नई दिल्ली, अयोध्या के राम जन्मभूमि- बाबरी मस्जिद जमीन विवाद के मामले में सुप्रीम कोर्ट में मुस्लिम पक्षकार की ओर से वकील राजीव धवन ने कि पूजा के लिए की जाने वाली भगवान की परिक्रमा सबूत नहीं हो सकती। उन्होंने कहा कि क्योंकि वहां की शिला पर एक मोर या कमल था, इसका मतलब यह नहीं है कि मस्जिद से पहले एक विशाल संरचना थी।
धवन ने कहा कि भूमि विवाद का निपटारा कानून के हिसाब से हो, न कि स्कन्द पुराण और वेद के जरिए। अयोध्या में लोगों की आस्था हो सकती है, लेकिन यह सबूत नहीं। मुस्लिम पक्षकार के वकील धवन ने कहा कि स्वयंभू का मतलब भगवान का प्रकट होना होता है, इसको किसी खास जगह से नहीं जोड़ा जा सकता। हम स्वयंभू और परिक्रमा के दस्तावेजों पर भरोसा नहीं कर सकते।
धवन ने पुराने मुकदमों और फैसलों के हवाले से कहा, देवता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं, सिर्फ सेवायत का ही होता है। ब्रिटिश राज में प्रिवी काउंसिल के आदेश का हवाला देते हुए धवन ने अपनी बात रखी। उन्होंने कहा कि सन 1950 में सूट दाखिल हुआ और निर्मोही अखाड़े ने 1959 में दावा किया। घटना के 40 साल बाद इन्होंने दावा किया। ये कैसी सेवायत है? श्रद्धालुओं ने भी पूजा के अधिकार का दावा किया। देवता के कानूनी व्यक्ति या पक्षकार होने पर धवन ने कहा कि देवता का कोई ज़रूरी/आवश्यक पक्षकार नहीं रहा है। यहां तो देवता और सेवायत ही आमने-सामने हैं। देवता के लिए अनुच्छेद 32 के तहत कोर्ट में दावा नहीं किया जा सकता।
धवन ने कहा कि इस मामले में इतिहास और इतिहासकारों पर भरोसा नहीं कर सकते। जिस पर जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि आपने भी तो इतिहास के सबूत रखे हैं? उसका क्या?
धवन ने दलील दी कि वैदिक काल में मन्दिर बनाने और वहीं मूर्तिपूजा करने की कोई परम्परा ही नहीं थी। कोई मन्दिर या स्थान ज्यूरिस्टक पर्सन, यानी कानूनी व्यक्ति हो ही नहीं सकता। हां, देवता या मूर्ति कानूनी व्यक्ति यानी ज्यूरिस्टिक पर्सन तो हो सकते हैं, पर मुकदमा नहीं लड़ सकते।
धवन ने कहा कि महाभारत तो इतिहास की कथा है, लेकिन रामायण तो काव्य है। क्योंकि वाल्मीकि ने खुद इसे काव्य और कल्पना से लिखा है। रामायण तो राम और उनके भाइयों की कहानी है। तुलसीदास ने भी मस्जिद के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है जबकि उन्होंने राम के बारे में सबसे बाद में लिखा।