की अध्यक्षता में गठित एक विशेषज्ञ समिति चिकित्सा शिक्षा के साथ एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली के मसौदे को अंतिम रूप देने जा रही है।इस समिति के अधीन चार अलग अलग कार्यबल बनाएं गए है जो भारतीय लोकस्वास्थ्य की व्यवहारिक स्थितियों के अनुरूप चिकित्सा शिक्षा औऱ पारम्परिक चिकित्सा पद्धतियों के युक्तियुक्त अनुप्रयोग की सँभावनाओं को सुनिश्चित करने वाली अनुशंसा सरकार को करेंगे। 71 शीर्ष स्वास्थ्य विशेषज्ञों वाली इन समितियों को आगामी आठ सप्ताह में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपनी है।डॉ पाल की अध्यक्षता वाली शीर्ष समिति को बुनियादी रूप से आयुष औऱ एलोपैथी के साझा अनुप्रयोग की देशज संभावनाओं को तलाशने का काम करना है।असल में एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली की अवधारणा भारत की परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों के अधिकतम अनुप्रयोग को एलोपैथी के साथ सयुंक्त करने के वैज्ञानिक धरातल की वकालत करती है।सरकार की मंशा है कि देश में एक ही छत के नीचे नागरिकों को एलोपैथी के साथ आयुष (यानी योग,प्राकृतिक चिकित्सा,यूनानी,सिद्ध औऱ होम्योपैथी) के माध्यम से भी उपचार उपलब्ध हो।यह विचार 2017 की स्वास्थ्य नीति के साथ 2020 में लाई गई नई शिक्षा नीति में प्रमुखता से रेखांकित किया गया है।वस्तुतः आयुष के महत्व को वैकल्पिक चिकित्सा के नाम से कमतर करने की कोशिश एलोपैथी लॉबी द्वारा की जाती रही है जबकि तथ्य यह है कि योग और आयुर्वेद का भी सशक्त वैज्ञानिक आधार मौजूद है।शल्य चिकित्सा की बुनियाद तो मूलतः आयुर्वेद की ही देन है और आज योग के माध्यम से जनआरोग्य की पुष्टि दुनियाभर में स्वयंसिद्ध हो चुकी है।सवाल यह है भी है कि जिन बीमारियों का उपचार एलोपैथी में नही है उनके लिए आयुष को अपनाने में आखिर बुराई क्या है?चीन,यूरोप,और अन्य राष्ट्रों में पारम्परिक एवं आधुनिक चिकित्सा पद्धतियों को उपयोग में लाया जाता है तब भारतीय नागरिकों के लिए केवल एलोपैथी पर ही जोर दिया जाना क्यों आवश्यक है?
मोदी सरकार का यह कदम निःसन्देह साहसिक होने के साथ राष्ट्रीय आवश्यकताओं के अनुरूप है।यह भारत की समर्द्ध पारंपरिक चिकित्सा पद्धति को प्रतिष्ठित करने का उपक्रम भी है। प्रस्तावित नीति के तहत आयुष चिकित्सकों को एक तरह के ब्रिज कोर्स के साथ आधुनिक चिकित्सा पद्धति के साथ प्राथमिक उपचार की पात्रता की बात कही गई है।इसी तरह एलोपैथी चिकित्सा पाठ्यक्रम में आयुष की बुनियादी ट्रेंनिग का प्रावधान है।जाहिर है अस्पताल आने वाले मरीज को उसकी इच्छा के अनुसार भी पैथी उपलब्ध हो सकेगी।2017 की स्वास्थ्य नीति में स्पष्ट तौर पर ब्रिज कोर्स की बात थी लेकिन 2019 में पारित राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग विधेयक में इस हिस्से को शामिल नही किया गया है।दूसरी तरफ हाल ही में घोषित नई चिकित्सक शिक्षा नीति स्पष्टता एलोपैथी और आयुष के युक्तियुक्त विलय की आवश्यकताओं पर जोर देती है।मोदी सरकार ने इसी को आधार बनाकर एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली और’ वन नेशन वन हैल्थ सिस्टम’ पर आगे बढ़ने का काम आरम्भ किया है।नई चिकित्सा शिक्षा नीति2020 कहती है ” हमारी स्वास्थ्य शिक्षा प्रणाली का अभिप्राय यह होना चाहिए कि एलोपैथिक चिकित्सा शिक्षा के सभी छात्रों को आयुर्वेद योग और प्राकृतिक चिकित्सा,यूनानी,सिद्ध और होम्योपैथी की बुनियादी समझ होनी चाहिये और इसी तरह आयुष के छात्रों को एलोपैथी की”। एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली का विरोध एलोपैथी लॉबी द्वारा यह कहकर किया जा रहा है कि यह भारत में हाइब्रिड डॉक्टरों की फौज खड़ी कर देने वाली नीति है 5 नबम्बर को इंडियन मेडिकल एशोसिएशन के अध्यक्ष डॉ राजेश शर्मा ने विधिवत प्रेस कांफ्रेंस कर सरकार के इस निर्णय पर सवाल खड़े किए ।विरोध में खड़ी एलोपैथी लॉबी का कहना है कि आयुष औऱ आधुनिक चिकित्सा पद्धति के कतिपय विलय से खिचड़ी सिस्टम का जन्म होगा और अलग अलग पैथियो का वैशिष्ट्य भी खत्म हो जाएगा साथ ही मरीज को पैथी चुनने की स्वतंत्रता भी नही रहेगी।आईएमए ने इस नए सिस्टम के विरुद्ध अपनी लड़ाई तेज करने का एलान भी किया है।दूसरी तरफ मोदी सरकार एक बड़े लक्ष्य पर काम करने के लिए आगे बढ़ चुकी है वह है 2030 से देश मे ” वन नेशन वन हैल्थ सिस्टम” इसके लिए सरकार चार अहम सेक्टरों में काम करेगी।मेडिकल एजुकेशन,क्लिनिकल प्रेक्टिस,मेडिकल रिसर्च औऱ चिकित्सा प्रशासन।इस नए सिस्टम में केवल एलोपैथी को आगे रखने के स्थान पर सरकार ने आयुष को भी बराबरी का दर्जा देने का बुनियादी निर्णय लिया है इसीलिए इंटीग्रेटिव हैल्थ पॉलिसी में पाठ्यक्रमों को नई शिक्षा नीति के अनुरूप डिजाइन किया जाना है।इसका फायदा यह होगा कि आयुष चिकित्सक ग्रामीण इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों पर एलोपैथी के कुछ मानक उपचार प्रेक्टिस में ला सकेंगे।इसी मुद्दे पर आईएमए तीखा विरोध कर रहा है। लेकिन व्यावहारिक तथ्य यह है कि भारत में चिकित्सकों की कमी (1456 नागरिकों पर एक डॉक्टर)के चलते करोड़ों लोग झोलाछाप डॉक्टरों,मेडीकल स्टोर्स,गूगल गुरु और ऑनलाइन माध्यम से एलोपैथिक इलाज कराते है। पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य सचिव शैलजा चन्द्र ने 2013 में “भारतीय चिकित्सा पद्धति औऱ लोक चिकित्सा की स्थिति”केंद्रित अपने एक शोध में स्पष्ट रूप से इस बात की वकालत की है कि आयुष संवर्ग को मैदानी स्तर पर आधुनिक पद्धति से प्रेक्टिस के सीमित औऱ अधिमान्य अवसर सुनिश्चित किये जाने चाहिये।असल में भारतीय लोकजीवन में पिछले 70 साल में चिकित्सा के नाम पर केवल एलोपैथी को ही हर स्तर पर बढ़ाबा दिया गया है आज औसतन 94 फीसदी मरीजों को एलोपैथी उपचार ही सरकारी एवं गैर सरकारी केंद्रों पर उपलब्ध कराया जाता है।सही मायनों में यह पारंपरिक चिकित्सा पद्धतियों के साथ घोर अन्याय कारित करने जैसा ही है जबकि भारत की परम्परागत पद्धतियां खासी वैज्ञानिक एवं शोध परक धरातल पर केंद्रित रही है।हाल ही में कोविड 19 के संक्रमण में करोड़ों नागरिकों को आयुर्वेदिक उपचारों ने बड़ी राहत और सुरक्षा उपलब्ध कराई है।ऐसे में मोदी सरकार अगर एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली में आयुष को उसकी प्रमाणिकता के अनुरूप स्थान देनें का नीतिगत निर्णय ले रही है तो इसे नीम हकीमी या क्षद्म विज्ञान को प्रतिष्ठित करने जैसे आरोपों की उस मानसिकता के साथ भी समझाने की आवश्यकता है जो भारतीय संस्कृति और परम्पराओं को लेकर एक स्थाई दुराग्रह का शिकार है।
नई स्वास्थ्य प्रणाली को मानकीकृत करने में मोदी सरकार केवल अपने सांस्कृतिक एजेंडे पर ही काम नही कर रही है बल्कि देश के सर्वाधिक प्रज्ञावान एलोपैथिक चिकित्सकों औऱ विषय वस्तु विशेषज्ञों को आगे रखकर काम कर रही है।डॉ वीके पॉल ,डॉ रणदीप गुलेरिया,डॉ बीएम कटोच,डॉ एसके सरीन जैसे ख्यातिनाम एलोपैथिक चिकित्सकों को एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली को आकार देने के काम मे लगाया गया है।आयुष मंत्रालय का गठन भी बुनियादी रूप से परम्परागत पद्वतियों के वैज्ञानिक धरातल को जनआरोग्य के लिये ही किया गया है।सरकार द्वारा होम्योपैथी और भारतीय चिकित्सा पद्धति विनियमन के साथ एनएमसी के गठन को दीर्धकालिक स्वास्थ्य सुधार की दिशा में उठाया गया कदम माना जाना चाहिये क्योंकि मौजूदा स्वास्थ्य प्रणाली के विविधतापूर्ण ढांचे ने नागरिकों के प्रति राज्य की जबाबदेही को सरकारी अजगरफ़ान्स में बुरी तरह से उलझा रखा है।
मोदी सरकार ने 2030 से वन नेशन वन हैल्थ पॉलिसी लागू करने के लिए बुनियादी बदलाव पर जो काम शुरू किया है उसका मसौदा अगले दो महीने में सामने आने के आसार है।डॉ वीके पॉल की अध्यक्षता में गठित समिति इंटीग्रेटिव हैल्थ पॉलिसी को आकार देने वाली है डॉ पॉल नीति आयोग में सदस्य स्वास्थ्य है और अंतरराष्ट्रीय स्तर के बाल रोग विशेषज्ञ,शिक्षाविद,अनुसंधानकर्ता है वे 32 बर्षों तक एम्स नई दिल्ली में कार्यरत रहे है।उनके नेतृत्व में इस समिति में 20 अन्य विषय विशेषज्ञों को शामिल किया गया है।क्लिनिकल प्रेक्टिस के तौर तरीकों को आकार देने के लिए एम्स के निदेशक डॉ रणदीप गुलेरिया की अध्यक्षता में कार्यबल बनाया गया है जिसमें 12 सदस्य होंगे।यह कार्यबल प्रस्तावित पॉलिसी में क्लिनिकल प्रेक्टिस के उन पहलुओं को मानकीकृत करने की सिफारिशें करेगा जो इंटीग्रेटिव मेडिसन डॉक्टर के लिए जारी होंगे।चिकित्सा शिक्षा में पाठ्यक्रम को लेकर गठित कार्यबल की कमान एमसीआई बोर्ड ऑफ गवर्नस के पूर्व अध्यक्ष डॉ एसके सरीन को सौंपी गई है।शांति स्वरूप भटनावर पुरस्कार से सम्मानित डॉ सरीन देश के प्रख्यात लिवर रोग विशेषज्ञ है।नई समावेशी चिकित्सा शिक्षा का खाका बनाने के इस काम मे डॉ सरीन के साथ 12 अन्य विषय विशेषज्ञों को भी जोड़ा गया है।चिकित्सा शिक्षा में शोध एवं विकास आर एन्ड डी की सिफारिशों के लिए डॉ वीएम कटोच की अध्यक्षता में 13 सदस्यी कार्यबल काम करेगा।डॉ कटोच आईसीएमआर के पूर्व महानिदेशक है।
इसके अलावा अतिरिक्त सचिव स्वास्थ्य चिकित्सा प्रशासन की नवीन सँभावनाओ पर काम करने वाले है।इन सभी कार्यबल को आगामी आठ सप्ताह में अपनी अंतिम रिपोर्ट डॉ वीके पॉल की समिति को सौंपनी है।इससे पूर्व 8 सितम्बर को नीति आयोग में इस आशय का विस्तृत प्रजेंटेशन प्रस्तुत किया जा चुका है।इस बैठक में एलोपैथी एवं आयुष के भारतीय परिवेश में विलय पर सैद्धान्तिक सहमति निर्मित हुई थी।समावेशी,सस्ती,साक्ष्य आधारित औऱ नागरिक लक्षित एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली पर भारत को आगे ले जाने की दिशा में सरकार का संकल्प जमीन पर कितना साकार होता है यह अभी देखा जाना है क्योंकि भारत में व्यवस्थागत परिवर्तन इतना आसान भी नही है।

