आलेख -18

तीन तलाकः तीन टांग की कुर्सी
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तीन तलाक के विधयक को लोकसभा ने दुबारा पास कर दिया है। यह एक गुनाह बेलज्जत है, क्योंकि इसे लोकसभा के आधे सदस्यों का भी समर्थन नहीं मिला। सिर्फ 246 सदस्यों ने इसके पक्ष में वोट दिया। ज्यादातर दलों ने इसका बहिष्कार किया। पिछले साल भी इस विधेयक को इसी तरह पास कर दिया गया था लेकिन वह राज्यसभा में पिट गया था। हमारी सर्वज्ञ सरकार को कुछ अकल आई और उसने इसमें कई जरुरी संशोधन कर दिए। अब भी यह विधेयक तीन टांग की कुर्सी बना हुआ है। हमारे सर्वज्ञजी की सरकार की काबिलियत का हाल यह है कि वह जो भी शेरवानी बनाती है, वह तब तक पहनने लायक नहीं होती, जब तक कि उसमें दर्जनों थेगले न लग जाएं। तीन तलाक जैसा हाल नोटबंदी, जीएसटी और फर्जिकल स्ट्राइक का पहले ही हम देख चुके हैं। इस तीन तलाक कानून में यह प्रावधान अभी तक बना हुआ है कि जिस मियां ने अपनी बीवी को तीन तलाक बोला, वह तुरंत जेल की हवा खाएगा लेकिन सर्वज्ञजी से पूछिए कि वह बीवी और वे बच्चे क्या खाएंगे ? उनके भरण-पोषण की इस कानून में क्या व्यवस्था है ? और तीन साल की जेल ? इसका क्या मतलब है ? मामला है, दीवानी और सजा है, फौजदारी ! क्या खूब ? तीन तलाक गैर-कानूनी है, इसीलिए मियां को बीवी का मियां ही बने रहना पड़ेगा लेकिन बीवी घर में रहेगी और मियां जेल में ! ये कानून है या कानून का मजाक ? इसका मतलब यह नहीं कि तीन तलाक की कुप्रथा खत्म नहीं होनी चाहिए। जरुर होनी चाहिए। मोदी सरकार को बधाई कि उसने यह पहल की लेकिन असली सवाल यह है कि यह इतने पुण्य का काम है और इस पर संसद में दंगल हो रहा है ? क्यों हो रहा है ? सर्वसम्मति क्यों नहीं हो रही है ? क्योंकि सरकार इस तीन टांग की कुर्सी पर बैठकर दो निशाने लगा रही है। एक तो वह मुस्लिम महिलाओं की सहानुभूति बटोरना चाहती है और दूसरा, अपने हिंदू वोटरों को वह यह बताना चाहती है कि देखो, हमने मुसलमानो को कैसे तान दिया है। इसीलिए जब पहली बार यह विधेयक गिरा तो सरकार ने अध्यादेश जारी कर दिया था। उसने जानबूझ कर साल भर खो दिया। इस बीच यह विधेयक यदि संसद की प्रवर समिति के पास चला जाता तो यह सचमुच एक सार्थक कानून बन जाता और यह सर्वसम्मति से पारित हो जाता। सरकार की पगड़ी में एक नया मोरपंख लग जाता।

कांग्रेस स्थापना दिवस के केक की मिठास के मायने
डॉ हिदायत अहमद खान
भारतीय स्वतंत्रता के पहले का दल कांग्रेस आज जिस तरह से रसातल पर पहुंच गया है उसे वहां कतई नहीं होना चाहिए था, क्योंकि उसका मुकाम तो आला दर्जे पर ही होना चाहिए। शुरु से ही देश और समाज सेवा में लगे वरिष्ठ कांग्रेसियों का तो यही मानना है, लेकिन देश की राजनीति ने रास्ते का सफर शुरु कर दिया है वहां इसकी उम्मीद कम ही नजर आती है। दरअसल अब राजनीति में अवसरवादिता और लोभ-लालच का बोलवाला है। सिद्धांत तो मानों सफेदपोशों से कोसों दूर जा चुके हैं, यही वजह है कि सुबह किसी पार्टी में तो शाम किसी और पार्टी वाली प्रथा जोरों पर चल पड़ी है। जनसेवक को अब अज्ञानी और कमजोर बताया जाता है, जबकि हवा-हवाई बातें करने और झूठ व फरेब के दम पर लोगों को भ्रमित करके अपना उल्लू सीधा करने वाला सबसे बड़ा नेता बन जाता है। इसलिए कहा जाता है कि अब राष्ट्रीय पार्टियों के दिन भी लदने वाले हैं क्योंकि उन्हें क्षेत्रीय और स्थानीय राजनीतिक पार्टियों की बतौर बैसाखी आवश्यकता होती है। इनके बगैर ये सरपट दौड़ना तो दूर सही से चल भी नहीं सकते हैं। इसलिए लगातार सत्ता में बने रहने या फिर एक रफ्तार में चलते रहने की बहुत अधिक उम्मीद की भी नहीं जा सकती है। ऐसे माहौल में एक राजनीतिक दल के नेता कांग्रेस मुक्त भारत का सपना देखने और दिखाने का काम कर सकते हैं, लेकिन संभवत: यहां उनसे भूल भी हो जाती है कि वो जिस मुक्तता की बात कर रहे हैं वो उनके या पार्टी के हाथ में है ही नहीं, क्योंकि लोकतंत्र में जनता-जनार्दन का फैसला ही सर्वोपरी होता है। इस तरह की हुंकार भरना सही मायने में देश के असली मालिकों का अपमान करने जैसा ही काम है। संभव है कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव परिणामों से इसका आभास भी हो ही गया होगा। बहरहाल यहां हम इन बिंदुओं पर प्रकाश नहीं डालेंगे, क्योंकि बात कांग्रेस की स्थापना और उसके किए गए कार्यों से लेकर आज की राजनीति पर आधारित होती जा रही है। इसलिए जब कांग्रेस के 134वें स्थापना दिवस पर पार्टी के युवा अध्यक्ष राहुल गांधी और सफलतम पूर्व प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह केक काट रहे थे तो उसकी मिठास दूर-दराज बैठे कांग्रेसजनों, समर्थकों व प्रशंसकों समेत आमजन के दिलों तक पहुंच रही थी। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसकी स्थापना ब्रिटिश राज में 28 दिसंबर 1885 में हुई तब से यह बराबर अपना सफर जारी रखे हुए है। कंटकों और अग्निकुंड से परिपूर्ण मार्गों को पार करते हुए आजाद हिंदुस्तान की नींव रखने वाली प्रमुख राजनीतिक पार्टी के तौर पर कांग्रेस ने वो इतिहास रचा है, जिसे मिटाना अब खुद उसके बूते की बात नहीं रह गई है। दरअसल सत्ता में रहते हुए देश की दिशा और दशा तय करने वाली कांग्रेस के कार्यों और उपलब्धियों की छाप किसी पुस्तक या शिलालेखों में उकेरी गई होती तो संभव है कि उन्हें नष्ट करके कांग्रेस मुक्त भारत की कल्पना की जा सकती थी, लेकिन जिसने अपनी छाप करोड़ों देशभक्तों के दिलों में छोड़ी हो, उसे आखिर यूं ही कैसे किनारे लगाया जा सकता है। बावजूद इसके एक राजनीतिक पार्टी होने के नाते यह कहना उचित होगा कि यह लोकतंत्र की खूबसूरती है कि बिना हिंसा और मार-काट के सरकारें बदली जाती हैं, इसलिए जब तक हो देशहित और समाज को लाभांवित करने वाले कार्यों को करते जाना चाहिए। देश की जनता को खासी उम्मीदें हैं, उन पर खरे उतरना कांग्रेस के जिम्मेदारों की जिम्मेदारी ही नहीं बल्कि धर्म भी है। इसलिए कांग्रेस के स्थापना दिवस की मिठास को यदि वाकई कायम रखना है तो जमीनी स्तर पर कार्य करने ही होंगे।

सरकारी दावे और गंदगी व प्रदूषण का साम्राज्य
निर्मल रानी
देश की जनता को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लाल िकले की प्राचीर से होने वाला उनका प्रथम संबोधन ज़रूर याद होगा जिसमें उन्होंने स्वच्छता अभियान की ‘शुरुआत’ करने की घोषणा करते हुए यह वादे किए थे कि महात्मा गांधी की 2019 में होने वाली 150वीं जयंती तक देश के प्रत्येक गली-मोहल्ल्ेा,गांव-शहर,स्कूल,मंदिर-अस्पताल आदि समस्त क्षेत्रों में हम गंदगी का नाम-ो-निशान नहीं रहने देंगे। ऐसा ही एक वादा यह भी था कि देश के प्रत्येक घर में शौचालय बनाए जाएंगे ताकि खुले में शौच करने की समस्या से निजात पाया जा सके। और तीसरा प्रमुख वादा यह भी था कि सांसदों तथा विधायकों द्वारा आदर्श ग्राम योजना के अंतर्गत् गांव को गोद लिया जाएगा तथा इसका विकास सुनिश्चित किया जाएगा। कुछ ही समय बाद 2019 के लोकसभा चुनाव पुन: होने जा रहे हैं। इसलिए यह ज़रूरी है कि प्रधानमंत्री के वादों व संकल्पों के पूरा होने या न होने पर एक नज़र ज़रूर डाली जाए।
दरअसल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2 अक्तूबर 2014 को गांधी जयंती के अवसर पर शुरु किया गया स्वच्छ भारत अभियान कोई नया या अद्भुत अभियान था ही नहीं। सर्वप्रथम 1986-1999 के मध्य केंद्र सरकार द्वारा इस अभियान को केंद्रीय ग्रामीण स्वच्छता कार्यक्रम के नाम से शुरु किया गया था। इसे संपूर्ण स्वच्छता अभियान भी कहा जाता था। 2012 में इसी संपूर्ण स्वच्छता अभियान का नाम बदलकर निर्मल भारत अभियान कर दिया गया था। और 2014 में इसी अभियान को स्वच्छ भारत अभियान का नाम देकर भाजपा ने इसे अपने शोर-शराबे व भरपूर मार्किटिंग के अपने विशेष अंदाज़ के साथ कुछ इस प्रकार से शुुरू किया व इसका प्रचार किया गोया देश में कोई सरकार पहली बार सफाई के लिए कुछ करने जा रही है। इसी अभियान के तहत देश के विभिन्न राज्यों में प्रत्येक शहरी घरों में सरकार द्वारा प्लास्टिक के दो टब रखवाए गए जिनमें सूखा व गीला कूड़ा अलग-अलग डालने का निर्देष दिया गया तथा इस ‘सरकारी टब’ से कूड़ा इक_ा करने हेतु बाकायदा ठेके पर सफाई कर्मचारी भर्ती किए गए। यह कर्मचारी ठेले व रेहडिय़ों पर घर-घर जाकर कूड़ा इक_ा करते तथा सरकार द्वारा निर्धारित किसी स्थाई या अस्थाई ठिकाने पर डालते। यहां से कूड़े की छंटाई कर उसे नष्ट करने हेतु अन्य स्थानों पर भेजा जाता।
नगरपालिकाओं व नगर निगमों द्वारा घर से कूड़ा उठाने वाले इन अस्थाई कर्मचारियों को तन्ख्वाह देने हेतु प्रत्येक शहरी नागरिक पर अधिक अधिभार भी लगा दिया गया जो प्रत्येक वर्ष गृह कर शुल्क के साथ वसूला जाता था। कुछ दिनों तक तो नियमित रूप से हर घर का कूड़ा इक_ा किया गया। गली में कूड़ा एकत्रित करने वाले कर्मचारी दरवाज़े पर आकर सीटी बजाते व कूड़ा इक_ा कर ले जाते। परंतु सरकार की उदासीनता या लापरवाही के चलते संभवत: स्वच्छता अभियान से जुड़ी यह योजना अब दम तोडऩे लगी है। गत् कई माह से हरियाणा के अंबाला जैसे कई शहरों में घरों से कूड़ा उठाए जाने वाले कर्मचारियों ने उनकी तन्ख्वाहें न मिलने की वजह से कूड़ा उठाना बंद कर दिया है। परिणामस्वरूप एक बार फिर गली-मोहल्ले के लोग अपने आस-पास के पड़े खाली प्लाटों पर कूड़ा फेंकने लगे हैं। ज़ाहिर है प्रत्येक घर से निकलने वाले कूड़े-करकट में सबसे अहम हिस्सा पॉलिथिन की थैलियोंं,पौलिथिन अथवा प्लास्टिक के पाऊच व इसी प्रकार की दूसरी पैकिंग का ही होता है। विभिन्न राज्यों की सरकारों द्वारा पॉलिथिन के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद अभी भी देश के अधिकांश हिस्सों में दुकानदारों द्वारा पॉलिथिन की थैलियां सरेआम ग्राहकों को दी जा रही हैं। कूड़े के रूप में खाली प्लाटों पर पड़ी यही थैलियां कभी नगरपालिका के कर्मचारियों द्वारा तो कभी मोहल्ले के ही किसी व्यक्ति द्वारा इक_ी कर जला दी जाती हैं। ज़रा सोचिए कि सर्दी एवं धुंध के इस वातावरण में ज़हरीला धुंएं का मिश्रण आम लोागेां के स्वास्थय पर कितना दुष्प्रभाव डालेगा? यदि आप नगरपालिका कर्मचारी से इन पॉलीथिन में आग लगाने हेतु मना करिए तो उसका जवाब यह होता है कि यदि यह थैलियां जलाई नहीं गई तो हवा चलने पर यह पुन: सडक़ों पर आ जाती हैं और नालियों को जाम कर देती हैं।
इसी प्रकार कई शहरों में प्रात:काल अथवा सांध्य काल के समय इन्हीं सफाई कर्मचाररियों द्वारा जो कूड़ा इक_ा किया जाता है उसे भी इकट्टा करने के साथ ही आग के हवाले कर दिया जाता है। इस प्रकार शहरी क्षेत्रों में सुबह व शाम दोनों समय इस प्रकार के ज़हरीले धुंए चारों ओर फैले दिखाई देते हैं। गोया एक ओर तो सरकार प्रदूषण पर नियंत्रण पाने के संबंध में तरह-तरह के प्रवचन देती है। सैकड़ों करोड़ रुपये की बंदरबांट इसी अभियान के नाम पर हो जाती है। अभियान से संबंधित मशीनों व अन्य सामग्रियों के आपूर्तिकर्ता ठेकेदार तथा इस अभियान की देख-रेख हेतु निर्धारित किए गए नेताओं के प्रियजन अपनी व अपनी आगामी पुश्तों के लिए तो बहुत कुछ बना डालते हैं परंतु एक कूड़ा उठाने वाला सफाई कर्मचारी अपनी मेहनत के पैसे समय पर नहीं हासिल कर पाता। और नतीजा फिर वैसा का वैसा यानी जैसे पहले कूड़ा-करकट व इसकी दुर्गंध सडक़ों-गलियों व खाली प्लाटों में फैली रहती थी उसी प्रकार की स्थिति दोबारा भी पैदा हो गई है।
यदि देश में इस प्रकार के स्वच्छता अभियानों का कुछ भी प्रभाव हुआ होता तो आज देश में डेंगु,चिकनगुनिया,इंसेफ्लाईटिस,कालाजार तथा जापानी बुखार जैसी और भी कई बीमारियां न फैलतीं या इनमें काफी कमी आ गई होती। परंतु ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और यदि कुछ हुआ तो यही कि सरकार ने देश की जनता के हज़ारों करोड़ रुपये इस प्रकार की योजना पर तथा इस योजना के प्रचार-प्रसार व शोर-शराबे पर खर्च कर डाले। और स्वच्छता का बहुत बड़ा आदर्श बताते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उनकी पार्टी के छुटभैय्यों तक ने हाथों में झाड़ू पकड़ कर साफ-सुथरी ज़मीन पर झाड़ू चलाते हुए अपनी फोटो ज़रूर खिंचवा ली। आज अधिकांश देश में उसी प्रकार के ्रंगंदगी के ढेर व प्रदूषण युक्त वातावरण देखा जा सकता है। दरअसल नगरपालिाका व नगर निगम के लोगों द्वारा कूड़ा जलाए जाने के पीछे जो तर्क दिया जाता है कि यदि उन्होंने इस कचरे को जलाया नहीं तो यह हवा से उडक़र पुन: गलियों व नालियों में चला जाएगा, यह तर्क बिल्कुल सही है। परंतु इसका समाधान केवल यही है कि जैसे ही सफाई कर्मचारी कूड़ा इक_ा करे उसी समय एक कूड़ा इक_ा करने वाले वाहन से उस कूड़े को उठाकर निर्धारित स्थानों पर पहुंचा दिया जाए। परंतु नगरपालिका या नगर निगम की मशीनरी इतनी तत्परता नहीं दिखा पाती।
यही स्थिति प्राय: नाली व नाले आदि की सफाई के समय भी नज़र आती है। जब सफाई कर्मचारी अपनी पूरी मेहनत से किसी नाले व नाली का गीला कचरा निकाल कर नाले के बाहर इक_ा करते हैं तो वह कई दिनों तक नालियों के किनारे ही पड़ा रहता है और बदबू फैलती रहती है। यदि उस कचरे के उठने से पहले बारिश आ जाए तो वही गंदगी दोबारा नाली में वापस चली जाती है। और कर्मचारियों की सारी मेहनत पर पानी फिर जाता है। यहां भी सफाई कर्मचारी यही कहता है कि इस गीले कीचडऩुमा कचरे को सूखने के बाद उठाया जाएगा। अब चाहे इसके सूखने में कितने ही दिन क्यों न लगें। सरकार की इन्हीं असफल योजनाओं तथा इन्हें कार्यान्वित किए जाने के मार्ग में आने वाली बाधाओं का ही नतीजा है कि सरकार के लाख दावों व प्रचारों के बावजूद अभी भी गंदगी व प्रदूषण का साम्राज्य पूर्ववत् बना हुआ है।

बोगीबील सेतु से मजबूत हुई पूर्वी भारत की सुरक्षा
प्रभुनाथ शुक्ल
भारत की सामरिक सुरक्षा के लिहाज से बेहद अहम बोगीबील सुेतु को लंबी प्र्रतिक्षा के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 25 दिसम्बर यानी पूर्व पीएम अटल बिहारी बाजपेयी के जन्म दिवस पर देश को सौंप दिया। इसके साथ ही देश के विकास में एक और नया इतिहास जुड़ गया है। आसाम के डिबूगढ़ जिले में बोगीबील में ब्रहमपुत्र नदी पर बने इस सेतु से अरुणांचल प्रदेश और आसाम की दूरी रेल और सड़क मार्ग से बेहद कम हो जाएगी। एशिया का यह दूसरा सबसे बड़ा रेलरोड ब्रिज होगा। जिसमें पुल के उपरी हिस्से में तीन लेन की सड़क और नीचे डबल रेल लाइन बिछी है। पीएम मोदी ने पहली रेलगाड़ी को हरीझड़ी दिखा कर रवाना भी किया। इसके पूर्व मालगाड़ी चलाकर रेलपथ का परीक्षण किया गया था। यह देश का सबसे चैड़ा पुल है। पूर्वोंत्तर भारत के विकास के साथ देश की सुरक्षा के लिहाज से यह सबसे अहम कड़ी माना जा रहा है। देश की सामरिक सुरक्षा के लिहाज से इसका बेहद जरुरी था। दरअसल इसे तो बहोत पहले बन जाला चाहिए था, लेकिन सरकारी नीतियों और तकनीकी दिक्कतों की वजह से 21 साल बाद यह संभव हो पाया। भारत का सबसे बड़ा दुश्मन चीन हमेंशा अरुणांचल पर अपने दावे ठोंकता रहता है। चीनी फौज कितनी बार अरुणांचल की सीमा में घूस कर अपनी तागत दिखाती रहती हैं। 1962 में चीन से हमारी पराजय का मुख्य कारण सैन्य पहुंच और उससे जुड़ी समस्याएं थी। बोगीबील पुल के निर्माण से चीन की नींद उड़ गयी है। क्योंकि चीन के साथ भारत की 4,000 हजार किलोमीटर की सीमा हैं। जिसका 75 फीसदी हिस्सा अरुणांचल प्रदेश में पड़ता है। सेतु के उद्घाटन के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोगों को संबोधित करते हुए कहा कि यह सिर्फ सेतु नहीं पूर्वाेत्तर भारत की लाइफ लाइन है। लेकिन एक बात हमें बार-बार कचोटती है कि सामरिक महत्व के मसलों पर हम कुम्भकर्णी नींद से कब जागेंगे।
दिल्ली में जब एचडी देवगौड़ा की सरकार थी तो उसी दौरान 1997 में इसकी मंजूरी मिली थी। जबकि निर्माण 2002 में शुरु तब शुरु हुआ जब अटल बिहारी बाजपेयी की सरकार आयी। लेकिन 21 सालों तक कई बार इस सेतु का निर्माण बजट या फिर दूसरी तकनीकी दिक्कतों की वजह से प्रभावित हुआ। पुल के सामरिक महत्व को देखते हुए इसका निर्माण काफी पहले हो जाना चाहिए था। लेकिन यह संभव नहीं हो पाया। इसकी दूसरी वजह ब्रहमपुत्र में सतत जलप्रवाह भी है। क्योंकि यहां रेल इंजीनियरों को सिर्फ पांच माह का वक्त होता था उसी दौरान सेतु निर्माण किया जाता था। सेतु के पीलरों की गहराई भी तकरीबन 40 मीटर है। यह भारतीय रेल और उसकी इंजीनियरिंग का अद्भुत नमूना है। सेतु के निर्माण पर तकरीबन 59,00 करोड़ का खर्च आया है। पुल के निर्माण से आसाम और अरुणांचल प्रदेश के बीच की जो दूरी 500 किलोमीटर थी वह महज 100 किमी रह जाएगी। डिब्रूगढ़ से ईंटानगर की दूरी में 150 किमी कम हो जाएगी। जिस दूरी को तय करने में लगभग 24 घंटे का वक्त जाया होता था, अब यह सिर्फ तीन घंटे में तय हो जाएगी। दिल्ली से डिब्रूगढ़ की दूरी तय करने में भी तीन घंटे की कमी होगी।सेतु के वीम निर्माण के लिए इटली से मशीने मंगायी गयी थी। पांच किमी लंबे पुल में 42 खंभे बनाए गए हैं जो भूकंप के झटकों को भी सहने लायक हैं। सेतु में 80 हजार टन स्टील प्लेटों का इस्तेमाल किया गया है। इसकी उम्र 120 साल निर्धारित की गयी हैं
चीन ने 1962 में जब भारत पर हमला किया था। उसी दौरान 1965 में आसाम के डिब्रूगढ़ में राष्टीय सुरक्षा को देखते हुए सेतु निर्माण की मांग उठायी गयी थी। उस दौरान चीनी सेना असम के तेजपुर तक पहुंच गयी थी। जिसकी वजह से भारत को काफी नुसान उठाना पड़ा था। बीबीसी के अनुसार कांग्रेस राज में केंद्रीय कृषिमंत्री जगजीवन राम जब आसाम दौरे पर आये थे तो ईस्टर्न असम चैंबर आफ कामर्स एंड इंडस्टी ने सेतु की मांग उठायी थी। क्योंकि भारत की सीमा अरुणांचल में चीन की सैन्य गतिविधियों की पहुंच बेहद आसान थी। लेकिन अब इस पुल के माध्यम से भारत चीन की आंख में आंख डाल कर चुनौती दे सकता है। पुल के निर्माण की वजह से चीन की सीमा तक भारत आसानी से सैन्य साजो-सामान और रसद सामाग्री पहुंचा सकता है। सेतु का निर्माण युद्ध की स्थिति को ध्यान पर रख कर बनाया गया है। क्योंकि चीन से मुकाबला करने और उसकी बंदरघुड़की से निपटन के लिए इस सेतु का निर्माण हमारे लिए बेहद अहम था। दूसरी तरफ दिल्ली और डिब्रूगढ़ की दूरी तीन घंटे कम हो जएगी। ब्रहमपुत्र के दोनों सिरे पर रेल और रोड अब इस सेतु से सीधे जुड़ जाएंगे।
पूर्र्वाेत्तर भारत के विकास में यह बेहद अहम कड़ी होगा। युद्ध की स्थिति में भारत बेहद आसानी से अरुणांचल में चीन की सीमा में सैन्य सामान अधिक तेजी से पहुंचा सकता है। 1100 अर्जुन टैंक को इस पर से गुजारा जा सकता है। जिसकी वजह से हमारी सैन्य कूटनीति मजबूत होगी हमारी सेना की स्थिति काफी सुदृढ़ होगी। हम सेतु का उपयोग युद्ध के दौरान लड़ाकू विमानों के लिए भी कर सकते हैं। हमारी पूर्वी भारत की सीमा को सुरक्षित रखने में इसका विशेष योगदान होगा। हम चीन पर आंख मूंद कर भरोसा नहीं कर सकते हैं। 1962 की पराजय की वजह से चीन भारत को हमेंशा अपनी सैन्य गतिविधियों से डराता रहा है लेकिन अब सुरक्षा के लिहाज से भारत की स्थिति बदल गयी है। भारत से जुड़ी सीमा पर वह लगातार अपनी सैन्य व्यवस्था को मजबूत करता आ रहा है। भारत से सटी सीमाओं पर सैन्य एयरबेस, सड़क मार्ग का निर्माण करता आ रहा है। जिसकी वजह से हमारी तैयारियां भी उस आधार की होनी चाहिए। क्योंकि चीन भारत को अपना दुश्मन नम्बर वन मानता है। जबकि यही स्थिति भारत के लिए भी है। कूटनीतिक तौर पर दोनों एक दूसरे पर आंख बंद कर भरोसा नहीं कर सकते हैं। सरकार को सामरिक सुरक्षा को देखते हुए इस तरह के सेतुओं के निर्माण पर नीतिगत फैसला करना चाहिए। रेल, परिवहन और गृहमंत्रालय को मिल कर इस दिशा में एक साथ काम करना चाहिए। सेेना की भी इस तरह की रिपोर्ट सौंपनी चाहिए। सरकार को उन रपटों पर गंभीरता से विचार कर त्वरित निर्णय लेना चाहिए। क्योंकि निर्माण में बिलंब की वजह से बोगीबील की लागत में 85 फीसदी अधिक निर्धारित बजट से बढ़ गयी। जबकि शुरुवाती दौर में इसकी लागत 3200 हजार करोड़ से अधिक रखी गयी गयी थी जो बाद में बढ़ कर 5,960 करोड़ पहुंच गयी। देश की सुरक्षा के लिहाज को देखते हुए 2007 में मनमोहन सरकार ने राष्टीय परियोजना घोषित किया। जिसके बाद इसके लिए विशेष बजट उपलब्ध करया गया और निर्माण में तेजी आयी। सेतु के निर्माण के दौरान राष्टीय सुरक्षा और उसकी चुनौतियों को विशेषरुप से रख कर इसे बनाया गया है। देश में अगर बोगीबील जैसे सेतुओं की आवश्यकता है तो उस पर जल्द फैसला लेना चाहिए। लेकिन इसके निर्माण में जिस तरह 21 सालों का वक्त जाया हुआ वह नहीं होना चाहिए। क्योंकि इस तरह के बोगीबील जैसे सेतु हमारी राष्टीय सुरक्षा के लिए बेहद अहम हैं। वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सेतु के उद्घाटन के जरिए पूर्र्वाेत्तर भारत के विकास में एक नया इतिहास रचा है। पूर्वोत्तर में भाजपा के बढ़ते भाजपा के जनाधार और उसके राजनीतिक लिहाज से भी बोगीबील एक कूटनीतिक जीत होगी जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा। लेकिन इन सबसे दूर देश की सुरक्षा नीति के लिहाज से यह सेतु बेहद अहम है।

