आलेख 15

रफाल-सौदा: ज़हर की पुड़िया
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
रफाल-सौदे के बारे में सर्वोच्च न्यायालय की राय ने आज भाजपा में नई जान फूंक दी है। तीन हिंदी राज्यों में पटकनी खाई भाजपा अपने घाव सहला रही थी कि अदालत ने उसे एक पुड़िया थमा दी। उसे मलहम समझकर सरकार और भाजपा के नेता फूले नहीं समा रहे हैं लेकिन वे यह नहीं समझ पा रहे कि जजों ने सभी याचिकाओं को इस तरकीब से रद्द किया है कि यह मलहम ज़हर की पुड़िया बन सकता है। याचिका लगानेवाले डॉ. अरुण शौरी, यशवंत सिंहा और प्रशांत भूषण सर्वोच्च न्यायालय से उसके फैसले पर पुनर्विचार की मांग जरुर करेंगे, क्योंकि उनके तथ्यों और तर्कों को यह फैसला संतोषजनक ढंग से काट नहीं पाया है लेकिन वे इसकी मांग करें या न करें और अदालत उसे माने या न माने, एक बात पक्की है कि अदालत ने कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के हाथ में अग्निबाण थमा दिया है। किसी ने भी रफाल विमान की क्षमता पर सवाल नहीं उठाया है। इन याचिकाओं का सबसे बड़ा सवाल यह था कि 500 करोड़ का जहाज 1600 करोड़ में क्यों खरीदा गया ? इसी सवाल के आधार पर राहुल ने कई बार कहा कि चौकीदार चोर है। यह अत्यंत गंभीर और अत्यंत जहरीला आरोप है। इस सवाल को सर्वोच्च न्यायालय गोल कर गया। उसने दो-टूक शब्दों में कह दिया कि रफाल की कीमतों के झंझट में पड़ना इस अदालत का काम नहीं है। रफाल-सौदे के बारे में दो और भी सवाल थे। एक तो यह कि खरीद की प्रक्रियाओं का उल्लंघन हुआ है। इसके बारे में अरुण शौरी का कहना है कि अदालत गहरे में उतरी ही नहीं और उसने सरकारी सफाई को जस का तस मान लिया है। दूसरा सवाल यह था कि इस सौदे में अनिल अंबानी को बिचौलिया बनाकर अरबों रु. पर हाथ साफ करने की जो सरकारी साजिश थी, उसके बारे में भी अदालत का रवैया टालू था। याचिकाकर्त्ताओं का मानना है कि अदालत ने सरकार की हां में हां मिलाकर अपने प्रतिष्ठा पतली कर ली है लेकिन मेरा मानना है कि अदालत ने रफाल की कीमतों के बारे में मौन धारण करके एक भयंकर दहाड़ को जन्म दे दिया है। यह भाजपा को बहुत मंहगी पड़ेगी। यदि भाजपा के नेतृत्व के पास गांठ की अकल होती तो रफाल की कीमतों के सवाल का बहुत ही संतोषजनक जवाब दिया जा सकता था। उसे जितना छिपाया जा रहा है, वह उतना ही सिर पर चढ़कर बोलेगा।

कांग्रेसी मुख्यमंत्री कुछ कर दिखाएं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पांच राज्यों में हुए चुनावों के नतीजों के कारण भाजपा का मनोबल पातालगामी हो रहा है और कांग्रेस का गगनचुंबी ! लेकिन थोड़ी गहराई में उतरें तो आपको पता चलेगा कि ये दोनों मनस्थितियां अतिवादी हैं। सच्चाई कहीं बीच में है। मध्यप्रदेश और राजस्थान में भाजपा और कांग्रेस, दोनों को जनता ने अधर में लटका दिया। दोनों में से किसी को भी बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस को सीटें थोड़ी ज्यादा मिलीं लेकिन वोटों का हाल क्या रहा। मध्यप्रदेश में तो भाजपा को कांग्रेस से भी ज्यादा वोट मिले। उसके उम्मीदवारों को यदि कुछ सौ वोट और मिल जाते तो सरकार भाजपा की ही बनती। इस चुनाव में मुख्यमंत्री शिवराज चौहान की कुर्सी तो चली गई लेकिन इज्जत बच गई। बल्कि बढ़ गई। राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के लिए भी कहा जा सकता है कि ‘खूब लड़ी मर्दानी’। इसी प्रकार राजस्थान में कांग्रेस को भाजपा से जो ज्यादा वोट मिले, वे भी एक प्रतिशत से कम ही थे। दूसरे शब्दों में कहें तो इन दोनों बड़े प्रदेशों में ये दोनों पार्टियां लगभग बराबरी पर ही छूटीं। छत्तीसगढ़ की बात अलग है। वहां भाजपा के वोट भी काफी कम हुए है और सीटों का तो भट्ठा ही बैठ गया। लेकिन जरा सोचें कि यदि भाजपा अपना प्रधानमंत्री बदल ले या अगले पांच-छह महिने में दो-तीन चमत्कारी काम कर दे तो कांग्रेस क्या करेगी ? कोई जरुरी नहीं है कि लोग कांग्रेस को उतने ही वोट दें, जितने कि उन्होंने अभी दिए हैं। और फिर अखिल भारतीय स्तर पर आज भी भाजपा कांग्रेस से काफी आगे है। मिजोरम और तेलंगाना में कांग्रेस का हाल क्या हुआ है ? ये बात दूसरी है कि राहुल गांधी की छवि सुधरी है। अब राहुल को ‘पप्पू’ कहना जरा मुश्किल होगा, हालांकि गप्पूजी ने खुद को उलटाने का पूरा प्रबंध कर रखा है। इस प्रबंध का पहला झटका अभी तीनों हिंदी प्रदेशों ने दिया है। पप्पूजी को अपने आप श्रेय मिल रहा है। पप्पूजी ने गप्पूजी को पहले संसद में झप्पी मारी थी, अब सड़क पर मार दी है। साढ़े चार साल गप्प मारते-मारते गप्पूजी ने निकाल दिए। अब वे पांच-छह माह में कौनसा बरगद उखाड़ लेंगे, समझ में नहीं आता। इश्के-बुतां में जिंदगी गुजर गई मोमिन। अब आखरी वक्त क्या खाक मुसलमां होंगे ? यह असंभव नहीं कि इन तीनों हिंदी प्रदेशों के कांग्रेसी मुख्यमंत्री अगले चार-छह महिने में कुछ ऐसे विलक्षण काम कर दिखाएं जो 2019 के चुनावों में छा जाएं। यदि ऐसा हो जाए तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ होगा। 2019 में केंद्र में जो भी सरकार बनेगी, उसके लिए पहले से एक नक्शा तैयार रहेगा। वरना, भारत की जनता को फिर अगले पांच-साल रोते-गाते गुजारने होंगे।

नवीन भारत के महान निर्माता-सरदार पटेल
वीरेन्द्र परिहार
(पुण्यतिथी पर विशेष) सरदार पटेल का जन्म भगवान कृष्ण की कर्मभूमि स्वामी दयानन्द सरस्वती और महात्मा गांधी की जन्मभूमि गुजरात मे 31 अक्टूबर 1875 को बोरसद के करमसद गांव मे हुआ था। उनके पिता झेंबरभाइzZ सच्चे ईश्वर-भक्त, साहसी, दूरदर्शी, संयमी और देशभक्त थे।सरदार पटेल के पिता झेंबरभाई ने1857 के स्वाधीनता सेनानियों की मदद करते हुए महारानी लक्ष्मीबाई की सेना मे शामिल होकर अग्रजों के साथ युद्ध किया था। इस तरह से सरदार पटेल जिनका वास्तविक नाम वल्लभभाई पटेल था। उन्हे देशभक्ति,साहस और दूरदर्शिता के गुण विरासत मे प्राप्त था। कहते हैं-पूत के पॉव पालने मे ही दिख जाते है। वल्लभभाई बचपन से ही इतने निर्भीक थें कि वह किसी तरह का अनुचित व्यवहार सहन नही करते थे। नेतृत्व के गुण उनमें विद्यार्थी जीवन से ही दृष्टिगोचर होने लगे थें। वे नाडियाड मे जिस स्कूल मे पढ़ते थे उस स्कूल मे अध्यापक ही पुस्तकें बेचने का व्यवसाय करते थे।वे छात्रो को स्कूल से ही पुस्तकें खरीदनें को बाध्य करते थे और पुस्तकों का मूल्य मनमाना वसूल करते थे। वल्लभभाई भला इस अन्याय को कैसे सहन करते?उन्होने स्कूल मे ही इसके विरूद्व छात्र आन्दोलन खड़ा कर दिया। इसके चलते पॉच-छ: दिन स्कूल बन्द रहा,लेकिन अंतत: स्कूल से पुस्तकें खरीदने का नियम सम्पात करना पड़ा।
उच्च शिक्षा के लिए वल्लभभाई इग्लैण्ड जाना चाहते थें, पर आर्थिक अभावों के चलते उस समय ऐसा संभव नही हो पाया। वर्ष 1900 मे वह मुख्तारी की परीक्षा पास करके गोधरा मे वकालत करने लगे। उनके लिए यह दिन काफी आर्थिक कठिनाइयों के थे।1902 मे वह बोरसद आ गए।अब तक बल्लभभाई ने वकालत से इतना रूपया कमा लिया था कि विलायत जाकर बैरिस्टरी की पढ़ाइzZ का अपना खर्च पूरा कर सकें। लेकिन इस बात का पता जब उनके बड़े भाई विठ्ठलभाई को लगा तो उन्होने कहा कि मै तुमसे बड़ा हू इसलिए मुझे पहले विलायत जाना चाहिए। वल्लभभाई ने इस बात का न सिर्फ सहर्ष स्वीकार किया और विलायत मे उनकी पढ़ाई का खर्च उठाया। इतना ही नहीउनके परिवार के भरण-पोषण का खर्च भी वहन किया। वल्लभभाई का साहस धेर्य और कर्तव्यपरायणता अद्भुत थी। मुम्बई मे एक आपरेशन के दौरान जब उनकी पत्नी की मृत्य हो गई,और तार द्वारा इसका समाचार उन्हे मिला तब वह एक हत्या के एक मुकदमें मे बहस कर रहे थें। तार पाकर पहले तो वह स्तब्ध हुए, पर दुसरे ही क्षण वह पूरी तरह सतर्क और सचेत होकर बहस करने लगें कि कही थाड़ी भी ढिलाई उनके पक्षकार का अहित न कर दे। तो यह थी उनके कर्तब्यबोध की मिसाल। उस समय उनकी उम्र मात्र 33 वर्ष थी, फिर भी उन्होने आजीवन दुसरा विवाह नही किया।
विलायत जाकर पढने की वल्लभभाई की तमन्ना 1910 मे पूरी हुई ऐर वह प्रथम श्रेणी मे प्रथम स्थान प्राप्त कर 1913 मे विलायत से स्वदेश लौट आए। वह अहमदाबाद को अपनी कर्मभूमि बनाकर वहां वकालत करने लगे।शीघ्र ही वह गांधी जी के संपर्क मे आ गए और उनके द्वारा गठित गुजरात राजनैतिक परिषद के मंत्री बनाए गए। उन दिनों बेगार- प्रथा जोरो पर थी। अन्याय के विरोधी सरदार भला यह कैसे सहन करते?उन्होने बेगार प्रथा -सम्पात करने के लिए कमिशनर को पत्र लिखा कि सात दिनों के अन्दर यदि बेगार-प्रथा सम्पात नही की गई तो लोगों से स्वत: बन्द करने का अनुरोध करेगें। फलत: कमिश्नर ने बेगार -प्रथा बन्द करने का फैसला दे दिया। यही वल्लभभाई की पहली बड़ी राजनैतिक विजय थी। इसी से वह गांधी जी के निकटतम सहयोगी और विश्वासपात्र बन गये। वर्ष 1917 मे खेड़ा जिले मे लगान वसूली के विरोध मे गांधी जी के अगुवाई मे जो आन्दोलन हुआ उसके वह प्रमुख सिपहसालार रहे। गांधी जी ने इस अवसर पर कहा कि वल्लभभाई तो उनके लिए अनिवार्य है। बरदोली सत्याग्रह की समाप्ति पर महात्मा गांधी ने यह उद्गार व्यक्त किया- ”मुझे यह स्वीकार करना चाहिए कि जब बल्लभ भाई से मैं पहले-पहल मिला, तब मैंने सोचा था कि वह अख्खड़ पुरुश हमारे किस काम का होगा, परन्तु जब मैं उनसे सम्पर्क में आया, तब मुझे लगा कि बल्लभ भाई तो मेरे लिए अनिवार्य हैं। विश्णु प्रभाकर के षब्दों में कहें तो ”रामकृश्ण परमहंस ने अपने विवेकानन्द को पहचान लिया था।“
सन1920 मे लाला लाजपत राय की अध्यक्षता मे कांगेस के अधिवेशन मे ब्रिटिश सरकार से असहयोग का प्रस्ताव पारित किया गया। वल्लभभाई ने उसी दिन से वकालत छोड़ दिया और खादी पहनने लगे। इतना ही नही अपने बच्चों का नाम स्कूल से कटवा दिया,इस बीच उनकी बहुत सी उपलब्धियॉ रही। 1927 मे गुजरात के बाढ़ पीड़ितो की उन्होंने जिस ढ़ंग से सहायता की उसे देखकर ब्रिटिश सरकार को भी इसे मानवता की सच्ची -सेवा कहना पड़ा। पर वल्लभभाई को जिस घटना ने सरदार बनाया, वह 1928 का बारदोली आन्दोलन था। यहां पर अंग्रेज सरकार ने किसानों पर लगान 30 प्रतिशत बढ़ा दिया था, जबकि उनकी माली हालत काफी श्sााचनीय थी। सरदार ने किसानो को आन्दोलन के खतरों से आगाह किया और एक सच्चे नेता की तरह उन्हे पूरी तरह तैयार कर सत्याग्रह -आन्दोलन शुरू कर दिया।इसी आन्दोलन के चलते वह राष्टीय राजनीति के केन्द्र मे आ गए। उस समय देश के प्रसिद्ध अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया ने लिखा-“बारदोली मे पूरी सरकारी मशीनरी ठप्प पड़ी है, गांधी के शिष्य पटेल की वहां तूती बोलती हैं।” बिटिश सरकार ने यहा खूब अत्याचार किया, आदमियों के साथ भैसों तक को जेल मे डाल दिया। उस आन्दोलन को लेकर प्रसिद्ध साहित्यकार कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी जो उस समय मुम्बई की धारा सभा के सदस्य थे। उन्होंने अंग्रेज गर्वनर को लिखा, बारदोली ताल्लुके मे अस्सी हजार स्त्री-पुरूष सुसंगठित होकर विरोध के लिए भीष्म प्रतिज्ञा किए बैठे है। आपके कर्मी अधिकारी को मीलो तक हजामत के लिए नाई नही मिलता, आपके एक अधिकारी की गाड़ी कीचड़ मे फॅस गई तो वल्लभभाई की कृपा से ही निकली। कलेक्टर को वल्लभभाई की आज्ञा के बिना स्टेशन मे कोई सवारी नही मिलती।मैने जिन गावों की यात्रा की उनमे एक भी स्त्री-पुरूष एSसा नही मिला जिसे अपने निर्णय पर पछतावा हो। इस आन्दोलन की दृढ़ता के चलते आखिर में बिटिश सरकार को झुकना पड़ा। गांधी ने उन्हे इस अवसर पर बारदोली का सरदार कह कर संबोधित किया और वह सचमुच पूरे देश के सरदार बन गए।
29 जून 1930 में सरदार पटेल कांग्रेस के स्थापनापत्र अध्यक्ष नियुक्त किए गए, उनके नेतृत्व में कांग्रेस का संगठन सुदृढ तो हुआ ही कांग्रेस में भी नई जान आ गई।इस बीच वह कई बार जेल गए। 1931 में सरदार पटेल कांग्रेस के कराची अधिवेशन के अध्यक्ष बनाए गए। 14 जनवरी 1932 को कांग्रेस को सरकार द्वारा अवैध घोषित कर दिया और गॉधी जी के साथ सरदार को भी यरवदा जेल भेज दिया गया जहॉ वह गॉधी के साथ 1 वर्ष 4 माह बन्द रहें। वहॉ उन्होने गॉधी की मॉ जैसी सेवा की। 1932 मे बोरसद में भयंकर प्लेग फैला था। 1935 में यह फिर सत्ताइस गॉवों में फैल गया। सरकारी मशीनरी इस महामारी की पूर्ण उपेक्षा कर रही थी ,सरदार पटेल इस अवसर पर स्वयं- सेवकों का एक दल बनाकर और बोरसद में एक अस्पताल खोलकर गॉव – गॉव घूमकर बरसात और चिलचिलाती धूप की परवाह किए वगैर रोगियों की तीमारदारी में जुट गए और थोडे ही समय में इस महामारी से मुक्ति दिला दी।
विचार करने का विशय है, यदि पटेल देष के प्रथम प्रधानमंत्री होते तो क्या भारत के लिए संयुक्त राश्ट्र सुरक्षा परिशद की स्थायी सदस्यता ठुकरा देते (जिसे पाना अब टेढ़ी खीर है) क्या तिब्बत को चीनी जबड़े में जाने देते? क्या 1962 में चीनियों के सामने हमारी सेना बिना तैयारी के खड़ी होती? वह कष्मीर के मामले को कैसे संभालते? क्या वे देष की राजनीति में वंषवाद को पनपने देते? 15 दिसम्बर 1950 को उनकी मृत्यु पर पूरा देश मुम्बई की सड़कों पर उमड़ पड़ा था। पण्डित नेहरू ने ठीक ही उन्हे नवीन भारत का महान- निर्माता कहा था।

जो न करें आत्मचिंतन, उसका ऐसा ही होता अभिनंदन….?
ओमप्रकाश मेहता
पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणामों ने पूरे देश को चौका दिया है, कभी किसी ने भी यह कल्पना नहीं की थी कि भारतीय जनता पार्टी के गढ़ तीन हिन्दी भाषी राज्यों राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में डेढ़ दशक से राज कर रही भाजपा की यह दुर्गति होगी? लेकिन लोकतंत्र की यही विशेषता है, इसमें ’लोक‘ को ’तंत्र‘ से बदला लेने के लिए संयम व धीरज रखना पड़ता है और सही मौके पर वोट का हथौड़ा चलाकर सबक सिखाना पड़ता है।
अब यहां सवाल यह खड़ा होता है कि इन तीनों चुनावी राज्यों में आखिर ऐसी क्या ज्यादती हो गई थी, जिसका खामियाजा यहां की सरकरों को भुगतान पड़ा? तो इसका जवाब यह कि इन तीनों प्रदेशों में से खासकर दो प्रदेशों मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में यहां सरकार या उसका नेतृत्व नहीं हारा है, बल्कि यहां भाजपा तथा प्रधानमंत्री नरेन्द्र भाई मोदी की हार हुई है, उनकी वादा खिलाफी जनकल्याण व विकास की नीति की उपेक्षा तथा केन्द्र सरकार द्वारा व्यापक जनहित के खिलाफ लिए गए फैसलों की हार हुई, फिर सरकार व संगठन के नेतृत्व में समाहित अह्म और स्तरहीन वाणी भी इस हार की मुख्य वजह बनी।
यदि हम इसकी पुष्ठि इस तरह से करें कि छत्तीसगढ़ में डॉ. रमण सिंह से जनता की कोई सीधी नाराजी नहीं थी, किंतु सरकार व सत्ता विरोधी लहर ने छत्तीसगढ़ राज्य का राजनीतिक भविष्य बदल दिया। यही स्थिति मध्यप्रदेश की रही, यहां शिवराज जी से किसी की कोई नाराजी नहीं थी, वे लोकप्रिय थे और रहेंगे, बल्कि उल्टे मध्यप्रदेश में जो सीटों की कांटों की टक्कर अंतिम परिणाम तक रहीं, वह शिवराज जी की लोकप्रिय छवि और उनके जनहित के कार्यों के कारण चली। हाँ, राजस्थान में मुख्यमंत्री महारानी साहिबा से अवश्य व्यक्तिगत नाराजी थी, किंतु वहां सत्तारूढ़ संगठन भाजपा लोकप्रिय था इसलिए वहां भाजपा को जन अपेक्षा से अधिक सीटें मिल गई।
इस पूरी दलील का सार यह है कि तीन हिन्दी भाषी भाजपा के गढ़ राज्यों दुर्गति के लिए सत्ता व संगठन के शीर्ष नेतृत्व राज्यों के नेतृत्व की अपेक्षा अधिक जिम्मेदार रहे। क्योंकि चाल, चलन व चेहरे के भावों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि भाजपा व केन्द्र सरकार के मुखिया अब वैसे नहीं रहे, जैसे पदभार सम्हालने या उसके कुछ वर्षों बाद तक रहे, उनके हाव-भाव व चेहरे से अह्म साफ छलकता नजर आने लगा था। जिसकी चेतावनी उन्हें इस खामियाजे के रूप में मिल गई, यद्यपि चुनावी महासंग्राम में अभी डेढ़ सौ दिनों की देरी है, जो इन दोनों नेतृत्वों के लिए ’अग्निपरीक्षा‘ से कम नहीं होगा, इस अल्प अवधि में भी ये चाहे तो आत्म चिंतन करके अपने आपकों बदल सकते है और स्थिति पूर्ववत्् अपने अनुकूल ला सकते है, लेकिन काश ये ऐसा साहस करें?
इस मुख्य वजह के बाद यदि भाजपा के तीन गढ़ों के छीनने की वजह चुनावी वादों को जुमलों की संज्ञा देना, देश का आर्थिक क्षेत्र में पिछड़ना, नोटबंदी व आंतरिक सुरक्षा के प्रति गंभीर लापरवाही इस स्थिति के कारण बनें, फिर केन्द्र में सत्तारूढ़ एनडीए का टूटकर बिखरना, आपसी मनमुटाव, पार्टी अनुशासन में कमी, बुजुर्गों की उपेक्षा तथा नेतृत्व के जिद्दी स्वभाव व मनमर्जी के फैसले भी देश के आम वोटर्स की नाराजी के कारण रहें।
इसके साथ ही प्रधानमंत्री व भाजपाध्यक्ष को इस बात का भ्रम होना कि उनके मुकाबले के लिए अब न तो कोई विपक्षी दल रहा और न ही उनका नेतृत्व, खासकर के ’पप्पू‘ के नाम से बदनाम राहुल गांधी को तो ये सत्तारूढ़ नेता किसी काबिल नहीं समझते थे, इस प्रकार इनका आत्मविश्वास व अहम अतिरेक के स्तर पर पहुंच गया, जिसका दंश इन्हें झेलना पड़ा। उसी ’पप्पू‘ ने दिखा दिया कि वह क्या है?
अब अंत में सबसे बड़ा और अह्म सवाल यह कि इस ’सेमिफाईनल‘ के जब से परिणाम आए तो फिर पांच महीने बाद होने वाले सत्ता संग्राम के फाईनल में क्या होगा? जब भाजपा के तीन गढ़ों में पार्टी की यह स्थिति हुई तो शेष राज्यों में क्या होगा? इसका जवाब यही है कि सत्ता तथा संगठन के शीर्ष नेतृत्व को इन परिणामों के संदर्भ में आत्मचिंतन कर अपने आपकों सुधारने का प्रयास करना चाहिए, कुछ विनम्र बनने का प्रयास करना चाहिए, सत्ता के फाइनल संग्राम का ऐसा घोषणा-पत्र तैयार हो जो ’जुमला‘ नहीं बने व देश को अपने पक्ष मे पुन: करने का प्रयास करना चाहिए या फिर ऐसा नहीं करते है तो फिर इससे भी भयानक परिणामों के लिए तैयार रहना चाहिए।

अयोध्याः सरकार जरा दिमाग लगाए
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
राम मंदिर के लिए दिल्ली के रामलीला मैदान में आज जितनी बड़ी लीला हुई है, उतनी बड़ी लीलाएं पिछले 50 साल में कम ही हुई हैं। रामभक्तों की संख्या कोई दस लाख बता रहा है, कोई पांच लाख तो कोई डेढ़-दो लाख ! संख्या जो भी हो, इस प्रदर्शन ने भाजपा की मोदी सरकार के लिए भयंकर दुविधा खड़ी कर दी है। विश्व हिंदू परिषद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य हिंदू संगठनों ने मिलकर यह एतिहासिक प्रदर्शन किया है। ये सभी संगठन भाजपा के मूलाधार हैं। इनके बिना भाजपा एक खाली झुनझुना है। इन संगठनों ने मांग की है कि सरकार कानून लाए और मंदिर बनाए। अयोध्या-विवाद को खत्म करे। इस प्रदर्शन के वक्ताओं ने सरकार से दो-टूक शब्दों में राम मंदिर बनाने का आग्रह किया है। हम जरा कल्पना करें कि दिल्ली में आज मोदी की बजाय राहुल गांधी की सरकार होती तो क्या होता ? ऐसी स्थिति में यह आग्रह तो होता ही, धमकियां भी होतीं। निंदा भी होती, कटु भर्त्सना भी होती और वक्तागण पूछते कि यह सरकार साढ़े चार साल सोती क्यों रही ? यह कुंभकर्ण क्यों बनी रही ? वक्ता यह भी कहते कि ऐसी निकम्मी कांग्रेस सरकार को 2019 के चुनाव में एक भी सीट नहीं मिलनी चाहिए। उसके प्रधानमंत्री को पाकिस्तान में धकेल देना चाहिए या उसे बाबर के जन्म गांव ‘ओश’ में भिजवा देना चाहिए लेकिन ये हिंदू संगठन बेचारे मेादी को क्या कहें ? किस मुंह से कहें ? वे टीवी चैनलों और अखबारों को इस सवाल का जवाब ही नहीं दे पा रहे हैं कि आपको मंदिर की याद अभी ही अचानक क्यों आई ? क्या चुनाव जीतने का यही एक मात्र पैंतरा अब मोदी के पास बचा हुआ है ? यदि सरकार ने मंदिर का कानून पास नहीं किया तो क्या ये हिंदू संगठन इस सरकार को उल्टाने के लिए तैयार होंगे ? सच तो यह है कि इस सरकार के पास अपना कोई दिमाग नहीं है। सोच के मामले में वह दिवालिया है, दरिद्र है, शून्य है। वह नौकरशाहों की नौकर है। नौकरशाहों ने पहले ही नोटबंदी, जीएसटी और विदेश नीति में सरकार को गच्चा खिला दिया है। सर्वज्ञजी को किसी सलाह की जरुरत नहीं है। वे बस बोलना जानते हैं। पढ़ने-लिखने और सोचने-समझने से उन्हें परहेज़ है। वरना अयोध्या-विवाद का हल तो 1993 के नरसिंहराव सरकार के अध्यादेश में ही लिखा हुआ है। 70 एकड़ जमीन में भव्य राम मंदिर तो बने ही, वहां मस्जिद, गिरजा, गुरुद्वारा, साइनेगाॅग, धर्मशाला, सर्वधर्म संग्रहालय जैसी कई चीजें बन जाएं तो राम की अयोध्या विश्व-तीर्थ बन जाएगी। इसमें अदालत और संसद का क्या काम है ? इसमें सरकार का भी कोई काम नहीं है। धर्म-निरपेक्ष सरकार मंदिर बनाने का जिम्मा कैसे ले सकती है ? सरकार का एक ही काम है। वह यह है कि तीनों याचिकाकर्त्ताओं को उक्त कार्य के लिए सहमत करवाए और सर्वसम्मति से सर्वधर्मतीर्थ का अध्यादेश या कानून बनाए।
महागठबन्धन: विपक्ष की प्रतिबद्धता कसौटी पर
अजित वर्मा
विपक्ष के महागठबंधन की चर्चा आंध के मुख्यमंत्री चन्द्राबाबू नायडू के सक्रिय होने के साथ जितनी तेजी से चल पड़ी थी, उतनी ही तेजी से ठण्डी भी पड़ गई, क्योंकि ममता बनर्जी से मुलाकात के बाद ममता के कहने पर नायडू ने गैर-बीजेपी दलों की 22 नवंबर को होने वाली बैठक को 19 जनवरी के लिए टाल दिया है।
लोकसभा चुनाव से पहले विपक्षी एकता को मजबूत बनाने में लगे राजनीतिक दल 22 नवंबर को राजधानी में बैठक करने वाले थे। इस बैठक में सभी विपक्षी दल 2019 में बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए को रोकने की रणनीति पर चर्चा करने वाले थे। बैठक के जरिए विपक्ष चुनावी राज्यों में विपक्षी एकता का संदेश देने वाला था। विपक्षी दलों की यह बैठक उस समय में होने वाली थी, जब राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। उन पर बैठक का असर पड़ सकता था। लेकिन इस बैठक के अचानक और अकारण दो माह के लिए टल जाने से विपक्षी एकता के प्रयासों को धक्का तो लगा ही है।
गैर बीजेपी दल टीएमसी, टीडीपी, एनसी, डीएमके, जेडी (एस), सीपीआई, सीपीएम, आप, एसपी, आरजेडी और आरएलडी ‘लोकतंत्र बचाओ, देश बचाओ’ का लक्ष्य लेकर एकसाथ मैदान में उतरने को तैयार हैं। इन सभी दलों का मानना है कि बीजेपी ही इनकी ‘आम दुश्मन’ और मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी है। लेकिन 22 नवंबर को होने वाली इस बैठक को टालने से सभी की मानसिकता और रणनीति पर असर होना स्वाभाविक है।
करीब एक साल पहले विपक्षी दलों को एक ही मंच पर लाने की पहल पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने की थी। ममता ने बीजेपी के सभी विरोधियों को उसके खिलाफ लड़ने के मकसद से एकसाथ एक मंच पर लाने का काम किया था। इसके बाद ममता की इस मुहिम को आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने इस आगे बढ़ाया। अब दोनों प्रमुखता से इन मुहिम में ‘समन्वयक’ की भूमिका निभाने आगे आये हैं।
न केवल विपक्ष और सत्ताधारी भाजपानीत गठबन्धन, बल्कि देश की राजनीति में दिलचस्पी रखने वाले जागरूक लोगों में विपक्षी हलचलों को लेकर जबर्दस्त कौतूहल है। लेकिन इस कौतूहल में 11 दिसम्बर को पाँच राज्यों के नतीजे आने के बाद और वृद्धि हो जायेगी। कुछ भी हो, महागठबन्धन के लिए विपक्ष की प्रतिबद्धता तो तब भी कसौटी पर रहेगी।