 

फ्रांस के मुस्लिम मुसीबत में
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फ्रांस के 56 लाख मुसलमानों में आजकल कंपकंपी दौड़ी हुई है, क्योंकि ‘इस्लामी अतिवाद’ के खिलाफ फ्रांस की सरकार ने एक कानून तैयार कर लिया है। राष्ट्रपति इमेन्यूएल मेक्रो ने कहा है कि यह कानून किसी मजहब के विरुद्ध नहीं है और इस्लाम के विरुद्ध भी नहीं है लेकिन फिर भी फ्रांस के मुसलमान काफी डर गए हैं। फ्रांस में तुर्की, अल्जीरिया और अन्य कई यूरोपीय व पश्चिमी एशियाई देशों के मुसलमान आकर बस गए हैं। ऐसा माना जाता है कि उनमें से ज्यादातर मुसलमान फ्रांसीसी धर्मनिरपेक्षता (लायसीती) को मानते हैं लेकिन अक्तूबर में हुई एक फ्रांसीसी अध्यापक सेमुअल पेटी की हत्या तथा बाद की कुछ घटनाओं ने फ्रांसीसी सरकार को ऐसा कानून लाने के लिए मजबूर कर दिया है, जो मुसलमानों को दूसर दर्जे का नागरिक बनाकर ही छोड़ेगा। इस कानून के विरुद्ध तुर्की समेत कई इस्लामी देश बराबर बयान भी जारी कर रहे हैं। इस कानून के लागू होते ही मस्जिदों और मदरसों पर सरकार कड़ी निगरानी रखेगी। उनके पैसों के स्त्रोतों को भी खंगालेगी। वह मुस्लिम बच्चों की शिक्षा पर भी विशेष ध्यान देगी। उन्हें कट्टरवादी प्रशिक्षण देने पर रोक लगाएगी। यदि मस्जिद और मदरसे फ्रांस के ‘गणतांत्रिक सिद्धांतों’ के विरुद्ध कुछ भी कहते या करते हुए पाए जाएंगे तो उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाएगा। लगभग 75 प्रतिबंध पिछले दो माह में लग चुके हैं और 76 मस्जिदों के विरुद्ध अलगाववाद भड़काने की जांच चल रही है। इमामों को भी अब सरकारी देखरेख में प्रशिक्षण दिया जाएगा। सरकार ने इस्लामद्रोह-विरोधी संगठन को भी भंग कर दिया है। अब तक अरबी टोपी, हिजाब, ईसाई क्राॅस आदि पहनने पर रोक सिर्फ सरकारी कर्मचारियों तक थी। उसे अब आम जनता पर भी लागू किया जाएगा। तीन साल से बड़े बच्चों को घरों में तालीम देना भी बंद होगा। डाॅक्टरों द्वारा मुसलमान लड़कियों के अक्षतयोनि (वरजिनिटी) प्रमाण पत्रों पर भी रोक लगेगी। बहुपत्नी विवाह और लव-जिहाद को भी काबू किया जाएगा। तुर्की और मिस्र जैसे देशों में इन प्रावधानों के विरुद्ध कटु प्रतिक्रियाएं हो रही हैं लेकिन फ्रांस के 80 प्रतिशत लोग और मुस्लिमों की फ्रांसीसी परिषद भी इन सुधारों का स्वागत कर रही है। ये सुधार राष्ट्रपति मेक्रो की डगमगाती नैया को भी पार लगाने में काफी मदद करेंगे। उन्हें 2022 में चुनाव लड़ना है और इधर कई स्थानीय चुनावों में उनकी पार्टी हारी है और उनके कई वामपंथी नेताओं ने दल-बदल भी कर लिया है।