सावधान चिराग से फिर निकलने वाला है आरक्षण रुपी जिन्न
डॉ हिदायत अहमद खान
देश में आरक्षण को लेकर राजनीति करने का दौर अभी-अभी शुरु हुआ हो ऐसा तो नहीं है, लेकिन बातें ऐसी की जा रही हैं कि यदि अभी नहीं तो कभी नहीं। दरअसल दशकों से आरक्षण को लेकर वोटबैंक हथियाने का खेल राजनीतिक पार्टियां खेलती चली आ रही हैं। हद तब हो गई जबकि अनेक वर्गों ने आरक्षण की मांग कर हिंसात्मक आंदोलन करने से भी गुरेज नहीं किया। वहीं दूसरी तरफ ऐसे संगठन और लोग भी आगे आए जो कि जातिगत आरक्षण को खत्म कर आर्थिक आरक्षण लागू करने की मांग कर रहे थे। पिछले लोकसभा चुनाव में तो वकायदा इस पर वोट भी मांगे गए, लेकिन देश ने यह भी देखा कि आरक्षित वर्ग ने जब हुंकार भरी तो विरोध करने वाले ही कसमें खाते दिख गए कि जब तक वो जीवित हैं कोई माई का लाल आरक्षण खत्म नहीं कर सकता है। बहरहाल इस आरक्षण के खेल में यदि किसी को नुक्सान हुआ तो वो भारतीय जनता पार्टी ही है। एक तरफ आरक्षित वर्ग को इस बात का आभास हुआ कि ये उनके आरक्षण को खत्म करना चाहते हैं तो दूसरी तरफ अनारक्षित वर्ग अपने आपको ठगा महसूस कर रहा है कि जिसके सहारे वो आर्थिक आरक्षण की बात आगे बढ़ा रहे थे वो ही धोखा दे गया। इस प्रकार दोनों ही वर्गों की विश्वसनीयता खोती भाजपा को पांच राज्यों के चुनाव में मुंह की खानी पड़ गई। चूंकि इन चुनावों को लोकसभा चुनाव 2019 का सेमीफाइनल माना गया अत: भाजपा भी चिंतित दिख रही है कि आखिर इस मामले को ठंडा कैसे किया जाए, ताकि आरक्षण रुपी जिन्न को वापस उसके चिराग में भेजा जा सके। इसके लिए खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह आरक्षित वर्ग के बीच जाने और उन्हें आश्वस्त करने का काम करते देखे गए हैं। यही नहीं पार्टी के तमाम नेताओं को आदिवासियों और दलितों के यहां भोजन करने और उनसे मेल-जोल बढ़ाने की भी हिदायतें दी गईं, लेकिन परिणाम विपरीत मिला। इसका नतीजा यह रहा कि तीन बार से लगातार शासन कर रही मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकारों को अब विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ा है। वहीं राजस्थान में भी कांग्रेस ने जीत हासिल कर दिखला दिया कि आरक्षण मामले में वो बेहतर नीति पर अग्रसर है, क्योंकि समाज का अधिकांश वर्ग उसके साथ आ गया है। इन सब से परे कहें या फिर अनभिज्ञता कि केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने न्यायपालिका में एससी-एसटी जजों को आरक्षण देने की बात कहकर एक बार फिर आरक्षण मामले को हवा देने का काम कर दिया है। वैसे तो प्रसाद अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद के 15वें राष्ट्रीय अधिवेशन में बोल रहे थे इसलिए उनका यह कहना जायज है कि सरकार एससी-एसटी जजों को न्यायपालिका में आरक्षण देना चाहती है। इसलिए उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा नेशनल ज्यूडिशियल अपाइंटमेंट कमीशन के गठन को असंवैधानिक बताने पर ऐतराज भी जताया है। इस प्रकार सच कहा जाए तो यहां पर भी मतभेद उभर कर सामने आते हैं और कहीं न कहीं राजनीति ही हावी होती दिखती है। अगर यह सच न होता तो प्रसाद यह न कहते कि एनजेएसी पर सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को माना लेकिन इस पर हमारा मतभेद है। प्रसाद का कहना रहा है कि 50 फीसदी से ज्यादा राज्यों की मंजूरी के साथ केंद्र सरकार ने एनजेएसी एक्ट को संसद में पारित किया। इस प्रकार कहीं न कहीं प्रसाद के दिल में टीस तो है कि उनके प्रयास असफल साबित हुए। गौरतलब है कि सरकार ने जजों की नियुक्ति एवं तबादलों के लिए एनजेएसी एक्ट बनाया था, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने असंवैधानिक करार दे दिया। संभवत: यही वजह है कि एक बार फिर आरक्षण कार्ड यहां खेला जा रहा है। इसलिए याद दिलाना होगा कि आरक्षण मामला भाजपा के लिए विपरीत परिणाम लाने वाला साबित हुआ था इसलिए एक बार पुन: मंदिर मुद्दे का रुख भाजपा व उसके अनुवांशिक संगठनों ने किया है। यह अलग बात है कि इस आम चुनाव में मंदिर मामला भी उसके खिलाफ परिणाम लाने वाला साबित होने वाला है, क्योंकि कांग्रेस का साफ्ट हिंदुत्व लोगों को भा रहा है। कुल मिलाकर भाजपा को चुनावों में जो हानि हुई है उसकी भरपाई करने के मकसद से ही प्रसाद मांग करते दिख रहे हैं कि राम मंदिर मामले की सुनवाई के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाया जाए। तर्क यह है कि जब सबरीमाला मामले की सुनवाई 6 महीने में और अर्बन नक्सल मामले को दो माह में पूर्ण किया जा सकता है तो फिर रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले को अखिर 70 साल से क्यों लटका कर रखा गया है। बहरहाल केंद्रीय मंत्री प्रसाद यहां एक आम इंसान की ही तरह यह भी कहते दिखते हैं कि उन्हें तो नहीं मालूम कि आखिर रामलला मामले की फास्ट ट्रेक कोर्ट में सुनवाई क्यों नहीं हो रही है। अंतत: राजनीतिक पार्टियों को इस रास्ते पर फूंक-फूंक कर कदम आगे बढ़ाने होंगे, क्योंकि मतदाता अब और बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है, वह अब आर-पार पर ज्यादा यकीन कर रहा है।

भारत की कांग्रेस

डॉ. बलदेवराज गुप्त
(कांग्रेस- 28 दिसम्बर 1885, मुम्बई) सीआईडी की गुप्त रिपोर्ट को पढ़कर वाइसराय लार्ड उफरिन और सिविल सर्वेंट ए.ओ. ह्यूम का माथा ठनका। वाक्य था ‘भारत के गावों में लगातार बेचैनी बढ़ रही है। युवा उद्वेलित हैं। ‘‘ह्यूम ने मार्च 1883 कलकत्ता यूनिवर्सिटी के स्नातकों को एक पत्र लिखा और ‘‘इन्डियन नेशनल यूनियन’’ का गठन कर वैधानिक आंदोलन चलाने की बात की। साथ ही दिसम्बर 1884 में बम्बई में सार्वजनिक सभा (पुणे) प्रजा हित वर्धक सभा (सूरत) सिन्ध सभा (कराची) व महाजन सभा (मद्रास) से पी.एम. मेहता, केटी तैलंग व तैयाब जी से मिले- हिन्दू, मुस्लिम व पारसी सबसे सलाह की गई। 2 जनवरी 1885 में महाजन सभा ने सरकार को जनहित की कई सलाहें दी थी। पुणे में सबको साथ लेकर एक सम्मेलन करने की योजना बनी। अमल जारी था, पर शहर में हैजा फैल गया। ‘इन्डियन नेशनल यूनियन’ की इस कान्फ्रेंस को बदलकर ‘इन्डियन नेशनल कांग्रेस’ कर दिया गया। बम्बई प्रेसीडेंसी ने गोकुलदास तेजपाल संस्कृत कालेज में सोमवार 28 दिसम्बर 1885 के दिन 12 बजे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का प्रथम सम्मेलन शुरू हुआ।
भारत के इतिहास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का स्थान बेजोड़ है। इस संस्था ने ब्रिटिश शासन में मुक्ति पाने के लिए 60 साल से भी अधिक समय तक अविराम संघर्ष किया है। कांग्रेस का इतिहास वास्तव में भारत की स्वतंत्रता का इतिहास है।
श्री एओ ह्यूम ने बम्बई के पहले अधिवेशन में कलकत्ता के वकील 41 वर्षीय श्री व्योमेश चन्द्र बनर्जी का नाम प्रस्तावित किया, जो सर्वसम्मती से कांग्रेस के पहले अध्यक्ष चुने गए। अपने पहले अध्यक्षीय भाषण में कांग्रेस के उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए व्योमेश चन्द्र बनर्जी ने कहा था ‘‘आपसी बातचीत और मैत्री के वातावरण में नस्ल, जाति, धर्म एवं प्रदेशवाद से जुड़ी हुई पूर्व धारणाओं की समाप्ति एवं राष्ट्रीय एकता की भावना को विकसित करना कांग्रेस का उद्देश्य होगा।’’ मात्र 72 प्रतिनिधियों ने कांग्रेस के प्रथम स्थापना वर्ष (1885) में भाग लिया था।
दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में हुआ। इसमें पूरे भारत से 500 प्रतिनिधियों ने भाग लिया था। सर चार्ल्स मेटकॉफ की प्रेस स्वतंत्रता और उदारवादिता पर गहन चर्चा हुई थी। हिन्दू बनर्जी पहले, पारसी नौरोजी दूसरे व कांग्रेस का तीसरा अधिवेशन मद्रास में 1887 में 3000 प्रतिनिधियों के साथ बदरूद्दीन तैरूयब जी, मुस्लिम की अध्यक्षता में सम्पन्न हुआ था।
शुरू से ही कांग्रेस सैक्युलर थी। सभी धर्मों के लोगों के लिए इसमें स्थान था, सोच थी, सम्मान था और लक्ष्य था। उद्देश्य था आम हिन्दुस्तानी का कल्याण, भलाई और बेहतरी। युवाओं ने इस अधिवेशन में काफी सक्रियता दिखाई थी। सहमति और असहमति के खुलकर विचार रखे गए। खुली बहस की शानदार मिसाल थी। मद्रास में कांग्रेस का तीसरा वार्षिक अधिवेशन।
कांग्रेस की ओर बढ़ते झुकाव और आम जन जुड़ाव से शासक अंग्रेज चिंतित थे। साम्प्रदायिक लोग भी कांग्रेस से चिढ़ने लगे। चौथा अधिवेशन इलाहाबाद के खुसरो बाग में होना था। इसकी मंजूरी सरकार ने रद्द कर दी थी। कहीं जगह नहीं मिल रही थी। लखनऊ के नवाब साहब का बंगला लाउदर
कैंसल और उसके सामने का खाली मैदान, किराए में लीज पर लेकर महाराजा दरभंगा द्वारा शामियाना लगवाकर 5000 लोगों के बैठने की व्यवस्था कराकर “गवर्मेन्ट हाउस” के सामने, नाक के नीचे इलाहाबाद में कांग्रेस का चौथा अधिवेशन शुरु हुआ था। सर फिरोजशाह मेहता और सरदार दयालसिंह ने जार्ज मूल क्रिश्चियन को चौथा अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव रखा, जो मंजूर हो गया। कांग्रेस ने भारत की जनता द्वारा 7 करोड़ 70 लाख पौंड टैक्स हर साल देने पर ब्रिटिश सरकार से हिसाब मांगा था। पूरे भारत में देश को कांग्रेस ने जागरुकता के लिए तैयार करने हेतु जोन, केन्द्रो व ईकाइयों में बांटकर कार्य जिम्मेदारियां सौंपी थी।
यहां मात्र पहले चार वर्षों का जिक्र है। कांग्रेस ने मदन मोहन मालवीय लोकमान्य तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, सी.जे.मुदातियर, कालीचरण बनर्जी शकरन नायर, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, रमेशचंद्र दंत, श्री मुघोलकर, श्री रामास्वामी, सीताराम सेठ, चन्द्रवरकर लाला हंसराज लाला लाजपत राय, महात्मा गांधी, सुभाष चन्द्र बोस, मोतीलाल नेहरु, सरदार पटेल, जे.बी.कृपलानी, डा. राजेन्द्र प्रसाद, प.जवाहरलाल नेहरु, सीतारम्मैया, राजगोपालाचारी, हाफिज अब्दुल रहमान, लाला हरिकिशनलाल देवराज विनायक, रंगमा नायडु, रामचन्द्र पिल्लै, आदि अनेक नेताओं ने कांग्रेस में काम किया था। इसी भारतीय नेताओं के प्रयास का प्रतिफल थी कांग्रेस।
नरमदल, गरमदल, स्वाराज पार्टी अनेक विचारधारोओं वाली कांग्रेस 1947 में आजादी के बाद भी जनसरोकर के मुद्दों पर प. जवाहरलाल नेहरु, सरदार पटेल, डा. राजेन्द्र प्रसाद, सर जी प्रकाश, कामराज नाडार, यू.एन.ढेबर, कृष्णन मेनन, निजलिंगप्पा, गोविन्द वल्लभ पन्त, सरदार बलदेव सिंह, श्रीमती इंदिरा गांधी, सीताराम केसरी, राजीव गांधी, श्रीमती सोनिया गांधी और सम्प्रति श्री राहुल गांधी के हाथों में उसकी कमान समय-समय पर आती रही।
कांग्रेस आमजन और खुले माहौल की राजनीतिक पार्टी है। समय – समय पर इसमें उतार चढ़ाव व बदलाव होते रहे हैं। आज की टैक्नोलॉजी जिसे राजवी गांधी, सैम पित्रोदा के मार्फत भारत में लाए थे। एक क्रान्तिकारी प्रयास था। फिर वक्त आया मिली जुली सरकारों का 1967 में विरोध के स्वर मुखर हुए थे। 1975 में इमरजेन्सी आई पर कांग्रेस ने लोकहित में लोकतंत्र को तरजी दी। कांग्रेस टूटी, बटी, जनता दल बना, सत्ता पर आया, पर रह ना सका। श्रीमती गांधी के हाथों फिर बागडोर आई। पर उनके बलिदान के साथ ही युग समाप्त हुआ। बांग्लादेश बनवाकर उन्होंने इतिहास भूगोल दोनो बदल दिए। राजीव का बलिदान पूरे देश को खला। कांग्रेस ने देश के भीतर साम्प्रदायिकता पर तीन गांधियों ( महात्मा गांधी, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी) को खो दिया।
पर कांग्रेस सदा समाजवाद, सेल्युलर वाद के रास्ते पर सतत चलती रही। 134 वर्ष की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी राहुल गांधी के नेतृत्व में अगर पुन: जनभावनाओं सहयोग व समर्थन के साथ सत्तारुढ़ होती है, तो 2019 में भारत के लिए, और नई पीढ़ी के लिए सुखद, सुरक्षित समाज की गारन्टी होगी। साम्प्रदायिक ताकतों से मुकाबले के लिए कांग्रेस अन्य दलों से कैसे सहयोग लेगी यह चिन्तन और रणनीति का गंभीर विषय है।

डरें नहीं: बात ही हथियार है
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
फिल्म कलाकार नसीरुद्दीन शाह और भाजपा नेताओं ने एक बार फिर इस विवाद को छेड़ दिया है कि भारत में कितनी सहनशीलता है। शाह ने सिर्फ यही कहा है कि उन्हें अपने बच्चों का डर सता रहा है। यदि उन्होंने कह दिया कि वे मुसलमान हैं तो कहीं भीड़ उन्हें नोच न डाले। बिल्कुल इसी तरह का डर डेढ़-दो साल पहले फिल्म अभिनेता आमिर खान ने उनकी पत्नी किरन राव के हवाले से प्रकट कर दिया था। नसीरुद्दीन शाह की पत्नी भी हिंदू हैं। यदि इन दोनों अभिनेताओं ने ऐसा डर व्यक्त किया है तो उन पर गुस्सा होने या उनकी मजाक उड़ाने की बजाय हमको यह सोचना चाहिए कि यदि उनकी जगह हम होते तो क्या होता ? क्या हमारे दिल में भी उसी तरह के विचार नहीं आते ? कुछ लोगों ने शाह को लगभग देशद्रोही कह दिया। कुछ उन्हें पाकिस्तान भेजने की सलाह दे रहे हैं लेकिन इमरान खान के बयान पर शाह ने जो प्रतिक्रिया दी है, उससे उन्हें अंदाज हो गया होगा कि शाह भी उनकी तरह ही देशभक्त और राष्ट्रवादी हैं। जहां तक असहनशीलता का प्रश्न है, गृहमंत्री राजनाथसिंह का यह कथन सर्वथा सही है कि सारी दुनिया में भारत की गिनती सबसे सहनशील देशों में होती है। जितने धर्म, संप्रदाय और जातियों के लेाग भारत में जितनी बड़ी संख्या में रहते हैं, दुनिया के किसी देश में नहीं रहते। यदि आप पड़ौसी देशों में कुछ समय रह जाएं तो आपको भारत के अपने लोगों पर गर्व होने लगेगा। अब से पचास साल पहले मुझसे काबुल के एक अनपढ़ पठान ने पूछा आपका बादशाह कौन है ? मैंने कहा, डाॅ. जाकिर हुसैन। वे हमारे राष्ट्रपति हैं। उसे विश्वास ही नहीं हुआ। वह कहने लगा कि आप तो हिंदुओं का देश हैं। यह कैसा हिंदुस्तान है ? यदि आपको अमेरिका और यूरोप के महान विकसित राष्ट्रों के भेद-भाव और असहनशीलता के अपने अनुभवों के किस्से सुनाऊं तो आप चकित रह जाएंगे। नीग्रो लोगों को कैसे जिंदा जला दिया जाता था, यहूदियों की जर्मनी में कैसी दुर्दशा होती थी, अफगानिस्तान में हजारा लोगों और पाकिस्तान में ईसाइयों और हिंदुओं की क्या दशा है, इस पर जरा विचार कीजिए। जहां तक हिंसक कार्रवाइयों का सवाल है, कोई कम नहीं है। यदि गाय के नाम पर कुछ मुसलमानों की हत्या हुई है तो मुस्लिम आतंकवादियों ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है। क्या गोधरा, क्या अक्षरधाम, क्या मुंबई, क्या जम्मू का रघुनाथ मंदिर, क्या वाराणसी का संकट मोचन मंदिर और क्या कश्मीरी पंडितों को मार भगाना- उन्होंने कुछ छोड़ा नहीं। बददिमाग लोग दोनों तरफ है। और दुनिया में सब जगह हैं। उनसे डरने और घृणा करने का कोई फायदा नहीं है। उनके लिए फौज और पुलिस की लात तैयार है लेकिन आम आदमी के पास क्या है ? बात है। उसका हथियार बात ही है। बुद्ध और गांधी का हथियार भी यही था।