मिशेल रामबाण है, भाजपा का
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
अगस्ता-वेस्टलैंड हेलिकाॅप्टरों के सौदे में बिचौलिए का धंधा करनेवाले क्रिश्चियन मिशेल को आखिरकार हमारी सरकार ने धर दबोचा है। वह बधाई की पात्र है। 3000 करोड़ के इस सौदे में लगभग 300 करोड़ रु. की रिश्वत बांटनेवाले इस दलाल को दुबई से पकड़कर अब दिल्ली ले आया गया है। जांच ब्यूरो के अधिकारी इससे अब सारी सच्चाई उगलवाएंगे। फौज के लिए खरीदे गए हेलिकाॅप्टरों के सौदे में किस नेता और किस अफसर को कितने रु. खिलाए गए हैं, ये तथ्य अब इस ब्रिटिश नागरिक मिशेल से उगलवाए जाएंगे। इसके पहले उक्त कंपनी के जो अफसर पकड़े गए थे, उनकी डायरियों से कुछ नाम उजागर हुए हैं। उन नामों को सोनिया गांधी के परिवार से जोड़ा गया था। हमारी फौज के एक बड़े अफसर पर भी रिश्वतखोरी के आरोप हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के हाथ में यह जबर्दस्त हथियार आ गया है। सोनिया गांधी परिवार के विरुद्ध पहले ही ‘नेशनल हेरल्ड’ के मामले में आयकर विभाग जांच कर रहा है। अब मोदी ने सोनिया परिवार की तरफ अपनी चुनाव-सभा में नाम लेकर भी इशारा किया है। हो सकता है कि मिशेल जो भी सच उगले, वह कांग्रेस के गले की फांस बन जाए। यदि वह बोफोर्स की तरह सोनिया परिवार को अदालत में अपराधी सिद्ध न कर पाए तो भी चुनाव के अगले छह सात माह में भाजपा के लिए वह रामबाण सिद्ध हो सकता है। हमारे प्रचारमंत्री इतने तीर चलाएंगे कि कांग्रेस का महागठबंधन चूर-चूर हो सकता है। कांग्रेस के साथ गठबंधन बनाने में हर पार्टी सकुचाएगी। भाजपा यह दावा भी कर सकती है कि जब उसने मिशेल-जैसे ब्रिटिश नागरिक को अपने पंजे में फसा लिया तो विजय माल्या, नीरव मोदी और चोकसे वगैरह तो अपने ही खेत की मूली हैं। उसका भ्रष्टाचार-विरोधी चेहरा देश के मतदाताओं को उसके प्रति उत्साह से भर सकता है। उसने देश की आर्थिक और सामाजिक स्थिति सुधारने के लिए बहुत-सी पहल की हैं। उसमें से कइयों ने तो शीर्षासन कर दिए और कइयों के सुपरिणाम पर्याप्त ठोस और सगुण नहीं हैं। ऐसे में इस तरह की निषेधात्मक नौटंकियां ही अपनी डगमगाती नाव का सहारा बन सकती हैं। इनमें अयोध्या में राममंदिर का निर्माण भी एक जबर्दस्त पैंतरा है। अगस्ता-वेस्टलैंड का मामला रेफल-सौदे को भी मंच के नीचे ढकेल देगा। लेकिन यह न भूलें कि दिल्ली में यदि दूसरी कोई सरकार आ गई तो उसके हाथ में रेफल का ब्रह्मास्त्र होगा। भ्रष्टाचार तो लोकतांत्रिक सरकारों की प्राणवायु है। उसके बिना वे जिंदा रह ही नहीं सकतीं।

नहीं रहे पद्मश्री से अलंकृत पं. श्यामलाल चतुर्वेदी, उनकी आंखों में था एक समृध्द लोकजीवन का स्वप्न
संजय द्विवेदी
भरोसा नहीं होता कि पद्मश्री से अलंकृत वरिष्ठ पत्रकार- साहित्यकार पं.श्यामलाल चतुर्वेदी नहीं रहे। शुक्रवार सुबह ( 7 दिसंबर,2018) उनके निधन की सूचना ने बहुत सारे चित्र और स्मृतियां सामने ला दीं। छत्तीसगढ़ी राजभाषा आयोग के अध्यक्ष रहे श्री चतुर्वेदी सही मायनों में छत्तीसगढ़ की अस्मिता, उसके स्वाभिमान, भाषा और लोकजीवन के सच्चे प्रतिनिधि थे। उन्हें सुनकर जिस अपनेपन, भोलेपन और सच्चाई का भान होता है, वह आज के समय में बहुत दुर्लभ है। श्यामलाल जी से मेरी पहली मुलाकात सन् 2001 में उस समय हुयी जब मैं दैनिक भास्कर, बिलासपुर में कार्यरत था।
मैं मुंबई से बिलासपुर नया-नया आया था और शहर के मिजाज को समझने की कोशिश कर रहा था। हालांकि इसके पहले मैं एक साल रायपुर में स्वदेश का संपादक रह चुका था और बिलासपुर में मेरी उपस्थिति नई ही थी। बिलासपुर के समाज जीवन, यहां के लोगों, राजनेताओं, व्यापारियों, समाज के प्रबुद्ध वर्गों के बीच आना-जाना प्रारंभ कर चुका था। दैनिक भास्कर को री-लांच करने की तैयारी मे बहुत से लोगों से मिलना हो रहा था। इसी बीच एक दिन हमारे कार्यालय में पं. श्यामलाल जी पधारे। उनसे यह मुलाकात जल्दी ही ऐसे रिश्ते में बदल गयी, जिसके बिना मैं स्वयं को पूर्ण नहीं कह सकता। अब शायद ही कोई ऐसा बिलासपुर प्रवास हो, जिसमें उनसे सप्रयास मिलने की कोशिश न की हो। उनसे मिलना हमेशा एक शक्ति देता था । उनसे मिला प्रेम, हमारी पूंजी है। उनके स्नेह-आशीष की पूंजी लिए मैं भोपाल आ गया किंतु रिश्तों में वही तरलता मौजूद रही। मेरे समूचे परिवार पर उनकी कृपा और आशीष हमेशा बरसते रहे हैं। मेरे पूज्य दादा जी की स्मृति में होने वाले पं. बृजलाल द्विवेदी स्मृति साहित्यिक पत्रकारिता समारोह में भी वे आए और अपना आर्शीवाद हमें दिया।
अप्रतिम वक्ताः
पं. श्यामलाल जी की सबसे बड़ी पहचान उनकी भाषण-कला थी। वे बिना तैयारी के डायरेक्ट दिल से बोलते थे। हिंदी और छत्तीसगढ़ी भाषाओं का सौंदर्य, उनकी वाणी से मुखरित होता था। उन्हें सुनना एक विलक्षण अनुभव है। हमारे पूज्य गुरूदेव महामंडलेश्वर स्वामी शारदानंद जी उन्हें बहुत सम्मान देते रहे और अपने आयोजनों में आग्रह पूर्वक श्यामलाल जी को सुनते रहे। श्यामलाल जी अपनी इस विलक्षण प्रतिभा के चलते पूरे छत्तीसगढ़ में लोकप्रिय थे। वे किसी बड़े अखबार के संपादक नहीं रहे, बड़े शासकीय पदों पर नहीं रहे किंतु उन्हें पूरा छत्तीसगढ़ पहचानता है। सम्मान देता रहा। चाहता रहा। उनके प्रेम में बंधे लोग उनकी वाणी को सुनने के लिए आतुर रहते थे। उनका बोलना शायद इसलिए प्रभावकारी था क्योंकि वे वही बोलते थे जिसे वे जीते रहे। उनकी वाणी और कृति मिलकर संवाद को प्रभावी बना देते हैं।
महा परिवार के मुखियाः
श्यामलाल जी को एक परिवार तो विरासत में मिला था। एक महापरिवार उन्होंने अपनी सामाजिक सक्रियता से बनाया । देश भर में उन्हें चाहने और मानने वाले लोग हैं। देश की हर क्षेत्र की विभूतियों से उनके निजी संपर्क थे। पत्रकारिता और साहित्य की दुनिया में छत्तीसगढ़ की वे एक बड़ी पहचान हैं। अपने निरंतर लेखन, व्याख्यानों, प्रवासों से उन्होंने हमें रोज समृद्ध किया । इस अर्थ में वे एक यायावर भी रहे, जिन्हें कहीं जाने से परहेज नहीं रहा। वे एक राष्ट्रवादी चिंतक थे किंतु विचारधारा का आग्रह उनके लिए बाड़ नहीं थी। वे हर विचार और राजनीतिक दल के कार्यकर्ता के बीच समान रूप से सम्मानित रहे। मध्यप्रदेश के अनेक मुख्यमंत्रियों से उनके निकट संपर्क रहे हैं। मंत्रियों की मित्रता सूची में उनकी अनिर्वाय उपस्थिति थी। किंतु खरी-खरी कहने की शैली ने सत्ता के निकट रहते हुए भी उनकी चादर मैली नहीं होने दी। सही मायनों में वे रिश्तों को जीने वाले व्यक्ति थे, जो किसी भी हालात में अपनों के साथ होते हैं।
छत्तीसगढ़ी संस्कृति के चितेरेः
छत्तीसगढ़ उनकी सांसों में बसता था। उनकी वाणी से मुखरित होता था। उनके सपनों में आता था। उनके शब्दों में व्यक्त होता था। वे सच में छत्तीसगढ़ के लोकजीवन के चितेरे और सजग व्याख्याकार थे। उनकी पुस्तकें, उनकी कविताएं, उनका जीवन, उनके शब्द सब छत्तीसगढ़ में रचे-बसे हैं। आप यूं कह लें उनकी दुनिया ही छत्तीसगढ़ था। जशपुर से राजनांदगांव, जगदलपुर से अंबिकापुर की हर छवि उनके लोक को रचती है और उन्हें महामानव बनाती थी। अपनी माटी और अपने लोगों से इतना प्रेम उन्हें इस राज्य की अस्मिता और उसकी भावभूमि से जोड़ता रहा है। श्यामलाल जी उन लोगों में थे जिन्होंने अपनी किशोरावस्था में एक समृद्ध छत्तीसगढ़ का स्वप्न देखा और अपनी आंखों के सामने उसे राज्य बनते हुए और प्रगति के कई सोपान तय करते हुए देखा। आज भी इस माटी की पीड़ा, माटीपुत्रों के दर्द पर वे विहवल हो उठते थे। जब वे अपनी माटी के दर्द का बखान करते थे तो उनकी आंखें पनीली हो जाती थीं, गला रूंध जाता था और इस भावलोक में सभी श्रोता शामिल हो जाते थे। अपनी कविताओं के माध्यम से इसी लोकजीवन की छवियां बार-बार पाठकों को प्रक्षेपित करते रहे हैं। उनका समूचा लेखन इसी लोक मन और लोकजीवन को व्यक्त करता रहा है। उनकी पत्रकारिता भी इसी लोक जीवन से शक्ति पाती रही है। युगधर्म और नई दुनिया के संवाददाता के रूप में उनकी लंबी सेवाएं आज भी छत्तीसगढ़ की एक बहुत उजली विरासत है।
सच कहने का साहस और सलीकाः
पं. श्यामलाल जी में सच कहने का साहस और सलीका दोनों मौजूद थे। वे कहते तो बात समझ में आती थी। कड़ी से कड़ी बात वे व्यंग्य में कह जाते थे। सत्ता का खौफ उनमें कभी नहीं रहा। इस जमीन पर आने वाले हर नायक ने उनकी बात को ध्यान से सुना और उन्हें सम्मान भी दिया। सत्ता के साथ रहकर भी नीर-क्षीर-विवेक से स्थितियों की व्याख्या उनका गुण था। वे किसी भी हालात में संवाद बंद नहीं करते। व्यंग्य की उनकी शक्ति अप्रतिम थी। वे किसी को भी सुना सकते थे और चुप कर सकते थे। उनके इस अप्रतिम साहस के मैंने कई बार दर्शन किए हैं। उनके साथ होना सच के साथ होना था, साहस के साथ होना था। रिश्तों को बचाकर भी सच कह जाने की कला उन्होंने न जाने कहां से पाई थी। इस आयु में भी उनकी वाणी में जो खनक और ताजगी थी वह हमें विस्मित करती थी।मृत्यु के अंतिम दिन तक उनकी याददाश्त बिलकुल तरोताजा रही। स्मृति के संसार में वे हमें बहुत मोहक अंदाज में ले जाते थे। उनकी वर्णनकला गजब थी। वे बोलते थे तो दृश्य सामने होता था। सत्य को सुंदरता से व्यक्त करना उनसे सीखा जा सकता था। वे अप्रिय सत्य न बोलने की कला जानते थे।
लोक से जुड़ी पत्रकारिताः
पं.श्यामलाल चतुर्वेदी और उनकी पत्रकारिता सही मायने में लोक से जुड़ी हुई थी। वे लोकमन, लोकजीवन और ग्राम्य जीवन के वास्तविक प्रवक्ता रहे हैं। वे मूलतः एक आंचलिक पत्रकार थे, जिनका मन लोक में ही रमता था। वे गांव,गरीब, किसान और लोक अंचल की प्रदर्शन कलाओं को मुग्ध होकर निहारते थे, उन पर निहाल थे और उनके आसपास ही उनकी समूची पत्रकारिता ठहर सी गई थी। उनकी पत्रकारिता में लोकतत्व अनिवार्य रहा है। विकास की चाह, लोकमन की आकांक्षाएं, उनके सपने, उनके आर्तनाद और पीड़ा ही दरअसल श्यामलाल जी पत्रकारिता को लोकमंगल की पत्रकारिता से जोड़ते थे। उनकी समूची पत्रकारिता न्याय के लिए प्रतीक्षारत समाज की इच्छाओं का प्रकटीकरण है।
लोक में रचा-बसा उनका समग्र जीवन हमें बताता है कि पत्रकारिता ऐसे भी की जा सकती है। वे अध्यापक रहे, और पत्रकारिता से भी जुड़े रहे । नई दुनिया और युगधर्म जैसे अखबारों से जुड़े रहकर उन्होंने अपने परिवेश, समुदाय और क्षेत्र के हितों को निरंतर अभिव्यक्ति दी थी। मूलतः संवाददाता होने के नाते उनके विपुल लेखन का आंकलन संभव नहीं था, क्योंकि संवाददाता खबरें या समाचार लिखता है जो तुरंत ही पुरानी पड़ जाती हैं। जबकि विचार लिखने वाले, लेखमालाएं लिखने वाले पत्रकारों को थोड़ा समय जरूर मिलता है। श्यामलाल जी ने अपने पत्रकारीय जीवन के दौरान कितनी खबरें लिखीं और उनसे क्या मुद्दे उठे क्या समाधान निकले इसके लिए एक विस्तृत शोध की जरूरत है। उनके इस अवदान को रेखांकित किया जाना चाहिए। उनकी यायावरी और निरंतर लेखन ने एक पूरे समय को चिन्हित और रेखांकित किया है, इसमें दो राय नहीं है। अपने कुछ सामयिक लेखों से भी वे हमारे समय में हस्तक्षेप करते रहे हैं।
गुणों के पारखी-विकास के चितेरेः
श्यामलाल जी पत्रकारिता में सकारात्मकता के तत्व विद्यमान हैं। वे पत्रकारिता से प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने की अपेक्षा तो रखते थे किंतु गुणों के पारखी भी थे। उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा में सिर्फ खबर बनाने के लिए नकारात्मकता को प्रश्रय नहीं दिया। वे मानते थे कि पत्रकारिता का काम साहित्य की तरह ही उजाला फैलाना है, दिशा दिखाना है और वह दिशा है विकास की, समृद्धि की, न्याय की। अपने लोगों और अपने छत्तीसगढ़ अंचल को न्याय दिलाने की गूंज उनकी समूची पत्रकारिता में दिखती है। वे बोलते, लिखते और जीते हुए एक आम-आदमी की आवाज को उठाते, पहुंचाते और बताते रहे हैं। सही मायने में एक संपूर्ण संचारकर्ता थे। वे एक बेहतर कम्युनिकेटर थे, जो लिखकर और बोलकर दोनों ही भूमिकाओं से न्याय करता था। अपने गांव कोटमी सोनार से आकर बिलासपुर में भी वे अपने गांव, उसकी माटी की सोंधी महक को नहीं भूलते। वे भोपाल, दिल्ली और रायपुर में सत्ताधीशों के बीच भी अपनी वाणी, माटी के दर्द और उसकी पीड़ा के ही वाहक होते थे। वे भूलते कुछ भी नहीं बल्कि लोगों को भी याद दिलाते थे कि हमारी जड़ें कहां हैं और हमारे लोग किस हाल में हैं।
श्रेष्ठ संचारक-योग्य पत्रकारः
श्यामलाल जी एक योग्य पत्रकार थे किंतु उससे बड़े संचारक या संप्रेषक थे। उनकी संवाद कला अप्रतिम थी। वे लिख रहे हों या बोल रहे हों। दोनों तरह से आप उनके मुरीद हो जाते हैं। कम्युनिकेशन या संचार की यह कला उन्हें विरासत में मिली है और लोकतत्व ने उसे और पैना बनाया है। वे जीवन की भाषा बोलते थे और उसे ही लिखते थे। ऐसे में उनका संचार प्रभावी हो जाता था। वे सरलता से बड़ी से बड़ी बात कह जाते थे और उसका प्रभाव देखते ही बनता था। आज जब कम्युनिकेशन को पढ़ाने और सिखाने के तमाम प्रशिक्षण और कोर्स उपलब्ध हैं, श्यामलाल जी हमें सिखाते थे कि कैसे ‘लोक’ किसी व्यक्ति को बनाता है। श्यामलाल जी इस मायने में विलक्षण थे। हम सबके बीच श्यामलाल जी की उपस्थिति सही मायने में एक ऐसे यात्री की उपस्थिति थी, जिसकी बैचेनियां अभी खत्म नहीं हुई थीं। मृत्यु के अंतिम दिन तक उनकी आंखों में वही चमक, वाणी में वही ओज और जोश मौजूद था जिसका सपना उन्होंने अपनी युवा अवस्था में देखा रहा होगा। आज भी अखबारों या पत्रिकाओं में कुछ अच्छा पढ़कर अपनी नई पीढ़ी की पीठ ठोंकना उन्हें आता था। वे निराश नहीं थे, हताश तो बिल्कुल नहीं। वे उम्मीदों से भरे हुए थे, उनका इंतजार जारी था। एक उजले समय के लिए… एक उजली पत्रकारिता के लिए.. एक सुखी-समृद्ध छत्तीसगढ़ के लिए…आत्मनिर्भर गांवों के लिए.. एक समृध्द लोकजीवन के लिए। क्या हम श्यामलाल जी के सपनों के साथ अपने सपनों को जोड़ने के लिए तैयार हैं?

क्या प्रतिमाओं की ऊँचाईयाँ तय कर सकती हैं महापुरुषों के कद ?
अजित वर्मा
दलीय स्वार्थों और अपनी-अपनी खब्तों के शिकार नेता अब राष्ट्रीय नेताओं ही नहीं, ‘भगवान’ के रूप में पूजे जाने वाले आराध्यों की ऊँची-ऊँची प्रतिमाओं की स्थापना की अप्रिय, अवांछित और सर्वथा अनुचित होड़ में जुट गए हैं। राष्ट्रीय मुद्दों को नेपथ्य में ढकेल कर भावनाओं के उभार में जुटे रहना नेताओं का शगल हो गया है। इससे क्षेत्रीय टकराव की स्थितियां भी उत्पन्न हो रही हैं।
वैसे, एक ऊँची प्रतिमा की घोषणा मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी की है और ओंकारेश्वर में आदि शंकराचार्य की विराट प्रतिमा एक मिथ्या और झूठे के आधार पर बनवाना चाहते हैं। इसी तरह उत्तरप्रदेश के राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पसंदीदा मुख्यमंत्री आदित्यनाथ सिंह योगी ने उत्तरप्रदेश के विवादों का केन्द्र बना दिये गये शहर अयोध्या में श्रीराम की एक विराट प्रतिमा स्थापित करने की घोषणा कर रखी है। जाहिर है कि भाजपा के नेता ही हमारी मूर्ति -बड़ी-हमारी मूर्ति बड़ी की होड़ में जुटे हैं। इस होड़ का हश्र क्या होगा किसी को नहीं पता।
गुजरात में सरदार पटेल की विराट प्रतिमा की स्थापना पर मची छींटाकशी के बाद अब महाराष्ट्र में शिवाजी की प्रतिमा को लेकर बवाल मचा है। शिवसेना कह रही है कि सरदार बल्लभभाई पटेल की प्रतिमा ऊंची साबित करने के लिए शिवाजी की प्रतिमा की ऊंचाई को कम करना ‘संकुचित, विकृत मानसिकता’ की निशानी है। शिवसेना ने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फड़णवीस से मांग की है वे यह घोषणा करें कि मुंबई तट पर निर्माण के लिए प्रस्तावित मराठा छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा दुनिया में सबसे ऊंची होगी और वह इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह से वे नहीं डरेंगे।
शिवसेना के अनुसार राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) के महाराष्ट्र प्रमुख जयंत पाटिल ने दावा किया है कि पटेल की प्रतिमा ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा बनी रहे इसलिए मुंबई में समुद्र में बननेवाली छत्रपति शिवाजी की प्रतिमा की ऊंचाई कम कर दी गई है।
शिवसेना ने अपने मुखपत्र ‘सामना’ में लिखा है कि मुख्यमंत्री ने जिस हिम्मत से मराठा आरक्षण की घोषणा की, उसी साहस से शिवाजी की दुनिया की सबसे ऊंची प्रतिमा के निर्माण की घोषणा करनी चाहिए। शिवसेना ने फड़णवीस को याद दिलाया कि कैसे मुम्बई को महाराष्ट्र का ही हिस्सा बनाने के लिए तत्कालीन केंद्रीय वित्तमंत्री चिंतामणराव देशमुख ने (तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल) नेहरू को अपना इस्तीफा सौंप दिया था।
पार्टी ने कहा है कि सरकारी तिजोरी के दरवाजे ‘स्टैच्यू ऑफ यूनिटी’ के लिए हमेशा खुले रखे गए लेकिन महाराष्ट्र में शिवाजी के भव्य स्मारक की नींव भी नहीं रखी गई है। शिवसेना ने सवाल किया है कि कहीं ऐसी कोई अंदरूनी योजना तो नहीं थी। सरदार की सर्वाधिक ऊंचाई वाली प्रतिमा पहले बने और उनके सामने शिवाजी जैसा युगपुरुष बौना साबित हो? और क्या उसी के अनुसार शिवाजी के स्मारक को लटकाए रखा गया है? लेख में यह भी लिखा गया है कि शिवाजी की प्रतिमा सबसे बड़ी और ऊंची ही होनी चाहिए। इसके लिए फड़णवीस सरकार और महाराष्ट्र के सभी दल के नेताओं को एक होना चाहिए। सवाल यह है कि क्या अब मूर्तियों की ऊँचाई महापुरुषों के ऐतिहासिक कद का निर्धारण करेगी?