यदि सरकार नाकारा और निकम्मी हो तो क्या करना चाहिए ?
वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
एक बार जार्ज बर्नार्ड शाव को एक वैश्या से प्रेम हो गया और दोनों शादी के लिए राजी हो गए। एक दिन वैश्या बोली हमारा होने वाला पुत्र तुम्हारे जैसा बुद्धिमान हो और मेरे जैसा सुन्दर हो। इस पर शा बोले कही उल्टा हो गया तो !इतने में शादी टूट गयी। मध्य प्रदेश ने यह निर्णय लिया हैं की अयोग्य ,नाकारा अधिकारीयों को कौकरी से निकाला जाय। यह नियम बहुत पुराना हैं और आज तक इस पर कोई क्रियान्वयन नहीं हो सका।
एक मुव्वकिल कोर्ट में पहुंचा तो जज साहब ने उससे पूछा तम्हारा वकील कहाँ हैं। वह बोलै हुजूर मेरे पास इतने पैसे नहीं हैं तब जज साहब बोले कचहरी के पेड़ के नीचे पांच पांच रूपया वाले वकील बैठे रहते हैं किसी को भी ले आओ। मुव्वकिल गया और बोलै पांच रूपया वाले वकील चाहिए। तब वकील बोलै जितने पांच पांच रुपये वाले वकील थे वे सब जज बन गए हैं।
जितने भी अयोग्य और नकारा अधिकारी और कर्मचारी हैं वे सब वरिष्ठम अधिकारी और मंत्रियों के यह कार्यरत हैं। क्योकि उनको नाकारा अयोग्य इन्ही लोगों ने बनाया। कारण ये भ्र्ष्ट और नाकारा लोग ही सुविधा शुल्क ,व्यवस्था ,इन्तज़ाम अली का काम करते हैं। ये ही दूध देने वाली गाय होती हैं जिनकी लातें अच्छी लगती हैं।
यदि कोई इनके पास आकर धौंस देता हैं तो ये निडर होते हैं कारण इनके ऊपर बड़े आंका का हाथ रहता हैं। कौन इनके विरोध बोलेगा। आज मुखिया खुद आँख बंद का आत्मावलोकन करे की उनके यहाँ कितने दागीले भ्र्ष्ट अधिकारी कार्यरत रहे। हकीम लुकमान से पूछा गया आपने लायकी किससे सीखी तो बोलै नालायकों से। कारण वर्तमान में मुखिया को इतना अनुभव हो चूका हैं की वे अब सीधे लेन देन करते है न की कोई माध्यम से। कारण साफ़ हैं कलेक्टर यानी संग्राहक वह सबसे शाखाओं से ग्रहण करता हैं। डायरेक्टरेट में हर काम डिरेट या सीधे होता हैं ,और सेक्रेटिएट में हर काम सेक्रेट होता हैं और मिनिस्टर के यहाँ उनकी मर्ज़ी का होता हैं।
एक अफसरकी वार्षिक गोपनीय प्रतिवेदन में उनके उच्चाधिकारी ने लिखा दिया यह अफसर बहुत ही हार्ड वर्कर हैं तो उसके अधीनस्थ बाबू ने लिखा महोदय ये अफसर बहुत हार्ड हैं में इनके अधीनस्थकाम नहीं कर सकता क्योकि ये बहुत कड़े हैं। गोपनीय प्रतिवेदन लिखने में भी लाव और आर्डर होता हैं। यानी जितना अधिक घुलनशील द्रव्य होगा उतनी अधिक मिठास होती हैं। कई विभागों की वर्षों गोपनीय प्रतिवेदन नहीं लिखे जाते या वरिष्ठ कार्यालय में भेजे जाने और पावती होने के बाद अप्राप्त होती हैं और कभी कभी समूह में प्राप्ति के उपरांत कुछ विशेष की प्रतिवेदन नहीं मिलता और वर्षों के बाद पुनः लिखने का दबाव दिया जाता हैं। उस समय न वो अफसर होते हैं तब प्रश्न चिन्ह खड़ा होता था/हैं आखिर समूह में से मात्र कुछ प्रतिवेदन कहाँ गए। और उनको वर्षों बाद कौन लिखेगा ?यही वह बिंदु होता हैं जिसमे अन्य- आय का खेल होता हैं। अभी तो मात्र आदेश निकला हैं ,क्रियान्वयन कौन करेगा ?क्या अन्याय करने वाला अन्य– आय संतुष्ट होगा और वहीँ परम्परा मुख्य सचिव ,मंत्री मुख्य मंत्री तक चलती हैं। अब समूह में पुरानी तारीखों में प्रतिवेदन लिखे जाना सुनिश्चित हैं।।
अब यह प्रश्न आता हैं की सरकारी नौकर /अधिकारी चयन के बाद वर्षों काम करने के बाद अयोग्य ,नाकारा माना जाता हैं और हमारे विधायक/ मंत्री अनपढ़ ,अयोग्य गलत ढंग से जीतकर आना ,आया- राम, गया- राम होते हैं उनको कोई भी अयोग्य नहीं मानता। वे महोदय /महानुभाव /सम्मानीय /गणमान्य माने जाते हैं। वे अपराधों से आकंठ डूबे रहने के बाद में शासक माने जाते हैं। जो असामाजिक होते हैं उनको मुख्य मंत्री मंत्री परिषद् से निकाल नहीं पाते ,कभी कभी मुख्य मंत्री भी भ्रष्टाचार में लिप्त होने के बाद भी अयोग्य नहीं माने जाते वरन उनका अनुभव माना जाता हैं।
अब देखना हैं की इस प्रकार कितने अयोग्य कर्मचारी और अधिकारी नपेंगे और क्या इसके बाद विधायक /मंत्री /मुख्यमंत्री पर भी ऐसी कार्यवाही हो ऐसी अपेक्षा हैं।