सुशासन के दावे और चरमराता लोकतंत्र
तनवीर जाफरी
भारतीय जनता पार्टी के फायर ब्रांड नेता तथा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सुशासन एवं राम राज्य लाने के दावों के मध्य गत् दिनों एक बार फिर देश के 83 प्रमुख पूर्व नौकरशाहों ने योगी को आईना दिखाने की कोशिश की है। इन पूर्व नौकरशाहों में अधिकांशत: ऐसे अधिकारी शामिल हैं जिन्होंने देश-विदेश में उच्च पदों पर रहकर कानून व्यवस्था को नियंत्रित करने तथा संविधान व लोकतंत्र की रक्षा करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इन अधिकारियों ने प्रदेश में बिगड़ती कानून व्यवस्था तथा योगी सरकार द्वारा इसे नियंत्रित न कर पाने हेतु मुख्यमंत्री से खुले तौर पर त्यागपत्र की मांग की है। यह पत्र उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में गत् तीन दिसंबर को हुई हिंसा के संदर्भ में विशेष रूप से लिखा गया है। इस घटना में सांप्रदायिकतावादी भीड़ ने एक ईमानदार व कर्मठ पुलिस अधिकारी सुबोध सिंह की गोली मार कर हत्या कर दी थी। दूसरी ओर योगी सरकार द्वारा पुलिस अधिकारी की हत्या को गंभीरता से लेने तथा मुख्य आरोपियों की गिरफ्तारी करने के बजाए इस इस बिंदु पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया कि हिंसा से पहले हुई गौकशी का जि़म्मेदार कौन है। इन पूर्व नौकरशाहों ने पहले भी कई अलग-अलग विषयों को लेकर सरकार को खुले पत्र लिखे हैं। परंतु बुलंदशहर में हुई हिंसा तथा एक पुलिस अधिकारी की भीड़ द्वारा हत्या किया जाना अत्यंत दर्दनाक है। इससे राज्य की कानून व्यवस्था पर कई प्रकार के प्रश्रचिन्ह लगते हें। इन अधिकारियों ने अपील की है कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय को इस मामले में संज्ञान लेते हुए बुलंदशहर हिंसा से जुड़े पूरे मामले की जांच करनी चाहिए। देश के इतिहास में आज तक कभी भी इतनी बड़ी संख्या में पूर्व नौकरशाहों ने सामूहिक रूप से किसी भी शासन अथवा शासक का विरोध इस पैमाने पर नहीं किया।
अब ज़रा याद कीजिए इसी वर्ष की शुरुआत में अर्थात् 11 जनवरी 2018 का वह दिन जबकि भारतीय लोकतंत्र के इतिहास में पहली बार सर्र्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायधीशों सर्वश्री न्यायमूर्ति चेलामेश्वर, न्यायमूर्ति मदन लोकुर, न्यायमूर्ति कुर्रियन जोसेफ तथा न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने संयुक्त रूप से एक संवाददाता सम्मेलन बुलाया तथा तत्कालीन मुख्य न्यायधीश दीपक मिश्रा को दो माह पूर्व लिखे गए अपने पत्र को मीडिया के समक्ष जारी किया। इस पत्र का सार भी यही था कि किस प्रकार उच्चतम न्यायालय की छवि बिगाड़ी जा रही है तथा किस प्रकार मुख्य न्यायधीश मुकद्दमों के बंटवारे में नियमों का पालन नहीं कर रहे हैं। इन न्यायधीशों ने भी संवाददाता सम्मेलन में साफतौर पर यही कहा था कि यदि सर्वोच्च न्यायालय का प्रशासन ठीक तरह से काम नहीं करेगा और यदि इस संस्था को ठीक नहीं किया गया तो लोकतंत्र समाप्त हो जाएगा। भारतीय लोकतंत्र पर मंडराते खतरे की और भी बहुत सारी मिसालें अनेक प्रमुख संस्थाओं में चल रही उठापटक से भी महसूस की जा सकती हैं। सीबीआई जैसी महत्वपूर्ण संस्था भी इन दिनों राजनीति का अखाड़ा बन चुकी है। और अपनी विश्वसनीयता पर स्वयं सवाल खड़े कर रही है।
परंतु इसी तस्वीर का एक पहलू यह भी है कि चाहे हमारे देश के प्रधानमंत्री हों अथवा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ या फिर भाजपा के दूसरे बड़े जि़म्मेदार नेता यह सभी देश में रामराज्य लाने तथा सुशासन के दावे करने से नहीं थक रहे हैं। एक ओर तो नौकरशाहों द्वारा पत्र लिखकर योगी को आईना दिखाया जा रहा है तो दूसरी ओर इसी पत्र के सार्वजनिक होने के अगले ही दिन विधानसभा में अनुपूरक बजट पर चर्चा में हस्तक्षेप करते हुए योगी जी फरमाते हैं कि-जाति व मज़हब के नाम पर कई वर्षों से हो रहे भेदभाव तथा लोकतंत्र के साथ किए जा रहे विश्वासघात को हमने ठीक किया है। योगी ने सदन में यह भी बताया कि पिछली सपा व बसपा सरकारों के शासन में प्रदेश में गुंडागर्दी, अराजकता व भ्रष्टाचार का माहौल था परंतु भाजपा सरकार ने सुरक्षा का वातावरण दिया है जिसकी वजह से उत्तर प्रदेश पसंदीदा निवेश का गंतव्य बन गया है। अब ज़रा सोचिए कि जिस प्रदेश में दिन-दहाड़े शासक दल का समर्थन करने वाली विचारधारा की भीड़ एक युवा पुलिस अधिकारी की हत्या कर दे, जिस प्रदेश में मासूम बच्चियों के साथ दिन-दहाड़े बलात्कार व हत्या की घटनाएं हो रही हों, जहां सामूहिक भीड़ द्वारा निहत्थे लोगों की हत्याएं करने की कई घटनाएं हो चुकी हो, हद तो यह है कि जिस प्रदेश में सत्तारूढ़ दल का विधायक स्वयं बलात्कार व हत्या जैसे मामलों में जेल की सलाखों के पीछे सड़ रहा हो, जिस प्रदेश में सांप्रदायिक व जातिवादी तनाव आए दिन फैलता रहता हो उस प्रदेश का मुखिया जब प्रदेश में जाति व धर्म के नाम पर भेदभाव समाप्त करने के दावे पवित्र सदन में करता हो तो इससे बड़ा मज़ाक और क्या हो सकता है?
उत्तर प्रदेश विधानसभा में जहां योगी अपने सुशासन के दावे कर रहे थे वहीं दूसरी ओर विधान परिषद में एक विधान पार्षद् ने योगी द्वारा हनुमान जी को जातियों में बांटने तथा प्रदेश के उपमुख्यमंत्री दिनेश शर्मा द्वारा सीता जी को टेस्ट ट्यूब बेबी बताए जाने की आलोचना की। इसी प्रकार कुंभ मेला क्षेत्र में गोवर्धनपुरी पीठाधीश्वर जगत गुरू शंकराचार्य स्वामी अधोक्षानंद महाराज ने भी भारतीय जनता पार्टी के शासकों को आईना दिखाते हुए कहा कि- तीन राज्यों में भारतीय जनता पार्टी को मिली हार इस बात का भी प्रमाण है कि धर्म को लेकर झूठ बोलने से शासक ने जनता का विश्वास खो दिया है। उन्होंने कहा कि गंगा की सफाई के नाम पर हज़ारों करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं परंतु गंगा का जल प्रदूषित है। गोया इस प्रकार की आलोचनाएं राजनैतिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक स्तर के लोगों द्वारा लगातार की जा रही हैं। परंतु शासकों द्वारा अपनी पीठ थपथपाने, अपने-आपको लोकतंत्र का सबसे बड़ा रखवाला बताने व राम राज्य का सबसे प्रमुख शासक स्वयं को ही बताने में कोई कोताही नहीं बरती जा रही है। ऐसे नाकाम शासक केवल ज़ुबानी जंग में ही अपने मुंह मियां मिट्ठू नहीं बन रहे बल्कि अभूतपूर्व तरीके से देश की जनता की खून-पसीने की गाढ़ी कमाई अपनी उपलब्धियों के झूठे कसीदे पढऩे में व इससे संबंधित इश्तिहारात लगवाने में भी खर्च किए जा रहे हैं। शासक दल द्वारा प्रोपेगंडा, अफवाहबाज़ी, धार्मिक भावनाएं भड़काने, जातीय व क्षेत्रीय वैमनस्य फैलाने, अपने विरोधियों को नीचा दिखाने हेतु निचले स्तर के हथकंडे अपनाने, अपने आलोचकों को जेल भेजने या उन्हें फर्जी मामलों में फंसाने एवं इस प्रकार उनका मनोबल तोडऩे के प्रयास किए जा रहे हैं। हद तो यह है कि पिछले दिनों राफेल विमान सौदे में सर्वोच्च न्यायालय को कथित रूप से गुमराह करने वाले दस्तावेज़ तक सरकार द्वारा दा‎खिल किए गए जिसे लेकर मोदी सरकार एक बार फिर राफेल सौदे में पूरी तरह उलझती दिखाई दे रही है।
निश्चित रूप से यह परिस्थितियां भारतीय लोकतंत्र तथा भारतीय संविधान के लिए किसी बड़े खतरे का संकेत दे रही हैं। पिछले दिनों उत्तर भारत के तीन प्रमुख राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान व छत्तीसगढ़ के चुनाव नतीजों ने भारतीय लोकतंत्र व संविधान की रक्षा के पक्ष में उम्मीद की एक किरण जगाई है। इस प्रकार के परिणाम इस बात का भी द्योतक हैं कि झूठ, फरेब व मक्कारी पर आधारित राजनीति केवल प्रोपेगंडा के आधार पर अधिक समय तक नहीं चल सकतीं। इन नतीजों से यह भी प्रमाणित हो गया कि शासकों द्वारा भले ही सुशासन के लाख दावे क्यों न किए जा रहे हों परंतु देशवासियों की नज़रें चरमराते हुए लोकतंत्र पर भी बखूबी टिकी हुई हैं।

जीएसटीः दुरुस्त आयद्
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
जीएसटी के मामले में मोदी सरकार की हालत वही हो गई थी, जो हालत किसी यजमान की हवन करते वक्त कभी-कभी हो जाती है याने हवन करते-करते हाथ जल जाते हैं। यह सारे देश के लिए एकरुप टैक्स इसलिए लाया गया था कि लोगों को अपने खरीदे हुए माल पर कम टैक्स देना पड़े और सरकारों और व्यापारियों का सिरदर्द भी कम हो जाए। लेकिन जब डाॅक्टर ही भोंदू हो तो क्या करें ? दवा ही दर्द बन जाती है। नोटबंदी के बाद जीएसटी ने इतना कीचड़ फैला दिया कि मोदी की नाव फंसने लगी। तीनों हिंदी राज्यों में हार का वह बड़ा कारण रहा है। जो व्यापारी समाज राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ और भाजपा के दानापानी का इंतजाम करता रहा है, उसकी रीढ़ तोड़ने का काम नोटबंदी और जीएसटी ने कर दिया। लेकिन मुझे खुशी है कि सरकार को अब अक्ल आ रही है। हिंदी प्रांतों के धक्के ने सर्वज्ञजी की नींद खोल दी है। अब जीएसटी कौंसिल ने 17 चीजों और 6 सेवाओं पर लगनेवाले टैक्सों को घटा दिया है। कुछ पर 28 प्रतिशत से 18 और कुछ पर 18 से 12 और कुछ पर शून्य टैक्स लगाया है। याने जैसा कि नरेंद्र मोदी ने घोषणा की है कि 99 प्रतिशत वस्तुएं अब सबसे ज्यादा टैक्स (28 प्रतिशत) से मुक्त कर दी गई हैं। इस कदम से सरकार को 5500 करोड़ रु. का घाटा होगा। अब भी 28 वस्तुएं ऐसी हैं, जिन पर टैक्स की दर 28 प्रतिशत हैं। अगली बैठक में जीएसटी कौंसिल इनमें से कुछ चीजों पर टैक्स कम करेगी। बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में उसने कई फैसले कर लिये थे, जिन्हें वह जाते-जाते ठीक करने की कोशिश करेगी। मुझे कुछ व्यापारियों ने बताया कि अभी तक कुछ चीजों पर इतने विचित्र ढंग से जीएसटी लगाया गया है कि हमको हमारे नेताओं पर हंसी आने लगे। जैसे छोले और भटूरे आप अलग-अलग खाएं तो आपको 18 प्रतिशत टैक्स देना होगा और साथ-साथ खाएं तो 12 प्रतिशत। कपड़ों में लगनेवाली झिप में चैन और स्लाइडर पर यह बात लागू होती है। फ्रोजन सब्जियां (बर्फ में जमी हुई) कौन लोग खाते हैं और कितने लोग खाते हैं ? उन पर टैक्स माफ करने की तुक क्या है, समझ में नहीं आता। कुल मिलाकर सरकार के पास टैक्स की आमदनी धुआंधार हो रही है। इस आमदनी का सीधा फायदा गरीबों, ग्रामीणों और मजदूरों को मिले, यह जरुरी है। जीएसटी के हिसाब की प्रणाली को भी इतना सरल बनाया जाना चाहिए कि गांव के अनपढ़ व्यापारी को भी कोई दिक्कत न हो। यह भी अच्छा है कि विभिन्न राज्यों की टैक्स-प्रणालियों के विवादों को निपटाने के लिए एक केंद्रीकृत संस्था बनाई जा रही है। देर आयद, दुरुस्त आयद !

“अटल एक यात्रा हैं जिसके अनगिनत पड़ाव हैं
विवेक कुमार पाठक
आओ फिर से दिया जलाएं, गीत नया गाता हूं……..। भाव प्रवण कविताएं लिखने वाले भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की आज पहली जयंती है। आज से चार माह पहले 16 अगस्त को वे लंबी बीमारी के बाद चिरनिद्रा में सो गए थे। वे 93 वर्ष के गरिमापूर्ण राजनैतिक जीवन के बाद आज पहली बार सशरीर भारतवासियों के बीच भले न हों मगर उनका आचार विचार और जीवन दर्शन भारत और भारत के सवा सौ करोड़ देशवासी कभी नहींं भूल पाएंगे। निसंदेह सत्ताओं को झकझोर देने वाली वो अटल आवाज हमेशा के लिए हमारे संसदीय और राजनैतिक इतिहास की धरोहर बन गई है।
लंबे समय से बीमार चल रहे भारतमाता के महान सपूत भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी 16 अगस्त 2018 को अपने करोड़ों प्रशंसकों को लाखों स्मृतियां देते हुए रोता बिलखता छोड़कर अजर अमर यात्रा के लिए निकल पड़े। क्या पक्ष, क्या विपक्ष, क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम, क्या देश क्या दुनिया हर खास और आम ने तब भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी के सरोकारो में पगी, राष्ट्रवाद के लिए गरजती खनकदार आवाज को बार बार हजारों बार याद किया था और निरंतर करते कर भी रहे हैं।
करोड़ों देशवासी उनके बीमार रहते उनके लिए खूब दुआ करते रहे कि काश अटलजी जीवन की ओर फिर लौट आएं। उनकी उखड़ती सांसें जीवन का दिया फिर से जला जाएं। मगर अटल तो बस अटल थे। स्वतंत्रता दिवस का उल्लास मनवाकर 16 अगस्त को हमसे विदा हो गए।
संसद में मान मर्यादा, गरिमा और सरोकारों की राजनीति का कई दशकों तक झंडा लहराने वाले भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी भारत के प्रतिष्ठावान राजनेता थे। आज सवा सौ करोड़ लोगों वाले देश में वाजपेयी एक ऐसे नेता थे जो हर दिल अजीज थे और दलों की सीमाओं से कहीं दूर जन जन के प्रिय थे। अपनी गरिमामय राजनैतिक शैली और राजनीति में कमर से नीचे वार न करने की कसम उन्होंने कभी नहीं तोड़ी। आगे अटल जैसा राजनेता होना राजपथ पर चलने वालों का एक सुनहरा सपना होगा। देश की संसद और विधायिका अटल जैसे जनप्रतिनिधि का हमेशा इंतजार करती रहेगी।
असल में अटल होना आसान नहीं होता है।
अटल वही हो सकता है जो विचार पर अटल हो, व्यवहार में अटल हो, विनम्रता में अटल हो, नैतिकता में अटल हो।
भारत में अटल वही बनता है जिसकी राजनैतिक शुचिता अटल हो, जिसके सिद्धांत अटल हों और हमेशा अटल रहने वाले जीवन मूल्य हों।
मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी का पुस्तैनी पुराना सामान्य सा घर भारतीय लोकतंत्र की ताकत का दस्तावेज है। शिन्दे की छावनी कमल सिंह का बाग नामक एक संकरे मोहल्ले में रहने वाले एक ब्राहमण परिवार के बेटे अटल बिहारी वाजपेयी एक गरिमापूर्ण राजनैतिक हस्ती बनेंगे किसने सोचा था।
न उनके परिवार ने इस बेटे में भारतीय राजनीति का ओजस्वी सूरज देख पाया होगा न पड़ोसी उसके कृतित्व को समझ पाए होंगे। ये संभव ही नहीं होता। ऐसी दिव्यदृष्टि लोगों को मिल जाती तो क्या नहीं होता मगर आगे बड़ते कदम जीवन की दिशा बता जाते हैं।
ग्वालियर में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी उन अनवरत राजनेताओं में से थे जिन्होंने जवाहरलाल नेहरु से लेकर भारत के कई प्रधानमंत्रियों को सत्ता में बैठते और उतरते देखा था।
कवि हृदय अटल बिहारी वाजपेयी आचार विचार, संस्कार और सिद्धांत की राजनीति करने वाले जननेता थे। अटल बिहारी वाजपेयी चाहे जब 2 सांसद वाली भाजपा के नेता हों या फिर 1996, 1998, 1999 में भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने वाले नायक हों उनका व्यवहार और तेवर कभी नहीं बदले। राजनीति में वे समय दर समय कभी विपक्ष कभी पक्ष सहित तमाम अलग अलग कर्तव्य और भूमिकाओं में रहे मगर उनके अंदर बिन बाधा के निरंतर ही भावनाशील कवि हृदय सदा बना रहा।
भारत की पहली राष्ट्रवादी सरकार के जननायक अटल बिहारी वाजपेयी एक दिन भारत के प्रधानमंत्री बनेंगे ये भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु ने क्यों कहा था ये पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के राजनैतिक सफर और उसके गौरव को जान समझकर बेहतर जाना जा सकता है।
वे पहले 13 दिन के लिए सत्ता में आए और विश्वासमत पर सत्य की भाषा बोलकर विपक्षियों को शर्मिन्दा कर गए। उन्हें देश से आगे इतना अधिक प्रेम और दुलार मिला कि भारतीय जनता पार्टी नई लोकसभा सीटें लाकर गठबंधन सरकार की अगुआ बनी। 1998 में देश के विभिन्न मत मतांतर वाले 13 दलों को साथ जोड़कर भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी ने देशहित में बेहतर सरकार चलाई।

निजता के सवाल पर और कितना घिरेगी मोदी सरकार
डॉ हिदायत अहमद खान
केंद्र में सत्ता संभालते ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ऐसे-ऐसे फैसले लिए कि लोगों ने कहना शुरु कर दिया कि यह भाजपा कम और कांग्रेस-2 वाली सरकार ज्यादा नजर आ रही है। आरोप यह था कि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की सरकार के द्वारा छोड़े गए अधूरे कार्यों और योजनाओं को आनन-फानन में पूरा करने या फिर उन्हें लागू कर आगे बढ़ाने का काम मोदी सरकार ने पूरी जिम्मेदारी से किया। यूपीए सरकार में जिन योजनाओं और फैसलों का विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने जमकर विरोध किया था उन्हें भी मोदी सरकार ने प्रमुखता के साथ लागू किया और बतला दिया कि उसका विरोध राजनीतिक दिखावा था, ठीक वैसे ही जैसे कि आमचुनाव के दौरान जनता से किए गए भाजपा के वादे चुनाव जीतने के बाद महज चुनावी जुमले साबित हुए। यह आखिर कौन नहीं जानता है कि आधार कार्ड तो कांग्रेस अपने यूपीए शासनकाल में लेकर आने वाली थी, लेकिन तब गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने ही इसका खुलकर न सिर्फ विरोध किया था बल्कि आरोप लगाते हुए यहां तक कह दिया था कि इसके जरिए यह सरकार करोड़ों का घपला करने जा रही है और लोगों की निजता का सवाल भी तब उठाया गया था। बहरहाल रुकावटों के चलते क्रमबद्ध सुरक्षात्मक तौर पर एक अच्छी योजना को लागू करने से मनमोहन सरकार रह गई थी और इसका खामियाजा अब देश की जनता को तरह-तरह से भुगतना पड़ रहा है। इसे लेकर लोगों ने निजता का सवाल भी उठाया और अनेक याचिकाएं अदालत में लगाई गईं, लेकिन जो होना था सो हुआ और खबरें आती रहीं कि आधार का डाटा चोरी हो गया, कुछ ने कहा कि डाटा करोड़ों में बेंच दिया गया तो कुछ ने कहा इसके जरिए सरकार जनता को अपनी मुट्ठी में रखने का प्रयास कर रही है। बहरहाल अदालत में मामला होने के कारण किसी ने कुछ भी इस पर बोलना उचित नहीं समझा। यह जरुर देखने में आया कि मोदी सरकार ने अपने इरादों को पूरा करने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। पूर्ण बहुमत वाली सरकार होने के चलते वह तो हवा में उड़ने के लिए पूरी मशक्कत करती देखी गई और इस कारनामें को करने में वो कामयाब भी रही, लेकिन अफसोस कि उसे इससे जिन परिणामों की उम्मीद थी वो उसे हासिल होते नहीं दिखे। कुल मिलाकर सरकार की चाल उसी पर उल्टी पड़ती नजर आ गई। बहरहाल अब यह बीती बात बिसार दे जैसी बात लग रही है क्योंकि अब तो मोदी सरकार के एक और आदेश को सामने रखकर बताया जा रहा है कि किसी भी कंप्यूटर का डेटा खंगाल कर सरकार निजता को पूरी तरह खत्म करने का इरादा कर चुकी है। दरअसल केंद्र सरकार ने एक ऐसा आदेश जारी कर दिया है जिसके तहत किसी भी कंप्यूटर का डेटा सरकार जब चाहेगी तब खंगाल सकेगी। बताया जा रहा है कि गृह मंत्रालय ने कंप्यूटर के डेटा की जांच के लिए दस केंद्रीय एजेंसियों के अधिकारों को बढ़ा दिया है। इस आधार पर अब ये जांच एजेंसियां किसी भी कंप्यूटर में मौजूद डेटा की जांच कर सकेंगी। यह हैरान करने वाली बात है कि कंप्यूटर युग की शुरुआत से लेकर आज तक किसी के दिमाग में यह बात कभी नहीं आई होगी कि जिसे वो अपनी पर्सनल डायरी के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं वो भी सरकार के सामने खुली किताब साबित हो सकती है। इसलिए इसे सीधे तौर पर निजता पर हमला करार दिया जा रहा है। ऐसा पहली बार हुआ है जबकि एजेंसियों को कंप्यूटर का डाटा खंगालने की इजाजत दे दी गई है। केंद्रीय गृह सचिव राजीव गौबा ने इससे संबंधित यहां आदेश जारी किया वहां विपक्ष ने मोदी सरकार पर हमला बोलना शुरु कर दिया। निजता या मौलिक अधिकारों के खिलाफ यह इसलिए भी है क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के मुताबिक भी यह ठीक नहीं बैठता है। इसी बात को लेकर कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला और कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय के अनुसार भी यह निजता आपका मौलिक अधिकार है। निजता के अधिकार पर यह आदेश चोट पहुंचाता है। एक प्रकार से इस आदेश से मोदी सरकार देश के प्रत्येक नागरिक की पूरी जानकारी को देखने की अनुमति देने जैसा काम कर रही है। इससे प्रजातंत्र भी खतरे में आता दिख रहा है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार से बौखलाई मोदी सरकार अब लोगों की जासूसी उनके कंप्यूटर में मौजूद डाटा को खंगालकर करना चाहती है, इसलिए इसका विरोध तो होगा और उस स्तर तक होगा जब तक कि इस पर दोबारा विचार करने का कोई निर्णय नहीं लिया जाता है। वैसे देखा जाए तो पूर्ण बहुमत वाली सरकार को ऐसे विरोधों से कोई फर्क फिलहाल पड़ता दिख नहीं रहा है, इसलिए चिंता की भी बात नहीं है, लेकिन जब 2019 आम चुनाव में भाजपा वोट मांगने मतदाता के द्वार जाएगी तब जरुर फर्क पड़ेगा। तब संभव है कि खामोश मतदाता मतदान के जरिए मौजूदा सरकार को निजता के सवाल पर घेर ले, तब तक तो बहुत देर हो चुकी होगी।