अमानवीयता की पराकाष्ठा
डॉक्टर अरविन्द जैन
आदमी का मनुष्य बनना बहुत कठिन हैं और मनुष्य से मानव बनना और भी कठिन हैं। पर मानव से दानव बनना और भी सरल हैं ,जैसे साक्षर का विपरीत राक्षस होता हैं।कभी कभी जो वर्तमान में घटनाएं घटित हो रही हैं वे विपरीत दिशाओं की हैं ,एक जगह मानवीय मूल्यों की बात की जाती हैं तो दूसरी तरफ दानवीय कृत्य /अमानवीय घटनाएं इतनी अधिक मात्रा में हो रही हैं की मानवीयता को घुटन होने लगी हैं।पापोँ का प्रचलन बहुत अधिक हैं जैसे हिंसा ,झूठ चोरी कुशील परिग्रह और इसके साथ क्रोध मान ,माया और लोभ।पूरा जीवन चक्र इन्ही घटनाओं से चल रहा हैं।वैसे ये नयी विषय वस्तुएं नहीं हैं।ये अनादिकाल से चल रहा हैं और चलेगा ,ये सब बातें व्यक्तिगत के साथ सामाजिक और राष्ट्रीय होती हैं।और जब ये बहुतायत से होती हैं तब अधिक चिंतनीय और सोचनीय होने लगी हैं।
हमारे संचार /सूचना के माध्यम इनसे भरे पड़े रहते हैं और उनके द्वारा जो समाचार दिए जाते हैं उनसे समझ में आता हैं की अब अनैतिकता ,अपराध का कितना अधिक प्रचलन बढ़ गया हैं।लगता नहीं हैं की हम सभ्य समाज में रह रहे/जी रहे हैं या मानसिक दिवालियापन के कारण अमानुष होकर इतिहास के पूर्व, पाषाण काल में रह रहे हैं।जी हाँ जब हम अपने खून /संतान को सुरक्षा नहीं दे सकने में समर्थ हैं या हो चुके तब उनको या उनके परिवार को किस श्रेणी में रखे ?
अभी एक आठवीं की पढ़ने वाली लड़की स्कूल से लौटते समय घर के नजदीक दो दिन एक खाली मकान में भूखी लाँघी छुपी रही।पुलिस और परिवार जन ढूढते रहे।मिलने पर जो परिस्थियाँ ब्यान की गयी वे अत्यंत हैरान करने वाली।बच्ची को न परिवार वाले रखने को तैयार हैं और ननिहाल कहता हैं की वे माँ या बच्ची में से किसी एक को रखने को तैयार हैं ! परिवार में दिन रात की कलह के कारण उस अबोध बालिका किस मानसिक पीड़ा से जूझकर इस प्रकार का कदम उठाने को मजबूर होना पड़ा।ईश्वर की कृपा से किसी बदनीयती की निगाह नहीं पडी अन्यथा वह न घर की रहती और न घाट की !
पत्नी द्वारा अपने प्रेमी और दोस्त के सहयोग से अपने पति की हत्या करना ,पुत्र/पुत्री द्वारा धन के लालच में माँ बाप को निराश्रित आश्रम में छोड़ आना ,पुत्री द्वारा पिता की मृत्यु के समय न जाना और पडोसी से कहना आप उनकी अंतिम क्रिया की वीडियो भेज देना और और उनकी अस्थियों को कोरियर से भेज देना ,माँ पिता को बंद कोठरी में बंद करके रखना आदि आदि अनेकों घटनाये पढ़ने /देखने मिलती तब लगता है की हम सुशिक्षित समाज में रह रहे हैं या असभ्य समाज में।
इसका कितना मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया गया हैं और जाता हैं पर फल निर्थक रहते हैं।यह समस्या से अपढ़ के अलावा पढ़े लिखे और उच्च वर्ग ,श्रेष्ठि वर्ग तक अछूता नहीं हैं।विवाद का स्थान सर्वव्यापी हैं चाहे आज विश्व के सबसे धनवान भी इन्ही पीड़ाओं से जूझ रहे हैं.और गरीब के यहाँ होना कोई नयी बात नहीं हैं।
इसका अर्थ यह हुआ की ये समस्याएं व्यक्ति /परिवार प्रधान अधिक होती हैं।आज सहनशक्ति नहीं रही ,अहंवाद का स्थान बहुत हैं। अर्थ को अधिक प्राथमिकता देना इसका एक पहलु यह हैं की किसी का भी समय एक सा नहीं होता हैं।आज कोई जीव गरीब ,निराशा ,हताशा में जी रहा हैं उसका जब पुण्य का उदय होगा तब वह उन सबको परुषार्थ कर उनका हितकारी होगा।किसी भी व्यक्ति को कभी तुच्छ मत समझो। होता यह हैं जब कोई व्यक्ति बीमार ,बेरोजगार हो जाता हैं तब वह परिवार के लिए भारयुक्त हो जाता हैं तब उसे सब तिरस्कार करने लगते हैं।चाहे बेटा हो या बेटी पत्नी हो या भाई नाती हो या पोते।पर उस समय हमें बहुत उदारता की जरुरत रखनी चाहिए।पर उतावली में लिया गया निर्णय बहुत हानिकारक होता हैं।उस बिटिया की मनोदशा एक दिन में नहीं हुई होगी।लगातार प्रतारणा के कारण उसने इतना बड़ा कदम उठाया।इस समय उस बिटिया को बहुत मानसिक सहारा की जरुरत हैं। एक बात हमेशा याद रखना चाहिए जिसने जन्म लिया हैं उसका भरण पोषण करने वाला दूसरा ही होता हैं आप और हम एक निमित्त मात्र हैं।जब आप अपने खून या निकट के साथी नहीं होंगे तब आपका कौन होगा ,इतिहास की हमेशा पुर्नावृत्ति होती हैं।आज दादा दादी या नाना नानी को भार हो गयी कल उनका भी बुढ़ापा में उनको भी आश्रित होना पड़ेगा ,तब जो बोया होगा वही काटना पड़ेगा।
यह संसार क्षणिक और अस्थायी हैं और मानव जीवन में जितना जिसका उपकार करो उतना लाभदायक जबकि अपनी संतानों के प्रति इस प्रकार का भाव कितना चिंतनीय हैं।और अन्य कारणों से जो हत्याएं हो रही हैं उनमे चारित्रिक।नैतिक गिरावट का कारण हैं।आज सेक्स के कारण अधिकता से हत्याएं हो रही हैं।सेक्स अब एक संक्रामक रोग हो गया हैं और इससे अब कोई अछूता नहीं रहा।इसके कारण सब मर्यादा समाप्त हो गयी।धन का कारण ,अधिक संग्रह के कारण भी हिंसाए होती हैं ,संसार में जितने भी कानून बनाये गए हैं वे सब पंचपापों के लिए बनाये गए और हम दिन रात पांच पापोँ की ही घटनाएं देखते हैं।
इनका मात्र बचाव हैं अहिंसा सत्य अचौर्य शील व्रत और अपरिग्रह का पालन करना ,अतः सब पारिवारिक जनो को अपनी संतानों के प्रति प्रेम भाव रखे ,उन्हें संस्कारित करे ,और उन्हें अच्छे वातावरण में पालें जो भविष्य के अभिभावक होंगे ,इस प्रकार संस्कारित परिवार बनेगा जिससे स्वयं ,परिवार, समाज ,देश सुख शांतिदायक बनेगा।
पारिवारिक कलह से घर नरकधाम बन जाता हैं
सब स्वर्ग जैसा सुख चाहते हैं पर स्वर्गवासी नहीं होना चाहते
एक एक इकाई से परिवार बनता हैं
सुखद नीव से ही सुखद भवन बनेगा
किसी को कष्ट न हो और न दो
जीवन इतना आपाधापी का हो गया हैं
उस पर ये बुराइयां पाल लो
तो भविष्य कितना दुखद होगा
सोचो समझो गौर करो और जीवन सुखद बनाओ

विचारों और जीवनशैली को आधार बनाकर जोड़ें रिश्ते

नीतू जायसवाल

समाज में परिवार में बिखराव की घटना तेजी से बढ़ रही हैं। पिछले दिनों देश में ऐसी घटनाएं घटित हुईं, लेकिन कुछ घटनाओं ने देश का ध्यान खींचा है। कानपुर के सिटी एसपी की आत्महत्या। बिहार में कलेक्टर का तलाक देना, बिहार के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री और लालू प्रसाद यादव के बेटे का 6 महीने में ही तलाक हो जाना। इन घटनाओं ने कई सवालों को जन्म दिया है। इन घटनाओं को कैसे रोके जा सकता है। आलेख में पढि़ए….बहुत सारी बातें है ऐसी घटनाओं के पीछे गलती किसी एक की नहीं होती। हमारा समाज पितृसत्तात्मक रहा है। लड़कियों को सदैव दोयम दर्जा दिया गया। बहुओं की स्थिति तो और भी बुरी रही है। दहेज के दानव ने कितनी ही बहुओं को जिंदा लील लिया है। मैंने ऐसे कई केस तो पिछले समय मे खुद देखे है। अब लड़कियां पढऩे लगी, नौकरी करने लगी साथ ही परिवार की जिम्मेदारियां भी संभालने लगी हैं, लेकिन फिर भी उसके हिस्से की आजादी उसे पूर्णत: कहाँ मिली? यहां तक की उनके वेतन पर भी उसका अधिकार नहीं रहता। यहां एक बात जरूर है कि इस स्थिति में अब काफी हद तक बदलाव आया है। महिलाओं के लिए बनाए गए कानूनों ने उन्हें थोड़ा साहस तो दिया है परंतु उसके सही उपयोग कम ही लोग कर पाये। दुरुपयोग ज्यादा दिखाई देने लगा है। महिला कानूनों के दुरुपयोग के कई मामले सामने आते हैं, जहां पर पति और ससुराल वालों को प्रताडि़त किया जाने लगा है। वास्तव में जो प्रताडि़त है वो आंसू बहाकर आज भी जी रही हैं और कुछ स्वच्छन्दता की चाह में रोड़ा बनते परिवार पर आरोप लगाए जा रही है। बहुत कुछ है इन सब बातों के पीछे? पारिवारिक संस्कार और समाज की मानसिकता सब बदलनी चाहिए। शादी न तो लड़की की सुंदरता को या मोटे दहेज के पैमाने पर की जाए, न ही लड़कों की मोटी आय देखकर। बच्चों में परिवार के संस्कारों की गहरी छाप होती है। व्यकितत्व पर तो लगभग समान विचारों और जीवनशैली को आधार बनाकर रिश्ते जोड़े जाने चाहिए। शादी के पहले ही एक-दूसरे के विचारों पर चर्चा होनी चाहिए। लड़के, लड़कियों खुलकर अपना अतीत, वर्तमान, भविष्य पर चर्चा करनी चाहिए, तभी उनका रिश्ता जोड़ा जाना चाहिए। छाछ दिखे तो भी फूंक-फूंककर पीना चाहिए। यद्यपि उसके बाद भी शादी के बाद एक-दूसरे की इच्छाओं का सम्मान करके आपसी समझदारी से रिश्ता निभाया जाना चाहिए। थोड़ा बहुत समझौता दोनों ही ओर से किया जाना चाहिए। लड़की के माता-पिता का अनावश्यक हस्तक्षेप न हो, न ही ससुराल में अत्यधिक दबाव की स्थिति बनाई जाए। बहु को मानसम्मान और प्यार मिलना चाहिए। सारी परिस्थितियों में जरा भी सुधार न दिखे, कुछ भी ठीक न हो रहा हो तो तलाक जैसा कठोर कदम उठाना भी गलत नहीं है। कई बार सिर्फ एक पक्ष ही गलत होता है तब वाकई परिवार की स्थिति विकट हो जाती है। नहीं तो अधिकतर दोनों ही पक्ष थोड़े बहुत गलत होते ही हैं। कोई भी एक नियम सब जगह लागू नहीं होता है। समाज और परिवार के संस्कारों पर ही बहुत कुछ निर्भर है। यह जिम्मेदारी माता-पिता की है कि वे अपने बेटे-बेटियों को संस्कार के ऐसे सांचे में ढालें कि वे रिश्तों की मजबूती को समझें और जीवन में होने वाले विवाद का हल खुद निकालने में सक्षम हों। इसी पहल से ही परिवार बच पाएंगे।

रिजर्व बैंक : गवर्नर उर्जित पटेल का घुटने टेकना 

अजित वर्मा 

पिछले दिनों रिजर्व बैंक के सेंट्रल बोर्ड की बैठक 9 घंटे तक चली। आरबीआई बोर्ड बैठक में चार डिप्टी गवर्नर, सरकार के नॉमिनी इकोनॉमिक सेक्रेटरी एस सी गर्ग और फाइनेंशियल सर्विस सेक्रेटरी के अलावा गैर आधिकारिक डायरेक्टर एस गुरुमूर्ति और सतीश मराठे ने भाग लिया। रिजर्व बैंक के रिजर्व से सरकार को पैसे देने और लिक्विडिटी बढ़ाने पर चर्चा हुई। कहा जा रहा है कि बैठक में फैसला लिया गया है कि सरकार को आरबीआई रिजर्व से पैसे देने के विषय में विचार करने के लिए कमेटी बनेगी और बाजार में लिक्विडिटी यानी पैसे का फ्लो बढ़ाने के लिए कदम उठाए जाएंगे। बोर्ड की अगली मीटिंग 14 दिसंबर को होगी। रिजर्व बैंक द्वारा गठित की जाने वाली कमेटी इस बात पर विचार करेगी कि आरबीआई के सरप्लस को सरकार को कैसे दिया जा सकता है। अगर इन अखबारों को आधार माने तो इस निष्कर्ष पर सहज ही पहुँचा जा सकता है कि रिजर्व बैंक अपने सरप्लस को सरकार को धन उपलब्ध कराने के लिए तैयार हो गया है और कमेटी को सिर्फ यह तय करना है कि यह धन कैसे दिया जाए। स्पष्टत: यह रिजर्व बैंक के गवर्नर उर्जित पटेल द्वारा सरकार के सम्मुख घुटने टेकने जैसा ही है। उनके रुख में यह बदलाव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी से मिलने के बाद ही आया है, क्योंकि इससे पहले वे सरप्लस  में से धन देने तैयार नहीं थे। जबकि सरकार द्वारा रिजर्व बैंक को लिखे गए तीन पत्रों के बाद रिजर्व बैंक और केन्द्र सरकार टकराव की मुद्रा में आ गये थे। कहा जा सकता है कि सरकार रिजर्व बैंक के साथ मनमानी करने में कामयाब  हो गई है। अब देखना है कि रिजर्व बैंक सरकार कब, कैसे और कितने पैसे देता है और देश की आर्थिक सेहत पर उसका क्या प्रभाव होता है।

जी-20 में सफल कूटनीति
डॉ. वेदप्रताप वै‎दिक
अर्जेटिंना की राजधानी ब्यूनस आयर्स में चल रहे जी-20 सम्मेलन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहली सफलता तो यह है कि उन्होंने इस 20 राष्ट्रीय संगठन का 2022 का सम्मेलन भारत में करवाने का वायदा ले लिया। 2022 में भारत की आजादी का वह 75 वां साल होगा। इस 20 सदस्यीय संगठन में दुनिया के सारे शक्तिशाली राष्ट्र सक्रिय हैं और उनके अलावा भारत, जापान, इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका जैसे देश भी हैं, जो निकट भविष्य में महाशक्ति बन सकते हैं। इन सब राष्ट्रों का लक्ष्य यह होता है कि वे एक जगह बैठकर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय, व्यापारिक, आर्थिक और कानूनी समस्याओं पर विचार करें और उन्हें हल करने के रास्ते निकालें। ये 19 राष्ट्र और 20 वां यूरोपीय संघ मिलकर दुनिया का 85 प्रतिशत व्यापार करते हैं और 80 प्रतिशत सकल उत्पाद के ये मालिक हैं। इस सम्मेलन में मेादी के भाषणों का जोर इसी बात पर रहा कि नीरव मोदी, चोकसी, माल्या जैसे आर्थिक अपराधियों के खिलाफ कार्रवाई करने में सारे सदस्य राष्ट्र एक दूसरे का सक्रिय सहयेाग करें। मोदी ने अपना नौ-सूत्री कार्यक्रम भी पेश किया। दुनिया के जो राष्ट्र ऐसे अपराधियों को अपने यहां शरण देते हैं, पता नहीं, उन पर मोदी का कितना असर होगा। लेकिन असर होने का माहौल तो जरुर बनेगा। मोदी का दूसरा बड़ा हमला आतंकवाद पर था, खासकर उस आतंकवाद पर जो दूसरे देशों को निर्यात किया जाता है। मोदी ने आतंकवाद को प्रोत्साहित करने ओर समर्थन करनेवाली शक्तियों के खिलाफ सख्त कार्रवाई करने की अपील की है। इस तरह की अपीलें भारत के पिछले प्रधानमंत्री भी कर चुके हैं लेकिन आजकल उनका असर हेाता इसलिए दिख रहा है कि पश्चिम के शक्तिशाली राष्ट्रों के अंदर भी इधर आतंकवादी घटनाएं जोरों से होने लगी हैं। भारत के इन दो प्रमुख लक्ष्यों को साधने के अलावा मोदी ने प्रमुख राष्ट्रों के नेताओं से भी विशेष भेंट की। दो त्रिपक्षीय भेंटों ने विशेष ध्यान खींचा। एक भेंट अमेरिका के डोनाल्ड ट्रंप, जापान के शिंजो एबे से और दूसरी रुस के व्लादिमीर पुतिन और चीन के शी चिन फिंग के साथ। लगे हाथ उन्होंने वहां ‘ब्रिक्स’ की भी एक बैठक कर ली। यूरोपीय संघ और संयुक्तराष्ट्र संघ के प्रमुख से भी बात हो गई। जितनी मुलाकातों में एक माह लग जाता, वे दो दिन में हो गईं। यदि विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को मोदी साथ में ले जाते, तो सोने में सुहागा हो जाता।

अयोध्या में पौराणिक महत्व के धार्मिक स्थल जर्जर
सनत जैन
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम आस्था के विषय हैं, वह भगवान भी हैं। माता सीता भगवान शिव और भगवान राम के पिता दशरथ से जुड़े पौराणिक महत्व के धर्मस्थल अयोध्या में जर्जर हो चुके हैं। इनकी सुध लेने के लिए कोई साधु-संत, महंत आगे नही आ रहे हैं। ना ही विश्व हिंदू परिषद को इसकी चिंता है। धर्म स्थली अयोध्या इस कलयुग में जैसा रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने कलयुग का जो वर्णन किया था। वैसी ही स्थिति अब अयोध्या अब देखने को मिल रही हैं।
अयोध्या में 500 से ज्यादा मंदिर जर्जर हो चुके हैं। 182 मंदिरों को तोड़ने के आदेश, अयोध्या की नगर निगम ने साधु सन्यासियों को दिए हैं। नगर निगम प्रशासन, उत्तर प्रदेश सरकार, पौराणिक महत्त्व के भगवान राम से जुड़े मंदिरों को सुरक्षित नहीं कर पा रही है। इससे बड़ी विडंबना और क्या हो सकती है। यहां पर 600 साल पुराना चतुर्भुजी मंदिर है। स्कंद पुराण में वर्णित शीश महल का मंदिर है। मान्यता है, कि राजा दशरथ ने सीता माता को मुंह दिखाई में यह भवन दिया था। अब यह मंदिर बुरी तरह जर्जर है। यहां पर कोई दर्शन करने भी नहीं आता। राम के पिता महाराजा दशरथ की यज्ञशाला का मंदिर भी लगभग 500 वर्ष पुराना है। महंत विजय दास के अनुसार राजा दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के लिए यहां यज्ञ किया था। अयोध्या में श्री रामनिवास मंदिर भी जर्जर अवस्था में पहुंच चुका है। इस स्थान पर भगवान शिव साधु के वेश में जब भगवान राम का जन्म हुआ था। तब उनके दर्शन करने के लिए भगवान शिव यहां आए थे। यह मंदिर लगभग 250 साल पुराना है। किंतु यह भी काफी जर्जर हो चुका है। भगवान राम की अयोध्या पौराणिक और ऐतिहासिक तथ्यों से जुड़ी हुई धर्म नगरी है। यहां पर जो मंदिर और पौराणिक महत्व के अवशेष हैं। उन्हें बचाने और संरक्षित करने के लिए यहां की हिंदू संगठन कभी आगे नहीं आए।
मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम की जन्म स्थली में मंदिर को लेकर पिछले 30 वर्षों में हिंदू समाज के बीच जन जागृति पैदा करके, इसे एक आंदोलन का स्वरूप दिया गया। जो लोग राम के नारे लगा रहे हैं। राम को आस्था का विषय बता रहे हैं, वही लोग अयोध्या के राम राज और भगवान राम से जुड़े पौराणिक महत्व के स्थलों की अनदेखी कर रहे हैं। अयोध्या के वह साधु संत, जो वास्तव में भगवान राम के प्रति आस्था रखते हुए मर्यादाओं में रहते हुए 24 घंटे भगवान राम की आराधना में लगे हैं। वह अयोध्या के जर्जर मंदिरों की स्थिति को देखकर काफी व्यथित हैं।
भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि और राम मंदिर के निर्माण को लेकर सारे देश में आंदोलन चलाया। उसके बाद साधु-संतों अयोध्या और आसपास रहने वाले हिंदुओं के मन में एक विश्वास जगा था, कि भगवान राम की जन्म स्थली अयोध्या का पुनरुद्धार होगा। पिछले 30 वर्षों से राजनीति का केंद्र बने, अयोध्या में देश के बड़े बड़े नेता आए। बड़े-बड़े धर्माचार्य आए। इसके बाद भी भगवान राम की इस अयोध्या नगरी का उद्धार नहीं हो पा रहा है। इसको लेकर साधु संतों में भी अब निराशा का भाव उत्पन्न हो रहा है। रामलला के मंदिर का निर्माण जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी भगवान राम की नगरी अयोध्या में भगवान शिव, राजा दशरथ, मां सीता, हनुमान और उनसे जुड़ी हुई पौराणिक धरोहरों को जिसमें कोई विवाद नहीं है। उन्हें संरक्षित करने में कोई भी कदम ना उठाया जाना, लोगों को उद्वेलित कर रहा है।
अयोध्या नगर निगम द्वारा 182 जर्जर इमारतों को जो मंदिर है। उन्हें तोड़ने के आदेश देना, और उन जर्जर निर्माण (मंदिरों) को नहीं तोड़ा गया, तो नगर निगम प्रशासन द्वारा उन्हें जबरन गिराए जाने की धमकी देने से अयोध्या में रहने वाले साधु संत काफी उद्वेलित हैं। उनका कहना है कि केंद्र में भाजपा की सरकार है। राज्य में भाजपा की सरकार है। योगी आदित्यनाथ मुख्यमंत्री हैं। नगर निगम भी भाजपा की है। इसके बाद भी अयोध्या में मंदिरों की यह जर्जर स्थिति हिंदू समाज के लिए शर्मनाक है। रामलला जहां वर्तमान में विराजमान हैं। यदि वहां भव्य मंदिर का निर्माण हो भी जाएगा, और अयोध्या के पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के मंदिर यदि नहीं रहेंगे। तो अयोध्या का यश कैसे बना रहेगा। राम मंदिर को लेकर पिछले तीन दशक में जो राजनीति हुई है। उसको लेकर राम मंदिर निर्माण की जो आशा आम लोगों में बनी थी, वह भी निराशा में बदलती जा रही है। लोगों को विश्वास था कि भारतीय जनता पार्टी और विश्व हिंदू परिषद राम मंदिर का निर्माण कराकर अयोध्या के वैभव को फिर से पुनः स्थापित करेगी। किंतु केंद्र एवं राज्य में पूर्ण बहुमत की सरकार, ताकतवर प्रधानमंत्री होने के बाद भी रामलला के मंदिर निर्माण का काम शुरू नहीं हो सका। इसके साथ ही अयोध्या नगरी के पौराणिक और ऐतिहासिक महत्व के मंदिर जर्जर हैं। भगवान राम की जन्मभूमि पर मंदिरों की जमीनों पर लोग कब्जे कर रहे हैं, बेच रहे हैं। उसके बाद भी किसी का ध्यान अयोध्या में नहीं है। केवल अपने अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए भगवान राम के नाम का उपयोग करने से अब लोगों की आस्था गड़बडाने लगी है। यही कारण है, कि राम मंदिर को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना द्वारा राम मंदिर निर्माण को लेकर जो नई कवायद शुरू की गई है। उस पर आम जनता की अब कोई प्रतिक्रिया दिखाई नहीं पड़ रही है।

शिवसेना के ‘अयोध्या दांव’ के निहितार्थ
निर्मल रानी
गत् 25 नवंबर की तारीख एक बार फिर पूरे देश के लिए तनाव की स्थिति पैदा करने वाली प्रतीत हो रही थी। खासतौर पर दलाल व बिकाऊ टीवी चैनल्स द्वारा चारों ओर ऐसा वातावरण पैदा किया जा रहा था गोया 6 दिसंबर 1992 की पुनरावृत्ति होने वाली हो। एक ओर तो उद्धव ठाकरे पहली बार अयोध्या पधार रहे थे। यहां यह जि़क्र करना ज़रूरी है कि ठाकरे परिवार के सदस्य चाहे वे बाल ठाकरे हों, उद्धव ठाकरे या फिर इनके पारिवारिक प्रतिद्वंद्वी राज ठाकरे। यह सभी नेता चूंकि अपने-आप को मुंबई का ही शेर समझते हैं और अपनी पूरी राजनीति महाराष्ट्र तथा मराठा क्षेत्रवाद पर आधारित रखते हैं इसलिए इन लोगों का मुंबई से बाहर जाना यहां तक कि राजधानी दिल्ली में भी पधारना नाममात्र ही होता है। परंतु 25 नवंबर को शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे अपने दल-बल के साथ केवल इसलिए अयोध्या पहुंचे ताकि वे मंदिर निर्माण की तिथि घोषित करा सकें। उद्धव ठाकरे के अनुसार वे सोते हुए कुंभकरण को जगाने अयोध्या आए थे। ठाकरे के राजनैतिक कदमों से साफ ज़ाहिर हो रहा है कि वे स्वयं को भाजपा व संघ परिवार से भी बड़ा रामभक्त और मंदिर निर्माण में सबसे अधिक आक्रामक व अग्रणी दिखाई देना चाहते हैं। सवाल यह है कि आ‎खिर क्या वजह है कि भारतीय जनता पार्टी के वैचारिक सहयोगी होने के बावजूद ठाकरे की शिवसेना व संघ पोषित भाजपा के मध्य राम मंदिर निर्माण को लेकर ज़बरदस्त प्रतिस्पर्धा दिखाई दे रही है?
दरअसल भारतीय जनता पार्टी की क्षेत्रीय दलों से स्वार्थपूर्ण गठबंधन की राजनीति को शिवसेना भांप चुकी है। वह यह बखूबी समझती है कि किस प्रकार भाजपा देश के विभिन्न राज्यों में अपने पैर जमाने के लिए किसी लोकप्रिय क्षेत्रीय राजनैतिक दल से गठबंधन कर उस राज्य में अपने पैर पसारती है और आगे चलकर यही भाजपा उसी क्षेत्रीय दल से प्रतिस्पर्धा की स्थिति में आ खड़ी होती है और धीरे-धीरे उसी क्षेत्रीय दल को निगलने की कोशिश भी करने लगती है। हिंदुत्ववाद को लेकर वैचारिक समानता होने के बावजूद शिवसेना, भारतीय जनता पार्टी के इस जाल में उलझना नहीं चाहती। हां इतना ज़रूर है कि महाराष्ट्र में हिंदुत्ववादी मतों का बिखराव रोकने के उद्देश्य से समय-समय पर विधानसभा व लोकसभा चुनावों के समय केवल भाजपा के साथ गठबंधन ज़रूर करती रहती है। यहां यह भी बताना ज़रूरी है कि कई बार शिवसेना ने भाजपा के साथ अपनी शर्तों पर चुनावी गठबंधन किया है भाजपा की शर्तों पर नहीं। गोया शिवसेना भाजपा को यह एहसास दिला पाने में लगभग सफल रही है कि महाराष्ट्र में भाजपा को तो शिवसेना की मदद की ज़रूरत पड़ सकती है परंतु शिवसेना भाजपा की मोहताज नहीं।
वर्तमान समय में देश की राजनीति किस करवट बैठ रही है यह सेना प्रमुख उद्धव ठाकरे भी बखूबी देख रहे हैं। वे यह भी जानते हैं कि उग्र, आक्रामक तथा क्षेत्रवादी मराठा राजनीति करने के बाद उनका राष्ट्रीय जनाधार बना पाना आसान काम नहीं है। दूसरी ओर उत्तर प्रदेश व बिहार के मेहनतकश लोगों के साथ शिवसेना के कार्यकर्ता समय-समय पर किस निर्दयता से पेश आते हैं यह भी किसी से छुपा नहीं है। ठाकरे यह भी देख रहे हें कि जीएसटी, नोटबंदी , मंहगाई, डीज़ल-पैट्रोल की कीमतों में हो रही बेतहाशा वृद्धि, डॉलर के मुकाबले भारतीय मुद्रा का अवमूल्यन तथा बहुचर्चित राफेल विमान घोटाला जैसे अनेक विषय 2019 में होने वाले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी के लिए परेशानी का सबब बन सकते हैं। ऐसे में शिवसेना स्वयं को भाजपा से अलग करने के ‘लाभदायक बहाने’ तलाश करने में लगी है। ज़ाहिर है स्वयं को राम मंदिर के निर्माण में सबसे अग्रणी बताना व इसके लिए सबसे गंभीर व व्याकुल दिखाई देना भी ठाकरे को इस समय फायदे का सौदा महसूस हो रहा है। ठाकरे यह भी सोच रहे हैं कि उत्तर प्रदेश व बिहार जैसे देश के दो बड़े राज्य जो कें्रदीय सत्ता के निर्माण में अपनी सबसे महत्वूपर्ण भूमिका अदा करते हैं इन राज्यों के लोग ठाकरे परिवार व शिवसेना की उत्तर भारतीय विरोधी सोच से चूंकि पूरी तरह से वा‎किफ हैं इसलिए वे आसानी से शिवसेना के झांसे में नहीं आने वाले। लिहाज़ा ले-देकर भगवान राम के नाम का ही एक ऐसा सहारा है जो शिवसेना का न केवल बेड़ा पार लगा सकता है बल्कि राम मंदिर निर्माण की रेस में सबसे आगे दिखाई देने की वजह से ऐसी राजनैतिक परिस्थिति भी पैदा कर सकता है कि भविष्य में वे महाराष्ट्र में भाजपा को साथ लिए बिना चुनाव मैदान में जा सकें। इतना ही नहीं उद्धव ठाकरे भगवान राम के परम हितैषी बनकर महाराष्ट्र से बाहर भी अपना आधार बढ़ाने की कोशिश कर सकते हैं।
राम मंदिर निर्माण के सिलसिले में चल रही गहमा-गहमी के बीच इस समय कई प्रकार के मत-विचार, राजनैतिक हलचल व उठा-पटक देखी जा रही है। ठाकरे को यदि मंदिर निर्माण की तिथि जानने की जल्दी है तो मंदिर निर्माण का पक्षधर एक बड़ा वर्ग इस संबंध में संसद में विशेष बिल लाए जाने की बात कर रहा है। बौद्ध समाज के लोगों द्वारा भी इस विवाद में कूदने की खबर है। वे भी इस स्थान पर अपना अधिकार बता रहे हैं। एक पक्ष ऐसा भी है जो यहां भव्य राम महल बनाए जाने की पैरवी कर रहा है तो इन सबसे अलग अपना राग अलापते हुए प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अयोध्या में भगवान राम की देश की सबसे ऊंची प्रतिमा लगाने की घोषणा कर चुके हैं। यह और बात है कि अनेक सम्मानित संतों द्वारा योगी की इस घोषणा का यह कहते हुए विरोध किया जा रहा है कि भगवान राम की प्रतिमा खुले आसमान के नीचे स्थापित करना भगवान का अपमान करना है तथा नेताओं की तरह उनकी मूर्ति लगाना धर्म व शास्त्र सम्मत हरगिज़ नहीं। परंतु चूंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरदाद पटेल की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा नर्मदा में स्थापित करवाकर भाजपा नेताओं में अपना कद सबसे ऊंचा करने का प्रयास किया है लिहाज़ा उसी प्रतिस्पर्धा में शामिल होते हुए योगी भी भगवान राम की देश की सबसे ऊंची प्रतिमा स्थापित करा कर स्वयं को देश का सबसे बड़ा राम भक्त जताना चाह रहे हैं। योगी का यह दांव भविष्य में नरेंद्र मोदी से होने वाली उनकी प्रतिस्पर्धा में भी योगी के लिए लाभदायक साबित हो सकता है।
एक ओर तो भगवान राम के तथाकथित राजनैतिक रामभक्तों में सबसे बड़ा भक्त होने की होड़ लगी हुई है तो दूसरी ओर देश की आम जनता इन स्वयंभू रामभक्तों के वास्तविक चेहरे को भलीभांति पहचान चुकी है। यही वजह है कि गत् 25 नवंबर को अयोध्या में आम लोगों का हुजूम लगभग न के बराबर था। 25 नवंबर को अयोध्या चलो के पोस्टर व फ्लैक्स लगभग पूरे लखनऊ में तथा प्रदेश के अधिकांश जि़लों में लगाए गए थे। ऐसी अनेक धर्मसभाएं आयोजित की गई थीं जिसमें 25 नवंबर को अयोध्या चलने का आह्वान किया गया था। उद्धव ठाकरे की अयोध्या यात्रा के साथ ही साथ विश्व हिंदू परिषद् भी एक बड़ा समागम आयोजित कर रही थी। परंतु स्वैच्छिक रामभक्तों ने अयोध्या की ओर कूच नहीं किया। जिस अयोध्या नगरी को भारतीय टीवी चैनल अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित बता रहे थे यहां तक कि कई अल्पसंख्यक परिवार भय के मारे अयोध्या छोड़कर चले गए थे वहां पूरी तरह से शांति रही। इस प्रकार का वातावरण यह समझ पाने के लिए काफी है कि भले ही राजनेता जनता के समक्ष स्वयं को सबसे बड़ा रामभक्त प्रमाणित करने की लाख कोशिशें करें परंतु देश की जनता अब भावनाओं में बहकर उनके झांसे में हरगिज़ नहीं आने वाली।