भारत किसी का पिछलग्गू नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रुस के विदेश मंत्री सर्गेइ लावरोव ने बर्र के छत्ते को छेड़ दिया है। उन्होंने रुस की अंतरराष्ट्रीय राजनीति परिषद को संबोधित करते हुए ऐसा कुछ कह दिया, जो रुस के किसी नेता या राजनयिक या विद्वान ने अब तक नहीं कहा था। उन्होंने कहा कि अमेरिका चीन और रुस को अपने मातहत करना चाहता है। वह सारे संसार पर अपनी दादागीरी जमाना चाहता है। विश्व-राजनीति को वह एकध्रुवीय बनाना चाहता है। इसीलिए वह भारत की पीठ ठोक रहा है और उसने भारत, जापान, आस्ट्रेलिया और अमेरिका का चौगुटा खड़ा कर दिया है। उसने प्रशांत महासागर क्षेत्र को ‘भारत-प्रशांत’ का नाम देकर कोशिश की है कि भारत-चीन मुठभेड़ होती रहे। उसकी कोशिश है कि रुस के साथ भारत के जो परंपरागत मैत्री-संबंध हैं, वे भी शिथिल हो जाएं। हो सकता है कि ट्रंप-प्रशासन की इसी नीति को आगे बढ़ाते हुए बाइडेन-प्रशासन रुस के एस-400 मिसाइल प्रक्षेपास्त्रों की भारतीय खरीद का भी विरोध करे। ट्रंप प्रशासन ने हाल ही में जाते-जाते भारत के साथ ‘बेका’ नामक सामरिक समझौता भी कर डाला है, जिसके अंतर्गत दोनों देश गुप्तचर सूचनाओं का भी आदान-प्रदान करेंगे। रुसी विदेश मंत्री के उक्त संदेह निराधार नहीं हैं। उनको इस तथ्य ने भी मजबूती प्रदान की है कि इस्राइल, सउदी अरब और यूएई, जो कि अमेरिका के पक्के समर्थक हैं, आजकल भारत उनके भी काफी करीब होता जा रहा है। भारत के सेनापति आजकल खाड़ी देशों की यात्रा पर गए हुए हैं। लेकिन रुसी विदेश मंत्री क्या यह भूल गए कि रुस से अपने संबंधों को महत्व देने में भारत ने कभी कोताही नहीं की। पिछले दिनों भारत के रक्षामंत्री और विदेश मंत्री मास्को गए थे और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और व्लादिमीर पूतिन के बीच सीधा संवाद जारी है। यह ठीक है कि इस वक्त भारत और चीन के बीच तनाव कायम है। उसका फायदा कुछ हद तक अमेरिका जरुर उठा रहा है लेकिन भारत का चरित्र ही ऐसा है कि वह किसी का पिछलग्गू नहीं बन सकता है।

सरकार नरम, किसान गरम
सिद्धार्थ शंकर
सरकार और किसान संगठनों द्वारा एक-दूसरे के प्रस्ताव को ठुकराने के बाद अब आंदोलन आर-पार की ओर बढ़ चला है। सरकार का लिखित प्रस्ताव किसान संगठनों को नामंजूर है, तो किसान संगठनों की तीनों कानून वापस लेने वाली मांग सरकार को किसी कीमत पर मंजूर नहीं है। हालांकि सरकार ने भेजे गए प्रस्तावों में तीन नए कानूनों को रद्द करने के अलावा अधिकांश उन आपत्तियों पर सकारात्मक और नरम रुख अख्तियार किया है जिनका डर आम किसानों को दिखाया जा रहा है। पिछले दो-ढाई महीने से पंजाब में जिस तर्ज पर आंदोलन चल रहा है, उसे दिल्ली पहुंचकर अब देश भर में विस्तार देने की रणनीति है। 12 और 14 दिसंबर के प्रस्तावित आंदोलन के पीछे की रणनीति और वजह यही है। 12 दिसंबर को दिल्ली-जयपुर हाईवे और दिल्ली-आगरा एक्सप्रेस-वे जाम करने की घोषणा की गई है। दिल्ली-जयपुर और दिल्ली-आगरा को अवरोध करने के पीछे राजस्थान से मिल रहे किसानों, खापों के समर्थन के साथ-साथ सियासी वजह भी है। राजस्थान में कांग्रेस की सरकार है। राजस्थान से दिल्ली पहुंचना आसान है। पंजाब से सटे हरियाणा को न चुनने के पीछे एक वजह यह है कि हरियाणा के करीब 20 किसान संगठनों ने अतर सिंह की अगुवाई में कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर से मिलकर सरकार के नए कृषि कानून को समर्थन दे रखा है। इसके बाद 14 दिसंबर को सभी जिला मुख्यालयों में सांकेतिक धरना-प्रदर्शन के जरिए समर्थन जुटाने की रणनीति है, लेकिन दक्षिण में किसान संगठनों के बेमियादी जम जाने की भी तैयारी है। दक्षिण में चुनाव सिर पर हैं।
सवाल यह है कि जब सरकार की ओर से लिखित प्रस्ताव आया तो किसान इसे मानने के लिए तैयार क्यों नहीं हैं। सरकार की ओर से किसानों को 20 पेज का जो प्रस्ताव दिया गया है, उसे किसान संगठन भ्रामक मानते हैं। किसान जत्थेबंदियों और इनके नेताओं का कहना है कि हमारी पहली ही मांग तीन नए कानूनों को वापस लेने की है, जबकि सरकार ने इसे ही नकार दिया। 20 पेज के इस प्रस्ताव में शुरू के 8 पेज पर नए कानूनों की भूमिका और पृष्ठभूमि है। आखिरी के दो पन्ने पर आंदोलन वापस लेने की अपील और धन्यवाद है। 10 पन्ने पर 10 प्रस्ताव हैं जिनमें बदलाव या संशोधन की पेशकश के साथ आगे के लिए गुंजाइश छोड़ी गई है। पहले ही पन्ने पर साफ कर दिया गया है कि कृषि सुधार कानूनों को निरस्त नहीं किया जाएगा बल्कि जिन प्रावधानों पर आपत्ति हैं, उन पर सरकार खुले मन से विचार करने को तैयार है। यानी इस प्रस्ताव के साथ सरकार ने आगे भी बातचीत का दरवाजा खोला है। सरकार ने प्रस्ताव भेजकर यह संदेश भी दिया कि यदि आपसी सहमति हो और कुछ मामूली बातचीत की गुंजाइश हो, तो बृहस्पतिवार को बैठक में निदान निकाला जा सकता है, लेकिन किसान संगठन अब कानून वापसी से कम किसी और प्रस्ताव पर विचार को तैयार नहीं। प्रस्ताव में सरकार सबसे बड़े मसले न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी देने को तैयार है। सरकारी खरीद में कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। दूसरा, कांट्रैक्ट फार्मिंग को लेकर भी सरकार किसानों को सुरक्षा कवच देने को तैयार है। आंदोलनकारियों की ओर से किसानों की जमीन पर कॉरपोरेट के कब्जे का जो अंदेशा जताया गया है, उस पर भी सरकार की ओर से साफ कर दिया गया कि किसानों की न तो जमीन ली जाएगी, न निर्माण पर खरीदार द्वारा कर्ज। किसानों की भूमि कुर्क भी नहीं होगी, न कोई जुर्माना लगेगा बल्कि खरीदार पर 150 फीसदी का जुर्माना होगा। 2020 का नया बिजली कानून पूरी तरह रद्द कर सब्सिडी की राज्य वाली पुरानी व्यवस्था बनी रहेगी। पराली जलाने पर भारी भरकम जुर्माने का समुचित निदान का प्रस्ताव है। बता दें कि एक दिन पहले अमित शाह के साथ बैठक में मौखिक भरोसा मिल चुका है कि कृषि क्षेत्र को प्रदूषण के इस कड़े कानून से राहत मिल जाएगी। विवादित मामलों का एसडीएम से न्यायालीय निपटारे में अधिकार को भी संशोधित करने या किसान ट्रिब्यूनल पर विचार कर लिया गया है।

 

 