प्रधानमंत्रियों से भी बड़ा काम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
हमारे स्वास्थ्य मंत्रालय और विश्व-स्वास्थ्य संगठन के एक ताजा सर्वेक्षण ने मुझे चौंका दिया। उससे पता चला कि हमारे देश में सात करोड़ से भी ज्यादा लोग रोज बीड़ी पीते हैं। बीड़ी फूंककर वे खुद को फेफड़ों, दिल और केंसर का मरीज तो बनाते ही हैं, हवा में भी जहर फैलाते हैं। उनके इलाज पर हर साल यह देश 80,550 करोड़ रु. खर्च करता है, क्योंकि अमीर लोग तो प्रायः सिगरेट पीते हैं। बीड़ी पीनेवालों में ज्यादातर गरीब, ग्रामीण, अशिक्षित, पिछड़े, आदिवासी, मजदूर आदि लोग ही होते हैं। इनके पास इतना पैसा कहां है कि वे गैर-सरकारी अस्पतालों की लूटमार को बर्दाश्त कर सकें। उनके इलाज का खर्च सरकार को ही भुगतना पड़ता है। लेकिन हमारी सरकारें इसी बात से खुश हैं कि बीड़ी पर टेक्स लगाकर वे लगभग 400 करोड़ रु. हर साल कमा लेती हैं। इन सरकारों को आप क्या बुद्धिमान कहेंगे, जो 80 हजार करोड़ खोकर 400 करोड़ कमाने पर गर्व करती हैं ? यही हाल हमारे यहां शराब का है। शराब पर लगे टैक्स से सरकारें, करोड़ों रु. कमाती हैं और शराब के कारण होनेवाली बीमारियों और दुर्घटनाओं पर देश अरबों रु. का नुकसान भरता है। लेकिन देश में कितनी संस्थाएं हैं, जो बीड़ी, सिगरेट और शराब के खिलाफ कोई अभियान चलाती हैं ? सरकारें यह काम क्यों करने लगी ? उनको चलानेवाले नेता तो वोट और नोट के गुलाम है। इस तरह के अभियान चलाने पर उन्हें न तो वोट मिल सकते हैं और न ही नोट ! यह काम हमारे साधु-संन्यासियों, मुल्ला-मौलवियों, पादरियों आदि को करना चाहिए लेकिन उन्हें अपनी पूजा करवाने से ही फुर्सत नहीं। अब ऐसे समाज-सुधारक भी देश में नहीं हैं, जो करोड़ों लोगों को इन बुराइयों से बचने की प्रेरणा दें। मैं तो कहता हूं कि भारत के लोगों को धूम्रपान, नशे और मांसाहार– इन तीनों से छुटकारा दिलाने के लिए कोई बड़ा सामाजिक आंदोलन चलना चाहिए। किसी भी मजहब में मांसाहार को अनिवार्य नहीं बताया गया है। पिछले सप्ताह कोलकाता, रायपुर और अंबिकापुर के विश्वविद्यालयों में मैंने व्याख्यानों के बाद समस्त श्रोताओं से संकल्प करवाए कि वे अपने हस्ताक्षर हिंदी या स्वभाषा में करेंगे। धूम्रपान, नशे, मांसाहार, अंग्रेजी की गुलामी और रिश्वत लेने और देने के विरुद्ध यदि हम देश के 15-20 करोड़ लोगों से भी संकल्प करवा सकें तो हम इतना बड़ा काम कर देंगे, जितना कि सारे प्रधानमंत्री मिलकर आज तक नहीं कर सके हैं।

सूफी संत मो. ग़ोस ग्वालियरी व अमर गायक तानसेन…!
नईम कुरेशी
मध्य प्रदेश के ऐतिहासिक महानगर ग्वालियर में महान सूफी संत लेखक विचारक हजरत मोहम्मद गोस साहब का आना लगभग 1523 में हुआ था। वो उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के जहूराबाद करिन्दा इलाके में गंगा किनारे पैदा हुये थे, जहां गौतम बुद्ध ने 2500 साल पहले बनारस के समीप सारनाथ में शांति का पहला संदेश दिया था। गाजीपुर एक प्राचीन नगर रहा है जिसका एक भाग तहसील मात्र रहा था बनारस जहां भगवान रामचन्द्र के गुरु मुनि वशिष्ठ के पिता राजा गाधी का शासन रहा था। महर्षि सूत का भी यहां मंदिर है जो स्वामी विवेकानन्द के गुरु भी कहे जाते हैं। उलटी गंगा बहने करिन्दा ब्लाॅक में भी नजारा यहां देखा जाता है। ऐसी मान्यता है कि भगवान गौतम बुद्ध, राजा गाधी और संत कबीर साहब, तुलसीदास जी, मोहम्मद गोस साहब के प्रताप के चलते ये सब करिश्मा इस इलाके में होता आ रहा है। गाजीपुर उ.प्र. का गंगा के आभामण्डलका ऐसा जिला है जो 3 तरफ से पवित्र गंगा से घिरा है जहां डाॅक्टर अंसारी पहले 1940 में कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे थे। अंग्रेज वायसराय कार्नवानिस का भी मकबरा यहां है व अशोक के भी स्तम्भ हैं।
मेराजनामा, जमाया, बहरूलहयात, कबीद ए मखाजन, कन्जुल वाहिद, गुलजारे अबरार आदि अमर कृतियां आपने आवाम को भेंट की। उनमें से कुछ पटना की प्रसिद्ध खुदाबख्स लाइब्रेरी में मौजूद हैं। उनकी ज्यादातर पुस्तकों में मानवता व एकता सद्भावना की शिक्षायें बताई जाती हैं। इतिहासकार मानते हैं गोस के प्रभाव के कारण सम्राट अकबर ने धर्म निरपेक्ष नीति को अपनाया। अमर गायक तानसेन साहब की शिक्षा व संगीत की तालीम का गोस साहब ने ही माकूल इंतजाम उस दौर में कराया था। मथुरा के संत गायक स्वामी हरिदास ने तानसेन की इस मामले में उनके पिता को ही गोस साहब के पास ग्वालियर किले पर भिजवाया था। ऐसा ख्यातिनाम इतिहासकारों का मानना रहा है। उस दौर में राजा मानसिंह तोमर (1486-1516) का ग्वालियर पर संगीत स्कूल भी स्थापित हो चुका था। अमर गायक तानसेन भी 1523-25 के लगभग ग्वालियर आये थे। 40 साल बाद यहां के संगीत स्कूल में सूफी संत व प्रख्यात लेखक मोहम्मद गोस साहब के कारण ग्वालियर इलाका एक बड़ा शिक्षा केन्द्र भी बन गया था।
अमर गायक तानसेन दुनिया के ऐसे फनकार व गायक रहे थे जो अकबर बादशाह के म्यूजिक कोर्ट के डायरेक्टर थे व अकबर के सलाहकार भी माने जाते थे। अकबर ने उनसे प्रभावित होकर अपने परिवार की बहन की शादी जो मेहरूनिशा थीं उनके साथ करा दी थी। अमर गायक तानसेन के बेटों की भी कब्रें व दरगाहें ग्वालियर में ही हैं। तानसेन के बाद उनके बड़े पुत्र सुभाष खाॅन को गंडा बांधा गया था। दिसम्बर 24 से 28 तक उनकी याद में म.प्र. शासन 5 दिवसीय कार्यक्रम करता आ रहा है जिसमें देश दुनिया के संगीतकार उन्हें श्रद्धांजली देते हैं।
अमर गायक तानसेन गायक के साथ-साथ कवि भी थे। डाॅ. हरिहर निवास द्विवेदी ने अपनी पुस्तक 1980 में लिखा था जो तानसेन के नाम पर ही थी। अमर गायक तानसेन के बारे में उस दौर के इतिहासकार लिखते हैं कि ऐसा गायक एक हजार सालों में भी कोई और अब तक नहीं हुआ है। युद्ध के दौरान भी वो सम्राट अकबर के साथ जाया करते थे। इससे ये संदेश भी जाता है कि वो बहादुर भी रहे थे। तानसेन के चित्रों पर कोलकत्ता, मुंबई के म्यूजियमों में काफी सुन्दर चित्र उपलब्ध हैं जिन्हें मंगाकर म.प्र. के संस्कृति विभाग को राजा मानसिंह तोमर संगीत विश्वविद्यालय व स्थानीय केन्द्र व राज्य सरकारों के म्यूजियमों में रखवाना चाहिये। उनके काम पर शोध ग्रंथ भी लिखाये जाने चाहिये। अमर गायक के नाम पर अभी काफी कुछ किया जाना चाहिये। बच्चों के स्कूली किताबों में उन्हें पढ़ाया जाना भी उचित होगा। हज़्ारत गोस व अमर गायक तानसेन के अभी भी काफी अवशेष, आगरा, मथुरा, बुरहानपुर, हैदराबाद, तंजाबुर व मध्य एशिया में हैं। तानसेन पर फ्रांस की नलिनी डिबोय तो 11 साल में पी.एच.डी. कर गईं 2008 में पर भारत के व मध्य प्रदेश के संगीतकार व उनके गुरुजन काफी पीछे देखे जा रहे हैं। तानसेन समारोह में अगर मुख्यमंत्री, मंत्रीगण न आयें तो ग्वालियर के 12 संगीत स्कूल व अब 5 सालों पूर्व बने विश्वविद्यालय के छात्र झांकने को भी न आयें ये भी एक हैरत की बात है। उस्ताद अमजद अलि साहब सरोदवादक को मध्य प्रदेश सरकार 10 सालों से महत्व ही नहीं दे रही है। इस बात की कसक उनमें बनी हुई है।

बहुत कुशल राजनेता थे चौधरी चरण सिंह
मनोहर पुरी
(23 दिसम्बर : जन्म दिवस पर विशेष) भारतीय राजनीति में चौधरी चरण सिंह अपनी विलक्षण प्रतिभा के लिए जाने जाते हैं। वह एक ईमानदार, सिद्धांतवादी और सादगी पसंद इंसान थे। निजी जीवन में अनुशासन का कठोरता से पालन करने के कारण समय समय पर वह अपने लिए नए नए विरोधी उत्पन्न कर लेते थे। जीवन मूल्यों में आदर्शवाद की स्थापना उनके राजनीतिक जीवन की साधना रही। व्यक्तिगत जीवन में अपने सिद्धांतों पर किसी प्रकार का समझौता करना उन्हें मंजूर नहीं होता था परन्तु राजनीति में वह किसी को स्थाई दुश्मन अथवा दोस्त नहीं मानते थे। यही कारण है कि जहां उनके संबंध हमांयू कबीर,डॉ राम मनोहर लोहिया,देवी लाल, मधु लिमये और राजनारायण सरीखे समाजवादियों से रहे वहीं उन्होंने जनसंघ के नेता नाना जी देशमुख, अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी से भी मित्रतापूर्वक संबंध रखे और समय समय पर उक्त नेताओं के सहयोग से सत्ता प्राप्त करने में कोई हिचकिचाहट नहीं दिखाई। कांग्रेस पार्टी के साथ उनका घनिष्ठ संबंध 45 वर्ष तक रहा। राजनीति में उनकी खास पहचान उस समय बनी जब उन्होंने पंडित जवाहर लाल नेहरू की कृषि संबंधी नीतियों का खुल कर विरोध करना प्रारम्भ किया। पंडित नेहरू के विरोधी के रूप में अपनी पहचान बनाने के वावजूद, अवसर आने पर उनकी बेटी इंदिरा गांधी के साथ हाथ मिलाने में भी उन्होंने बिल्कुल भी गुरेज नहीं किया। उन्होंने इस अवसर पर इस बात पर भी ध्यान नहीं दिया कि आपात काल के दौरान ंइंिदरा गांधी ने ही उन्हें जेल में डाल दिया था। वास्तव में वह एक अति महत्वाकांक्षी नेता थे। यही कारण है कि 28 जुलाई 1979 को जब वह कांग्रेस पार्टी के समर्थन से प्रधान मंत्री बने तो उन्होंने स्पष्ट स्वीकार किया कि उनके जीवन की सबसे बड़ी साध पूरी हो गई है। भारतीय राजनीति में वह एक मात्र ऐसे प्रधान मंत्री रहे जिन्होंने एक दिन भी संसद का सामना नहीं किया। वह 14 जनवरी 1980 तक प्रधान मंत्री के पद पर बने रहे।
हमारे देश की अर्थव्यवस्था और सामाजिक जीवन का आधार सदियों से कृषि रहा है। खेती में हमारे किसानों के प्राण बसते हैं। कृषि उनके दिल की धड़कन है। इस धड़कन को भली भान्ति रूप से चौधरी चरण सिंह ने अनुभव किया। जीवन पर्यन्त उनका हाथ किसानों की नब्ज पर ही रहा। राजनीति में उनका वर्चस्व ही नहीं अस्तित्व भी किसानों की इस धड़कन को पहचानने के कारण ही बना रहा। भले ही उनके विरोधी उन्हें एक छोटे वर्ग, जिसे वह कुलक कहते थे, के नेता के रूप में प्रचारित करते रहे वास्तव में वह प्रत्येक दृष्टि से एक सुलझे हुए राष्ट्यी नेता थे और उनमें नेता के हर प्रकार के गुण विद्यमान थे। इन्हीं गुणों के कारण उन्होंने वर्ष 1929 में कांग्रेस के सदस्य बन कर भारत के स्वाधीनता संग्राम में पूरे जोरशोर से भाग लिया और अन्तत पचास वर्ष बाद वह भारत के प्रधान मंत्री के पद तक पहुंचे।
चौधरी चरण सिंह का संबंध एक साधारण जाट परिवार से था। उनका जन्म 23 दिसम्बर 1902 को चौधरी मीर सिंह एवं श्रीमती नेत्री देवी के घर हुआ। उनका परिवार उत्तर प्रदेश के मेरठ जनपद ,तहसील हापुड़ के नूरपुर नामक गांव में रहता था। साधारण कृषक परिवार का सदस्य होने के कारण चौधरी चरण सिंह ने अपने प्रारम्भिक जीवन में किसानों का शोषण होते हुए समीप से देखा था। वह जातिवाद को देश और समाज के लिए कलंक मानते थे। जाति व्यवस्था का विरोधी होने के कारण भी उनका रूझान आर्यसमाज के सिद्धांतों की ओर रहा। इसे एक विडम्बना ही कहा जा सकता है कि उनके विरोधियों ने स्पष्ट तौर पर उन्हें जातिवादी के रूप में प्रचारित करने का प्रयास किया।
चौधरी चरण सिंह एक मेधावी छात्र थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा अपने गांव में ही हुई। दसवीं कक्षा तक उन्होंने मेरठ के राजकीय विद्यालय में शिक्षा पाई। 1923 में उन्होंने आगरा कालेज आगरा से विज्ञान में स्नातक की उपाधि प्रात की। 1925 में उन्होंने एम.ए. पास किया और अगले ही वर्ष 1926 मेरठ विश्वविद्यालय से कानून की डिग्री पाप्त की। युवा अवस्था में ही उन्होंने सामाजिक गतिविधियों में भाग लेना प्रारम्भ कर दिया। वकालत को जीविका का साधन बनाने के बाद उन्होंने गायत्री देवी से विवाह किया। गायत्री देवी के पिता हरियाणा के सोनीपत जिले के गांव गढी कुढेरा के निवासी थे। उनका परिवार आर्य समाजी परिवार के रूप में जाना जाता था।
वर्ष 1937 में वह छपरौली, बागपत के क्षेत्र से उत्तर प्रदेश विधान सभा के लिए निर्वाचित हुए। 1938 में उन्होंने किसानों द्वारा उत्पादित खाद्यान्नों की ब्रिकी से संबंधित एक अधिनियम प्रस्तुत किया जिसमें खाद्यान्न व्यापारियों से किसानों के हितों की रक्षा की बात की गई थी। यह अधिनियम बाद में भारत के अनेक राज्यों द्वारा लागू किया गया। उन्होंने महात्मा गांधी द्वारा चलाए गए असहयोग आन्दोलन में बढ़ चढ़ कर भाग लिया। इसके लिए उन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। नमक सत्याग्रह के दौरान भी वह जेल गए। 1952 में उत्तर प्रदेश में राजस्व मंत्री बने। उन्होंने जमींदारी उन्मूलन अधिनियम को लागू करने में बहुत सक्रियता दिखाई। जमींदारी उन्मूलन विधेयक का प्रारुप उन्होंने ही तैयार किया था। वर्ष 1953 में उन्होंने चकबंदी कानून पारित करवाया जिसके लिए किसान उन्हें सदैव याद रखेगें। 1957 से 1967 के मध्य वह उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के मंत्री मंड़ल में विभिन्न पदों पर रहे। वर्ष 1967 में उनका कांग्रेस पार्टी से मोह भंग हो गया। एक अप्रैल 1967 को उन्होंने अपने 16 समर्थकों सहित विधान सभा में अपना विपक्षी दल बनाया और उसे जन कांग्रेस के नाम से मान्यता दिलाई। इसी बीच कांग्रेस के विरोध में एक देश व्यापी लहर चली और स्थान स्थान पर संयुक्त विधायक दलों का गठन होनें लगा। उत्तर प्रदेश विधान सभा में संयुक्त विधायक दल का गठन हुआ और जनसंघ की सहायता से चौधरी चरण सिंह संयुक्त विधायक दल के नेता बनाये गए और वह राज्य के मुख्य मंत्री बन गए। इस पद प् वह 25 फरवरी 1968 तक रहे। इसी वर्ष उन्होंने अपने नेतृत्व में भारतीय क्रान्ति दल का गठन किया और 17 फरवरी 1970 को आठ महीने के लिए पुन उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री बनने में सफल रहे। इस प्रकार उन्होंने उत्तर प्रदेश में पहली दोनों गैर कांग्रेसी सरकारों का नेतृत्व किया।
चौधरी चरण सिंह का समग्र जीवन किसानों के हितों के लिए समर्पित रहा। उन्होंने जवाहर लाल नेहरू के उन आर्थिक सुधारों का विरोध किया जो वह सोवियत संघ के मिलते जुलते ढांचे को आधार बना कर करना चाहते थे। उनका यह दृढ़ विशवास था कि भारत में सहकाराता कृषि सफल नहीं हो सकती। स्वयं कृषक होने के कारण वह जानते थे कि भारतीय किसानों को अपनी भूमि का स्वामित्व बहुत प्रिय है। वह ग्रामीण अर्थव्यवस्था के विशेषज्ञ थें उनका मत था कि यदि भारत के गांव खुशहाल होगें तभी देश भी खुशहाल हो सकेगा। कृषि के महत्व को देखते हुए उनका मत था कि गोवंश का संवर्धन एक राष्ट्यी अनिवार्यता है जिसे अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। पंडित नेहरू द्वारां की जाने वाली किसानो की उपेक्षा देख कर वह चिन्तित और दु:खी रहते थे और उनकी नीतियों की समय समय पर आलोचना भी करते थे। नेहरू की खुली और निरन्तर आलोचना के कारण उन्हें राजनैतिक क्षति भी सहन करनी पड़ी।
चौधरी चरण सिंह का राष्ट्यी राजनीति से निकट का संबंध उस समय बना जब वर्ष 1975 में तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश में आपात काल की घोषणा की और प्राय सभी राजनीतिक दलों के नेताओं को जेल में डाल दिया। जेल में ही उनका सम्पर्क विपक्षी दलों के अनेक नेताओं से हुआ और संगठित हो कर इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी का विरोध करने की योजना बनी। आपात काल के बाद हुए चुनावों में सभी विपक्षी दलों ने मिल कर जनता पार्टी का गठन किया। इस पार्टी के गठन में चौधरी चरण सिंह ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चुनावों में जनता पार्टी के भारी विजय मिली। उत्तर भारत में तो कांग्रेस बुरी तरह से पराजित हुई। 1977 में चौधरी चरण सिंह पहली बार लोक सभा में निर्वाचित हो कर आए। जब जनता पार्टी सत्ता में आई और मोरार जी देसाई को प्रधान मंत्री बनाया गया तब उन्हें उप प्रधान मंत्री के पद से ही सन्तोष करना पड़ा। परन्तु इसकी कसक हमेशा उनके मन में रही जो अन्तत जनता पार्टी के विघठन का कारण बनी। उस समय उनके पास मात्र 64 लोक सभा के सदस्यों का समर्थन था जब कांग्रेस की अध्यक्ष इंदिरा गांधी ने उन्हें समर्थन का आश्वासन दिया और वह प्रधान मंत्री के पद पर आसीन हो गए। उनके शासन काल में लोकसभा की एक भी बैठक नहें हो पाई। लोक सभा के सत्र से एक दिन पूर्व ही उन्होंने त्याग पत्र दे दिया क्योंकि कांग्रेस ने उनकी सरकार से अपना समर्थन वापिस ले लिया था। जनता पार्टी के विघटन के बाद उन्होंने भारतीय लोक दल का गठन किया। वर्ष 1987 तक वह लोकदल के अध्यक्ष रहे। 29 मई 1987 में उनका निधन हो गया। उनका अन्तिम संस्कार दिल्ली में राजघाट के समीप ही किसान घाट पर कर दिया गया।

किसानों की कर्जमाफीः कुछ सवाल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
तीन हिंदी प्रदेशों में चुनाव जीतने से ही तीनों कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने किसानों की कर्जमाफी कर दी है। इस कर्जमाफी से इन तीनों सरकारों पर लगभग 50 हजार करोड़ का बोझ आन पड़ा है। कर्जमाफी के इस वादे ने ही कांग्रेसी जीत की नींव रखी है। मप्र, राजस्थान और छत्तीसगढ़– ये तीनों कृषि-प्रधान प्रांत हैं। किसानों ने कांग्रेस को जमकर वोट दिए हैं। तीनों मुख्यमंत्रियों ने शपथ लेते ही जो कर्जमाफी की घोषणा कर दी, इसने कांग्रेस की छवि आम नागरिकों के मन में चमका दी है। लोगों के मन में यह धारणा बन रही है कि कांग्रेसी जो कहते हैं, वह करते हैं जबकि भाजपा नेता सिर्फ जुमलेबाजी करते हैं ? लेकिन यहां पहला सवाल उठता है कि ये तीनों राज्य इस 50-60 हजार करोड़ रु. की राशि लाएंगे कहां से ? अपने बजट में ये मुख्यमंत्री क्या काटेंगे और क्या जोड़ेंगे ? भाजपा की केंद्र सरकार तो इनको कोई टेका लगानेवाली नहीं है ? इसके अलावा एक सवाल यह भी है कि ज्यादातर किसान बैकों तक पहुंच ही नहीं पाते। वे तो अपने गांवों के सूदखोरों के कर्जदार बने रहते हैं। उनका कर्ज माफ कैसे होगा ? नीति आयोग का कहना है कि कर्जमाफी का लाभ मुश्किल से 10-15 प्रतिशत किसानों को ही मिल पाता है। पिछले 15-20 साल से कर्जमाफी के इस रामबाण को सभी पार्टियां चला रही हैं लेकिन क्या देश के किसानों की गरीबी दूर हो रही है ? उनकी गरीबी दूर हो न हो, कर्जमाफी का वादा इतना बड़ा लालच है कि उसके कारण नेताओं की गरीबी दूर हो जाती है। वे वोटों की फसल काट ले जाते हैं। मनमोहनसिंह सरकार ने 2008-09 में 70 हजार करोड़ के कर्ज माफ करके अपनी वापसी पक्की करा ली थी। इसलिए अब राहुल गांधी ने कहा है कि यदि मोदी ने माफ नहीं किया तो 2019 में हम माफ करेंगे। इसमें शक नहीं कि कर्जमाफी के कारण हजारों किसान आत्महत्या करने से रुकेंगे लेकिन हम यह भी न भूलें कि कई किसान इस कर्ज का उपयोग खेती पर करने की बजाय मकान बनाने, कार और बाइक खरीदने और दिखावे पर ज्यादा करते हैं। किसानों को तात्कालिक राहत मिले, इस दृष्टि से एकाधबार कर्जमाफी ठीक है लेकिन उनकी दशा वास्तव में सुधारना हो तो उनकी उपज के लिए कठोर दाम बांधो नीति और फसल बीमा होना चाहिए। उनके लिए बीज, खाद और सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था होनी चाहिए। यदि यह सब हो तो आखिर किसान का भी स्वाभिमान होता है। वह आपसे कर्ज लेगा ही क्यों ?