बदहाल व्यवस्था की जंग लड़ते एड्स कर्मचारी
प्रभुनाथ शुक्ल
(एड्स दिवस 01 दिसम्बर पर विशेष) एड्स की 30 वीं वर्षगाँठ पूरी दुनिया में 01 दिसम्बर को मनायी जाती है। भारत के साथ वैश्विक देशों के लिए भी यह सामजिक त्रासदी और अभिशाप है। दुनिया में पहली बार 1987 में थॉमस नेट्टर और जेम्स डब्ल्यू बन्न ने इस दिवस के बारे में कल्पना की थी। एड्स स्वयं में कोई बीमारी नहीं है, लेकिन इससे पीड़ित व्यक्ति बीमारियों से लड़ने की प्राकृतिक ताकत खो बैठता है। उस दशा में उसके शरीर में सर्दी-जुकाम जैसा संक्रमण भी आसानी से हो जाता है। एचआईवी यानि ह्यूमन इम्यूनो डिफिसिएंसी वायरस से संक्रमण के बाद की स्थिति एड्स है। एचआईवी संक्रमण को एड्स की स्थिति तक पहुंचने में आठ से दस साल या कभी-कभी इससे भी अधिक वक्त लग सकता है। लेकिन 30 सालों बाद भी दुनिया के देश यौनजनित बीमारी एड्स को ख़त्म नहीं कर पाए। हालांकि एड्स मरीजों से कहीं अधिक बदतर हालात में एड्स कार्यक्रम से जुड़े 25 हजार से अधिक संविदा कर्मचारी हैं जो व्यवस्था के एड्स से परेशान और पस्त हैं।
चौंकाने वाला तथ्य यह भी है कि दुनिया में एचआइवी से पीड़ित होने वालों में सबसे अधिक संख्या किशोरों की है। यह संख्या 20 लाख से ऊपर है। यूनिसेफ की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2000 से अब तक एड्स से पीड़ित होने के मामलों में तीन गुना इजाफा हुआ है। दुनिया में एड्स संक्रमित व्यक्तियों में भारत का तीसरा स्थान है। एड्स से पीड़ित दस लाख से अधिक किशोर सिर्फ छह देशों में रह रहे हैं और भारत उनमें एक है। शेष पांच देश दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया, केन्या, मोजांबिक और तंजानिया हैं। सबसे दुखद स्थिति महिलाओं के लिए होती है। उन्हें इसकी जद में आने के बाद सामाजिक त्रसदी और घर से निष्कासन का दंश झेलना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक, 1981 से 2007 में बीच करीब 25 लाख लोगों की मौत एचआइवी संक्रमण की वजह से हुई। 2016 में एड्स से करीब 10 लाख लोगों की मौत हुई। यह आंकड़ा 2005 में हुई मौत के से लगभग आधा है। साल 2016 में एचआइवी ग्रस्त 3.67 करोड़ लोगों में से 1.95 करोड़ इसका उपचार ले रहे हैं। यह सुखद है कि एंटी-रेट्रोवायरल दवा लेने की वजह से एड्स से जुड़ी मौतों का आंकड़ा 2005 में जहां 19 लाख था वह 2016 में घटकर 10 लाख हो गया।
2016 में संक्रमण के 18 लाख नए मामले सामने आए जो 1997 में दर्ज 35 लाख मामलों के मुकाबले लगभग आधे हैं। पुरी दुनिया में कुल 7.61 करोड़ लोग एचआइवी से संक्रमित थे। इसी विषाणु से एड्स होता है। 1980 में इस महामारी के शुरू होने के बाद से अब तक इससे करीब 3.5 करोड़ लोगों की मौत हो चुकी है। इस बीमारी की भयावहता का अंदाजा इन मौतों से लगाया जा सकता है। एड्स के बारे में लोग 1980 से पहले जानते तक नहीं थे। भारत में पहला मामला 1996 में दर्ज किया गया था, लेकिन सिर्फ दो दशकों में इसके मरीजों की संख्या 2.1 करोड़ को पार कर चुकी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक भारत में केवल 2011 से 2014 के बीच ही डेढ़ लाख लोग इसके कारण मौत को गले लगाया। यूपी में यह संख्या 21 लाख है। भारत में एचआइवी संक्रमण के लगभग 80,000 नए मामले हर साल दर्ज किए जाते हैं। वर्ष 2005 में एचआइवी संक्रमण से होने वाली मौतों की संख्या 1,50,000 थी। नए मामले एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ही देखे जा रहे हैं।
भारत के मशहूर चिकित्सा संस्थान काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्थित एआरटी सेंटर के वरिष्ठ परामर्शदाता डॉ.मनोज तिवारी ने बताया कि भारत में एड्स के बढ़ते मामलों पर नियंत्रण के लिए 1992 में राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण संगठन यानी नाको की स्थापना की गई। मगर बदकिस्मती यह रही कि वैश्विक महामारी होने के बाद भी भारत में नाको को सिर्फ एक परियोजना के रूप में चलाया जा रहा है। नाको से जुड़े लोग 23 सालों से अस्थाई रूप से संविदा पर काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय कार्यक्रम होने के बाद भी आती-जाती सरकारों ने इस पर गौर नहीं किया। मनोज के अनुसार भारत सरकार ने नि:शुल्क एंटी रेट्रोवाइरल एआरटी कार्यक्रम की शुरुआत एक अप्रैल, 2004 से की थी।एआरटी की व्यापक सुलभता से एड्स से होने वाली मौतों में कमी आई है। लेकिन देश भर में संविदाकर्मी आज़ भी सरकारों की नीयति की वजह से बदहाली में है। देश भर में 25 हजार से अधिक और यूपी में 1500 कर्मचारी जो एड्स नियंत्रण से जुड़े हैं। लेकिन इनकी बदहाली पर किसी का ध्यान नहीं। केंद्रीय मंत्री जेपी नड्डूडा, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ , राहुल गाँधी और राष्ट्रपति तक बात पहुँचाने के बाद भी संविदा कर्मचारियों को नियमित नहीं किया गया। जबकि इस प्रोग्राम में डॉक्टर, परामर्शदाता , लैब टेक्निशियन, स्टाफ नर्स , डाटा मैनेजर , केयर कॉर्डिनेटर व सोशल वर्कर कार्यरत है और सभी उच्च शिक्षित , प्रशिक्षित और अनुभवी भी हैं। हर साल संविदा का नवीनीकरण होता है जिसकी वजह से कर्मचारियो को मानसिक व आर्थिक समस्या का भी सामना करना पड़ता है। डा. मनोज ने बताया की सभी संविदा कर्मचारी राष्ट्रीय हेल्थ प्रोग्रामों में सहयोग देते है। कुछ जिलों में तो इनसे चुनाव की भी डयूटी कराई जाती है बावजूद यह मुफलिसी के दौर में हैं।मनोज ने बताया कि किसी भी कर्मचारी की आकस्मिक दुर्घटना में भी सरकारी स्तर पर एक पैसे की सहायता नहीं मिलती। बीमार होने पर ईलाज अपने पैसे से ही कराना होता है। किसी तरह की बीमा की सुविधा नहीं है। संविदा कर्मियों के लिए एक आयोग गठित होना चाहिए, जिसकी सिफारिश पर इस राष्ट्रीय कार्यक्रम से जुड़े कर्मचारियों को अच्छे वेतन और मानदेय की सुविधाएं मिलनी चाहिए। राज्य में जब शिक्षामित्रों को सरकारी स्तर पर बहाली हो सकती हैं तो एड्स प्रोग्राम से जुड़े संविदा कर्मचारियों की नियमित क्यों नहीं किया जा सकता है। केंद्र और राज्य सरकारों को एड्स कर्मचारियों की पीड़ा गम्भीरता से लिया जाना चाहिए।

कश्मीरः सत्यपाल मलिक पहल करें
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर विधानसभा भंग होने पर देश के लगभग सभी अखबारों और टीवी चैनलों ने जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्यपाल मलिक की आलोचना की थी लेकिन मैं ही शायद एक मात्र ऐसा राजनीतिशास्त्री और पत्रकार हूं, जिसने लिखा था- ‘कश्मीरः सही वक्त, सही कदम’ (22 नवंबर 2018) ! मैंने लिखा था कि यदि राज्यपाल के मन में पक्षपात होता तो वे सज्जाद लोन को मुख्यमत्री की शपथ दिला देते, क्योंकि लोन भाजपा की मदद से सरकार बनाने का दावा कर रहे थे। लेकिन उन्होंने हिम्मत दिखाई और विधानसभा भंग कर दी। उस वक्त मेहबूबा मुफ्ती, उमर अब्दुल्ला और कांग्रेसियों ने राज्यपाल मलिक की भर्त्सना करने में जरा भी कसर नहीं छोड़ी लेकिन अब वे क्या कर रहे हैं ? वे मलिक की तारीफों के पुल बांध रहे हैं। सच्चाई तो यह है कि मलिक ने मेहबूबा और उमर की इच्छापूर्ति की है। वे बराबर मांग करते रहे हैं कि विधानसभा भंग की जाए। मलिक ने राज्यपाल का दायित्व निभाने में जिस साहस और मर्यादा का पालन किया है, वह देश के सभी राज्यपालों के लिए अनुकरणीय है। सत्यपाल मलिक ने कुछ ही हफ्तों में ऐसी छाप छोड़ी है, जिससे कश्मीर की जनता ही नहीं, अलगाववादियों को भी यह भरोसा होने लगेगा कि इस स्वतंत्र बुद्धि के राज्यपाल से कुछ सार्थक बात हो सकती है। यदि सत्यपाल मलिक चाहें तो वे कश्मीर समस्या को हल करने की पहल भी कर सकते हैं। वे नेता है, जी-हुजूर नौकरशाह नहीं हैं। सत्यपाल अंत्यत सत्यनिष्ठ और साहसी व्यक्ति हैं। अब से 40-45 साल पहले वे छात्र-नेता के रुप में विख्यात हो चुके थे। मैं तभी से उनको गहरे में जानता हूं। ग्वालियर में हमारे साझा मित्र रमाशंकरसिंह के आईटीएम विश्वविद्यालय में भाषण देते हुए मलिक ने उक्त मामले की सारी परतें उघाड़कर रख दीं। वे एनडीटीवी के प्रसिद्ध और साहसी एंकर रवीशकुमार द्वारा उन पर किए गए एक मधुर व्यंग्य का जवाब दे रहे थे। अपने भाषण में मलिक ने मेरा जिक्र भी कई बार किया। कश्मीर के मामले में मेरी गहरी दिलचस्पी है। मैं इस मसले पर पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों नवाज शरीफ, बेनजीर भुट्टो, असिफ जरदारी, जनरल जिया-उल-हक और जनरल परवेज मुशर्रफ आदि से कई बार बात कर चुका हूं। अपने कश्मीरी नेताओं में शेख अब्दुल्ला, मुफ्ती सईद और हुर्रियत के सभी नेताओं से संवाद करता रहा हूं और ‘‘पाकिस्तानी कश्मीर’’ के ‘प्रधानमंत्रियों’ से भी मेरा संवाद बना हुआ है। नार्वे के पूर्व प्रधानमंत्री केल बोंडविक से भी संपर्क बना हुआ है। वे आजकल भारत, पाक और दोनों तरफ के कश्मीरी नेताओं से बात कर रहे हैं। हमारी सरकार ने आजकल चुनावी मुद्रा धारण कर रखी है, इसके बावजूद वह चाहे तो राज्यपाल सत्यपाल मलिक के जरिए कश्मीर समस्या का समाधान निकाल सकती है। मुझे विश्वास है कि इस मौके पर इमरान खान भी पीछे नहीं रहेंगे। जनरल मुशर्रफ और अटलजी व मनमोहन सिंहजी ने जो चार-सूत्री फार्मूला बनाया था, उसे फिर से जिंदा करना जरुरी है।

चार साल बाद क्यों आई है राम लला की याद?
योगेंद्र यादव
इस दीपोत्सव पर भाजपा को राम लला की याद कुछ ज्यादा ही सता रही है। दिवाली तो पिछले चार साल भी आई थी, लेकिन अयोध्या जाकर घोषणा का विचार इस बार ही आया है। न जाने कहां से संत समाज से लेकर किन्नर अखाड़ा तक बाहर निकल आए हैं। बाबरी मस्जिद बनाम राम मंदिर का मामला तो पिछले आठ साल से सुप्रीम कोर्ट में अटका है, लेकिन धीरज की परीक्षा न लेने की चेतावनी पिछले कुछ दिनों से ही दी जा रही है। जब माहौल अचानक राममय हो जाए तो समझ लीजिए चुनाव का मौसम आ गया है।
मामला सिर्फ राम मंदिर तक सीमित नहीं है। जैसे-जैसे लोकसभा चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं वैसे-वैसे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि भाजपा यह चुनाव हिंदू-मुस्लिम के सवाल पर लड़ना चाहती है। असम में बांग्लाभाषी प्रवासियों के सवाल को बाकी देश में मुस्लिम प्रवासियों की तरह पेश किया जा रहा है। सभी धर्मावलंबियों की आस्था के प्रतीक सबरीमाला में औरतों के प्रवेश को हिंदू भावनाओं पर ठेस की तरह प्रचारित किया जा रहा है। संसद में देश के नागरिकता कानून को धार्मिक आधार पर बदलने की कोशिश हो रही है। भाजपा और संघ परिवार के नेता अब हर मौके पर हिंदू भावनाओं को आहत होने का बहाना ढूंढ़ रहे हैं।
भाजपा की इस चुनावी रणनीति को समझना हो तो पिछले कुछ दिनों में प्रकाशित हुए दो बड़े जनमत सर्वेक्षणों पर निगाह डाल लीजिए। पिछले हफ्ते सीवोटर द्वारा किए राष्ट्रीय सर्वेक्षण को एबीपी न्यूज़ चैनल द्वारा दिखाया गया। उधर ‘आज तक’ पर माई एक्सिस द्वारा हर राज्य के जनमत का एक साप्ताहिक कार्यक्रम पॉलीटिकल स्टॉक एक्सचेंज चलाया जा रहा है। इन दोनों में से किसी भी सर्वेक्षण को पूरी तरह विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता लेकिन, कम से कम इतना तो समझ में आता है कि भाजपा अचानक राम मंदिर की ओर क्यों मुड़ी है।
अगर सर्वे और चैनलों की सुर्खियां देखें तो भाजपा के लिए घबराने का कोई कारण नहीं है। दोनों सर्वे बताते हैं कि भाजपा अपने प्रतिद्वंद्वियों की तुलना में आगे है। एबीपी न्यूज़ का सर्वे तो भाजपा को दोबारा बहुमत के निकट दिखा रहा है। मोदी सरकार से असंतुष्ट लोगों की तुलना में संतुष्ट लोग ज्यादा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लोकप्रियता की दौड़ में राहुल गांधी की तुलना में कहीं आगे चल रहे हैं। जाहिर है टीवी चैनल इसे सत्ताधारी पार्टी के लिए खुशखबरी की तरह पेश कर रहे हैं। लेकिन सच यह है कि भाजपा के नेता स्वयं इस गलतफहमी के शिकार नहीं हैं। वे जानते हैं कि सुर्खियों के पीछे की खबर इतनी खूबसूरत नहीं है। एबीपी के सर्वे में भले ही भाजपा को बहुमत के नज़दीक दिखा दिया गया हो, लेकिन वही सर्वे यह बताता है कि उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन होते ही स्थिति पलट जाएगी। इंडिया टुडे के सर्वेक्षण में नरेंद्र मोदी भले ही राहुल गांधी से 14% आगे चल रहे हों, लेकिन चार महीने पहले उसी सर्वेक्षण में उनकी लीड 22% थी। केंद्र सरकार से संतुष्टि का स्तर उतना ही है, जितना मनमोहन सिंह की यूपीए सरकार से 2012 में था। भाजपा के नेता जानते हैं कि मोदी सरकार का 2013 की यूपीए सरकार जैसा लोकप्रिय न होना कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। उन्हें याद होगा कि अपनी व्यक्तिगत लोकप्रियता के बावजूद अटल जी 2004 का चुनाव हार गए थे।
भाजपा की असली दिलचस्पी और चिंता अलग-अलग राज्यों के जनमत रुझान से होगी। इंडिया टुडे का राज्यवार सर्वेक्षण यह दिखाता है कि कर्नाटक को छोड़कर दक्षिण भारत में अब भी प्रधानमंत्री और भाजपा अपने पैर नहीं जमा पाए हैं। कर्नाटक में कांग्रेस जेडीएस की सरकार अभी से अलोकिप्रिय हो गई है। लेकिन वहां भाजपा के लिए सीट बढ़ाने की गुंजाइश अधिक नहीं है। तमिलनाडु में भाजपा के आशीर्वाद से चल रही एडीएमके सरकार घोर अलोकप्रिय हो चुकी है और उसका चुनावी सफाया होना तय है। भाजपा के लिए विस्तार की असली गुंजाइश पूर्वी भारत में है। ओडिशा, बंगाल और पूर्वोत्तर में भाजपा की लोकप्रियता भी बढ़ती दिखाई देती है। लेकिन बंगाल में अभी भाजपा अपने वोट की बढ़ोतरी को सीट में बदलती दिखाई नहीं देती।
पश्चिम भारत में महाराष्ट्र और गुजरात में भाजपा की हालत ठीक-ठाक है। लेकिन यहां अपनी 2014 की सफलता को दोहराने के लिए सिर्फ ठीक-ठाक होने से काम नहीं चलेगा। महाराष्ट्र में यदि शिवसेना के साथ गठबंधन नहीं हुआ तो भाजपा को झटका लग सकता है। भाजपा के लिए खतरे की घंटी उत्तर भारत की हिंदी पट्‌टी में बज रही है। राजस्थान में भाजपा की वसुंधरा राजे सरकार से जनता का गुस्सा चरम सीमा पर पहुंच चुका है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भी अनिश्चय के बादल मंडरा रहे हैं और भाजपा चुनावी सफलता दोहराने के बारे में आश्वस्त नहीं हो सकती। बेशक इन तीनों राज्यों में केंद्र सरकार के प्रति जनता का गुस्सा नहीं है। लेकिन, इन राज्यों का चुनावी इतिहास बताता है कि अगर विधानसभा चुनाव में भाजपा नहीं जीती तो लोकसभा चुनाव में भी नहीं जीत पाएगी। हरियाणा और उत्तराखंड में भाजपा की राज्य सरकारें इस जनमत सर्वे में बुरी तरह फेल पाई गई हैं। दिल्ली में भाजपा लोकसभा चुनाव और मिनिस्टर लेट के चुनाव की सफलता और आती हुई दिखाई नहीं देती। उधर उत्तर प्रदेश में भाजपा के लिए दोहरा संकट है। एक ओर योगी आदित्यनाथ की सरकार दो साल पूरा होने से पहले ही अलोकप्रिय हो रही है। दूसरा सपा-बसपा गठबंधन अभी तो पक्का दिख रहा है। ऐसे में भाजपा के लिए 2014 की सफलता दोहराना तो दूर, 30 सीट लेना भी कठिन हो जाएगा।
आज भाजपा को इस बात का संतोष हो सकता है कि कांग्रेस या विपक्ष की कोई भी पार्टी स्पष्ट विकल्प के रूप में नहीं उभर रही है। ले-देकर विपक्ष के पास महागठबंधन के गणित के सिवा न तो कोई मुद्‌दा है और न ही कोई चेहरा। ऐसे में भाजपा नेता सोचते हैं कि लोग झक मारकर दोबारा भाजपा के पास ही वापस आएंगे। लेकिन, उन्हें यह भी दिख रहा है कि सीबीआई, रिजर्व बैंक और सुप्रीम कोर्ट के नए तेवर को देखते हुए कभी भी पासा पलट सकता है। रफाल के रहस्योद्‌घाटन सरकार की छवि को बड़ा धक्का दे सकते हैं। लोकप्रियता के चढ़ाव से उतार पर पहुंची भाजपा कभी भी फिसलने लग सकती है। इसलिए भाजपा अब पुराने खेल पर उतर आई है: ‘मंदिर वहीं बनाएंगे, डेट नहीं बताएंगे, चुनाव के पास आएंगे!’

दर्द-ए-राममंदिर : अयोध्या-नागपुर हुँकार
ओमप्रकाश मेहता
आज से करीब तीन दशक पहले बनी एक फिल्म का बहुत लोकप्रिय गाना था, जिसका मुखड़ा था- ‘‘देखो ऐ दीवानों तुम ये काम न करो, राम का नाम बदनाम न करो’’, यह गाना गुनगुनाया तो सभी ने किंतु इस गाने का चेतावनी भरा मर्म किसी ने भी समझा और आज भी यह गाना सटीक सिद्ध हो रहा है। वैसे मर्यादा पुरूषोत्तम भगवान राम को सियासत के कीचड़ में घसीटने का चलन कोई नया नहीं है, किंतु अब ये प्रक्रिया कुछ ज्यादा ही तेज हो गई है। मैंने इसी से जुड़ा एक चुटकुला कहीं पढ़ा था- ‘‘एक दिन भगवान राम को हिचकियाँ काफी तेजी से चल रही थी, तब माता सीता ने राम से पूछा- आज तुम्हे इतनी बेताबी से कौन याद कर रहा है? तब भगवान राम ने जवाब दिया- शायद भारत में चुनाव निकट आ गए होगें और मेरे मौसमी भक्तों को मेरी याद सता रही होगी। सीता इसलिए इतनी ज्यादा चिंता में थी, क्योंकि पिछले साढ़े चार साल से रामजी को कभी हिचकी नहीं चली थी। अब अगले छः महीने तुक चुनावी मौसम रहेगा और भगवान राम को इसी तरह हिचकियाँ चलती रहेगी।’’
खैर, इन गंभीर तथ्यों को यदि परिहास की श्रेणी में ले लिया जाए तो कोई चिंता की बात नहीं, किंतु एक तथ्य जरूर गौर करने लायक है, वह यह कि आज से साढ़े चार साल पहले जिस एक चमत्कार शख्स ने भाजपा को राज सिंहासन हासिल करवा दिया था और देश के दो-तिहाई से अधिक राज्यों में अपनी छाप छोड़ अपना राज कायम कर लिया था, उसी महान शख्स व उसकी पार्टी को अब भगवान राम का सहारा क्यों लेना पड़ रहा है? यह तथ्य गंभीर और चिंतन योग्य है। यही नहीं जो मसला देश की सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है, उस पर अध्यादेश लाने और कानून बनाने का उपक्रम किया जा रहा है?
इसके साथ ही अब तो यह भी लगने लगा है कि अयोध्या में विश्व हिन्दू परिषद व साधु-संत तथा नागपुर में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख राम मंदिर पर अध्यादेश लाने व कानून बनाने का जो केन्द्र पर दबाव बना रहे है, वह भी सरकार, संघ, भाजपा व उसके अनुषांगिक संगठनों विहिप, बजरंग दल आदि की सुनियोजित चाल है, फिर सरकार इनके दबाव की आड़ में संसद के इसी शीतसत्र में अध्यादेश ला सकती है, यद्यपि केन्द्र यदि ऐसा करता है तो कांग्रेस सहित अन्य प्रतिपक्षी दल उसका खुलकर विरोध तो नहीं करेंगे, क्योंकि उन्हें भी अपने वोट बैंक की चिंता है, किंतु कांग्रेस व अन्य दल सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने तक इंतजार करने के नाम पर विरोध दर्ज करा सकते है, वे यह आरोप भी निश्चित रूप से लगाएगें कि लोकसभा चुनावों में राजनीतिक फायदा लेने के लिए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को दर-किनार किया है।
यद्यपि यह अभी निश्चित रूप से तो यह नहीं कहा जा सकता कि यदि सरकार अध्यादेश लाकर कानून के दायरे में अयोध्या राम मंदिर निर्माण का हल निकालती है तो ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की क्या प्रतिक्रिया होगी? किंतु यह सही है कि केन्द्र में सत्तारूढ़ भाजपा के इस कदम से सर्वोच्च न्यायालय खुश तो नहीं ही होगा? हो सकता है तब प्रजातंत्र के दो प्रमुख स्तंभों विधायिका व न्याय पालिका के बीच टकराव या तकरार एक नए रूप में सामने आ जाए और दोनों आमने-सामने खड़े हो जाए? क्योंकि यह तय है कि केन्द्र के अध्यादेश के खिलाफ तब अदालत के दरवाजे अवश्य खटखटाए जाएगें, और उस समय सरकार या भाजपा का एक ही जवाब होगा कि ‘‘देश का अधिसंख्यक वर्ग अध्यादेश का दबाव बना रहा था, इसलिए यह अध्यादेश लाया गया।’’ और साथ ही उस अध्यादेश को पूर्णतः कानूनी, संवैधानिक व संसदीय प्रक्रिया के दायरे में लाने व दिखाने का प्रयास भी किया जाएगा। साथ ही कांग्रेस समर्थित शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद जी ने तो अभी से ही वाराणसी के हुंकार सम्मेलन में यह स्पष्ट कर दिया कि राम मंदिर के निर्माण का मसला सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आने तक लम्बित रखा जाना चाहिए और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुरूप इस बारे में कदम उठाना चाहिए, इसके लिए अध्यादेश लाने की कोई जरूरत नहीं।
इस तरह कुल मिलाकर केन्द्र सरकार पर विराजित भाजपा व उसके संगी-साथी अध्यादेश लाकर लोकसभा चुनाव के पहले मंदिर निर्माण शुरू करवाना चाहते है जिससे कि चुनाव में उन्हें सत्ता का पुरस्कार मिल सके, और उसीके लिए यह दबाव की राजनीति अपनाई जा रही है, जबकि सर्वोच्च न्यायालय यह पहले ही कह चुका है कि यह मसला उसकी प्राथमिकता की सूची में नहीं है इसलिए केन्द्र पर विराजित भाजपा, संघ, विहिप आदि को उम्मीद नहीं है कि इस बारे में सुप्रीम कोर्ट का फैसला चुनाव के पूर्व आ जाएगा, इसलिए अयोध्या व नागपुर में यह मशक्कत की गई और केन्द्र व उत्तरप्रदेश की सरकारें इस पर मौन रहीं।
जो भी हो अब यह तय है कि संसद के शीत सत्र में यदि राम मंदिर पर अध्यादेश लाया जाता है तो फिर प्रजातंत्र के दो स्तंभों के बीच टकराव तथा प्रतिपक्षी दलों को उग्र होना तय है। देखिये….. आगे….. आगे…… होता…… है क्या……?