किसान बचें नेताओं से
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
किसान नेताओं को सरकार ने जो सुझाव भेजे हैं, वे काफी तर्कसंगत और व्यवहारिक हैं। किसानों के इस डर को बिल्कुल दूर कर दिया गया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य खत्म होनेवाला है। वह खत्म नहीं होगा। सरकार इस संबंध में लिखित आश्वासन देगी। कुछ किसान नेता चाहते हैं कि इस मुद्दे पर कानून बने। याने जो सरकार द्वारा निर्धारित मूल्य से कम पर खरीदी करे, उसे जेल जाना पड़े। ऐसा कानून यदि बनेगा तो वे किसान भी जेल जाएंगे जो अपना माल निर्धारित मूल्य से कम पर बेचेंगे। क्या इसके लिए नेता तैयार हैं ? इसके अलावा सरकार सख्त कानून तो जरुर बना दे लेकिन वह निर्धारित मूल्य पर गेहूं और धान खरीदना बंद कर दे या बहुत कम कर दे तो ये किसान नेता क्या करेंगे ? ये अपने किसानों का हित कैसे साधेंगे ? सरकार ने किसानों की यह बात भी मान ली है कि अपने विवाद सुलझाने के लिए वे अदालत में जा सकेंगे याने वह सरकारी अफसरों की दया पर निर्भर नहीं रहेंगे। यह प्रावधान तो पहले से ही है कि जो भी निजी कंपनी किसानों से अपने समझौते को तोड़ेगी, वह मूल समझौते की रकम से डेढ़ गुना राशि का भुगतान करेगी। इसके अलावा मंडी-व्यवस्था को भंग नहीं किया जा रहा है। जो बड़ी कंपनियां या उद्योगपति या निर्यातक लोग किसानों से समझौते करेंगे, वे सिर्फ फसलों के बारे में होंगे। उन्हें किसानों की जमीन पर कब्जा नहीं करने दिया जाएगा। इसके अलावा भी यदि किसान नेता कोई व्यावहारिक सुझाव देते हैं तो सरकार उन्हें मानने को तैयार है। अब तक कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और गृहमंत्री अमित शाह का रवैया काफी लचीला और समझदारी का रहा है लेकिन कुछ किसान नेताओं के बयान काफी उग्र हैं। क्या उन्हें पता नहीं है कि उनका भारत बंद सिर्फ पंजाब और हरयाणा और दिल्ली के सीमांतों में सिमटकर रह गया है ? देश के 94 प्रतिशत किसानों का न्यूनतम समर्थन मूल्य से कुछ लेना-देना नहीं है। बेचारे किसान यदि विपक्षी नेताओं के भरोसे रहेंगे तो उन्हें बाद में पछताना ही पड़ेगा। राष्ट्रपति से मिलनेवाले प्रमुख नेता वही हैं, जिन्होंने मंडी-व्यवस्था को खत्म करने का नारा दिया था। किसान अपना हित जरुर साधे लेकिन अपने आप को इन नेताओं से बचाएं।