भाजपा नेताओं का अहंकार और बड़बोलापन
सनत जैन
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद से ही भाजपा नेताओं का हमला कमलनाथ पर बढ़ गया। दिल्ली हाईकोर्ट ने सज्जन कुमार को उम्र कैद की सजा सुनाई। उसके तुरंत बाद भाजपा नेताओं ने कमलनाथ को घेरने के लिए, उन्हें सिख दंगों का दोषी बताकर उनके खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर विष-वमन शुरू कर दिया। दिल्ली में केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद, भाजपा के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा देखो-देखो कांग्रेस ने सिख दंगे के आरोपी कमलनाथ को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिला दी हैं। उल्लेखनीय है, 1984 में पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिख दंगे देशभर में भड़के थे। दिल्ली में हुए दंगों में सज्जन कुमार के साथ कमलनाथ को भी घेरने का प्रयास, उस समय भी किया गया था। पिछले 35 वर्षों से भाजपा और अकाली नेता, कमलनाथ को सिख दंगों के आरोपी के रूप में घेरने का प्रयास कर रहे हैं। सिख दंगों के बाद पुलिस, जांच एजेंसी और नानावती आयोग ने सिख दंगों की जांच की, नानावती आयोग ने कमलनाथ के खिलाफ कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं होने पर निर्दोष साबित किया था। किंतु जब भी पंजाब विधानसभा के अथवा लोकसभा के चुनाव आते हैं। 1984 के सिख दंगों का जिन्न भाजपा और अकाली निकालकर बाहर ले आते हैं। सिख दंगों के लिए कांग्रेस ने सार्वजनिक रूप से माफी भी मांगी है। सिखों के पुनर्वास और राहत देने का काम कांग्रेस ने किया। दोषियों के खिलाफ कार्यवाही भी हुई। कांग्रेस शासनकाल में यदि सिख दंगों के आरोपियों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई थी, तो दिल्ली में 10 साल तक भाजपा की सरकार रही। केंद्र में 1996 से 2004 तक अटल बिहारी वाजपेई के नेतृत्व में भाजपा गठबंधन दलों की सरकार थी। जिसमें अकाली भी शामिल थे। उसके बाद में यदि सिख दंगों के आरोपियों पर कार्यवाही नहीं हो सकी, तो जितनी जिम्मेदारी कांग्रेस की थी। उससे कहीं ज्यादा जिम्मेदारी भारतीय जनता पार्टी की होती है। भारतीय जनता पार्टी सिखों के साथ पिछले 35 वर्षों से जो राजनीति कर रही है। यह सिखों ने अब समझ लिया है। जिसके कारण सिक्खों का विश्वास भाजपा के प्रति कम हुआ है। पंजाब के चुनाव परिणाम प्रमाणित करते हैं, सिख दंगे के आरोप अब भाजपा और अकालियो के लिए मुफीद नहीं रहे।
कमल नाथ के शपथ लेते ही भाजपा के दो केंद्रीय मंत्रियों, प्रवक्ता संबित पात्रा और जगह जगह पर भाजपा संगठन के पदाधिकारियों ने आंदोलनों प्रदर्शन शुरू कर दिया। आम जनमानस के बीच इसकी बड़ी तीव्र प्रतिक्रिया हो रही है। इससे भी ज्यादा गंभीर आरोप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पर लगे हुए हैं। गुजरात दंगों एवं जस्टिस लोया की हत्या के मामले मैं भी इसी तरीके के आरोप हैं। राजनीति में कहीं ना कहीं एक स्तर तक आरोप-प्रत्यारोप को जायज ठहराया जा सकता है। किंतु जब इसमें दोहरे मापदंड अपनाए जाते हैं उससे राजनेताओं की विश्वसनीयता आम जनता के बीच में कम होती है भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री कमलनाथ के रोजगार वाले बयान पर भी अनर्गल प्रलाप शुरू करके कमलनाथ और कांग्रेस को ही फायदा पहुंचाने का काम कर रहे हैं। कमलनाथ ने कहा था कि मध्यप्रदेश में जिन उद्योगों को सरकार छूट एवं अन्य सहायता दे रही है। उन्हें 70 फ़ीसदी रोजगार स्थानीय लोगों को देना होगा। यह कोई नई बात नहीं है। गुजरात में 80 फ़ीसदी स्थानीय लोगों को रोजगार देने की शर्त है। इसके अलावा लगभग लगभग सभी राज्यों में स्थानीय रोजगार उपलब्ध कराने की शर्त अनुबंध में होती है। पिछले 2 दिनों से भारतीय जनता पार्टी के नेता जिस तरह से कमलनाथ के खिलाफ बयानबाजी कर रहे हैं। उसका लाभ कमलनाथ और कांग्रेस को मध्यप्रदेश में मिल रहा है। जो काम कमलनाथ स्वयं नहीं कर सके, वह भाजपा के लोगों ने कर दिया है। मध्य प्रदेश के युवाओं में एक आशा जगी है, कि कमलनाथ के नेतृत्व में उन्हें नौकरी के अवसर उपलब्ध होंगे।
भाजपा नेताओं का अहंकार उनको सत्ता के सिंहासन से उतारने का काम कर रहा है। मनमोहन सरकार को भ्रष्टाचार के आरोप में सत्ता से बेदखल होना पड़ा था। हालांकि यह आरोप अदालत में साबित नहीं हुए। केंद्र में प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में स्पष्ट बहुमत की सरकार 30 साल बाद बनी। पहले दिन से ही सत्ता के मद में मदहोश होकर कांग्रेस मुक्त भारत का नारा अमित शाह ने दे दिया। कांग्रेसी एवं विपक्षी नेताओं के साथ शिष्टाचार और लोकतांत्रिक मर्यादाओं का पालन भी भाजपा नेताओं ने नहीं किया। विपक्षी नेताओं को बात बात में माफी मांगने और नालायक बेवकूफ बताने का कोई भी मौका, भाजपा के नेताओं और उनके प्रवक्ताओं ने नहीं छोड़ा परिणाम स्वरूप 2014 में राहुल गांधी की स्वीकार्यता देशभर में कहीं नहीं थी किंतु पिछले 4 वर्षों में भाजपा नेताओं के घमंड अहंकार और राहुल गांधी को लेकर जो जुमले भाजपा नेताओं ने उछाले। उसके कारण राहुल गांधी जैसा अपरिपक्व नेता, आज पूरी परिपक्वता के साथ नरेंद्र मोदी के सामने खड़ा होकर, बराबरी से चुनौती दे रहा है। सारे देश में राहुल गांधी की स्वीकार्यता बढ़ गई है। इसमें राहुल गांधी का योगदान ना के बराबर है। भाजपा के नेताओं ने जरूर राहुल गांधी की स्वीकार्यता आम लोगों के बीच बढ़ा दी है।
भाजपा के अहंकारी नेताओं को मध्य प्रदेश के शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेस नेताओं ने सम्मान देकर शिवराज सिंह चौहान, कैलाश जोशी और बाबूलाल गौर को ना केवल मुख्य मंच पर बैठाया। वरन उनसे मिलने राहुल गांधी, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य स्वयं गए। मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा छत्तीसगढ़ के शपथ ग्रहण समारोह में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सार्वजनिक रूप से सम्मान देकर लोकतांत्रिक व्यवस्था का गौरव बढ़ाने का काम किया है। भाजपा नेताओं ने यह शिष्टाचार कभी नहीं निभाया। आम जनता कभी भी अहंकार को पसंद नहीं करती हैं। हर 5 साल में मतदाता अपनी पसंद से अपना प्रतिनिधि चुनता है। पसंद नहीं होने पर उसे सत्ता से बेदखल कर देता है। भारत एक ऐसा देश है, जहां रावण जैसे महा पराक्रमी महाज्ञानी का अंत केवल अहंकार के कारण हुआ है। 2019 में लोकसभा के चुनाव होना है। 2014 के चुनाव में जो वादा करके भाजपा सत्ता में आई थी। अब उसे इसका हिसाब भी देना होगा। चुनाव जैसे अवसर पर भाजपा नेताओं के उदार, विनम्र और शिष्ट बनकर जनता के सामने जाने से निश्चित रूप से उन्हें लाभ मिलेगा। किंतु जिस तरह से भाजपा के नेता और प्रवक्ता कांग्रेस और विपक्षी नेताओं के साथ जो व्यवहार और अर्नगल बयानबाजी कर रहे हैं। उससे यही कहा जा सकता है कि जो गड्ढा वह दूसरों के लिए खोदते है। उसमें सबसे पहले गिरने की संभावना भी खोदने वाले की ही होती हैं। आशा है, लोकतांत्रिक व्यवस्था में मर्यादाओं का पालन करना राजनेताओं की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है। भाजपा को यह समझना होगा।

संसद में शोर-शराबा
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
संसद का आखिरी सत्र है और इसकी हालत क्या है ? पूरा एक सप्ताह गुजर गया और वह शोर-शराबे की भेंट चढ़ गया। इस सत्र में लगभग पचास विधेयक पास होने हैं, उन पर बहस होनी है और जरुरी हो तो उनमें संशोधन भी होने हैं। इन सब कामों के लिए विवेक और धैर्य दोनों की जरुरत है लेकिन हमारे सांसद क्या कर रहे हैं ? यदि विपक्ष के सांसद किसी मुद्दे पर शोर मचाते हैं तो पक्ष के सांसद उनसे भी ज्यादा हंगामा खड़ा कर देते हैं। वे संसद में पोस्टर तक लहराते हैं ताकि टीवी चैनलों पर उनके चेहरे चमकते रहें। प्रचार की इस लालसा ने हमारी संसद की छवि को विकृत कर दिया है। इसी से दुखी होकर सुमित्रा महाजन जैसी गरिमा की मूर्ति को लोकसभा अध्यक्षा के नाते कहना पड़ा कि हमारे सांसद स्कूली बच्चों से भी ज्यादा गया-बीता बर्ताव करते हैं। इसमें शक नहीं है कि तीनों हिंदी प्रांतों में भाजपा की हार से विपक्ष में अपूर्व उत्साह का संचार हुआ है लेकिन यदि वह यह मानता है कि छह माह बाद उसे सत्तारुढ़ होना है तो क्या उसे जिम्मेदारी की मिसाल पेश नहीं करनी चाहिए ? क्या उसे सरकार की गलतियों को प्रभावशाली तर्को के साथ देश के सामने पेश नहीं करना चाहिए और उसे क्या यह नहीं बताना चाहिए कि यदि वह सत्ता में आया तो वह क्या-क्या करेगा ? यदि राष्ट्र-निर्माण के मुद्दों पर सार्थक और गंभीर बहस हो तो विपक्ष की उत्तम छवि तो बनेगी ही, देश का भी लाभ होगा। संसद में फिजूल शोर-शराबे का एक दुष्परिणाम यह भी होगा कि जनता का ध्यान तीनों नए कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों की किसान हितकारी घोषणाओं पर उतना नहीं जाएगा, जितना इस शोर-शराबे पर जाएगा। यदि विपक्ष अपना रवैया नहीं बदलेगा तो जनता यही समझेगी कि जैसा मोदी है, वैसा ही विपक्ष होगा। यदि विपक्ष सत्तारुढ़ हुआ तो वह भी गप्पबाजी और नौटंकियों में पांच साल बिता देगा।

क्या भाजपा जातीय जहर घोल कर लड़ेगी चुनाव ?
जग मोहन ठाकन
पहले ही जाट आरक्षण के मुद्दे पर जातीय विद्वेष का दंश झेल चूका हरियाणा क्या अब जातीय आधार पर वोट बटोरने के घिनोने प्रयास को झेल पायेगा ? क्या भाजपा अब अपने पुराने धार्मिक मुद्दे को आगामी चुनावों में निष्प्रभावी मान कर समाज का जातीय आधार पर विभक्तिकरण कर वोट लेना चाहती है ? यदि सोलह दिसम्बर को हुए पांच नगर निगमों के चुनावों में भाजपा के करनाल नगर निगम के चुनाव प्रत्यासी की फोटो सहित ठीक चुनाव के ही दिन एक राष्ट्रीय हिंदी समाचार पत्र में प्रकाशित करवाए गये विज्ञापन ( विज्ञापन संलग्न ) को देखा जाए तो भाजपा के प्रत्याशी की जातीय आधार पर वोटर के बंटवारे की मंशा साफ़ दृष्टिगोचर हो रही है .
विज्ञापन , जिस पर भाजपा का चुनाव चिन्ह ‘कमल का फूल’ , प्रधानमंत्री नरेंदर मोदी तथा हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर (जो पंजाबी समुदाय से सम्बन्ध रखते हैं तथा अपने हर सरकारी विज्ञापन में ‘हरियाणा एक –हरियाणवी एक’ का स्लोगन अंकित करवाते हैं ) , राष्ट्रीय हिंदी दैनिक अमर उजाला में ठीक चुनाव के दिन (सोलह दिसम्बर ) प्रकाशित करवाया गया है . विज्ञापन में भाजपा को वोट देने का अनुरोध किया गया है और लिखा गया है – बी जे पी को वोट दें – क्योंकि , “52 साल में मिला हरियाणा का पहला पंजाबी मुख्यमंत्री . अगर आज गलती की तो साठ साल में फिर मौका नहीं मिलेगा . आज़ाद प्रत्याशी के कंधे पर बन्दूक रखकर पंजाबी समाज के मुख्यमंत्री को हटाना चाहते हैं कुछ जाति विशेष के नेता . पंजाबी समाज के लोगों का अनुरोध –पंजाबी मुख्यमंत्री का खुलकर करें समर्थन .”
करनाल नगर निगम के मेयर पद की उम्मीदवार रेणु बाला गुप्ता की फोटो समेत ठीक चुनाव के दिन प्रकाशित इस विज्ञापन में जातीय आधार पर वोटों की मांग क्या चुनाव आचार संहिता का खुलम खुल्ला उल्लंघन नहीं है ? क्या यह जातीय विद्वेष को बढ़ावा देने वाला तथा जातीय आधार पर वोट माँगने का सीधा सीधा मामला नहीं है ? क्या यह सब प्रदेश के मुख्यमंत्री तथा करनाल से ही विधायक मनोहर लाल खट्टर के ध्यान में लाये बिना ही प्रकाशित करवाया गया है और किस के द्वारा छपवाया गया है ? यदि भाजपा या भाजपा प्रत्याशी ने यह विज्ञापन नहीं छपवाया है ,तो क्या भाजपा तथा भाजपा प्रत्याशी इस कथित जातीय जहर फैलाने वाले विज्ञापन प्रकाशन की जांच करवाएगी ? क्या इस विज्ञापन पर चुनाव आयोग कोई संज्ञान लेकर जांच कारवाई करेगा या आँखे मूंदकर इग्नोर कर देगा ? सवाल कई उठ रहे हैं , जवाब कौन देगा और क्या देगा यह भाजपा तथा चुनाव आयोग की कार्य प्रणाली को अवश्य दर्शाएगा .

सज्जन कु. के बहाने कुछ सवाल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
31 अक्तूबर 1984 को सुबह मैं एयर इंडिया के जहाज में बैठा और न्यूयार्क के लिए रवाना हुआ। हमारा जहाज ज्यों ही लंदन के हीथ्रो हवाई अड्डे पर रुका, पायलट ने इंदिराजी की हत्या की घोषणा की। सारे यात्री काॅंप उठे। जहाज जब न्यूयार्क पहुंचा तो हमारे दूतावास के कुछ अधिकारी जो लेने पहुंचें थे, उन्होंने मुझे बताया कि दिल्ली से दंगों की खबरें आ रही हैं। इन अधिकारियों ने कहा कि गृहमंत्री नरसिंहरावजी का आपके लिए संदेश है कि आप न्यूयार्क रुकने की बजाय तुरंत जहाज पकड़कर विसकोन्सिन युनिवर्सिटी पहुंचे। विस्कोन्सिन यूनिवर्सिटी में मुझे दक्षिण एशियाई विश्व सम्मेलन का उद्घाटन करना था। मेडिसन नामक शहर में जहाज उतरा। मैं किसी को नहीं जानता था, वहां। क्या करुं ? एक सिख नौजवान जहाज में मेरे साथ था। उसने आगे बढ़कर कहा आप मेरे घर चलिए। सुबह मैं आपको मेडिसन से विस्कोन्सिन छुड़वा दूंगा। उसके घर पहुंचते ही मेरे रोंगटे खड़े हो गए। उस नौजवान सरदारजी की मां के चेहरे का तनाव देखकर मैं दंग रह गया। भारतीय टीवी चैनल चल रहे थे और उन पर दिखाई पड़ रहा था कि हमारे हिंदू लोग अपने सिख भाइयों के साथ कितना जानवरपना कर रहे थे। मैंने रात भर कुछ भी खाया नहीं, सो भी नहीं सका लेकिन उस सिख परिवार ने मेरे प्रति जो प्रेम और आदर दिखाया, उसे मैं जीवन भर नहीं भूल सकता। आज 34 साल बाद जब मैंने यह खबर देखी कि कांग्रेसी नेता सज्जनकुमार को उच्च न्यायालय ने आजन्म कारावास दिया है तो मेरी पहली प्रतिक्रिया यह हुई कि इसमें 34 साल क्यों लग गए ? यह हमारी न्याय-व्यवस्था का कलंक है। इसके अलावा सज्जन कुमार ये मुकदमा क्यों लड़ते रहे ? उन्हें उसी वक्त अपना अपराध स्वीकार करके जेल जाना चाहिए था। अगर वे यह समझते हैं कि निर्दोष सिखों की हत्या करना उचित था और उन्होंने उस समय बड़ी बहादुरी दिखाई तो उसका उचित कानूनी पुरस्कार लेने के लिए वे तैयार क्यों नहीं हुए ? यह शुद्ध कायरता है। इस मामले में मप्र के मुख्यमंत्री कमलनाथ के नाम को घसीटने का आधार क्या है ? यदि किसी भी बड़े से बड़े नेता के विरुद्ध प्रमाण उपलब्ध हों तो आज भी उन्हें दंडित किया जाना चाहिए, फिर वे दंगे चाहे दिल्ली के हो, गुजरात के हों, बिहार के हों या महाराष्ट्र के हों। ऐसा इसलिए किया जाए कि इंदिराजी की हत्या से भी ज्यादा गंभीर कोई घटना हो जाए तो भी लोग सामूहिक हिंसा पर उतारु होने से डरने लगें।

महापुरुषों को बांटते यह कलयुग के संत
तनवीर जाफरी
भारतवर्ष की भूमि निश्चित रूप से इस बात पर गर्व करती है कि जितने महापुरुष, ऋषि-मुनि, संत-फकीर तथा अवतार इस पावन धरती पर आए उतने शायद दुनिया के किसी भी देश में नहीं हुए। इसीलिए भारतीय समाज लगभग सामूहिक रूप से इस बात को स्वीकार करता है कि अनेक प्रकार के राजनैतिक, सामाजिक, क्षेत्रीय, जातीय व सांप्रदायिक मतभेदों के बावजूद तथा स्वार्थपूर्ण एवं सत्ता केंद्रित राजनीति होने के बाद भी हमारा देश इन्हीं संतों-फकीरों व महापुरुषों के आशीर्वाद की बदौलत आगे बढ़ता जा रहा है। अन्यथा यदि देश के शासकों का वश चले तो यह लोग विभिन्न स्तरों पर देश के टुकड़े कर डालें। सवाल यह है कि आ‎खिर इन महापुरुषों, संतों व फकीरों ने इस देश की घुट्टी में ऐसा क्या भर दिया जिसने हमको तमाम कोशिशों के बावजूद अब तक एक सूत्र में बांधा हुआ है। क्या वजह है कि अनेक ‎किस्म के राजनैतिक व जातिवादी, धार्मिक भूचाल आने के बावजूद हम एक सूत्र में बंधे हुए हैं। हमारे संतों की कौन सी शिक्षा हमें पहले इंसान और बाद में हिंदू या मुसलमान बनने की प्रेरणा देती है?
इस रहस्य को जानने के लिए हमें संत कबीर के जीवन पर नज़र डालनी होगी कि किस प्रकार एक मुस्लिम परिवार अर्थात् नीरू जुलाहे का पुत्र आदि शंकराचार्य रामानंदचार्य जी का शिष्य बना। और बाद में संत जगत में उसने अपनी ऐसी छाप छोड़ी जिसे आज तक मिटाया नहीं जा सका। हमें महान संत गुरू नानक देव जी के जीवन को देखना होगा जिन्होंने अपने साथ हमेशा बाला व मर्दाना जैसे मुस्लिम फकीरों को अपने विश्वासपात्र सहयोगियों के रूप में रखा। इतना ही नहीं बल्कि पांचवें गुरू, गुरू अर्जन देव ने लाहौर के तत्कालीन महान संत साईं मियां मीर से 1589 में ऐतिहासिक स्वर्ण मंदिर की बुनियाद की ईंट रखवाई। शिरडी वाले साईं बाबा को ही देख लीजिए। इस बात पर शोध किए बिना कि साईं बाबा हिंदू थे या मुसलमान किस प्रकार भारतीय समाज का एक बड़ा हिस्सा उनके प्रति नतमस्तक व श्रद्धावान है कि बड़े-बड़े संतों-महंतों को उनकी वजह से अपनी ‘दुकानों’ पर खतरा मंडराता दिखाई देने लगा है। यही वजह है कि कलयुग के संतों ने साईं बाबा को भी उनके भक्तों से अलग करने का एक ज़बरदस्त हथकंडा अपनाया तथा इसके लिए बाकायदा अभियान भी चलाया। परंतु उनकी लोकप्रियता कम होने के बजाए और बढ़ गई। इस प्रकार के सैकड़ों उदाहरण भारतवर्ष में चारों ओर देखे जा सकते हैं जो महापुरुषों, ऋषियों-मुनियों, संतों, पीरों व फकीरों के उस वास्तविक रूप को हमारे समक्ष पेश करते हैं जिसने हमें एकता, प्रेम, सद्भाव, भाईचारा और मानवता का पाठ पढ़ाया।
भारतवर्ष में साहित्य जगत में एक मशहूर श‎ख्सियत कुंवर महेंद्र सिंह बेदी ‘सहर’ नाम की गुज़री है। मेरा सौभाग्य है कि मैंने अनेक बार उनको मुशायरों में सुना है। अपने-आप को गुरू नानक देव की सोलहवीं पुश्त का सदस्य बताने वाले ‘सहर’ साहब देश के प्रतिष्ठित आईएएस अधिकारी थे तथा भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के किसी भी देश के स्तरीय मुशायरों की रौनक समझे जाते थे। वे अपने कलाम के द्वारा वे अक्सर कहा करते थे कि कोई भी संत या महापुरुष किसी भी धर्म या जाति विशेष की विरासत नहीं हो सकता। वे महापुरुषों को मानवता के लिए कुदरत की ओर से दी जाने वाली एक ऐसी सौगात समझते थे जिसपर समस्त मानवजाति का समान अधिकार है। वे इस्लामी देशों में आयोजित मुशायरों में पूरे चुनौतीपूर्ण अंदाज़ में इस आशय की कुछ पंक्तियां अक्सर पढ़ा करते थे जो हज़रत मोहम्मद व हज़रत अली पर केवल मुसलमानों के एकाधिकार को चुनौती देने वाली होती थीं। जैसे-‘तू तो हर दीन के हर दौर के इंसान का है। कम कभी भी तेरी तौकीर न होने देंगे।। हम सलामत हैं ज़माने में तो इंशाअल्लाह। तुझको इक कौम की जागीर न होने देंगे’।। सहर साहब का इसी अंदाज़ का एक और कलाम-‘हम किसी दीन से हों कायल-ए-किरदार तो हैं। हम सनाख़्ाान-ए-शह-ए- हैदर-ए-कर्रार तो हैं।। नामलेवा हैं मोहम्मद के परस्तार तो हैं। यानी मजबूर पए अहमद-ए-मुख्तार तो हैं।। इश्क हो जाए किसी से कोई चारा तो नहीं। सिर्फ मुस्लिम का मोहम्मद पे इजारा तो नहीं।। ऐसे विचार केवल सहर साहब के ही नहीं थे बल्कि यदि आज भी आप पंजाब व हरियाणा में कहीं भी कुश्ती होते देखें तो अखाड़ों में उतरने वाला किसी भी धर्म का पहलवान या अली मदद कहकर अखाड़े में उतरता है।
अब आईए इसी संदर्भ में कलयुग के उन संतों के बोल भी याद करते चलें जो मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद पर बैठने के बावजूद भोपाल, मध्यप्रदेश में अपनी सार्वजनिक सभाओं में यह कहता फिरा है कि-‘कांग्रेस अली को अपने पास रखे हमारे अर्थात् बीजेपी के पास बजरंग बली ही काफी हैं। इतना ही नहीं कि इस कथित राजनैतिक संत ने बजरंग बली को केवल हिंदू धर्म से ही नहीं जोड़ा बल्कि अलवर, राजस्थान में अपनी एक दूसरी चुनावी जनसभा में बजरंग बली को दलित, वंचित तथा वनवासी भी बता दिया। इसके बाद उत्तर प्रदेश में हनुमान जी को लेकर जिस प्रकार का जातिगत् तनाव पैदा हुआ वह भी किसी से छुपा नहीं है। जिन कुप्रयासों के तहत बजरंग बली व अली को अलग करने व उन्हें जातियों में बांटने का घिनौना खेल खेला गया उसका नतीजा भी इन्हीं महापुरुषों ने इन कलयुगी संतों को दिखा दिया। यहां यह बताने की भी ज़रूरत नहीं कि जहां एक ओर देश को मानवता के सूत्र में पिरोने वाले उपरोक्त अनेक संत सभी धर्मों व जातियों को एक समान समझते थे तथा सभी धर्मों व जातियों में मानवता के दर्शन करते थे वहीं अली व बजरंग बली को अलग-अलग धर्मों की संपत्ति बताने वाले यह वही संत हैं जो सार्वजनिक सभाओं में बड़े गर्व से यह कह चुके हैं कि तुम अगर एक को मारोगे तो हम सौ को मारेंगे। इन्हीं के सामने इन्हीं के मंच पर इनका कार्यकर्ता यह कह चुका है कि मुस्लिम औरतों के साथ कब्र से निकाल कर बलात्कार करना चाहिए। इनकी लोकप्रियता का पैमाना सिर्फ नफरत फैलाने और समाज को धर्म के नाम पर बांटने मात्र से ही निर्धारित होता है। मुगल सराय को दीन दयाल उपाध्याय नगर बनाना, इलाहाबाद को प्रयागराज, फैज़ाबाद को अयोध्या और इस प्रकार के और न जाने कैसे-कैसे वैमनस्यकारी कदम उठाना ही इनका एकमात्र राजनैनिक ध्येय है।
निश्चित रूप से हमारा देश इस समय भीषण संकटकालीन दौर से गुज़र रहा है। क्योंकि जो संत समाज को जोडऩे में व सद्भाव बढ़ाने में विश्वास करते थे आज दुर्भाग्यवश संत के बाने में ऐसी प्रवृति के लोगों ने शरण ले ली है जो वास्तव में संत कहलाने के योग्य ही नहीं हैं। देश व समाज को मानवता के हित में ऐसे संतों की ज़रूरत रही है जिन्होंने अनेक वैचारिक, धार्मिक मतभेदों के बावजूद एक साथ रहकर सत्संग किया है। वास्तविक संत किसी भी धर्म व जाति की न तो विरासत हो सकता है न ही कोई उस पर अपना एकाधिकार जमा सकता है। यदि कोई व्यक्ति अथवा स्वयंभू संत बजरंग बली को अपना और अली को दूसरे का बताने जैसा दुष्प्रयास करता है तो वह इन महापुरुषों की व्यापक लोकप्रियता व स्वीकार्यता को ही सीमित करने की कोशिश कर रहा है। और महापुरुषों को बांटने वाले स्वयंभू संतों को ऐसे ही नतीजों की उम्मीद भी करनी चाहिए जो गोरखपुर से लेकर फूलपुर और अब राजस्थान, मध्यप्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में देखने को मिले हैं।
तनवीर जाफरी / 19 दिसम्बर