ब्लड प्लेटलेट बढ़ाने के कारगर घरेलू उपाय !
डॉक्टर अरविन्द जैन
वर्तमान में डेंगू। चिकिनगुनिया रोग का प्रकोप बहुत बढ़ रहा हैं और इन रोगों में खून की कमी के साथ डॉक्टर पैथोलॉजिकल रिपोर्ट के आधार पर ब्लड प्लेटलेट्स की कमी बताते हैं जो चिंताजनक होती हैं। तात्कालिक स्थिति में तो ब्लड ट्रांसफूजन करना पड़ता हैं। और भी कई गभीर बीमारियों में भी रक्ताल्पता होती हैं।
वैसे भारत में कुपोषण की संख्या बहुत अधिक हैं। संतुलित आहार न मिलने के कारण यह स्थिति सामान्य हैं। इसके लिए सामान्य रूप से मिलने वाली सब्जियां और फल बहुत लाभदायक होते हैं जो सामान्य वर्ग की पहुँच में हैं।
प्लेटलेट्स छोटे रक्त कोशिकाएं होती हैं, जो शरीर में रक्तस्राव को रोकने में मदद करती हैं। कम प्लेटलेट काउंट एक स्वास्थ्य विकार है, जिसमें आपका ब्लड प्लेटलेट सामान्य से कम होता हैं
– 1 प्लेटलेट्स बढ़ाने के लिए पालक खाएं
कम वसा और कोलेस्ट्रॉल वाली सब्जी में पालक का नाम सबसे आगे आता है। इसका नियमित सेवन स्वास्थ्य के लिए बहुत ही फायदेमंद साबित होता है। नियासिन, जिंक प्रोटीन, फाइबर, विटामिन ए, विटामिन सी, विटामिन ई और विटामिन के, थियामिन, विटामिन बी 6, फोलेट, कैल्शियम, आयरन, मैग्नीशियम, फास्फोरस, पोटेशियम, तांबा और मैंगनीज से भरपूर पालक चोट और बहते रक्त की रोकथाम में बहुत ही काम आता है।
पालक के जूस का दैनिक सेवन से ब्लड की प्लेटलेट कांउट में तेजी से सुधार हो सकता है।
– 2 प्लेटलेट कांउट में फायदेमंद है एलोवेरा
एलोवेरा रस कई पौष्टिक लाभ प्रदान करता है। एलोवेरा में कई औषधीय और कॉस्मेटिक गुण पाए जाते हैं, क्योंकि यह त्वचा रोग को दूर करने और सूजन को कम करने में प्रभावी है। एलोवेरा रक्त शुद्धि में मदद करता है। इसके अलावा यह रक्त में संक्रमण को रोकने में भी प्रभावी है। इसके सेवन से रक्त में प्लेटलेट कांउट में जबरदस्त वृद्धि होती है।
– 3 प्लेटलेट कांउट को बढ़ाने में पपीता बहुत ही काम आता है।
2009 में किए गए एक शोध के अनुसार, पपीता और इसके पत्ते दोनों हमारे शरीर में प्लेटलेट कांउट बढ़ाने में बहुत ही मदद करते हैं। आप पपीता का उपभोग कर सकते हैं और हर दिन पतीते के पत्तों का रस भी पी सकते हैं। यह आप तब तक करेंगे जब तक आप आपका प्लेटलेट कांउट सामान्य नहीं हो जाता।
– 4 प्लेटलेट काउंट को बढ़ाने में हमारी मदद करते हैं कद्दू
फाइबर, पोटेशियम, और विटामिन सी से भरपूर कद्दू हमारे दिल को स्वस्थ्य करने में मदद करता है। कद्दू में मौजूद पोषक तत्व प्रभावी रूप से प्रोटीन का उत्पादन करने में सहायक होते हैं, जो प्लेटलेट्स के उत्पादन के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। कद्दू में विटामिन ए होता है, जो हमारे शरीर में प्लेटलेट्स के उत्पादन में मदद करता है। इसलिए, कद्दू और उसके बीज की नियमित सेवन से प्लेटलेट काउंट को बढ़ाने में हमारी सहायता करते हैं।
– 5 प्लेटलेट काउंट के लिए आंवला भी है जरूरी
आमला के रूप में जाना जाने वाला यह फल निस्संदेह पोषक तत्वों का पावरहाउस है। आमला विटामिन सी में समृद्ध है और नींबू के सभी लाभ प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त, आमला एंटीऑक्सिडेंट्स में समृद्ध है और कई तरह के स्वास्थ्य समस्याओं को दूर करने में मदद करता है। इससे प्लेटलेट काउंट में भी मदद मिलती है।
– 6 प्लेटलेट काउंट में सुधार करने में सहायक है नींबू
नींबू हमारे शरीर को अच्छी मात्रा में विटामिन सी प्रदान करता है। रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में सहायक विटामिन सी प्लेटलेट काउंट में सुधार करने में मदद करता है। यह प्लेटलेट्स के फ्री रेडिकल डैमेज को रोकने के लिए बहुत उपयोगी है।
– 7 प्लेटलेट काउंट के लिए चुकन्दर खाएं
क्या आपने चुकन्दर का जूस पिया है। यह शरीर में रक्त को बढ़ाने के काम आते हैं। चुकन्दर प्लेटलेटों के फ्री रेडिकल डैमेज को रोकता है और इसकी संख्या में वृद्धि करने में मदद करता है।
इसके अलावा जिस सब्जी, फल को उसे काटने के बाद कालापन मिलता हैं उसमे लौह तत्व की अधिक्तता रहती हैं जैसे बिही (अमरूद ) केला, संतरा, सेवफल, गाजर, टमाटर आदि जो हमारे दैनिक जीवन में सरलता से उपलब्ध हैं का उपयोग करना चाहिए।
आमलकी रसायन, लौह भस्म, नवायस लौह, सप्तामृत लौह, लोहासव, द्राछारिष्ट कुमारीआसव आदि भी लाभदायक होते हैं। बचाव ही इलाज़ हैं।

भारत-पाक-चीनः तू-तू—मैं-मैं नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
मुझे थोड़ा अचरज हुआ और खुशी भी कि इस बार पाकिस्तान की सरकार ने अपना संतुलन नहीं खोया। कराची स्थित चीनी वाणिज्य दूतावास पर बलूच राष्ट्रवादियों ने, जो आतंकी हमला किया, उसके लिए न तो प्रधानमंत्री इमरान खान ने और न ही विदेश मंत्री शाह महमूद कुरैशी ने भारत को जिम्मेदार ठहराया है। यह अजूबा है, क्योंकि पहले कुछ ऐसा हुआ है कि कोई भी आतंकी हमला कहीं भी हुआ हो, सिंध में, बलूचिस्तान में, पख्तूनख्वाह में या पंजाब में, उसका सारा दोष भारत के मत्थे मढ़ दिया जाता था। नेता नहीं मढ़ते थे तो फौज मढ़ देती थी लेकिन अब दोनों का रवैया काफी जिम्मेदाराना दिखाई पड़ रहा है। इस हमले में तीनों बलूच आतंकवादी मारे गए। इस हमले का मुकाबला करने में पुलिस के दो जवान भी शहीद हुए लेकिन महिला पुलिस अफसर सुहाई अजीज तालपुर की बहादुरी तारीफ के लायक है। फिदायीन मजीद ब्रिगेड के आतंकियों का कहना है कि वे चीन की रेशम महापथ (ओबोर) की योजना के बिल्कुल खिलाफ हैं, क्योंकि यह सिंक्यांग से ग्वादर के बंदरगाह तक जो सड़क बन रही है, यह बलूचों को इस्लामाबाद का गुलाम बना देगी। यह आजाद बलूचिस्तान की कब्रगाह बन जाएगी। बलूचिस्तान पर यह चीन का शिकंजा कस देगी। भारत भी चीनी रेशम महापथ का समर्थन नहीं करता है लेकिन उसका कारण यह है कि वह पाकिस्तान कब्जे के कश्मीर में से होकर जाता है। यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि भारत ने इस मतभेद के बावजूद इस हमले की भर्त्सना की है। भारत किसी भी प्रकार के आतंकवाद और हिंसा के खिलाफ है। क्या पाकिस्तान की सरकारें भी इसी नीति को नहीं अपना सकतीं ? इधर जबकि चीनी दूतावास पर बलूच हमला हो रहा था, उधर चीन में भारत के सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल और चीनी नेता सीमा-समस्या को सुलझाने के लिए द्विपक्षीय वार्ता का 21 वां दौर चला रहे थे। यह शुभ-संयोग है कि इस मौके पर इन तीनों पड़ौसी देशों के बीच कोई तू-तू–मैं-मैं नहीं हुई। डेरा बाबा नानक से करतारपुर तक नानक बरामदे का भी उद्घाटन हो रहा है। क्या ही अच्छा हो कि इन तीनों देशों के बीच यह रचनात्मक प्रवृत्ति बढ़ती चली जाए ! पाकिस्तान की संकटपूर्ण आर्थिक स्थिति में चीन का प्रभाव वहां दिनों-दिन बढ़ता चला जा रहा है। चीन चाहे तो भारत-चीन सीमा के साथ-साथ कश्मीर की समस्या को सुलझाने में भी रचनात्मक भूमिका अदा कर सकता है।

बेमिसाल दानवीर डॉ. हरीसिंह गौर
डॉ. अलीम अहमद खान
(26 नवम्बर : जन्म दिवस पर विशेष) आधुनिक भारत में शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. हरीसिंह गौर जैसा दानी कोई दूसरा नहीं हैं। डॉ. गौर ने जो किया उसकी दूसरी मिसाल आज तक देखने-सुनने-पढ़ने में नहीं आती। 26 नवम्बर 1870 को सागर शहर की शनीचरी टौरी वार्ड में डॉ. गौर का जन्म हुआ। इनके दादा का नाम मानसींग था। इनके दादा गढ़पहरा सागर से शनीचरी में आकर बसे वे पेशे से कारपेंटर (बढ़ई) थे उनके एक पुत्र तख्त सिंह थे वे अपने पैतृक पेशे में जाने के इच्छुक नहीं थे। वे थोड़े शिक्षित थे और पुलिस विभाग में भर्ती हो गए। तख्त सिंह के चार पुत्र थे। ओंकार सिंह, गनपत सिंह, आधार सिंह और डॉ. हरीसिंह, पुत्रों के अलावा इनकी दो पुत्रियाँ भी थीं। जिनके नाम लीलावती और मोहनबाई था।
ओंकार सिंह और गनपत सिंह का काफी कम आयु में निधन हो गया। आधार सिंह और हरीसिंह ने अपने परिवार को सम्हाला। बचपन के दिनों में वे दो वर्षों तक एक निजी पाठशाला में पढ़े। इसके बाद सागर में ही उन्होंने हाई स्कूल तक शिक्षा प्राप्त की। शिक्षा के प्रारंभिक दौर से ही उनकी विलक्षणता दिखाई देने लगी। सरकार से उन्हें छात्रवृत्ता मिलने लगी।
वे अपनी माँ को छात्रवृत्ता में से पैसे देते थे। छात्रवृत्ता की राशि ने उनकी पढ़ने की रूचि को और बलबति बनाया। डॉ. गौर आगे के अध्ययन के लिए जबलपुर गए। जबलपुर के उपरांत वे अपने भाई के पास नागपुर गए उनके भाई नागपुर न्यायालय में कार्यरत थे। इन्हेंने नागपुर में आगे की पढ़ाई जारी रखी। यहाँ से डॉ. गौर ने पूरे क्षेत्र में सबसे अधिक अंक लेकर मेरिट में स्थान प्राप्त किया। गणित और दर्शन डॉ. गौर के प्रिय विषय थे। इन्हें शिक्षा में अच्छे प्रदर्शन के लिये पुरूस्कृत किया गया। इसके बाद इन्होंने (हिस्लाप महाविद्यालय, नागपुर) में प्रवेश लिया।
छात्र जीवन में डॉ. गौर को अंग्रेजी और इतिहास में विशेष दक्षता के अंक मिले नागपुर की पढ़ाई के उपरांत इनके भाई ने डॉ. गौर को उच्च अध्ययन हेतु क्रेम्बिज भेजा इनके भाई एक निश्चित राशि डॉ. गौर को भेजा करते थे। इस राशि के अतिरिक्त डॉ. गौर उनके प्रतिस्पर्धाओं में भाग लेने लगे। इनमें वे विजेता रहते और पुरूस्कृत होते। पुरूस्कार को राशि से इंग्लैड के खर्चे वहन करने में इन्हें मदद मिलती। कालांतर में इन्हें एलएल.डी. की डिग्री मिली। डॉ. गौर ने इंग्लैड प्रवास में नस्लीय भेद को काफी नजदीक से देखा।
विधि के छात्र के साथ वे अच्छी कविताएं भी लिखते थे, उनकी लिखी कविताएँ ‘रायल सोसायटी आफ लिटरेचर’ द्वारा प्रकाशित की जाती थी। 1892 में वे विदेश से अध्ययन पूरा करके स्वदेश लौंटे। डॉ. गौर की शैक्षणिक विद्वता की धूम पूरे यूरोप में थी, इंग्लैंड के साथ-साथ उनकी विद्वता का लोहा समकालीन भारतीय समाज मानता था। 1921 में जब दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो डॉ. गौर को इस विश्वविद्यालय का पहला कुलपति नियुक्त किया गया। इसी तरह 1928 में जब नागपुर विश्वविद्यालय की स्थापना हुई तो इसके पहले कुलपति भी डॉ. गौर नियुक्त हुए। डॉ. गौर को सागर शहर से काफी लगाव था। नागपुर विश्वविद्यालय के कुलपति पद के दायित्व के कुशल निर्वाहन के बाद सागर नगर में विश्वविद्यालय स्थापित करने के लिए जी जान से जुट गए।
1936 से वे इस दिशा में अधिक सक्रिय रहे। तत्कालीन म.प्र. सरकार ने जबलपुर में विश्वविद्यालय स्थापित करने का प्रस्ताव उन्हें दिया जो इन्होंने ठुकरा दिया, वे सागर में ही विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहते थे। आखिर उन्होंने सागर में निजी पूंजी से विश्वविद्यालय स्थापित किया। 1946 में लगभग 2 करोड़ रूपयों की बड़ी राशि से सागर नगर के पूर्व में पथरिया की पहाड़ियों पर एक बहुत खूबसूरत विश्वविद्यालय स्थापित किया। जो केवल सागर के लिए ही नहीं बल्कि भारत के शैक्षणिक संस्थानों में एक ऊँचा स्थान रखता है। भारत में अलीगढ़ एवं बनारस विश्वविद्यालय भी बने परन्तु वे लोगों के दान से बने। सागर विश्वविद्यालय डॉ. गौर की निजी सम्पत्ता से बना यह बेमिसाल हैं। डॉ. गौर का यह दान बुन्देलखण्ड और देश के लिए वरदान साबित हुआ।

बेटिकट ‘लफंगे’-बाटिकट ‘शरीफ?
निर्मल रानी
भारतीय नागरिकों को अपनी दिनचर्या में आए दिन ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है जिससे यह एहसास होता है कि देश के सभी कायदे-कानून और पाबंदियां संभवत: कानून का पालन करने वाले शरीफ, सज्जन, मेहनतकश व ईमानदार लोगों के लिए ही हैं। और यदि कोई शरीफ व्यक्ति किन्हीं अपरिहार्य परिस्थितियों में नियम व कानून से हटकर अपना कोई कदम उठाता भी है तो प्रशासन व कानून उसे उसके किए कि सज़ा देता है। परंतु ठीक इसके विपरीत ऐसा भी देखा जाता है कि हमारे ही समाज में पलने वाले अनेक लुच्चे-लफंगे भिखारी वेशधारी तथा मवाली ‎किस्म के लोग दिन रात नियमों व कानूनों का उल्लंघन भी करते हैं। ऐसे लोग शरीफ, सज्जन तथा कानून का पालन करने वालों के लिए सिरर्दद बनते हैं। उनकी सुरक्षा को भी चुनौती देते हैं। परंतु इन सबके बावजूद प्रशासन तथा कानून ऐसे लोगों की तरफ से अपना मुंह फेरे रहता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि नियम-कानून का पालन करना क्या केवल सज्जन व शरीफ लोगों का ही फर्ज है? क्या वजह है कि कानून का पालन न करने वालों को तो कानून उल्लंघन करने की छूट दी जाती है जबकि एक शरीफ व्यक्ति उसी जुर्म में जुर्माने या जेल जाने तक की नौबत पर पहुंच जाता है।
उत्तर भारत में आप रेलगाडिय़ों के माध्यम से कहीं भी चले जाएं आपको चलती ट्रेन में हिजड़ा वेशधारी, भिखारी या गााने बजााने वाले लोग चलती रेलगाडिय़ों में ज़रूर मिलेंगे। यह लोग अपने निर्धारित रूट पर सुबह से शाम तक रेलगाडिय़ों में यात्रा करते हैं तथा अनैच्छिक रूप से किसी भी यात्री के सिर पर खड़े होकर ढोल व डफली पीटने लगते हैं तथा गलाा फाड़कर चिल्लाना शुरु कर देते हैं। इन्हें इस बात की भी ‎फिक्र नहीं होती कि यात्रा करने वाला कोई व्यक्ति सो रहा है या उनका गाना नहीं सुनना चाहता। स्वयं को हिजड़ा बता कर रेल यात्रियों से ठगी करने वाले लोग तो कई बार किसी यात्री द्वारा पैसे न देने पर रेलयात्री के मुंह पर तमाचा तक जड़ देते हैं। हमारी व्यवस्था के लिए यह कितनी बड़ी चुनौती व अभिशाप है कि एक टिकटधारी शरीफ यात्री के गााल पर वह व्यक्ति तमाचा मारता है जिसने न तो कोई टिकट ले रखा है न ही उसके पास ट्रेन में भीख मांगने का कोई अधिकार पत्र है। ऐसे ही तमाम गेरुआ वस्त्रधारी लोग अपने भगवे लिबास को ही रेलवे का यात्रा पास मानकर पूरे देश में आते जाते रहते हैं और न केवल सीटों पर क़ब्ज़ा जमाए रहते हैं बल्कि प्रवेश व निकासी द्वार पर भी अड़े बैठे रहते हैं जिससे ट्रेन में चढऩे व उतरने वालों को काफी परेशानी उठानी पड़ती है। कई बार इन्हीं भगवा वस्त्रधारी भिखारियों को चलती ट्रेन में बिना किसी भय व लिहाज़ के खुल्लम खुला शराब पीते व सिगरेट का धुंआ उड़ाते भी देखा जा सकता है। ठीक इसके विपरीत कोई भी जि़म्मेदार, शरीफ नागरिक न ता ऐसी हरकत कर सकता है और यदि करे भी तो पुलिस अथवा रेलवे अधिकारी उसके विरुद्ध कानूनी कार्रवाई भी करते हैं।
रेलगाडिय़ों में बिना टिकट यात्रा करना तथा नाचना गाना, भीख मांगने जैसी बातें तो सुनने व देखने में आती रहती हैं। परंतु बसों में इस प्रकार का चलन लगभग न के बराबर था। मगर पिछले कुछ वर्षों से अब बसों में भी यह सिलसिला शुरु हो गया है। पहले बसों में किसी स्टैंड पर खड़ी बस में कुछ मेहनतकश आकर प्रवेश करते थे और यात्रियों को अपनी ओर आकर्षित कर कोई न कोई सामान बेचने की कोशिश करते थे और बस के प्रस्थान करते समय ही वे लोग बस से नीचे उतर जाते थे। परंतु अब तो ट्रेन की ही तर्ज पर बस में भी डफली, ढोलक तथा कान फाड़ बेसुरा संगीत आदि सब कुछ सुनाई देने लगा है। यदि आप अंबाला-चंडीगढ़ मुख्य मार्ग पर बस से यात्रा करते हैं तो अंबाला से लेकर लालड़ू-डेराबस्सी-ज़ीरकपुर व चंडीगढ़ आदि स्थानों पर कहीं न कहीं कोई न कोई नवयुवक आप की बस पर सवार होता या उतरता दिखाई दे जाएगा। कम आयु के यह बच्चे सरकारी बसों के कडंक्टर व ड्राईवर की ओर से मिलने वाली ढील का फायदा उठाकर एक स्टेशन से दूसरे व दूसरे से तीसरे स्टेशन तक पहुंच जाते हैं। इस दौरान वे अपने गला फाड़कर गायन से यात्रियों को विचलित करते हैं। परंतु चूंकि दान देकर स्वर्ग प्राप्ति की इच्छा रखने वाले चंद लोग ऐसे लफंगों को कुछ पैसे दे देते हैं जिससे उनका हौसला बढ़ जाता है। बसों में चढ़कर इस प्रकार पैसे मांगने वाले नवयुवकों में अधिकांश बच्चे नशे की लत का शिकार होते हैं। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि जब किसी यात्री ने अवांछित रूप से चढऩे वाले ऐसे लफंगों के चलती बस में चढऩे पर आपत्ति की तो ड्राईवर ने उसी समय बस रोक कर उस लफंगे भिखारी को बस से नीचे उतार दिया।
इन्हीं बसों में कई बार किसी अनाथलाय आश्रम अथवा किसी भंडारा या धार्मिक स्थान के नाम पर पैसा वसूली करने वाले लोग अपने हाथों में गुल्लक व रसीद बुक लेकर भी सवार हो जाते हैं। बसों में प्रवेश करने वाले इन सभी अनाधिकृत लोगों को यदि हम श्रेणी में भी बांटेगे तो यही देखेंगे कि कोई सामग्री बेचने वाला या खाने-पीने की वस्तु बेचने वाला मेहनतकश मज़दूर तो खड़ी बस में चढ़ता है और बस चलते ही उतर जाता है। जबकि चंदा वसूली करने वाले, भिखारी व अवांछित कान फाड़ गायक बेधड़क होकर एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन की यात्रा बिना टिकट खरीदे करते हैं और यह हमारे देश का चमत्कार ही है कि ऐसे लेाग सामान बेचने वाले मेहनतकश लोगों से भी ज़्यादा पैसे मुफ्त में ठग कर अगले स्टेशन पर उतर जाते हैं। मोटे तौर पर यदि कहा जाए तो नारियल गरी, कंघी या पानी बेचने वाला एक व्यक्ति अपनी मेहनत से दिनभर में तीन सौ रूपये से चार सौ रुपये तक कमाता है तो यह मवाली, भिखारी व मुफ्तखोर, लोगों की भावनाओं का लाभ उठाकर एक हज़ार रुपये से दो हज़ार रुपये तक बिना किसी पूंजी के कमा लेते हैं। उत्तर भारत में कई स्थानों पर रेलगाडिय़ों में कुछ ऐसे लोग भी आपको मिल जाएंगे जो अपने साथ किसी युवती को रखते हैं। उसे अपनी बेटी या बहन बताकर उसके विवाह व कन्यादान के नाम पर लोगों से पैसे मांगते हैं। यह शातिर दिमाग लोग यात्रियों को इन शब्दों में ब्लैक मेल करते हैं। वे कहते हैं कि -‘जैसे आपकी बेटी वैसे ही यह मेरी बेटी है लिहाज़ा इसके कन्यादान में अपनी बेटी समझकर सहयोग दीजिए’। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि इस प्रकार के कई पेशेवर लोग गत् 15-20 वर्षों से एक ही लड़की का हाथ पकड़कर उसके कन्यादान हेतु भीख मांग रहे हैं परंतु अब तक उस कथित बेटी की शादी ही नहीं की गई। । इन लोगों के पास भी टिकट होने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
बिहार में दिसंबर की ज़बरदस्त ठंड में रात 1 बजे के करीब बस में एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने रोते हुए प्रवेश किया और यह कहकर अपनी छाती पीटने लगा कि मेरे बेटे की लाश गेट पर पड़ी है और उसके पास संस्कार हेतु पैसे नहीं हैं। कई भावुक दानियों ने सौ-पचास रुपये की नोट उसे देनी शुरु कर दी। एक जागरूक युवा व्यक्ति ने उस बुज़ुर्ग का हाथ पकड़ा और कहा चलकर अपने बेटे की लाश दिखाओ। मैं उसका पूरा संस्कार स्वयं कराऊंगा। काफी आनाकानी के बाद वह बुज़ुर्ग हाथ जोडऩे लगा और अपने झूठ के लिए माफी मांगने लगा। गोया देश में रेलगाडिय़ों व बसों में इस प्रकार के यात्रियों को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि हमारे देश में लफंगों को तो बेटिकट चलने की छूट है परंतु एक शरीफ, ईमानदार व मेहनतकश व्यक्ति को तो बाटिकट अर्थात टिकट खरीदकर ही चलना पड़ेगा। देश के शासनतंत्र को इस ओर गंभीरता से ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है।

सुषमा जैसा कोई और नहीं
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने मेरे शहर इंदौर में घोषणा की कि वे अब चुनावी राजनीति से संन्यास ले रही हैं, क्योंकि उनकी किडनी उनका साथ नहीं दे रही है। सुषमाजी के असंख्य प्रशंसकों को यह सुनकर गहरा आघात लग रहा है। मैं भी उनमें से एक हूं। सुषमा स्वराज ने सार्वजनिक जीवन में प्रवेश किया, उसके 20 साल पहले से ही मैं काफी सक्रिय था लेकिन दिल्ली आने पर जब मैंने सुषमाजी को देखा तो मुझे लगा कि यह सुंदर, सुशील, सुसंस्कृत और अदभुत प्रतिभा की धनी लड़की किसी दिन भारत की प्रधानमंत्री बनेगी। 1999 में जब 40 सांसदों का एक प्रतिनिधि मंडल प्र. मं. अटलजी ने पाकिस्तान भेजा तो उन्होंने मुझसे आग्रह किया कि मैं भी उसके साथ जाऊं और पाकिस्तान के नेताओं से सबका परिचय करवाऊं। उन दिनों सुषमा बहन दिल्ली के मुख्यमंत्री-पद से मुक्त हुई थीं। वे हमारे साथ थीं। जब मैंने उनका परिचय प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और विपक्ष की नेता बेनजीर भुट्टो से करवाया तो उनसे मैंने कहा कि ‘‘आप भारत की भावी प्रधानमंत्री से मिलिए। यह मेरी छोटी बहन है।’’ बेनजीर जब भारत आईं तो उन्होंने हवाई अड्डे से फोन करके मुझसे कहा कि आपकी ‘उस बहन’ से जरुर मिलना है। उस दिन सुषमाजी का जन्मदिन था। बेनजीर सबसे पहले गुलदस्ता लेकर उनके घर पहुंचीं। मैं आज भी यह मानता हूं कि भाजपा क्या, देश के किसी भी दल में सुषमा-जैसा कोई और नहीं है। यदि उनको विदेश मंत्री के तौर पर स्वतंत्रतापूर्वक काम करने दिया जाता तो वे पिछले चार साल में भारतीय विदेश नीति में जान फूंक देतीं। उन्होंने हिंदी आंदोलनों में बरसों-बरस मेरे साथ काम किया है। वे ही मुझे 35 साल पहले पहली बार गुड़गांव ले गई थीं, किसी सम्मेलन का उद्घाटन करने के लिए। सुषमा की स्मरण—शक्ति अद्भुत है। वे किसी कवि सम्मेलन की अध्यक्षता करने मुझे बरसों पहले हरियाणा के एक दूरस्थ शहर में ले गई थीं। पूरी रात दर्जनों कवियों के काव्य-पाठ के बाद उन्होंने बिना कागज देखे, हर कवि की पहली दो पंक्तियां सिलसिलेवार दोहरा दीं। प्रकाशवीरजी शास्त्री और अटलजी के बाद मैं सुषमा स्वराज को देश का महानतम वक्ता मानता हूं। वे भाजपा की महत्तम धरोहर हैं। कई देशों के प्रधानमंत्रियों और विदेश मंत्रियों, जिनसे सुषमाजी ने संवाद किया है, ने मुझसे उनकी मुक्तकंठ से प्रशंसा की है। राजनीति के कीचड़ में सुषमा-जैसी सुंदर और आकर्षक महिला का आजीवन बेदाग रहना अपने आप में विलक्षण उपलब्धि है। वे चुनावों से चाहे संन्यास ले लें, लेकिन उन्हें कोई भी घर नहीं बैठने देगा। उनके राजनीतिक अनुभव, ज्ञान और विलक्षण वक्तृत्व का लाभ उठाने में भारत राष्ट्र कभी कोताही नहीं करेगा। उनके उत्तम स्वास्थ्य और दीर्घायु की कामना करता हूं।