नोबेल पुरस्कार वितरण समारोह
श्वेता गोयल
स्वीडन के वैज्ञानिक अल्फ्रेड नोबेल की पुण्य स्मृति में नोबेल फाउंडेशन द्वारा प्रतिवर्ष प्रदान किया जाने वाला दुनिया का सर्वोच्च सम्मान ‘नोबेल पुरस्कार’ शांति, साहित्य, भौतिकी, रसायन विज्ञान, चिकित्सा विज्ञान तथा अर्थशास्त्र के क्षेत्र में प्रदान किया जाता है। प्रतिवर्ष नोबेल पुरस्कार विजेताओं के नामों की घोषणा अक्तूबर माह में ही कर दी जाती है। इन सभी विजेताओं को स्टॉकहोम में आयोजित भव्य समारोह में 10 दिसम्बर को विश्व का यह सर्वोच्च पुरस्कार दिया जाता है। आइए देखते हैं, इस वर्ष दुनिया की किन हस्तियों को किस विशिष्ट क्षेत्र के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किए गए।
शांति
इस वर्ष शांति के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा नॉर्वे की नोबेल समिति द्वारा 9 अक्तूबर को की गई थी। इस बार यह पुरस्कार किसी एक व्यक्ति को नहीं बल्कि संस्था को मिला है। पुरस्कार के लिए दुनियाभर से 211 व्यक्तियों और 107 संगठनों को नामित किया गया था। कोरोना संकट, सैन्य संकट तथा अन्य मुश्किल दौर में दुनियाभर में बड़े पैमाने पर जरूरतमंदों को खाना खिलाने और शांति कायम करने से जुड़े सराहनीय कार्यों के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की भूख के खिलाफ संघर्षरत एजेंसी ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ को यह पुरस्कार दिया जा रहा है। नोबेल कमेटी के अनुसार ‘वर्ल्ड फूड प्रोग्राम’ दुनिया का सबसे बड़ा मानवीय संगठन है, जिसने पिछले साल खाद्य असुरक्षा के शिकार 88 देशों के 100 मिलियन लोगों को खाना मुहैया कराया। नोबेल समिति की विज्ञप्ति के अनुसार युद्ध प्रभावित क्षेत्रों में शांति की स्थापना और युद्ध के हथियार के रूप में भूख के उपयोग को रोकने के लिए ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ के प्रयास सराहनीय हैं। समिति के बयान में कहा गया कि ऐसी संस्था को पुरस्कार मिलने से सभी देशों का ध्यान इस ओर जाएगा और लोगों को मदद मिल सकेगी।
साहित्य
साहित्य के लिए इस वर्ष का नोबेल पुरस्कार वर्ष 1943 में न्यूयॉर्क में जन्मी 77 वर्षीय अमेरिकी कवयित्री लुईस ग्लिक को उनकी अचूक काव्यात्मक आवाज के लिए दिए जाने की घोषणा 8 अक्तूबर को स्वीडिश अकादमी द्वारा की गई। ग्लिक फिलहाल येल विश्वविद्यालय में अंग्रेजी की प्रोफेसर हैं, जिनकी पहली रचना ‘फर्स्टबोर्न’ 1968 में प्रकाशित हुई थी। स्वीडिश अकादमी का कहना है कि ग्लिक की कविताओं की आवाज ऐसी है, जिनमें कोई गलती हो ही नहीं सकती और उनकी कविताओं की सादगी भरी सुंदरता उनके व्यक्तिगत अस्तित्व को सार्वभौमिक बनाती है। अकादमी के अनुसार ग्लिक का 2006 का संग्रह ‘एवर्नो’ एक उत्कृष्ट संग्रह था। ग्लिक अपनी रचनाओं में ग्रीक पौराणिक कथाओं तथा पर्सपेफोन, एरीडाइस जैसे उसके पात्रों से भी प्रेरणा लेती हैं, जो अक्सर विश्वासघात का शिकार होते हैं। उनकी कविताएं मानवीय दर्द, मौत, बचपन, पारिवारिक पृष्ठभूमि और उनकी जटिलताओं को बयान करती हैं। उन्हें वर्ष 1993 में उनकी रचना ‘द वाइल्ड आइरिश’ के लिए पुलित्जर पुरस्कार दिया गया था। इसके अलावा उन्हें वर्ष 2001 में बोलिंजन प्राइज फॉर पोएट्री, 2008 में वालेस स्टीवेंस पुरस्कार, 2014 में नेशनल बुक अवार्ड तथा 2015 में नेशनल ह्यूमेनिटीज मैडल जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त हो चुके हैं।
अर्थशास्त्र
अर्थशास्त्र के क्षेत्र में वर्ष 2019 में कुल तीन अर्थशास्त्रियों को यह सम्मान दिया गया था और इस बार यह पुरस्कार दो अर्थशास्त्रियों को दिया जा रहा है। इस वर्ष यह पुरस्कार दो अमेरिकी अर्थशास्त्रियों पॉल आर मिलग्रोम तथा रॉबर्ट बी विल्सन को संयुक्त रूप से दिए जाने की घोषणा 12 अक्तूबर को स्टॉकहोम में रॉयल स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा की गई। ऑक्शन थ्योरी (नीलामी सिद्धांत) में सुधार लाने और नीलामी के नए तरीकों का आविष्कार करने के लिए मिलग्रोम और विल्सन को यह पुरस्कार दिया गया है। दोनों अर्थशास्त्री अमेरिका के स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय से संबद्ध हैं, जिन्होंने ऐसी वस्तुओं और रेडियो फ्रीक्वेंसी जैसी सेवाओं के लिए नए नीलामी प्रारूप तैयार किए, जिन्हें पारम्परिक तरीके से बेचना मुश्किल है। इन अर्थशास्त्रियों ने अध्ययन किया कि नीलामी प्रक्रिया कैसे काम करती है और इनकी खोजों से दुनियाभर के विक्रेता, खरीदार और करदाताओं को लाभ पहुंचा है।
चिकित्सा
चिकित्सा के क्षेत्र में इस साल हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज करने वाले तीन वैज्ञानिकों को नोबेल पुरस्कार के लिए चुना गया है। कैरोलिंस्का इंस्टीच्यूट की नोबेल असेम्बली द्वारा 5 अक्तूबर को इस सम्मान की घोषणा की गई और पुरस्कार के लिए हेपेटाइटिस सी वायरस की खोज के लिए संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को चुना गया। ये तीनों वैज्ञानिक हैं अमेरिकी वैज्ञानिक हार्वि जे आल्टर तथा चार्ल्स एम राइस और ब्रिटेन के माइकल हागटन। हेपेटाइटिस को एक क्रॉनिक बीमारी की श्रेणी में रखा जाता है, जो लीवर से जुड़ी बीमारियों तथा कैंसर का प्रमुख कारण है। नोबेल समिति के प्रमुख थॉमस पर्लमैन के अनुसार इन वैज्ञानिकों की खोज ने गंभीर हेपेटाइटिस के बाकी मामलों के कारणों का पता लगाने, रक्त परीक्षण और नई दवाओं के निर्माण को संभव बनाया है, जिससे लाखों लोगों की जान बचाई जा सकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के मुताबिक विश्वभर में हेपेटाइटिस के करीब सात करोड़ मामले हैं और इस बीमारी के कारण प्रतिवर्ष करीब चार लाख लोगों की मौत हो जाती है।
भौतिकी
भौतिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों ब्रिटेन के रोजर पेनरोज, जर्मनी के रेनहर्ड गेंजेल तथा अमेरिका की एंड्रिया गेज को संयुक्त रूप से दिए जाने की घोषणा 6 अक्तूबर को रॉयल स्वीडिश अकादमी ऑफ साइंसेज द्वारा स्टॉकहोम में की गई। रोजर पेनरोज को अल्बर्ट आइंस्टीन के सिद्धांत के आधार पर ब्लैकहोल के निर्माण का पता करने के लिए मैथेमैटिकल मॉॅडल्स तैयार करने के लिए यह पुरस्कार मिला है। ब्लैक होल ब्रह्मांड का वह हिस्सा है, जहां गुरूत्वाकर्षण इतना ज्यादा है कि रोशनी भी इस क्षेत्र से वापस नहीं आ सकती। रोजर ने दिखाया कि ब्लैक होल अल्बर्ट आइंस्टाइन के जनरल रिलेटिविटी के सिद्धांत का जरूरी परिणाम था और उन्होंने यह कहने के लिए सैद्धांतिक नींव रखी कि ब्लैक होल मौजूद है और अगर आप उनकी तलाश करें तो उन्हें पा सकते हैं। रेनहर्ड गेंजेल और एंड्रिया गेज को ब्रह्माण्ड के रहस्यों को समझाने के लिए भौतिका का नोबेल दिया गया है। इन्होंने हमारी आकाशगंगा के केन्द्र में एक सुपरमैसिव ब्लैक होल का अब तक का सबसे ठोस सबूत प्रदान किया है। इनके मुताबिक अनेक तारे किसी ऐसी चीज की परिक्रमा कर रहे थे, जो अब तक उन्होंने नहीं देखी, यह एक ब्लैक होल था, जो कोई साधारण ब्लैक होल नहीं बल्कि ‘सुपरमैसिव ब्लैक होल’ था, जो हमारे सूर्य से 40 लाख गुना अधिक द्रव्यमान का था। भौतिकी के नोबेल पुरस्कार की आधी राशि रोजर पेनरोज को जबकि शेष आधी राशि रेनहर्ड तथा एंड्रिया को समान रूप से दी जाएगी।
रसायन विज्ञान
रसायन विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार की घोषणा 7 अक्तूबर को स्टॉकहोम में रॉयल स्वीडिश अकादमी द्वारा की गई। इस वर्ष ये पुरस्कार दो महिला वैज्ञानिकों फ्रांस की विज्ञानी इमैनुएल शारपेंतिए तथा अमेरिकी बायोकेमिस्ट जेनिफर ए डोडना को ‘जीनोम एडीटिंग’ की एक पद्धति विकसित करने के लिए दिया गया है। इन दोनों महिला विज्ञानियों ने जीन प्रौद्योगिकी का महत्वपूर्ण टूल ‘सीआरआइएसपीआर-सीएएस9’ विकसित किया है, जिसे ‘जेनेटिक सीजर्स’ नाम दिया गया है। नोबेल समिति के अनुसार इनके प्रयोग से शोधकर्ता जानवरों, पौधों और सूक्ष्मजीवों के डीएनए को अत्यधिक उच्च परिशुद्धता के साथ बदल सकते हैं। यह क्रांतिकारी तकनीक चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दे रही है। यह न सिर्फ नए कैंसर उपचार में योगदान दे रही है बल्कि विरासत में मिली बीमारियों के इलाज के सपने को भी सच कर सकती है।

 

 

 

 