इन तीनों को अब दिल्ली लाइए
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मैं पहले ही लिख चुका हूं कि मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के भाजपा मुख्यमंत्रियों ने अपने-अपने राज्य में काफी अच्छे काम किए थे लेकिन उनकी हार का बड़ा कारण नोटबंदी, जीएसटी, अनुसूचित संशोधन कानून, फर्जिकल स्ट्राइक, सीबीआई और रफाल-सौदे आदि की बदनामियां रही हैं। सच्चाई तो यह है कि उन्हें उम्मीद से ज्यादा वोट मिले हैं। यह भी ठीक है कि इन हिंदी-प्रदेशों के लोग भाजपा में नए चेहरे चाहते हैं तो क्या यह उचित समय नहीं है, जबकि तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों- शिवराज चौहान, वसुंधरा राजे और रमन सिंह को केंद्रीय मंडल में शामिल किया जाए ? ये तीनों जितने अनुभवी नेता हैं और इन्हें आम आदमियों की आकांक्षाओं की जितनी पकड़ है, उतनी मोदी-मंत्रिमंडल के एक-दो मंत्रियों की भी नहीं है। ये तीनों मिलकर केंद्रीय मंत्रिमंडल को काफी वजनदार और विश्वसनीय बना देंगे। इन तीनों राज्यों में हुए चुनाव के पहले ही मुझे लग गया था कि इन राज्यों में भाजपा का जीतना बहुत मुश्किल है। उस समय राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के कुछ नेताओं से हुई मेरी बातचीत में मैंने साफ-साफ कहा था कि ये तीनों मुख्यमंत्री हारें या जीतें, यह जरुरी है कि इन्हें केंद्र में लाया जाए और इनके अनुभव का फायदा देश को मिले। यह ठीक है कि मोदी के मंत्रिमंडल में राजनाथ, गडकरी, सुषमा स्वराज और पीयूष गोयल जैसे योग्य लोग हैं लेकिन ये तीनों नेता भी शामिल हो जाएं तो प्रधानमंत्री को भी उचित सलाह मिल सकती है। अभी तो भाजपा का ‘मार्गदर्शक मंडल’ मार्ग देखते रहनेवाला मंडल बन चुका है और मंत्रिमंडल भी ‘‘मातहतों का मौन समूह’’ बन गया है। यदि यह स्थिति अगले छह माह तक बनी रही तो भाजपा की सीटें 2014 के मुकाबले 2019 में आधी भी नहीं रह पाएंगी। मैं चाहता हूं कि भाजपा यदि विपक्ष में चली जाए तो भी वह सबल विपक्ष की तरह काम करे और यह भी संभव है कि मंत्रिमंडल का विस्तार हो जाए तो भाजपा शायद इस लायक हो जाए कि वह जैसे-तैसे अपनी सरकार बना ले। इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों के शामिल होने से मोदी सरकार की छवि में विनम्रता, उदारता और शिष्टता की भी अभिवृद्धि होगी। भाजपा के अच्छे दिन लाने के लिए भी यह करना जरुरी है।

‘कमल’ के बिछाये काँटों पर चलने को मजबूर ‘कमल’…?
ओमप्रकाश मेहता
अपनों द्वारा मुख्यमंत्री पद की राह में बिछाये कांटों से बखूबी बच निकल कर अपना लक्ष्य हासिल करने वाले राजनीति के चतुर खिलाड़ी कमलनाथ जी को अब अपने ही हमनाम चुनाव चिन्ह के अनुगामियों द्वारा बिछाए गए कांटों की राह चलकर मध्यप्रदेश को उसके विकास की मंजिल तक लेकर जाना है, अर्थात् अब उन्हें अपनी पांच दशक के राजनीतिक कौशल्य को दिखाने का मौका मिला है, यदि वे इसमें सफल सिद्ध हुए तो मध्यप्रदेश के स्वर्णिम इतिहास के अंग बन जाएगें, वर्ना केन्द्र के विशेषज्ञ राज्य में शून्य से नाता जोड़ लेगें।
यहाँ ‘कमल’ द्वारा कांटे बिछाने का उल्लेख इसलिए किया गया, क्योंकि स्वयं निवृत्तमान वित्तमंत्री जी अपने मुखारबिंद से फरमा चुके है कि जिस वित्तीय स्थिति में कांग्रेस ने हमें (भाजपा को) मध्यप्रदेश सौंपा था उसी स्थिति में हम प्रदेश उन्हें सौंप रहे हैं, और आज नई सत्ता के सामने सबसे बड़ी चुनौति प्रदेश को करीब पौने दो लाख करोड़ के कर्ज से मुक्त कर उसे सही आर्थिक पटरी पर लाना तथा इसके साथ ही सत्ता ग्रहण के दस दिन की अवधि में प्रदेश के किसानों को कर्ज मुक्त करने का वादा भी निभाना है। अर्थात् कर्ज मुक्ति का वादा निभाने के लिए पचास हजार करोड़ की और व्यवस्था करना है। यह तो सिर्फ एक ही उस वादे के क्रियान्वयन का जिक्र है, जिसके लिए अल्प समयावधि सुनिश्चित है, इसके अलावा बेरोजगारी भत्ता, निराश्रित पेंशन वृद्धि, संविदा कर्मचारियों का नियमितिकरण, बिजली बिल आधा करना, दुग्ध उत्पादकों को बोनस जैसे कई और खर्चीले वादें है, जिनकी पूर्ति भी चार महीनें की समय सीमा अर्थात् लोकसभा चुनाव की अग्निपरीक्षा के पहले करना जरूरी है, वर्ना भाजपा तो बदला लेने को तैयार खड़ी ही है।
वैसे यह अच्छा संकेत है कि नवागत मुख्यमंत्री जी का मुख्य फोकस किसान, हिन्दुत्व, रोजगार और महिला क्ल्याण पर रहेगा, अर्थात् पहली प्राथमिकता किसान ही है, जिनके कर्जे माफ कर उनके लिए खुशहाल माहौल तैयर करना तथा कृषि उपकरणों के साथ खाद-बीज की पर्याप्त व्यवस्था करना हैं। जहां तक दूसरे फोकस हिन्दुत्व का सवाल है, कांग्रेस इस आरोप से काफी बदनाम हो चुकी है कि ‘‘कांग्रेस का हाथ, मुस्लिम के साथ है’’, किंतु कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने इस ‘मिथ’ को तोड़कर पिछले कुछ महीनों से हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि सभी के अराधना स्थलों पर जाकर माथा टेका है, अर्थात् दूसरे शब्दों में यदि यह कहा जाए कि राहुल गांधी ने कांग्रेस को इस लांछन से मुक्त करने की कौशिश की तो कतई गलत नहीं होगा, क्योंकि कांग्रेस नेता यह भी मानते है कि ‘हिन्दुत्व’ केवल भाजपा की बपौती नहीं है, यह धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और हर धर्म का सम्मान यहां जरूरी है। …..और जहां तक तीसरे फोकस रोजगार का सवाल है, इसका सीधा-सीधा सम्बंध देश के युवा वोटारों से है, हर राजनीतिक दल अपने चुनावी वादों में इसे शामिल करना कभी नहीं भूलता और सत्ता प्राप्ति के बाद इस वादे को प्राथमिकता की सूची से बाहर रख दिय जाता है। इससे देश की युवा पीढ़ी काफी व्यथित व क्रोधित है, अब कमलनाथ जी ने अपनी चार प्रमुख प्राथमिकताओं में इसे शामिल किया है, देखते है वे इस वादे को किस अंश तक कार्यरूप में परिणित करते है?
मध्यप्रदेश के नए मुख्यमंत्री जी का चैथा फोकस महिला कल्याण है, चूंकि प्रदेश में छप्पन प्रतिशत महिला वोटर है, और वे पुराने सामाजिक बंधनों व रीति-रिवाजों के कारण आज भी स्वतंत्रता की लड़ाई लड़ रही है, इसलिए उन्हें इन बंधनों से मुक्त कराकर वर्तमान सामाजिक सुधार का अंग बनाना व पुरूषों के बराबरी का दर्जा दिलाना सबसे बड़ी चुनौति है। जिसका बीड़ा कमलनाथ जी ने उठाया है।
कुल मिलाकर कांग्रेस के वचन-पत्र (घोषणा-पत्र) के ये चार अह्म एजेण्डें है, जिन्हें यदि चार माह की समय सीमा में साध लिया गया तो कांग्रेस के लिए मध्यप्रदेश में लोकसभा की राह आसान हो सकती है।
वैसे यह तो सर्वविदित है कि मध्यप्रदेश सहित जिन पाँच राज्यों में अभी-अभी नई सरकारें बनी है उन राज्यों की नई सरकारों के सामने यही समय सीमा की सबसे अह्म चुनौति है, अर्थात नई सरकार की अग्निपरीक्षा ज्यादा दूर नहीं है, और इस अग्निपरीक्षा का परिणाम चुनावी वादों की पूर्ति में ही निहित है। इसके अलावा गैर घोषणा-पत्रीय अंदर और बाहर की प्रशासनिक व राजनीतिक चुनौतियां तो है ही। ….और नए नेतृत्वों के लिए यही अपनी क्षमता सिद्ध करने का सुनहरा मौका है, इस अवधि में यह पता चल जाएगा कि नए नेतृत्वों के चयन में कोई गलती तो नहीं हुई? जहां तक कांग्रेस का सवाल उसके तीनों राज्यों के नेतृत्व अनुभवी व सक्षम है, फिर भी देखिये कौन अपने आपकों ‘‘विक्रमादित्य’’ घोषित कर पाता है?

मध्यप्रदेश की नई सरकार और किसान कर्ज माफी
आजाद सिंह डबास
15 वर्ष के बाद आखिर भाजपा सरकार को मध्यप्रदेश से विदा होना ही पड़ा। प्रदेश में कमलनाथ के नेतृत्व में कांग्रेस की जो सरकार बनने जा रही है, उसके सामने कई समस्याएं हैं लेकिन किसान कर्ज माफी इनमें सबसे अहम मुद्दा है। कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गाँधी ने सरकार बनने के 10 दिन के अन्दर कर्ज माफी करने का वादा प्रदेश के किसानों से किया है। प्रादेशिक नेताओं द्वारा भी इसे बार-बार चुनावी भाषणों में दोहराया गया है। कांग्रेस के वचन पत्र में भी इस मुद्दे को प्राथमिकता दी गई है। तमाम चुनावी विश्लेषणों में यह बात प्रमुखता से उभर कर आई है कि कांग्रेस द्वारा किसानों को दिया गया कर्ज माफी का वादा गेम चेन्जर साबित हुआ है। इसने कांग्रेस सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई है।
गौरतलब है कि मात्र 4-5 माह बाद ही लोकसभा के चुनाव होने वाले हैं। अगर कांग्रेस सरकार किसानों से किये गये इस वादे पर किन्तु-परन्तु करती है तो उसे लोकसभा चुनाव में इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ सकती है। स्मरण रहे कि विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के मात्र 5 ही विधायक भाजपा से ज्यादा जीते हैं।भाजपा एक सशक्त विपक्ष के रुप में विधान सभा में मौजूद रहेगी। वैसे भी शिवराज सिंह के संभावित नेतृत्व में विपक्षी पार्टी भाजपा किसान कर्ज माफी को बड़ा मुद्दा बनाने वाली है।शिवराज ने लोगों का आभार जताने के बहानेयात्रा निकालने की घोषणा कर दी है। इस यात्रा के दौरान किसान कर्ज माफी के मुद्दे को प्रमुखता से उठाने की संभावना है अत: आगामी लोकसभा चुनाव के मद्देनजर कांग्रेस पार्टी को अपना यह वादा हर हाल में निभाना ही होगा।
नई सरकार के सामने असली चुनौती यह है कि एक तरफ उसे 10 दिवस के अंदर किसान कर्ज माफी का वादा निभाना है, वहीं दूसरी तरफ प्रदेश सरकार का खजाना खाली है। उल्लेखनीय है कि प्रदेश का सालाना बजट लगभग 2 लाख करोड़ है। वर्तमान सरकार पर 1.75 लाख करोड़ का कर्ज है। ज्ञात रहे कि वर्ष 2003 में जब भाजपा की सरकार आई थी तब प्रदेश सरकार पर मात्र 25 हजार करोड़ का कर्ज था। समस्या यह भी है कि पिछली सरकार पहले ही इतना ज्यादा कर्ज ले चुकी है कि नई सरकार को अतिरिक्त कर्ज लेने में भारी मूश्किल आने वाली है। प्रदेश सरकार की खुद की आमदनी का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा अधिकारी/कर्मचारियों के वेतन एवं पेंशन व ब्याज चुकाने पर ही खर्च हो रहा है। ऐसी विषम परिस्थिति में कर्ज माफी वाकई में चुनौती भरा काम है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार कर्ज माफी के संबंध में कार्य करने हेतु अधिकारियों को निर्देश दिये जा चुके हैं। मुख्य सचिव द्वारा कृषि और सहकारिता विभाग के अधिकारियों से इस संबंध में चर्चा की गई है। सहकारिता विभाग द्वारा सभी बैंकों से कर्जदार किसानों की राशि का ब्यौरा मांगा गया है। जून 2009 के बाद के कर्जदार किसानों की कर्ज माफी करने की खबरें हैं जिसमें लगभग 33 लाख किसानों को फायदा होने की संभावना है। प्रदेश के किसानों के ऊपर राष्ट्रीयकृत बैंक, ग्रामीण विकास बैंक, सहकारी बैंक एवं निजी बैंकों का लगभग 70 हजार करोड़ का कर्ज है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए की केन्द्र सरकार द्वारा कर्ज माफी की जो योजना लागू की गई थी, वही प्रदेश में कर्ज माफी का आधार बनने वाली है। चाहे किसी भी र्फामूले पर काम किया जाये फिर भी कर्ज माफी के लिए कम से कम 20 हजार करोड़ की आवश्यकता होगी जिसको जुटाना प्रदेश सरकार के लिए आसान नही होगा।
यह भी एक हकीकत है कि कर्ज माफी किसानों की समस्याओं का स्थाई हल नही है। पूर्व में केन्द्र सरकार एवं प्रदेश सरकारों ने अनेक बार किसानों की कर्ज माफी की हैं। समय-समय पर की गई कर्जमाफियों से किसानों को तात्कालिक राहत तो मिलती है लेकिन वे सरकारों की गलत नीतियों के चलते पुन: कर्जदार हो जाते हैं। सरकारों को चाहिए कि वे किसानों के हित में ऐसी नीतियांबनाये कि किसान कर्जदार ही न बन पावे। किसानों को समय पर सस्ता एवं अच्छी गुणवत्ता का बीज, खाद एवं दवाएं उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। पर्याप्त मात्रा में पानीएवं सस्ती बिजली प्रदाय करने की जरुरत है। सबसे ज्यादा आवश्यकता है कि किसानों को उनकी फसल का वाजिब मूल्य दिया जाये। कृषि उपज से संबंधित आयात/निर्यात नीति को भी किसानों के हित में बनाया जाना होगा ना की व्यापारियों के हित में। किसानों को सस्ते ऋण उपलब्ध कराने के साथ-साथ उन्हें सूदखोरों के चगुंल से बचाने की महतीजरुरत है।
उल्लेखनीय है कि केन्द्र सरकार के लाख दावों के बावजूद स्वामीनाथन आयोग की सिफारिश अनुसार अभी तक किसानों को उनकी फसलों का उचित मूल्य नही दिया जा सका है। अभी हाल ही में राजधानी दिल्ली में 200 से ज्यादा किसान संगठनों ने अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन किया है। यह भी अजीब त्रासदी है कि किसान प्रधान देश में जब-जब किसान अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन करते हैं, तब-तब उन्हें कोरे जूठे आश्वासन दिये जाते हैं, जो कभी पूरे नही किये जाते। देश के ज्यादातर सांसद एवं विधायकों के खेती-किसानी से जुड़े होने के बावजूद किसानों की र्दुगति हो रही है। किसानों को जब तक उनकी उपज का उचित मूल्य नही दिया जावेगा तब तक किसान कर्ज में ही दबे रहेगें।
मध्यप्रदेश में भाजपा सरकार द्वारा किसानों को उचित मूल्य दिलाने हेतुलागू की गई ”भावान्तर योजना” भी अपने मकसद में बुरी तरह असफल रही है। सरकारी कारिन्दों द्वारा इस योजना को किसान हितैषी बताने हेतु बहुत ढ़ोल पीटे गये लेकिन अन्तत: यह योजना व्यापारियों और मंड़ी कर्मचारियों के भ्रष्टाचार का ही जरिया बनी और किसान लाईनों में लगा-लगा ठगी का शिकार होता रहा। यही वजह रही कि सरकार के भारी भरकम प्रचार के बावजूद इस योजना को प्रदेश के बाहर कहीं नही अपनाया गया। अगर नई सरकार वास्तव में प्रदेश के किसानों को समृद्ध बनाना चाहती है तो उसे ना सिफ किसानों का कर्ज माफ करना होगा अपितु ऐसी नीतियां लागू करनी होंगी कि किसान पुन: कर्जदार न बन सकें। अगर ऐसा नही हुआ तो नई सरकार द्वारा की जाने वाली कर्ज माफी भी पूर्व की तरह कारगर सिद्ध नही होगी। नई सरकार को कर्ज माफी के पूर्व किसानों के आर्थिक हालतों पर एक श्वेत पत्र जारी करना चाहिए।

राजनीतिक व्यक्तित्व के धनी थे लिखीराम कावरे
रहीम खान
( पुण्य तिथि पर विशेष) किसी शायर ने क्या खूब लिखा है ”मौत उसकी जिसका जमाना करे अफसोस, वरना मरने के लिए आये हैं सब“ यकीनन दुनिया में जो भी जानदार है, उसे एक न एक दिन मौत के आगोश में समाना ही है। लेकिन कभी कभी कुछ मौतें ऐसी होती है जिनका हर किसी को अफसोस होता है। दिन, बार, तारीखें, बरस दर बरस बीतते चले जाते हैं। जिंदगी के डगर में कामयाब और नाकामयाबी के दौर से गुजरकर कुछ ही लोग अपनी मंजिल पर पहुंच पाते हैं। ये वही लोग होते हैं, जो बुंलद हौसले एवं इरादों के बल पर जंग जीतते हैं और नाम वर शख्सियत बनकर इतिहास के पन्नों पर दर्ज हो जाते हैं। जिसका व्यक्तित्व दूसरों के लिए प्रेरणा बन जाता है। ऐसे ही संघर्षशील राजनैतिक व्यक्तित्व का नाम था – लिखीराम कावरे। जिसे वक्त ने हमसे बहुत पहले ही छिन लिया। एक ऊर्जावान, कर्मठ, सक्रिय जन प्रतिनिधि के रूप में मध्यप्रदेश के भीतर अपनी पहचान बनाने वाले स्वर्गीय कावरे का संघर्ष दृढ़ निश्चय के साथ जीवन में नए उपलब्धियों को अर्जित करने वाला था। 15 सितम्बर 1957 को जन्मे सुशिक्षित कावरे का जन्म ग्राम सोनपुरी में एक सामान्य कृषक परिवार में हुआ था। समाज सेवा की उत्सुकता के साथ देश भक्ति की बहती धारा ने राजनीति में प्रवेश करने के लिए प्रेरित कर दिया। साधारण कर्मचारी से लेकर राजनीति के मंत्री पद तक उनका जीवन अनेक उतार चढ़ाव, सुखद एवं कटु अनुभव वाला रहा। चूंकि उन्होने जो कुछ पाया। उसके लिए उन्हे लम्बा संघर्ष करना पड़ा था। इस कारण उनकी उपलब्धियों को आसानी से हजम नही कर पाते थे।
मध्यप्रदेश सरकार में पहले वन विभाग फिर आबकारी विभाग परिवहन विभाग के मंत्री रहते हुए उन्होने अपने कार्यकाल में विभाग को नई दिशा देने का अंतिम सांसों तक प्रयास किया। उनकी राजनीतिक यात्रा भी बड़ी संघर्ष वाली रही। वर्ष 1985 में एक निर्दलीय के रूप में किरनापुर विधानसभा से भाग्य आजमाने राजनीति के मैदान में उतरे थे। परन्तु उन्हे यहां नाकामयाबी का सामना करना पड़ा, लोगों का मानना है कि जो लोग परिस्थितियों के अनुकुल होने का इंतजार करते हैं, वे कभी कामयाब नही होते। लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद जो काम करते रहते हैं, उन्हे सफलता अवश्य मिलती है। अपनी प्रथम पराजय से कावरे निराश नही हुए और चुनाव में उनके मजबूत जनाधार को देखते हुए ही उन्हे वर्ष 1990 में कांग्रेस में शामिल कर विधानसभा चुनाव में अपना प्रत्याशी बनाया गया। चुनाव में यहां से प्रारंभ हुई उनकी विजय यात्रा ने लगातार तीन जीत प्राप्त करने की हैट्रिक इस सीट पर बनाई। सामाजिक, सांस्कृतिक एवं राजनैतिक गतिविधियों में हमेशा अग्रिम रहने वाले कावरे के नेतृत्व में किरनापुर केवल तहसील ही नही बनी, बल्कि उन्होने इस क्षेत्र में अपने नेतृत्व में वह सब कुछ देने का प्रयास किया, जिसकी अपेक्षा एक जनप्रतिनिधि से जनता को होती है। यही कारण है कि उनकी उपलब्धियों का लाभ उनके जाने के बाद उनकी पत्नि श्रीमति पुष्पलता कावरे को मिला और वह दो बार इस क्षेत्र से विधायक निर्वाचित हुई। ऐसी धारणा है कि अगर लिखीराम कावरे जीवित होते तो शायद किरनापुर क्षेत्र परिसीमन का शिकार नही होता। उनकी प़ुत्री सुश्री हिना कावरे लांजी क्षेत्र के विधायक के रूप् में विकास के पिता के सपने को पूर्ण करने के लिए निरंतर अपना योगदान दे रही है।
कांग्रेस के अंदरूनी राजनीति में कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, अर्जुन सिंह के अति विश्वास पात्र कहे जाने वाले कावरे के रहनुमाई में किरनापुर क्षेत्र में हर मैदान में तरक्की किया। अपने परिश्रम से जनता के विश्वास को सार्थक करते हुए अपने दायित्व के निर्वहन के प्रति ईमानदारी अपनाकर इस क्षेत्र को प्रगति के पथ पर इतना आगे उन्होने बढ़ाया था, उतना उनसे पहले और कोई विधायक नही कर पाया। किरनापुर को तहसील का दर्जा दिलाना, आईटीआई, कॉलेज का निर्माण, 30 बिस्तर वाले सुविधायुक्त चिकित्सालय की व्यवस्था के साथ गांव गांव में पुल पुलिया निर्माण, नई सड़के, ग्रामीण क्षेत्र में शिक्षा के स्तर ऊपर उठाने, नये स्कूलों का निर्माण, गांवों की जल एवं विद्युत समस्याओं का समाधान करने, ग्रामों को विद्य़qतीकरण से जोड़ना, किसानों को सिंचाई सुविधा उपलब्ध कराने, नहरों की हालत सुधारने के कई उपलब्धिजनक प्रयास उनके द्वारा किये गये थे।
अपनी जमीन और आम इंसान से उच्च पद जाने के बाद भी करीबी नाता रहा। सब धर्मों का आदर करना साम्प्रदायिक सद्भाव, एकता और अखण्डता केवल उनके भाषण तक ही सीमित नही थी, बल्कि अपने जीवन में उन्होने अंतिम सांसों तक सार्थक भी किया। जरूरतमंदों, गरीब, दलितों की मदद करना उनके जीवन का एक प्रमुख उद्देश्य रहा। आज उनकी कमी बालाघाट जिले के कांग्रेस पार्टी में हर क्षण महसूस की जा रही है। उनकी विकास और उनकी सोच, कुशल व्यवहार के गुण ने उन्हे अपनी समकालीन राजनीतिज्ञों से अलग पहचान व रगंत दिया। राजनीतिक तूफानों, चुनौतियों एवं आपदाओं में भी हसता मुस्कराता, सौम्य चेहरा उनके व्यक्तित्व का अंग था। उनकी मोहक मुस्कान, मिलनसारिता, अपने चातुर्य के कारण वे प्रदेश के जनता के दुलारे बने थे। उनकी बढ़ती लोकप्रियता उनके शत्रुओं के लिए हमेशा ईर्ष्या का कारण रही। ऐसे लोगों की यही कोशिश रही कि उन्हे किसी न किसी तरह कमजोर किया जाये। आखिर वे 15 दिसम्बर 1999 की रात वह काली घड़ी आ ही गयी, जब उन्हे वक्त के क्रूर हाथों ने मौत के घाट उतार दिया, मौत के घाट उतारकर जिले एवं प्रदेश की राजनीति में लम्बे समय के लिए कांग्रेस पार्टी में रिक्त स्थान बना दिया। आज उनके द्वारा जिले को दी गयी सेवाएं एवं उपलब्धियां ही उनकी यादों को लम्बे वर्षों तक ताजा करते रहेगें, यही उनके प्रति श्रद्धांजली भी कही जायेगी।