भारत के प्रथम आधुनिक वैज्ञानिक जगदीश चन्द बोस
मनोहर पुरी
(23 नवम्बर : पुण्यतिथि पर विशेष) आधुनिक भारतीय इतिहास में जगदीशचन्द बोस को भारत का प्रथम आधुनिक वैज्ञानिक होने का गौरव प्राप्त है। 30 नवम्बर 1858 में उस साल जगदीश चन्द बोस का जन्म हुआ जिस वर्ष भारत ईस्ट इंडिया के चंगुल से निकल कर सीधे ब्रिटिश शासन के अधीन हो गया। उनका पालन पोषण ब्रिटिश शासन के दौरान ही हुआ परन्तु उन्होंने अपने राष्ट्र से अधिक किसी को महत्व नहीं दिया। उनके पिता भले ही ब्रिटिश सरकार के अधिकारी थे परन्तु वह ऐसे स्वप्नदृष्टा थे जो भारत के उज्ज्वल भविष्य के लिए हर कार्य करने को तैयार रहते थे। उनका भारतीय संस्कृति में दृढ़ विश्वास था। वह अपने पुत्र को सदैव देश सेवा के लिए प्रवृत्त करते रहे। उन्होंने स्वयं भी अनेक ऐसे कार्यक्रम चलाए जिनसे उनके देशवासियों को अधिक से अधिक रोजगार के अवसर उपलब्ध हुए। उन्होंने बहुत सी शैक्षिणिक,कृषि और तकनीकी से संबंधित परियोजनाओं को प्रारम्भ किया जो भारतवासियों के हित में थीं। जगदीश चन्द बोस पर अपने पिता का बहुत प्रभाव पड़ा। उन्होंने अपनी विद्या और परिश्रम का पूरा लाभ देश को देने का सतत प्रयास किया। वह अपने प्रयोगों के द्वारा निजी आर्थिक लाभ कमाने के पक्ष में नहीं थे। इसीलिए उन्होंने अपने आविष्कारों को पेटेन्ट नहीं करवाया। इसी कारण उन्हें कई बार व्यकक्तिगत रूप में बहुत हानि भी उठानी पड़ी। अधिकतर प्रयोग उन्होंने अपने स्वयं के खर्च से किए। अनेक संस्थाओं और मित्रों ने उन्हें आर्थिक सहयोग देने की पेशकश की परन्तु उनका रूझान इस ओर था ही नहीं। उन्होंने तभी ऐसे किसी सहयोग को स्वीकार किया तब वह बहुत ही आवश्यक और उचित लगा।
भौतिकी के क्षेत्र में उन्होंने अनेक प्रकार के प्रयोग किए परन्तु उनकी सर्वाधिक रूचि वनस्पति विज्ञान में रही। उनकी पहली वैज्ञानिक खोज बेतार के तार से संदेश भेजने के संबंध में थी। उन्होंने अपने द्वारा निर्मित्त यंत्रों की सहायता से रेडियो तरंगों को मोटी दीवारों से पार करके विश्व को अचंभे में डाल दिया। पहली बार तरंगें 75 फीट की दूरी तक गई और वहां रखी घंटी बजाने में सफल हुईं। यह प्रयोग उन्होंने 1895 में बंगाल के गवर्नर जनरल के समक्ष किया था। बचपन से ही उनके मन में यह बात संस्कारों के रूप में बैठ चुकी थी कि पेड़-पौधों में भी प्राण हेंते हैं। वे सोते और जागते हैं। उन्हें सुख दु:ख का अनुभव होतरा है परन्तु इन बातों को वैज्ञानिक आधार पर सिद्ध करके किसी ने नहीं दिखाया था। क्योंकि उस समय ऐसे यंत्र उपलब्ध नहीं थे जिनकी सहायता से उनके भीतर होने वाली क्रियाओं को दिखाया अथवा मापा जा सकता। उन्होंने संजीव और अजैव अनुक्रियाओं और वनस्पति ऊतकों के व्यवहार के साथ उनके व्यवहार की समानता पर निरन्तर काम करना जारी रखा। उन्होंने स्पष्ट किया कि यांत्रिक,ताप के अनुप्रयोग,विद्युत प्रघात,रसायन और ड्रग्स जैसे विभिन्न प्रकार के उद्दीपकों के अधीन वनस्पति ऊतक वैसी विद्युत अनुक्रिया उत्पन्न करते हैं जैसे कि जीव ऊतकों द्वारा की जाती हैं। उद्दीपन के प्रति वैसी ही विद्युत अनुक्रियाएं कुछ अजैव तंत्रों में भी देखी जा सकती हैं। अपने सिद्धांतों को सिद्ध करने के लिए उन्होंने कई नए और उच्च कोटि के संवेदी यंत्रों का आविष्कार किया। अपने अनुंसधान के काल में ही उन्होंने ’क्रेस्कोग्राफ‘यंत्र का निर्माण किया। यह एक ऐसा चमत्कारी यंत्र था जिस की सहायता से पेड़ पौधों की गतिविधियों को दस हजार गुणा बढ़ा कर दिखाया जा सकता था। यह यंत्र 1/100000 इंच प्रति सेकंड तक पौधों की छोटी से छोटी वृद्धि को भी दर्ज कर सकता था। दूसरा महत्वपूर्ण यंत्र था रेजोनेंस रिकाडर। इस यंत्र से यह ज्ञात हो जाता था कि चोट लगने पर और मरते समय पौधे भी कांपने लगते हैं। इस यंत्र के माध्यम से उन्होंने पेड़-पौधों और अन्य जीव-जन्तुओं की अनेक संवेदनाएं और उनकी समानताएं लोगों के सामने प्रदर्शित कीं। उन्होंने पौधों की मृत्यु और कष्ट के दृश्य पर्दे पर दिखाए। यह एक अभूतपूर्व उपलब्धि थी। विश्व में इससे पहले ऐसे प्रयोग किसी वैज्ञानिक ने नहीं किए थे। उनके ऐसे नए नए प्रयोग देख कर यूरोप के लोग उन्हें पूर्व का जादूगर कहने लगे।
विश्व में सर्वप्रथम जगदीश चन्द बोस ने यह प्रतिपादित किया कि प्रत्येक पेड़- पौधे और जीव-जन्तु अर्थात प्रत्येक जीवधारी में एक तरल पदार्थ होता है। इस पदार्थ से शरीर की अनेक क्रियायें नियंत्रित होती हैं। इस पदार्थ का शरीर के विकास में महत्वपूर्ण योगदान होता है। जीव-जन्तुओं की भान्ति वनस्पतियां भी सुख दु:ख में एक तरह की प्रतिक्रियायें प्रकट करती हैं। जितनी सहजता से जगदीश चन्द बोस ने यह बात कही उतनी सहजता ने पश्चिम के वैज्ञानिकों ने उसे स्वीकार नहीं किया। कोई भी इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था। अपने यंत्रों की सहायता ने उन्होंने इस बात को अनेक स्थानों पर स्पष्ट करने का प्रयास किया। उनका कहना था कि जिस प्रकार मानव अपनी सुख दु:ख की अभिव्यक्ति बोलकर,चिल्ला कर अथवा रो-हंस कर करते हैं वैसे पौधे नहीं कर सकते क्योंकि वे बोल नहीं सकते परन्तु उनके मुरझाने अथवा लहलहाने से यही भावनाएं अभिव्यक्त होती हैं। उन्होंने पौधों को घायल करके उनमें होने वाली प्रतिक्रियायों को क्रेस्कोग्राफ पर प्रदर्शित करके दिखाया। उनके निष्कर्षों ने बाद में शरीर विज्ञान,जीव-विज्ञान,साइबरनेटिक्स चिकित्सा शास्त्र और कृषि जैसे विषयों को प्रभावित किया।
जीवन भर जगदीश चन्द बोस को प्रयोगशाला का अभाव खटकता रहा। इसलिए विज्ञान के प्रति समर्पित होने के कारण वह ऐसा प्रयास करना चाहते थे जिससे भावी भारतीय वैज्ञानिकों को इस कठिनाई का सामना न करना पड़े। 30 नवम्बर 1917 को उन्होंने अपने 59वें जन्म दिवस के अवसर पर ’बोस विज्ञान मंदिर‘ की स्थापना की। उन्होंने अपने जीवन की समस्त संचित पूंजी इस प्रयोगशाला को समर्पित कर दी। किसी भारतीय द्वारा भारत में स्थापित यह प्रथम प्रयोगशाला थी। इस अवसर पर उन्होंने कहा था कि मैं चाहता हूं कि भारत को मैं वही विरासत दे सकूं जो इसे लगभग 2500 वर्ष पूर्व तक्षशिला और नालन्दा के रूप में प्राप्त थी। वह चाहते थे कि देश में अधिक से अधिक स्थानों पर ऐसी प्रयोगशालाएं स्थापित हों। ऐसी प्रयोगशालाओं को प्रयोग करने की अनुमति सभी को प्रदान की जाए। ऐसा किसी भेदभाव के बिना और बिना शैक्षणिक सीमाओं के किया जाए। वह हर प्रयोगशाला में अधिक से अधिक सुविधायें उपलब्ध करवाना चाहते थे। इन प्रयोगशालाओं को वह केवल भारतीयों के प्रयोग के लिए ही सुरक्षित रखना नहीं चाहते थे। उनका कहना था कि जैसे भूतकाल में देश विदेश के छात्र भारतीय विश्वविद्यालयों मं शिक्षा ग्रहण करने आते थे वैसा ही भविष्य में भी हो। दूर दराज के स्थानों से लोग इन प्रयोगशालाओं का लाभ उठाने के लिए भारत आयें। वर्ष 1917 से 1937 में अपने निधन तक वह बोस रिसर्च इंस्टीट्यूट में ज्ञान-विज्ञान की खोज में कार्य करते रहे। इस प्रकार भारत में वैज्ञानिक पुनर्जागरण लाने में सर जगदीश चन्द बोस के प्रभावशाली योगदान को आने वाली पीढ़ियां युगों युग तक स्मरण करती रहेंगीं। 23 नवंबर 1937 को गिरिडिह में उन्होंने अंतिम सांस ली और दुनिया को अलबिदा कर चले गए।

भाजपा के गले का पत्थर?
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पहले देश के लोगों को यही बड़ा धक्का लगा था कि सीबीआई के दो सबसे बड़े अधिकारी एक-दूसरे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रहे हैं। भारत की भ्रष्टतम सरकारों के जमाने में भी ऐसे वाकए पहले कभी नहीं हुए। लेकिन अब तो खुद सरकार ही फंसती नजर आ रही है। प्रधानमंत्री कार्यालय पर ही कीचड़ उछलने लगा है। सीबीआई के डिप्टी इंस्पेक्टर जनरल मनीष सिंहा जो कि भ्रष्टाचार-विरोधी विभाग की देखरेख करते हैं, ने आरोप लगाया है कि इस भ्रष्टाचार के मामले को दबाने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल, राज्य मंत्री हरि चौधरी, सतर्कता आयोग कमिश्नर के.बी. चौधरी, विधि सचिव सुरेशचंद्र और राॅ के विशेष सचिव सामंत गोयल ने भी पूरा जोर लगाया है। इस समय अजित दोभाल भारत के वास्तविक उप-प्रधानमंत्री हैं। दोभाल के आगे सभी मंत्री फीके हैं। फिर भी गुजरात से आए हरिभाई चौधरी और दो-तीन सचिव के नाम भी उछले हैं। मनीष सिंहा ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका लगाकर कहा है कि उनका तबादला रातोंरात नागपुर इसलिए किया गया कि वे राकेश आस्थाना की जांच कर रहे थे। राकेश अस्थाना पर सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा रिश्वतखोरी के मामले की जांच करवा रहे थे। देश के साधारण नागरिकों को यह बात समझ में नहीं आ रही है कि जिस अफसर पर रिश्वतखोरी की जांच चल रही थी, उस पर तो कोई मुकदमा नहीं चल रहा है लेकिन जो अफसर-वर्मा- उस पर जांच करवा रहा था, उस पर सर्वोच्च न्यायालय मुकदमा चला रहा है। दूसरी बात यह कि जांच करनेवाले अफसरों को एक झटके में दिल्ली से दूर अंडमान-निकोबार तक फेंक दिया गया है। ऐसे ही अफसर हैं- मनीष सिंहा। किसी नौकरी करते हुए अफसर की क्या मजाल कि वह किसी मंत्री या किसी मंत्री से भी ज्यादा ताकतवर आदमी पर अदालत में आरोप लगा दे? उसने इतनी हिम्मत की, इसका मतलब है कि दाल में कुछ काला है। सिंहा वही अफसर है, जो नीरव मोदी और मेहुल चोकसी द्वारा की गई अरबों रु. की लूटपाट की जांच कर रहे थे। सिंहा ने उक्त घोटालों के बारे में इन अफसरों की टेलिफोन पर चलनेवाली गुप्त बातों के टेपों का हवाला देते हुए जांच की मांग की है। यह पता नहीं कि सिंहा अदालत के सामने अपने आरोपों को सिद्ध कर पाएंगे या नहीं, लेकिन किसी सरकार पर उसके अफसरों द्वारा ऐसे आरोपों को लगाना ही क्या सिद्ध करता है ? क्या यह नहीं कि उस सरकार का नैतिक बल समाप्त हो चुका है? यह मामला रेफल से भी ज्यादा गंभीर होता जा रहा है। यदि इस मामले में खुद नरेंद्र मोदी ने पहल नहीं कि तो 2019 में लेने के देने पड़ जाएंगे। रेफल को समझना आम आदमी के लिए जरा मुश्किल है लेकिन सरकारी भ्रष्टाचार का यह मामला कहीं भाजपा के गले का पत्थर न बन जाए?

चीन में मुस्लिमों का दमन : इस्लामी देशों से सवाल
अजित वर्मा
कई अमेरिकी सांसदों ने कई इस्लामी देशों की अन्य देशों में हो रहे मुस्लिमों के दमन के मुद्दे पर गम्भीर सवाल उठाये हैं। सांसदों ने सवाल उठाया है कि रोहिंग्या मुस्लिमों के समर्थन में वैश्विक प्रयासों का नेतृत्व करने के लिए ललक रहे पाकिस्तान, तुर्की और खाड़ी देशों ने चीन में उइगर मुस्लिमों के दमन पर चुप्पी क्यों साध रखी है? उन्होंने कहा इन देशों की चुप्पी हैरान करने वाली है। सांसद ब्रैड शर्मन ने संसदीय सुनवाई के दौरान कहा कि हमें खास तौर पर उन मुस्लिम देशों का नाम लेना चाहिए, जिन्होंने इस दिशा में कुछ नहीं किया। उन्होंने आरोप लगाया है कि चाहे वह तुर्की हो, पाकिस्तान हो या खाड़ी देश हों, इन्होंने रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए तो काफी प्रयास किए लेकिन वे उइगर मुस्लिमों की मदद करने से साफ पीछे हट गए।
चीन में उइगर एक अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय है और चीन के स्वशासित क्षेत्र शिनजियांग में लगातार इनका दमन हो रहा है। उन्होंने आरोप लगाया कि चीन उइगर मुस्लिमों का बड़े पैमाने पर दमन कर रहा है। हाल की संयुक्त राष्ट्र की बैठक में इस बात का संज्ञान लिया गया है कि चीन सरकार ने शिनजियांग को एक तरह से ‘नजरबंदी शिविर’ में तब्दील कर दिया है।
उइगर मानवाधिकार बोर्ड की चेयरमैन नूरी तुर्केल कह रही हैं कि चीन का साथ देने का पाकिस्तान का भयानक इतिहास है। मलेशियाई नेता अनवर इब्राहिम इकलौते मुस्लिम नेता हैं जिन्होंने उइगर मुसलमानों के लिए आवाज उठाई है। उन्होंने आरोप लगाया कि पाकिस्तान तो पाकिस्तानी-उइगर नागरिकों को खामोश करने में भी चीन के साथ रहा है। खाड़ी देश विशेष रूप से यूएई, मिस्र का भी उइगर मुसलमानों को लेकर रवैया खराब रहा है।
इन देशों ने कई उइगर लोगों को वापस भेजा है। कांग्रेसमैन टेड योहो ने आरोप लगाया कि चीनी सेना ने 1949 में आक्रमण करके शिनजियांग को चीन में शामिल किया था। आज चीन की कम्युनिस्ट पार्टी शिनजियांग के अनूठेपन और उसके वैशिष्ट्य को खत्म कर रही है। प्रशासन ने इस क्षेत्र को हाईटेक सैन्य राज्य में बदल दिया है। कांग्रेसमैन डेना रोराबाशर ने आरोप लगाया कि म्यांमार में भी मुसलमानों के कत्ल के पीछे चीन सरकार थी।
हमने कुछ दिन पहले भी चीन में हो रहे ईसाईयों और मुस्लिमों के दमन का जिक्र अपने लेख में किया था। स्पष्ट है कि केवल उइगर मुस्लिम ही नहीं चीन में ईसाइयों के साथ-साथ बड़े पैमाने पर मुस्लिमों का दमन हो रहा है। उनका नमाज पढ़ना, रोजा रखना, अल्लाह की इबादत करना मुश्किल हो गया है। इस लिहाज से अमेरिकी सांसदों का उइगर मुस्लिमों पर चीन में हो रहे अत्याचारों पर इस्लाम के झण्डाबरदार देशों का चुप्पी पर सवाल उठाना जायज है। हमारा सवाल यह है कि अमेरिकी सरकार को अब मानवाधिकारों के हनन की चिंता क्यों नहीं होती? संयुक्त राष्ट्र चुप क्यों है? और भारत की सरकार भी इसका संज्ञान क्यों नहीं ले रही है?

ऐसे अदभुत हैं, शेख नाह्यान
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
पिछले चार-पांच दिन दुबई और अबू धाबी में ऐसे बीते, जिनकी याद मुझे जिंदगी भर बनी रहेगी। यों तो दुबई में कई बार आ चुका हूं लेकिन इस बार यहां मैं दिल्ली की ‘दिया फाउंडेशन’ के कार्यक्रम में भाग लेने आया था। यह कार्यक्रम देश के प्रसिद्ध हृदयरोग विशेषज्ञ डाॅ. एस.सी. मनचंदा ने चला रखा है। वे विकलांग गरीब बच्चों के हृदय के आॅपरेशन मुफ्त करवाते हैं। इस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे- शेख नाह्यान बिन मुबारक। शेख साहब इस देश के सबसे लोकप्रिय नेता हैं। भारतीयों का कोई भी बड़ा समारोह उनके बिना पूरा नहीं होता। वे हमारे कार्यक्रम में तो आए ही, उन्होंने दो बार मुझे अपने महल में भोजन के लिए आमंत्रित किया। उनके साथ भोजन में लगभग 200 आदमी रोज बैठते हैं। अतिथियों में देश-विदेश के नेता, उद्योगपति, राजदूत और अन्य विशिष्ट लोग होते हैं। पहले दिन उन्होंने अपने पास के सोफे पर सिर्फ मुझे बिठाया और भारत-अमारात संबंधों के बारे में अंतरंग बात की। कल उन्होंने मुझे दुबारा निमंत्रित किया। उनके अबू धाबी के महल में पहुंचने के लिए बहुत ही शानदार कार उन्होंने मेरे लिए दुबई भिजवाई। भोजन शुरु हो चुका था। हमारी कार 10 मिनिट देर से पहुंची। मैंने देखा कि मंच पर छह-सात मेहमान बैठे हैं। शेष 2-3 सौ लोग नीचे भोजन की मेज-कुर्सियों पर बैठे हैं। मेरे जाते ही शेखजी उठकर खड़े हुए और पास की कुर्सी पर बैठे एक अन्य मंत्री को हटाकर वे उसकी कुर्सी के पीछे खड़े हो गए। मुझे उन्होंने अपनी कुर्सी पर बिठा दिया। मेरे दांए श्री श्री रविशंकर बैठे थे और बाएं शेख नाह्यान। मैं बीचों-बीच। मुझे आश्चर्य हुआ। बाकी सभी लोगों को भी! शेखजी के एक मित्र ने पूछ लिया, ‘आप डाॅ. वैदिक को कब से जानते हैं ?’ उन्होंने कहा ‘‘पिछले जन्म से’’! रविशंकरजी ने पूछा तो मैंने कहा कि शेख नाह्यान इस्लाम की शान हैं तो शेखजी ने कहा कि ”डाॅ. वैदिकजी इंसानियत की शान हैं।” मैं तो दंग रह गया। शेख नाह्यान भारतीयों के मंदिरों, गुरुद्वारों, आश्रमों और उनके घरों पर भी अक्सर जाते रहते हैं। वे सर्वधर्म समभाव की साक्षात प्रतिमूर्ति हैं। वे हिंदी और अंग्रेजी भी धाराप्रवाह बोलते हैं। उन्होंने अपना पूरा भोजन एकदम शाकाहारी रखा। जब मैं उनके महल में ठहरता हूं तो वे मेरे खातिर सारा भेाजन शुद्ध शाकाहारी रखते हैं। वे हैं तो अरब लेकिन मुझे लगता है कि पिछले जन्म में वे भारतीय ही रहे होंगे। उन्होंने अपने मंत्रालय का नाम ‘सहिष्णुता मंत्रालय’ रखा है। वे सब धर्मों, सब जातियों और सब देशों के बीच सदभावना, सहिष्णुता और सहकार का भाव जगाने की कोशिश करते हैं। इस यात्रा के दौरान पड़ौसी देशों के अन्य बड़े नेताओं और कूटनीतिज्ञों के साथ प्रीति-भोज और संवाद भी हुए। मुझे लगता है कि अचानक हुए इन संवादों से अगले दो—तीन वर्ष में दक्षिण एशिया की राजनीति को एकदम नया स्वरुप देने में हमें काफी मदद मिलेगी।

प्रधान सेवक का बड़बोलापन –पिंक क्रांति के समर्थक !
अरविन्द जैन
कांग्रेस के घोषणा पत्र में हर जिले में गोशाला बनवाने के वादे पर हमला करते हुए पीएम ने कहा, ‘मध्य प्रदेश के घोषणा पत्र में तो कांग्रेस पार्टी गाय माता का गौरवगान कर रही है। लेकिन केरल में खुले आम रास्ते पर कांग्रेस के लोग गाय के बछड़े का सर काटकर मांस खाते हुए अपनी तस्वीर निकालकर कहते हैं कि गो-मांस खाना हमारा अधिकार है। धोखा करना कांग्रेस पार्टी के स्वभाव में है इसलिए देश की जनता उन पर विश्वास करने वाली नहीं है।’ यह उदगार छिंदवाड़ा में व्यक्त किये थे।
प्रधान सेवक अपने गिरेवान में झांक कर देखे। सबसे पहले वे स्वयं बताये की उनके द्वारा चमड़े के जूते पहने जाते हैं,कमर में चमड़े का बेल्ट लगते हैं, घड़ी के बेल्ट चमड़े का होता हैं या नहीं, जेब में रखने वाला बटुआ चमड़े का होता है या नहीं। साथ में चलने वाली अटैची चमड़े की हैं या नहीं। आर एस एस के कार्यकर्त्ता क्या चमड़े के जूते और बेल्ट का उपयोग नहीं करते। आपके मंत्रिमंडल में कितने मंत्री हैं जो मांस शराब का सेवन नहीं करते। मनोहर पर्रिकर कहते हैं प्रदेश में बीफ की कमी नहीं होने देंगे, यदि कमी पडी तो अन्य राज्यों से निर्यात करेंगे। किरण जीजू खुद कहते हैं की कौन मुझे बीफ खाने से रोक सकता हैं। अरे महोदय स्वयं संसद भवन में इसका उपयोग बहुत सस्ते दामों में उपलब्ध कराया जाता हैं। उस पर कब प्रतिबन्ध लगेगा ?
आज भारत में मांस की खपत बहुत अधिक बढ़ती जा रही हैं। आप बड़े बड़े शहरों में शाकाहार भोजनालय कितने प्रतिशत हैं। कई प्रांतों में तो शाकाहार भोजन बहुत कठिनाई से मिलता हैं। उत्तर प्रदेश में योगी के आने से बहुत क्रान्तिकार कदम उठाया गया था उसके बाद वहां और अधिक उत्पादन बढ़ गया। आज राजनीती में शराब, कबाब, और शबाब के बिना काम नहीं होता। आज भारत पिंक क्रांति में विश्व में श्रेष्टतम स्थान पर हैं। भारत से सुबह सुबह मुस्लिम देशों के लिए विशेष विमान सेवायें उपलब्ध करा कर सबसे विशिष्ठ प्रकार का मांस भेजा जाता हैं।
एक तरफ भोजन स्वयं का निर्णय हैं की हमें क्या खाना है और क्या पहनना हैं और दूसरी और नित्य नए कत्लखाने खुल रहे हैं। क्यों नहीं गाय को राष्ट्र्रीय पशु घोषित करते। यदि यही रफ़्तार पशुओं की हत्यायों की रही तो कुछ दिनों में ये भी दुर्लभ जातियों के अंतरगत आने वाले होंगे। जो राष्ट्र जीव हिंसा से अपनी आर्थिक उन्नति करता हैं उसका भविष्य अंधकार मय होगा। मनपसद सरकार यानि मध्य प्रदेश सरकार ने तो कड़कनाथ मुर्गों को जान जान तक पहुंचने दूध के बूथों से इनकी भी सप्लाई शुरू की हैं। मध्य प्रदेश में भी मांस उत्पादन बढ़ा हैं और उसे भी निर्यात किया जाता हैं।
प्रधान सेवक दूसरों को ऊँगली उठाने के पहले समझे की चार उंगुलिया खुद की ओर जाती हैं। आप भी इस पाप के घृणित खेल से अछूते नहीं हैं और न कोई होगा कारण कारण इस उद्योग से लाखों करोड़ रुपयों की आमदनी है करोड़ों जानवरों को मारकर। क्या मांस बिना हिंसा के प्राप्त हो सकता हैं। कभी नहीं। जबकि हमारे धरम ग्रंथों, पुराणों में इसका व्यवसाय। खाना पूर्णतः वर्जित हैं फिर भी उनकी उपेक्षा कर खा रहे, बेच रहे और आर्थिक लाभ कमा रहे हैं।
केरल में क्या हो रहा हैं और गोवा में और उत्तर पूर्व में क्या हो रहा हैं, हमारे यहाँ अब जो खाते थे वो छोड् रहे हैं और जिनको वर्जित था वे ग्रहण कर रहे हैं। यह अब आर्थिक रूप से सम्पन्न लोगों का भोजन हैं। पांच सितारा आदि होटल्स में इनके बिना मान्यता नहीं मिलती।
यह क्रम स्वतंत्रता के पहले से चल रहा हैं और अब बहुत अधिक वृद्धि होने से पशुओं की संख्या निरंतर घटती जा रही हैं इस पर किसी भी पार्टी का ध्यान नहीं हैं। ध्यान मात्र अर्थ का हैं। यह असाधय रोग हैं और इस पर राजनीती ही चल सकती हैं पर कार्यवाही करने की ताकत किसी के पास नहीं हैं। कितने धर्मगुरुओं के सामने वोट पाने और जीतने के लिए जाते हैं और उनको वचन देते हैं और सत्ता पाने के बाद विषय को भूल जाते हैं। इसी कारण भारत विकास की ओर न जाकर विनाश की ओर जा रहा हैं और जिसको कोई भी रोकने वाला नहीं हैं। आज शासकीय आयोजनों में मांसाहार, अंडा मच्छली शराब का बहुतायत से प्रचलन हैं। आज जनता के पैसों से मांसाहार का उपयोग बहुत हो रहा हैं। इस पर सबसे पहले प्रतिबन्ध लगे। एक बात यह हैं की यह मामला कानून से, नियम से नहीं लागु हो सकता, इसके लिए स्वयं का निर्णय और इसके सेवन से होने वाले नुक्सान से ही बचाव संभव हैं अन्यथा जो जो रोक वैसे वैसे वृद्धि का होना स्वाभाविक हैं।