क्या जीवन में आध्यात्मिकता होना ज़रूरी है?
वैद्य अरविन्द प्रेमचंद जैन
जीवन या आयु यानि जन्म से मृत्यु की अवधि कहते हैं। आयु यानी शरीर आत्मा, मन और इन्द्रियों के संयोग को आयु कहते हैं हर व्यक्ति अपनी आयु को सुखद चाहता हैं।, शरीर के माध्यम से वह तप करके आत्मा से परमात्मा को प्राप्त कर सकता हैं। इसके लिए हमें धर्म के मर्म के अलावा दर्शन जानना जरुरी हैं।
आध्यात्मिकता का किसी धर्म, संप्रदाय या मत से कोई संबंध नहीं है। आप अपने अंदर से कैसे हैं, आध्यात्मिकता इसके बारे में है। आध्यात्मिक होने का मतलब है, भौतिकता से परे जीवन का अनुभव कर पाना। अगर आप सृष्टि के सभी प्राणियों में भी उसी परम-सत्ता के अंश को देखते हैं, जो आपमें है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको बोध है कि आपके दुख, आपके क्रोध, आपके क्लेश के लिए कोई और जिम्मेदार नहीं है, बल्कि आप खुद इनके निर्माता हैं, तो आप आध्यात्मिक मार्ग पर हैं। आप जो भी कार्य करते हैं, अगर उसमें सभी की भलाई निहित है, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आप अपने अहंकार, क्रोध, नाराजगी, लालच, ईष्र्या और पूर्वाग्रहों को गला चुके हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। बाहरी परिस्थितियां चाहे जैसी हों, उनके बावजूद भी अगर आप अपने अंदर से हमेशा प्रसन्न और आनंद में रहते हैं, तो आप आध्यात्मिक हैं। अगर आपको इस सृष्टि की विशालता के सामने खुद की स्थिति का एहसास बना रहता है तो आप आध्यात्मिक हैं। आपके अंदर अगर सृष्टि के सभी प्राणियों के लिए करुणा फूट रही है, तो आप आध्यात्मिक हैं।
आध्यात्मिक होने का अर्थ है कि आप अपने अनुभव के धरातल पर जानते हैं कि मैं स्वयं ही अपने आनंद का स्रोत हूं। आध्यात्मिकता मंदिर, मस्जिद या चर्च में नहीं, बल्कि आपके अंदर ही घटित हो सकती है। यह अपने अंदर तलाशने के बारे में है। यह तो खुद के रूपांतरण के लिए है। यह उनके लिए है, जो जीवन के हर आयाम को पूरी जीवंतता के साथ जीना चाहते हैं। अस्तित्व में एकात्मकता व एकरूपता है और हर इंसान अपने आप में अनूठा है। इसे पहचानना और इसका आनंद लेना आध्यात्मिकता का सार है। अगर आप किसी भी काम में पूरी तन्मयता से डूब जाते हैं, तो आध्यात्मिक प्रक्रिया शुरू हो जाती है, चाहे वह काम झाड़ू लगाना ही क्यों न हो। किसी भी चीज को गहराई तक जानना आध्यात्मिकता है।
जी हां प्रत्येक व्यक्ति को आध्यात्मिक होना जरूरी है। यह बात किसी धर्म या संप्रदाय से जोड़ कर नहीं देखनी चाहिए। हर धर्म में आध्यात्मिक होने के बारे में बताया गया है। तरीके अलग हो सकते हैं लेकिन मकसद एक ही है। हमारे देश में प्राचीन काल में आश्रम में गुरु अपने छात्रों को पहले आध्यात्मिक शिक्षा ही देते थे। छात्र को पहले आध्यात्मिक बनाया जाता था। उसके बाद दूसरी शिक्षाएं शुरु होतीं थीं। कोई व्यापार कीओर, कोई राजनीति की ओर, कोई युद्ध विद्या की ओर।
महाभारत में एक प्रसंग आता है जब गुरु द्रोणाचार्य एकलव्य का अंगूठा मांग लेते हैं। किसी ने नहीं समझा गुरु को बस आज तक हम यही सोचकर द्रोणाचार्य को कोसते हैं कि उन्होंने अपने शीष्य का जीवन बर्बाद कर दिया। और ऐसे शीष्य का जिसने उनसे शिक्षा ली भी नहीं थी। लेकिन उन्होंने अपना गुरु धर्म निभाया था। जिसने आध्यात्मिक शिक्षा नहीं ली और धनुर विद्या में निपुण होगया। वह समाज के लिये भयानक खतरा बन सकता है गुरु ने उसे तभी पहचान लिया जब उसने एक भौंकने वाले कुत्ते का मुंह अपने बांणों से भर दिया था। वह अंदर से जंगली ही था।
आज यदि आतंकियों को परमाणु अस्त्र मिल जायें तो वह बिना सोचे समझे उसका उपयोग करेंगे। आध्यात्मिक ज्ञान हमें समाज के प्रति जिम्मेदार बनाता है। आध्यात्मिक व्यक्ति किसी काम को करने से पहले उसके अच्छे व बुरे परिणाम के बारे में कई बार सोचेगा। यहां यह समझ लेना जरूरी है कि धार्मिक व्यक्ति और आध्यात्मिक व्यक्ति अलग अलग होते हैं। धार्मिकता और कट्टर धार्मिकता की वजह से संसार का बहुत बुरा हुआ है। संसार में बड़े से बड़ा हत्याकांड सिर्फ धार्मिकता की वजह से हुये। आध्यात्मिक व्यक्ति कभी भी किसी को सिर्फ इसलिए नहीं मार देगा कि वह हमारे अनुसार नहीं जीता है, हमारे धर्म के अनुसार नहीं चलता है। हमारी तरह ईश्वर को नहीं पूजता है।
आध्यात्मिक है जो व्यक्ति वह यह जानता है कि कैसे भी चलो कहीं से भी यात्रा शुरू करो पहुंचना तो अंत में वहीं है। फिर कैसा विवाद। विवाद हो ही नहीं सकता है। भारत आध्यात्म का जनक है। उसके लिये वसुधैव कुटुंबकम है।
आज धर्म का चिंतन संकीर्ण करके कट्टर धर्मान्धता को अपनाकर अशांति का वातावरण बना रहे हैं। इस कारण कोई सुखी नहीं है पर आध्यतम हमें सुखद अनुभूति देता हैं।