ब्रेक्जिट विवाद और ब्रिटेन का राजनीतिक संकट
डॉ हिदायत अहमद खान
अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के साथ ही दुनिया में कुछ इस तरह के बदलाव देखने को मिले, जिससे यह कहा जाने लगा था कि विश्व युद्ध कभी भी छिड़ सकता है। इस युद्ध के लिए सिर्फ एक बहाने की जरुरत महसूस हो रही थी। इसलिए कभी सीरिया को केंद्र में रखकर विश्व युद्ध की आशंका जताई जा रही थी तो कभी उत्तर कोरिया के प्रमुख नेता किम जोंग उन को सनकी करार देकर उसके परमाणु परीक्षणों को निशाना बनाते हुए कहा जा रहा था कि अब विश्व युद्ध को कोई नहीं रोक सकता है। इसकी मुख्य वजह जहां अमेरिका इन देशों के शासनकर्ताओं को सबक सिखाने के लिए हुंकार भर रहा था तो वहीं उन्हें संरक्षण देने के नाम पर रुस और चीन जैसे देश अमेरिका को आंखें दिखाने का काम भी कर रहे थे। बहरहाल उत्तर कोरिया ने इस आशंका को उस समय सिरे से खारिज कर दिया जबकि उसने अपने परमाणु परीक्षण कार्यक्रम को न सिर्फ रोकने की घोषणा कर दी बल्कि तमाम देशों से वार्ता करते हुए शांति व्यवस्था बनाए रखने के इरादे से आगे बढ़ने का पैगाम भी दे दिया। इसके साथ इन तमाम देशों के अंदर जो राजनीतिक उथल-पुथल चल रही थी, उस पर भी विराम लगता दिखा, लेकिन अब ब्रिटेन से जो खबर आई है उसने फिर यह कहने पर मजबूर कर दिया है कि दुनिया के लिए यह समय वाकई राजनीतिक उथल-पुथल वाला ही है। इसमें जहां अमेरिका और चीन वर्चस्व को लेकर लगातार टकराव वाली स्थिति पर आमने-सामने आते जा रहे हैं तो वहीं अंदरुनी मामलों के कारण रुस में भी राजनीति गर्माई हुई है। ऐसे में ब्रिटेन से खबर आ रही है कि यहां महज 24 घंटों के अंदर में तीन मंत्रियों ने इस्तीफे सौंपकर प्रधानमंत्री थेरेसा मे सरकार के लिए राजिनितिक संकट खड़ा करने का काम कर दिया है। दरअसल सरकार से मतभेद होने के बाद जहां ब्रेक्जिट मंत्री डेविस डेविस और जूनियर ब्रेक्जिट मंत्री स्टीव बेकर ने पहले ही इस्तीफा दे दिया था वहीं कुछ घंटों बाद ही फिर खबर यह आई कि ब्रिटेन के विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन ने भी सरकार से इस्तीफा दे दिया है। इन इस्तीफों के पीछे ब्रिटेन की प्रधानमंत्री थेरेसा मे की ब्रेक्जिट रणनीति को प्रमुख कारण माना जा रहा है। इसके चलते सरकार की कैबिनेट का अंदरुनी मतभेद अब सार्वजनिक हो गया है। इसलिए कयास लगाए जा रहे हैं कि यदि इस्तीफों का सिलसिला यदि यूं ही जारी रहा तो बहुत जल्द यह सरकार गिर जाएगी और देश में राजनीतिक संकट खड़ा हो जाएगा। इसकी आशंका इसलिए भी प्रभावशाली है क्योंकि ज्यों-ज्यों ब्रिटेन के यूरोपीय संघ से अलग होने की तारीख नजदीक आती जा रही है, सरकार पर दबाव बनाने के लिए सरकार में ही शामिल नेता विरोधी मोर्चा खोलते दिख रहे हैं। इन इस्तीफों से प्रधानमंत्री थेरेसा मे पर राजनीतिक दबाव बढ़ गया है। ऐसे में ब्रेक्जिट कैंपेन का चेहरा रहे और सरकार के नंबर टू की हैसियत रखने वाले ब्रिटेन के विदेश मंत्री बोरिस जॉनसन का इस्तीफा सरकार के लिए वाकई एक तगड़ा झटका है। यहां आपको ब्रेक्जिट कैंपेन के बारे में भी बतलाते चलें कि 2016 में ब्रिटेन की थेरेसा मे सरकार ने ही जनमत संग्रह के जरिए यूरोपीय संघ से बाहर निकलने का फैसला लिया था। इस फैसले के तहत ब्रिटेन को 28 सदस्यीय यूरोपीय संघ से 29 मार्च, 2019 को अलग होना है। अब चूंकि यह तिथि आने में महज आठ माह का समय शेष है और अभी भी ब्रिटेन और यूरोपीय यूनियन के बीच इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि ब्रेक्जिट के बाद दोनों के बीच व्यापार किस तरह का होगा, इसलिए असमंजस और अनिश्चितता बरकरार है। ऐसे में यदि सरकार से कुछ और मंत्री इस्तीफा देकर बाहर हो जाएं तो आश्चर्य नहीं होगा, क्योंकि जनता के प्रति अपनी जवाबदेही को प्रदर्शित करने का नेताओं के पास यही एक तरीका है। इसके जरिए वो यह बतलाना चाहते हैं कि उनकी सरकार में रहते हुए भी सुनवाई नहीं हो रही है और वो जो चाहते हैं वैसा कुछ भी होने वाला नहीं है। इसलिए समय आने से पहले ही सरकार से खुद को अलग कर रहे हैं। इसके विपरीत विरोधी पक्ष अपना काम करते हुए जनता में यह संदेश दे रहा है कि ब्रिक्जिट के प्रति यह सरकार गंभीर नहीं है। इससे सरकार के खिलाफ भी एक तरह का माहौल बनता चला जा रहा है। देश में उपजे राजनीतिक संकट के बीच सरकार का कदम क्या रहता है इस पर सभी की नजरें टिकी हुई हैं। अब देखना यह होगा कि सरकार यूरोपियन संघ से अलग होने के लिए जरुरी कदम उठाती है या फिर जिस तरह से जॉन्सन के इस्तीफे को स्वीकार करते हुए उनके कार्य के लिए जैसा धन्यवाद प्रेषित किया है अन्य इस्तीफा देने वालो के साथ भी यही प्रकिया अपनाते हुए सब चलता है वाली शैली में काम करती चली जाएगी। इस संकट की घड़ी में भी सरकार ने यही बयान दिया है कि ‘जॉन्सन को उनके कार्य के लिए धन्यवाद उनके स्थान पर किसी दूसरे की नियुक्ति जल्द की जाएगी।’ इसका तो यही मतलब हुआ कि सरकार यह बतलाना चाहती है कि वो सही रास्ते पर है और किसी तरह का कोई राजनीतिक संकट उत्पन्न नहीं हुआ है। जबकि सियासी चश्में से इस पूरे घटनाक्रम को यदि देखा जाए तो नादान भी कह सकता है कि ब्रिटेन इस समय राजनीतिक संकट के दौर से गुजर रहा है और इसके लिए खुद सरकार जिम्मेदार है, जिसने समय रहते वो काम नहीं किए हैं जो कि उसे कर लेने थे। किसी अनहोनी की आशंका के चलते इस समय दुनिया के तमाम देशों की नजरें ब्रिटेन पर टिकी हैं, बावजूद इसके उम्मीद यही की जाना चाहिए कि समस्या का हल शांतिपूर्ण ढंग से निकाल लिया जाएगा, ताकि देश की आम जनता किसी भी तरह की परेशानी में पड़ने से बची रहे।

शांघाई में नए आयाम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
शांघाई सहयोग संगठन की यह बैठक इस दृष्टि से महत्वपूर्ण थी कि पिछले 17 साल में भारत और पाकिस्तान, इसके दो पूर्ण सदस्य बने। चीन के चिंगदाओ नगर में संपन्न होनेवाली इस बैठक में भारत के प्रधानमंत्री ने पहली बार भाग लिया। भारत इसके पहले भी इसकी बैठकों में जाता रहा है लेकिन सिर्फ एक पर्यवेक्षक की तौर पर ! पाकिस्तान के राष्ट्रपति ममनून हुसैन से मोदी ने हाथ मिलाया लेकिन उनसे अलग से बात नहीं हुई। यह अच्छा हुआ कि वहां भारत और पाकिस्तान के बीच तू-तू–मैं-मैं नहीं हुई लेकिन मोदी ने अपने भाषण में अफगानिस्तान के हवाले से आतंकवाद का जमकर जिक्र किया। इस अंतरराष्ट्रीय बैठक मे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपना भाषण हिंदी में देकर बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है। इसके अलावा उन्होंने घुमा फिराकर चीन के रेशम महापथ (ओबोर) योजना का भी विरोध किया। उन्होंने सभी पड़ौसी देशों में यातायात और आवागमन की सुविधा बढ़ाने का स्वागत किया लेकिन उन्होंने कहा कि इससे उन राष्ट्रों की संप्रभुता का उल्लंघन नहीं होना चाहिए अर्थात पाक-अधिकृत कश्मीर में सड़क बनाकर चीन भारत की संप्रभुता का उल्लंघन कर रहा है। मोदी ने यह बात दबी जुबान से कही। यह अच्छा हुआ कि संयुक्त घोषणा में ‘ओबोर’ के समर्थकों में भारत का नाम नहीं गिनाया गया। मोदी ने कल चीन के राष्ट्रपति शी चिन फिंग के अलावा एसीओ के अन्य छह राष्ट्रों के नेताओं से भी भेंट की। इस तरह के बहुराष्ट्रीय सम्मेलनों का फायदा यही है कि इनमें एक साथ कई राष्ट्रों से एक-दो दिन में ही द्विपक्षीय बातचीत हो जाती है। चीन के साथ ब्रह्मपुत्र नदी के जल-प्रवाह संबंधी सभी जानकारियों देने का समझौता हो गया। इस तरह की जानकारियां चीन ने दोकलाम-विवाद के बाद बंद कर दी थीं। अब उत्तर पूर्व में जल की कमी या बाढ़ आदि की समस्या पर नियंत्रण रखने में भारत को आसानी होगी। दूसरे समझौते के अनुसार बासमती चावल के अलावा सादा चावल भी भारत अब चीन को निर्यात कर सकेगा। इससे व्यापार-संतुलन बढ़ेगा। भारत और चीन ने अफगानिस्तान में संयुक्त आर्थिक कार्यक्रम चलाने का भी संकल्प किया। इस चिंगदाओ बैठक का चीन ने अपने राष्ट्रहित में जमकर इस्तेमाल किया। अमेरिका के द्वारा लगाए जा रहे व्यापारिक प्रतिबंधों की उन्होंने खुलकर आलोचना की। इस समय अमेरिका, चीन और रुस के बीच खट्टे-मीठे संबंधों का नया दौर चल रहा है। इसमें भारत की भूमिका असंलग्न राष्ट्र की नहीं, सर्वसंलग्न राष्ट्र की हो गई है। हमारी विदेश नीति के नये आयाम उभर रहे हैं।

संघ मंच पर प्रणब की ‘क्लास’ संकेतों में सभी को ‘ज्ञान’ दे गए प्रणब…..!

ओमप्रकाश मेहता

पिछले एक पखवाड़े से देश के राजनीतिक समंदर में आया ‘प्रणब और संघ’ का ज्वार, बड़ी शांति के साथ शांत हो गया। पूर्व राष्ट्रपति की इस संघ यात्रा को लेकर जहां कांग्रेस ने अपनी सहिष्णुता का परित्याग कर दिया था, वहीं देश के अन्य राजनीतिक दल भी प्रणब दा के सम्बोधन को सुनने का बड़ी बेसब्री से इंतजार कर रहे थे, किंतु प्रणब दा ने संघ के मंच से वही सब कुछ कहा जो वे अमूमन कांग्रेस के मंच से भी कहते आए है, हाँ, यह जरूर है कि संघ के मंच से दादा ने उसे भी आईना दिखाने की कौशिश की, साथ ही अटल जी के बाद प्रणब दा ने प्रधानमंत्री मोदी को पुनः एक बार राजधर्म निभाने की सीख भी दे डाली। अटल जी ने गुजरात दंगों के बाद प्रधानमंत्री रहते तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी को गुजरात जाकर राजधर्म का पाठ पढ़ाया था। अब यह तो पता नहीं कि कहां तक सच है कि प्रणब दा को संघ के कार्यक्रम में आमंत्रित करना भी संघ की ‘मोदी प्रमोट परियोजना’ का एक हिस्सा था, क्योंकि इतिहास गवाह है और सभी को यह पता भी है कि पं. नेहरू से लेकर इंदिरा, लाल बहादुर शास्त्री आदि सभी प्रधानमंत्री समय-समय पर संघ के प्रति नर्म या गर्म रहे है, कभी संघ पर प्रतिबंध लगाया तो कभी गणतंत्र दिवस की परेड में संघ के स्वयं सेवकों को आमंत्रित किया, यही नहीं इसके विपरीत भाजपा नेताओं ने भी कभी इंदिरा जी को ‘दुर्गा’ कहा तो कभी कांग्रेसी प्रधानमंत्री की दिल खोलकर तारीफ भी की, किंतु पिछले चार सालों से प्रधानमंत्री के निशाने पर नेहरू-गांधी परिवार है, और उनकी हर कही भत्र्सना भी की जाती रही है। इसलिए अब ऐसे परिवेश में पूर्व राष्ट्रपति प्रणब दा को संघ के मंच पर बुलाना संघ की राजनीति का ही एक हिस्सा माना जाना चाहिए, यद्यपि संघ प्रमुख मोहन भागवत ने अपने सम्बोधन के प्रारंभ में ही प्रणब जी को आमंत्रित करने पर सफाई दी और कहा कि संघ व प्रणब दोनों अलग है, दोनों का एक-दूसरे से कोई रिश्ता नहीं है, किंतु गांधी व वल्लभ भाई पटेल के बाद संघ-भाजपा द्वारा प्रणब दा का अधिग्रहण कई रहस्यों की ओर संकेत करता ही है, किंतु मस्तमौला प्रणब दा ने न तो संघ का आमंत्रण स्वीकार करने के विवाद की कोई परवाह की और न स्वयं अपनी बेटी के दुराग्रह की और उन्होंने वही किया व कहा जो उन्हें कहना था, साथ ही अपने सीख भरे संबोधन में उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि वे ‘पूर्व’ हो जाने के बावजूद राष्ट्रपति पद की अपनी दल निरपेक्ष गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखना चाहते है। प्रणब दा ने आधे घण्टे के सम्बोधन में देश, राजनेता व सरकार सभी को अपने-अपने उत्तरदायित्व का पाठ पढ़ाया तथा राष्ट्रवाद व सहिष्णुता को सर्वोपरी माना। यद्यपि सम्बोधन के पूर्व संघ के संस्थापक डा. हेगडेवार जी को ‘भारत का सच्चा सपूत’ बताने पर प्रणब दा पर कुछ आशंकाऐं व्यक्त की गई थी, किंतु प्रणब दा ने स्वयं अपने सम्बोधन में उन्हें निर्मूल कर दिया, यहां तक कि अपने पूरे सम्बोधन के दौरान उन्होंने संघ का एक बार भी नाम नहीं लिया, जबकि कांग्रेस का एक बार नाम लिया व कांग्रेस के छः नेताओं एस.एन. बैनर्जी, बालगंगाधर तिलक, सरदार पटेल, महात्मा गांधी, जवाहर लाल नेहरू व डा. राधा कृष्णन के नाम लिए।इस प्रकार कुल मिलाकर प्रणब दा ने अपनी संघीय मुख्य आतिश्य की भूमिका का अपने तरीके से निर्वहन कर सभी को राष्ट्रधर्म, सहिष्णुता, एकता व राष्ट्रभक्ति की राह दिखाई और अपनी वाकपटुता व खरी-खोटी सुनाने की परम्परा को जारी रखा, जो स्तुत्य है।

बस, बयानों के गोले दागते रहें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अभी भारत-पाक संघर्ष-विराम का फैसला हुआ एक हफ्ता भी नहीं बीता कि सीमा पर पाकिस्तानी हमला हो गया, जिसमें दो भारतीय जवान मारे गए, लगभग दर्जन भर लोग घायल हो गए। यह हमला तब हुआ जबकि दोनों देशों के सैन्य महानिदेशकों ने 2003 के युद्ध-विराम समझौते को ईमानदारी से लागू करने का संकल्प लिया था। नियंत्रण-रेखा और अंतरराष्ट्रीय सीमा के उल्लंघन की सारी सीमाएं पाकिस्तान लांघता चला जा रहा है और हमारी सरकार को बयानबाजी और भाषणबाजी से फुर्सत ही नहीं है। पाकिस्तान ने रमजान के माह का लिहाज भी नहीं किया। कश्मीर में भी घुसपैठ करके उसने खून बहाया। भारत सरकार ने रमजान के महिने को शांति और वार्ता का महिना घोषित किया था लेकिन आतंकवादियों और उनके पोषकों पर इस भलमनसाहत का भी कोई असर नहीं हुआ। भारत सरकार अब क्या करे ? बस बयानों के गोले दागती रहे ? भारत की जनता को बुद्धू बनाती रहे ? ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का झुनझुना हिलाती रहे। इस पाखंड को भुनाती रहे। हमारा विपक्ष इतना निकम्मा है कि वह इस पाखंड को आज तक काट नहीं पाया। इस साल पाक फौजों ने 1252 बार सीमा का उल्लंघन किया, 143 आतंकी घटनाएं हुईं, हमारे दर्जनों जवान मारे गए और हमारे सर्वज्ञजी सारी दुनिया में ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ का ढोल पीट रहे हैं। वह सर्जिकल नहीं, फर्जीकल स्ट्राइक थी। सर्जिकल स्ट्राइक क्या होती है, यह सर्वज्ञजी को पता ही नहीं। 1967 में इस्राइल ने मिस्र के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की थी। उसके बाद मिस्र ने आज तक करवट भी नहीं बदली है। हमारी बहादुर फौज को बदनाम करने का सबसे सरल तरीका यही है कि सीमांत की छुट-पुट कार्रवाई को हम ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ कहने लगें। इस पाखंड से पाकिस्तानी फौज का मनोबल ऊंचा उठता है और वह हम पर निरंतर हमले बोलती रहती है। हमारी सरकार पिछले चार वर्षों में पाकिस्तान के साथ न तो कोई प्रामणिक संबंध-सुधार कर सकी और न ही उसे कोई सबक सिखा सकी। हमारी कूटनीति और सैन्य-नीति, दोनों ही फिसड्डी साबित हो रही हैं।