बैंकिंग प्रणाली और अर्थव्यवस्था पर संकट
सनत जैन
भारत की बैंकिंग प्रणाली और अर्थव्यवस्था इन दिनों गंभीर संकट के दौर से गुजर रही है। भारत की अर्थव्यवस्था 2008 के अमेरिकी संकट से ज्यादा भयावह स्थिति में पहुंच गई है। वैश्विक बंदी के मकड़जाल में भारत भी फॅस चुका है। इसके सुधार के लिए अभी दूर-दूर तक कोई अच्छी संभावनाएं नहीं दिख रही हैं। 1998 में भी एशिया में आर्थिक संकट था। उस समय केंद्र की अटल बिहारी वाजपेई सरकार ने कड़े वित्तीय निर्णय लिए थे। खर्च कम किए थे। केंद्र और राज्य सरकारों ने अपने खर्च को घटया था। 30 प्रतिशत स्वीकृत पद खत्म किए थे।
2008 में वॉल स्ट्रीट के घोटाले से अमेरिका और दुनिया कई के देश आर्थिक संकट में फॅस गए थे। इससे उबरने के लिए अमेरिका को कई वर्ष लगे। इसके लिए अमेरिका ने सारी दुनिया के देशों का शोषण किया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कच्चे तेल के दाम बढ़ाकर तथा सारी दुनिया को महंगा सोना बेचकर अमेरिका ने अपने आर्थिक संकट से मुक्ति पा ली। किंतु यह भारत जैसे विकासशील देशों के लिए संभव नहीं है। 2008 के आर्थिक संकट से भारत इसलिए भी उबर गया, कि 2003 से वैश्विक व्यापार संधि लागू होने से भारत के बाजार, सारी दुनिया के लिए खुले। 2003 के बाद से वैश्विक स्तर पर भारत को विकास के लिए, बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कर्ज़ मिला। वहीं शेयर बाजार औद्योगिक और वित्तीय संस्थाओं में बड़े पैमाने पर विदेशी निवेश आया। कर्ज़ की अर्थव्यवस्था भारत में पहली बार 2003 के बाद से लागू हुई। जिसके कारण भारत में बड़ी तेजी के साथ भारतीय नागरिकों को भी, बड़ी सुगमता से मकान, शिक्षा, वाहन, इलेक्ट्रॉनिक गुड्स इत्यादि के लिए लोन मिला। 2004 से लेकर 2014 तक भारत की अर्थव्यवस्था और जीडीपी लगातार विकास पथ पर अग्रसर रही। भारत के लिए 2004 से 2014 तक के 10 साल अर्थव्यवस्था की दृष्टि से स्वर्णिम काल था।
केंद्र और राज्य सरकारों ने इस बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया। बड़े पैमाने पर केंद्र और राज्य सरकारों ने चुनाव जीतने के लिए लोकलुभावन योजनाओं को लागू करके सरकारी खजाने को बड़ी बेरहमी से उड़ाया। इस दौरान भ्रष्टाचार भी बड़ी तेजी के साथ बढ़ा। राज्य सरकारों तथा नगरीय संस्थाओं ने विकास के लिए बड़ी मात्रा में योजनाओं के लिए कर्ज लिया। लोकलुभावन योजनाओं और विकास की योजनाओं के कारण 2004 से 2014 के बीच केवल राजस्थान सरकार को छोड़ दें, तो शेष सभी राज्य और केंद्र सरकार चुनाव में पुनः निर्वाचित हुई। 2004 के बाद सरकारी खजाने में जो बेतहाशा धन आ रहा था। उसको देखते हुए केंद्र सरकार और योजना आयोग ने लगभग 4 दर्जन से अधिक लोकलुभावन योजनाएं शुरू की थी। पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह राजनेता नहीं थे। जिसके कारण केंद्र सरकार की योजनाओं में राज्य सरकारों ने अपना ठप्पा लगाया, उसका राजनीतिक लाभ राज्य सरकारों को मिला यूपीए शासन के दूसरे कार्यकाल में विपक्ष ने कैग की रिपोर्ट को आधार बनाकर मनमोहन सरकार को सबसे भ्रष्टाचारी सरकार बता दिया। जिसके कारण केंद्र से मनमोहन सरकार भ्रष्टाचार के आरोपों में 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस जबरदस्त तरीके से चुनाव में पराजित हुई।
2004 से 2014 के बीच जब सरकारी खजाने में आशा के विपरीत बड़े पैमाने पर धन आ रहा था। उस समय राजनेताओं नौकरशाहों और कारपोरेट जगत की तिकड़ी ने सरकारी खजाने को लूटने का षड्यंत्र रचा। जो अब सामने आ रहा है। शेयर बाजार 2004 से सट्टेबाजी के कारण, जिस तरह गुब्बारे में हवा भरकर फुलाया जाता है। वैसे ही शेयर बाजार को तेजड़ियों ने गुब्बारे की तरह फुला दिया। 2008 में जब अमेरिका का गुब्बारा फटा, उसके बाद भारत का घने बड़े पैमाने पर शेयर बाजार के माध्यम से देशी एवं विदेशी निवेशकों ने मुनाफा वसूली करके, भारतीय शेयर बाजार का धन बड़े पैमाने पर विदेश में निवेश किया। मुनाफावसूली से जब भी शेयर बाजार गिरने लगा। उस समय भारतीय बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने गिरते हुए बाजार को थामने के लिए बड़े पैमाने पर शेयर बाजार में निवेश किया। सट्टेबाजी के कारण शेयर बाजार का सेंसेक्स बढ़ने से बैंकों का मुनाफा भी बैलेंस शीट में बढ़ा। पिछले महीनों में लगभग 4000 अंक सेंसेक्स गिर गया। उससे बैंकों का खरबों रुपए डूब गया है।
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का एनपीए 2014 में लगभग दो लाख करोड़ रुपए था। जो अब बढ़कर लगभग 10 लाख करोड़ पर पहुंच गया है। पिछले 4 सालों में बैंकों का एनपीए बढ़ता ही जा रहा है। इस बीच फंसे हुए ऋण की वसूली करने में बैंक नाकाम रहे। बैंकों ने नॉन बैंकिंग कंपनियों को इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ाने के लिए को लोन दिए थे। इसी तरह पावर प्लांट, टेलीकम्युनिकेशन कंपनियों को बड़े पैमाने पर लोन दिए गए थे। यह सारी कंपनियां कर्ज के बोझ से दबकर, कई कंपनियां दिवालिया होने की कगार पर पहुंच गई हैं। बैंकों मैं हुई धोखाधड़ी से भी अरबों रुपए का नुकसान बैंकों को हुआ है। पिछली दो तिमाही से बैंकों का घाटा भी बढ़ रहा है। बैंकों की बैलेंस शीट शेयर बाजार के कारण अभी बेहतर बनी हुई है। जिस तरह से वैश्विक मंदी के परिणाम सारी दुनिया के बाजारों में देखने को मिल रहे हैं। वित्तीय विशेषज्ञों का कहना है, कि शेयर बाजार का सेंसेक्स यदि 30000 के स्तर पर आता है, तो बैंकों की बैलेंस शीट घाटे में बदल जाएगी। तब बैंकों को बचाना मुश्किल होगा। बैंकों के पास नकदी नहीं है। सरकार के पास बैंकों में निवेश करने के लिए पैसा नहीं है। सरकार का राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। भारतीय वित्तीय संस्थाओं की 40 फ़ीसदी हिस्सेदारी केंद्र सरकार के पास है। 40 फीसदी हिस्सा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से कारपोरेट कंपनियों में निवेश है। जिसकी वसूली संभव नहीं हो पा रही है। बैंकों के पास केवल 15 से 20 फ़ीसदी ही नगदी बची हुई है। ऐसी स्थिति में केंद्र सरकार यदि रिजर्व बैंक की सुरक्षित पूंजी, सरकारी खजाने अथवा बैंकों को अतिरिक्त सहायता के रूप में दे देती है। तो यही कहा जा सकता है, कि केंद्र सरकार रोजाना अंडा देने वाली मुर्गी को ही हलाल करके खा रही है। अंडा देने वाली मुर्गी जब नहीं रहेगी, तो6 आगे रोजाना अंडा भी नहीं मिलेंगे। रिजर्व बैंक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय साख को बनाए रखने के लिए सरकार के प्रस्ताव पर सहमत नहीं हो रही थी। किंतु सरकार के दबाव में बीच का रास्ता निकालकर रिजर्व बैंक टकराव टालने का प्रयास कर रहा है। उससे चार छह माह के लिए जरूर सरकार की अर्थव्यवस्था और बैंकिंग प्रणाली को ऑक्सीजन मिल जाए, किंतु उसके बाद स्थिति और भयावह होगी।
वर्तमान स्थिति को देखते हुए यही कहा जा सकता है, कि केंद्र की मोदी सरकार को बिना राजनैतिक लाभ-हानि के, राष्ट्रहित में ठोस वित्तीय निर्णय लेने की जरूरत है। केंद्र सरकार, राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं के ऊपर वित्तीय संस्थाओं और विदेशी संस्थाओं के भारी कर्ज है। कई राज्य सरकारें कर्ज लेकर पिछले कई माहों से अपनी जरूरतों को पूरा कर रही हैं। सरकारों और स्थानीय संस्थाओं की आय का बहुत बड़ा हिस्सा कर्ज और ब्याज की अदायगी में जा रहा है। भारतीय नागरिकों के ऊपर टैक्स का भारी बोझ है। इसमें वृद्धि करने की भी कोई गुंजाइश नहीं है। नोटबंदी और जीएसटी के दबाव से भारतीय अर्थव्यवस्था उबर भी नहीं पाई थी। इसी बीच वैश्विक मंदी ने भारतीय अर्थव्यवस्था पर अपने बुरे प्रभाव डालना शुरू कर दिए हैं। कर्ज़ का घी पीकर कभी निरंतर विकास संभव नहीं है। कर्ज़ भी एक सीमा तक ही लिया जा सकता है। वह सीमा भी केंद्र, राज्य सरकारों और स्थानीय संस्थाओं ने पार कर ली है। ऐसी स्थिति में केंद्र एवं राज्य सरकारों को अपने खर्च कम करके ही समस्या का समाधान खोजना होगा। रिजर्व बैंक और केंद्र सरकार को अपने अपने दायित्वों को गंभीरता के साथ समझना होगा। ऐसे कठिन समय में यही आशा की जा सकती है।

श्रीलंका में सिंहल-सिंहल संग्राम
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
श्रीलंका में राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, संसद और यहां तक कि उसके संविधान की जैसी दुर्गति आजकल हो रही है, पहले कभी नहीं हुई। मुझे वह 40 साल पुराना जमाना याद है जब श्रीमती श्रीमावो बंदारनायक और विरोधी नेता प्रेमदास के बीच कटुतम सार्वजनिक वार्तालाप हुआ करता था लेकिन तब भी श्रीलंका की संवैधानिक मर्यादा का पालन किया जाता था लेकिन आज तो उसकी हर संवैधानिक संस्था पर प्रश्नचिन्ह खड़ा हो गया है। अब जबकि श्रीलंका की संसद ने महिंद राजपक्ष के विरोध में अविश्वास प्रस्ताव पारित कर दिया है, तब भी वे अपने पद पर टिके हुए हैं। यह तथ्य राष्ट्रपति श्रीसेन के मुंह पर कालिख पोत देता है। उन्होंने ही संविधान की धारा का दुरुपयोग करके प्रधानमंत्री रनिल विक्रमसिंघ को बर्खास्त कर दिया था और संसद को इसलिए भंग कर दिया था, क्योंकि राजपक्ष के पक्ष में वे पर्याप्त सांसदों को नहीं जुटा पाए थे। लेकिन श्रीलंका के सर्वोच्च न्यायालय ने राष्ट्रपति के इस कदम को गैर-कानूनी बताया और संसद फिर जी उठी। अब इस पुनर्जीवित संसद ने राजपक्ष को हरा दिया। यदि राजपक्ष को श्रीसेन अब भी घर नहीं बिठाएंगे तो उन्हें खुद जाना पड़ेगा। उनके खिलाफ श्रीलंका में भयंकर जनमत खड़ा हो गया है। राजपक्ष खुद इतने बड़े उस्ताद हैं कि उन्होंने श्रीसेन को छोड़कर अपनी अलग पार्टी खड़ी कर ली है। गनीमत है कि इस मौके पर श्रीलंका की फौज तख्ता-पलट की नहीं सोच रही है। यदि फौज राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों को गिरफ्तार कर ले तो भी कोई आश्चर्य नहीं होगा। इस सारे घटना-क्रम में श्रीलंका के सांसदों और जजों ने जिस ऊंचे चरित्र का परिचय दिया है, वह दक्षिण एशिया के सभी देशों के लिए अनुकरणीय है। राष्ट्रपति श्रीसेन के पास इस समय सिर्फ एक ही विकल्प है कि अपने क्रोध पर काबू करें और रनिल विक्रमसिंघ को दुबारा प्रधानमंत्री पद लेने दें। यह कितने दुर्भाग्य का विषय है कि श्रीलंका में कई दशकों से चला आ रहा सिंहल-तमिल संग्राम बंद हुआ तो अब सिंहल-सिंहल संग्राम शुरु हो गया है।

काशी होगी पूर्वांचल का पालटिक्स केंद्र
प्रभुनाथ शुक्ल
कुछ माह बाद 2019 में लोकसभा के आम चुनाव होने हैं। लिहाजा देश का मूड चुनावी है। राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में हो रहे आम चुनाव गुलाबी ठंड में भी तपिस बढ़ा दी है। कर्नाटक में हुए उपचुनाव और उसके बाद आए परिणाम ने इस सरगर्मी को और बढ़ा दिया है। गैर भाजपाई दल राज्य विधानसभा चुनाओं को जहां भाजपा और मोदी के लिए प्री-पालटिक्स टेस्ट मान रहे हैं। वहीं कर्नाटक की जीत को महागठबंधन के लिए सरकारात्मक बताया जा रहा है। लेकिन 2019 का फाइनल टेस्ट चार राज्यों के विधानसभा परिणाम को बताया जा रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश के बगैर देश की राजनीतिक अधूरी है। भाजपा और मोदी की निगाह इस वक्त सिर्फ उत्तर प्रदेश पर टिकी है। क्योंकि दिल्ली का रास्ता वाया लखनउ से होकर गुजरता है। उसमें भी पूर्वांचल का हिस्सा किसी भी राजनीतिक दल के लिए बेहद अहम है।
वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी का दौरा देश की राजनीतिक सरगर्मी को और बढ़ा दिया है। भाजपा चुनावी खेल को फं्रट पर आकर खेल रही है जबकि कांग्रेस और दूसरे दल अभी काफी पीछे दिखते हैं। पीएम मोदी अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी यानी काशी में तोहफांे की जो बारिश किया उससे यह साबित हो गया है 2019 में मोदी का चुनावी रण काशी ही होगा और वाराणसी से वह दूसरी बार उम्मीदवार होंगे। भाजपा पूर्वांचल को पालटिक्स पावर सेंटर बनाना चाहती है। जिसकी वजह है प्रधानमंत्री ने विकास का पीटारा खोलकर पूर्वांचल को साधने की कोशिश की है। हांलाकि 2019 में यह कितना कामयाब होगा यह वक्त बताएगा। क्योंकि अगर सपा-बसपा एक साथ आए तो भाजपा के लिए पूर्वांचल बड़ी चुनौती होगा। उसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा विकास की आड़ में अपना राजनैतिक खेल अभी से शुरु कर दिया है। चुनावी तैयारियों की जहां तक बात करें तो अभी भारतीय जनता पार्टी और टीम अमितशाह सबसे आगे दिखती है। क्योंकि लोगों को साधने के लिए भाजपा के पास अच्छा मौका है। जब तक चुनावी आचार संहिता नहीं लागू होती है तब तक विकास की आड़ में चुनावी तोहफों की झमाझम बारिश की जा सकती है। इसकी वजह है केंद्र और राज्य दोनों में भाजपा की सरकार। लिहाजा वह विकास की आड़ में चुनावी खेल खेलने में कोेई भूल नहीं करना चाहती है। जबकि विपक्ष के पास आरोप-प्रत्यारोप के अलावा कुछ हाथ नहीं लगा है। अब 2019 में काशी की जनता मोदी को कितना पसंद करती है यह कहना जल्दबाजी होगी। क्योंकि भाजपा की पूरी कोशिश है कि 2014 में पूर्वांचल में पार्टी को जो सफलता मिली है उस पर कब्जा बरकरार रखा जाए जिसकी वजह है पीएम मोदी के संसदीय क्षेत्र काशी को पूर्वांचल के पालटिक्स पावर सेंटर के रुप में स्थापित किया जा रहा है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबका साथ सबका विकास के मूलमंत्र को आगे बढ़ाते हुए एक बार काशी से पूरे देश को यह संदेश दिया है कि वह विकास की बात करते हैं जबकि विपक्ष राफेल, जीएसटी और नोटबंदी की बात करता है। वाराणसी दौरे में इस बात को उन्होंने उल्लेख भी किया है। पीएम मोदी ने वाराणसी को 2400 करोड़ की विकास योजनाओं की सौगात दी है। निश्चित रुप से यह अपने आप में अहम है। उन्होंने आतंरिक जलमार्गों के इतिहास में एक बड़ी उपलब्धि जोड़ी है। सीधे कोलकाता यानी हल्दिया से वाराणसी को जोड़ा है। 200 करोड़ की लागत से बने देश के पहले मल्टी माडल टर्मिनल का लोकार्पण कर विकास का नया इतिहास लिखा है। मोदी ने अपने संबोधन में इस बात का उल्लेख भी किया कि जो काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था वह अब हो रहा है। जलमार्ग के जरिए पूरे पूर्वांचल को जोड़ने की एक नयी सोच विकास में कितना खरी उतरेगी यह तो वक्त बताएगा। लेकिन मोदी ने इसके जरिए पूर्वांचल की जनता का दिल जीत लिया है। इस दौरान गडकरी ने कहा कि पहली बार गंगा के जरिए 16 कंटेनर यहां पहुंचे हैं। गंगा के जरिए भविष्य में 270 लाख टन का परिवहन होगा। हालांकि गर्मियों मंे जब गंगा में पानी की कम होगा तब यह दावा कितना सफल होता है यह देखना होगा। इसके अलावा बावतपुर एयरपोर्ट से सीधे फोरलेन के जरिए वाराणसी को जोड़ा गया है। 16 किमी रिंग रोड़ का निर्माण किया गया है। काशी को केंद्र मान कर इसके चारों तरफ सड़कों को जाल बिछाया गया है। यह सब बातें बेहद अच्छी हैं। पीएम मोदी की वजह से वाराणसी का विकास हुआ इसमें कोई शक भी नहीं है। लेकिन चुनावी मौसम में यह कितना धरातलीय होगा यह देखना होगा।
गंगा की सफाई मोदी सरकार की प्राथमिकता थी, लेकिन पांच साल बाद भी गंगा कितनी साफ हुई यह कहने की बात नहीं है। काशी को क्वेटो बनाने की मुहिम अभी तक परवान नहीं चढ़ी हैं। जिसकी वजह से सरकार की की कथनी और करनी में काफी अंतर दिखता है। विकास के नाम पर गंगा के घाटों और गलियों के मूल स्वरुप को नुकसान पहुंचाया गया है। जिसकी वजह से काशी के वासिंदे बहोत खुश नहीं हैं। गंगा से सीधे बाबा विश्वनाथ मंदिर मार्ग का चैड़ीकरण वहां के लोगों के गुस्से का कारण बना है। क्योंकि इसकी वजह से काफी लोग बेघर हो जाएंगे और काशी के मूल स्वरुप को नुकसान होगा। हांलाकि गंगा की सफाई मोदी सरकार की प्राथमिकता है, लेकिन उसकी गति बेहद धीमी रही है। दूसरी तरह पूर्वांचल की चीनी मिलें, साड़ी उद्योग, कालीन उद्योग दमतोड़ चुका है। वाराणसी में आज भी गंगा घाटों की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। स्वच्छता को अभियान तो एक दिवा स्वप्न भर दिखता है। केंद्रीयमंत्री नीतिन गड़करी ने कहा है कि अगले साल मार्च तक गंगा 80 फीसदी साफ हो जाएंगी। सरकार गंगा सफाई के लिए 10 हजार करोड़ की परियोजना लायी है। यह अपने आप में कितना सच होगा फिलहाल अभी कुछ कहना मुश्किल है।
भाजपा वाराणसी को पूर्वांचल का पालटिक्स पावर सेंटर बनाकर यहां से पूर्वांचल की 22 संसदीय सीटों पर नजर रखना चाहती है। वह काशी प्रांत पर अपनी पकड़ ढ़िली नहीं होने देना चाहती है। वाराणसी से सटे बिहार के राजनीतिक हल्कों पर भी पूरी पकड़ मजबूत रखना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के विकास पीटारे ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा किसी भी कीमत पर पूर्वांचल को खोना नहीं चाहती है। वह 2014 की तरह 2019 में भी अपना प्रदर्शन दोहराना चाहती है। वाराणसी देश की धार्मिक और सांस्कृतिक राजधानी है। देश और दुनिया में इसकी अलग पहचान है। कांगे्रस के दौर में भी वाराणसी राजनीतिक का केंद्र रहा था। मोदी युग में यह सोच और आगे बढ़ी है। दूसरी सबसे अहम बात यह है कि राज्य और पूर्वांचल की पिछड़ी जातियों पर भाजपा की पूरी निगाह है। यूपी में 32 फीसदी पिछड़ी जाति के लोग हैं। जबकि पीएम मोदी भी पिछड़ी जाति से आते हैं। दूसरी बात पूर्वांचल सबसे पिछड़ा क्षेत्र रहा है। इसके अलावा यहां से बिहार की बक्सर, आरा और गया करीब है। जबकि छत्तीसगढ़ की पलामू सीट में नजदीक है। जिसकी वजह से पीएम मोदी के काशी से दोबारा चुनाव लड़ने पर इसका पूरे पूर्वांचल के साथ बिहार और छत्तीसगढ़ पर भी असर दिखेगा। जिसकी वजह से भाजपा एक रणनीति के तहत मोदी को यहां से दोबारा चुनाव मैदान में उतारना चाहती है। अब देखना यह होगा कि 2019 में बदलते राजनीतिक समीकरण में भाजपा कितना कामयाब होगी।

पक्ष—विपक्ष के लिए कांटों भरा है अगला साल
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
2019 के आम चुनाव की घंटियां अभी से बजने लगी हैं। सत्तारुढ़ और विरोधी दलों ने अभी से अपनी कमर कसनी शुरु कर दी है। भाजपा के अध्यक्ष हर प्रदेश का दौरा कर रहे हैं और विरोधी नेतागण भी किसी न किसी बहाने एक-दूसरे से मिल रहे हैं। आज के दिन किसी को भी विश्वास नहीं है कि वे आसानी से सरकार बना लेंगे। पहला सवाल तो यही है कि क्या समस्त विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव साथ-साथ होंगे ? यदि ये सारे चुनाव एक साथ होंगे तो कब होंगे ? क्या मप्र, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मिजोरम के चुनावों के साथ-साथ लोकसभा और शेष सभी राज्यों के चुनाव दिसंबर 2018 में ही करवा दिए जाएंगे या लोकसभा के चुनावों के साथ मई 2019 में करवाए जाएंगे ?
सरकार की मंशा तो यह लग रही है कि ये चुनाव साथ-साथ करवाएं जाएं। उनकी तारीखें आगे-पीछे की जा सकती हैं। लोकसभा और सभी विधानसभाओं के चुनाव यदि साथ-साथ होते हैं तो यह एक उत्तम परंपरा का प्रारंभ होगा। इससे चुनाव-खर्च घटेगा। सत्तारुढ़ नेता पांच साल तक अपना कर्तव्य-निर्वाह लगन और ईमानदारी से करेंगे। उनका समय लगातार चलनेवलो चुनाव-अभियानों में बर्बाद नहीं होगा और उन्हें जनता से झूठे वायदे भी नहीं करने पड़ेंगे। लेकिन इस संबंध में जो भी निर्णय हो, उसमें सभी दलों की भागीदारी होनी चाहिए। यदि कांग्रेस की साल भर पुरानी पंजाब सरकार को चुनाव का सामना करना पड़ेगा तो भाजपा की उप्र समेत कई सरकारों को अपनी पांच साल की अवधि को तिलांजलि देनी पड़ेगी।
विरोधी दलों को डर है कि दोनों चुनाव साथ-साथ होंगे तो भाजपा को इसका तगड़ा लाभ मिल जाएगा, क्योंकि केंद्र और ज्यादातर राज्यों में वही सत्तारुढ़ है। इस तर्क में कुछ दम जरुर है लेकिन वे यह न भूलें कि 2014 की मोदी लहर अब नदारद है और भ्रष्टाचार की कालिख पोतने के लिए कांग्रेसी सरकार का चेहरा भी उलपब्ध नहीं है। राज्यों के चुनाव तो वहां की सरकारों के काम-काज के आधार पर ही जीते जाते हैं। लेकिन सारे चुनाव साथ-साथ होते हैं तो प्रांतीय मतदाताओं पर सभी दलों के केंद्रीय नेताओं और सरकार का असर ज्यादा होने की संभावना रहेगी। ऐसी स्थिति में भाजपा का भविष्य नरेंद्र मोदी के हाथों में होगा। लेकिन 2014 के नरेंद्र मोदी और 2018 के नरेंद्र मोदी में क्या जमीन-आसमान का अंतर नहीं आ गया है ? मोदी की सारी कमजोरियों और विफलता का खामियाजा क्या भाजपा के मुख्यमंत्रियों को नहीं भुगतना पड़ेगा ? मोदी का जैसा तौर-तरीका है, उसके आगे कोई भी भाजपाई मुख्यमंत्री अपने-अपने राज्य के चुनावी-रथ का महारथी नहीं बन सकता। ऐसे हालात विपक्ष के लिए बहुत फायदेमंद हो सकते हैं। इसीलिए उन्हें लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने पर तुरंत राजी हो जाना चाहिए।
लेकिन आज विपक्ष की हालत खस्ता है। विपक्ष के सारे पक्षी अपने-अपने पिंजरे में बंद हैं। सारे पक्षी हैं। उनमें कोई शेर नहीं है, जिसकी दहाड़ सारा देश सुने। इन्हें आपस में जोड़नेवाला कोई सिद्धांत, कोई आदर्श, कोई नीति और कार्यक्रम भी नहीं है। विपक्ष के पास 21 वीं सदी के भारत का कोई विलक्षण सपना भी नहीं है। इसके बावजूद अगर वे एकजुट हो जाते हैं तो वे भाजपा की नय्या आसानी से डुबो सकते हैं, क्योंकि 2014 के चुनाव में भाजपा को कुल 31 प्रतिशत वोट मिले थे, वह भी लहर के कारण, जो अब लौट चुकी है। हमने विपक्ष की एकता का नमूना उप्र में देख लिया। समाजवादी और बहुजन पार्टियों ने मिलकर उप-चुनाव में चारों सीटें जीत लीं, जिनमें से एक मुख्यमंत्री और एक उप-मुख्यमंत्री की थी। यदि सिर्फ उप्र और अन्य हिंदी राज्यों में विरोधी एक हो जाएं तो भाजपा की 50 से 60 सीटें कम हो सकती हैं। यदि कर्नाटक में कांग्रेस और जद (से.) मिलकर लड़तीं तो क्या भाजपा को उतनी सीटें मिलतीं, जितनी मिली हैं ? गुजरात में भी जान बची तो लाखों पाए।
यह तो साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है कि अगले चुनाव में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना अत्यंत कठिन है। इसके अलावा अभी जो पार्टियां उसके साथ गठबंधन में हैं, वे भी अपना नया ठिकाना तलाशने में जुटी हुई हैं। शिव सेना और तेलुगु देसम ने तो तलाक की घोषणा कर रखी है। नीतीश का कुछ भरोसा नहीं। रामविलास पासवान, ओमप्रकाश राजभर और अकाली दल आदि भी 2019 तक भाजपा के साथ रहेंगे या नहीं, कुछ पता नहीं। गठबंधनों में शामिल होनेवाले छोटे-मोटे दल सिर्फ सत्ता-सुख से प्रेरित होते हैं। यदि उन्हें मोदी की कुर्सी हिलती दिखी तो वे विपक्ष के खेमे में अपनी जगह तलाशने में जुट जाएंगे। ऐसी हालत में भाजपा अल्पमत में आ गई तो उसके नेतृत्व का सवाल एकदम प्रखर हो जाएगा। नेतृत्व-परिवर्तन का सवाल उठेगा। यह संभव है कि उस समय भाजपा के नए नेता के साथ कई दल दुबारा एकजुट होना चाहें और वह फिर से सत्तारुढ़ हो सके।
लेकिन भाजपा के अल्पमत में जाते ही विपक्ष का गठबंधन अपनी सरकार बनाने में जी-जान लगा देगा। विपक्ष के सामने उस समय और आज भी सबसे बड़ी समस्या नेतृत्व की है। इसमें शक नहीं कि आज भी कांग्रेस, अपने सर्वाधिक अधःपतन के जमाने में भी एक अखिल भारतीय पार्टी है। देश के लगभग हर जिले में उसके कार्यकर्त्ता मौजूद हैं लेकिन उसके पास कोई नेता नहीं है। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष हैं। उन्होंने अपने आप को अभी से प्रधानमंत्री का उम्मीदवार भी घोषित कर रखा है। यदि वे इसी टेक पर अड़े रहते हैं तो अन्य दल कांग्रेस के साथ संयुक्त मोर्चा नहीं बनाएंगे। कांग्रेस की स्थिति सारे देश में वैसी ही हो सकती है, जैसे उप्र में हुई है। यदि राहुल अपनी मां के नक्शे-कदम पर चले और प्रधानमंत्री पद की इच्छा भी न करे तो देश में एक जानदार दूसरा मोर्चा खड़ा किया जा सकता है। विपक्ष का प्रधानमंत्री कौन होगा, इसका फैसला चुनाव के बाद भी हो सकता है। 1977 में भी यही हुआ था।
दूसरा मोर्चा खड़ा करने में नेतृत्व की यह बाधा दूर हो जाए तो भी कई समस्याएं सामने आ सकती हैं। पं. बंगाल में कांग्रेस, तृणमूल और मार्क्सवादी तथा केरल में कांग्रेस और मार्क्सवादी अपने मतभेदों को कैसे पाटेंगी। दिल्ली में क्या आप और कांग्रेस हाथ मिला लेंगी ? मायावती और अखिलेश तब तक एकजुट रह पाएंगे ? ये दल आपस में सीटों का बंटवारा क्या शांतिपूर्वक कर पाएंगे ? यदि नरेंद्र मोदी ने कुछ चमत्कारी कदम नहीं उठाए तो 2019 में विपक्षी गठबंधन की सरकार बनना सुनिश्चित है लेकिन यह भी सुनिश्चित है कि वह सरकार 1977 की मोरारजी और चरणसिंह की सरकारों की तरह, 1989 की विश्वनाथप्रताप सिंह और चंद्रशेखर की सरकारों की तरह और 1996 में देवेगौड़ा और गुजराल की सरकारों की तरह अल्पजीवी होगी और आपसी खींचतान के कारण उसकी जान हमेशा अधर में लटकी रहेगी। भारतवासियों के लिए आनेवाला समय काफी कांटोभरा है।