दाता बनाम् अन्नदाता के बीच कब तक भ्रम!
ऋतुपर्ण दवे
क्या किसान आन्दोलन ने पूरे देश में एक नई अलख जगा दी है? क्या किसानों की माँगे वाकई में न्यायोचित नहीं है?यदि ये कानून किसानों के हित में है, तो क्यों कोई भी बड़ा किसान संगठन इसके पक्ष में क्यों नहीं है?क्या किसानों की तैयारी से केन्द्र सरकार बेखबर थी और उससे भी बड़ा यह कि क्या जिन तीन कृषि कानूनों का अब पुरजोर विरोध हो रहा है, उनको बनाते समय केन्द्र सरकार ने जिनके लिए बनाया जा रहा है, उनकी राय लेना भी क्यों नहीं जरूरी समझा? अब वजह कुछ भी हो लेकिन किसानों की एकता ने देश में इस आन्दोलन को एक नया मंच और नई चेतना जरूर दे दी है. स्थिति कुल मिलाकर कुछ यूँ होती जा रही है कि पाँच दौर की वार्ता विफल होने के बाद आगे क्या होगा किसी को पता नहीं है. न ही किसान और न ही सरकार झुकने को तैयार है.हाँ अगर कुछ दिख रहा है तो वह यह कि किसानों के हौसले बुलन्द है और तैयारी पुरजोर और इतनी कि उनके द्वारा दी गई चेतावनी भी सच सी लगने लगीं. जिस तरह सड़कों पर ट्रैक्टर ट्रॉलियों और बड़े-बड़े वाहनों को अस्थाई आश्रय केन्द्रों में तब्दील कर पूरी तरह से व्यवस्थित ढ़ंग से रोज के भोजन, पानी का इंतजाम हो रहा है, उसने कम से कम भरे कोविड काल में किसानों की एकता पर मुहर लगा दी है. सड़कों को आशियाना में तब्दील कर चुके किसानों की घोषणा पर भी अब आश्चर्य नहीं होता कि 6 महीने के राशन-पानी के इंतजाम के साथ आए हैं. एकता का परिणाम देश ने स्वतंत्रता के पहले और बाद में भी कई मौकों पर देखा है. शायद किसानों के गुस्से या एकजुटता को नजर अंदाज करना ही सरकार के लिए बड़ी मुसीबत का सबब बन गया है. आगे क्या होगा कोई नहीं जानता. आन्दोलन उग्र होगा या बात बनेगी कुछ भी कहना जल्दबाजी होगी.
अन्नदाताओं के आन्दोलन को 11 दिन हो चुके हैं. शनिवार को पाँचवें दौर की वार्ता विफल होने के बाद दोनों ही पक्षों का अपनी-अपनी रणनीतियों को लेकर मंथन हो रहा होगा. निश्चित रूप से सरकारी इण्टेलीजेंस अब काफी सतर्कता से किसानों की गतिविधियों पर निगरानी तो रख ही रहा होगा, लेकिन इससे क्या निकलेगा यह पता नहीं. किसानों के आन्दोलन की सफलता का बड़ा राज यह भी है कि राजनैतिक दलों के लोगों के जुड़ने के बाद भी इसमें किसी का ठप्पा नहीं लगा है. अवार्ड लौटाने का सिलसिला और इसमें नामचीन लोगों के आगे रहने और पूरी खुद्दारी के साथ किसानों के जुड़ने से आन्दोलन वृहद होता जा रहा है. वहीं पंजाब से भरपूर और कई अन्य राज्यों जिस तरह से समर्थन मिल रहा है वह हर रोज आन्दोलन को एक नई गति दे रहा है.सरकार के इस आग्रह को कि सर्दी का मौसम है,कोविड का संकट है,इसलिए बुजुर्ग, बच्चों,महिलाओं को नियन के नेता घर भेज दें. लेकिन बुजुर्ग और महिलाएँ किसी भी कीमत पर झुकने को तैयार नहीं है. कुल मिलाकर मामला पेचीदा होता जा रहा है.
हाँ एक बात जरूर दिख रही है कि आन्दोलन को लेकर कुछ जिम्मेदार व कुछ स्वयं भू लोगों के बयानों ने एक नई हवा देने की कोशिश जरूर की थी. लेकिन उससे भी बड़ी सुकून की बात यह है कि इसे न तो आन्दोलनकारियों ने दूसरों कोई तवज्जो नहीं दी वरना रास्ता भटक सकता था. एक ओर जहाँ एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया यानी ईजीआई किसानों के प्रदर्शन के समाचार कवरेज को लेकर चिंतित है कि मीडिया का कुछ हिस्सा बगैर किसी साक्ष्य के प्रदर्शनकारी किसानों को ‘खालिस्तानी’ और ‘राष्ट्र-विरोधी’ बताआंदोलन को ही अवैध करार दे रहा है. एडीटर्स गिल्ड इसे जिम्मेदार, नैतिकतापूर्ण और भरोसेमन्द पत्रकारिता के सिद्धांतों के खिलाफ मानते हुए किसान आंदोलन का निष्पक्ष और संतुलित कवरेज करने की सलाह दी है. इसी तरह नागरिकता संशोधन कानून यानी सीएएके खिलाफ उस समय प्रदर्शन का खास चेहरा बनी शाहीन बाग की दादी बिल्किस बानो पर फर्जी ट्वीट से अभिनेत्री कंगना रनौत फिर सुर्खियों में हैं.बूढ़ी महिला को पंजाब के जीरकपुर के वकील ने बिलकिस दादी बताने के ट्वीट पर माफी मांगने की मांग की है. दरअसल मोहिंदर कौर को बिलकिस बानो के रूप में गलत बताते हुए किए गए एक ट्वीट के लिए कानूनी नोटिस कंगना को भेजा है.कंगना ने ट्वीट को रीट्वीट कर, किसान प्रोटेस्ट में शामिल बुजुर्ग किसान महिला को न केवल शाहीन बाग की बिलकिस बानो बताया थाबल्कि यह भी लिखा था कि दिहाड़ी के हिसाब से दादी से काम करवाया जाता है ट्वीट जमकर ट्रोल होने लगा और लोगों के निशाने पर आने के बाद कंगना नेडिलीट कर दिया.
किसानों की मांग है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपीको कानूनी अधिकार बनाए जिससे कोई भी ट्रेडर या खरीददार किसानों से उनके उत्पाद को कम दाम पर न खरीद पाए. फिर भी कोई ऐसा करता है तो उस पर कार्रवाई हो.एमएसपी और मंडियों की स्थापित व्यवस्था को खत्म होने का फायदा केवलखरीददारों को होगा जो बड़े लोग भी हो सकते हैं. इससे किसान इन्हीं के रहमों करम पर बंधुआ सरीखे मजबूर हो जाएंगे. जबकि सरकार की सफाई है कि कानून किसानों को एक खुला बाजार देता है जहाँ वे अपनी मनमर्जी के कृषि उत्पाद बेच सकें. हालांकि सरकार का कहना है कि एमएसपी खत्म नहीं की जा रही है और मंडियां भी पहले की तरह काम करती रहेंगी. लेकिन किसान इस पर आशंकित हैं. किसानों का दूसरा विरोध कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के जरिए अनुबंध से खेती को बढ़ावा देने के लिए बने राष्ट्रीय फ्रेमवर्क पर है.इसमें किसान और खरीददार के बीच समझौता होगा और किसान ट्रेडर या खरीददार को एक पूर्व निर्धारित कीमत उपज बेचेगा. जिसमें कृषि उत्पाद की गुणवत्ता, ग्रेड और स्टैंडर्ड भी पहले ही तय होगा.इसमें नियमों के तहत फसलों की बुआई से पहले कम्पनियां, किसानों का अनाज एक संविदा के तहत, तय मूल्य पर खरीदने का वादा करेंगी. क्या उपजाना है यह भी उस उसी में तय होगा. साथ ही उपजबाजार की जरूरत और मांग के हिसाब से होगी. मतलब कम्पनियों के आगे किसान मजबूर होगा क्योंकि किसान की फसल तैयार होगी तो कम्पनियाँ कुछ समय इंतजार करने को कह बाद में उत्पाद को खराब बता,अमान्य बता नया मोलभाव भी कर सकती है. तीसरा कानून है आवश्‍यक वस्‍तु संशोधन अधिनियम यानी ईसीए. इसमें अनाज,दलहन,तिलहन,खाद्य तेल यहाँ तक किप्याज और आलू को भी आवश्यक वस्तु की सूची से हटा दिया गया है. किसान इसे दोधारी तलवार मान रहे हैं क्योंकि निजी खरीददारों द्वारा इन वस्तुओं के भंडारण या जमा करने पर सरकार का नियंत्रण नहीं होगा. इसमें बड़े पैमाने पर थोक खरीद या जमाखोरी के कारण जरूरी जिंसों के दाम बढ़ेंगे जिसके दो प्रतिकूल प्रभाव भी संभव है.पहला ग्रामीण क्षेत्रों में महंगाई दर बढ़ेगी नतीजन गरीबी बढेगी और दूसरासरकारी राशन दुकानों के लिए खरीद की लागत बढ़ेगी. आलू-प्याज के आसमान छूते दाम सामने हैं. अब किसान ही सस्ता बेचकर इन्हें मंहगे दामों पर खरीदने को मजबूर हैं. यानी गरीब एवं मध्यम वर्ग को नुकसान होने की संभावना है.
किसानों की आशंकाएं वाजिब हैं. भले ही यह कानून कागजों में प्रगतिशील लगें लेकिन बहुत दूर की सोच के साथ किए गए दिखते हैं. निश्चित रूप से इनसे जैसा कि किसानों का आरोप है और आन्दोलन की वजह हैकि उन्हें जमाखोरों, व्यापारियों, कॉरपोरेटर्स, मल्टीनेशनल कंपनियों के रहमोकरम पर छोड़ा जा रहा है जो आखिरअन्नदाता विरोधी ही साबित होंगे.हमारे सामने अमेरिका व यूरोप की फ्री मार्केटिंग व्यवस्था यानी मुक्त बाजार आधारित नीति का उदाहरण है. 1970 में वहाँ किसानों को रिटेल कीमत का 40% मिलता थाअब फ्री मार्केट के बाद किसानों को रिटेल कीमत की मात्र 15% ही मिलता है.वहाँ फायदा कम्पनियों व सुपर मार्केट श्रंखला वालों को हुआबावजूद इसके किसानों को जिंदा रखने के लिएहर वर्ष करीब सात लाख करोड़ रुपये की सरकारी मदद दी जाती है. लेकिन इससे कितना वास्तविक नुकसान हुआ और किसान पराधीन हुए यह भी समझ आता है. ऐसे में भारत में किसानों की आशंकाएँ बेवजह नहीं लगती और यह भी इतनी बड़ी संख्या में लोगों का जुटना और दिन-प्रतिदिन समर्थन बढ़ना कहीं न कहीं यह पुख्ता संकेत है कि कुछ तो है जो कानून में किसान विरोधी है. यह भी ध्यान रखना होगा कि भारत जय जवान-जय किसान का समर्थनक था है और रहेगा. ऐसे में दाता बनाम अन्नदाता की जंग, सुलह में बदलनी चाहिए ताकि एक नई क्रान्ति की अलख जगे और हो हरित क्रान्ति.