दीवारों पर लिखी इबारत को पढि़ए मान्यवर?
तनवीर जाफरी
हमारे देश का अन्नदाता किसान इन दिनों राष्ट्रीय स्तर की एक अनोखी हड़ताल पर है। पूरे देश में किसानों ने सब्ज़ी, दूध व फल आदि की शहरी आपूर्ति ठप्प कर दी है। दूध व सब्जि़यां सड़कों पर फेंके जा रहे हैं। इस हड़ताल से जहां किसानों को भारी आर्थिक नुकसान का सामना करना पड़ रहा है वहीं दैनिक उपयोग की इन सामग्रियों के अभाव के चलते आम जनता भी बुरी तरह प्रभावित हो रही है। दूध व सब्ज़ी उत्पादकों की तरह ही देश का गन्ना किसान भी काफी परेशान है। सभी किसानों की मोटे तौर पर एक ही मांग है कि उन्हें उनके उत्पाद की सही कीमत मिल सके और सरकार कम से कम इतना मुनाफा सुनिश्चित करे ताकि उनकी लागत भी निकल सके और वे मुनाफे से अपने परिवार का भरण-पोषण भी कर सकें। इसी प्रकार गन्ना किसान उचित समय पर गन्ने का उचित मूल्य प्राप्त न होने की वजह से सरकार से नाराज़ है। दरअसल सरकार के विरुद्ध किसानों की नाराज़गी का सबसे बड़ा कारण यही है कि 2014 के चुनाव अभियान में सत्तारूढ़ दल ने देश के किसानों को जो सब्ज़बाग दिखाए थे सरकार उनपर अमल नहीं कर पा रही है। इसी प्रकार कभी बैंक कर्मचारियों की हड़ताल, कभी शिक्षकों की तो कभी सफाई कर्मचारियों की हड़ताल होती सुनाई दे रही है।
अभी पिछले दिनों देश की चार लोकसभा तथा 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव संपन्न हुए। इनमें केवल एक लोकसभा व एक विधानसभा सीट ही भारतीय जनता पार्टी जीत सकी। शेष 12 सीटें गैर भाजपाई दलों ने जीतीं। लोकसभा उपचुनाव में सबसे दिलचस्प मुकाबला पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना लोकसभा सीट पर हुआ। इस सीट पर संयुक्त विपक्ष की उम्मीदवार तब्बसुम हसन ने लगभग पचास हज़ार मतों से भाजपा उम्मीदवार को पराजित किया। विश्लेषकों द्वारा हालांकि यह कहा जा रहा है कि चूंकि उत्तर प्रदेश के सभी विपक्षी दल गठबंधन की उम्मीदवार को समर्थन दे रहे थे इसलिए भाजपा को पराजित किया जा सका। इस बात में काफी हद तक सच्चाई तो ज़रूर है। परंतु इसके साथ-साथ इस जीत का दूसरा मुख्य अर्थ पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों की नाराज़गी से भी जुड़ा है। देश की जनता इस समय यह बड़े गौर से देख रही है कि चाहे वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष अमितशाह हों या उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ। इन सभी नेताओं की कार्यशैली तथा इनका जनता से वोट मांगने का तरीका तथा चुनावी बिसात बिछाने का ढंग रणनीतिकारी व लोकलुभावन भले ही हो परंतु इसमें आम जनता खासतौर पर किसानों, बेरोज़गारों व गरीबों का कल्याण व लोकहित दिखाई नहीं देता। उदाहरण के तौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गन्ना किसान गन्ने के सही मूल्य व समय पर भुगतान के लिए संघर्षरत था। परंतु योगी जी ने एक चुनाव सभा में फरमाया कि गन्ना हालांकि उनकी प्राथमिकता है परंतु वे ‘जिन्ना’ की फोटो भी नहीं लगने देंगे। गौरतलब है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एक सभागार में मोहम्मद अली जिन्ना के चित्र के लगे होने पर कैराना चुनाव से ठीक पहले कुछ हिंदूवादी संगठनों ने भाजपा के साथ मिलकर जिन्नाह की फोटो लगे होने पर बड़ा विवाद खड़ा कर दिया था।
कैराना उपचुनाव में सांप्रदायिकता को भी हवा देने की कोशिश की गई। चार वर्ष पूर्व मुज़फ्फरनगर व उसके आसपास के क्षेत्रों में सांप्रदायिक हिंसा भड़की थी। उस समय धर्म आधारित ध्रुवीकरण का पूरा लाभ भाजपा ने उठाया था। परंतु इस बार वही मतदाता जो 2014 में धार्मिक आवेश का शिकार होकर भाजपा के पक्ष में मतदान कर चुके थे वही इस बार अपनी पिछली गलतियों को सुधारते दिखाई दिए। हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर मुख्यमंत्री योगी तक ने कैराना सीट जीतने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर तक लगा दिया। खासतौर पर गोरखपुर व फूलपुर संसदीय सीट हाथ से निकलने के बाद कैराना जीतना भाजपा के लिए एक बड़ा चुनौती थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो चुनाव की तिथि अर्थातृ 28 मई से मात्र एक दिन पहले ही कैराना से बिल्कुल सटे बागपत में एक जनसभा संबोधित की। उन्होंने दिल्ली-मेरठ एक्सप्रेस वे के एक छोटे से टुकड़े का उद्घाटन कर इसपर लंबा रोड शो भी कर डाला। परंतु कैराना के मतदाताओं पर प्रधानमंत्री के रोड शो, उनके बागपत के भाषण अथवा मुख्यमंत्री योगी की अथाह मेहनत व जनसभाओं का तो कोई असर नहीं पड़ा जबकि बागपत क्षेत्र में ही धरने पर बैठे चंद किसानों ने कैराना के किसानों को अपना संदेश ज़रूर दे दिया। इस धरने में बैठे एक किसान की मौत भी हो गई थी।
सवाल यह है कि किसानों के गुस्से के रूप में सत्ता के विरुद्ध दीवारों पर मोटे अक्षरों में लिखी जा रही सत्ता विरोधी यह इबारत सत्ता के नशे में चूर अहंकारी नेतृत्व को दिखाई क्यों नहीं देती? क्या इन सत्ताधारी चुनावी रणनीतिकारों का भरोसा केवल चुनावी मार्किटिंग, ध्रुवीकरण की राजनीति, राज्यपालों के दुरुपयोग, पीडीपी व जेडीयू जैसे मौकापरस्त गठबंधन, मणिपुर, गोआ व त्रिपुरा जैसे सत्ता गठन तथा स्वयं को अपराजेय बताने व कांग्रेस तथा नेहरू-गांधी परिवार के जन्मजात विरोध पर ही टिकी हुई है? क्या देश के अल्पसंख्यकों, दलितों, किसानों, बेरोज़गारों तथा युवाओं की अनदेखी कर केवल गैर ज़रूरी व विघटनकारी मुद्दों के बल पर चुनाव जीतने को ही यह रणनीतिकार अपनी राजनैतिक सफलता मानते हैं? कैराना लोकसभा तथा नूरपुर विधानसभा सीट तथा बिहार की एक विधानसभा सीट पर अल्पसंख्यक समुदाय के मतों की संख्या भी अच्छी-खासी थी। गत् वर्षों में भाजपा ने तीन तलाक जैसे विषय को लेकर देश में कोहराम पैदा कर दिया। इसके विरुद्ध कानून बनाने की कोशिश की तथा यह जताने का प्रयास किया कि भारतीय जनता पार्टी मुस्लिम महिलाओं के हितों की रक्षा चाहती है इसलिए वह तीन तलाक जैसी कुप्रथा के विरुद्ध है। सवाल यह है कि यदि वास्तव में भाजपा में मुस्लिम महिलाओं की हितों के मद्देनज़र तीन तलाक के प्रचलन का विरोध किया था फिर आ‎खिर इन चुनाव क्षेत्रों में मुस्लिम महिलाओं के वोट भाजपा के पक्ष में क्यों नहीं गए? इसकी वजह यही है कि मुस्लिम महिलाएं भी जानती हैं कि तीन तलाक के विरोध का मतलब मुस्लिम महिलाओं का हित नहीं बल्कि मुस्लिम रीति-रिवाजों व प्रचलित परंपराओं में दखल अंदाज़ी करना था।
इन उपचुनावों में मिली हार के बाद भी भाजपा का नेतृत्व इसे पूरी ईमानदारी के साथ न तो देखना चाहता है और न समझना चाहता है। कभी वह राष्ट्रीय स्तर पर चल रहे किसान आंदोलन को कांग्रेस की चाल बता रहा है तो कभी उपचुनावों में हो रही हार को विपक्षी दलों की बौखलाहट का नाम दे रहा है। प्रधानमंत्री तो अपने विरोध को देश का विरोध अथवा राष्ट्रविरोध का नाम तक देने से नहीं हिचकिचाते। अकेले मध्यप्रदेश राज्य में गत् 24 घंटों में तीन किसान मौत को गले लगा चुके हैं जिनमें दो किसानों ने तो कर्ज से परेशान होकर खुदकशी की जबकि एक किसान कृषि मंडी में वहां की अव्यवस्थाओं से परेशान होकर चल बसा। परंतु अहंकारी सत्ताधारियों को किसानों से किए गए वादे, उनकी दु:ख-तकलीफ, नफा-नुकसान आदि नज़र नहीं आता बल्कि वे आंदोलन के पीछे की साजि़श तलाशने में लग जाते हैं। दरअसल हमारे देश का लोकतंत्र लोकलाज व लोकहित से चलने वाला लोकतंत्र है न कि तानाशाही, जुगतबाज़ी, साजि़श, विभाजन, ध्रुवीकरण तथा वैमनस्य फैलाकर सत्ता हासिल करने का खेल। संभव है कि 2014 में धर्म के नाम पर कुछ मतदाताओं ने मतदान किया भी हो परंतु भाजपा को सत्ता दिलाने वाले अधिकांश मतदाता वही थे जिन्हें तरह-तरह के सब्ज़बाग दिखाए गए थे और जिनसे अच्छे दिनों का वादा किया गया था। ज़ाहिर है वही मतदाता अब स्वयं को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं जिसका परिणाम उपचुनावों के नतीजों के रूप में सामने आ रहा है।

भाजपा के लिए खतरे की घंटी बज गई
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
लोकसभा चुनाव के बाद देश में जगह-जगह होने वाले उप-चुनाव अगले लोकसभा चुनाव का आईना हों, यह जरुरी नहीं है। इन उप-चुनावों में प्रायः प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री प्रचार करना भी जरुरी नहीं समझते लेकिन 2014 के बाद देश के 14 राज्यों की 27 संसदीय सीटों पर चुनाव हुए। इन लगभग सभी सीटों को भाजपा के प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री और शीर्ष नेताओं ने जीवन-मरण का प्रश्न बना लिया, जिसमें कोई बुराई नहीं है। लेकिन इसका नतीजा क्या निकला ? 27 संसदीय उप-चुनावों में भाजपा सिर्फ 5 में जीती। इन 27 में से 13 सीटें भाजपा के पास थीं। इनमें से 8 उसने खो दीं। उसने 2014 के बाद एक भी नई सीट नहीं जीती। इसका अर्थ क्या है?
भाजपा ने अपनी संसदीय सीटें कहां खोई हैं ? उन राज्यों में खोई हैं, जहां उसका शासन है और वह भी प्रचंड बहुमत से है। मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तरप्रदेश जैसे प्रांतों में भाजपा की हार का कारण क्या है ? उत्तर प्रदेश में तो उसे अपूर्व बहुमत मिला था लेकिन वहां जिन सीटों पर पहले हारी, उनमें से एक मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की थी और दूसरी उप-मुख्यमंत्री केशवप्रसाद मौर्य की थी। और अब एक ताजा मर्मांतक घाव और भी लग गया है। अब वह पश्चिमी उप्र में कैराना की वह सीट भी हार गई, जो उसके सांसद की मृत्यु हो जाने से खाली हुई थी। दिवंगत सांसद की पत्नी को भाजपा ने अपना उम्मीदवार बनाया लेकिन तुरुप का यह पत्ता भी नाकाम रहां नूरपुर की विधानसभा भी भाजपा हार गई। दोनों सीटों से दो मुसलमान महिलाएं चुनी गईं। दोनों चुनाव-क्षेत्र हिंदू-बहुल हैं। भाजपा के लिए यह हार न तो स्थानीय हार है और न ही उप-चुनाव की मामूली हार है।
28 मई को हुए उप-चुनावों में चार संसदीय सीटों में सिर्फ एक भाजपा को मिली और 11 विधानसभा सीटों में से उत्तराखंड की एक सीट मिली। अब संसद में भाजपा का स्पष्ट बहुमत भी खटाई में पड़ता दिखाई पड़ रहा है। अब उसके पास सिर्फ 272 सीटें रह गई हैं, जो बहुमत के लिए न्यूनतम है। 2014 में उसे 282 सीटें मिली थीं। उसका वोटों का प्रतिशत भी घटता जा रहा है। गुजरात में तो किसी तरह उसकी इज्जत बच गई लेकिन कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने के बावजूद उसकी कुल वोट संख्या कांग्रेस से कम रही। 2014 में उसे पूरे देश में हुए मतदान में से केवल 31 प्रतिशत वोट मिले थे। अब यक्ष-प्रश्न यही है कि उसने इतने ही या इनसे भी कम वोट मिले तो क्या वह 2019 में फिर से सरकार बना पाएगी ?
जाहिर है कि देश में आज तक एक भी सरकार ऐसी नहीं बनी है, जिसे कुल वोटों का तो क्या, कुल मतदान का 50 प्रतिशत भी मिला हो। इसीलिए भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का 50 प्रतिशत वोट पाने का लक्ष्य तो सिर्फ एक हवाई किला है लेकिन पिछले चार वर्षों में हुए उप-चुनाव का यह स्पष्ट संकेत है कि 2019 में भाजपा को 31 प्रतिशत वोट मिल जाएं, यह भी गनीमत है। मान लें कि 31 न सही, 30 प्रतिशत मिल जाएं तो भी वर्तमान हवा चलती रही तो भाजपा के पास अभी जितनी सीटें हैं, उनकी आधी भी रह जाएं तो आश्चर्य होगा, क्योंकि जैसे कैराना और नूरपुर में विरोधी दलों का एका हो जाने पर भाजपा को मिले ज्यादा वोट भी काफी कम पड़ गए। जरा सोचिए कि कर्नाटक में यदि कांग्रेस और जनता दल (से.) मिलकर लड़ते तो भाजपा को कितनी सीटें मिलतीं ? यही परिदृश्य अगले कुछ माह में यदि सारे भारत में फैल गया तो दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी को किसी ईश्वरीय चमत्कार की शरण में जाना पड़ेगा, अपनी कुर्सी बचाने के लिए !
भाजपा के नेता और कुछ भोले पत्रकार भी यह कहते नहीं थकते कि देश के लगभग दो दर्जन प्रांतों में भाजपा की सरकारें हैं। मोटे तौर पर यह सही माना जा सकता है लेकिन जरा गहरे उतरें तो मालूम पड़ेगा कि देश के लगभग आधे राज्यों की विधानसभाओं में भाजपा के आधा-आधा दर्जन सदस्य भी नहीं हैं। गोवा, मणिपुर, मेघालय, नागालैंड, असम जैसे राज्यों में भाजपा का पाया कितना मजबूत है, इसे भाजपा अध्यक्ष से ज्यादा कौन जानता है ? चंद्रबाबू नायडू ने बगावत का झंडा उठा लिया है, शिव सेना शुरु से ही पलीता लगा रही है, नीतीशकुमार की नीति का किसी को कुछ पता नहीं, महबूबा कब क्या कर बैठे, कौन जाने और अकाली दल भी पसोपेश में है। भाजपा के गठबंधनवाले अन्य दल भी सोच-विचार की वेला में हैं।
तो प्रश्न यह है कि क्या मोदी का जादू हवा हो गया है ? क्या 2019 में वह अब काम नहीं करेगा ? मोदी का जादू अभी बना हुआ है। यदि वह खत्म हो गया होता तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा में नए नेता की तलाश शुरु हो जाती। सत्ता का खेल बड़ा बेमुरव्वत होता है। सारा जीवन खपा देनेवाले लालकृष्ण आडवाणी और उनके पहले बलराज मधोक को कैसे दूध की मक्खी की तरह निकालकर फेंक दिया गया था। मोदी का जादू फीका जरुर पड़ा है लेकिन उसकी सास अभी चल रही है, क्योंकि उसके मुकाबले अभी तक कोई दमखमदार विरोधी नेता उभरा नहीं है। विरोध में जितने भी नेता हैं, उनमें से कोई भी अपने को मोदी से कम नहीं समझता। वे एक-दूसरे से तालमेल कैसे करेंगे ? मोदी-जैसा स्वच्छ छवि-वाले नेता देश में कितने हैं ? और फिर बड़ी समस्या यह है कि इन नेताओं के पास सबल और संपन्न भारत का कोई वैकल्पिक नक्शा भी नहीं है। इन्होंने अपने-अपने राज्यों में कोई चमत्कारी काम भी नहीं किए हैं, जिनके आधार पर कोई अखिल भारतीय विकल्प खड़ा किया जा सके।
यदि कोई विकल्प खड़ा होता है तो उसमें कांग्रेस की भूमिका अग्रगण्य होगी। कांग्रेस ने कैराना और नूरपुर में अपने को पीछे रखा तो वह आगे बढ़ गई। उसका रास्ता खुल गया। सारे देश में आज भी उसके कार्यकर्त्ता और उसकी शाखाएं हर जिले में हैं। यदि उसके पास कोई परिपक्व और समझदार नेता होता तो वह सत्तारुढ़ लोगों की कंपकंपी छुड़ा देता। कांग्रेस अध्यक्ष कोई भी रहे लेकिन वह प्रधानमंत्री बनने की जिद न करे और अन्य पार्टियों के वरिष्ठ नेताओं का उचित सम्मान करे तो कोई आश्चर्य नहीं कि 2019 के काफी पहले ही एक सशक्त विकल्प खड़ा हो सकता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत खुले-आम कह चुके हैं कि कांग्रेसमुक्त भारत का नारा उन्हें पसंद नहीं है। किसी भी जीवंत लोकतंत्र में दो राष्ट्रीय विरोधी दल होने जरुरी हैं। यह कितनी अच्छी बात है कि कांग्रेस के मंजे हुए नेता प्रणब मुखर्जी को उन्होंने संघ के उत्सव में नागपुर आमंत्रित किया है।
यदि मोदी हार जाते हैं और देश में विरोधियों की कोई गड्मड्ड सरकार बन भी जाती है, तो वह चलेगी कितने दिन ? हम मोरारजी, चरणसिंह, वीपी सिंह, चंद्रशेखर, देवेगौड़ा और गुजराल की हांपती-कांपती सरकारों को पहले ही देख चुके हैं। वे कुछ महिनों या दो-ढाई साल की मेहमान होती हैं। उनके कार्यकाल में कौनसे स्थायी या चमत्कारी काम हो पाते हैं। यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि 30 वर्षों में पहली बार बनी स्पष्ट बहुमत की यह सरकार अभी तक ऐसे काम नहीं कर सकी, जिनके चलते वे उप-चुनाव उसके लिए खतरे की घंटी नहीं बनते। खतरे की इस घंटी को टालने के उपाय कई हैं लेकिन अब समय बहुत कम रह गया है।

केंद्र सरकार की साफ नीयत और सही विकास से आशय
डॉ हिदायत अहमद खान
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार ने चार साल पूरे कर लिए हैं। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी में जश्न का माहौल है और चूंकि अगले साल प्रारंभ में ही आम चुनाव होने हैं, अत: केंद्र सरकार समेत पार्टी के पदाधिकारी व नेता अपनी सरकार की उपलब्धियां गिनाने में ऐड़ी-चोटी का पसीना एक कर रहे हैं। यही नहीं बल्कि खुद प्रधानमंत्री मोदी ने सरकार की विकासवादी योजनाओं और कार्य क्रियांवयन को लेकर सुबह से ही एक के बाद एक तीन ट्वीट कर दिए हैं। इससे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि मानों गहरी नींद में सोई जनता को यह सरकार अपने प्रचार के जरिए जगाने का प्रयास कर रही है। दरअसल विज्ञापनों और पोस्टरों के साथ ही साथ सोशल मीडिया पर भी सरकार की उपलब्धियों की चर्चा आम हो चली है। इसके साथ ही प्रधानमंत्री मोदी ने एक वीडियो भी सोशल मीडिया पर शेयर किया, जिसमें सरकार की योजनाओं के बारे बताया गया है। इसी वीडियो को ‘साफ नीयत-सही विकास’ नाम दिया गया है, जिसे लेकर विरोधी कह रहे हैं कि हर मोर्चे पर फेल सरकार आखिर यह किस तरह का झूठ प्रचारित कर रही है। इस प्रकार इस सरकार ने सिर्फ बताने का काम किया है, उसके पास सुनने का तो मानों कोई कालम ही नहीं है। यही वजह है कि मोदी सरकार के चार साल पर कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने भी एक रिपोर्ट कार्ड तैयार कर देश के समक्ष पेश किया है। इसमें उन्होंने लिखा है कि ‘कृषि क्षेत्र में केंद्र सरकार फेल, विदेश नीति में फेल, तेल की कीमतों में फेल, रोजगार सृजन करने में फेल इसके विपरीत स्लोगन सृजन करने में सरकार को एक प्लस और सेल्फ प्रमोशन को भी ए-प्लस और योगा में सरकार को बी-ग्रेड दिया गया है। इसी प्रकार अन्य विपक्षी भी मोदी सरकार को हर मोर्चे पर फेल बताने में कोई कोताही नहीं बरत रहे हैं, जबकि प्रधानमंत्री मोदी खुद ही बताने का प्रयास कर रहे हैं कि उनकी सरकार ने देश को सही विकास की दिशा में ले जाने का काम किया है, जिसके परिणाम आने वाले दो-चार सालों में देखने को मिल जाएंगे। यह सरकार परिणामों के लिए वर्ष 2022 तक इंतजार करने को कह रही है तो हमारे जैसे शांतिप्रिय व संतोषी प्रवृत्ति के लोग तो यही कहते देखे गए हैं कि काश ऐसा ही हो, जैसा कि सरकार अपने विकासवादी कथित एजेंडे को पेश करते हुए कह रही है। ऐसा होने पर कम से कम देश का गरीब से गरीब व्यक्ति भी सामान्य जीवन जीने के लायक तो हो जाएगा। इसके साथ ही नोटबंदी और जीएसटी जैसे सरकार के फौरी फैसलों की मार से जिन कारोबारियों की कमर टूट चुकी है उन्हें कम से कम व्हील चेयर में चलने का अवसर तो मिल सकेगा। फिलहाल देश में गरीबी और बेरोजगारी का इस कदर बोलवाला है कि छोटी सी भी आर्थिक मार उसे मौत के मुंह में धकेलती नजर आती है। किसानों की कौन कहे एक तरफ राज्य सरकार कृषि कर्मण अवार्ड लेकर आती है तो दूसरी तरफ कर्ज के बोझ तले दबा गरीब किसान आत्महत्या करता और अपनी जायज मांगों को लेकर सड़क पर प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोली से असमय मौत को गले लगाता दिख जाता है। यह कैसा मुंह देखा विकास है जो अमीरों की अट्टालिकाओं पर तो रश्क करता नजर आता है, लेकिन गरीब की झोपड़ी की तरफ देखना भी उसे गवारा नहीं है। इसलिए विरोधी कहते हैं कि यह सरकार चंद अमीरों की सरकार बनकर रह गई है। वहीं दूसरी तरफ प्रधानमंत्री मोदी ट्वीट करते हुए बताते हैं कि ‘वर्ष 2014 में आज ही के दिन हमने भारत के बदलाव के सफर की शुरुआत की थी। पिछले चार साल में विकास जन आंदोलन बन गया है। देश का प्रत्येक नागरिक इसमें अपनी हिस्‍सेदारी महसूस कर रहा है। सवा सौ करोड़ भारतीय भारत को नई ऊंचाइयों पर ले जा रहे हैं।’ प्रधानमंत्री मोदी के इन्हीं शब्दों पर गौर करें और विश्लेषण करें तो पाते हैं कि जिस बदलाव का बीड़ा उठाने की बात प्रधानमंत्री मोदी ने किया है, दरअसल वह तो कांग्रेस की पूर्व सरकारों के बनाए रास्ते पर चलने की देन है। इसमें एक भी ऐसी कोई योजना नहीं है जिसे पूर्णत: मोदी सरकार की देन कहा जा सके। अधिकांश योजनाएं यूपीए सरकार की अधूरी पड़ी योजनाओं से ही प्रेरित हैं और कुछ को शब्दश: आगे बढ़ाने का काम इस सरकार ने किया है। फिर चाहे वह ग्रामीण अंचलों पर केंद्रित योजनाएं हों या शहरी विकास वाली योजनाएं हों। इससे हटकर सरकार के फैसलों की बात करें तो जीएसटी, नोटबंदी, आधार कार्ड जैसे फैसले भी तो पूर्व की यूपीए सरकार के खींचे गए खाके पर ही आधारित रहे हैं, जिनका कि विरोध पूर्व में स्वयं मोदी जी कर चुके थे। इन फैसलों पर ही यदि मोदी सरकार ने सही समय पर सही दिशा में आगे बढ़ने का जिम्मा पूर्ण ईमानदारी के साथ निभाया होता तो आज देश की तस्वीर वाकई बदली हुई होती, लेकिन अनुभव की कमी और अपने आगे किसी की भी नहीं सुनने की प्रवृत्ति के चलते अच्छी योजनाओं का भी बैंड बज गया और सारे परिणाम विपरीत दिशा में आते नजर आए। जहां तक प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा सवा सौ करोड़ भारतियों की चिंता करने की बात है तो यह सच है कि एक प्रधानमंत्री को पार्टी से ऊपर उठकर विचार करना चाहिए और सभी वर्गों और जाति के लोगों को बराबरी के साथ विकास की दिशा में अग्रसर होने का अवसर प्रदान करना चाहिए, लेकिन अफसोस कि जो भी निर्णय लिए गए और जो भी योजनाएं क्रियांवित की गईं उन्हें ‘अंधा बांटे रेबड़ी और चीन्ह-चींन्ह के देय’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए आगे बढ़ाया गया। लोगों को इस बात का अहसास इसलिए भी हुआ क्योंकि पूरे समय तो प्रधानमंत्री मोदी या तो विदेश यात्राएं करते रहे या फिर पार्टी को तमाम तरह के चुनाव जितवाने में व्यस्त रहे। इससे संदेश यह गया कि प्रधानमंत्री देश के न होकर पार्टी विशेष के होकर रह गए हैं। इसलिए विरोधी कह रहे हैं कि सरकार की नीयत तो सही ही होती है, फिर चाहे वह एनडीए हो या यूपीए, बात तो तब है जबकि सबका साथ सबका विकास नारा फलीभूत होता हुआ दिखाई दे। गौरतलब है कि सरकार में आने से पहले एनडीए ने सबका साथ सबका विकास नारा आसमान तक गुंजायमान किया था, लेकिन पिछले चार साल के कार्यकाल में विकास तो दूर की बात है लोगों के कारोबार तक चौपट हो चुके हैं और आर्थिक तंगी के दौर से दुकानदारों और कारोबारियों को गुजरना पड़ रहा है। तेल के दामों ने लोगों की जेबों में आग लगा रखी है। ऐसे में सरकार किस नीयत और किस सही विकास की बात कर रही है समझ से परे है। कुल मिलाकर सरकार दावे जो भी करे, लेकिन देश को विकास की दरकार तो आज भी है।