बुखारी और दानव अधिकार आयोग
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
कश्मीर के वरिष्ठ पत्रकार शुजात बुखारी की निर्मम हत्या का अर्थ क्या है ? यह हत्या उस समय की गई है जब रमजान का पवित्र त्यौहार चल रहा था। क्या इस हत्या को इस्लामी कहा जा सकता है ? क्या यह इस्लाम का सम्मान है ? या अपमान है ? ईद के मौके पर इतना घृणित पाप उस हत्यारे को कहां ले जाएगा ? दोजख में या बहिश्त में ? कश्मीर तो अपनी ऊंची संस्कृति के लिए जाना जाता है। ईद के मौके पर एक बेगुनाह और एक सच्चे कश्मीरी की हत्या किस बात का सबूत देती है ? क्या इसका नहीं कि आतंकवादियों ने कश्मीरियत की छाती को छलनी कर दिया है। आतंकवादियों ने सिद्ध किया है कि उनमें इंसानियत नाम की कोई चीज़ नहीं हैं और वे हद दर्जे के कायर हैं। शुजात बुखारी कोरे पत्रकार ही नहीं थे। वे कश्मीर की शांति के छोटे-मोटे मसीहा भी थे। वे भारत-पाक संवाद के पक्षधर थे। उनके दिल में किसी के लिए दुश्मनी नहीं थी। उनकी हत्या करके इन मूर्ख आतंकवादियों ने देश के सारे पत्रकार समाज को अपने खिलाफ खड़ा कर लिया है। स्वर्गीय शुजात भाई को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि !
इधर शुजात बुखारी की हत्या होती है और उधर संयुक्तराष्ट्र संघ के मानव अधिकार आयोग की रपट जारी होती है। इस रपट में भारत के खिलाफ जहर उगला गया है। आतंकवादियों को नेता कहा गया है। भारत सरकार पर तरह-तरह के उपदेश झाड़े गए हैं। पाक-अधिकृत कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा बताया गया है। कश्मीर गए बिना ही अपने दफ्तर में बैठकर इस आयोग ने 49 पृष्ठ घसीट डाले हैं। भारत से कहा गया है कि वह कश्मीर में आत्म-निर्णय करवाए। जनमत संग्रह ! आयोग के अध्यक्ष जायद राद अल-हुसैन ने आतंकवादी गिरोहों को ‘सशस्त्र समूह’ कहा है। उन्हें वे ‘आतंकवादी’ नहीं बोल रहे हैं, जैसे गांव की हिंदू पत्नियां अपने पति का सही नाम बोलने से घबराती हैं। जायद हुसैन को शुजात बुखारी, अन्य निर्दोष नागरिकों और सेना के जवानों की होनेवाली नित्य हत्याएं बिल्कुल दिखाई नहीं पड़ीं। इस रपट की भारत सरकार ने भर्त्सना की। ठीक किया। इसे कूड़े की टोकरी के हवाले करना चाहिए और जायद हुसैन को मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष पद से बर्खास्त करने की मुहिम चलानी चाहिए। संयुक्त राष्ट्रसंघ से हमें पूछना चाहिए कि यह मानव अधिकार आयोग है या दानव अधिकार आयोग ?

अमेरिका में प्रवासी भारतीय संकट में
प्रमोद भार्गव
अमेरिकी नागरिक बन जाने की प्रबल इच्छा रखने वाले भारतियों के लिए बुरी खबर सामने आई है। यहां ग्रीन कार्ड प्राप्त करने वालों की सूची इतनी लंबी हो गई है कि कई लोगों को 92 साल तक इंतजार करना पड़ सकता है। इतनी लंबी प्रतिक्षा वहीं कर सकते हैं, जिन्हें भगवान ने सवा सौ साल से भी ज्यादा की उम्र दी हो ? गोया न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी कहावत वरितार्थ होने जा रही है। अमेरिकी ग्रीन कार्ड पाने की लालसा में जिन गैर-अमेरिकीयों ने अर्जियां लगाई हुई हैं, उनकी संख्या 3,95,025 है। इनमें से अकेले भारतीयों के आवेदनों की संख्या 3,06,601 है। मसलन अमेरिका में ग्रीन-कार्ड हासिल कर वहां के मूल-निवासी बन जाने की अभिलाषा रखने वाले भारतीयों की संख्या तीन-चौथाई है। जबकि अमेरिकी कानून के हिसाब से किसी एक देश को कुल जारी किए जाने वाले ग्रीन-कार्ड का 7 प्रतिशत से ज्यादा देने का प्रावधान ही नहीं है। चुनांचे इस कोटे के चलते सबसे ज्यादा असर भारतीयों पर पड़ रहा है, क्योंकि सबसे लंबी सूची उन्हीं की है। नतीजतन उन्हें भविष्य में अपने बोरिया-बिस्तर समेटकर भारत आना ही होगा। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ’अमेरिकी-प्रथम’ की जो धारणा बनाई हुई है, उसके चलते यह गुंजाइश भी न्यूनतम है कि उनके चलते कोटे में कोई बढ़ोतरी की जाएगी ?
अमेरिका में बसने की इच्छा रखने वालों में दूसरे पायदान पर चीनी नागरिक हैं। इनकी संख्या 67,031 है। इसके बाद अल-साल्वाडोर, ग्वाटेमाला, होंडुरास, फिलीपींस, मेक्सिको और वियतनाम के प्रवासी हैं। किंतु इनमें से किसी भी देश के आवेदकों की संख्या 10,000 से अधिक नहीं है। गोया, जो देश अवसरों और उपलब्धियों से भरा देश माना जाता रहा है, उसमें विदेशी प्रवासियों के लिए रास्ते बंद हो रहे हैं। यही नहीं, इसी जून माह में अमेरिका उन लाखों भारतीय महिलाओं को भी नमस्ते कर सकता है, जिनके जीवनसाथी वहां पहले से ही नौकरियों में हैं। दरअसल ट्रंप-प्रशासन एच-1 बी वीजा के उस प्रावधान को रद्द कर सकता है, जिसके तहत पति व पत्नी दोनों अमेरिका में रहकर नौकरी कर सकते थे। अमेरिकी नागरिकों को नौकरी देने के लिहाज से ऐसा किया जा रहा है। बराक ओबामा सरकार ने ऐसी प्रतिभावन पत्नियों को काम करने की अनुमति एच-1 बीजा के तहत दी हुई थी, जो कंपनियों की योजनाओं को अमल में लाने में सक्षम थीं। इस कारण वहां अनेक उच्च शिक्षित भारतीय गृहणियों को नौकरियां मिली हुई हैं। कंपनियां भी उनके कामकाज से खुश हैं। जैव-रसायन और तकनीकी विषयों से जुड़ी अनेक महिलाएं वहां के विश्व-विद्यालयों और दवा-कंपनियों के लिए मौलिक शोध-कार्यों से भी जुड़ी है।
उन्हें यह सुविधा ’स्पेशल वर्क परमिट’ के जरिए मिली हुई है। अलबत्ता अब अमेरिकी-प्रशासन ने इन्हें अपने देश लौट जाने का निर्देश भी दे दिया है। यदि प्रावधान में संशोधन सरकार नहीं करती है तो इसी माह 30 जून को इन्हें नौकरियों से बेदखल कर दिया जाएगा। हालांकि अमेरिकी कंपनियां ट्रंप की इन इकतरफा नीतियों से प्रसन्न नहीं है। उन्होंने अमेरिकी संसद (सीनेट) के जरिए विरोध भी जताया है। यहां के पेशेवर ट्रंप की इस पहल को आत्मघाती तक बता रहे हैं। जल्दबाजी में अमल में लाई जा रही इन नीतियों में अनेक कमियां हैं, जिनका स्थानीय स्तर पर विरोध भी हो रहा है। भारतीय मूल के अमेरिकी आईटी रोजगारधारकों ने पिछले दिनों न्यूजर्सी और पेंसिल्वेनिया में प्रदर्शन कर ग्रीन कार्ड बैकलॉग खत्म करने की मांग की है। ट्रंप के फैसलों को अतार्किक बताते हुए दावा किया जा रहा है कि इससे ऐसे लाखों लोग प्रभावित होने जा रहे हैं, जो कई वर्षों से वहां हैं और जल्दी ही समय-सीमा के दायरे में आकर उनका एच-4 वीजा समाप्त होने वाला है।
यदि वाकई ऐसा होता है तो आज अमेरिका में जो विदेशी प्रवासियों के बच्चे हैं, उनकी उम्र 21 साल पूरी होते ही, उनकी रहने की वैधता खत्म हो जाएगी। उनकी स्थिति आकाश में उड़े, खजूर में अटके जैसी हो जाएगी। दरअसल एच-1 बी वीजा वाले नौकरीपेशाओं के पत्नी और बच्चों के लिए एच-4 वीजा जारी किया जाता है, लेकिन बच्चों की 21 साल उम्र पूरी होने के साथ ही इसकी वैधता खत्म हो जाती है। इन्हें जीवन-यापन के लिए दूसरे विकल्प तलाशने होते हैं। ऐसे में ग्रीन-कार्ड प्राप्त कर अमेरिका के स्थायी रूप में मूल-निवासी बनने की संभावनाएं शून्य हो जाती हैं। दरअसल, अमेरिका में प्रावधान है कि यदि प्रवासियों के बच्चे 21 वर्ष की उम्र पूरी कर लेते हैं और उनके माता-पिता को ग्रीन-कार्ड नहीं मिलता है तो वे कानूनन स्थाई रूप से अमेरिका में रहने की पात्रता खो देते हैं। इसी कारण वहां नियमों में बदलाव की मांग जोर पकड़ रही है। भारतीय प्रतिभाओं का लोहा मानते हुए सांसद और कंपनियां भी उनके समर्थन में आगे आई हैं।
अमेरिका में प्रवासी भारतीयों की संख्या 1,47,500 है। जो वहां के विदेशी-प्रवासियों का कुल 5.5 प्रतिशत हैं। भारत के बाद अमेरिका में चीन के 1,31,800 मैक्सिकों के 1,30,000 और कनाडा के 41,200 लोग रहते हैं। अमेरिका की कुल जनसंख्या 31.50 करोड़ है, इस आबादी की तुलना में उसका भू-क्षेत्र बहुत बड़ा, यानी 98,33,520 वर्ग किमी है। इतने बड़े भू-लोक के मालिक अमेरिका के साथ विडंबना यह भी रही है कि 15वीं शताब्दी तक उसकी कोई स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पहचान ही नहीं थी। दुनिया केवल एशिया, यूरोप और अफ्रीका महाद्वीपों से ही परिचित थी। 1492 में नई दूनिया की खोज में निकले क्रिस्टोफर कोलंबस ने अमेरिका की खोज की। हालांकि कोलंबस अमेरिका की बजाय भारत की खोज में निकला था। लेकिन रास्ता भटककर वह अमेरिका पहुंच गया। वहां के लोगों को उसने ’रेड इंडियन’ कहकर पुकारा। क्योंकि ये तांबई रंग के थे और प्राचीन भारतीयों से इनकी नस्ल मेल खाती थी। हालांकि इस क्षेत्र में आने के बाद कोलंबस जाना गया था कि वह भारत की बजाय कहीं और पहुंच गया है। बावजूद उसका इस दुर्लभ क्षेत्र में आगमन इतिहास व भूगोल के लिए एक क्रांतिकारी पहल थी। कालांतर में यहां अनेक औपनिवेशिक शक्तियों ने अतिक्रमण किया। 17वीं शताब्दी में आस्ट्रेलिया और अन्य प्रशांत महासागरीय द्वीप समूहों की खोज कप्तान जेम्स कुक ने की। जेम्स यहां अनेक प्रवासियों की बस्तियों को आबाद किया।
इसी क्रम में 1607 में अंगेजों ने वर्जीनियां में अपनी बस्तियां बसाईं। इसके बाद फ्रांस, स्पेन और नीदरलैंड ने उपनिवेश बनाए। 1733 तक यहां 13 बस्तियां अस्तित्व में आ गईं। इन सब पर ब्रिटेन का प्रभुत्व कायम हो गया। 1775 में ब्रिटेन के विरुद्ध युद्ध छिड़ गया। 4 जुलाई 1776 में जॉर्ज वाश्गिटंन के नेतृत्व में अमेरिकी जनता ने विजय प्राप्त कर ली और संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन कर स्वतंत्र और शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में वह अस्तित्व में आ गया। इसीलिए कहा जाता है कि अमेरिका के इतिहास व अस्त्तिव में दुनिया के प्रवासियों का बड़ा योगदान रहा है। साथ ही यहां एक बड़ा प्रश्न यह भी खड़ा हुआ कि अमेरिका महाद्वीप के जो रेड इंडियन नस्ल के मूल निवासी थे, वे हाशिये पर चले गए। गोया, मूल अमेरिकी तो वंचित रह गए, अलबत्ता विदेशी-प्रवासी प्रतिभावन किंतु चालाक अमेरिका के मालिक बन बैठे। इस विरोधाभास का मूल्याकंन करके ही ट्रंप चिंतित हैं कि आईटी टेक्नोक्रेट के बहाने जो आईटी प्रोफेशनल्स अमेरिकी संस्थाओं व कंपनियों पर प्रभावी होते जा रहे हैं, वे मूल-अमेरिकियों के लिए अमेरिकी संस्थाओं में बेदखली और बेरोजगारी का कारण भी बन रहे हैं। इसी लिहाज में ट्रंप अमेरिका-फर्स्ट की नीति को महत्व दे रहे हैं।
इस दृष्टिकोण से यदि वर्तमान संयुक्त राज्य अमेरिका का नृजातीय रूप में मूल्याकंन करें तो पता चलता है कि यहां मूल अमेरिकियों, मसलन रेड इंडियनों की आबादी महज 2.7 प्रतिशत ही रह गई है, शेष 97.7 फीसदी भूमि पर यूरोप, अफ्रीका और एशिया से आ बसे लोगों का कब्जा है। 2008 में अमेरिका में हुई जनगणना के आधार पर यहां की कुल आबादी 30.50 करोड़ है। इसमें से महज नवाजो और चरूकी जनजातिय लोगों की संख्या सबसे ज्यादा है। इनमें अधिकांश लोग अब अपनी संस्कृति से कट गए हैं। ज्यादातर ने आधुनिक अमेरिकी संस्कृति को अपना लिया है। लेकिन नस्लीय भेदभाव के चलते अमेरीकी समाज इन्हें दोयाम दृष्टि से देखता है। इस कारण ये आधुनिक सुविधाओं से उसी तरह से लगभग वंचित व उपेक्षित हैं, जिस तरह से भारत में आदिवासी समाज है। अभावग्रस्त यही लोग बेरोजगारी का दंश झेल रहे हैं। गरीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वालों के लिए जिस तरह से भारत-सरकार कल्याणकारी योजनाएं चला रही है, ठीक उसी तर्ज पर अमेरिका में अलग मंत्रालय खोलकर इनके कल्याण के लिए पहल की जा रही है। अमेरिका में कुल आबादी में से 13.66 फीसदी लोग गरीबी-रेखा के नीचे रहने को विवश हैं। इन्हीं लोगों में सर्वाधिक बेरोजगारी है। राष्ट्रपति ट्रंप शायद ऐसे ही लोगों की बेरोजगारी दूर करने के लिए वीजा संबंधी नियमों को कठोर बना रहे हैं, जिससे गैर-अमेरिकियों के लिए रोजगार के रास्ते बंद हो जाएं और स्थानीय लोगों के लिए खुल जाएं। लेकिन आज अमेरिका जिस विकास और समृद्धि को प्राप्त कर पूंजीपति व शक्ति-संपन्न राष्ट्र बना दुनिया पर अपना प्रभुत्व जमाए बैठा है, उसकी पृष्ठभूमि में दुनिया के प्रवासियों का ही प्रमुख योगदान रहा है। लिहाजा ट्रंप के प्रवासी भारतीयों समेत अन्य प्रवासियों को अमेरिका में ही बसाए रखने के नीति और उपाय बदस्तूर रखने चाहिए।

सरकार में ताजा हवा का झोंका
डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में अब 10 संयुक्त सचिव नियुक्त किए जाएंगे, जो कि बाहर से लिये जाएंगे। वैसे संयुक्त सचिव के ऊंचे पद तक वे ही सरकारी अफसर पदोन्नति के जरिए पहुंच पाते हैं, जो पहले से सरकारी नौकरियों में होते हैं। इस नई पहल का विरोध कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी की तरफ से यह कहकर हो रहा है कि अब भाजपा की इस तिकड़म के कारण संघियों को सरकार में पिछले दरवाजे से घुसाया जाएगा या फिर उन बड़ी-बड़ी कंपनियों के अधिकारियों को उपकृत किया जाएगा, जिनकी मोदी सरकार से सांठ-गांठ है। इस तरह के आरोप शुद्ध राजनीति से प्रेरित हैं, यह कहने की जरुरत नहीं है। इस तरह के आरोप लगानेवालों को क्या याद नहीं है कि इस पहल की शुरुआत सबसे पहले कांग्रेस सरकारों ने ही की थी। 1993 में रुसी मोदी को एयर इंडिया का मुखिया नियुक्त किया गया था। 1992 में आर.डी. साही को पॉवर सेक्रेटरी बनाया गया था। नंदन नीलकणी को ‘आधार’ योजना का प्रमुख किसने बनाया था ? क्या ये लोग आईएएस अफसर थे ? ये बाहर के लोग ही थे। इसी प्रकार गुजरात आयुर्वेद विवि के उप-कुलपति को मोदी सरकार ने आयुष सचिव नियुक्त किया था। इसके अलावा नीति आयोग के बाहर से लाए गए अफसरों ने काफी सराहनीय काम कर दिखाया है। यह एक नया प्रयोग है। जो प्रतिभाशाली लोग सरकार के बाहर हैं, यदि उन्हें तीन या पांच साल के अनुबंध पर लिया जाता है, वे या तो असाधारण काम करके दिखाएंगे या अपने आप बाहर हो जाएंगे। मेरी राय में तो सारी सरकारी सेनाएं पांच और दस साल के अनुबंध पर कर दी जानी चाहिए। इससे अफसरों की जवाबदेही बढ़ेगी और भ्रष्टाचार में भी कमी आएगी। विरोधियों का यह संदेह स्वाभाविक है कि इन बाहरी लोगों को भरते वक्त पक्षपात होगा लेकिन केबिनेट सेक्रेटरी की अध्यक्षता में बननेवाली चयन समिति क्या आंख मींचकर नियुक्तियां करेगी ? क्या उसे अपनी इज्जत का ख्याल नहीं होगा ? यदि कोई व्यक्ति संघी विचारधारा का है और योग्य है तो उसे आप सरकारी नौकरी से कैसे रोकेंगे ? उसे रोकना असंवैधानिक तो है ही, अनैतिक भी है। वह व्यक्ति समाजवादी या कम्युनिस्ट या कांग्रेस विचारधारा का ही क्यों न हो, यदि वह योग्य है तो आप उस पर उंगली नहीं उठा सकते।

सुनहरे इतिहास को रचती ट्रंप और किम की मुलाकात
डॉ हिदायत अहमद खान
किसी ने सोचा भी नहीं होगा कि कल तक जो एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते थे वो चंद मिनटों की मुलाकात के बाद ही ‘याराना’ की डींगें हांकते नजर आएंगे। अमेरिका और उत्तर कोरिया के प्रमुख नेताओं के मिल-मिलाप के संबंध में यही कहा जा सकता है। दरअसल एक तरफ उत्तर कोरिया है जो लगातार परमाणु परीक्षण कर अमेरिका को चुनौती देता और हमले करने की धमकी देने से भी पीछे नहीं हटता था। वहीं दूसरी तरफ अमेरिका है जिसने उत्तर कोरिया को सबक सिखाने की मानों कसम खा रखी थी। इस कारण वह जापान और दक्षिण कोरिया को हर संभव मदद देने और उत्तर कोरिया पर पाबंदियां लगाकर सबक सिखाने के प्रयास में व्यस्त दिखता रहा। अब ट्रंप और किम दो बिछड़े दोस्तों की तरह कुछ ऐसे मिले हैं मानों पहले कभी कोई शिकवा-शिकायत था ही नहीं। यहां अंदेशा इस बात को लेकर अभी भी बरकरार है कि ट्रंप पर कितना भरोसा किया जाए, क्योंकि परमाणु अप्रसार संधी को लेकर जब ट्रंप ईरान से समझौता तोड़ सकते हैं तो ऐसे में उत्तर कोरिया को उसी डगर पर चलते हुए किन शर्तों के आधार पर विश्वास करना चाहिए। विचार करें कि अभी उत्तर कोरिया तो शुरुआती दौर पर है, जबकि ईरान तमाम कठिनाइयों से उबरते हुए अपने आपको साबित करने में सफलता हासिल कर चुका है। बहरहाल दुनिया के इतिहासकारों को ट्रंप और किम की यह मुलाकात 1972 के उस दौर की याद ताजा कराती है जिसमें कि अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और चीन के सर्वोच्च नेता माओत्सेतुंग मिले थे। इन दोनों मुलाक़ातों में समानताएं तलाशने वाले कहते हैं कि उत्तर कोरिया की तरह उस वक्त चीन भी सांस्कृतिक क्रांति की उथल-पुथल के कारण पूरी दुनिया से अलग-थलग पड़ गया था। तब चीन के अमेरिका से औपचारिक संबंध भी शेष नहीं रह गए थे। ठीक वैसे ही जैसे कि वर्तमान में उत्तर कोरिया के परमाणु परीक्षणों के कारण अमेरिका समेत अन्य देशों से उसके संपर्क टूट चुके थे। अनिश्चितता के इस दौर में उत्तर कोरिया के प्रमुख नेता किम जोंग उन ने अचानक अपनी नीति में भारी बदलाव करते हुए तमाम देशों से मिलने और दोस्ताना ताल्लुकात बढ़ाने की दिशा में न सिर्फ विचार किया बल्कि ठोस कदम भी आगे की ओर बढ़ाए। यहां तक कि पड़ोसी दुश्मन मुल्क कहे जाने वाले दक्षिण कोरिया को भी किम ने गले लगाने में सेकंड की देरी नहीं की। इसे देखकर दुनिया ने किम की तारीफ की और शांति और सहअस्तित्व की खातिर उससे संबंध बनाने पर भी जोर दिया। इसके बाद जब बात अमेरिका की आई तो किम ने देशवासियों को समझाया और बताया कि उन्हें अमेरिका के साथ शांतिपूर्वक रहने की ज़रूरत है। यह कथन बताता है कि समय भले बदल गया हो लेकिन हालात वैसे ही हैं जैसे कि इतिहास के पन्नों में दर्ज है। मानों इतिहास अपने आपको दोहरा रहा है, फर्क बस यही है कि यहां चीन की जगह उत्तर कोरिया के प्रमुख नेता किम और अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप हैं। तब चीन की सरकार ने अपने लोगों को समझाने की कोशिश की थी कि तृतीय विश्व की क्रांति में अमेरिकियों का साथ जरुरी है और अब किम अपने लोगों को समझा रहे हैं कि शांति के लिए अमेरिका से संबंध जरुरी है। बहरहाल दुनिया ने देखा कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उत्तर कोरिया के प्रमुख नेता किम जोंग उन जब पहली बार सिंगापुर के सेंटोसा द्वीप में ऐतिहासिक वार्ता के लिए मिले, तो मानों शांति का शंखनाद हो गया। इस संबंध में इतिहास की एक और इबारत पर नजर दौड़ाई जाए जिसमें लिखा है कि वर्ष 1950 से 53 के बीच हुए कोरियाई युद्ध के बाद से अमेरिका और उत्तर कोरिया के नेता कभी मिले ही नहीं। यहां तक कि दोनों में बातचीत तक पूरी तरह बंद रही, फिर यह मुलाकात सवालों को जन्म तो देती ही देती है। इसलिए जो सामने दिख रहा है या दिखाने की कोशिश की जा रही है उसके उलट पर्दे के पीछे बहुत कुछ चल रहा है। अब वही तय करेगा कि इस मुलाकात के लिए कौन जिम्मेदार रहा है और आने वाले समय में कौन किस पर भारी पड़ने वाला है, क्योंकि इसके बगैर सुनहरा इतिहास रचने वाली प्रतीत होती यह मुलाकात अधूरी ही है।